( by Rabindranath Tagor) |
उपन्यासों को आधुनिक युग का महाकाव्य कहा जाता है. आधुनिकता, जनतंत्र और राष्ट्र-राज्यों के उदय से उनका गहरा नाता है, स्त्रियों की सामजिक गतिशीलता के बगैर उपन्यास संभव नहीं होते. हिंदी उपन्यासों ने अपनी यात्रा के १०० साल पूरे कर लिए हैं.
समालोचन इस वर्ष उपन्यासों को लेकर कुछ ख़ास स्तम्भ शुरू कर रहा है. कथा-आलोचक राकेश बिहारी जहाँ समकालीन उपन्यासों पर लिखेंगे वहीँ प्रखर आलोचक और अध्येता आशुतोष भारद्वाज के ‘भारतीय उपन्यास के स्त्री किरदारों’ पर आधारित कुछ आलेख भी आप पढ़ेंगे.
शिमला के उच्च अध्ययन संस्थान की फ़ेलोशिप के अंतर्गत आशुतोष भारद्वाज भारतीय उपन्यास के स्त्री किरदारों पर कार्य कर रहें हैं, मूल रूप से अंग्रेजी में लिखे जा रहे इस शोध के कुछ हिस्सों का हिंदी में अनुवाद खुद लेखक ने ही किया है. इसके कुछ लेख यहाँ क्रम से प्रकाशित होंगे.
(एक)
उपन्यास के भारत की स्त्री
आरंभिका : हसरतें और हिचकियाँ
आशुतोष भारद्वाज
उपन्यास की भारत में यात्रा कई अर्थों में भारत की खोज में निकली एक साहित्यिक विधा की यात्रा है. पिछले डेढ़ सदी से भारत आधुनिकता और राष्ट्रीयता के जातीय स्वरूप पर चल रहे एक कसमसाते विमर्श से गुज़र रहा है. उपन्यास इस विमर्श का एक प्रमुख और प्रामाणिक दस्तावेज़ है. उपन्यास और राष्ट्र के सम्बंध पर काफ़ी लिखा जा चुका है, यह लेख उससे आगे जा यह प्रस्तावित करना चाहता है कि भारतीय
उपन्यास[1] की यात्रा कई अर्थों में उसके स्त्री किरदार की यात्रा है. राष्ट्रीयता और आधुनिकता से उपन्यास का संवाद अक्सर स्त्री की ड्योढ़ी पर दर्ज हुआ है, अनेक उपन्यास स्त्री किरदार के ज़रिए इन प्रत्ययों को प्रश्नांकित और पुनर्परिभाषित करते हैं.
स्त्री वह आइना है जिसमें हमें इस उपन्यास की एक मुकम्मल छवि मिल सकती है, अपनी सभी सच्चाइयों, प्रेम, फ़रेब, निरीहता, हसरत और वासना के साथ.अगर इस बहस को थोड़ा परे कर दें कि भारत का पहला उपन्यास कौन सा था, और यह मान लें कि आठवीं सदी में रचा गया कादम्बरी एक विलक्षण गद्य आख्यान है, शायद उपन्यास भी है, लेकिन इस विधा का भारत में विस्फोट उन्नीसवीं सदी में हुआ, तो यह अचंभा होता है कि कितनी जल्दी इस विधा ने स्त्री से एक आत्मीय सम्बंध जोड़ लिया था. तमाम भारतीय भाषाओं में स्त्री–केंद्रित उपन्यास उन्नीसवीं सदी से ही दिखने लगते हैं.[2] इसका एक सीधा कारण तो तात्कालिक सामाजिक परिदृश्य में निहित है. राष्ट्रीय आंदोलन की शुरुआत से ही स्त्री का प्रश्न तमाम समाज सुधार आंदोलनों के केंद्र में था, और चूँकि उपन्यास व राष्ट्रवाद की आधुनिक अवधारणा का जन्म कई अन्य देशों की तरह[3] भारत में भी लगभग एक साथ ही हुआ था, उपन्यास और राष्ट्र की आधुनिक अवधारणा दोनों एक दूसरे को सींच रहे थे, साहित्य की उभरती हुई विधा पर स्त्री की परछाईं स्वाभाविक थी.
