स्त्री मुक्ति की कहानियाँ
गीता दुबे
(गीता दुबे) |
स्त्री देश या विदेश के किसी भी हिस्से की क्यों ना हो उसकी सोच, उसकी समस्याएं तकरीबन एक सी होती हैं. बहुधा भारत के लोगों की यह धारणा होती है कि विदेशों की स्त्रियाँ बहुत स्वतंत्र होती हैं. उनका आधुनिक वेश विन्यास अथवा स्वच्छंद जीवन शैली कभी-कभार यह गलतफहमी पैदा करती है कि उनके जीवन में कोई समस्या ही नहीं है. लेकिन देशांतर की उन स्त्रियों के जीवन पर केंद्रित साहित्य पढ़ते हुए हमें यह बात गहराई से महसूस होती है कि स्त्री किसी भी स्थान की क्यों न हो उनके दुख दर्द और जीवनानुभव कमोबेश एक से ही होते हैं. उनके इन्हीं जीवनानुभवों को वहाँ की स्त्री रचनाकारों ने अपनी कहानियों में उकेरा और उन कहानियों को अनुवाद के माध्यम से हिंदी पाठकों तक पहुंचाने की महत्वपूर्ण भूमिका निभाई यादवेन्द्र ने. प्रायः स्त्री विमर्श के उग्र पैरोकार पुरुष और स्त्री को एक दूसरे के खिलाफ खड़ा करते हुए उनके बीच सामंजस्य और प्रेम का पुल बनाने की बजाय उनके बीच की खाई को लगातार चौड़ा करते हैं. वहाँ स्त्री के लिए पुरुषवादी सोच नहीं पुरुष ही उस शत्रु की भूमिका में होता है जिससे लड़कर उन्हें मुक्ति पानी होती है लेकिन यह बात निस्संदेह सराहनीय है किदेशांतर की स्त्रियों की इन कहानियों को एक पुरुष अनुवादक यादवेंद्र ही हमारे बीच लाते हैं. यह प्रश्न सहज ही उठ खड़ा होता है कि आखिरकार उन्होंने स्त्री कथाकारों की कहानियों का चयन ही क्यों किया, संभवतः उसके पीछे स्त्री रचनाकारों की सोच और उनके नजरिए को सबके सामने लाने का विचार उनके मन में रहा हो. हालांकि अपने संग्रह की भूमिका में इसपर प्रकाश डालते हुए उन्होंने लिखा है,
\”भावुकता और पारिवारिक मुद्दों तक सीमित मान ली गईं स्त्रियाँ आज बेशक देश और दुनिया के राजनैतिक, वैज्ञानिक, आर्थिक और समाजशास्त्रीय विमर्श को निर्देशित कर रही हैं लेकिन कुछ यूनिक तजुर्बे ऐसे हैं जिनको शब्दों में बांधना सिर्फ़ स्त्रियाँ कर सकती हैं और बेझिझक होकर कर रही हैं……अगर ये अनुभव हमारी शब्द सम्पदा में शामिल न होते तो हमारा साहित्य कितना रसहीन, उबाऊ और एकांगी हो जाता. मेरा स्पष्ट मानना है कि दुनिया के कोने-कोने से उपजी स्त्री अनुभूतियाँ न सिर्फ साहित्य को समृद्ध, समरस और सहिष्णु बनाती हैं, उन्हें असीमित विस्तार भी प्रदान करती हैं.\” (भूमिका)
भारत के पारंपरिक परिवेश में स्त्री मुक्ति की बयार बहुत देर से आई पर विदेश की स्त्रियों ने वोट के अधिकार की लड़ाई बहुत पहले ही लड़ने की शुरुआत की. निश्चित तौर पर अभारतीय स्त्रियों ने स्वतंत्रता पहले प्राप्त की लेकिन उस कागजी स्वतंत्रता से परे जो समाज की नैतिक अर्गला होती है उसने तमाम स्त्रियों को वे चाहे देशी हों या विदेशी अपने शिकंजे में इतनी बुरी तरह जकड़कर रखा है कि वे सांस तक लेने को छटपटाने को विवश होती हैं. भिन्न-भिन्न परिवेश की इन स्त्रियों की सोच, उनकी पीड़ा, उनके संघर्ष और परिस्थितिजन्य कठिनाइयों, समस्याओं से उनके मुठभेड़ के मार्मिक अनुभवों से गुंथीकहानियों का चयन करके उन्हें भारतीय पाठकों विशेषकर हिंदी पाठकों तक पहुंचाने का महत्वपूर्ण कार्य करके यादवेंद्र ने हिंदी पाठकों के ज्ञान का विस्तार किया है जिसके लिए वह बधाई के पात्र हैं.
