भूमंडलोत्तर कहानी विवेचना की श्रृंखला में आलोचक राकेश बिहारी ने मनोज पाण्डेय की कहानी पानी को परखा है. पानी में कितना यथार्थ है कितनी कल्पना यह इतना महत्वपूर्ण नही है जितना कि यह देखना कि बिन पानी जग के सूनेपन को यह कहानी कितने प्रभावशाली ढंग से व्यक्त कर सकी है. यह उजाड़ केवल धरती का नही सम्बधो और संवेदना का भी है. राकेश बिहारी ने अपने इस आलेख में कहानी के सभी पक्षों पर ध्यान खीचा हैं. यहाँ आलेख के साथ कहानी भी पढ़ सकते हैं.
बिन ‘पानी’ सब सून…
(संदर्भ: मनोज कुमार पाण्डेय की कहानी ‘पानी’
राकेश बिहारी
दुनिया की लगभग 18 प्रतिशत आबादी भारत में निवास करती है, जबकि दुनिया में उपलब्ध पानी का सिर्फ पाँच प्रतिशत ही भारत के हिस्से में है. वैज्ञानिक प्रगति और सभ्यता के निरंतर विकास के समानान्तर प्राकृतिक संसाधनों, खास कर पानी का संकट वैसे तो विश्वव्यापी चिंता का विषय है, लेकिन दुनिया की तुलना में भारत में प्रति व्यक्ति पानी की कम उपलब्धता को देखते हुये यह हमारे लिए जरूरी ही नहीं अनिवार्य मसला भी है. वर्षा की मात्रा, जल प्रबंधन तथा जल संरक्षण के राष्ट्रीय, सामूहिक और व्यक्तिगत प्रयासों के बीच सूखा और बाढ़ की विभीषिकाओं के जाने कितने लोमहर्षक उदाहरण देश और दुनिया के इतिहास में भरे पड़े हैं. ब्रिटिश राज्यकाल के पहले भारत में पड़े अकालों की बात छोड भी दें तों 1757 की प्लासी की लड़ाई और 1947 में स्वतन्त्रता प्राप्ति के बीच देश में बड़े-बड़े 9 अकाल पड़े थे जिनमें असंख्य लोगों की मौतें हुई थीं. सूखा और मृत्यु का यह तांडव स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद भी जारी रहा. बंगाल और कालाहांडी के अकाल इसके बड़े उदाहरण हैं.
भारत में पड़ने वाले अकालों की भयावहता का अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि सन 1880 ई. में वायसराय लॉर्ड लिटन के द्वारा सर रिचर्ड स्ट्रेची की अध्यक्षता में पहले अकाल आयोग की स्थापना हुई थी और उसी आयोग की सिफ़ारिशों के आधार पर सन 1883 ई. में खाद्याभाव तथा अकाल की स्थिति का पता लगाने तथा अकाल पीड़ितों की मदद आदि की प्रक्रिया निर्धारित करने के लिए एक अकाल संहिता भी तैयार की गई थी. तब से अबतक राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक, भौगोलिक आदि स्थितियों में जाने कितने परिवर्तन हो गए. प्राकृतिक आपदाओं के कारण, प्रभावों और निवारण के उपायों को समझने के लिए समय-समय पर कितने आयोगों का गठन हुआ और उनकी सिफ़ारिशें भी आ गईं. कुछ पर काम हुआ तो कुछ फाइलों में दब कर रह गईं. लेकिन तेज गति से परिवर्तित हो रहे आर्थिक-सामाजिक वातावरण के बीच एक सुदृढ़ जल संरक्षण और प्रबंधन नीति तथा उसके सुचारू अनुपालन की जरूरतें आज भी बनी हुई हैं. नया ज्ञानोदय (जुलाई 20013) में प्रकाशित मनोज मुमार पाण्डेय की कहानी ‘पानी’ जल वितरण और संरक्षण के उसी बुनियादी सवाल को मानवीय संवेदना के सघनतम आवेग के साथ पुनर्रेखांकित करती है.