लेकिन यह प्रस्तावना कि कोई कलाकृति अपने सामाजिक संदर्भों का प्रतिबिम्ब है, उन रचनात्मक स्मृतियों और स्वप्नों को अनदेखा कर देती है जो किसी कलाकार की चेतना और कल्पना को आलोकित करते हैं. यह किसी कृति के बारे में उपयोगी अंतर्दृष्टि ज़रूर देती है, लेकिन काल और अवकाश के फ़्रेम से किसी कृति को देखने पर उसकी परिधि बड़ी सीमित हो जाती है.
एक कृति अपने रचनाकार को मथती तात्कालिक हलचलों से ही अपना सत् ग्रहण नहीं करती; अतीत की प्रतिध्वनियाँ, परम्परा के सुदूर आकाश में टिमटिमाती बत्तियाँ भी किसी कृति को सींचती हैं. क्या यह प्रस्तावित किया जा सकता है कि आरम्भिक भारतीय उपन्यासों में स्त्री की उपस्थिति तात्कालिक सामाजिक कारकों के साथ भारतीय साहित्यिक परम्परा के भीतर भी खोजी जा सकती है? पितृसत्तात्मक भारतीय समाज की एक अद्भुत विशेषता यह है कि इसके साहित्य में स्त्री का विराट और विविध रूप–रंगों में चित्रण हुआ है. पुराण, महाभारत जैसे ग्रंथ और अनेक संस्कृत रचनाओं के केंद्र में स्वतंत्र और सशक्त स्त्रियाँ हैं. भारतीय रचनात्मक, मिथकीय, दार्शनिक और धार्मिक चेतना में स्त्री का अनेक स्वरूपों में स्थायी आवास है — सीता, पार्वती, गांधारी, गंगा, द्रौपदी, शकुंतला, गार्गी, मेनका, जबाला इत्यादि इत्यादि. संस्कृत ग्रंथ नायिकाके तमाम भेद बतलाते हैं. शाक्त सम्प्रदाय की अधिष्ठात्री देवी दुर्गा है जो विभिन्न देवताओं की शक्तियाँ और गुणों का पुंज हैं. शाक्त सम्प्रदाय का केंद्रीय ग्रंथ देवी माहात्म्य यह भी उद्घोष कर देता है कि अंतिम सत्ता का स्वरूप स्त्रैण ही है.[4]
जिस साधक ने अद्वैत वेदांत का उद्घोष किया, वही सौंदर्य लहरी सा काव्य भी लिखता है, स्त्री के स्तनों में सूर्य और चंद्रमा देखता है, स्त्री जो अपने “स्तनों के बोझ से झुक जाती है”. सूरदास अपनी गोपियों से ब्रह्मवेत्ता उद्धव का मज़ाक़ उड़वाते हैं, गोपियाँ उन्हें अपनी स्थापनाएँ परखने को मजबूर करती हैं.
यूरोप में उपन्यास के जन्म को ईश्वर की विदाई और मृत्यु से जोड़ कर देखा जाता है. बक़ौल जॉर्ज लूकाच “पश्चिमी दुनिया में पहले महान उपन्यास का जन्म तब हुआ जब ईसाई ईश्वर ने दुनिया को छोड़ना शुरू कर दिया था”, मिलान कुंदेरा उपन्यास को “ईश्वर के अट्टहास की प्रतिध्वनि” बतलाते हैं.
