छायावादी काव्य में मिथकीय प्रतीकों की पुनर्रचना
(संदर्भ : ‘कामायनी’ और ‘राम की शक्तिपूजा’)
विनोद तिवारी
मिथक और साहित्य का संबंध अभिन्न है. यह संबंध नया भी नहीं है. बहुत पुराना है. जबसे मनुष्य है, समाज है, साहित्य है, संभवतः तब से. आदिमानव काल से लेकर विकसित समाजों तक में मिथक किसी न किसी रूप में पाए जाते हैं. मिथक, आदिम समाजों से लेकर आज तक चले आ रहे हैं, इन्हें मनुष्य की सामूहिक गल्पात्मक (fictional) अभिव्यक्ति का नतीजा मान सकते हैं. ऐसा माना जाता है कि जब इतिहास लेखन शुरू भी नहीं हुआ था, आद्य-बिंबों और मिथकों के सहारे ही मनुष्य प्रकृति और अपने संबंध को खोजने-पाने की कोशिश करता रहा होगा. जब मनुष्य और प्रकृति के बीच विभाजक रेखाएँ स्पष्ट नहीं थीं, मनुष्य प्रकृति की लीला, उसके रहस्य और उसके चमत्कार को देख कर विस्मिय और भय से भर उठता होगा. इसी विस्मय और भय से छुटकारा पाने की आकांक्षा में मिथक की रचना हुई होगी. ऐसे में यह कहा जा सकता है कि मिथक आदिम मानव की सामूहिक अनुभूतियों का अतिप्राकृत अभिव्यक्त रूप हैं. अतिप्राकृत घटनाओं और चमत्कारों का मानवीकरण और अध्यात्मीकरण करने के लिए इसका उपयोग साहित्य आदि में किया जाता रहा है. विद्वानों ने मिथकों की तीन कोटियाँ बताई हैं –
1. सृष्टि/प्रलय संबंधी मिथक
2. पूजा-टोटेम-आचार संबंधी मिथक
3. प्रकृति संबंधी मिथक
पाश्चात्य विद्वानों मैक्समूलर, जेम्स फ्रेज़र, जॉन हेरिसन, गिल्बर्ट मरे, मालेनिवस्की, लेवी स्ट्रास, फ्रायड, युंग आदि ने अपने अकादमिक अध्ययनों के द्वारा मिथक का सिद्धांतीकरण करते हुए इन्हें ही-
आधि-व्याधि संबंधी मिथक (Aetiological Myth),
ऐतिहासिक मिथक (Historical Myth) और
मनोवैज्ञानिक मिथक (Psychological Myth) कहा है.
परंतु, इस लेख का लक्ष्य मिथक या मिथकशास्त्र की रचना और सैद्धांतिकी का विवेचन नहीं है. इसलिए उस ओर जाने का न तो अवसर है न ही औचित्य. दरअसल, साहित्य आदि कलाओं में, समय-समय पर, मिथक और उनके प्रतीकों के सहारे किसी समाज और संस्कृति को किस तरह से रचित, पुनर्रचित, परिभाषित और पुनर्परिभाषित करने के प्रयास किए जाते हैं, उनको जानना और उनकी समीक्षा ही इस लेख का लक्ष्य है. इस तरह की समीक्षा की जरूरत भी इसलिए पड़ती है कि-
“संस्कृति या समकृति कोई निर्मित वस्तु न होकर विकास का अनवरत क्रम है. मनुष्य का प्रत्येक कर्म अपने पीछे विचार, चिंतन, संकल्प, भाव तथा अनुभूति की दीर्घ और अटूट परंपरा छिपाए रहता है, इसी से संस्कार-क्रम भी अव्यक्त और व्यक्त दोनों सीमाएँ छूता हुआ चलता है. भाषा संस्कृति का लेखा-जोखा रखती है, अतः वह भी अनेक संकेतों और व्यंजनाओं में एश्वर्यवती है.”[1]
निश्चित ही संस्कृति विचार, चिंतन, संकल्प, भाव तथा अनुभूति का व्यक्त रूप है. भाषा इसी अभिव्यक्ति की सामाजिक क्रिया-प्रतिक्रिया और साहित्य भाषा और समाज की इस क्रिया-प्रतिक्रिया का सृजनात्मक रूप. इसलिए जब हम साहित्य के आधार-बिन्दुओं और धारणाओं के धरातल पर मिथक की समीक्षा करते है तो उसका अर्थ वही नहीं है जो दूसरे अनुशासनों में मिथक के अध्ययन-मनन का है. इसी बात की ओर बहुत पहले हिंदी के कवि सचिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ ने अपने एक लेख ‘साहित्य में मिथक’ में समझाते हुए लिखा है-
“सांस्कृतिक दृष्टि से मिथक की चर्चा करें तो उसका कुछ और रूप हमारे सामने आएगा, समाजशास्त्र या नृतत्वशास्त्र की दृष्टि से उसकी चर्चा करें तो हम एक दूसरे ही क्षेत्र में चले जाएंगे, धर्म के संदर्भ में उसकी चर्चा करें और एक क्षेत्र में चले जाएंगे. साहित्य में मिथक का विचार करते समय हम इनमें से किसी को छोड़ नहीं सकते, क्योंकि ऐसा नहीं है कि साहित्य में धर्म या समाज का या संस्कृति का कोई स्थान नहीं होता. लेकिन साहित्य की परिधि में मिथक की चर्चा में इन सबको सम्मिलित करते हुए भी कुछ दूसरे प्रकार के प्रश्न भी हमारे सामने आ जाएँगे.”[2]
आगे चलकर अपने इसी लेख में अज्ञेय ‘ये दूसरे प्रकार के प्रश्न’ कौन से हैं उसका खुलासा करते हैं. वह मिथक को रहस्यमय शक्ति का स्रोत मानते हुए लिखते हैं–
“एक तरफ वह (मिथक की शक्ति) किसी भी संस्कृति या जाति की अस्मिता का आधार होती है, दूसरी तरफ वह उसको किसी दूसरी संस्कृति से अलग और विशिष्ट रखने का भी एक साधन होती है. इसलिए हर संस्कृति के जो मिथक होते हैं वे जहाँ एक तरफ उस संस्कृति के पूरी अनुभव संचय से काम लेते हैं, वहाँ उसके साथ-साथ एक ऐसी रहस्यमय भाषा भी गढ़ते हैं जो उस संस्कृति की अस्मिता को और सब संस्कृतियों से अलग बनाए रखने में योग देता है…. ‘यह संस्कृति मेरी संस्कृति है’ जहाँ एक तरफ इसकी पहचान उसकी हर इकाई अपने लिए करना चाहती है वहाँ उसके साथ-साथ हर इकाई स्पष्ट या निहित भाव से यह प्रयत्न भी करती हे कि कोई दूसरा इस रहस्य तक अनायास न पहुँच सके. इसलिए मिथक एक तरफ अपनी पहचान का और दूसरी तरफ अपनी रक्षा का भी एक साधन होते हैं.”[3]
साहित्य और मिथक के इस संबंध और उनकी रचना/पुनर्रचना के स्रोत से संस्कृति की व्याख्या/पुनर्व्याख्या के परिप्रेक्ष्य में हम आधुनिक हिन्दी कविता की दो महत्वपूर्ण रचनाओं ‘कामायनी’ और ‘राम की शक्तिपूजा’ को पढ़ने और समझने का प्रयास करेंगे. किसी भी संस्कृति और सभ्यता को प्रकट करने, उसे अभिव्यक्त करने की प्रायः दो रचनात्मक विधियाँ उपयोग में लाई जाती हैं– प्रतीकात्मक और वस्तुपरक.
