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मेरे जीवन का वह बहुत उदास दिन था, जब विष्णु जी ने फोन पर मुझे सूचना दी कि अब दिल्ली हमेशा के लिए छूट चुकी है और उन्हें विशेष हालात में नवभारत टाइम्स अपार्टमेंट्स वाला अपना मकान बेच देना पड़ा. थोड़ी देर के लिए आँखों के आगे अँधेरा-सा छा गया. वे लंबे समय से इसकी चर्चा तो कर रहे थे, पर कहीं न कहीं मन में उम्मीद थी कि शायद वे अपना निर्णय बदल लें.
पर यह मेरी खुशकिस्मती थी कि विष्णु जी के मुंबई से भी उसी तरह आत्मीयता से भरपूर फोन आ जाते थे, या वे दिल्ली आएँ तो मिलना होता था. बेशक विष्णु जी को पाना कठिन था, पर वे एक बार आपको मिलते थे तो फिर हमेशा के लिए आपके हो जाते थे. और वे कितनी ही दूर रहें, उनका प्रेम और आत्मीयता कम नहीं होती थी. वे साहित्य ही नहीं, किसी स्नेहिल अभिभावक की तरह बड़ी अंतरंगता से घर-परिवार और बच्चों के बारे में भी पूछते-बतियाते रहते थे. “कैसे हैं प्रकाश जी…?” हमेशा यहीं से बात शुरू होती…और फिर वह कहाँ जाएगी, किस-किस प्रसंग को खुद में लपेटती हुई सी कितनी देर तक चलेगी, कुछ पता नहीं चलता था. समय जैसे थम जाता था….
ऐसे ही एक बार मुंबई से आए फोन में उन्होंने मेरी लिखी पुस्तक ‘एक दुर्जेय मेधा : विष्णु खरे‘ की बड़े उत्साह से चर्चा की थी. बोले,
“प्रकाश जी, आपकी वह पुस्तक कई लोगों ने पढ़ी है. पढ़कर सब हैरान हैं. उनके फोन कई बार आ जाते हैं कि विष्णु जी, ऐसी पुस्तक तो हिंदी में कोई और है नहीं….सच तो यह है प्रकाश जी, कि अगर कोई मुझ पर काम करना चाहता है, तो अकेली आपकी यह पुस्तक ही है, जिसके बिना उसका काम नहीं चल सकता. इसे तो उसे पढ़ना ही होगा….”
मैं क्या कहता? सिर्फ इतना कहा,
“विष्णु जी, लिखी तो वह किताब पूरे मन से थी. अपनी समूची शक्तियों के साथ….जब लिखी गई तो लोगों ने उसका महत्त्व नहीं समझा. अब लोग समझ रहे हैं. मेरा सौभाग्य…!”
फिर विष्णु जी हिंदी अकादेमी के उपाध्यक्ष बनकर दिल्ली आए, तब भी फोन- निरंतर फोन उनके आते रहे. उनके संपादन में अकादमी की पत्रिका ‘इंद्रप्रस्थ भारती’ का कहानी विशेषांक आ रहा था, तब भी उनका फोन आया, एकदम सुबह-सुबह. अपने खास अंदाज में
उन्होंने पूछा, “प्रकाश जी, आजकल कहानियाँ लिख रहे हैं या छोड़ दिया?”
मैंने कहा, “नहीं विष्णु जी, लिख रहा हूँ.”
“तो ‘इंद्रप्रस्थ भारती’ के कहानी विशेषांक के लिए कहानी भेजिए.”
मैंने कहा, “विष्णु जी, कहानी का रफ प्रारूप ही अभी मेरे पास है. उस पर काम करना है….आपको कब तक भेजनी है?”
“प्रकाश जी, कहानी आज ही चाहिए.” विष्णु जी का आग्रह.
“ठीक है, विष्णु जी, मैं अभी उस पर जुट जाता हूँ. आज शाम तक मैं शायद भेज दूँगा.”
विष्णु जी ने कहा कि वे कहानी की प्रतीक्षा करेंगे.
मैं सुबह से खाना-पीना भूलकर उस कहानी में ही जुटा रहा. शाम तक उसका कुछ रूप बन गया था. पर अभी उसे सुधारना बाकी था.
तभी देखा, मोबाइल में विष्णु जी का संदेश था, “प्रकाश जी, आपने कहानी नहीं भेजी?”
