विष्णु खरे
हाइ कोर्ट ने फैसला दे दिया है कि तेरह वर्ष पहले हुए कार कुचलन-और-पलायन काण्ड के लिए, जिसमें फ़ुटपाथ पर सोया एक मुसलमान मारा गया था, हीरो-भाई सलमान खान मुजरिम नहीं है, लिहाज़ा उसे अपील में बेदाग़ छोड़ा जा रहा है. अभी सात-आठ महीने पहले ही निचली अदालत ने उसे दोषी मानकर पाँच साल की सज़ा दी थी. यह कम बड़ी बात नहीं कि जिस केस को लोअर कोर्ट में तेरह साल लग गए उसे कम-से-कम एक ऊँची अदालत ने कुछ ही महीनों में इतने दोटूक निपटा तो दिया. इसके लिए अँगरेज़ी में मुहावरा चलता है कि ‘’वन शुड बि थैंकफ़ुल फ़ॉर स्मॉल मर्सीज़’’ – ‘छोटी रहमतों के लिए (भी) एहसानमंद होना चाहिए’. देखिए न, अभी कुछ महीने पहले पूर्व-ड्रीमगर्ल-वर्तमान-भाजपा-सांसदा की गाड़ी की टक्कर में जो एक शिशु-मृत्यु हुई थी उसको लेकर तो कोई कुत्ता भी नहीं रोता.
लेकिन जो सोशल मीडिया है वह कुछ कम कुत्ती चीज़ नहीं है. इधर फ़ैसला आया नहीं कि उधर ‘ट्विटर’ पर वैसी ‘’टूं-टूं टें-टें’’ होने लगी जो सलमान और अदालत के कानों के लिए ‘’काँव-काँव भौं-भौं’’ की तरह रही होगी. ऐसा लगता है कि इस तरह के सोशल मीडिया पर जो हज़ारों शिक्षित अंग्रेज़ीदाँ सक्रिय हैं वह इस फ़ैसले को लेकर (कुछ गवाहों की तरह) ’होस्टाइल’ हैं. शायद वह सलमान और इस अदालत से कोई बुग्ज़ रखते हों. उन्होंने एक बार फिर पूरे मुक़दमे, सलमान और जुडीशरी का भरपूर मज़ाक़ उड़ाया है. पूरा फैसला तो अभी बाज़ार में आया नहीं है लेकिन सारी ट्विटर-टिप्पणियों को एकतरफ़ा ख़ारिज़ नहीं किया जा सकता. उनके मखौल में ख़ासा मग्ज़ भी है.
ट्विटर-टुटपुन्जियों को भले ही नज़रंदाज़ कर दिया जाए, प्रसिद्ध पूर्व-क्रिकेटर और दरभंगा से वर्तमान भाजपाई लोकसभा सदस्य कीर्ति आज़ाद को कैसे दुर्लक्ष्य किया जा सकेगा? संसद में एक अलग बहस के दौरान उन्होंने एक सिक्सर लगाते हुए पूछा कि अगर सलमान भाई की कार को कोई इंसान चला ही नहीं रहा था तो क्या कोई हिरन चला रहा था? अदालतों में अजीब मामले आ रहे हैं कि हिरन मारनेवाले को सज़ा हो जाती है, इंसान कुचलने वाला छूट जाता है. जज की निंदा नहीं हो रही है. फैसलों की बात हो रही है. एक ग़रीब आदमी मर गया. कोई उसका ज़िक्र ही नहीं कर रहा है.
कीर्ति आज़ाद एक और बड़ी बात कह गए. बोले कि यदि आप कानून जानते हैं तो आप बढ़िया वकील कहे जाते हैं. लेकिन अगर आप जज को जानते हैं तो महान एडवोकेट माने जाते हैं.यहाँ आकर क्रिकेटर-सांसद ने एक ग़लत शॉट लगा ही दिया. सुझाव दे डाला कि आइएएस आइपीएस की तर्ज़ पर एक इंडियन जुडिशल सर्विस भी होनी चाहिए. लेकिन स्टेट जुडिशल सर्विस तो पहले से ही है, जिसके बारे में ऊँचे जजों का कहना है कि उनमें चालीस फ़ीसद ‘देअर ऑनर’ भ्रष्ट हैं. तब तार्किक रूप से यह असंभव है कि उच्चतर अदालतों में भी कुछ भ्रष्ट ‘देअर ऑनर’ न हों. और जजों को छोड़िए. सारी अदालतों का जो पूरा प्रशासन-तंत्र है वह सड़ांध से बजबजा रहा है. किसी भी मुवक्किल, फ़रीक या वकील से पूछ लीजिए. वह या तो रो देगा या असंसदीय गालियों की शरण लेगा. और क्या आइएएस आइपीएस आदि स्वनामधन्य केन्द्रीय मिलीभगत सेवा बिरादरी के अधिकांश सदस्य इस देश और जनता की दुर्दशा के लिए हर रंगत के नेताओं से नैतिक और आपराधिक रूप से कम ज़िम्मेदार हैं ? देख नहीं रहे हैं इनकी अट्टालिकाओं से कितने करोड़ नियमित रूप से बरामद हो रहे हैं ? इनकी महिला सदस्य भी कितनी करप्ट हो चुकी हैं ?