हालाँकि यूरोप में ईश्वर कभी भी लाश नहीं बना. अगर उसकी मृत्यु के बारे में घोषणा होती रहीं तो उसका पुनरुत्थान भी होता रहा. यूरोप का महान उपन्यास अपराध और दंड बाइबल के राइज़िंग अव लाज़रसप्रसंग पर टिका है जिसे सोनिया राशकोलनिकोव को एक तहख़ाने में सुनाती हैं, जो नायक के अस्तित्व का ही तलघर है. ‘अंडरग्राउंड’ का नायक दैवीय अनुकंपा को ग्रहण कर अपने अपराध को स्वीकार करता है. यूरोपीय साहित्य और सिनेमा से इस तरह के अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं.
ईश्वर की भारत से कभी विदायी नहीं हुई. धर्मनिरपेक्षता की संवैधानिक शपथ और धर्मनिरपेक्षता पर तमाम बहस के बावजूद देवता भारत के व्यक्तिगत और सार्वजनिक जीवन में उपस्थित रहे आए हैं. भारत में उपन्यास के उदय की तमाम वजहें बतायी गयीं हैं. क्या यह प्रस्तावित किया जा सकता है कि इन तमाम वजहों के साथ भारतीय उपन्यास स्त्री की हसरतों और हिचकियों से फूटा था? स्त्री जो उपन्यास की किरदार थी, और पाठक भी. उसकी हंसी और हकलाहटें उपन्यास का सौंदर्यशास्त्ररच रहीं थीं.
जिस संस्कृति ने अपने एक प्रतिनिधि ग्रंथ बृहदारण्यक उपनिषद में ‘अक्षर ब्रह्म’ को प्रतिपादित किया था, शायद ही उस संस्कृति में कभी साहित्य की किसी विधा पर यह आरोप लगा था कि यह कच्चे लोगों को बिगाड़ देती है इसलिए उन्हें उससे दूर रखा जाना चाहिए. उपन्यास और स्त्री का संसर्ग उन्नीसवीं सदी के भारत की ऐतिहासिक घटना थी, जिसका महत्व सिर्फ साहित्य जगत तक ही सीमित नहीं था.
१९०० के आसपास लिखी शरत चंद्र की कहानी अनुपमा का प्रेम में किसी लड़की पर उपन्यास के प्रभाव का विलक्षण चित्रण है. इसका शुरुआती वाक्य साहित्य के महानतम पहले वाक्यों में रखा जा सकता है: “ग्यारह साल की होते तक अनुपमा ने अपना दिमाग़ उपन्यास पढ़ पढ़ कर पूरी तरह से ख़राब कर लिया था.”
रविंद्रनाथ टैगोर के बड़े भाई ज्योतिरिंद्रनाथ टैगोर के नाटक अलीकबाबू (१९००) भारतीय स्त्री के जीवन में उपन्यास के योगदान पर इससे भी बड़ा वक्तव्य है. इसकी नायिका हेमांगिनि अपनी सहायिका प्रसन्ना से कहती है:
शायद पहली बार भारतीय मानस एक ऐसी साहित्यिक विधा से संवाद कर रहा था जिसके किरदार उपलब्ध उत्तरों से संतुष्ट नहीं थे. भारतीय ग्रंथों में अर्जुन, गार्गी, नचिकेता, श्वेतकेतु सरीखे अनेक किरदारों के पास चुभते हुए प्रश्न हैं, लेकिन कथा के भीतर उन्हें समाधान मिल जाता है, ज्ञान की उनकी भूख शांत हो जाती है. कृष्ण का जवाब सुन अर्जुन धन्य हो जाते हैं, याज्ञवल्क्य के जवाब से गार्गी अभिभूत हो उन्हें सबसे बड़ा ब्रह्मवेत्ता घोषित कर देती हैं. सीता के निष्कासन पर लक्ष्मण द्वारा उठाए गए सवाल सारथी सुमंत्र द्वारा सुनायी कथा से हल हो जाते हैं.