“विष्णु जी, मैं उसी पर काम कर रहा हूँ. आज रात तक आपको मिल जाएगी.” मैंने लिखा.
रात नौ बजे के आसपास फिर उनका संदेश, “प्रकाश जी, कहानी की प्रतीक्षा कर रहा हूँ.”
“जी, उसे फाइल टच दे रहा हूँ. जल्दी ही भेजता हूँ.” मैंने उत्तर में लिखा.
रात करीब साढ़े ग्यारह बजे कहानी मुकम्मल हुई तो मैंने उन्हें मेल से भेज दी. साथ ही मोबाइल पर संदेश भेजा, और सोने चला गया.
सुबह चार बजे मेरी नींद खुली तो देखा, मोबाइल में उनका संदेश चमक रहा था, “प्रकाश जी, कहानी बहुत अच्छी है. वसंतदेव का चरित्र एकदम अलग है…आभार.”
यह संदेश कोई रात ढाई-तीन बजे का था.
पढ़कर आँखें भीग गईं. तो क्या विष्णु जी अब तक जाग रहे थे, सोए न थे?
मैंने बहुत संपादकों को देखा है, जो लेखक को बेतरह प्यार करते हैं और उनकी रचनाओं को आदर देते हैं. पर लेखक के पीछे पड़कर रचना लिखवा लेने वाला विष्णु खरे सरीखा जिद्दी और आग्रहशील संपादक तो मैंने कोई और नहीं देखा था.
मेरी कहानियाँ पूरी होते-होते प्रायः दस-पंद्रह दिन आराम से ले लेती हैं. पर विष्णु जी के आग्रह पर लिखी गई ‘भटकती जिंदगी का नाटक’ शायद मेरी एकमात्र कहानी है, जिस पर सुबह मैंने काम करना शुरू किया, और रात तक उसे पूरा करके भेज दिया.
और यह विष्णु जी के आग्रह के कारण ही संभव हुआ. इस मामले में वे बेनजीर संपादक थे. बाद में ‘इंद्रप्रस्थ भारती’ का खूबसूरत कहानी विशेषांक आया तो मैंने देखा, विष्णु जी ने अपने संपादकीय में मेरी कहानी का खास तौर पर जिक्र करते हुए इस बात के लिए आभार जताया था कि “प्रकाश मनु ने मेरे आग्रह पर इतने कम समय में यह कहानी लिखकर दी.”
ये ऐसे क्षण हैं, जो आपको अभिभूत कर जाते हैं और समझ में आता है कि विष्णु खरे के होने का मतलब क्या है?
इसके बाद भी विष्णु जी के फोन बराबर आते रहे. उनका आखिरी फोन 11 सितंबर को रात दस बजे आया, “कैसे हैं प्रकाश जी?”
मैंने उन्हें बताया कि हिंदी अकादमी की त्रिवेणी सभागार वाली काव्य-गोष्ठी में मैं गया था. मेरे जीवन का बड़ा अद्भुत…बड़ा आश्चर्यजनक अनुभव था वह. पूरा त्रिवेणी सभागार भरा हुआ था. उसमें ज्यादातर नौजवान पीढ़ी के लोग थे, और वे इतनी तल्लीनता से कविताएँ सुन और सराह रहे थे कि मैं सचमुच अचरज में पड़ गया कि वे कौन लोग हैं, जो कहते हैं कि आज की कविता संप्रेषित नहीं होती! मैंने तीस या चालीस लोगों की गोष्ठी में तो देखा है कि कोई कविता पढ़ रहा है और सब उसी लय में बह रहे हैं. एक वातावरण सा निर्मित हो रहा है….पर इतने बड़े सभागार में कविता का ऐसा कार्यक्रम…! मेरे जीवन का यह एक विरल और यादगार अनुभव है.
इस पर विष्णु जी प्रसन्न होकर बोले, “हाँ प्रकाश जी, एकदम पिन ड्रॉप साइलेंस था….”
फिर विष्णु खरे द्वारा ‘इंद्रप्रस्थ भारती’ के कहानी विशेषांक की चर्चा चली. मैंने कहा, “विष्णु जी, इसमें कछ कहानियाँ तो जबरदस्त हैं. फिर एक ताजगी, एक नयापन तो है ही इसमें. बार-बार सुने हुए जो नाम हैं, उनसे अलग नाम हैं. कई तो एकदम अनसुने से….पर कहानियाँ इतनी जबरदस्त कि एक बार पढ़ने के बाद आप उन्हें भूल ही नहीं सकते.”
