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Home » हर कोई युद्ध के पहले और युद्ध के बाद की तस्वीर की तरह है: रवीन्द्र व्यास

हर कोई युद्ध के पहले और युद्ध के बाद की तस्वीर की तरह है: रवीन्द्र व्यास

सोमाली मूल की ब्रिटिश कवयित्री वार्सन शिरे अपनी कविताओं के लिए विश्वविख्यात हैं, विशेष रूप से प्रसिद्ध गायिका बेयोन्से नोल्स के संगीतमय एल्बम ‘लेमोनेड’ और ‘ब्लैक इज़ किंग’ के लिए लिखी गई कविताओं के लिए. उनकी कविताएँ, जैसे ‘टीचिंग माई मदर हाउ टू गिव बर्थ’ और ‘हर ब्लू बॉडी’, ने उन्हें व्यापक ख्याति दिलाई है. इसके अतिरिक्त, उन्होंने अफ्रीका के सबसे बड़े शरणार्थी शिविर में सोमाली लड़कियों पर आधारित फिल्म ब्रेव गर्ल राइजिंग के लिए भी लेखन किया है. उनकी साहित्यिक यात्रा को समझने के लिए, रवींद्र व्यास का यह आलेख शिरे के उद्धरणों, साक्षात्कारों और कविताओं के अंशों के भावानुवाद को एक रचनात्मक कोलाज की तरह पिरोता है. प्रस्तुत है.

by arun dev
May 13, 2025
in आलेख
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हर कोई युद्ध के पहले और युद्ध के बाद की तस्वीर की तरह है: रवीन्द्र व्यास
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वार्सन शिरे
हर कोई युद्ध के पहले और युद्ध के बाद की तस्वीर की तरह है

प्रस्तुति : रवीन्द्र व्यास

 

मैं हमेशा से ही सोमाली स्त्रियों की गुप्त ज़िंदगियों से जुड़ी रही हूँ. जिन स्त्रियों  ने मुझे पाला-पोसा, वे ज़िंदगी से भरपूर थी. वे उज्ज्वल थीं और अंधेरे में डूबी हुईं. वे जंगली और क्रूर थीं. वे कोमल और भोली थीं. वे विक्षिप्त और पागल थीं.

मैं उनके रीति-रिवाजों पर मुग्ध थी.

मैं उनके भावनात्मक उफान, मानसिक आघातों और व्याधियों से भयभीत रहती. वे युद्ध और हिंसा के जिस भयानक दौर से गुज़री, वह ख़ौफ़नाक था.

मैं इन सबसे भयभीत थी.

बिना किसी की नज़रों में आए, मैं दीवारों से कान सटा उनकी कहानियाँ सुनतीं.

खिड़कियों की दरारों से उन्हें देखती. उनकी यातनाओं और दुखों की कहानियाँ उनके चेहरों पर देखती-सुनती. मैं सांस रोके, रात-रात उनकी कहानियाँ सुनती, जब तक कि कोई मुझे गोद में उठा, बिस्तर पर सुला नहीं देता था.

मुझे उनके भीतर बन गई समय की दरारों में सो जाना और जागना रोमांचित करता था.

मैं अपने परिवार को एक दर्दनाक इकाई के रूप में देखती हूँ और बिना रुके, हर रिश्तेदार से बातचीत करती हूँ. खोद-खोद कर उनसे पूछती हूँ ; मुझे बताओ अपनी कहानियाँ. सुनाओ अपनी दास्तान.

हममें से कई ने अपने ही लोगों की अजीब क्रूरताओं को सहन किया है. हमारी संस्कृति(यों) ने हमें चुप रहने के लिए विवश किया है और सबकुछ भूलकर आगे बढ़ जाने के लिए भी. जैसा कि जेम्स बाल्डविन कहते हैं-

‘अगर मैं तुमसे प्यार करता हूँ, तो मुझे तुम्हें उन चीज़ों के बारे में जागृत करना होगा, जो तुम नहीं देखते. ‘

 

मैं सबकुछ देखना चाहती थी, सुनना चाहती थी, दर्ज़ करना चाहती थी.

पितृसत्ता अपंग बनाती है. धार्मिक दुर्व्यवहार अलग-थलग करता है. नस्लवाद अपमानित करता है. युद्ध आघात पहुँचाता है. गरीबी जो करती है, करती है और आख़िरकार, हमेशा बच्चों को इसकी कीमत चुकानी होती है.