आलोच्य संग्रह में देशांतर की स्त्री कथाकारों ने उन तमाम स्त्रियों के जीवनानुभवों को कथा रूप में उपस्थित किया है जो अपने जीवन की विडंबनाओं को झेलती हुई अपने हिस्से का आकाश या कम से कम आकाश का एक टुकड़ा तलाशने और उस प्राण तत्व के सहारे जिंदगी की लड़ाई लड़ने या उसे फतह करने की पुरजोर कोशिश में लगी हुई हैं. चूंकि यह प्राणतत्व किसी भी व्यक्ति वह चाहे स्त्री हो या पुरुष एक बेहद आवश्यक तत्व होता है इसीलिए घुटन के बावजूद संघर्षरत प्राणी उस प्राणतत्व की खोज कर ही लेते हैं और वह प्राणतत्व घुटनभरे कमरे के बाहर फैले विस्तृत आकाश की ऊंचाई में ही मिलता है.
इस संग्रह की तमाम कहानियों में स्त्री अपने तमाम रंगों और तेवरों के साथ मौजूद है. कहीं वह रंग दुख और संघर्ष का है तो कहीं उल्लास, प्रेम या प्रतिबद्धता का. स्त्री का आंखों देखा सच और उसका भोगा गया यथार्थ यहाँ समग्र रूप से देखने को मिलता है. और ऐसा नहीं कि अभारतीय स्त्री कथाकारों की ये कहानियां अपने विषयवस्तु या बयान में कहीं भी अभारतीय नजर आती हैं. इन्हें पढ़ते हुए ऐसा लगता है कि हम अपने आस-पास के परिवेश की कहानियां ही पढ़ रहे हैं. स्त्री भारतीय हो या अभारतीय, उसके संघर्ष, दु:ख, तकलीफ और प्रेम का रंग और अनुभव तकरीबन एक सा ही है. विदेश की स्त्रियों की खुली-खुली पोशाक और स्वछंद जीवन शैली जो कई मर्तबा दूर से बेहद लुभावनी लगती है और जिन्हें देखकर लगता है कि इनके जीवन में कोई दुख दर्द नहीं होगा बल्कि सब अच्छा ही अच्छा होगा, नजदीक जाने पर उनके सजे संवरे चेहरे पर आंसुओं की लकीरें धुंधली-धुंधली ही सही नजर जरूर आती हैं और यादवेंद्र बधाई के पात्र हैं कि उन्होंने जिंदगी की इन खट्टी- मीठी दास्तानों को अनुवाद के माध्यम से हम तक पहुंचाया है. उनकी सक्रियता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि पहले संग्रह भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित \”तंग गलियों से भी दिखता है आकाश\” के प्रकाशन के तकरीबन वर्ष भर बाद ही वह अपने दूसरे संग्रह \”स्याही की गमक\” के रूप में पुन: 30 कहानियों के साथ हमारे समक्ष उपस्थित होते हैं जिनमें स्याही की गमक के साथ ही स्त्री लेखन की खुशबू भी है. इस संग्रह की कहानियों में स्त्री- पीड़ा का रंग भी गहरा है और उसका संघर्ष की आंच भी तेज है.