गो कि इस कहानी का एक बहुत बड़ा हिस्सा सूखा और आखिरी हिस्सा बाढ़ की विभीषिकाओं के बहुत ही प्रभावशाली, मार्मिक और मारक दृश्यों से रचा गया है जो अपनी सम्पूर्ण भयावाह जीवन्तता के साथ हमें कई बार स्तब्ध भी करता है, तथापि इसे सूखे और बाढ़ की कहानी भर कह देना इसके प्रभावक्षेत्र को संकुचित और सीमित करके देखना होगा. लोक-वृत्ति और व्यवहारों को कथा-संदर्भों के साथ व्याख्यायित करती यह कहानी दरअसल कई अर्थों में मानव-सभ्यता की निर्मिति की कहानी है जो दृश्य-दर-दृश्य हमें साथ लिए चलती है और हम कब कथानक से निकल पर अपनी स्मृतियों के गलियारे में चले जाते हैं पता ही नहीं चलता. कथानक और पाठकीय स्मृति के समानधर्मी संदर्भों की इस तन्मयतापूर्ण अदला-बदली का ही नतीजा है कि कहानी के तालाब को देख कर मुझे अपने गाँव के ‘रानी साहेब के पोखरा’ की याद हो आती है. सरकारी दस्तावेजों में अंकित किसी खास व्यक्ति के मालिकाने के बावजूद गाँव का तालाब किसी एक व्यक्ति का नहीं होता, पूरे गाँव का होता है-
“वहीं से बरसात में सबसे पहले मेढकों की आवाज़ आती. शादी-ब्याह में वही तालाब पूजा जाता. औरतें वहीं तक बेटियों को विदा करने आतीं और असीसतीं कि इसी तालाब की तरह जीवन सुख से लबालब भरा रहे. पुरुष किसी रिश्तेदार की साइकिल थामे यहीं तक आते. गाँव का कोई दामाद पहली बार ससुराल आता तो यहीं रुक जाता और संदेश भेजता. लोग आते और थोड़ी देर की ठनगन के बाद उसे ले जाते. गाँव से मिट्टी उठती तो उसका पहला विराम यहीं होता. जाड़े में बंजारे और बेड़िया आते तो यहीं पर रुकते…. यहीं पंचायत बैठती, यहीं बारातें रुकती. यहीं एक आम के पेड़ में गाँव भर का घंट बांधा जाता.”
‘पानी’ कहानी का यह अंश मुझे बेचैन किए देता है. मुझे अपना गाँव छोड़े लगभग पच्चीस साल हो गए. आज पहली बार ‘रानी साहेब के पोखरा’ पर कपड़े पछाडते अपने गाँव के उस धोबी की याद आ रही है. उस पोखर के किनारे सम्पन्न हुये दादा-दादी के एकादशाह श्राद्ध की चित्रलिपियाँ मेरे भीतर फिर से जाग गई हैं और साथ ही हमारे वे पुरखे-पुरनिए भी, जिनके होने ने हमारी निर्मिति की आधारशिला रखी थी. गांव घर की बूआ-दीदी की शादी के अवसर पर रात के अंधेरे और पैट्रोमैक्स की रोशनी के बीच उसी पोखर के किनारे हुये मटकोड़ के वे मंगलगीत जैसे फिर से मेरे कानों में गूंजने लगे हैं. छठ-घाट की रौनक मेरे जेहन में फिर से ताज़ा हो गई है. ‘पानी’ कहानी का तालाब अपने पूरे वैभव के साथ मुझे और मेरी स्मृतियों को नाभि-नाल कर रहा है. जाहिर है कहानी में तालाब का पाटा जाना सिर्फ एक जलाशय का समतल होना नहीं है, न महज प्राकृतिक आपदा के रूप में सूखे की विभीषिका भर को न्योता देना. बल्कि ऐसे किसी तालाब का समतल होना संस्कृति और लोकाचार की उस पूरी फसल का सूख जाना है जिसके रस और रसायन ने हमारी जड़ों को सींचा है. उन सारे मंगलगानों और शोकगीतों की परंपरा का उजाड़ा जाना है जो समाज और सामूहिकता की निर्मिति के इतिहास से गहरे आबद्ध हैं. ये कुछ ऐसे बारीक डीटेल्स हैं जो ‘पानी’ कहानी को न सिर्फ बड़ा बनाते हैं बल्कि उसके भीतर त्रासदी और संभावनाओं का एक ऐसा संसार भी सृजित करते हैं जो बहुलार्थी और बहुपरतीय है. प्रकटत: सिर्फ पानी की समस्या को केंद्रीय संदर्भ की तरह उठाती दिखने वाली यह कहानी पानी शब्द की उन तमाम अर्थ-छवियों को हमारे सामने साकार कर देती है जो अलग-अलग स्थितियों में अलग-अलग शब्दों के साथ मिल कर अलग-अलग अर्थ की सृष्टि करते हैं. आँख का पानी उतरना हो या आँख में पानी का बचा होना, पानी के उतरने का इंतज़ार हो या पानी की तलाश या फिर पानी की प्रलय-लीला सब के सब यहाँ अपने अनुकूल और अभिव्यंजना-संदर्भों के साथ मौजूद हैं.