मेरे पिता ख़ानाबदोश चरवाहों के परिवार में पले-बढ़े. बाद में वे सोमालिया की राजधानी मोगादिशु में राजनीतिक पत्रकार बन गए. मेरी माँ घर की देखभाल करती और हमें पालती-पोसती. अस्सी के दशक में मेरे पिता राजनीतिक भ्रष्टाचार पर किताब लिख रहे थे- द कॉस्ट ऑफ़ कार्नेज. जब यह छपकर आई और सरकार को पता चला तो उन्होंने पिता को जेल में डाल देने की धमकियाँ दी.  पिता और माँ केन्या चले गए और बाद में 1988 में मैं भी केन्या चली गई. वहाँ से हमारा परिवार लंदन चला गया. यहीं मेरे भाई साद का जन्म हुआ.

1991 में, सोमालिया में गृह युद्ध छिड़ गया. स्थानीय कबीलों से जुड़े मिलिशिया ने राष्ट्रपति मोहम्मद सियाद बर्रे के सैन्य शासन का तख़्तापलट दिया. फिर उन कबीलों, इस्लामवादी समूहों और अन्य गुटों ने सत्ता के लिए लड़ाई शुरू कर दी.

मोगादिशु में चार महीनों के दौरान, लगभग पच्चीस हज़ार लोग मारे गए. बीस लाख से ज़्यादा लोगों को अपना घर छोड़ना पड़ा. 15 लाख लोगों को देश छोड़ना पड़ा. इसमें मेरा और मेरे तमाम संबंधियों का परिवार भी शामिल था.

मेरे परिवार के ज़्यादातर लोगों से मैं वास्तव में मिल ही नहीं पाई, क्योंकि उनमें से बहुत से लोग युद्ध में मार दिए गए थे. कुछ विस्थापित हो गए. मुझे अपनी दादी या दादा की आवाज़ सुनने का मौका तक नहीं मिला. इसलिए मैं चाहती हूँ,  मेरे बच्चे, मेरे परिवार के विस्थापित लोगों की आवाज़ सुन सकें. मैं अपने रिश्तेदारों के तमाम अनुभवों को भी रिकॉर्ड करना चाहती हूँ. ये असाधारण कहानियाँ हैं और ये ऐसे लोग हैं जो अभी भी किसी तरह जीवित हैं!

मैं इसीलिए अपनी किताब लिखने के लिए अपने रिश्तेदारों की बातचीत और टिप्पणियों का सहारा लेती हूँ.

मैं अपनी तमाम मानसिक बीमारियों और उलझनों के बारे लिख डालना चाहती हूँ. असल में, मैं  व्यक्तिगत रूप से कलंक और वर्जनाओं से मुक्त होना चाहती हूँ जिन्हें लेकर मुझे कभी शर्म महसूस होती थी. मैं उन विक्षिप्त स्त्रियों को क़रीब से जानती-पहचानती हूँ, जिनके बारे में मैं सब कुछ दर्ज़ करना चाहती हूँ.

मैं उन्हीं स्त्रियों में से एक हूँ.

लाखों लोगों ने युद्ध के दौरान अत्याचार देखे और झेले. उनमें से कई विस्थापितों ने इंग्लैंड आकर अपने ज़िंदगी को संवारने के लिए अथक संघर्ष किया. मेरे पिता ने तो मोगादिशु की कई जगहों की तस्वीरें लगाई थी. इन तस्वीरों में युद्ध के पहले की सुंदरता की तस्वीरें शामिल थीं और युद्ध शुरू होने के बाद की तबाही की तस्वीरें भी.

हर कोई युद्ध के पहले और युद्ध के बाद की तस्वीर की तरह है.

लेकिन इंग्लैंड आ जाने के बाद मैं अपने ही देशवासियों को देखती हूँ, तो बहुत दुःख होता है. यहाँ सोमालियाई, ब्रिटिश संस्कृति में रचने-बसने की हास्यास्पद कोशिशें करते हैं. कुछ सोमालियाई पुरुष सोमालिया की याद दिलाने वाली हर चीज़ से बचने की कोशिशें करते थे, लेकिन अंततः सांस्कृतिक अलगाव की भावना उन्हें जकड़ ही लेती है.

वे यहाँ और भी अकेले होते चले जाते हैं.

