(2)
याद आता है, नवें दशक में जब मैं हिंदुस्तान टाइम्स की पत्रिका ‘नंदन’ में आया, तो ‘नवभारत टाइम्स’ में विष्णु जी से मिलने गया. और जब मैंने ‘पहचान’ सीरीज की उनकी कविताओं और मन पर पड़े प्रभाव की चर्चा की, तो वे किंचित अवाक् और विस्मित से हुए थे. बहुत देर तक बात चली, कोई डेढ़-दो घंटे. ऐसी तन्मयतापूर्ण बातचीत, जिसमें आपको समय का कुछ होश नहीं रहता. और फिर उन्होंने बड़ी सहृदयता से एस.पी. सिंह, मधुसूदन आनंद समेत अपने कई संपादकीय सहकर्मियों से मुझे मिलवाया था.
वह एक विरल और हमेशा याद रहने वाली आत्मीय मुलाकात थी. मैं उन्हें सत्यार्थी जी पर एक संस्मरणात्मक लेख देकर आया था, जिसे उन्होंने ‘नवभारत टाइम्स’ में बड़ी प्रमुखता से छापा था. फिर ऐसी ही तीन-चार और खुली, अंतरंग मुलाकातें, जिनकी सुवास अब भी मन में है.
कुछ समय बाद विष्णु खरे ‘नवभारत टाइम्स’ के कार्यकारी संपादक नियुक्त हुए और उन्होंने अखबार को अपने व्यक्तित्व के अनुरूप साहसी कलेवर और एक नई चमक दी. इस दौर में उनसे मिलना तो नहीं हुआ पर मैं बड़ी रुचि से अखबार देखता था, जिसके हर पन्ने पर विष्णु जी के सुरुचिपूर्ण संपादन की छाप थी और यह मुझे अच्छा लगता था.
लेकिन फिर विद्यानिवास मिश्र ‘नवभारत टाइम्स’ के संपादक नियुक्त हुए, तो बहुत कुछ एक साथ बदला. पता चला, विष्णु खरे ‘नवभारत टाइम्स’ के जयपुर संस्करण के स्थानीय संपादक होकर, वहाँ चले गए हैं. फिर कुछ दिनों बाद पता चला कि परिस्थितियाँ इतनी जटिल होती गईं कि अपने वैचारिक मतभेदों के चलते विष्णु जी को ‘नवभारत टाइम्स’ छोड़कर बाहर आना पड़ा. हा, हंत…! मेरे मुँह से निकला. एक कराह की तरह.
उन्हीं दिनों पत्रकारिता की दुनिया पर लिखा गया मेरा उपन्यास ‘यह जो दिल्ली है’ आया था, जिसका नायक सत्यकाम तमाम उम्र लड़ाइयाँ ही लड़ता रहा. इससे, उससे और किस-किस से नहीं. वह टूट भले ही गया हो, पर झुका नहीं. विष्णु जी के बारे में पढ़ा, सुना तो लगा, वे भी तो एक सत्यकाम ही हैं. मैं उन्हें ‘यह जो दिल्ली है’ उपन्यास भेंट करने पहुँचा और उनसे देर तक मैं पत्रकारिता जगत की उन विस्थितियों की कथा सुनता रहा, जो विष्णु खरे सरीखे बड़े लेखक, कवि, चिंतक और संपादक को भी बर्दाश्त नहीं कर पाती.
मैं चलने लगा तो उन्होंने अपना कविता संग्रह ‘खुद अपनी आँख से’ तथा आलोचनात्मक लेखों की पुस्तक ‘आलोचना की पहली किताब’ समेत कुछ पुस्तकें मुझे भेंट कीं. ‘यह चाकू समय’ (अत्तिला योझेफ) और ‘हम सपने देखते हैं’ (मिक्लोश राद्नोती) सरीखे अनुवाद भी. मेरे लिए ये पुस्तकें किसी दुर्लभ उपहार से कम न थीं, और विष्णु जी को फिर से और नए सिरे से जानने की उत्सुकता मन में जाग गई थी.
विष्णु जी ने बड़ी रुचि से मेरा उपन्यास ‘यह जो दिल्ली है’ पढ़ा, और फिर उनका फोन आया कि पत्रकारिता जगत की तकलीफों और अंदरूनी हालात पर लिखा गया ऐसा कोई दूसरा उपन्यास उन्होंने पढ़ा नहीं है. साथ ही उन्होंने कहा, “आपके उपन्यास ने मेरे भीतर यह इच्छा जगा दी है कि मैं भी पत्रकारिता जगत के अपने अनुभवों को उपन्यास की शक्ल में सामने लाऊँ….वह कब हो पाता है, कह नहीं सकता!”
उनके ये शब्द रोमांचित करने वाले थे. देर तक मैं उनके प्रभाव से नहीं निकल पाया.