लेकिन उपन्यास के किरदारों के प्रश्न कथा के भीतर नहीं सुलझ पाते, देर तक मँडराते रहते हैं. बिनोदिनी और कुमुदिनी (सरस्वतीचंद्र) अंत में आख्यान से विदाई ले लेती हैं, लेकिन उनकी विदा से उपजा प्रश्न बचा रहता है. उपन्यास ने स्त्री को अपने समाज से एक बेबाक संवाद का अवसर दे दिया था, उसे यक्ष प्रश्न सौंपते हुए जिसका उत्तर समाज के पास न था.
अनुपमा और हेमांगिनि एक ऐसी सृष्टि में आ गयी थीं जहाँ उनकी कामनाओं को उपन्यास सींच रहा था, कामनाएँ जिन्हें उन्होंने अब तक जाना भी न था, और जो इसलिए समाज और उनके बीच एक अनिवार्य खाई बना रहीं थीं. उपन्यास से अर्जित ज्ञान की बदौलत इंदुलेखा समूचे नायर कुनबे से भिड़ सकती थीं.
आशुतोष भारद्वाज
उपन्यास की भारत में यात्रा कई अर्थों में भारत की खोज में निकली एक साहित्यिक विधा की यात्रा है. पिछले डेढ़ सदी से भारत आधुनिकता और राष्ट्रीयता के जातीय स्वरूप पर चल रहे एक कसमसाते विमर्श से गुज़र रहा है. उपन्यास इस विमर्श का एक प्रमुख और प्रामाणिक दस्तावेज़ है. उपन्यास और राष्ट्र के सम्बंध पर काफ़ी लिखा जा चुका है, यह लेख उससे आगे जा यह प्रस्तावित करना चाहता है कि भारतीय
उपन्यास[1] की यात्रा कई अर्थों में उसके स्त्री किरदार की यात्रा है. राष्ट्रीयता और आधुनिकता से उपन्यास का संवाद अक्सर स्त्री की ड्योढ़ी पर दर्ज हुआ है, अनेक उपन्यास स्त्री किरदार के ज़रिए इन प्रत्ययों को प्रश्नांकित और पुनर्परिभाषित करते हैं.
स्त्री वह आइना है जिसमें हमें इस उपन्यास की एक मुकम्मल छवि मिल सकती है, अपनी सभी सच्चाइयों, प्रेम, फ़रेब, निरीहता, हसरत और वासना के साथ.अगर इस बहस को थोड़ा परे कर दें कि भारत का पहला उपन्यास कौन सा था, और यह मान लें कि आठवीं सदी में रचा गया कादम्बरी एक विलक्षण गद्य आख्यान है, शायद उपन्यास भी है, लेकिन इस विधा का भारत में विस्फोट उन्नीसवीं सदी में हुआ, तो यह अचंभा होता है कि कितनी जल्दी इस विधा ने स्त्री से एक आत्मीय सम्बंध जोड़ लिया था. तमाम भारतीय भाषाओं में स्त्री–केंद्रित उपन्यास उन्नीसवीं सदी से ही दिखने लगते हैं.[2] इसका एक सीधा कारण तो तात्कालिक सामाजिक परिदृश्य में निहित है. राष्ट्रीय आंदोलन की शुरुआत से ही स्त्री का प्रश्न तमाम समाज सुधार आंदोलनों के केंद्र में था, और चूँकि उपन्यास व राष्ट्रवाद की आधुनिक अवधारणा का जन्म कई अन्य देशों की तरह[3] भारत में भी लगभग एक साथ ही हुआ था, उपन्यास और राष्ट्र की आधुनिक अवधारणा दोनों एक दूसरे को सींच रहे थे, साहित्य की उभरती हुई विधा पर स्त्री की परछाईं स्वाभाविक थी.
लेकिन यह प्रस्तावना कि कोई कलाकृति अपने सामाजिक संदर्भों का प्रतिबिम्ब है, उन रचनात्मक स्मृतियों और स्वप्नों को अनदेखा कर देती है जो किसी कलाकार की चेतना और कल्पना को आलोकित करते हैं. यह किसी कृति के बारे में उपयोगी अंतर्दृष्टि ज़रूर देती है, लेकिन काल और अवकाश के फ़्रेम से किसी कृति को देखने पर उसकी परिधि बड़ी सीमित हो जाती है.
