नई सदी के हिंदी उपन्यासों की अर्थवत्ता और सार्थकता के आकलन के स्तम्भ ‘आख्यान-प्रतिआख्यान’ की इस दूसरी कड़ी में युवा कथाकार शिवेन्द्र के चर्चित उपन्यास ‘चंचला चोर’ का मूल्यांकन प्रस्तुत कर रहें हैं आलोचक राकेश बिहारी. शिवेन्द्र सीरियल और फिल्मों के पटकथा लेखन आदि से भी जुड़े हैं. इस उपन्यास का पुरुष नायक मन से स्त्री हो जाना चाहता है. राकेश बिहारी ने संवेद्य भाषा में असरदार ढंग से इस उपन्यास की विवेचना की है. प्रस्तुत है.
आख्यान-प्रतिआख्यान : २
स्त्री-मन के पुरुष की निर्मिति
(संदर्भ: शिवेंद्र का उपन्यास ‘चंचला चोर’)
राकेश बिहारी
‘आदमी औरत को सबकुछ देने को तैयार रहता है, सिवा उसके सपनों के.’ शिवेंद्र के उपन्यास ‘चंचला चोर’ के लगभग अंत में आया यह वाक्य इस उपन्यास की केंद्रीय संवेदना से गहरे आबद्ध है. पिछले कुछ महीनों से देश के अलग-अलग हिस्सों में विश्वविद्यालय परिसरों से सड़क तक ‘नागरिकता संशोधन विधेयक’ के विरुद्ध चल रहे स्वतः स्फूर्त आंदोलनों का इस उपन्यास से कोई संबंध नहीं होने के बावजूद, ‘चंचला चोर’ पर बात करते हुए उपर्युक्त उद्धरण के समानान्तर जो बात मुझे लगातार याद आ रही है, या कहूँ हांट कर रही है, वह है, एक नारा, जो इस आंदोलन के दौरान बार-बार सुना और उद्धृत किया गया है- ‘बंदूकोंवाले डरते हैं, एक निहत्थी लड़की से.’
मैं इस नारे में ‘बंदूकोंवाले’ की जगह पर पितृ सत्ता को रखकर देखना चाहता हूँ. स्त्रियों का दमन करने वाली पितृ सत्ता दरअसल स्त्रियों से डरती ही तो है. पर पितृ सत्ता को यह डर स्त्री के शरीर से नहीं उसके सपनों से लगता है. पितृ सत्ता द्वारा स्त्री-देह का आखेट दरअसल उसी स्त्री-स्वप्न की हत्या है. आधार प्रकाशन द्वारा प्रकाशित अपने इस पहले उपन्यास में शिवेंद्र स्त्री जीवन के इस यथार्थ और स्वप्न को एक दूसरे में समाहित और विस्तारित करते हुए एक ऐसे पुरुष की रचना करते हैं, जो हर स्त्री का सपना होता है.
स्वप्न शैली में लिखे गए इस उपन्यास पर बात करना कई अर्थों में स्त्री-स्वप्न और यथार्थ के उन अंतर संबंधों की पड़ताल करना भी है, जो इस उपन्यास की चिंताओं का नाभि केन्द्र है. यहाँ, प्रसिद्ध चीनी दार्शनिक ज़ुआंगज़ी का वह कथन, जिसे शिवेंद्र ने इस उपन्यास के आरंभ में ही उद्धृत किया है को भी देखा जाना चाहिए-
“Once upon a time, I dreamt I was a butterfly, fluttering hither and thither, to all intents and purposes a butterfly. I was conscious only of my happiness as a butterfly, unaware that I was myself. Soon I awaked, and there I was, veritably myself again. Now I do not know whether I was then a man dreaming I was a butterfly, or whether I am now a butterfly, dreaming I am a man.”