उसी दिन विष्णु खरे से एक लंबी और खुली बातचीत का खयाल मन में आया, जिसमें उनके जीवन के संघर्षों और उनकी विकट चुनौतियों से भरी रचना-यात्रा दोनों को एक साथ रखकर मैं बात करना चाहता था. विष्णु जी से मैंने कहा तो उन्होंने सहज स्वीकृति दे दी.
(3)
संभवत: अगस्त 1995 की ही किसी तारीख को विष्णु खरे से मेरी लंबी बातचीत हुई थी, जिसका रोमांच मैं आज तक नहीं भूल पाया. हालाँकि इससे पहले और भी बड़े लेखकों से मैं मिल चुका था और उनसे जमकर बातें हुई थीं. इनमें कमलेश्वर थे, निर्मल वर्मा थे, रघुवीर सहाय थे, पर ऐसा रोमांच सच कहूँ तो मैंने पहले कभी न जाना था. हाँ, सत्यार्थी जी से हुई खुशनुमा मुलाकातों की तो बात ही अलग है.
सत्यार्थी जी से मिला था तो लगा था, मैं उन्हें रोम-रोम, रेशे-रेशे से जान रहा हूँ, मैं रोम-रोम से उनसे भेंट रहा हूँ. इसी तरह विष्णु खरे से बातचीत हुई तो लगा, उन्होंने अपने अंत:करण का रेशा-रेशा खोलकर मेरे आगे रख दिया है और मैं उनके अंत:करण में छिपे हर रहस्य और भेद को जान सका हूँ. और उनकी हर शक्ल और मूड और छोटी से छोटी प्रतिक्रिया से भी परिचित हो रहा हूँ.
यह एक खुला इंटरव्यू था, जिसमें कोई सवाल-जवाब नहीं थे. एकदम खुली बातचीत, जिसमें उनके जीवन के तमाम उतार-चढ़ाव थे, अंतहीन लड़ाइयाँ थीं, उनकी कविता, उनकी आलोचना, उनकी पत्रकारिता…उनके तमाम मूड्स, उनकी चिंताएँ, भीतरी व्याकुलता और
आगे भी बहुत कुछ कर गुजरने का संकल्प—सब कुछ एक साथ समाता चला जा रहा था.
और फिर उनका बोलना, अपनी पूरी शक्ति और सच्चाई और अविश्वसनीय साहस के साथ बोलना—अपने मर्म और पोर-पोर से बोलना, वह क्या भुलाने की वस्तु है?
उस दिन मैंने जाना कि विष्णु जी को सुनना एक बिल्कुल अलग तरह का अनुभव है. ऐसा अनुभव जो आपके जीवन को, आपके मन, प्राण और आत्मा तक को समृद्ध करता है. और आप जीवन के तमाम-तमाम दिनों में से उस एक दिन और उन कुछ बेहद समृद्ध लमहों को अलग से पहचान सकते हैं!
उस दिन सुबह नौ बजे से लेकर शाम को सात-साढ़े बजे तक वे जिस तरह लगातार और गहरे आविष्ट स्वर में बोलते रहे, उस सामर्थ्य के साथ वही और सिर्फ वही बोल सकते थे. और बोलते हुए इतने गहन भावात्मक और बौद्धिक स्तरों को वे बार-बार छू रहे थे और जीवन की इतनी सघन प्रतीति करा रहे थे कि मुझे लगता था, वे बोलते रहें, बोलते रहें…बस, और मैं सुनता रहूँ.
यह एक अद्भुत इंटरव्यू था, जिसमें न पहले से बने-बनाए सवाल थे, न टेप, न नोट्स, कुछ भी नहीं. लेकिन यह कम हैरत की बात नहीं कि बिना टेप किया हुआ यह इंटरव्यू आज भी मेरे भीतर ज्यों का त्यों टेप किया हुआ है और मैं अब चाहूँ, जहाँ से चाहूँ…आगे जाकर या फिर पीछे रिवाइंड करके उसे सुन सकता हूँ. ज्यों का त्यों. शब्द-दर-शब्द.
मैं बहुत मामूली शक्तियों वाला एक छोटा-सा आदमी हूँ. पर कुछ चमत्कार मेरे जीवन में घटित हुए हैं. विष्णु खरे से हुआ यह सघन इंटरव्यू ऐसा ही एक चमत्कार है.
सुबह जब यह इंटरव्यू शुरू हुआ, तो कतई इंटरव्यू की तरह शुरू नहीं हुआ था. बस, यों ही कहीं से भी कोई बात अचानक उठा ली और फिर उनके जवाबों के बीच से सवाल खुद-ब-खुद निकलते थे और रास्ता बनता जाता था.
विष्णु जी भी बड़े अनौपचारिक मूड में पास ही तख्त पर पैर नीचे लटकाकर बैठे थे. बातचीत आगे बढ़ती गई और वे रौ में आकर लगभग बेखुदी में बोल रहे थे, बोलते जा रहे थे. इस बीच शरीर का जैसे उन्हें कोई होश ही न हो! दोपहर तक वे कुछ अधलेटे से हो गए, शाम चार बजे के आसपास वे सीधे लेट गए. मैं पूछता जा रहा था और वे बोलते जा रहे थे—उसी रौ में, उसी गहरे आवेश में भिदे हुए-से! आवाज धीमी, बहुत धीमी हो गई थी, लेकिन अब भी उतनी ही नाटकीय और गहन भावनाओं से लबालब. साथ ही एक बौद्धिक जागरूकता से संपन्न भी.