ऐसे ही एक अल्पज्ञात लेखक की कहानी ‘आजाद बकरियाँ’ की चर्चा चली और वे बोले, “हाँ, प्रकाश जी, वह कहानी एकदम अलग है.”
मैंने कहा, “विष्णु जी, मैं इस विशेषांक पर एक लंबा पत्र लिखूँगा आपको.”
उन्होंने उत्साहित स्वर में कहा, “हाँ लिखिएगा प्रकाश जी.…”
बस, यही आखिरी संवाद…और फिर सारे तार झनझनाकर टूट गए…!
रात करीब दस बजे उनका फोन आया था, जो शायद सवा दस बजे तक चला. और फिर उसी रात कुछ ही घंटों बाद दुख की वह काली घटा छा गई, जो धीरे-धीरे उन्हें अपने भीतर समेटती गई….विष्णु जी को मस्तिष्काघात!!
उन्हें चाहने वाले बहुत थे. सबके वे अपने थे. उन सबके साथ-साथ मैं भी प्रार्थना करता रहा…प्रार्थना. निरंतर प्रार्थना….पर हा हंत, वही हुआ जो नहीं होना चाहिए था. पूरे एक सप्ताह तक मृत्यु से जंग लड़ने के बाद, आखिर 19 सितंबर 2018 को समूचे हिंदी जगत को शोकमग्न करके विष्णु खरे चले गए.
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विष्णु खरे जितने बड़े कवि थे, उससे कहीं बड़े इनसान. एक खरे इनसान. ऊपर से तनिक रूखे लगते, पर भीतर प्यार और करुणा से लबालब. खासकर युवा कवियों को प्यार करने और उन्हें आगे लाने वाला उन सरीखा कवि तो कोई और था ही नहीं. और सच ही उन्हें आज की कविता और नए कवियों से बहुत उम्मीदें थीं. वे उन्हें बेतरह प्रोत्साहित करते और बराबर खोज-खबर लेते रहते. उनकी अच्छी चीजों को खोज-खोजकर पढ़ते, सही सलाह देते और जो कविताएँ उन्हें जँच जातीं, उनकी जी भरकर सराहना करते.
सच पूछिए तो विष्णु जी के पास इतना बड़ा दिल था- और ऐसा कबीरी ठाट वाला व्यक्तित्व उनका था कि वे सभी के थे. सभी के कुछ न कुछ थे….और मेरे तो वे एक प्यारे और निराले दोस्त, गाइड और संरक्षक सब थे. मैं आज तक नहीं समझ पाया कि मुझे वे इस कदर प्यार क्यों करते थे. बात करते तो घर के एक-एक सदस्य का हाल-चाल पूछते. संबंधों को खाली साहित्य-चर्चा तक सीमित रखने वाले इनसान वे न थे. और सच ही बहुत प्यार दिया उन्होंने, बहुत प्यारे लुटाया…! अपने बाद वाली पीढ़ी को इतना प्यार करने और उन पर इस कदर भरोसा करने वाले लेखक कम, बहुत कम हैं.
विष्णु खरे इस मामले में निराले थे. विलक्षण. उनके जाने से साहित्य की दुनिया में एक ऐसा अभागा सन्नाटा और खालीपन है, जो कभी भरा नहीं जा सकेगा. पर विष्णु जी के तमाम जादुओं में एक जादू यह भी है कि वे आपको अपने भीतर समा गए-से लगते हैं और वहीं से आपसे लगातार बहस और संवाद जारी रखते हैं. इस रूप में वे जाकर भी कहीं गए नहीं. हाँ, यह बात अलग है कि जहाँ पहले विष्णु खरे थे, वहाँ अब उनकी यादें बसी हैं. अपनी बेशुमार यादों, यादों और यादों के साथ विष्णु खरे वहाँ हैं, और हमेशा बने रहेंगे!