कहीं-कहीं दोनों विधियों की अनन्यता भी पाई जाती है. प्रतीकात्मकता से वस्तुपरकता की यात्रा भी कुछ रचनाओं में देखी जा सकती है. इसे हम आदर्शवाद से यथार्थवाद की यात्रा भी कह सकते हैं. क्या छायावादी काव्य में मिथकों का प्रतीकात्मक उपयोग इसी रास्ते पर है ? इसकी पड़ताल की कोशिश भी आपको इस लेख में दिख जाएगी.
(The Fall of the Damned by Peter Paul Rubens- 1620) |
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‘कामायनी’ न केवल जयशंकर प्रसाद की, वरन् छायावाद और आधुनिक हिंदी कविता की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है. इसे आधुनिक युग का महाकाव्य कहा गया है. नामवर सिंह जैसे आलोचकों ने इसे ‘भारत की आधुनिक सभ्यता का प्रतिनिधि महाकाव्य’[4] कहा है. कुछ विद्वानों ने इसे पाश्चात्य भोगवादी भौतिक-सभ्यता के बरक्स भारतीय त्याग और तप की अध्यात्मवादी-सभ्यता के रूप में भी चिन्हित और परिभाषित किया है. ‘कामायनी’ में प्रसाद ‘सृष्टि/प्रलय मिथक’ को कथा का प्रस्थान बनाते हैं और तीन मिथकीय चरित्रों अथवा प्रतीकों मनु, श्रद्धा और इड़ा के सहारे कथानक का निर्माण करते हैं. मिथक बिंबों और प्रतीकों के माध्यम से अभिव्यक्त होते हैं. समय, समाज और सभ्यता के विकास-क्रम में मिथक, जातीयता के निर्माण और उत्थान/पुनरुत्थान के नाम पर अपने प्रतीकों के माध्यम से लौट-लौटकर आते हैं. संस्कृति, सभ्यता, सामज और राष्ट्र को परिभाषित/पुनर्परिभाषित करने के बहाने पुराने मिथक नई अर्थवत्ता के साथ, नए सिरे से प्राणवान और जीवंत हो उठते हैं.
यही कारण है कि सभी युगों में लेखकों ने साहित्य में मिथकों का आश्रय ग्रहण किया है. अगर, केवल आधुनिक हिंदी कविता की ही बात की जाय तो विस्तार में न जाते हुए भी अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ का ‘प्रियप्रवास’, मैथिलीशरण गुप्त रचित \’साकेत\’, निराला रचित \’राम की शक्ति पूजा’ और प्रसाद के ‘कामायनी’, नरेंद्र शर्मा के \’द्रौपदी\’, नागार्जुन का \’भस्मांकुर\’ धर्मवीर भारती के \’अंधायुग\’, \’महाप्रस्थान\’, \’कनुप्रिया\’ तथा \’शबरी\’, जगदीश गुप्त का \’शंबूक वध\’, नरेश मेहता के \’संशय की एक रात\’, भारतभूषण अग्रवाल के ‘अग्निलीक’, कुँवर नारायण के \’आत्मजयी\’ तथा \’वाजश्रवा के बहाने\’, एवं दिनकर के \’रश्मिरथी\’ और \’उर्वशी\’ जैसे काव्य, खंडकाव्य और महाकाव्य इसके प्रमुख उदहारण हैं. इस तरह के और भी उदाहरण मौजूद हैं.
हिंदी के स्वातंत्र्योत्तर खंडकाव्यों की कथावस्तु में पौराणिक मिथकों को आधार बनाकर उसे नवीन अर्थवत्ता प्रदान करते हुए आधुनिक जीवन की किसी न किसी समस्या का समाधान प्रस्तुत करने का प्रयास किया है. इन काव्यों, खंडकाव्यों और महाकाव्यों में व्यक्ति-चरित्र, से लेकर बदलते हुए सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक मूल्यों की खोज की प्रक्रिया में साभ्यतिक विमर्श और सांस्कृतिक पुनर्रचना का लक्ष्य सामने आता है. ‘संस्कृति’ संबंधी अपने गंभीर अध्ययन और निष्कर्षों के लिए जाने जाने वाले फ्रांसीसी चिंतक रोलां बार्थ्स आधुनिक और वैज्ञानिक समाजों में मिथकों के जीवित बचे रहने के पीछे एक दूसरा तर्क उपस्थित करते हैं जो औद्योगिक सभ्यता और पूंजीवादी संस्कृति के बीच निर्मित व्यक्ति, वर्ग और समाजों को समझने में बहुत महत्वपूर्ण तर्क है –
“आधुनिक और वैज्ञानिक रूप से विकसित तर्कशील समाजों में भी मिथकों का बने रहना, विकसित होते जाना इसलिए संभव होता है कि बुर्ज़ुवा वर्ग कई तरह के छद्म में जीता है. वह लिखते हैं कि “यह वर्ग इतिहास के एक ऐसे दौर से गुजर रहा है जहाँ वह जीवन के परिवर्तनशील यथार्थ को बाँध कर रखना चाहता है, पर यह नहीं चाहता कि उसके इस प्रगतिविरोधी रूप को कोई देख ले. यही कारण है कि अपने चेहरे को छिपाने के लिए वह तरह-तरह के मिथकों की सृष्टि कर रहा है. ‘राष्ट्रवाद’ ‘नैतिकता’ ‘संस्कृति’ ‘परंपरा’ ‘आस्था’ आदि धारणाओं को इस रूप में रखा जाता है, मानो ये सनातन सत्य हों, जिनके बारे में बात करना, बहस करना उचित नहीं.”[5]
रोलां बार्थ्स के उक्त कथन के आलोक में, मिथक के प्रयोग के संदर्भ से कहना हो तो कहा जा सकता है कि प्रसाद ने ‘कामायनी’ में यह लक्ष्य रखा है कि कैसे पुरातन को सनातन और सनातन को अद्यतन बनया जाय. इस निर्मिति में वह जिस मानवीय-सभ्यता की रचना करना चाहते हैं और कामायनी को बौद्धिकता के बरक्स जिस भावात्मक (आध्यात्मिक भी नहीं) परिणति तक ले जाते हैं, वह भारतीय मिथक, इतिहास, चेतना, तार्किकता, भावुकता, पलायन आदि की व्याख्या और विवेचन का महत्वपूर्ण कथानक बन जाता है. इसीलिए ‘कामायनी’ को लेकर हिंदी आलोचना में खूब बहसें हुई हैं. पर, सभी बहसों में जो मुद्दा केंद्रीय रूप से सामने आता है वह ‘सभ्यताता-विमर्श’ अथवा ‘सभ्यता-समीक्षा’ ही है.