इस समय तक विष्णु जी की हालत यह थी कि जैसे कोई नीम बेहोशी में बोलता है. और यह नीम बेहोशी ऐसी थी कि उस समय वे चेतना के शायद सर्वोच्च शिखर पर स्थित थे. वे सब कुछ से कटकर जैसे अपनी आवाज में समा गए थे. मेरी आवाज उन तक पहुँचती थी, जिसकी तत्काल एक प्रतिक्रिया बड़े रहस्यमय, जादुई ढंग से उनके भीतर बनती जाती थी. फिर जब वे बोलते थे तो उनके जीवन के सभी अनुभव और प्रखर सत्य मानो खुद-ब-खुद उस आवाज में ढलते जाते थे. और वह आवाज इतनी ज्यादा निर्मल और पारदर्शी थी और इतनी चेतना-संपन्न कि मुझे लगता था, मानो हमारे युग के बड़े से बड़े सच इस आवाज के जरिए ही अपने आपको प्रकट कर पा रहे हों!
पर वह आवाज कुछ इस कदर मंद पड़ती जा रही थी और विष्णु जी कुछ इस कदर थके हुए, शांत, निस्पंद लेटे थे कि मुझे लगा कि मैं
उन पर अत्याचार कर रहा हूँ—कि बहुत हो गया! अब मुझे यहीं इंटरव्यू खत्म कर देना चाहिए.
उस समय शाम के कोई पाँच-साढ़े पाँच बजे थे.
मैंने विष्णु जी से कहा, “विष्णु जी, मुझे लग रहा है, मैं आप पर अत्याचार कर रहा हूँ. आप कहें तो इसे यहीं खत्म कर दिया जाए.”
एक क्षण तक विष्णु जी का स्वर नहीं सुनाई दिया. फिर उन्होंने फीकी आवाज में पूछा, “क्या आपके सवाल खत्म हो गए?”
“नहीं, अभी तो हैं.” मैंने कहा.
“तो फिर पूछिए.” वही मंद, लेकिन भीतरी ताप से तपी हुई दृढ़ आवाज.
एक क्षण तक मैं उन्हें सिर्फ देखता ही रहा और मुझसे कुछ पूछा नहीं गया. मैं समझ नहीं पा रहा था, कौन लेटा है मेरे सामने? क्या बुद्ध का नया अवतार, जिसकी चेतना का सारा बल उसकी आवाज में आकर समा गया है? और आवाज भी कोई खनकदार नहीं, एकदम बैठी हुई-सी आवाज. लेकिन वे लगभग अस्त्र की तरह उसका उपयोग कर रहे हैं और बोलते-बोलते बाज दफा उसमें ऐसी कशिश उभर आती थी, ऐसी तुर्शी, ऐसी करुणा या कभी-कभी एक मारक व्यंग्य कि लगता था, आज का युग-सत्य ऐसे ही बस ऐसे ही, खुद को प्रकट कर सकता है.
और शाम को साढ़े सात बजे जब मैं इस इंटरव्यू का आखिरी सवाल पूछ रहा था तो न सिर्फ मेरी, बल्कि विष्णु जी की हालत भी कुछ अजीब हो गई थी. हम शायद उस पारदर्शी भावदशा या मुक्तावस्था में थे, जिनमें हमारे समय का यथार्थ खुद को सबसे ज्यादा तीखे, विद्रोही और कठोरतम रूप में प्रकट करता है.
अपने सवालों के साथ-साथ कागज-पत्तर समेटकर जब मैं चलने लगा तो मैंने कुछ झिझकते हुए-से कहा, “आज आपको बहुत परेशान किया है.”
“ऐसा नहीं! बल्कि मैं ही शायद बहुत-कुछ उलटा-सीधा बोल गया. सबका सब लिख मत डालना…!!”
अलबत्ता विष्णु जी का इंटरव्यू लेकर जब मैं बाहर निकला तो मेरी अजीब हालत हो रही थी. इसे आप एक तरह के सम्मोहन की हालत भी कह सकते हैं. लगता था, मैं अकेला नहीं हूँ और हजारों-हजार छवियों के साथ विष्णु खरे ने मुझे घेर रखा है. लगता था, मैं जहाँ भी जाऊँगा, विष्णु खरे मेरे साथ जाएँगे. और फिर एक अजब अहसास और भी. हालत यह थी कि एक ओर लगता था, विष्णु खरे से इस लंबी बातचीत के बाद मैं एक सर्वांगपूर्ण, सुंदर आदमी में बदल गया हूँ. और दूसरी ओर, लगता था, मैं कई हिस्सों में बँट गया हूँ. मस्तिष्क अलग जा पड़ा है, धड़ अलग, पैर अलग और उनका आपस में पहले जैसा रिश्ता नहीं रह गया है.