प्रकाश मनु (12 मई, 1950 को शिकोहाबाद, उत्तर प्रदेश में) लगभग ढाई दशकों तक बच्चों की लोकप्रिय पत्रिका ‘नंदन’ के संपादन से जुड़े रहे. अब स्वतंत्र लेखन. प्रसिद्ध साहित्यकारों के संस्मरण, आत्मकथा तथा बाल साहित्य से जुड़ी कुछ बड़ी योजनाओं पर काम कर रहे हैं. पता : 545, सेक्टर-29, फरीदाबाद-121008 (हरियाणा), मो. 09810602327 |
उनका साक्षात्कार प्रसिद्ध रहा है। विष्णु जी को याद करनेवाली इस पोस्ट से गुजरना एक अच्छा अनुभव है।
विष्णु खरे पर प्रकाश मनु के संस्मरण दिल की गहराइयों से इतने डूबकर लिखे गये हैं कि इन्हें पढ़ना भी एक विरल अनुभव लोक से अपने को समृद्ध करने जैसा है। इनमें रोमांच है,आत्मीय स्पर्श है, समकालीन यथार्थ की कड़वाहट और मिठास भी है। और भाषा इतनी पारदर्शी और बेबाक कि एक सम्मोहन की-सी स्थिति में पाठक को छोड़ आती है। मैं इस बात को हर बार दोहराता हूँ कि विष्णु खरे की कविताएँ उस प्रविधि को अपनाती हैं जो चीजों को विखण्डित करती हुई,उसके रेशे-रेशे को अलगाती हुई सत्य तक पहुँचती हैं। यह सान्द्र से तनु होते जाने की रचना प्रक्रिया है। इस बेहद अंतरंग और आत्मीयता भरे संस्मरण के लिए प्रकाश मनु जी को शुभकामनाएँ और बधाई !
व्यक्तिगत रूप से मैं कवि विष्णु खरे को बहुत पसंद करता था। जो उन्हें बोलना होता था वे मंच पर निर्भीक होकर बोलते थे। कविता उनके लिए जीवन जीने की कार्यवाई थी। अपनेआसपास ही क्यों सुदूर-दूर तक बसे-रहते लोगों का ख्याल रखते। जो उन्हें नापसंद थे उनके लिए ललकार और प्रियजनों के लिए अपार प्यार। यह उनका स्वभाव था।
बहरहाल, मुक्तिबोध की तरह वे प्रलयंकारी काव्यमेधा के प्रतिनिधि कवि थे।
विष्णु खरे की याद शिद्दत से आती है। मुझे ही नहीं, मेरे परिवार को उनके चले जाने के तथ्य को आत्मसात करने में काफ़ी मशक्कत करनी पड़ी है। उनका अभाव है, रहेगा। प्रकाश मनु के इंटरव्यू अनोखे हैं। मेरी स्मरण शक्ति मुझे ऐसे एक ही अन्य की याद दिलाती है, और उनके इसी तरह, बिना किसी टीप या रिकार्डर के लिए गए निहायत अनोखे साक्षात्कारों की- मनोहर श्याम जोशी, उन्हें याद करने वाले भी इन दिनों गिनेचुने ही होंगे। लेकिन जोशी जी चौतरफ़ चौकन्ने इंटरव्यूकार थे। यानी, सामने मौजूद अपने सम्मानित नायक की मूर्ति गढ़ते हुए, वह ऐंचक वैंचक लकीरों निशानियों ऐबों की भी अनदेखी नहीं करते थे,संकेत तो कर ही देते थे। अंग्रेज़ी में Hagiography और Biography में बड़ा फ़र्क़ माना जाता है। इन विधाओं के भीतर भी गुणावगुण अलग से रेखांकित किये जाते हैं। प्रकाश मनु शायद इस मामले में जोशी जी से को क़तई सहमत न होंगे। जहां जोशी जी अपने हीरो को कुछ ऐसे पेश करते थे कि वह केवल जोशी जी का नहीं, पाठकों का भी हीरो बन जाता था, वहां इस संस्मरण में प्रकाश मनु के विष्णु खरे, प्रकाश मनु के ही विष्णु खरे रह जाते हैं।