‘पानी’ का दृश्य विधान बहुत ही चाक्षुष और जीवंत है. शब्द, भाव और दृश्य का एक ऐसा सघन रचाव कि सबकुछ सामने घटित होता सा लगे. लेकिन इससे गुजरते हुये यह सवाल मन में जरूर उठता है कि यह कहानी किस काल-खंड की है? यद्यपि कहानी सीधे-सीधे अपने काल-संदर्भ का उल्लेख नहीं करती लेकिन परिवेश-निर्माण के दौरान खासकर सिंचाई व्यवस्था और अर्थ तंत्र से जुड़े कुछ संकेत इसके समय-संदर्भों को लगभग तीस साल पीछे ले जाते हैं. सिंचाई व्यवस्था का पूरी तरह श्रम आधारित होना, आर्थिक संसाधनों और लघुतम आधुनिक वैज्ञानिक उपकरणों तक की अनुपस्थिति, पानी पटाने के लिए पाइप का आना भी पहली बार होना, ये कुछ ऐसे संकेत हैं जो यह बताते हैं कि यह कहानी सीधे-सीधे आज की नहीं है. लेकिन, अतीत और वर्तमान में पड़े सूखे तथा वर्तमान में जारी जल-संसाधन की बर्वादी और जल-संरक्षण की दूरदर्शी नीतियों के ईमानदार अनुपालन के अभाव के मद्दे नजर भविष्य के गर्भ में पल रही वैसी ही भयावह परिणतियों की आशंकायें इस कहानी को अविश्वसनीय नहीं होने देतीं और इसका महत्व सार्वकालिक हो जाता है. उल्लेखनीय है कि जलाभाव के बाद कहानी मे जिस तरह मगन के चरित्र के अर्थ-पक्ष का विस्तार होता है उसमें आज की नवउदारवादी भूमंडलीकृत अर्थव्यवस्था के अंकुर भी छिपे हुये हैं. सहकार से साहूकार की तरफ उन्मुख होती रेहन और ऋण के व्यापार को जगह देनेवाली वह महाजनी अर्थव्यवस्था आधुनिक उदार अर्थनीति का ही लघुतम देशी संस्करण है जहां अर्थव्यवस्था पर राष्ट्र-राज्य का नियंत्रण न्यूनतम होता है.