अपने भीतर सतसईया के दोहे या एक सघन लघुकथा की-सी गहराइयाँ समेटे ज़ुआंगज़ी का उपर्युक्त कथन ‘आत्म-परिवर्तन’ की एक ऐसी आध्यात्मिक परिकल्पना का अभिलेख है, जहां स्वप्न और यथार्थ ‘गिरा अरथ जल बीचि सम, कहियत भिन्न न भिन्न’ की तरह एकमेव हो जाते हैं. ‘चंचला चोर’ जाग्रत दुनिया और स्वप्नलोक की परस्पर आबद्धता की अवधारणा के इसी शिल्प में स्त्री जीवन के यथार्थों और उसके भीतर पल रहे सपनों का स्पर्शी और मानीखेज संधान करता है. जादू, फैंटेसी, भ्रम और वास्तविकता की सतत आवाजाहियों से रचित इस ‘स्वप्न के यथार्थ’ या ‘यथार्थ के स्वप्न’ से गुजरना कथ्य का रूप और रूप का कथ्य में बदल जाने के उस विरल अहसास का साक्षी होना भी है जहां रूप और वस्तु के स्वतंत्र अस्तित्व का प्रश्न स्वतः ही निरस्त हो जाता है. दृश्य-रचना के विविध उपकरणों यथा- नींद, सपना, दिन, रात, अंधेरा, हंसी आदि का लोक और लोक वृत्त में घुलकर मुकम्मल चरित्र की तरह खड़ा हो जाना इस उपन्यास की तीसरी विशेषता है जिसे अलग से रेखांकित किया जाना चाहिए.
उपन्यास का सूत्रधार ‘मैं’, जो प्रकटत: एक पुरुष है और उपन्यास का एक महत्वपूर्ण चरित्र भी, सपनों के शहर मुंबई में रहते हुए वर्तमान की जमीन पर खड़ा होकर अपने अतीत के बीहड़ में प्रवेश करता है. एक ऐसा बीहड़ जिसकी जड़ें गाँव में गहरे धँसी हैं और जिसकी कोशिकायें यातना, तकलीफ़ और स्मृतियों के रेशे से विनिर्मित हैं. उपन्यास की शुरुआत उसके इस आत्म कथन से होती है-
“पता नहीं क्यों लोग चाहते हैं कि मुझे महीना आए, जबकि मैं एक लड़का हूँ. गाहे-ब–गाहे वे मुझे मेरे ही घर से उठा ले जाते हैं और एक उजले कमरे में बंद कर देते हैं. वे मेरा हाथ बांध देते हैं, मुंह में कपड़ा ठूंस देते हैं जिससे मैं कुछ बोल न सकूँ और फिर मुझे बिजली के झटके देते हैं. वे मुझे तोड़ना चाहते हैं, उन्हें लगता है कि बिजली के झटके देने से मेरे नसों में खून दौड़ने लगेगा और फिर…”
उपन्यास की यह शुरुआत अपने पाठकों के भीतर कौतूहल का जो बिरवा रोपती है वह हर अगले कदम के साथ सघन से सघनतर होता हुआ एक विशाल वृक्ष का रूप लेता चलता है. इस बात की प्रशंसा की जानी चाहिए कि दो सौ अट्ठाईस पृष्ठों के इस उपन्यास में यह कौतूहल न सिर्फ आद्योपांत बना रहता है बल्कि लगभग अंत में जाकर तमाम पाठकीय कयासों और आशंकाओं को परे धकेलते हुए एक ऐसी कारुणिक विडम्बना की तरह उपस्थित होता है जहां जिज्ञासाएँ समाधान में और समाधान नई जिज्ञासाओं में बदल जाते हैं.
|
(शिवेन्द्र) |
स्त्री संवेदना और अस्मिता से जुड़े प्रश्नों की पड़ताल करता यह उपन्यास इस बात को रेखांकित करता है कि जिसे आधी आबादी की चिंता कहा जाता है, दरअसल वह कहीं से आधी या आंशिक नहीं बल्कि एक ऐसा पूर्ण प्रकल्प है, जिसमें पूरी मानवता के वर्तमान और भविष्य को सँवारने की योजनाएँ निहित हैं. मुंबई की सड़कों पर भीड़ में तब्दील होते आदमियों को देख कथानायक का यह सोचना कि ‘क्या इन्हें फैक्ट्रियों में बनाया गया है?’ या फिर उसका यह प्रश्न कि ‘भूखे पेट तुम्हें वे वसंत कैसे लगते थे शिवपाल?’ उपन्यास में कदम-दर-कदम उपस्थित उन्हीं प्रश्नाकुलाहटों के बीज हैं जिन्हें इसके आरंभिक पृष्ठों पर ही पहचाना जा सकता है.