एक कृति अपने रचनाकार को मथती तात्कालिक हलचलों से ही अपना सत् ग्रहण नहीं करती; अतीत की प्रतिध्वनियाँ, परम्परा के सुदूर आकाश में टिमटिमाती बत्तियाँ भी किसी कृति को सींचती हैं. क्या यह प्रस्तावित किया जा सकता है कि आरम्भिक भारतीय उपन्यासों में स्त्री की उपस्थिति तात्कालिक सामाजिक कारकों के साथ भारतीय साहित्यिक परम्परा के भीतर भी खोजी जा सकती है? पितृसत्तात्मक भारतीय समाज की एक अद्भुत विशेषता यह है कि इसके साहित्य में स्त्री का विराट और विविध रूप–रंगों में चित्रण हुआ है. पुराण, महाभारत जैसे ग्रंथ और अनेक संस्कृत रचनाओं के केंद्र में स्वतंत्र और सशक्त स्त्रियाँ हैं. भारतीय रचनात्मक, मिथकीय, दार्शनिक और धार्मिक चेतना में स्त्री का अनेक स्वरूपों में स्थायी आवास है — सीता, पार्वती, गांधारी, गंगा, द्रौपदी, शकुंतला, गार्गी, मेनका, जबाला इत्यादि इत्यादि. संस्कृत ग्रंथ नायिकाके तमाम भेद बतलाते हैं. शाक्त सम्प्रदाय की अधिष्ठात्री देवी दुर्गा है जो विभिन्न देवताओं की शक्तियाँ और गुणों का पुंज हैं. शाक्त सम्प्रदाय का केंद्रीय ग्रंथ देवी माहात्म्य यह भी उद्घोष कर देता है कि अंतिम सत्ता का स्वरूप स्त्रैण ही है.[4]
जिस साधक ने अद्वैत वेदांत का उद्घोष किया, वही सौंदर्य लहरी सा काव्य भी लिखता है, स्त्री के स्तनों में सूर्य और चंद्रमा देखता है, स्त्री जो अपने “स्तनों के बोझ से झुक जाती है”. सूरदास अपनी गोपियों से ब्रह्मवेत्ता उद्धव का मज़ाक़ उड़वाते हैं, गोपियाँ उन्हें अपनी स्थापनाएँ परखने को मजबूर करती हैं.
चोखेर बाली, इंदुलेखा और विष वृक्ष के लेखक निश्चय ही स्त्री–केंद्रित समाज सुधारों से प्रभावित हो रहे थे, उन्हें सम्बोधित भी थे लेकिन इन कृतियों की गर्भनाल रचनाधर्मिता की उस विराटधारा से भी शायद बंधी हुई थी जो एक लेखक के स्वप्न में बहती है, और इस तरह वे उस परम्परा का निर्वाह भी कर रहे थे जो उनके पूर्वजों ने उन्हें सौंपी थी.
यूरोप में उपन्यास के जन्म को ईश्वर की विदाई और मृत्यु से जोड़ कर देखा जाता है. बक़ौल जॉर्ज लूकाच “पश्चिमी दुनिया में पहले महान उपन्यास का जन्म तब हुआ जब ईसाई ईश्वर ने दुनिया को छोड़ना शुरू कर दिया था”, मिलान कुंदेरा उपन्यास को “ईश्वर के अट्टहास की प्रतिध्वनि” बतलाते हैं.
हालाँकि यूरोप में ईश्वर कभी भी लाश नहीं बना. अगर उसकी मृत्यु के बारे में घोषणा होती रहीं तो उसका पुनरुत्थान भी होता रहा. यूरोप का महान उपन्यास अपराध और दंड बाइबल के राइज़िंग अव लाज़रसप्रसंग पर टिका है जिसे सोनिया राशकोलनिकोव को एक तहख़ाने में सुनाती हैं, जो नायक के अस्तित्व का ही तलघर है. ‘अंडरग्राउंड’ का नायक दैवीय अनुकंपा को ग्रहण कर अपने अपराध को स्वीकार करता है. यूरोपीय साहित्य और सिनेमा से इस तरह के अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं.