‘कामायनी’ में जल-प्रलय के बाद विनष्ट देव-सभ्यता और तत्पश्चात मनु और श्रद्धा के द्वारा सृष्ट नूतन मानव-सभ्यता के निर्माण की कथा कही गयी है, जिसे मनु के नाम पर मन्वंतर कहा गया है. जल-प्रलय और सृष्टि का यह मिथक दुनिया की प्रायः सभी प्राचीन सभ्यताओं– मिस्र, यूनानी, सुमेरियन– सभी में पाया जाता है. पारिस्थितिकी और नृतत्वशास्त्र का अध्ययन और शोध करने वाले अध्येताओं का मानना है कि जल-प्रलय की कथा का स्रोत कहीं न कहीं सिधु, नील, दजला, फ़रात जैसी बड़ी नदियों में आने वाली विनाशक बाढ़ से जरूर रहा होगा. भारतीय वांङ्मय की बात करें तो शतपथ ब्राह्मण में जला-प्लावन की कथा का वर्णन मिलता है. इसके अलावा ऋग्वेद, छान्दोग्य उपनिषद, श्रीमदभागवत पुराण आदि से मनु, श्रद्धा और इड़ा संबंधी कथा से मदद ली गयी है. प्रसाद ने इतिहास संबंधी गढ़ंत का सहारा भी लिया है और कल्पना से कथा में कुछ जगहों पर नवीनता भी भरी हैं. श्रीमदभागवत पुराण में मानव-सृष्टि के प्रारम्भ की कथा मनु और श्रद्धा से मानी गयी है –
ततो मनु: श्राद्धदेवः संज्ञायामास भारत
श्रद्धायां जनयामास दशपुत्रान् स आत्मवान्.
प्रसाद इस ‘जल-प्रलय और सृष्टि मिथक’ और उसकी कथा को ऐतिहासिक मानते हैं. वह लिखते हैं –
“जलप्लावन भारतीय इतिहास में एक ऐसी ही प्राचीन घटना है, जिसने मनु को देवों से विलक्षण, मानवों की एक भिन्न संस्कृति प्रतिष्ठित करने का अवसर दिया. वह इतिहास ही है.”[6]
जबकि कामायनी के एक गंभीर अध्येता मुक्तिबोध इसे ‘फैंटेसी’ मानते हैं. और उसी के आधार पर इसका अध्ययन-विवेचन करते हैं. अति संक्षेप में ‘कामायनी’ के कथासार पर एक नज़र डाल लेते हैं. ‘कामायनी’ की कथा, विनाशकारी जल-प्रलय से नष्ट हो चुकी भोगवादी देव-सभ्यता के पश्चात अकेले बचे मनु की चिंता से शुरू होती है. चिंता सर्ग को प्रसाद इस महाकाव्य की नींव कहते हैं. दूसरा सर्ग ‘आशा’ इस नींव से नयी सृष्टि का कैसे निर्माण हो उसकी पृष्ठभूमि का काम करता है. सृष्टि के अंकुरण की प्रक्रिया तीसरे सर्ग श्रद्धा से शुरू होती है, प्रकृति और पुरुष के योग से, सांख्य-दर्शन के संदर्भ में इस योग को देखा जा सकता है.
अगले तीन सर्ग काम, वासना और लज्जा सृजन की प्रक्रिया के सर्ग हैं, जो कामना, सुख और संयोग-शृंगार से परिपूरित हैं. सातवें और आठवें सर्ग- कर्म और ईर्ष्या- मनुष्य-जीवन के कर्म, संघर्ष, उद्वेलन, तनाव आदि को दर्शाने वाले सर्ग हैं. इड़ा सर्ग से कामायनी का कथानक एक दूसरा मोड़ लेता है. इस नवें सर्ग में कवि ने आधुनिक जीवन पद्धति, राष्ट्र और राजनीति, आत्मवाद बनाम बुद्धिवाद, भोग, त्याग आदि का चित्रण किया है. इड़ा मनु के जीवन और उसकी दिशा को पुनः बदलने वाली उत्प्रेरक की तरह है. इस बदलाव की प्रक्रिया, अगले तीन सर्गों- स्वप्न, संघर्ष और निर्वेद में, घटित होती है. पर, यह बदलाव अधूरा ही है क्योंकि मनु का ‘मानस-देश’ अभी भी सूना है–‘देश बसाया पर उजड़ा है, सूना मानस देश यहाँ’.
मनु मानस के इस सूनेपन से इस कदर आलोड़ित होते हैं कि सबकुछ छोड़कर पुनः उसी हिमालय पर चले जाते हैं, जहाँ पर अवतरित हुए थे. अंततः श्रद्धा ही के पुनः संयोग से उनका यह ‘सूनापन’ दूर होता है. आनंद की प्राप्ति के लिए दोनों अंततः कैलाशवासी हो जाते हैं. कामायनी लोग-अग्नि में तप कर भी लोक से कट जाती है. अंतिम तीन सर्गों – दर्शन, रहस्य और आनंद में, इसी का चित्रण किया गया है. ये तीनों सर्ग ‘कामायनी’ की संस्कृति-सभ्यता-दर्शन के निचोड़ माने जा सकते हैं.