उस दिन बसों के धक्के खाता हुआ मैं घर कैसे पहुँचा, मैं सचमुच नहीं जानता.
अलबत्ता घर पहुँचा तो मेरे मुँह से सिर्फ इतना निकला, “मुझे थोड़ी-सी चाय दे दो सुनीता. चाय पीकर मैं सोऊँगा.”
हालाँकि सोना इतना आसान कहाँ था! देर तक चीजें आपस में गड़बड़ाती रहीं. सब कुछ डगमग-डगमग हो रहा था. पूरी स्क्रीन पर बस विष्णु खरे का चेहरा…और फिर सिर्फ होंठ! वे कुछ कह रहे हैं—हाँ-हाँ, यह कहा था, यह कहा था, यह भी कहा था, यह-यह कहा था…वह-वह कहा था!
(4)
और यह इंटरव्यू जितने अद्भुत ढंग से हुआ, लिखा भी उतने ही अद्भुत ढंग से गया.
अगले दिन सुबह उठकर मैंने चाय पी और कागजों का एक गट्ठर लिया, फिर एक पेन. और फिर वह पेन चलने लगा. चलने क्या, दौड़ने लगा. लिख तो शायद मैं ही रहा था, पर वह पेन कहाँ से शुरू होकर किधर जा रहा था, मैं नहीं जानता. मेरी स्मृतियों में उन्मुक्त बादलों की तरह यहाँ-वहाँ तैरती ध्वनि तरंगें थीं, जिन्हें मैं आकुल होकर पूरी शक्ति से समेटता जा रहा था.
और उस दिन मैंने क्या लिखा, कैसे लिखा, मुझे कुछ याद नहीं. बस, इतना याद आता है कि शायद यह लिखा था, यह लिखा था…यह-यह लिखा था. और जो-जो याद आता था, उसके आसपास और आगे-पीछे का भी बहुत कुछ याद आता था. बगैर क्रमबद्धता का खयाल किए मैं उसे लिखता, बस लिखता जाता था और रात होते-होते मैंने कोई सौ-डेढ़ सौ पन्ने लिख लिए.
और फिर अगले पंद्रह-बीस दिनों तक, जब तक वह पूरा इंटरव्यू सिलसिलेवार नहीं लिखा गया, मैं रात-दिन, चौबीसों घंटे विष्णु खरे के साथ था.
(5)
विष्णु खरे के साथ हुए उस इंटरव्यू के बारे में कुल मिलाकर यही कह सकता हूँ कि मैं अभी तक के अपने जो सर्वाधिक मुकम्मल इंटरव्यू मानता हूँ—या जिन्हें अपनी छोटी-मोटी उपलब्धि मानता हूँ और कह सकता हूँ कि हिंदी में ऐसे इंटरव्यू पहले न थे, उनमें विष्णु खरे से लिया गया यह इंटरव्यू यकीनन पहले नंबर पर है.
शायद इसलिए कि इसमें आप विष्णु खरे को उठते-बैठते, चलते-फिरते बोलते और अपने गुस्से और प्यार की सारी मुद्राओं में देख सकते हैं. एक मानी में इसमें संपूर्ण विष्णु खरे उपस्थित हैं, अपने तीखे और असुविधाजनक विचारों, कठिन जिदों, खरी बहसों के साथ-साथ भोलेपन, भावुकता और एक से एक विचित्र त्रासदियों और अभाव भरे बचपन की मर्मांतक कथाओं के बीच! यह एक ऐसे लेखक की सच्ची तसवीर थी, जिसे लोग कभी-कभी एलीट और ‘खुर्राट’ भी बोल देते हैं, मगर वैसा वह है नहीं. बल्कि सच मानी में सारी भावुकता और कोमलता अंदर छिपाए, वह एक बेहद सतर्क और चौकन्ना लेखक है जिसकी आँखों से किसी की चालाकियों और दुष्टताओं का छिप जाना असंभव है.
उस इंटरव्यू के निस्संदेह सबसे कारुणिक पन्ने वे हैं, जिसमें विष्णु जी अपने बचपन की विचित्र यंत्रणा और अभाव भरी दुनिया में उतरते हैं और खुद को बेचारा बनाए बगैर, उस सबको हिम्मत से बेपर्द करते हैं जो कभी उनके जीवन का हिस्सा था और आज भी वह कहीं गया नहीं. बल्कि सच तो यह है कि विष्णु जी अपने बचपन और किशोरावस्था के अभावग्रस्त दिनों के बहाने हमें कोई सन् 50-55 के उस हिंदुस्तान से मिलाने ले चलते हैं, जिसमें हर आम आदमी लगभग इसी हालत में था. और इन हालात के बीच एक चुप्पा-सा लड़का है, जो अपनी उम्र की तुलना में कहीं ज्यादा बड़ा हो गया है. जिसकी परिस्थितियाँ उसे बचपन के बाद युवावस्था नहीं, बकि बुढ़ापे की ओर खींच रही हैं. और वह जैसे आगे आने वाली चुनौतियों के लिए खुद को तैयार कर रहा है. फिर चाहे वह पढ़ाई में अव्वल आना हो या फिर डिबेट और कविता-प्रतियोगिता वगैरह में शील्ड जीतकर लाना हो.