संग्रह की पहली ही कहानी (ईरानी लेखिका मरजिए मेशकिनी की “बच्ची के औरत बनने का दिन”) स्त्री की उस जन्मजात नियति को सामने रखती है जब एक दिन अचानक उसे बड़ा मान लिया जाता है और वह अपने बचपन के साथ- साथ बचपने से भी बेरहमी से मरहूम कर दी जाती है. हालांकि इस दौर में सामाजिक स्थितियों में तेजी से बदलाव आया है लेकिन अब भी समाज के एक बड़े हिस्से की तस्वीर यही है. यह कहानी यह बेहद जरूरी सवाल भी उठाती है कि ऐसा बदलाव सिर्फ़ औरत या हव्वा के हिस्से क्यों आता है. इसी से मिलते जुलते विषयवस्तु पर तुर्की लेखिका मेलतेम अरिकन की कहानी, \”औरतों का सदाबहार भरोसा\” भी लिखी गई है जिसमें औरत के पांवों को खूबसूरती के स्वीकृत मानक के अनुसार कमल के फूल के रूप में ढालने के लिए एक तकलीफदेह प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है लेकिन औरतें खुशी-खुशी अपनी बेटी-पोती के पांवों को वह दर्द इसलिए पहुंचाती हैं ताकि उसका भविष्य सुरक्षित रह पाए. कहानी की नैरेटर अपनी बेटी के पांवों को खुद बांधकर अपनी बेचैनी के बावजूद बेटी को आशवासन देती है,
\”चाऊ की कातर रुलाई पूरे चौदह दिन जारी रही. मैं उसको समझाती रही कि जो कुछ भी किया जा रहा है उसकी बेहतरी के लिए ही किया जा रहा है. मैंने उससे यह भी कहा कि ऐसा करने से तुम्हें मेरी मां और दादी की तरह खेतों में काम करने से छुटकारा मिल जाएगा. तुम खूब ऐशो आराम से अपना जीवन बसर करोगी.\”(पृ. 124)
इस भौतिक सुख के नाम पर और श्रम से बचने की खातिर औरतें कृत्रिम रूप से कष्ट सहकर भी अपने पांवों को कमलरूपी पांवों में बदलने को तैयार हो जाती थीं, यह बात और है कि उसके बाद वे भली प्रकार अपने पांवों पर खड़े होने में सक्षम नहीं होती थीं. कहानी के अंत में अचानक हुए सैनिक हमले में ये खूबसूरत पांवों वाली अक्षम औरतें दौड़कर अपनी जान भी नहीं बचा पातीं और उनके खूबसूरत पांवों को चूमने वाले, उनपर निसार होने वाले उनके पति उनकी दुर्दशा को चुपचाप देखने के अलावा कुछ नहीं कर पा रहे थे. यहाँ व्यंग्य का तीखापन ही स्त्री अर्थात नैरेटर की जागरूकता की ओर संकेत करता है क्योंकि इसी जागरूकता में ही मुक्ति की आकांक्षा और संघर्ष की इच्छा दबी हुई है.
कहानियां अलग-अलग विषयों पर हैं और विभिन्न अभारतीय भाषाओं से अंग्रेजी में ढलकर फिर हिंदी में अनूदित होकर हिंदी के विशाल पाठक वर्ग के सामने आईं हैं. इन तमाम कहानियों को जो एक सूत्र आपस में जोड़ता या गूंथता है वह है स्त्रियों द्वारा सिर्फ स्त्रियों नहीं बल्कि वृहत्तर समाज के हित में लिखा होना क्योंकि स्त्री हित या पुरुष हित के परे या ऊपर कोई हित है तो वह मानवहित है. समाज सुंदर और स्वस्थ होगा, तो उसका लाभ स्त्री- पुरुष दोनों को मिलेगा. स्त्री जब भी मुक्ति की बात करती है तो वह पुरुष मात्र से मुक्ति नहीं चाहती बल्कि वह उस पुरुषतांत्रिक व्यवस्था से मुक्ति चाहती है जहाँ उसे दोयम दरजे का नागरिक मात्र समझा जाता है यानी जहाँ उसकी हैसियत बायीं पसली से आगे नहीं बढ़ती. इन कहानियों की तमाम स्त्रियां स्वप्न देखती हैं और उनके स्वप्न में प्रेम का सपना भी शामिल है.