मैं जिन पुरुषों के साथ बड़ी हुई, उनमें से कुछ के बारे में मुझे हमेशा एक बात खासतौर से दुखद लगी. वे ऐसे बड़े सूट पहनते हैं, जो उनकी कलाई पर लटकते थे और वे किसी नवयुवकों की तरह दिखते थे. ऐसे नवयुवक जो नौकरी के लिए इंटरव्यू देने जा रहे हों, जहाँ उन्हें कभी स्वीकार नहीं किया जाएगा. मुझे बार-बार यह याद दिलाता था कि इस नई दुनिया में उनका जीवन कितना निरर्थक लग रहा होगा.

 

वे कहीं भी फिट नहीं होते!

जैसे कि मेरे चाचा. ओ मेरे प्रिय चाचा, क्या आप जिसे भी प्यार करते हैं, वह विदेशी है  या आप जो कुछ भी प्यार करते हैं, उसके लिए विदेशी हैं. प्यार हराम नहीं है, लेकिन सालों तक संभोग करने के बाद भी जो स्त्रियाँ आपका नाम तक सही नहीं बोल पाती हैं, तब आप ख़ुद को कितना अकेला पाते हैं : एक विदेशी.  एक ऐसी भाषा में प्रार्थना करते हुए, जिसे आपने सालों से वापरा तक नहीं.

गृहयुद्ध के दौरान इटली में सोमाली दूतावास बंद हो गया था और दर्जनों शरणार्थी वहाँ रहने लगे थे. वे ढहते हुए भवन के बगीचों में डेरा जमाए  थे. कुछ लोग छोड़ दी गई कारों में सोते थे, कुछ पीछे के बरामदे में या गैरेज में. वहाँ बिजली नहीं थी, केवल एक बाथरूम था और ठंडे पानी के लिए एक ही नल था.

अधिकांश पुरुषों ने शरण के लिए आवेदन किया था लेकिन वे वर्क परमिट या सहायता के लिए पात्र नहीं थे.

इटली ने आधुनिक सोमालिया के एक हिस्से को उपनिवेश के रूप में रखा था और उसके बाद भी दशकों तक सोमालिया की राजनीति में हस्तक्षेप करता रहा. मैं जब छोटी थीं, मेरी माँ कभी-कभी मुझे इतालवी शब्दों में डांटती थीं. जब मैं शरणार्थियों से उनके जीवन के बारे में पूछती, तो माँ सांस भरकर कहती :  भगवान जाने किस चीज से बचकर हम यहाँ तक इटली पहुंचे हैं. इमिग्रेशन आपको डिटेंशन सेंटर में डाल देता है. जब आप रिहा होते हैं, तो कोई  कहता है- आपको वहीं चले जाना होगा, जहाँ अफ़्रीकी हैं. इसलिए शरणार्थी पुराने दूतावास में जाते हैं. दिन के समय, भीख मांगने के लिए ही बाहर निकलते हैं.

एक युवा शरणार्थी ने दूतावास की छत से कूदकर अपनी जान दे दी !

मैं हमेशा शरणार्थी होने के अनुभव से गुज़री हूँ लेकिन यह पहली बार था जब मैंने अनुभव किया कि यह वास्तव में कितना ख़तरनाक और जोखिम भरा हो सकता है.

कोई भी घर से तब तक बाहर नहीं निकलना चाहता, जब तक कि घर ही शार्क का मुंह न बन जाए. हम सीमा की ओर तभी भागते हैं, जब देखते हैं कि पूरा शहर ही भाग रहा है. यह समझना ज़रूरी है कि ऐसी स्थिति में कोई भी अपने बच्चों को नाव में नहीं बैठाएगा जब तक कि उसे यक़ीन ना हो जाए कि समुद्र, ज़मीन से ज्यादा सुरक्षित ना हो.

 

कौन, शरणार्थी शिविरों में जाना चाहेगा.

कई बार लगता है जेल, आग के शहर से ज़्यादा सुरक्षित है. और रात में एक जेल का गार्ड आपके पिता जैसे दिखने वाले लोगों से भरे ट्रक से बेहतर दिखाई देता है.

मेरे माता-पिता उत्तरी लंदन के एक ऐसे इलाके में बस गए थे, जहाँ ज़्यादातर लोग गोरे थे और नए लोगों के प्रति उनका व्यवहार कतई अच्छा नहीं था. एक बच्ची के तौर मैंने उत्साह से अपनी आंटी से कहा कि वे मुझे सड़क के उस पार रहने वाली एक लड़की की जन्मदिन की पार्टी में ले जाएं. जब हम वहाँ पहुंचे, तो लड़की के पिता ने दरवाज़ा खोला, हमें देखा और फिर हमें उल्टे पैर लौटा दिया.