यह माँ के गुजर जाने के बाद मिला जीवन है, जिसमें लड़के अपने गैर-दुनियादार या अव्यावहारिक पिता को बताए बगैर खुद ही जैसे-तैसे अपनी गृहस्थी का संचालन कर रहे हैं. माँ बहुत बचपन में गुजर चुकी थी और उनकी सिर्फ इतनी याद विष्णु खरे को है कि जब बचपन में किसी बीमारी के कारण उनका गला बंद हो गया था और आवाज बिल्कुल नहीं निकल रही थी—लगभग सभी ने यह मान लिया था कि यह लड़का जीवन-भर गूँगा रहेगा, तब माँ ने लगातार गले की मालिश कर-करके बेटे को उसकी आवाज लौटा दी थी. क्योंकि वे शायद बर्दाश्त ही नहीं कर सकती थीं कि उनका बेटा जीवन-भर गूँगा रहे. आवाज तो लौट आई, लेकिन आवाज हमेशा के लिए बैठ गई और यह ‘बैठी हुई आवाज’ कुछ उन अलंघ्य विशेषताओं में से एक है, जिनसे विष्णु खरे की शख्सियत बनती है.
माँ की तरह विष्णु खरे ने बहुत भावुक होकर पिता का भी स्मरण किया है जो अध्यापक थे तथा संगीत में जिनकी विशेष रुचि थी. चौबीसों घंटे वे अपने भीतर की दुनिया में खोए रहते थे और अकसर अपने आपसे बातें करते या बुदबुदाते पाए जाते थे. ऐसे पिता को परेशान करने के बजाय, लड़कों यानी विष्णु खरे और उनके भाइयों ने खुद गृहस्थी का भार अपने कंधों पर उठा लिया. पिता ने कभी नहीं कहा कि उन्हें अव्वल आना है. लेकिन लड़कों को लगता था कि इस परिस्थिति से निकलने का एक ही तरीका है कि वे अव्वल आएँ. वे खुद खाना बनाते, खुद घर का सारा काम करते और बचे हुए समय में पढ़ते थे और अव्वल आते थे. पिता ने कभी नहीं कहा कि उन्हें क्या पढ़ना है, क्या नहीं पढ़ना? लेकिन वे घर में ‘सरस्वती’ जैसी पत्रिकाएँ लाते थे और रख देते थे. और उनके बगैर कहे लड़के यह जानने लगे थे कि साहित्य क्या है और साहित्य क्यों पढ़ना चाहिए. घर की आर्थिक हालत यह थी कि एक-एक पैसा दाँत से पकड़ना होता था, तब घर चलता था. और घर में खाना वगैरह इस तरह बनता कि मानो जीवित रहने के लिए उदरपूर्ति भी एक कर्तव्य है, सो उसे करते रहना चाहिए.
कुछ-कुछ यह माहौल था, जिसमें विष्णु खरे का बचपन पल रहा था. और ऐसे में उनमें लेखक होने की जिद भी शामिल हो गई थी. बहुत छोटी उम्र में उन्होंने अनुवाद शुरू कर दिया था. और तरुणाई में ही टी.एस. एलियट की कविताओं के अनुवाद की एक छोटी-सी किताब भी उनकी छप गई थी.
विष्णु खरे के बचपन की न भुलाई जा सकने वाली करुण त्रासदियों में उनकी उन दो बुआओं की भी कथा है, जिन्होंने माँ के मरने पर, यह घर सँभाला. वे धर्म और नेम-कर्म करने वाली बुआएँ, जिनका पूरा जीवन नेक कामों और विचारों को समर्पित था, बिन ब्याही ही मरीं. यह ऐसी करुण त्रासदी है जिसका दंश विष्णु जी के भीतर से नहीं निकलता और बार-बार उनके आगे एक सवाल बनकर खड़ा हो जाता है कि इसके लिए जिम्मेदार कौन था? वे खुद इससे एक समय इतने विचलित हो गए थे कि इस पर उन्होंने एक कहानी लिखी थी जो ‘कहानी’ पत्रिका में छपी थी. इसमें कथानायक ईश्वर की प्रतिमा को बाहर कूड़ाघर के पास रख आता है, क्योंकि उसकी आस्थाएँ बुरी तरह दरक गई हैं और उसे लगने लगा है कि यह चीज पूरी तरह झूठ है कि ईश्वर अच्छे लोगों की मदद करता है तथा बुरों को सजाएँ देता है. उसके मन में आता है कि अगर ऐसा ही है, तो इस संसार में अच्छे लोग ही क्यों कष्ट पाते हैं?