उपन्यास में आद्योपांत कौतूहल और प्रश्नाकुलता की एक ऐसी जुगलबंदी उपस्थित है जो पाठकों को एक ही साथ बेचैन और आश्वस्त करने का सामर्थ्य रखती है. यहाँ कौतूहल का संबंध उपन्यास की संरचनात्मक विशेषता से जुड़ता है तो प्रश्नाकुलता का संबंध इस औपन्यासिक गढ़ंत के गंतव्य और उसके निहितार्थों से है. कथानायक के महीना नहीं आने के कौतूहलजनक आत्मकथन से शुरू हुआ यह उपन्यास अपने गंतव्य तक पहुँचकर पाठकों को प्रश्नों के एक ऐसे प्रदेश में छोड़ देता है जहां वह खुद को स्त्रियों की सामाजिक और सार्वजनिक नियति के प्रति पहले से ज्यादा चैतन्य और जिम्मेदार महसूस करने लगता है.
स्वप्न और यथार्थ तथा जिज्ञासा और समाधान की सघन पारस्परिकता इस उपन्यास की अस्थि-मज्जा में निहित लोककथाओं और लोक व्यवहारों से लगातार संवाद करती, उनसे टकराती और लहूलुहान होती चलती है. अपने वर्तमान और अतीत से पूछे जानेवाले ये प्रश्न एक तरफ मानवनिर्मित सभ्यता की समीक्षा करते हैं तो दूसरी तरफ उसके परिमार्जन के उपाय और उपकरणों का अनुसन्धान भी करते चलते हैं. इस क्रम में यह उपन्यास मनुष्य की निर्मिति में स्मृतियों, कहानियों और लोक कथाओं के महत्व को भी लगातार रेखांकित करता चलता है. दिलचस्प है कि जिन लोक-व्यवहारों, मान्यताओं और कथाओं के माध्यम से उपन्यास की कथा-यात्रा आगे बढ़ती है, उपन्यास उन्हीं के विरुद्ध प्रश्न भी खड़ा करता है. इस तरह उपन्यास की संरचना हेतु प्रयुक्त उपकरणों के उपयोग का यह दुहरा विस्तार इसके महत्व में उल्लेखनीय अभिवृद्धि करता है. लोक कथाओं और सांस्कृतिक आख्यानों से संवाद करते हुये उनकी आँख में आँख डालकर प्रश्न पूछने की सलाहियत और साहस का इस उपन्यास के रूप और कथ्य को एक धरातल पर ला खड़ा करने में उल्लेखनीय अवदान है. परंपरा से संवहित और लोक में जीवित किस्सा-कहानियाँ, जो ऊपर से मनोरंजनार्थ प्रतीत होती हैं सतह के नीचे कैसे लोक-मानस की वैचारिकी गढ़ने का काम करती हैं, इसे समझने-समझाने के लिए यह उपन्यास लगातार कुछ असुविधाजनक प्रश्न खड़े करता है.