ईश्वर की भारत से कभी विदायी नहीं हुई. धर्मनिरपेक्षता की संवैधानिक शपथ और धर्मनिरपेक्षता पर तमाम बहस के बावजूद देवता भारत के व्यक्तिगत और सार्वजनिक जीवन में उपस्थित रहे आए हैं. भारत में उपन्यास के उदय की तमाम वजहें बतायी गयीं हैं. क्या यह प्रस्तावित किया जा सकता है कि इन तमाम वजहों के साथ भारतीय उपन्यास स्त्री की हसरतों और हिचकियों से फूटा था? स्त्री जो उपन्यास की किरदार थी, और पाठक भी. उसकी हंसी और हकलाहटें उपन्यास का सौंदर्यशास्त्ररच रहीं थीं.
आज तमाम भारतीय भाषाओं में हर महीने प्रकाशित होते उपन्यासों को देख अचंभा होता है कि कितने कम समय में कितना अंतराल इस विधा ने तय किया है. उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध से ही उपन्यास ने ऐसी (कु) ख्याति अर्जित कर ली थी कि इस पर स्त्री को बिगाड़ देने के आरोप लगने लगे थे.[5] तत्कालीन भारतीय समाज मानने लगा था कि उपन्यास पढ़ कर स्त्री भ्रष्ट हो जाती है. यह मान्यता बेवजह नहीं थी. अब तक स्त्री धार्मिक ग्रंथ ही पढ़ा करती थी, लेकिन उपन्यास राजनैतिक विचारों और सामाजिक मान्यताओं को प्रश्नांकित कर रहा था, स्त्री को समाज के प्रति विद्रोह करना सिखा रहा था. दूसरे, उपन्यास पढ़ने की क्रिया भी बड़ी विध्वंसक थी. रामचरितमानसया सत्यनारायण की कथा समूह में पढ़ी जातीं थीं, लेकिन उपन्यास का पाठ नितांत एकाकी कर्म था. उन्नीसवीं सदी के एक दृश्य की कल्पना कीजिए. एक लड़की जो अभी तेरह की भी नहीं है या एक नई वधू जो किसी पेड़ के नीचे या छत पर अकेली बैठी एक किताब पढ़ रही है जिसके भुरभुरे पीले पन्ने आकाश की रोशनी में चमक रहे हैं. एक समाज जिसने स्त्रियों को अब तक अमूमन धार्मिक और भक्तिपरक ग्रंथ ही पढ़ते देखा था, अचानक उन्हें विद्रोही प्रेम की कथाओं में डूबते–बहते पा रहा था. उपन्यास पढ़ती स्त्री की छवि उसके परिवार को बेचैन करने के लिए काफ़ी थी.
जिस संस्कृति ने अपने एक प्रतिनिधि ग्रंथ बृहदारण्यक उपनिषद में ‘अक्षर ब्रह्म’ को प्रतिपादित किया था, शायद ही उस संस्कृति में कभी साहित्य की किसी विधा पर यह आरोप लगा था कि यह कच्चे लोगों को बिगाड़ देती है इसलिए उन्हें उससे दूर रखा जाना चाहिए. उपन्यास और स्त्री का संसर्ग उन्नीसवीं सदी के भारत की ऐतिहासिक घटना थी, जिसका महत्व सिर्फ साहित्य जगत तक ही सीमित नहीं था.
उस समय का साहित्य भी स्त्री और उसकी प्रिय किताब के मध्य उमड़े सहचर्य और संवाद को बड़े जतन से दर्ज कर रहा था. अनेक कृतियों की स्त्री किरदार उपन्यास पढ़ अपने जीवन का निर्माण कर रही थीं .