‘कामायनी’ में प्रसाद जिस प्रलय/सृष्टि-मिथक के प्रस्थान से, मिथकीय प्रतीकों/रूपकों के सहारे ‘मानव-सभ्यता’ के निर्माण की कथा कहते हैं, क्या वह कथा आधुनिक-युग में व्यक्ति के संघर्ष और निर्माण की कथा के रूप में ठीक उसी तरह से पढ़ी जा सकती है जिस तरह से ‘राम की शक्तिपूजा’? अथवा ‘राम की शक्तिपूजा’ के राम और कामायनी के मनु का जो व्यक्ति-संघर्ष है, जो सामाजिक संघर्ष है, आखिर में दोनों के नायकत्व की जो परिणति है, क्या उसे भी एक तरह से पढ़ा जाना चाहिए ? इसका उत्तर हाँ और नहीं दोनों छोरों के बीच कहीं ढूँढना होगा. दोनों रचनाएँ लगभग एक ही समय की रचनाएँ हैं. पर दोनों के विषय-वस्तु और शिल्प-संरचना में अंतर है. एक में अपने ही कृत्यों से पतन को प्राप्त हो चुकी देव-सभ्यता के बरक्स एक नई सभ्यता, मानव-सभ्यता के जन्म, निर्माण और विकास की कथा कही गयी है और दूसरे में दो सभ्यताओं के बीच धर्म-अधर्म, न्याय-अन्याय, नीति-अनीति के बीच फँसे व्यक्ति के द्वंद्व और संघर्ष को चित्रित किया गया है.
पर, यह देखना प्रीतिकर होगा कि मिथकीय और पौराणिक विधान के साथ सांस्कृतिक और साभ्यतिक-विमर्श के अवधान और विधान में दोनों एक जैसे मूल्यों और आदर्शों की बात करते हैं या इन दोनों में कोई फर्क भी है ? संस्कृति की परिभाषा देते हुए जयशंकर प्रसाद अपने एक लेख ‘काव्य और कला’ में लिखते हैं – “संस्कृति सौंदर्य-बोध के विकसित होने की मौलिक चेष्टा है. इसलिए साहित्य के विवेचन में भारतीय संस्कृति और तद्नुकूल सौंदर्यानुभूति की खोज अप्रासंगिक नहीं किन्तु आवशयक है.”[7] इसी लेख में वह आगे चलकर सौन्दर्य-बोध को व्याख्यायित करने के दौरान रुचि-भेद का वर्गीकरण करते हुए हेगेल को उद्धृत करते हैं–
“हेगेल के मतानुसार कला के ऊपर धर्मशास्त्र का और उससे भी ऊपर दर्शन का स्थान है.”[8]
हेगेल के इस कथन के साथ अपना यह बलाघात लगाना वह नहीं छोड़ते-
“इस विचारधारा का सिद्धान्त है कि मानव सौंदर्य-बोध के द्वारा ईश्वर की सत्ता का अनुभव करता है. फिर धर्मशास्त्र के द्वारा उसकी अभिव्यक्ति-लाभ करता है. फिर शुद्ध तर्क ज्ञान से उससे एकीभूत होता है.”[9]
इस बलाघात के सहारे प्रसाद अपनी धारणा और दृष्टि के लिए वह मनोभूमि खोज लेते हैं, जिस पर ज्ञान, कर्म और इच्छा का मेल कराते हैं. ऐसा इसलिए संभव होता है कि हेगेल के ‘विश्वात्मा संबंधी सिद्धांत’ में इस तरह के घुसपैठ और बालाघात की गुंजाइश है. यही नहीं, उसके ‘द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद’ के सिद्धांत में इसकी थोड़ी-बहुत गुंजाइश है. असल में, हेगेल ने भौतिकवाद की आर्थिक संरचना और निर्मिति के कारणों को जिस तरह से ‘नैतिक निर्णय’ और ‘ऐतिहासिक विकास’ के आकस्मिक नियमों के तर्क पर मिला दिया है, जिस तरह से उसने बुद्धि और इच्छा को भी मिला दिया है, उसमें इस तरह की छूट ले लेने की संभावना बची रहती है. ऐतिहासिक विकास के आकस्मिक नियमों और परिणामों का आकलन हेगेल से छूट गया है, मार्क्स ने जिसे आगे चलकर दुरुस्त किया है. बुद्धि और इच्छा के हेगेलियन मेल के सहारे, भारतीय दर्शन और वांङ्मय के आधार पर, प्रसाद बहुत चतुराई पूर्वक, सुचिंतित ढंग से ‘कामायनी’ में समरसता के नाम पर ज्ञान, कर्म और इच्छा का एक सामाजिक-दार्शनिक घोल तैयार करते हैं. यहीं पर, आचार्य नन्ददुलारे द्वारा प्रसाद जी को दी गयी यह पदवी कि वह ‘उपायनिरूपक स्मृतिकार’[10] हैं, अपनी पूरी अर्थवत्ता में उपस्थित हो जाता है. पर जब हम इसे मुक्तिबोध के इस निष्कर्ष के साथ पढ़ते हैं तो इस अर्थवत्ता का वास्तविक अर्थ सामने आता है –
“प्रसाद ने अतीत की भावुक गौरव-छायाओं से ग्रस्त, वेदोपनिषदिक आर्य वातावरण से अनुप्राणित, समाजादर्श से प्रेरित होकर अपनी विश्व-दृष्टि तैयार की. यह विश्वदृष्टि कामायनी में प्रकट हुई.”[11]
कामायनी में निदर्शित दर्शन को लेकर अधिकांश विद्वानों ने यह मत व्यक्त किया है कि ‘कामायनी’ में शैवागम के प्रत्यभिज्ञा दर्शन से प्रसाद ने समरसता का सिद्धान्त प्रस्तुत किया है. यह समरसता का सिद्धान्त जिस दार्शनिक निदान में निष्पन्न होता है उसे ‘अभेदवाद’ कहा गया है और इसके प्रमाण के रूप में प्रसाद कि इन पंक्तियों को उद्धृत किया जाता है :
नीचे जल था, ऊपर हिम था
एक तरल था एक सघन
एक तत्व की ही प्रधानता
कहो उसे जड़ या चेतन.
अथवा
पर यह आनंद का दर्शन
है बिलकुल आध्यात्मिक ही.