भावनात्मकता और भावुकता के बीच ,हमारे प्रिय मित्र प्रकाश मनु की डायरी में, किसी तरह का फ़र्क़ दर्ज नहीं हो पाता। मझधार के झकोलों का उल्लेख चाहें जितना हो, नैया हमेशा उस पार ही रहती है–इस पार नहीं, क्योंकि इतने क़रीब चांद का मुंह टेढ़ा भी लग सकता है। ऐसा नहीं कि evil को देखना पहचानना वे जानते न हों– ऐसा होता तो उनका कथा लेखन वह कदापि न होता जैसा कि है, बल्कि कुछ कविताएं भी evilकी पराकाष्ठा हमें दिखा जाती हैं–पर अपने किसी भी प्रिय के बारे में कोई कटाक्ष तक मनु जी के मुख से नहीं सुना जा सकेगा। नतीजा ये होता है कि अत्यंत प्रिय होने के बावजूद, मनु भाई के खरे किसी और लोक के जीव लगने लगते हैं! और यह कोई प्रशंसनीय उपलब्धि तो नहीं ही है! मेरा संपर्क विष्णु खरे से लगभग 1965 से बना रहा, और इस मित्रता में हम दोनों ने एक दूसरे को ऐब कुटेव भी देखें ही। और भी हमारे दस पांच मित्र परिचित हैं जो तमाम स्नेह के बावजूद, बतला सकते हैं कि चांद में कुछ दाग़ तो थे। समाचार जगत की बगिया उधेड़ने वाले प्रकाश मनु की नज़र भी उस ओर ज़रूर मुड़ी होगी, लेकिन दुनिया का साहित्य पढ़ते-पढ़ते कुछेक हिंदी वाले भी , निंदा पुराण से परहेज़ करते हुए भी, ख़ालिस कशीदाकारी पर ज़रा सहम से जाते हैं। इस संस्मरण में हम प्रकाश मनु के अंतरंग को बख़ूबी पहचान सकते हैं, और एक समर्पित साहित्य प्रेमी, प्रकाश जी को जान पाना भी कम महत्वपूर्ण नहीं है।
विष्णु खरे के स्मृति-आकाश में आपका नक्षत्र अत्यन्त देदीप्यमान है.
उन स्मृतियों में अपनत्व भरा आचमन ह्रदय में तीर्थ हो जाता.
आपका स्मरण बहुविध तो है ही साथ ही साथ उस नदी में नहाते हुए उनके रचनात्मक संसार में डूब जाना भी है.
ये आलेख लिखा नहीं गया -लिखा गया है.
तन्मय होकर आपने रत्नों से भरा जो ख़ज़ाना खोजकर-खोलकर बिखेर दिया वह आपकी खरेजी के प्रति अनुराग-आसक्ति तो है ही वह पाठकों के लिये भी प्रासंगिक है.
आपकी कविता भावात्मक होती हुई, गहराई से बौद्धिक धरातल से जुड़ी है-
‘दुनिया को उठाए है हाथ में एक गेंद की मानिंद’
‘जो सात दिशाओं सत्ताईस खुले षड्यंत्रों से चला आता है
मोरचा बाँधे’
विष्णु खरे पिपरिया भी आये वे छिंदवाड़ा में थे तब. असंख्य वर्ष हो चुके इस बात को.
दिल्ली में मिलते थे तो पिपरिया के संदर्भ में पूछते ही थे.
वे नारियल हैं-बाहर से कठोर,भीतर से मुलायम.
इस लेख के स्मरण से विष्णु जी स्मरणीय हैं .
मेरी स्वस्तिक कामना.
प्रिय भाई अरुण जी,
अपनी तरह के दुर्जेय कवि और खाँटी शख्स विष्णु खरे जी की तीसरी बरसी पर कुछ लिखना
मेरे लिए स्मृतियों के एक सैलाब से गुजरने सरीखा था।
मुझे खुशी है कि आपके आग्रह पर कुछ लिखा गया, ऐसे कवि के लिए जो कई मामलों में बेनजीर था
और रहेगा। शायद इसीलिए उनके जाने के बाद भी उनका होना उसी तरह महसूस होता है।
मैंने बेशक अपनी स्मृतियों में बसे उन विष्णु करे को सामने लाने की कोशिश की,
जो मेरे विष्णु खरे थे–मेरे अपने विष्णु खरे।
पर आज सुबह से ही मित्रों और आत्मीय साहित्यकारों की जैसी उत्साह भरी
प्रतिक्रियाएँ मुझे मिल रही हैं, उससे लगता है, कि जिस तरह से वे मेरे–मेरे अपने विष्णु खरे थे,
उसी तरह बहुतों के अपने–बहुत अपने विष्णु खरे जरूर रहे होंगे। इसीलिए उनके संग-साथ वालों को
उनकी उपस्थिति आज भी ठीक वैसी ही वार्म्थ के साथ महसूस होती है।
वैसे भी एक बार उनके निकट आने के बाद कोई उन्हें भूल नहीं सकता था।
मैं आज भी चौंकता हूँ, जब कभी-कभी निस्तब्धता में एकाएक उनकी आवाज
गूँजती हैं– “कैसे हैं प्रकाश जी?”