जब मेरे पिता पहली बार मुझे स्कूल छोड़कर गए तो एक छोटे लड़के ने मुझे ‘काली लड़की’ कहा. मैं रो पड़ी. पिता को स्कूल बुलाने के लिए ज़िद करने लगी.  जब पिता आए तो मैं उन्हें बताया कि एक लड़के ने मुझे ‘काली लड़की’ कहा. पिता ने कहा- ‘तुम हो काली और वापस चले गए.’

पिता की बात सुनकर, पता नहीं क्यों मैं तुरंत शांत हो गई. अगर वे मुझसे यह बात किसी दूसरे ढंग से कहते तो हो सकता है, मैं वह नहीं होती, जो मैं आज हूँ.

मैं सात साल की थी, तब माता-पिता का तलाक हो गया. पिता घर छोड़कर चले गए. लेकिन दोनों के बीच क़रीबी रिश्ता बना हुआ था. दो साल बाद, महीनों तक बेदखली नोटिस जारी होने के बाद पुलिस ने हमें घर से बाहर निकाल दिया.

हम दो साल से ज़्यादा  बेघर रहे. हॉस्टल या फिर पारिवारिक मित्रों के घरों के बीच भटकते रहे. मैंने और भाई ने स्कूल जाना बंद कर दिया. हम पूरे दिन सोप ऑपेरा देखते रहते या बेघरों के लिए आश्रय के रूप में इस्तेमाल किए जाने वाले पुराने होटलों की लिफ्टों में ऊपर-नीचे सवारी करके अपना मनोरंजन करते, समय बिताते.

आख़िरकार, हमारे परिवार को सार्वजनिक आवास में जगह मिल गई. मेरी माँ अक्सर दोस्तों, परिवार के सदस्यों और अजनबियों सहित अन्य सोमाली शरणार्थियों को अपने घर ले आती थी. वह एक महिला को घर ले आई, जो उसे बस स्टॉप पर मिली थी.

कभी-कभी कुछ अनुभव ‘जादुई’ होते थे. एक महिला के साथ, मैंने इतालवी कॉफी पी और अपने नाखूनों को रंगा. लेकिन कई लोगों ने मुझे और मेरे भाई पर गुस्सा निकार  मार-पीटा.

यह बात मेरे दिमाग़ में नहीं थी कि सोमाली, युद्ध में पीड़ित और अपराधी दोनों थे.

 

कोई और यह क़तई नहीं जान सकता कि आपके सामने के दरवाज़े से कौन आ रहा है. आप नहीं जानते कि दरवाज़े से आने वाला कोई व्यक्ति ऐसा भी हो सकता है जिसने अभी-अभी मानव रक्त का आनंद लिया है और ऐसा करते हुए उसने लंबा वक़्त बिताया है. या दरवाज़े से आता कोई ऐसा व्यक्ति भी हो सकता है जिसने बीसियों बार बलात्कार किया है!

यह कल्पना करना भी मुश्किल है कि गृहयुद्ध के दौरान सोमाली स्त्रियाँ किन-किन ख़ौफ़नाक स्थितियों से गुज़री हैं.

मैं बारह साल की उम्र से ही तस्वीरें साथ लेकर चल रही थी; जब मेरा परिवार बेघर हो गया तो मेरे पास बस सिर्फ़ तस्वीरें ही बची थीं. मुझे लगता है कि लोगों के पास अपने बचपन की ज़्यादा तस्वीरें होनी चाहिए. मेरी  पसंदीदा तस्वीरें वे हैं जो सोमालिया में मेरे  माता-पिता की प्रेम कहानी को बयाँ करती हैं. इन तस्वीरों में मेरे माता-पिता अपनी शादी में, डांस पार्टी में, समुद्र तट पर ख़ुश दिख रहे हैं, कितने स्टाइलिश. मैं जब  भी इन तस्वीरों को देखती हूँ, इनमें खो जाती हूँ. 2013 में मैंने पहली बार मोगादिशु की यात्रा की. इस यात्रा ने सोमालिया को मेरे लिए वास्तविक और बहुत रोमांटिक बना दिया था. यह सिर्फ़ मेरी कल्पना की उपज नहीं, यह सचमुच बहुत रोमांटिक था.  मेरे लिए यहाँ की हवा को सूंघना, महसूस करना, यहाँ की भूमि को महसूस करना, पानी में रहना, यह सब कुछ बहुत ख़ास था.