कामायनी में प्रसूत ‘समरसता’ संबंधी उक्त दर्शन के संबंध में मुक्तिबोध का यह कथन जरूर देखा जाना चाहिए –
“अधिक से अधिक प्रसादजी के संबंध में यह कहा जा सकता है कि ‘कामायनी’ में जिस समरसता के दर्शन को वह सामने रखते हैं वह एक उदार पूंजीवादी-व्यक्तिवादी दर्शन है, जो यदि एक मुँह से वर्ग-विषमता की निंदा करता है, तो दूसरे मुँह से वर्गातीत, समाजातीत व्यक्तिमूलक-चेतना के आधार पर, समाज के वास्तविक द्वन्द्वों का वायवीय तथा काल्पनिक प्रत्याहार करते हुए, ‘अभेदानुभूति’ के आनंद का ही संदेश देता है.”[12]
‘दर्शन’ सर्ग का यह निचोड़ – ‘समरस अखंड आनंद वेश’, भी इसी की पुष्टि करता हुआ प्रतीत होता है –
हीरक गिरि पर विद्युत विलास,
उल्लसित महा हिम धवल हास.
देखा मनु ने नर्तित नटेश,
हत चेत पुकार उठे विशेष;
“यह क्या ! श्रद्धे ! बस तू ले चल,
उन चरणों तक दे निज संबल;
सब पाप-पुण्य जिसमें जल जल,
पावन बन जाते हैं निर्मल;
मिटते असत्य से ज्ञान लेश,
समरस अखंड आनंद वेश !”
बुद्धिवाद के बरक्स इस समरस अखंड आनंद के रूप में प्रसाद ने जो निदान प्रस्तुत किया है वह नितांत आत्मवादी है. जो देश-काल से परे जाकर एक ऐसे मानस-लोक में शरण पाता है जिसे कैलाश कहा गया है जहाँ –
स्वप्न, स्वाप, जागरण भस्म हो
इच्छा क्रिया ज्ञान मिल लय थे;
दिव्य अनाहत पर निनाद में
श्रद्धायुत मनु बस तन्मय थे.
II राम की शक्ति पूजा II
‘राम की शक्ति पूजा’ में प्रयुक्त मिथक और प्रतीकों को समझने के क्रम में हम पाते हैं कि ‘राम की शक्तिपूजा’ में दैवी, आसुरी, मानवी, अतिप्राकृत सभी तरह के पात्रों की योजना की गयी है. इस प्रबंधात्मक कविता में निराला ने प्रतीक-विधानों की रचना के क्रम में एक मनुष्य की तरह राम के द्विभाजित मन को जय-पराजय की युक्ति के रूप में उपयोग में लिया है. राम में ही नहीं हम सबके भीतर दो मन होते हैं, जिनमें दो तरह के भाव, प्रवृत्तियाँ, उनके द्वंद पाए जाते हैं. काव्य-रचना में इन द्वन्द्वात्मक भावों के निदान के लिए कवि या रचनाकर जिन प्रतीकों का सहारा लेता है, वे प्रतीक सामाजिक हैं, प्राकृतिक हैं, दैवीय हैं अथवा अतिप्राकृतिक हैं, उनका विवेचन-विश्लेषण यहाँ काम्य है.
‘राम की शक्तिपूजा’ अपनी प्रबंधात्मकता में महकाव्यात्मक हो या न हो पर, नाटकीय-विधान वाली कविता जरूर है. बनारस के युवा कवि और रंगकर्मी भाई व्योमेश शुक्ल ने देश भर में, रंगमंच पर इस कविता का प्रदर्शन कर, इसे सिद्ध कर दिखाया है. राम रावण से युद्ध में पराजित होकर अपनी क्षत-विक्षत सेना के साथ शिविर में लौट आए हैं. आज की हार का मंथन चल रहा है. विजय की कोई आशा नहीं. आज के युद्ध में सारे प्रयास निष्फल हुए. अब राम के मन में रावण की जीत का डर बैठ गया है – ‘रह रह उठता जग जीवन में रावण जय भय’. यहाँ तक, कविता मानवीय-संघर्ष, संशय, द्वंद्व और व्यक्ति की जिजीविषा के चित्र प्रस्तुत करती है. पर, आगे अचानक कविता ‘दैवी-विधान’ की संरचना में चली जाती है.
राम को लगता है कि आज की पराजय के पीछे वह भीमामूर्ति है जो आज रणभूमि में रावण की रक्षा कर रही थी और मेरे प्रत्येक वार को, मन्त्रपूत, ज्योतिर्मय अस्त्र-शस्त्र को निष्फल कर रही थी. कविता, यहाँ से अतिप्राकृत और चमत्कारिक होना शुरू होती है. अगर इस कविता के दो खंड – पूर्वखंड और उत्तरखंड – बनाए जाएँ तो, दूसरा खंड मिथक और मिथकीय प्रतीकों के अध्ययन-विश्लेषण की दृष्टि से अधिक संदर्भवान है. कविता के ‘वास्तु’ को समझने की दृष्टि से, इस तरह का एक विभाजन ‘राम की शक्तिपूजा’ के एक टीकाकार वागीश शुक्ल ने किया है. पर, वागीश जी का विभाजन सटीक और उचित है. प्रारंभिक पंक्ति – ‘रवि हुआ अस्त ज्योति के पत्र पर लिखा अमर’ से लेकर ‘सब चले सदय, राम की सोचते हुए विजय’ तक, 248 पंक्तियों का पूर्वखंड और ‘निशि हुई विगत, नभ के ललाट पर प्रथम किरण’ से लेकर ‘कह, महाशक्ति राम के वदन में हुईं लीन’ तक 249 पंक्तियों का उत्तरखंड.