जब उपन्यास भारत में अपनी शैशवावस्था में ही था, इंदुलेखा (१८८९) की नायिका ने परम्परागत नायर परिवार में हलचल पैदा कर दी थी क्योंकि वह धर्मग्रंथों के बजाय उपन्यास पढ़ती थी. चोखेर बाली (१९१३) की नायिका बिनोदिनी विष वृक्ष (१८७३) को पढ़ती है. दोनों उपन्यासों की नायिका विधवा हैं लेकिन एक विवाहित पुरुष से प्रेम करती हैं, एक वर्जित सम्बंध की हसरत लिए जीती हैं.
१९०० के आसपास लिखी शरत चंद्र की कहानी अनुपमा का प्रेम में किसी लड़की पर उपन्यास के प्रभाव का विलक्षण चित्रण है. इसका शुरुआती वाक्य साहित्य के महानतम पहले वाक्यों में रखा जा सकता है: “ग्यारह साल की होते तक अनुपमा ने अपना दिमाग़ उपन्यास पढ़ पढ़ कर पूरी तरह से ख़राब कर लिया था.”
रविंद्रनाथ टैगोर के बड़े भाई ज्योतिरिंद्रनाथ टैगोर के नाटक अलीकबाबू (१९००) भारतीय स्त्री के जीवन में उपन्यास के योगदान पर इससे भी बड़ा वक्तव्य है. इसकी नायिका हेमांगिनि अपनी सहायिका प्रसन्ना से कहती है:
“तुम्हें मालूम है उपन्यास क्या है? उपन्यास एक नये तरह की किताब है जो हाल ही आयी है, जिसमें किसी भी अन्य किताब से कहीं अधिक ज्ञान है. पहले मुझे रामायण और महाभारत पढ़ना अच्छा लगता था, लेकिन उपन्यास पढ़ने के बाद इन्हें छूने का भी मन नहीं करता. मेरी इच्छा होती है तुम्हें पढ़ना सिखाऊँ कि तुमसे तुमसे उपन्यास का सुख साझा कर सकूँ.”
हेमांगिनि अचम्भित है: “ पिछली पीढ़ियों के लोग प्रेम के बारे में क्या जानते थे? उपन्यास तो तब था ही नहीं?”
कुछ ही दशकों में उपन्यास ने स्त्री को सम्मोहित कर दिया था, यह विधा भारतीय स्त्री के अंतरतम को छू और तराश रही थी. लेकिन अचंभा होता है कि उस समय के साहित्य में सिर्फ़ स्त्री उपन्यास पढ़ती हुई दिखाई देती है, जो समाज के आरोप झेलती उपन्यास के ज़रिए एक नई सृष्टि से साक्षात्कार कर रही है. इन तमाम रचनाओं में शायद एक भी पुरुष पाठक नहीं है जबकि शुरुआती उपन्यासकार अमूमन पुरुष ही थे. क्या उपन्यास को बोध था कि उसे स्त्री अपने एकांत में पढ़ेगी, कि वह एक एकाकी स्त्री को सम्बोधित है? क्या आरम्भिक भारतीय उपन्यासकारों की चेतना में यह दर्ज था कि वे किसी स्त्री के लिए लिख रहे थे जो उनकी रचनात्मक कल्पना में मँडरा रही थी? क्या ये उपन्यासकार एक साथ दो स्त्रियों से अपनी कल्पना में संवादरत थे — स्त्री बतौर किरदार, और पाठिका? यह चेतना भारतीय उपन्यास को किस दिशा में ले जा रही थी?