अनावृष्टि या अल्पवृष्टि के साथ-साथ अपेक्षा से ज्यादा जलदोहन भयावह सूखे का कारण बनता है. पानी कहानी में वर्णित सूखे के मूल में भी यही है. प्रसंगानुसार यहाँ नासा की एक रिपोर्ट का जिक्र करना अनुचित न होगा –
“‘नासा’ की एक रिपोर्ट पानी को लेकर देश भर में बरती जा रही लापरवाही के प्रति आंखें खोलने वाली है. जल प्रबंधन की दिशा में इस रिपोर्ट से सबक लेकर आगे बढ़ा जा सकता है और कई हिस्सों में व्याप्त जल संकट को दूर किया जा सकता है. ‘नासा’ की इस रिपोर्ट में भारत में सूखे की स्थिति पैदा होने के लिए जिम्मेदार कारणों में से एक अहम कारण अंधाधुंध जल दोहन को बताया गया है. रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत के कई राज्य क्षमता से ज्यादा जल दोहन कर रहे हैं. क्षमता से तात्पर्य यह है कि उनसे जितने सालाना जल दोहन की अपेक्षा रखी जाती है, वे उससे कहीं ज्यादा जल दोहन कर रहे हैं. यह अध्ययन 2002 से 2008 के बीच की स्थितियों के आधार पर किया गया है.” (कहीं सूखा कहीं सैलाब, वाह रे आब / हिमांशु शेखर/ जनसत्ता रविवारी, 28 अगस्त 2011)
रेखांकित किया जाना चाहिए कि मनोज इस कहानी में इन तथ्याधारित यथार्थों का सिर्फ सूचनात्मक इस्तेमाल नहीं करते बल्कि यथार्थ की इन कड़वी-कसैली हकीकतों की रोशनी में मनुष्य के बनने-बिखरने की कहानी कह जाते हैं. अभाव किस तरह हमारे व्यवहारों को संचालित करते हुये पूरे समाज का चेहरा बदल देता है उसे इस कहानी के माध्यम से बहुत आसानी से समझा जा सकता है. खुशहाली के बीच अभाव जब अपने पैर पसारता है परस्पर बिलगाव सहज ही उसका अनुचर हो लेता है. समाज में व्याप्त लड़ाई-झगडों के बीच कुछ समझदार और धूर्त लोग अंधविश्वास का रोजगार फैलाकर अपना उल्लू सीधा करने लग जाते हैं और एक सीमा के बाद जब अभाव की कराह पेट की ऐंठन बन कर घर के बाहर सुनाई पड़ने लगती है तो परस्पर लूट-मार, अविश्वास जैसी अवांछित हरकतें मनुष्य का सहज व्यापार हो जाती हैं.
अन्न-पानी की तलाश में हिंसक होते समूह को जिस बिन्दु पर अपने ऊपर हुये जुल्म के प्रतिशोध लेने का अहसास होता है, वहीं से एक राह सशस्त्र क्रान्ति की तरफ जाती है. गौरतलब है कि खुशहाली और विपत्ति के बीच व्यक्ति और समाज के बदलते चरित्रों की ये सभी ध्वनियाँ इस कहानी में मौजूद है. पानी से सूखी धरती में पड़ रहे दरारों के समानांतर लोगों के मन के भीतर पड़ रही दरारों की दारुण स्थितियों और उसकी क्रूरतम परिणतियों को लगातार रेखांकित करती इस बात को बखूबी समझती है कि खून-खराबे का रास्ता किसी रचनात्मक अंत तक नहीं पहुंचता. लूट-मार इस प्रक्रिया का एक पड़ाव भर है लेकिन समस्या समाधान अंतत: सहकार और आपसी सहमति से ही निकलेगा. प्रतिशोधमूलक क्रान्ति और शांति की संभावनाओं के बीच आशाराम के हृदय परिवर्तन को इस संदर्भ से जोड़ कर देखा जा सकता है. दु:ख और अभाव अपनी शुरुआत में भले लोगों के बीच ईर्ष्या, छल और अलगाव की स्थिति पैदा करें पर इनकी पराकाष्ठा नए सिरे से सामूहिकता को जन्म देती है. उल्लेखनीय है कि समृद्धि और अभाव के साथ परिवर्तित होने वाले इस ‘लोक-व्यवहार चक्र’ को समझने-समझाने के लिए मनोज इस कहानी में न तो किन्हीं बीहड़ सैद्धान्तिक शब्दावलियों का आतंक पैदा करते हैं ना हीं किसी अबूझ और चौंकाऊ शिल्प-रचना का संधान करते हैं बल्कि किस्सागोई के ठाठ को बरकरार रखते हुये लोक-वृत्तियों, किंवदंतियों, अफवाहों आदि के सहारे हमारे संवेदना तंतुओं को भीतर तक छू जाते हैं. महामाई हो या लकड़सूंघवा या फिर रोटी प्याज वाला सब के सब उसी कथायुक्ति का हिस्सा हैं. यद्यपि जादू-टोना, अभिशाप-वरदान या दैवी शक्ति में विश्वास आदि के सहारे वर्त्तमान या भविष्य की भयावहताओं और विलक्षणताओं को अभिव्यंजित करने की इस तकनीक को देख कर जादुई यथार्थवाद की यूरोपिय युक्ति और तकनीक की भी याद आती है जिसके बहुत कलात्मक और प्रभावशाली उदाहरण मार्क्वेज,एंजिला कार्टर, कार्पेतियर, काल्विनो आदि के साहित्य में देखे जा सकते हैं, लेकिन मनोज द्वारा प्रयुक्त ये युक्तियाँ अपनी लोकधर्मिता और स्मृतिसापेक्षता के कारण विलक्षण की सृष्टि करने के बावजूद उनसे भिन्न हैं.