दूसरा खंड, पहले दिन की पराजय के बाद हताश राम और उनकी सेना की रात्रि ‘सभा’ में जांबवान के इस सुझाव से कि ‘शक्ति की करो मौलिक कल्पना’ तभी विजय संभव होगी, की आशा से शुरू होता है- ‘निशि हुई विगत, नभ के ललाट पर प्रथम किरण’. यह खंड ‘राम की शक्तिपूजा’ में अब तक राम की जो छवि है, उससे इतर छवि रचने वाला खंड है, जो अलौकिक, चमत्कारिक और अतिप्राकृत शक्तियों से सज्जित है. साहित्य में मिथकों और मिथकीय प्रतीकों का उपयोग चाहे जितना भी समकालीन अर्थ और प्रसंगों के संदर्भ में किया जाय पर उनका सांस्कृतिक-महत्व अगर केवल धार्मिक–महत्व से आच्छादित हो जाता हो तो इसे लक्ष्य से भटकाव माना जाय या संस्कारों का प्रभाव या उन मिथकों और प्रतीकों के प्रति समाज की धार्मिक-विश्वास, जादू-टोना, चमत्कार आदि के कारण, लोक में गहरे धँसी आस्था, अंधविश्वास, भय आदि को माना जाय अथवा इन तीनों को ही जिम्मेदार माना जाय. शूमाकर ने सांस्कृतिक प्रतीकों के अर्थ-विश्लेषण की प्रक्रिया में लिखा है कि
“सांस्कृतिक प्रतीकों की अर्थ प्राप्ति भाषा-प्रतीकों के द्वारा ही संभव है.”[13]
निराला ने ‘राम की शक्ति पूजा’ में न केवल मिथकीय पात्रों का अवतरण किया है बल्कि कई स्थलों पर मिथकीय भाषा, संरचना का भी प्रयोग है. ऐसे स्थलों और प्रसंगों में कविता विस्मय, रहस्य, कौतूहल, चमत्कार, अलौकिकता से भर उठी है. मनुष्य की विवशता यहाँ प्रकट हुई है.
इस संदर्भ में कुछ प्रसंगों को देखना उचित होगा. पहला प्रसंग, उस भीमामूर्ति के वर्णन का है जो महाशक्ति के रूप में युद्धभूमि में आकाश को आच्छादित किए रावण की रक्षा कर रही है. दूसरा प्रसंग, युद्धभूमि में आज महाशक्ति के कारण रावण की विजय और अपनी पराजय के बारे में सोचते हुए राम की आँखों से आँसू निकाल आते हैं. फिर क्या, राम न सामान्य मनुष्य रह जाते हैं और न उनके परमभक्त हनुमान साधारण वानर. राम ‘अस्ति-नास्ति’ के अनिंद्य रूप अर्थात् विष्णु हो जाते हैं और हनुमान रुद्र के अवतार. ऐसे में भला हनुमान को राम के आँसू कैसे सहन हो सकते हैं, वह तत्क्षण पूरे वेग से सप्ताकाश को चीरते हुए शिव के निवास ‘महाकाश’ में पहुँच जाते हैं. यह देखकर शंकर की आकुलता बढ़ जाती है. इस महाविनाश को रोकने के लिए वह उपाय सोचते हैं और महाशक्ति को सलाह देते हैं कि बल से नहीं बल्कि बुद्धि से हनुमान को रोका जाय. शक्ति माँ अंजना का वेश धारण करती हैं और प्रकट होकर हनुमान के बचपन की उस भूल की याद दिलाते हुए, जिसमें वह सूर्य को ही ग्रसने पहुँच गए थे, उनका येन-केन-प्रकारेण प्रबोधन करती हैं और उनके क्रोध का शमन कर उन्हें वापस करती हैं. तीसरा प्रसंग, रावण के पक्ष में, श्यामा के रूप में जो महाशक्ति काम कर रही हैं, उन्हें अपने पक्ष में करने के लिए समर छोड़ कर नवरात्रि में खंडित न होने वाली कठिन पूजा करने के जांबवान के सुझाव का है– ‘आराधन का दृढ़ आराधन से दो उत्तर’.
सबसे चमत्कारिक और अतिप्राकृत चौथा प्रसंग पूजा के अंतिम पड़ाव पर आख़िरी कमल-पुष्प के चोरी हो जाने का है. उसके बदले में राम द्वारा अपनी एक आँख देवी को समर्पित करने के लिए तैयार होना और ‘श्यामा’ का ‘दुर्गा’ के रूप में अवतरित होते हुए उनके वदन में समा जाने वाल है. इस अवतरण और समाहितिकरण के जो चित्र निराला ने खींचे हैं धार्मिक रूप से वे चित्र अत्यंत ही भव्य और दिव्य हैं. श्रीदुर्गा का यह चित्र देखने लायक है – महाशक्ति के मस्तक पर शिव बिराज रहे हैं, उनकी दायीं ओर लक्ष्मी और गणेश हैं और बाई ओर सरस्वती और कार्तिकेय. दसों हाथों में तरह-तरह के अस्त्र-शस्त्र हैं. ‘राम की शक्तिपूजा’ के एक भाष्यकार वागीश शुक्ल इन शस्त्रों की पहचान शास्त्रों के प्रमाण में करते हुए इनके नाम गिनाएँ हैं – खड्ग, बाण, गदा, शूल, चक्र, पाश, शंख, भुशुंडि, धनुष और कटा हुआ सिर. हालाँकि, आप मिलान करेंगे तो अलग-अलग प्रमाणों से इनमें कुछ भिन्नता भी मिल जाएगी. खैर, देवी के दाएँ पैर के नीचे सिंह है और बाएँ पैर के नीचे महिषासुर.
यह मिथकीय प्रतीकों का सबल उदाहरण है. ऐसे और भी प्रसंग भी कविता में उदाहरण स्वरूप ढूँढे जा सकते हैं. सवाल, इन प्रसंगों और इनके द्वारा कविता के पूर्वखंड के राम और उत्तरखंड के राम के व्यक्तित्व और छवि-परिवर्तन का है. निराला के राम इस उत्तरखंड में आकर दैवीय गुणों से युक्त भले ही नहीं दिखाये गए हों पर उनका सारा संघर्ष सामाजिक-मनोभूमि पर न होकर दैवीय और अतिप्राकृत शक्तियों के सहारे धार्मिक-भावभूमि पर घटित होने लगता है जिसके द्वारा असफल, पराजित, हारे हुए साधारण मनुष्य के लिए यह निष्कर्ष निकलता है कि अतिप्राकृत, अलौकिक और चमत्कारिक शक्तियों के बिना कुछ भी संभव नहीं. भले ही इन प्रतीकों की व्याख्या समकालीन रूपकों और अर्थों में की जाय. भले ही सीता को भारतमाता और राम को उनके उद्धारकर्ता नायक के रूप में देखा जाय, पर यह कविता अपने उत्तरखंड में जिस तरह के दैवीय-विधान में सफलता और विजय का हल ढूंढती है वह सांस्कृतिक और राजनीतिक दोनों ही अर्थों में धार्मिक है.