लोक कथाओं के प्रचलित प्रारूप और उसके ऊपर आरोपित अर्थबोध, जो अमूमन पितृसत्ता की निर्मिति होते हैं, को प्रश्नों के कटघरे में खड़ा कर यह उपन्यास स्त्रीमन की आंतरिक परतों में संचित प्रतिरोध को मुख्यधारा में लाने की एक जागरूक और जरूरी कोशिश करता है- “क्या लोककथाएं केवल पुरुषों की चाहतों, उनके संघर्षों और उनके पा लेने की कहानियाँ हैं? और उसमें स्त्रियों के सपनों और उनकी समस्याओं के लिए कोई स्थान नहीं है?” इन प्रश्नों के समानान्तर यह उपन्यास इस बात को भी रेखांकित करता चलता है कि लिंग की सामाजिक निर्मिति, जिसे अँग्रेजी में ‘जेंडर’ कहा जाता है, में लोककथायें किस तरह का योगदान करती हैं. इस क्रम में धार्मिक ग्रन्थों में वर्णित कुछ कथाओं- यथा शूर्पनखा प्रसंग से लेकर भोजपुरी अंचल में प्रचलित कई लोककथाओं तक के जिन प्रतिपाठों की रचना इस उपन्यास में हुई है वे सामाजिक संरचना में अंतर्निहित पितृसत्तात्मक अवधारणाओं के महीन रेशों को पहचानने की तार्किकता भी विकसित करते हैं. इसमें कोई संदेह नहीं कि कहन की आत्मीय शैली, भाषा का मौलिक प्रवाह और लोककथाओं की उपस्थिति उपन्यास को आद्योपांत पठनीय और रोचक बनाए रखते हैं, लेकिन कुछेक प्रसंगों में लोककथाओं के प्रतिपाठ के बहाने उनसे प्रश्न करते हुये उन्हें सार-संक्षेप की तरह उद्धृत किया जाना एक खास तरह की जल्दबाज़ी का आभास भी कराता है. क्या ही अच्छा होता कि उन प्रसंगों को भी उपन्यास के कथानक से जोड़ कर उन लोककथाओं को उनके मौलिक वैभव के साथ आने दिया जाता. ऐसा करने से उपन्यास की लंबाई जरूर कुछ पन्ने और बढ़ जाती पर जो पाठक उन लोककथाओं को नहीं जानते हैं, उसके मौलिक आस्वाद से भी परिचित हो जाते.
अनुभव के ताप पर पकी भाषा इस उपन्यास की बड़ी खासियत है. एक ऐसे समय में जब शब्दों से खेलते हुये महज आलंकारिक महत्व के लिए कृत्रिम भाषा सिरजने वाले कथाकारों की अच्छी ख़ासी ‘फैन फॉलोइंग’ मौजूद हो, ‘चंचला चोर’ की भाषा पर अलग से विचार किए जाने की जरूरत है. अनुभव और दृष्टि से सम्पन्न भाषा किसी कथा-कृति में कैसे स्वयं एक चरित्र की तरह महत्वपूर्ण हो उठती है, उसे महसूस करने के लिए उपन्यास के दूसरे ही पृष्ठ पर अंकित दादर स्टेशन के दृश्य की एक पंक्ति उदाहरण के लिए उद्धृत है-
“लोकल हर मिनट पर आ रही थी और लोग उसे आखिरी बस की तरह पकड़ रहे थे.” मुंबई के लोकल ट्रेनों में रोज़मर्रा के साधारण अनुभव को व्यक्त करने वाला यह एक असाधारण वाक्य है. ‘आखिरी बस’ के यथार्थ की समझ के बिना यह वाक्य नहीं लिखा जा सकता. उल्लेखनीय है कि मुंबई के उप नगरीय स्टेशन का यह दृश्य गाँव से आया हुआ एक व्यक्ति देख रहा है. वह ‘आखिरी बस’ छूट जाने की आशंका और बेचैनी के अनुभव से भली भांति परिचित है. एक छोटे से वाक्य में मुंबई जैसे महानगर और परिवहन की सुविधा से वंचित एक गाँव को इस सहजता से आमने-सामने ला खड़ा करना बड़ी बात है. इसे गाँव की जमीन पर खड़ा होकर महानगर के यथार्थ को समझने की सलाहियत भी कहा जा सकता है. पात्रों की सामाजिक, भौगोलिक और आर्थिक पृष्ठभूमि से सर्वथा मुक्त कृतिकार की निजी भाषा पर मुग्ध होनेवाले लेखकों-समीक्षकों को ‘चंचला चोर’ की भाषा पर तनिक थम-ठहर कर विचार करना चाहिए. शिवेंद्र उपन्यास की कथा और उपकथाओं को महज भाषा से नहीं, अनुभव और संवेदना से छूकर देखते हैं, इसीलिए उनकी भाषा महज भाषा की काया से बाहर निकल किसी जीवंत चरित्र की तरह खड़ा हो उठती है.