 

मेरी एक पसंदीदा फ़िल्म है- ‘द मिल्क ऑफ सॉरो’. यह एक पेरूवियन ड्रामा है. यह एक ऐसी स्त्री के बारे में है जो अपनी माँ के तमाम आघातों को विरासत में पाकर बीमार हो गई है. यह स्त्री युद्ध के दौरान यौन हिंसा की शिकार थी. मेरा पालन-पोषण भी बहुत से ऐसे लोगों ने किया था जिन्हें पी.टी.एस.डी. था. बार-बार, यह देखकर कि किस तरह से उन आघातों ने मेरे परिवार, मेरे समुदाय को प्रभावित किया है, वह त्रासद है.

जब मेरे चाचा किशोर थे, तो उन्हें विदेश में अध्ययन करने के लिए छात्रवृत्ति मिली थी. परिवार के सदस्य उन्हें एक ऐसे रिश्तेदार के रूप में जानते थे, जो बहुत होनहार था. लेकिन जब नब्बे के दशक की शुरुआत में सोमालिया में गृहयुद्ध छिड़ गया, तो उन्होंने छात्रवृत्ति खो दी. वे इंग्लैंड चले गए, लेकिन उन्होंने कभी शादी नहीं की. सालों से मैं अक्सर अपने चाचा से उनके अतीत के बारे में बातें करती रहती थी. बोर्डिंग हाउस में, दालचीनी और इलायची के साथ मसालेदार सोमाली कॉफी कक्सवो पीते हुए, एक बार चाचा ने मुझे बताया-

‘मुझे लगता है, मैं ज़िंदगी में पूरी तरह नाकामयाब रहा और  युद्ध से अभिशप्त.

मुझसे चाचा ने एक बात और कही थी-

‘बेटी, तुम इस दुनिया के दिए गए अकेलेपन से ज़्यादा मज़बूत बनो.‘

बहुत से सोमाली लोग हैं, जो जानलेवा तनाव में जीवित हैं. घर से  निकलते ही, वे नस्लवाद का सामना करते हैं. उन्हें नौकरी नहीं मिल पा रही है.

मुझे लगता है,  मैं युद्ध को अपने साथ अपनी त्वचा पर लेकर लाई हूँ, एक कफ़न मेरी खोपड़ी को घेरे हुए है.

हर कोई युद्ध के पहले और युद्ध के बाद की तस्वीर की तरह है!

 

_______

रवीन्द्र व्यास
10 अप्रैल 1961, इंदौर (म.प्र.)

इंदौर से प्रकाशित साप्ताहिक प्रभात किरण, दैनिक समाचार पत्र चौथा संसार, दैनिक भास्कर और नई दुनिया में पत्रकारिता. भोपाल, अहमदाबाद, जयपुर और इंदौर में एकल चित्र प्रदर्शनियां आयोजित. खजुराहो इंटरनेशनल आर्ट मार्ट, मालवा उत्सव और उस्ताद अमीर खां स्मृति समारोह के अंतर्गत रंग-अमीर चित्र प्रदर्शनी में चित्र प्रदर्शित. तीन इंटरनेशनल आर्ट गैलरी से पुरस्कृत. साहित्यिक पत्रकारिता के लिए क्षितिज सम्मान. मध्यभारत हिंदी साहित्य समिति के हिंदी सेवी सम्मान आदि से सम्मानित.संप्रति: इंदौर से प्रकाशित दैनिक अखबार प्रजातंत्र के सम्पादकीय विभाग में कार्यरत.

ravindrasvyas@gmail.com

Tags: 20252025 अनुवादअश्वेत कवितानिर्वासनयुद्धरवीन्द्र व्यासवार्सन शिरे
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Comments 7

  1. रोहिणी अग्रवाल says:
    1 month ago

    अद्भुत!
    बस, स्तब्ध हूँ!
    खोज-खोजकर Warsan Shire की कविताएँ पढ़ रही हूँ और उदासी की सघन चादर से घिरती जा रही हूँ । ऐसी उदासी जो घुमड़-बरस कर शांत नहीं होती, उदासियों का चक्रवात बुन कर व्यवस्थाओं को बनाने वाले समाज-मनोविज्ञान की शिनाख्त कर लेना चाहती है।
    मनुष्य के स्तर पर अभी हम पहुंचे ही नहीं । या पहुँच कर परिपक्व नहीं हुए।
    ऐन फ्रैंक की डायरी के पन्ने एक-एक कर खुलने लगे हैं।
    पुर्तगाली लेखक जोज़े माउरु द वास्कोनसेलूस के आत्मकथात्मक उपन्यास के भी।
    सबका नरक एक-सा यातनादायी होता है। बस शक्ल अलग-अलग! और उबरने का हौसला भी ।
    दरअसल ये रचनाएँ बांधती भी इसलिए हैं कि दर्द की अंदरूनी तहों में जाकर जिजीविषा बन जाती हैं।