इसी तरह हिंदी कविता के वर्तमान और आने वाली पीढ़ी पर उनके अदम्य विश्वास की झलक भी इस बातचीत में कई जगह है. इसी सिलसिले में विष्णु जी ने लेखक के विद्रोह का एक सुंदर उदाहरण दिया. कहा—चार्ल्स डिकेंस के उपन्यास ‘डेविड कॉपरफील्ड’ में अनाथालय का एक दृश्य है. अनाथालय का अधिकारी लड़कों को थोड़ा-थोड़ा सूप बाँट रहा है, जिससे उनकी भूख नहीं मिटी. लेकिन उनमें यह कहने का साहस भी नहीं है. उन डरे हुए भयभीत लड़कों में से एक लड़का आगे निकलता है और उस अधिकारी से कहता है, “मोर सूप…!” यही एक लेखक की आवाज है, यही एक लेखक का विद्रोह है. वह विद्रोह का झंडा भले ही न उठाए, पर समाज में प्रतिरोध की क्षमता तो पैदा कर ही सकता है. यह भी एक विद्रोह की शुरुआत है.
अपने जीवन के कुछ वर्ष मैंने लेखकों के इंटरव्यू करने में लगाए हैं. ज्यादातर लेखकों से लीक से हटकर और बहुत खुलकर बातें हुईं. पर मुझे कहने दीजिए कि विष्णु खरे से बढ़कर साहस के साथ सवालों का सामना करने वाला मुझे आज तक कोई दूसरा लेखक नहीं मिला. हालाँकि वे बहुत अधिक भावुक भी हैं और रघुवीर सहाय या शानी को याद करते-करते उनकी आँखें कैसी गीली हो जाती हैं, इसका एक गवाह मैं भी हूँ.
उनका साक्षात्कार प्रसिद्ध रहा है। विष्णु जी को याद करनेवाली इस पोस्ट से गुजरना एक अच्छा अनुभव है।
विष्णु खरे पर प्रकाश मनु के संस्मरण दिल की गहराइयों से इतने डूबकर लिखे गये हैं कि इन्हें पढ़ना भी एक विरल अनुभव लोक से अपने को समृद्ध करने जैसा है। इनमें रोमांच है,आत्मीय स्पर्श है, समकालीन यथार्थ की कड़वाहट और मिठास भी है। और भाषा इतनी पारदर्शी और बेबाक कि एक सम्मोहन की-सी स्थिति में पाठक को छोड़ आती है। मैं इस बात को हर बार दोहराता हूँ कि विष्णु खरे की कविताएँ उस प्रविधि को अपनाती हैं जो चीजों को विखण्डित करती हुई,उसके रेशे-रेशे को अलगाती हुई सत्य तक पहुँचती हैं। यह सान्द्र से तनु होते जाने की रचना प्रक्रिया है। इस बेहद अंतरंग और आत्मीयता भरे संस्मरण के लिए प्रकाश मनु जी को शुभकामनाएँ और बधाई !
व्यक्तिगत रूप से मैं कवि विष्णु खरे को बहुत पसंद करता था। जो उन्हें बोलना होता था वे मंच पर निर्भीक होकर बोलते थे। कविता उनके लिए जीवन जीने की कार्यवाई थी। अपनेआसपास ही क्यों सुदूर-दूर तक बसे-रहते लोगों का ख्याल रखते। जो उन्हें नापसंद थे उनके लिए ललकार और प्रियजनों के लिए अपार प्यार। यह उनका स्वभाव था।
बहरहाल, मुक्तिबोध की तरह वे प्रलयंकारी काव्यमेधा के प्रतिनिधि कवि थे।
विष्णु खरे की याद शिद्दत से आती है। मुझे ही नहीं, मेरे परिवार को उनके चले जाने के तथ्य को आत्मसात करने में काफ़ी मशक्कत करनी पड़ी है। उनका अभाव है, रहेगा। प्रकाश मनु के इंटरव्यू अनोखे हैं। मेरी स्मरण शक्ति मुझे ऐसे एक ही अन्य की याद दिलाती है, और उनके इसी तरह, बिना किसी टीप या रिकार्डर के लिए गए निहायत अनोखे साक्षात्कारों की- मनोहर श्याम जोशी, उन्हें याद करने वाले भी इन दिनों गिनेचुने ही होंगे। लेकिन जोशी जी चौतरफ़ चौकन्ने इंटरव्यूकार थे। यानी, सामने मौजूद अपने सम्मानित नायक की मूर्ति गढ़ते हुए, वह ऐंचक वैंचक लकीरों निशानियों ऐबों की भी अनदेखी नहीं करते थे,संकेत तो कर ही देते थे। अंग्रेज़ी में Hagiography और Biography में बड़ा फ़र्क़ माना जाता है। इन विधाओं के भीतर भी गुणावगुण अलग से रेखांकित किये जाते हैं। प्रकाश मनु शायद इस मामले में जोशी जी से को क़तई सहमत न होंगे। जहां जोशी जी अपने हीरो को कुछ ऐसे पेश करते थे कि वह केवल जोशी जी का नहीं, पाठकों का भी हीरो बन जाता था, वहां इस संस्मरण में प्रकाश मनु के विष्णु खरे, प्रकाश मनु के ही विष्णु खरे रह जाते हैं।