निश्चित तौर पर इस उपन्यास के केंद्र में स्त्री-स्वप्न और यथार्थ से जुड़ी चिताएँ ही हैं, लेकिन इसका वितान इतना इकहरा नहीं कि कथानक से सम्बद्ध अन्य चीजें अनदेखी ही रह जायें. गाँव और शहर के गुण सूत्रों और यथार्थों के बीच स्थित फांक को लेखक उपन्यास की मुख्य कथा के समानान्तर न सिर्फ लगातार जिंदा रखता है, बल्कि उसे उपन्यास के स्थापत्य की अपरिहार्य अंतर्धारा की तरह भी रचता चलता है. गाँव और शहर के बीच स्थित अजनबीयत को उनके लगभग विपरीत धर्मी यथार्थों के सहारे समझना शिवेंद्र की कथाशैली का एक जरूरी अवयव है, जिसे अजनबीयत के विरुद्ध आत्मीय स्वप्नधर्मिता के संघर्ष की तरह रेखांकित किया जाना चाहिए. इस क्रम में पारिवारिक बनाम सामूहिक और सार्वजनिक बनाम निजी के द्वंद्व जिस बेचैन कर देने वाले सघन संस्पर्श के साथ इस उपन्यास में अपनी जगह बनाते हैं, उसकी जड़ें बरास्ता व्यक्ति, दाम्पत्य, परिवार और समाज पूरी व्यवस्था तक फैली हुई हैं. इस क्रम में प्रेम, परिवार और मुंबई को समझने का एक जतन, जो सायास नहीं है, उपन्यास में लगातार देखा जा सकता है. गर्लफ्रेंड होने की घोषणा करने वाले कथानायक से एक जगह सखी कहती है कि अबतक तुम यह जरूर जान गए होगे कि मेरे लिए तुम कोई पहले लड़के नहीं हो. इस प्रसंग के दौरान लड़की की सहजता और लड़के की असहजता में प्रेम की नैसर्गिकता में जेंडर के दखल को आसानी से समझा जा सकता है.
अब बात उस कथासूत्र और उसके निहितार्थों की जिसने इस उपन्यास की अलग-अलग कथा-कड़ियों को परस्पर पिरोया है. जैसा कि ऊपर उल्लिखित है, इस उपन्यास की शुरुआत कथानायक के एक आत्मकथन से होती है, जिसमें महीना न आने के कारण होने वाली उसकी पारिवारिक-सामाजिक प्रताड़णा का जिक्र है. इस तकलीफदेह जीवन से ऊबकर वह एक दिन मुंबई चला जाता है. लेकिन उसकी तकलीफ उस दिन एक अनुसंधान यात्रा में बदल जाती है जब एक रात उसके सपने में दो लाल चोटियोंवाली एक लड़की जो खुद को चंचला चोर बताती है, उससे कहती है- “केवल मैं जानती हूँ कि तुम्हें महीना क्यों नहीं आता…”
सपने में आई लड़की का यह वाक्य जैसे कथानायक के जीवन के उद्देश्यों को पुनर्व्याख्यायित कर डालता है. वह सपने में आई उस लड़की की खोज-यात्रा पर निकल पड़ता है. उस खोज-यात्रा के दौरान घटित स्मृति, स्वप्न और यथार्थ के परस्पर संवाद की कथात्मक परिणति ही यहाँ एक खूबसूरत उपन्यास के रूप में मौजूद है. अपनी पूरी रचना प्रक्रिया में यह उपन्यास फ्रायड के उस स्वप्न सिद्धान्त का अनुमोदन करता चलता है, जिसके अनुसार सपनों के पाँव सच की भूमि पर ही खड़े होते है और सच की उस जमीन को चीन्हने के लिए उन सपनों में अंतर्निहित मनोवैज्ञानिक