II मनु और राम II
‘कामायनी’ के मनु और ‘राम की शक्तिपूजा’ के राम, दोनों के नायकत्व में प्रसाद और निराला ने भय-चिंता, आशा-निराशा, सुख-दुःख, संशय-दुविधा, संघर्ष-पलायन, जय-पराजय जैसे मानवीय गुण भरे हैं. यह सत्य है कि दोनों के नायक ‘ईश्वरीय’ नहीं हैं. एक तो अविजित, अमर देवताओं के लोक देवलोक से एक नयी सभ्यता के निर्माण के लिए आया है. दूसरा उसी देवलोक से इस निर्मित मानव-सभ्यता में विकसित हो गए अनाचार और अन्याय को खत्म करने आया है. परंतु, मनु और श्रद्धा के संदर्भ में अधिक से अधिक यह कहा जा सकता है कि टोटेम और अतिप्राकृत चमत्कारों को कहीं-कहीं प्रसाद ने ‘कामायनी’ में जगह दी है पर मनु में ‘ईश्वरत्व’ के संकेत नहीं हैं. ‘राम की शक्तिपूजा’ के राम आधुनिक मनुष्य के रूप में चित्रित हैं. कविता के पूर्वखंड में उनके व्यक्ति-संघर्ष के द्वारा ‘ईश्वरत्व’ जगह-जगह टूटता है. कविता में चित्रित मानवीय दुर्बलताएँ इस ईश्वरत्व को तोड़ती हैं, परंतु ‘शक्तिपूजा’ के आखिरी हिस्से में राम के लिए प्रयुक्त संबोधनों पर ध्यान देना चाहिए. यह ठीक है कि निराला के राम तुलसी के राम की तरह ईश्वर नहीं हैं पर, वह अच्युत, शेषशयन तो हैं ही जो विष्णु के सम्बोधन हैं. इससे ‘राम की शक्ति पूजा’ का बचाव नहीं किया जा सकता. यही कारण है कि प्रबल धार्मिक-आस्था के साथ हर जगह राम और सीता में ‘ईश्वरत्व’ और ‘अवतार’ ढूँढने वाली साधारण जनता से लेकर इस कविता के कुछ भाष्यकार निराला के राम और सीता को परमब्रह्म परमात्मा और परमशक्ति पार्वती का लीलावतार सिद्ध करके छोड़ते हैं. यहाँ पर, ऐसे दो भाष्यकारों, सूर्य प्रसाद दीक्षित और वागीश शुक्ल का उल्लेख करना उपयुक्त होगा. सूर्यप्रसाद दीक्षित लिखते हैं –
“पूरी कविता में पाँच स्थलों पर इस प्रकार के संकेत सूत्र प्राप्त होते हैं, जिनके आधार पर ‘राम की शक्ति पूजा’ के राम परब्रहम परमात्मा के लीलावतार सिद्ध होते हैं. उन्हें ‘अच्युत’ शेषशयन, अस्ति-नास्ति के भेद से युक्त सच्चिदानंद, लीला सहचर आदि रूपों में यथाप्रसंग स्मरण किया है.”[14]
अब दूसरे भाष्यकार/टीकाकार वागीश शुक्ल का यह तर्क-प्रस्ताव देखना चाहिए. वागीश जी का कहना है कि ‘राम की शक्तिपूजा’ की व्याख्या ‘स्त्री-विमर्श’ के धरातल पर प्रायः नहीं हुई है. अतः सीता की ‘देवी’ वाली छवि को महत्व दिलाने और उनकी अलौकिक शक्तियों की महत्ता को स्थापित करने के प्रयास में ‘स्त्री-विमर्श’ की दृष्टि से उन्होंने ‘राम की शक्तिपूजा’ की व्याख्या करते हुए ‘शक्ति’ को सीता से जोड़ते हुए यह प्रस्ताव दिया है –
“हमें इस कविता के स्त्रीविमर्श को सीता और शक्ति के परस्पर गुंफित संदर्भ में देखना चाहिए. इस कविता का वैशिष्ट्य यह है कि इसमें हार रहे राम को जनक-वाटिका में दीखी सीता की याद से शक्ति मिलती है, यह आगे होने वाली शक्तिपूजा का बीज है और उसका पूर्वाभ्यास. इसके लिए जिन शास्त्रसमर्थित संकेतों का सहारा लिया गया है उनका विशदीकरण व्याक्रिया (वागीशजी, शल्यक्रिया की तर्ज़ पर व्याख्या के लिए व्याक्रिया पद का प्रयोग करते हैं) खंड में है….यहाँ इस पर बात करते हैं कि स्त्रीविमर्श के संदर्भ में इसका क्या मतलब हो सकता है. ‘स्त्रीनिंदा’ और ‘स्त्रीप्रशंसा’ का सारा साहित्य स्त्री को एक वैशिष्ट्य से मंडित करता है जो स्त्री को पुरुष से अलग करता है. जिसे ‘समान अधिकार की लड़ाई’ कहते हैं वह इस वैशिष्ट्य से मुक्ति का प्रयास होनी चाहिए, व्यवहार में वह क्या बन जाएगी यह यहाँ अप्रासंगिक है. रामकथा के संदर्भ में सामान्यतः और इस कविता के संदर्भ में विशेषतः, रावण वध अकेले राम का नहीं, राम और सीता का संयुक्त उपक्रम होना चाहिए.”[15]
आगे टीकाकार ने शास्त्रसमर्थित संदर्भों और संकेतों का सहारा लेते हुए इस ‘चाहिए’ की विशद ‘व्याक्रिया’ की है और ‘चाहिए’ को ‘ही हैं’ में निष्पन्न कर दिया है –
“जिस शक्ति की उपासना की जा रही है वह और कोई नहीं, सीता ही हैं.”[16]
फिर क्या, फिर तो सबकुछ स्वतः सिद्ध हो जाता है. ‘होगी जय, होगी जय, हे पुरुषोत्तम नवीन’ कहते हुए, जो राम द्वारा पूजित देवी उनके वदन में समा जाती हैं, वह कोई और नहीं सीता ही हैं. अतः, ऐसे में इस निष्कर्ष तक पहुँचना अत्यंत सरल हो जाता है कि ‘राम की शक्तिपूजा’ में निराला, राम और सीता के लीलावतार को ही रचते हैं. उन दोनों का विग्रह, उस लीला का ही अंग था. कहने का तात्पर्य यह है कि ‘राम की शक्ति पूजा\’ में निराला जिस तरह से दैवीय और अतिप्राकृत शक्तियों के सहारे विजय का उपक्रम करते हैं, जिस तरह से ‘मौलिक कल्पना’ के नाम पर ‘शक्तिपूजा’ का विधान रचते हैं, उससे कविता में इस तरह की व्याख्याओं और नवीन प्रस्तावनाओं के लिए पर्याप्त गुंजाइश है. परंतु, नवीन उद्भावना के साथ इस तरह की ‘व्याक्रिया’ से सहमत हो पाना मुश्किल है. ऐसे में तो, कामायनी के अंतिम तीन सर्गों दर्शन, रहस्य और आनंद के आधार पर, श्रद्धा द्वारा गुरु बनकर सारस्वत प्रदेश से पलायन कर चुके गुहावासी मनु को ‘त्रिपुर’ दर्शन में ज्ञान, कर्म और इच्छा के सामरस्य का ज्ञान देने वाली शक्ति (अर्थात पार्वती अथवा पराशक्ति ) के अवतार के रूप में देखना नवीन उद्भावना होगी. अब तक, संभवतः टीकाकारों और आलोचकों की नज़र वहाँ नहीं गयी है जहाँ श्रद्धा को ‘कामायनी’ के अंतिम चार छंदों में से तीन छंदों में, कल्याणी, गौरी और विमला कहा गया है. पुराणों में ये तीनों नाम किसके लिए प्रयुक्त होते हैं, यह स्पष्ट है.