जिस तरह चुरहट लाटरी काण्ड ने बरसों चलने के बाद अर्जुन सिंह को जिता कर ही दम तोड़ा, उसी तरह सलमान काण्ड तेरह बरस बाद एक अंतरिम मंज़िल पर आया है. वर्तमान प्रधानमन्त्री का एक अन्तरंग चुनाव-पूर्व सैल्फ़ी है जिसमें वह सलमान और उनके वालिद सलीम साहिब के दौलतखाने पर दोनों बाप-बेटों से हाथ मिलाते दिखाए जाते हैं. अक्लमंदाराँ इशारा नेक अस्त. हमें पता नहीं कि युवा महाराष्ट्र सरकार और तज्रिबेकार मुंबई पुलिस सुप्रीम कोर्ट जाने का फैसला ले पाती है या नहीं और वहाँ संजीदगी से लड़ती है या नहीं. सही-ग़लत का फ़ैसला यदि आगे हुआ तो दिल्ली के भगवानदास रोड – तिलक मार्ग पर ही होगा.
सरकार और सलमान परिवार – दोनों के पास पूँजी की कमी नहीं. अभी सुनने में आया है कि सलमान खान को किसी नई फिल्म का मुआवज़ा 75 या 85 करोड़ रूपए दिया जाएगा. अगर ऐसे अक्ल के अंधे और गाँठ के पूरे ‘’इंडस्ट्री’’ और मुल्क में हैं तो इसमें किसी का भी क्या कुसूर है ? फिर सलीम खान ने बतलाया ही है कि इस केस में अब तक साहिबज़ादे के 25 करोड़ निकल चुके हैं, ख़ुदा-न-ख्वास्ता अगर दिल्ली तक जाना पड़ा तो और चार-पाँच करोड़ मामूली रक़म हैं.
हाइ कोर्ट का फ़ैसला आते ही ‘’इंडस्ट्री’’ ने भाई के आस्ताने की ख़ूब ज़ियारत की. उनके करोड़ों मुरीदों को ‘मुजरिम’ या ‘बेदाग़’ की कोई चिंता नहीं. ट्विटर, पार्लियामेंट, जुडीशिअरी, बुद्धिजीवी, मीडिया, अपील वगैरह से क्या होता है ? संसद और विधानसभाओं में कुल मिलाकर एकाध हज़ार से कम मुल्ज़िम तो क्या होंगे ? हत्याओं के आरोपी कहाँ-से-कहाँ पहुँच जाते हैं. बस,भाई की 5-6 अरब कमाई की कमीज़- और दिमाग़रहित फ़िल्में आती रहनी चाहिए.
इस देश की सारी न्यायपालिका हमेशा मायूस नहीं करती. कभी सायास कभी डिफ़ॉल्ट से, उसके सही फ़ैसले आ ही जाते हैं. हालाँकि आपके लिए सही फैसला सिर्फ वही होता है जो आपके मन भाए. लाखों लोगों को हाइकोर्ट का यह फ़ैसला आपत्तिजनक या ‘पर्वर्स’ लगा होगा. हर फैसले को अंततः ‘’मानना’’ पड़ता है – कोई भी अदालत आपको उसके किसी भी निर्णय से अंशतः या पूर्णतः ‘सहमत’ होने पर बाध्य नहीं कर सकती. ’’मनुस्मृति’’ और उसके पहले और बाद में संसार भर में हज़ारों फैसलों को नहीं माना गया है, खुद उन्हें देने वाले मुजरिम ठहराए गए हैं, उन पर जिरह जारी है. शम्बूक और एकलव्य को लेकर आज भी राम और द्रोणाचार्य कठघरे में हैं. सलमान आरोप या अपराध से छूटते चले जाएँ, खुशकिस्मती उनकी, लेकिन एक अदालत हमेशा इसीलिए इजलास में है कि वह उससे कभी बाइज़्ज़त या बेइज़्ज़त बरी न हो पाएँ.
___________________(विष्णु खरे का कॉलम. नवभारत टाइम्स मुंबई में आज प्रकाशित, संपादक और लेखक के प्रति आभार के साथ.अविकल )
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