वस्तुतः इस संग्रह की तमाम कहानियों में स्त्री की दोयम दरजे की स्थिति, औरत होने या बना दिए जाने की नियति और अपनी प्रबल इच्छाशक्ति के बलबूते उससे निकलने की राह तलाशती स्त्री की अलग–अलग छवियाँ दिखाई देती हैं जो आशवस्त करती हैं कि वह अपने मकाम तक पहुंच ही जाएगी. अमेरिकी कथाकार लीडिया डेविस की \”मामूली औरतें\” हों या ट्यूशिनिया की कथाकार राशिदा एल चारनी की कहानी के स्त्री चरित्र जो \”हाशिए का जीवन\” गुजारने को अभिशप्त हैं अपने जन्मगत अभिशाप से उबरने की कोशिश में लगी नजर आती हैं लेकिन मुश्किल यह है कि औरतें तो लगातार हाशिए का अतिक्रमण कर अपनी जगह बनाने में लगी हुई हैं लेकिन समाज का एक बड़ा तबका अब भी उन्हें या तो उनकी जगह घर के दायरे के अंदर मानता है या फिर उन्हें शोपीस से ज्यादा नहीं समझता. नाइजीरियन कथाकार ओके एकपाघा के अनुसार अब भी स्त्री पुरुष की मुलाकात होने पर पुरुष का स्त्री से यही प्रश्न होता है, \”क्या तुम्हें खाना बनाना आता है\”.
\’छोरी\’, \’कौमार्य\’ ऐसी ही कहानियां हैं जो बताती हैं कि औरत को कैसा और क्यों होना चाहिए. और उन ना दिखनेवाली दहलीज, सीमा या दीवारों की बात भी करती हैं जिन्हें पार करना उनके या किसी के वश की बात नहीं है. लिंगभेद या धार्मिक कटटरता की उन दीवारों को \’आज नहीं\’ की नन्हीं बच्ची पार करने की कोशिश तो करती है पर सफल नहीं होती. आलोच्य संग्रह की कुछ कहानियां ऐसी भी हैं जो भुलाई नहीं जा सकतीं, \’सूट की आवभगत\’ एक ऐसी ही कहानी है जिसमें एक पति अपनी पत्नी को मानसिक यंत्रणा के चरम पर ले जाता है जिस कारण वह आत्महत्या करने को बाध्य हो जाती है. शारीरिक यंत्रणा की तुलना में यह यंत्रणा कितनी मारक हो सकती है इसका सिर्फ अनुमान भर लगाया जा सकता है, इसकी तकलीफ को सिर्फ झेलनेवाला ही जान सकता है.
\”सूट की आवभगत\” जैसी कहानी बहुत सहजता से उपलब्ध नहीं होती. सुधा अरोड़ा जिस \’चुप्पी की हिंसा\’ की बात करती हैं, यह मानसिक उत्पीडऩ संभवतः उसी तरह का है, बरफ की तीखी छुरी की तरह जो रेतती तो है पर उस जख्म का कोई निशान नहीं छोड़ती. उसकी पीड़ा का अनुभव सिर्फ़ भुक्तभोगी ही कर सकती हैं.
कहानी संग्रह की कहानियों की एक विशेषता यह भी है कि यें महज स्त्री अनुभूतियों की कहानियां नहीं हैं बल्कि विभिन्न विषयों को भी इनमें समेटा गया है. \”वानर सेना\” (पुण्यकांते विजयनायके, श्रीलंका) में सन्यासी भिक्षु की मानसिकता को बड़ी खूबसूरती से उकेरा गया है तो \”छड़ी\” (फातिमा युसेफ अल अली, कुवैत) एक अद्भुत मनोवैज्ञानिक कहानी है जिसमें अपने मालिक के बदलने के साथ ही बड़े आश्चर्यजनक ढंग से जड़ छड़ी में आते परिवर्तन को दर्शाया गया है.