अलबत्ता भाई अरुण जी, आपने इतने सलीके से और एक बड़े विजन के साथ
विष्णु जी से जुड़ी इन स्मृतियों को प्रस्तुत किया, इसके लिए आपका और ‘समालोचन’ का
बहुत-बहुत आभार!
स्नेह,
प्रकाश मनु
कुछ काम हम रोज़ करते हैँ. ब्रश करना, नाश्ता करना, नहाना, इत्यादि, उसी तरह खरे जी को याद करना भी है. उनका प्रेम और गुस्सा दोनों याद आते हैँ. खरे जी पर जब उदभावना का विशेष अंक निकाला तो उनकी पत्नी का कमेंट बड़ा अच्छा लगा. उनका कहना था ” आपने ऐसा अंक निकाला जैसे विष्णु निकालते “मैंने उनके साथ अपनी ज़िन्दगी का क्वालिटी टाइम बिताया है. उन्हें भूलना असंभव है.
विष्णु खरे जी पर अच्छा संस्मरण लिखा है प्रकाश मनु जी ने उनसे मेरी बात होती रहती है विष्णु खरे जी को लेकर मेरा उपन्यास भूलन कांदा जब गया में छपी थी तब विष्णु खरे जी ने मुझे फोन करके कहा था कि मैं उनसे मुंबई आकर मिलूं उन्हें मुझसे कुछ बातें करनी है उनसे कहा, “मैं ज़रूर मुम्बई आकर आपसे मिलता हूँ।” संयोग से जनवरी 2011 में ही मुझे एक कार्य मुंबई का मिल गया। मैं पंजीयक फर्म एवं संस्थाएँ था। उससे संबंधित एक कंपनी ला के प्रकरण में मुख्यसचिव विवेक ढाँढ को नोटिस मिला। कंपनी ला बोर्ड मुंबई में 7 जनवरी को उपस्थित होना था। मुझे कहा गया इस प्रकरण में मुंबई जा कर बोर्ड के सामने उपस्थित हो जाएँ। नेकी और पूछ-पूछ! मैं तो विष्णु खरे से मिलने के लिए लालायित था सो मैं तुरंत तैयार हो गया। अपने साथ चलने के लिए रमेश अनुपम को तैयार कर लिया। मैं और रमेश अनुपम दोनों 6 जनवरी को मुम्बई गए। विष्णु खरेजी के निवास के पास ही मलाड वेस्ट के एक होटल में हम लोग रुके। पहले दिन तो विष्णु खरे होटल में आ गए। रात बारह बजे तक उनसे बातें होती रहीं। दूसरे दिन हम लोग उनके निवास ए 703 महा लक्ष्मी रेसीडेंसी, गेट नं 8, मालवणी माहडा के फ्लेट में छह बजे शाम को पहुँच गए। घर में वे अकेले ही थे। उनका कुत्ता था और कोई नहीं। इस तरह हमारी दो बैठकें हुईं और ‘भूलन कांदा’ को लेकर अच्छी चर्चा हुई। उन्होंने पूछा कि गाँव के लोग क्या मुखिया के सामने बीड़ी पिएँगे ? मैंने बताया कि ज़रूर पिएँगे, इसमें कोई लिहाज या परहेज नहीं है। यह आमतौर पर देखा जाता है। बल्कि ऐसा होता है कि कई बार मुखिया ही गाँव वालों को अपनी ओर से बीड़ी देते हैं। इसी तरह कई और प्रश्न उन्होंने किए जिसका समाधान मैंने किया। उनसे यह मुलाक़ात मैं हमेशा याद रखूँगा। उन्होंने बताया कि वे तीन बार ‘भूलन कांदा’ उपन्यास पढ़ चुके हैं। विष्णु खरेजी ने पूरा घर दिखाया और बताया कि उनका बेटा फ़िल्म निर्देशन के क्षेत्र में काम कर रहा है। दिन रात व्यस्त रहा करता है। फ़िल्म ब्लैक और उसके पहले संजय लीला भंसाली के फ़िल्मों में सहायक के रूप में निर्देशन का कार्य किया है आजकल सतीश कौशिक के साथ फ़िल्म कर रहा है। हमारे बैठे में ही तीन बार बेटे का फ़ोन आता है कि सबके लिए क्या डिनर भिजवा दूँ? हम लोगों ने मना कर दिया क्योंकि तीन बजे ही हम भोजन किए थे