अंतर्ध्वनियों की अनुगूंजों को समझना बहुत जरूरी है. चंचला चोर के संधान में कथानायक अपने जीवन से जुड़ी कई लड़कियों तक जाता है. मुंबई शहर में रहनेवाली ‘सनम’, गाँव की प्रेमिका सदृश गोतिया-घर की ‘सखी’, सनिचरा बाबा की बेटी ‘क्रान्ति’ और ननिहाल में बचपन की सहेली ‘शोभा’…. ये सभी लड़कियां इस संधान-यात्रा का अलग-अलग पड़ाव हैं. पर ये अलग-अलग होकर भी अलग कहाँ हैं? इनके जीवन की नियतियाँ, इनके छोटे-छोटे सुख, बड़े-बड़े दुख, कोमल सपने, उन सपनों की निर्मम हत्या…. सब एक से ही तो हैं. और इस संधान-यात्रा का हासिल- चंचला चोर, यानी ‘मुन्नी’, यानी बीजे पटेल की बेटी, यानी कथानायक की माँ, जो कभी एक शिक्षिका बनना चाहती थी…. यहाँ तक पहुँचते-पहुँचते जैसे एक वृत तैयार हो जाता है… और फिर सखी की वह बात ही नहीं मुकम्मल होती बल्कि उसके कहे का असली अर्थ भी जाहिर हो जाता है-
“हो सकता है कि चंचला सिर्फ एक लड़की न हो बल्कि हर लड़की का वह एक बचपन हो, जो उससे छीन लिया जाता है.”
उपन्यास की एक अन्य पर बहुत महत्वपूर्ण स्त्री पात्र है- आजी, कथानायक की परदादी. अपनी संधान-यात्रा में कथानायक भले उन्हें चंचला चोर नहीं समझता पर उनकी उपस्थिति और उनके जीवन के सत्य उन्हें भी कहीं न कहीं इन स्त्रियों का पूरक ही साबित करते हैं. असली चंचला चोर तक आते-आते जब यह रहस्योद्घाटन होता है कथानायक कोई वास्तविक पात्र नहीं बल्कि उसकी माँ अर्थात चंचला चोर की काल्पनिक निर्मिति है तो जैसे पूरे उपन्यास का एक नया अर्थ प्रकट होता है. कभी मुन्नी उर्फ चंचला के यह कहने पर कि लड़का और लड़की में कोई अंतर नहीं होता उसकी माँ ने उसे जवाब दिया था- “अंतर है, लड़कों को महीना नहीं आता और तुमको आता है.”
दरअसल यही वह वाक्य है जो इस उपन्यास के कथ्य और रूप दोनों ही के मूल में है. महीना आना या मासिकधर्म मातृत्व के मूल में है. स्त्रियों की यही जैविक विशेषता उन्हें पुरुषों से अलग करती है. स्त्रियों की इस जैविक भिन्नता को पितृसत्ता ने दो तरह से भुनाया है. एक तरफ तो उन्हें माँ के रूप में विशिष्ट होने का आभास कराते हुए अधिकारों से दूर कर सिर्फ और सिर्फ कर्तव्यों तक सीमित कर दिया जाता है तो दूसरी तरफ व्यावहारिक धरातल पर उसी जैविक भिन्नता के कारण उन्हें दोयम दर्जे का मनुष्य समझा जाता है. नतीजतन अपनी संततियों का भरण-पोषण करती माँ खुद अपने अस्तित्व से बेदखल कर दी जाती है. स्त्रियों को उनके अस्तित्व की वह जमीन लौटाई जा सके इसके लिए उन्हें जागरूक और चैतन्य होने के साथ पुरुषों को भी थोड़ा स्त्री होना पड़ेगा. ‘चंचला चोर’ पुरुषों के स्त्री हो सकने की उन्हीं संभावनाओं का स्वप्न रचता है.