भावनात्मकता और भावुकता के बीच ,हमारे प्रिय मित्र प्रकाश मनु की डायरी में, किसी तरह का फ़र्क़ दर्ज नहीं हो पाता। मझधार के झकोलों का उल्लेख चाहें जितना हो, नैया हमेशा उस पार ही रहती है–इस पार नहीं, क्योंकि इतने क़रीब चांद का मुंह टेढ़ा भी लग सकता है। ऐसा नहीं कि evil को देखना पहचानना वे जानते न हों– ऐसा होता तो उनका कथा लेखन वह कदापि न होता जैसा कि है, बल्कि कुछ कविताएं भी evilकी पराकाष्ठा हमें दिखा जाती हैं–पर अपने किसी भी प्रिय के बारे में कोई कटाक्ष तक मनु जी के मुख से नहीं सुना जा सकेगा। नतीजा ये होता है कि अत्यंत प्रिय होने के बावजूद, मनु भाई के खरे किसी और लोक के जीव लगने लगते हैं! और यह कोई प्रशंसनीय उपलब्धि तो नहीं ही है! मेरा संपर्क विष्णु खरे से लगभग 1965 से बना रहा, और इस मित्रता में हम दोनों ने एक दूसरे को ऐब कुटेव भी देखें ही। और भी हमारे दस पांच मित्र परिचित हैं जो तमाम स्नेह के बावजूद, बतला सकते हैं कि चांद में कुछ दाग़ तो थे। समाचार जगत की बगिया उधेड़ने वाले प्रकाश मनु की नज़र भी उस ओर ज़रूर मुड़ी होगी, लेकिन दुनिया का साहित्य पढ़ते-पढ़ते कुछेक हिंदी वाले भी , निंदा पुराण से परहेज़ करते हुए भी, ख़ालिस कशीदाकारी पर ज़रा सहम से जाते हैं। इस संस्मरण में हम प्रकाश मनु के अंतरंग को बख़ूबी पहचान सकते हैं, और एक समर्पित साहित्य प्रेमी, प्रकाश जी को जान पाना भी कम महत्वपूर्ण नहीं है।
विष्णु खरे के स्मृति-आकाश में आपका नक्षत्र अत्यन्त देदीप्यमान है.
उन स्मृतियों में अपनत्व भरा आचमन ह्रदय में तीर्थ हो जाता.
आपका स्मरण बहुविध तो है ही साथ ही साथ उस नदी में नहाते हुए उनके रचनात्मक संसार में डूब जाना भी है.
ये आलेख लिखा नहीं गया -लिखा गया है.
तन्मय होकर आपने रत्नों से भरा जो ख़ज़ाना खोजकर-खोलकर बिखेर दिया वह आपकी खरेजी के प्रति अनुराग-आसक्ति तो है ही वह पाठकों के लिये भी प्रासंगिक है.
आपकी कविता भावात्मक होती हुई, गहराई से बौद्धिक धरातल से जुड़ी है-
‘दुनिया को उठाए है हाथ में एक गेंद की मानिंद’
‘जो सात दिशाओं सत्ताईस खुले षड्यंत्रों से चला आता है
मोरचा बाँधे’
विष्णु खरे पिपरिया भी आये वे छिंदवाड़ा में थे तब. असंख्य वर्ष हो चुके इस बात को.
दिल्ली में मिलते थे तो पिपरिया के संदर्भ में पूछते ही थे.
वे नारियल हैं-बाहर से कठोर,भीतर से मुलायम.
इस लेख के स्मरण से विष्णु जी स्मरणीय हैं .
मेरी स्वस्तिक कामना.
प्रिय भाई अरुण जी,
अपनी तरह के दुर्जेय कवि और खाँटी शख्स विष्णु खरे जी की तीसरी बरसी पर कुछ लिखना
मेरे लिए स्मृतियों के एक सैलाब से गुजरने सरीखा था।
मुझे खुशी है कि आपके आग्रह पर कुछ लिखा गया, ऐसे कवि के लिए जो कई मामलों में बेनजीर था
और रहेगा। शायद इसीलिए उनके जाने के बाद भी उनका होना उसी तरह महसूस होता है।
मैंने बेशक अपनी स्मृतियों में बसे उन विष्णु करे को सामने लाने की कोशिश की,
जो मेरे विष्णु खरे थे–मेरे अपने विष्णु खरे।
पर आज सुबह से ही मित्रों और आत्मीय साहित्यकारों की जैसी उत्साह भरी
प्रतिक्रियाएँ मुझे मिल रही हैं, उससे लगता है, कि जिस तरह से वे मेरे–मेरे अपने विष्णु खरे थे,
उसी तरह बहुतों के अपने–बहुत अपने विष्णु खरे जरूर रहे होंगे। इसीलिए उनके संग-साथ वालों को
उनकी उपस्थिति आज भी ठीक वैसी ही वार्म्थ के साथ महसूस होती है।
वैसे भी एक बार उनके निकट आने के बाद कोई उन्हें भूल नहीं सकता था।
मैं आज भी चौंकता हूँ, जब कभी-कभी निस्तब्धता में एकाएक उनकी आवाज
गूँजती हैं– “कैसे हैं प्रकाश जी?”