दरअसल स्त्री लेखन का प्रसंग उठते ही यह मान लिया जाता है कि स्त्री सिर्फ अपनी ही बात करना जानती है. उसका लेखन सिर्फ उसके ही दुख दर्द का बयान होता है लेकिन बदलते समय के साथ स्त्री अनुभवों में आश्चर्यजनक बदलाव आया है और उसकी परिधि का निरंतर विस्तार हुआ है. यह विस्तार उसके लेखन को बहुआयामी बनाता है. स्त्री रचानाकार की इन खूबियों और उसके वैशिष्ट्य को आलोच्य कहानी संग्रहों में सहजता से देखा जा सकता है. अपने दुख सुख की कथा कहते सुनते वह सारी दुनिया में घटती छोटी बड़ी घटनाओं की पड़ताल करने लगती है और साहित्य जगत में अपनी विशिष्ट पहचान बना ही लेती है.
गीता दूबे
औरत और साईकिल
ब्रिजेट एटकिंसन ( ब्रिटेन )
ब्रिजेट एटकिंसन
एल्डगेट में एक महिला पुस्तकालय देखते हुए यह कहानी मन में आयी जब क्यूरेटर हमारे ग्रुप को किसी विषय के बारे में इलेक्ट्रॉनिक साधनों की मदद से सन्दर्भ सामग्री जुटाने के बारे में समझा रही थी. उसने सर्च इंजिन में \”औरत और साईकिल\” डाली तो मैंने जिज्ञासा वश पूछ दिया कि यही विषय क्यों ? उसने बताया कि उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम सालों में जब साईकिल चलन में आयी, इसके सहारे औरतों को नयी आज़ादी हासिल हुई. पहली बार उन्हें स्वतंत्र होकर अकेले अपने दम पर बाहर निकलने का मौका मिला. इस साधन ने औरतों के लिए आज़ादी के द्वार खोल दिए- यह सिर्फ़ आज़ादी के प्रति नज़रिये में बदलाव के रूप में नहीं सामने आया बल्कि उनके कपड़ों के चुनाव और पहुँच वाली जगहों के अपार विस्तार के रूप में भी सामने आया. मर्दों ने इस आज़ादी को खतरनाक, आक्रामक और प्रतिगामी माना और उसको रोकने के तरह–तरह के उपायों के बारे में सोचने लगे- निजी पारिवारिक तौर पर और सार्वजनिक तौर पर वे इस आज़ादी पर पाबंदी लगाने की बात करने लगे. आपसी रिश्तों में शक्ति संतुलन और नियंत्रण जैसे मुद्दे मुझे अत्यंत महत्वपूर्ण लगते हैं और मुझे लगा कि औरत और साईकिल की थीम के बारे में सन्दर्भों की पड़ताल करना दिलचस्प होगा जिस से आम तौर पर औरत मर्द के बीच पैदा हो जाने वाले अपमान जनक, भद्दे और हिंसक विवाद के ऊपर कुछ रोशनी पड़ सकेगी.