उपन्यास में मुन्नी उर्फ चंचला चोर के महीना रुकने की बात हो या फिर लोगों का यह चाहना कि कथानायक को महीना आए, स्त्रियों की सामाजिक बराबरी और पुरुषों के थोड़ा स्त्री हो सकने के उन्हीं सपनों की प्रतीक-रचनाएँ हैं. अपनी माँ को उपन्यास समर्पित करते हुये शिवेंद्र कहते हैं-
“प्रेमलता को,
इसे इस तरह से भी लिखा जा सकता था कि माँ को,
पर माँ का भी एक नाम होता है न…”
इस उपन्यास का उद्देश्य और इसकी व्याख्या दोनों ही इस समर्पण में शामिल है. इसका सर्वोत्तम समर्पण शायद यही हो सकता था. लेकिन मैं सोचता हूँ, इसे इस तरह से भी तो लिखा जा सकता था- ‘प्रेमलता को, जो मेरी माँ हैं.’ यह कहते हुए मुझे उपन्यास के कुछेक वैसे अंश भी याद आ रहे हैं, जिनसे व्याख्या की कुछ ऐसी ही गंध आती है. शिवेंद्र एक समर्थ कथाकार हैं, उनकी कहानियाँ और यह उपन्यास इस बात की मजबूत गवाहियाँ हैं. यदि अपने पाठकों के विवेक पर वे थोड़ा और भरोसा करते, तो कहीं-कहीं प्रयुक्त इन व्याख्यामुखी शब्दावलियों से बच सकते थे.
स्त्री संवेदना के इस उपन्यास पर यह टिप्पणी अधूरी होगी यदि इसके पुरुष पात्रों पर बात न की जाये. चंचला चोर तक पहुंचने के बाद कथानायक का आत्मकथन है-
“आज मैंने अपनी माँ को पाया है और यह पाना अपने गिल्ट को पाना है. अपने अपराधों को गिन पाना है, अपनी मनहूसियत और बदतमीजियों को देख पाना है, अपनी गैरजिम्मेदाराना अजनबीयत को टटोल पाना है…”
अपराधबोध और पश्चाताप से भरे इस पुरुष को सिर्फ इसलिए नहीं रेखांकित किया जाना चाहिए कि वह गिल्ट के बोझ से दबा हुआ है. बल्कि वह इसलिए महत्वपूर्ण है कि वह अपनी माँ, मौसी, दादी, बहन, प्रेमिका और पत्नी के सपनों को जानना चाहता है, उन्हें उनका वह सपना लौटाना चाहता है, जिसकी हत्या उसके या उस जैसे अन्य व्यक्तियों के भीतर बैठे मर्द’ हमेशा से करते रहे हैं. उपन्यास के नायक के भीतर यह भाव शुरू से आखिर तक समान रूप से बना हुआ है. दरअसल उसका यही बोध चंचला चोर की संधान-यात्रा का कारण भी है. उपन्यास के कुछ दूसरे पुरुष पात्रों के भीतर भी इन बदलावों के कुछ चिह्न मौजूद हैं. कुछेक अपवादों को छोड़ दें तो प्रायः स्त्री कथाकारों की कहानियों में ऐसे पुरुष नहीं दिखाई पड़ते हैं.
यह सही है कि ऐसे बदलते पुरुषों की संख्या समाज में बहुत ज्यादा नहीं है, पर पुरुषों में हो रहे बदलाव से इंकार तो नहीं किया जा सकता. इसलिए साहित्य में ऐसे अर्द्ध्नारीश्वरों या मित्र-पुरुषों की पहचान और रचना दोनों ही जरूरी हैं. यह आश्वस्तिदायक है कि चंचला चोर में स्त्री-मन के उस पुरुष की रचना एक पुरुष कथाकार ने की है.
__________________
brakesh1110@gmail.com