शायद पहली बार भारतीय मानस एक ऐसी साहित्यिक विधा से संवाद कर रहा था जिसके किरदार उपलब्ध उत्तरों से संतुष्ट नहीं थे. भारतीय ग्रंथों में अर्जुन, गार्गी, नचिकेता, श्वेतकेतु सरीखे अनेक किरदारों के पास चुभते हुए प्रश्न हैं, लेकिन कथा के भीतर उन्हें समाधान मिल जाता है, ज्ञान की उनकी भूख शांत हो जाती है. कृष्ण का जवाब सुन अर्जुन धन्य हो जाते हैं, याज्ञवल्क्य के जवाब से गार्गी अभिभूत हो उन्हें सबसे बड़ा ब्रह्मवेत्ता घोषित कर देती हैं. सीता के निष्कासन पर लक्ष्मण द्वारा उठाए गए सवाल सारथी सुमंत्र द्वारा सुनायी कथा से हल हो जाते हैं.
लेकिन उपन्यास के किरदारों के प्रश्न कथा के भीतर नहीं सुलझ पाते, देर तक मँडराते रहते हैं. बिनोदिनी और कुमुदिनी (सरस्वतीचंद्र) अंत में आख्यान से विदाई ले लेती हैं, लेकिन उनकी विदा से उपजा प्रश्न बचा रहता है. उपन्यास ने स्त्री को अपने समाज से एक बेबाक संवाद का अवसर दे दिया था, उसे यक्ष प्रश्न सौंपते हुए जिसका उत्तर समाज के पास न था.
अनुपमा और हेमांगिनि एक ऐसी सृष्टि में आ गयी थीं जहाँ उनकी कामनाओं को उपन्यास सींच रहा था, कामनाएँ जिन्हें उन्होंने अब तक जाना भी न था, और जो इसलिए समाज और उनके बीच एक अनिवार्य खाई बना रहीं थीं. उपन्यास से अर्जित ज्ञान की बदौलत इंदुलेखा समूचे नायर कुनबे से भिड़ सकती थीं.
यह सही है कि इक्कीसवीं सदी के पैमाने पर उपन्यास की स्त्री की आवाज़ अभी कमज़ोर थी, स्त्री के विद्रोह में पर्याप्त ज्वाला नहीं थी, लेकिन वह दृश्य उन्नीसवीं सदी का था — स्त्री की फुसफुसाहट भी उपन्यास और समाज को झकझोर देने के लिए काफ़ी थी.
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[1]यह पद, भारतीय उपन्यास, इसके विशेषण‘भारतीय’ की ही तरह, निरापद नहीं है, इस पर चर्चा आगे होती रहेगी।
[2]ऐसे कुछ उपन्यास यह हैं: रानी केतकी की कहानी (हिंदी, १८०१), यमुना पर्यटन(मराठी, १८५७), राजमोहन वाइफ़(अंग्रेज़ी, १८६०), सरस्वतीचंद्र(गुजराती, १८८७–१९००), इंदुलेखा(मलयालम, १८८९), उमराव जान अदा (उर्दू, १८९९), मोनोमती(असमिया, १९००)। इनमें बंकिम चंद्र के तमाम बंगाली उपन्यास भी जोड़े जा सकते हैं: दुर्गेशनंदिनी(१८६५), मृणालिनी(१८६९), विष वृक्ष (१८७३), इंदिरा(१८७३)।
[3]इस विषय पर बहुत काम हुआ है। मसलन बेनेडिक्ट एंडरसन का इमैजिंड कम्यूनिटीज़, पैट्रिक पैरिंडर का नॉवल एंड नेशन।
[4]इस विषय पर विस्तृत चर्चा के लिए देखें — देवी: द गॉडिस, सम्पादन: जॉन स्ट्रैटॉन हॉली एवं डोनामैरी वुल्फ.
[5]देखें पार्था चटर्जी, ’द नैशनलिस्ट रेज़लूशन अव विमन्स क्वेश्चन’, संकलित‘रिकास्टिंग विमन: एसेज़ इन कलोनीयल हिस्ट्री’, और अपर्णा बंदोपाध्याय, डिज़ाइअर एंड डिफ़ाइयन्स: अ स्टडी अव बेंगॉली विमन इन लव।
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