अलबत्ता भाई अरुण जी, आपने इतने सलीके से और एक बड़े विजन के साथ
विष्णु जी से जुड़ी इन स्मृतियों को प्रस्तुत किया, इसके लिए आपका और ‘समालोचन’ का
बहुत-बहुत आभार!
स्नेह,
प्रकाश मनु
कुछ काम हम रोज़ करते हैँ. ब्रश करना, नाश्ता करना, नहाना, इत्यादि, उसी तरह खरे जी को याद करना भी है. उनका प्रेम और गुस्सा दोनों याद आते हैँ. खरे जी पर जब उदभावना का विशेष अंक निकाला तो उनकी पत्नी का कमेंट बड़ा अच्छा लगा. उनका कहना था ” आपने ऐसा अंक निकाला जैसे विष्णु निकालते “मैंने उनके साथ अपनी ज़िन्दगी का क्वालिटी टाइम बिताया है. उन्हें भूलना असंभव है.
विष्णु खरे जी पर अच्छा संस्मरण लिखा है प्रकाश मनु जी ने उनसे मेरी बात होती रहती है विष्णु खरे जी को लेकर मेरा उपन्यास भूलन कांदा जब गया में छपी थी तब विष्णु खरे जी ने मुझे फोन करके कहा था कि मैं उनसे मुंबई आकर मिलूं उन्हें मुझसे कुछ बातें करनी है उनसे कहा, “मैं ज़रूर मुम्बई आकर आपसे मिलता हूँ।” संयोग से जनवरी 2011 में ही मुझे एक कार्य मुंबई का मिल गया। मैं पंजीयक फर्म एवं संस्थाएँ था। उससे संबंधित एक कंपनी ला के प्रकरण में मुख्यसचिव विवेक ढाँढ को नोटिस मिला। कंपनी ला बोर्ड मुंबई में 7 जनवरी को उपस्थित होना था। मुझे कहा गया इस प्रकरण में मुंबई जा कर बोर्ड के सामने उपस्थित हो जाएँ। नेकी और पूछ-पूछ! मैं तो विष्णु खरे से मिलने के लिए लालायित था सो मैं तुरंत तैयार हो गया। अपने साथ चलने के लिए रमेश अनुपम को तैयार कर लिया। मैं और रमेश अनुपम दोनों 6 जनवरी को मुम्बई गए। विष्णु खरेजी के निवास के पास ही मलाड वेस्ट के एक होटल में हम लोग रुके। पहले दिन तो विष्णु खरे होटल में आ गए। रात बारह बजे तक उनसे बातें होती रहीं। दूसरे दिन हम लोग उनके निवास ए 703 महा लक्ष्मी रेसीडेंसी, गेट नं 8, मालवणी माहडा के फ्लेट में छह बजे शाम को पहुँच गए। घर में वे अकेले ही थे। उनका कुत्ता था और कोई नहीं। इस तरह हमारी दो बैठकें हुईं और ‘भूलन कांदा’ को लेकर अच्छी चर्चा हुई। उन्होंने पूछा कि गाँव के लोग क्या मुखिया के सामने बीड़ी पिएँगे ? मैंने बताया कि ज़रूर पिएँगे, इसमें कोई लिहाज या परहेज नहीं है। यह आमतौर पर देखा जाता है। बल्कि ऐसा होता है कि कई बार मुखिया ही गाँव वालों को अपनी ओर से बीड़ी देते हैं। इसी तरह कई और प्रश्न उन्होंने किए जिसका समाधान मैंने किया। उनसे यह मुलाक़ात मैं हमेशा याद रखूँगा। उन्होंने बताया कि वे तीन बार ‘भूलन कांदा’ उपन्यास पढ़ चुके हैं। विष्णु खरेजी ने पूरा घर दिखाया और बताया कि उनका बेटा फ़िल्म निर्देशन के क्षेत्र में काम कर रहा है। दिन रात व्यस्त रहा करता है। फ़िल्म ब्लैक और उसके पहले संजय लीला भंसाली के फ़िल्मों में सहायक के रूप में निर्देशन का कार्य किया है आजकल सतीश कौशिक के साथ फ़िल्म कर रहा है। हमारे बैठे में ही तीन बार बेटे का फ़ोन आता है कि सबके लिए क्या डिनर भिजवा दूँ? हम लोगों ने मना कर दिया क्योंकि तीन बजे ही हम भोजन किए थे