\’बसंत के गुजरते मौसम में जिस शनिवार दोपहर बाद उसकी पत्नी ने यह ऐलान किया कि उसकी इच्छा अपनी नई साईकिल से लम्बी दूरी तय करने की हो रही है तो एक नई बात शुरू हो गयी. दरअसल वह दिन ही इतना खुशगवार था कि रूटीन से अलग हट कर कुछ करने का किसी का भी मन कर जाए. थोड़ा शर्माती हुई गालों पर लालिमा ओढ़े हुए वह बोली कि नई साईकिल ने उसको बड़ी शिद्दत से ऐसा महसूस कराया है जैसे वह पहले वाली स्त्री नहीं रही बल्कि पूरा कायांतरण हो गया हो- हल्की फुल्की और किसी तितली की मानिंद नव यौवना …. उसने सुर्ख़ लाल रंग की एक चमचम करती पैंट खरीदी और साईकिल चलाते वक्त उसको ही पहनती है. पति को लगा इतना चमकता हुआ चटक लाल रंग पहन कर सड़क पर निकलना हद से बाहर जाने वाली बात है और जब तीन घंटे साईकिल चला कर वह घर लौटी तो तीन घंटे तक अपना मुंह सिले हुए उसका पति एक के बाद दूसरे काम में जबरदस्ती जुटा रहा. बहुत पूछने और मान मनव्वल करने पर पति के मुंह से बोल फूटे कि मैं बेहद शांत और बनी बनाई लीक पर चलने वाला गऊ इंसान हूँ, और तुम हो कि बड़ी तेजी से सारी हदें पार कर आगे–आगे भागने लगी हो. तुम्हारा ऐसा बर्ताव मेरे मन में शर्मिंदगी पैदा करने लगा है, समझ नहीं आ रहा है ऐसे हालातों में करूँ तो क्या करूँ.
एक बार पति ने सोचा जो जैसा चल रहा है वैसा ही चलते रहने दे पर वह सारे घटनाक्रम से निगाहें हटा नहीं पाया, वह अशांत और बदहवास होने लगा. पत्नी उसके संभल जाने और संतुलन बना लेने तक ठहर जाती तब भी कोई बात होती- वह उसका शुक्रगुज़ार होता. पर हुआ यह कि गर्मियों में हर शनिवार बगैर उसकी इच्छा की परवाह किये पत्नी साईकिल पर लंबी दूरी तक नियम से निकल ही जाती. उसके लिए छुप–छुप कर उसका पीछा करना मुश्किल होता क्योंकि उसके जिम्मे पहले से तय किये कई काम होते, पलक झपकते उसके लिए उन कामों के लिए अलग से अतिरिक्त एक दो घंटे निकालना कठिन था. काफी सोच समझ के बाद उसने यह तय किया कि पूरी न सही कुछ दूरी तक उसकी साईकिल का पीछा किया जाए तो पत्नी के क्रिया कलाप का अनुमान लगाया जा सकता है. मन में मची हुई उथल–पुथल को शांत करने की एक तरकीब तो यह थी ही. जितनी जल्दी जासूसी का यह घेरा डालना संभव हुआ, मन में एक दुर्भावना के पूर्वाग्रह के साथ उसने बिना कोई समय गँवाए उसका पीछा करना शुरू किया.
शहर से जैसे ही पत्नी साईकिल ले कर बाहर निकली उसने पहाड़ी की ओर रुख़ किया- जबकि उसका अंदाजा था कि वह समुद्र तट की ओर मुड़ेगी. वह साईकिल के पीछे–पीछे इस ढंग से चल रहा था जिससे पत्नी उसकी नज़र की ज़द में रहे-दूर से देखते हुए भी उसने पहली बार गौर किया कि पत्नी की टाँगों पर ज्यादा मांसपेशियाँ उभर आयी हैं, ये अब पहले से ज्यादा लचकदार भी लग रही हैं. यह देखते ही उसके दिमाग में और खलबली मचने लगी- आखिर उसको इस रास्ते का पता चला तो कैसे चला ? साथ घूमते हुए तो वे कभी इधर आये ही नहीं, और आम शहरी लोगों का भी कोई सुंदर जगह ढूँढ़ते हुए उधर आना नहीं होता. उसने आखिर यही रास्ता क्यों चुना ,क्या इसके पीछे भी कोई राज है ?इस रास्ते और जगह में आखिर ऐसा क्या ख़ास है जो उसे अपने पति के साथ इस कार में बैठ कर नहीं मिल सकता था ? और भी जाने क्या–क्या सवाल उसके मन में डूबता उतराते रहे, जैसे ही उन सवालों की उलझी हुई गुत्थी से उसका ध्यान हटा उसको सामने की सड़क तो दिखाई दे रही थी पर आश्चर्य,पत्नी की साईकिल अचानक गायब हो गयी थी. बदहवासी में उसने अपनी कार वापस मोड़ ली और तेजी से पीछे लौटने लगा.