कामायनी में वस्तुपरकता को सामाजिक धरातल पर न देखकर, खोजकर मानसिक दशाओं, अवस्थाओं और आध्यात्मिक आकांक्षाओं में निष्पन्न किया गया है. जबकि ‘राम की शक्तिपूजा’ में वस्तुपरकता का व्यक्ति-संघर्ष का सामाजिक धरातल होते हुए भी उसमें आख़िर में अतिप्राकृत और अलौकिक शक्तियों के महत्व को बढ़ा दिया गया है. यहाँ, कामायनी के संबंध में मुक्तिबोध का वह निष्कर्ष याद आता है जो ‘राम की शक्तिपूजा’ पर भी लागू होता है –
“वास्तविकता अनेक प्रतीकों द्वारा प्रस्तुत होती है. सामाजिक क्रान्ति को, युद्ध और संघर्ष को प्रायः प्राकृतिक विप्लव द्वारा ही सूचित किया जाता है. इस प्राकृतिक विप्लव में कभी-कभी अतिप्राकृत शक्तियाँ भी काम करती दिखाई जाती हैं. जब प्राकृतिक विप्लव में, आकस्मिक रूप से, अतिप्राकृत शक्तियाँ योग देती हुई बताई जाती हैं तब यह अनुमान होना स्वाभाविक ही है कि फैंटेसी का अंकनकर्ता नियतिवादी है.”[17]
मिथक और मिथकीय प्रतीकों का साहित्य में उपयोग, युग-संदर्भों के साथ उनकी पुनर्रचना और समकालीन-संदर्भों में उनका अर्थापन और इन सबके प्रति रचनकार का अपना युगबोध और सामाजिक-सांस्कृतिक दृष्टि वे आधार हैं जिनके द्वारा संबन्धित रचना का विवेचन होता है. अतः आदिम मानव-समाजों से विकसित औद्योगिक और पूंजीवादी सभ्यता तक की अपनी विकास यात्रा में मानव ने अपने को कितना आद्यभौतिक से लेकर भौतिक, अतिप्राकृत से लेकर प्राकृत, अलौकिक से लौकिक, चमत्कारों से वैज्ञानिक, टोटेम और अंधविश्वासों से तार्किक बनाया है, संबन्धित समाजों और उनके साहित्य में प्रयुक्त मिथकों और उनके प्रतीकों के अध्ययन और विवेचन से इसकी जानकारी हासिल की जा सकती है.
संदर्भ :
[1]महादेवी वर्मा, संभाषण, साहित्य भवन प्रा. लिमि., इलाहाबाद, पृ. 78
[2] सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’, साहित्य में मिथक, संकल्प-2 : मिथक और भाषा विशेषांक (संपा. शंभुनाथ), हिंदी विभाग, कलकत्ता विश्वविद्यालय, कलकत्ता, पृ. 64
[3] वही, पृ. 65
[4] नामवर सिंह, कामायनी के प्रतीक नमक लेख, कामायनी : मूल्यांकन और मूल्यांकन (संपा. : इंद्रनाथ मदान), नीलाभ प्रकाशन, इलाहाबाद, पृ.106
[5] रोलां बार्थ्स, माइथोलोजीज (अँग्रेजी अनुवाद – रिचर्ड हावर्ड और एन्नेत्त लावर्स, हिल एंड वैंग पाब्लिशर्स, लंदन, पृ. 109
[6] जयशंकर प्रसाद, आमुख : कामायनी, लोकभारती प्रकाशन इलाहाबाद, पृ. 4
[7] काव्य और कला तथा अन्य निबंध, प्रसाद प्रकाशन, प्रसाद मंदिर, वाराणसी, पृ. 61
[8] वही, पृ. 61
[9] वही, पृ. 61
[10] नंददुलारे वाजपेयी, आधुनिक साहित्य : सृजन और समीक्षा, दि मैकमिलन कंपनी ऑफ इंडिया लिमिटेड, पृ. 35
[11] गजानन माधव मुक्तिबोध, कामायनी एक पुनर्विचार, राजकमल प्रकाशन, पृ. 16
[12] वही, पृ. 28
[13] फ्रांसिस शूमाकर, एस्थेटिक एक्सपीरिएंस एंड दि ह्यूमेनिटीज़ : मॉडर्न आइडियाज ऑफ एस्थेटिक एक्सपीरिएंस इन दि रीडिंग ऑफ वर्ल्ड लिट्रेचर, कोलम्बिया यूनिवर्सिटी प्रेस, पृ. 65
[14] सूर्यप्रसाद दीक्षित, निराला रचित राम की शक्तिपूजा : भाष्य, अभिव्यक्ति प्रकाशन, इलाहाबाद, पृ. 25
[15] वागीश शुक्ल, छन्द-छन्द पर कुंकुम, प्रभात प्रकाशन, दिल्ली, भूमिका – पृ. xlii-xliii.
[16] वही, पृ. xiv.
[17] गजानन माधव मुक्तिबोध, कामायनी एक पुनर्विचार, राजकमल प्रकाशन, पृ. 13