    Reply
  2. M P Haridev says:
    1 month ago

    पहली दफ़ा ‘ढेर सारी बधाई’ समालोचन के लिए । इस कहानी में दु:ख, बचपन की कल्पनाओं की हत्या कर देना, बार-बार निर्वासन, सोमालिया की सत्ता पीड़ितों को शरण देती है मगर पीड़ा भी पहुँचाती है ।
    रवीन्द्र जी व्यास ने अनुवाद करते हुए प्रभावपूर्ण शब्दों का चयन किया । आप अनूठे हैं । एक शब्द ‘मोतिसुई’ जैसा है । जिन विदेशी शहरों के नाम नहीं सुने होते उन्हें हर अंक में अंग्रेज़ी भाषा में भी लिखना चाहिए ।
    एक पैराग्राफ़ में-पितृसत्ता अपंग करती है । नस्लवाद को बढ़ावा देती है, तथा वाक्य में कुछ और पंक्तियों को लिखा । ऐसा उद्धरण कभी नहीं पढ़ा । निश्चित रूप से ‘काली लड़की’ की व्यथा ने लिखवाया ।
    इस अंक का प्रिंट निकलवाकर डायरी में लिखूँगा । हमारी तीसरी, चौथी पीढ़ी के बच्चे पढ़ेंगे ।

    Reply
  3. ऐश्वर्य मोहन गहराना says:
    1 month ago

    बहुत बढ़िया। युद्ध और विस्थापन को समझने की दृष्टि प्रदान करता है।

    Reply
  4. कुमार अम्बुज says:
    1 month ago

    अद्भुत गद्य है।
    तकलीफ़ का समंदर। और बहता हुआ।
    पढ़ते ही जकड़ लेता है। रवि का अनुवाद मार्मिकता को बचाए रखता है, इस प्रक्रिया में उसे क्षरित नहीं होने देता। इधर ऐसा कुछ कितना कम पढ़ने को मिलता है। जीवन की टीस से लबालब और उम्मीद की तरफ़ हाथ पकड़ कर ले चलता हुआ।
    बधाई। धन्यवाद।
    *
    क़रीब पाँच बरस पहले वार्सन शाइरे की एक कविता की तरफ़ मैंने भी फेसबुक पर ध्यानाकर्षण किया था। उस पोस्ट को अभी अपनी वाॅल पर, इसी संदर्भ रवि को याद करते हुए पुनर्पोस्ट कर रहा हूँ। रुचिवान मित्र चाहें तो देख सकते हैं।

    Reply
  5. subhash gatade says:
    1 month ago

    ‘ … मैं युद्ध को अपने साथ अपनी त्वचा पर लेकर लाई हूँ, एक कफ़न मेरी खोपड़ी को घेरे हुए है.
    हर कोई युद्ध के पहले और युद्ध के बाद की तस्वीर की तरह है!’

    शुक्रिया रविंद्र जी।
    वार्सन शिरे जैसी आवाज़ से परिचय कराने के लिए

    Reply
  6. Anonymous says:
    1 month ago

    पढ़ाकर अच्छा लगा। दुख भी हुआ और हैरानी भी। पश्चिम के लिए पूरी दुनिया उपनिवेश है। हर कहीं, किसी न किसी पश्चिम देश ने कब्जा किया, उद्योग धंधों को लूटा, युद्ध किए/करवाए और फिर मानवाधिकार पर भाषण भी दिए। यह अजीब है। मगर फिर भी, लोग जीवित रहते हैं। युद्ध से पहले और युद्ध के बाद अगर कोई चीज़ बचती है, तो वह है उम्मीद।

    Reply
  7. रवि रंजन says:
    1 month ago

    दिल और दिमाग़ को झकझोड़ देने वाला चित्रण है इसमें.
    यातना और विस्थापन की पीड़ा को नए अंदाज़ में उकेरा गया है.

    Reply

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समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

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