कुछ दूर जाने पर उसको एक मोड़ दिखाई पड़ा- यह रास्ता कुछ दूर जाकर बंद हो जाता था. आगे सड़क किसी गली जैसी संकरी हो गयी थी, पेड़ों के एक घने झुरमुट तक जाता था वह रास्ता. उसने कार का इंजिन बन्द कर दिया जिससे पीछे–पीछे होने का आभास न हो पाए, ढलान थी सो गाड़ी तेजी से नीचे लुढकाने लगी. इस झुरमुट के पास पहुँच कर उसने बड़ी सावधानी बरतते हुए कार का दरवाज़ा खोला, बाहर निकल आया और उतनी ही सावधानी से दरवाज़ा बंद कर दिया. पूरी ख़ामोशी के साथ दबे पाँव वह पेड़ों के बीच की पगडण्डी पर चलने लगा, इतनी सावधानी के साथ कि उसको देख कर चिड़िया और गिलहरी भी किसी तरह का शोर शराबा या अवांछित हरकत न करें. घने पेड़ों की छाया में कुछ दूर आगे जाकर एक गोल सी खाली सी समतल जगह दिखाई दी जिसमें पत्तियों के बीच से धूप का एक टुकड़ा छन कर आ रहा था. वह जगह पहाड़ी के दूसरे किनारे पर थी जहाँ बड़ी–बड़ी कई चट्टानें बिखरी हुई थीं, उन चट्टानों के बीच से बड़े शांत और गुपचुप तरीके से एक पतली जल धारा प्रवाहित हो रही थी. तभी उसकी नज़र एक बूढ़े पेड़ से टिका कर रखी पत्नी की साईकिल पर पड़ गयी, वह खुद भी साईकिल के बिल्कुल पास ही थी और सारी दुनिया से बेखबर पूरी तन्मयता के साथ नृत्य कर रही थी, अरे,उसकी पत्नी इस सुनसान में नाच रही थी ! उसके बदन से लालिमा लिए एक आभा फूट रही थी, घिरनी सी गोल गोल, और अपने में पूरी तरह मगन- पूरी तरह से आज़ाद.
यह दृश्य देख कर हड़बड़ी में वह एकबार को लड़खड़ा गया, लगा अभी जमीन पर गिर पड़ेगा, फिर अपने कदम सँभाल कर जमीन पर टिकाते हुए वह चुपचाप उसी रास्ते लौट गया जिस रास्ते पत्नी का पीछा करते– करते वहाँ तक आया था.
यादवेन्द्र
जन्म: 1957, आरा (बिहार)
रुड़की के केन्द्रीय भवन अनुसन्धान संस्थान में वैज्ञानिक के तौर पर काम करने के बाद निदेशक के तौर पर जून 2017 में कार्यमुक्त.
साहित्य, अनुवाद, यायावरी, सिनेमा और फ़ोटोग्राफ़ी के क्षेत्र में कार्य.
भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली से विभिन्न देशों की स्त्री लेखकों की कहानियों का संकलन \”तंग गलियों से भी दिखता है आकाश\” (2018), संभावना प्रकाशन, हापुड़ से \”स्याही की गमक\” (2019) और भोपाल की रबींद्रनाथ टैगोर युनिवर्सिटी द्वारा \”कविता का विश्व रंग: युद्धोत्तर विश्व कविता के प्रतिनिधि स्वर\” तथा \”कविता का विश्व रंग: समकालीन विश्व कविता के प्रतिनिधि स्वर\” प्रकाशित.
yapandey@gmail.com