हाँ इस क्रम में इस बात का उल्लेख किया जाना बहुत जरूरी है कि कहानी ऐसा करते हुये कहीं भी अंधविश्वासों-अफवाहों के पक्ष में नहीं खड़ी होती बल्कि इस बात को सत्यापित करती चलती है कि ये सब कुछ लोगों द्वारा सृजित व्यापार हैं और अभाव, और भय इस व्यापार के विस्तार में खाद-पानी की भूमिका निभाते हैं. अंधविश्वासों और भय के मनोवैज्ञानिक और आर्थिक-सामाजिक अंतर्संबंधों के प्रति यह सचेत लेखकीय व्यवहार प्रशंसा योग्य है लेकिन कहानी के आखिरी दृश्य में कुआं खोदने को उतरे दो लोगों के गुम हो जाने को इस प्रकरण के सर्वाधिक अविश्वसनीय दृश्य की तरह रेखांकित किया जाना खटकता है. उल्लेखनीय है कि इसी दृश्य के बाद कहानी में वर्षा होते है. दो व्यवक्तियों के अविश्वासनीय तरीके से गुम होने और अचानक बारिश होने की स्थिति कहानी में किसी चमत्कार की तरह घटित होती है. वर्षा एक प्राकृतिक घटना है, उससे इंकार का कोई कारण नहीं. पर पूरी कहानी जिस तरह अंधविश्वासों, चमत्कारों, प्रकोपों आदि की संभावनाओं से पर्दा हटाती चलती है उसका अंत में इस तरह एक अविश्वसनीय घटना को स्वीकार लेना या उस पर चुप हो जाना कहानी के आधुनिकता बोध को क्षतिग्रस्त करता है.
वैसे तो सूखा और बाढ़ परस्पर प्रतिकूल त्रासदियाँ हैं लेकिन जल संरक्षण और प्रबंधन का साझा महत्व कहीं इन्हें जोड़ता भी है. ‘पानी’ कहानी में प्राकृतिक आपदाओं के इन दोनों रूपों का दहला देना वाला वर्णन मौजूद है. हिन्दी में बाढ़ की भयावहता पर एक से एक कहानियाँ लिखी गई हैं. अरुण प्रकाश की ‘जल प्रांतर’ और पूरन हार्डी की ‘बुड़ान’ इस सिलसिले में तुरंत याद आ रही हैं. लेकिन सूखे पर कोई उस कद की कहानी मेरी स्मृति में नहीं है. हाँ, रेणु ने सूखे को लेकर कुछ अविस्मरणीय रिपोर्ताज जरूर लिखे हैं. यह मेरी जानकारी की सीमा भी हो सकती है. सूखे पर बहुतायत में कहानी का होना या न होना एक अलग शोध का विषय हो सकता है पर ‘पानी’ कहानी का महत्व इस कारण भी बढ़ जाता है कि मनोज ने इसके बहाने एक कम लिखे गए विषय पर कायदे की कहानी लिखी है.
इस कहानी पर यह टिप्पणी अधूरी होगी यदि इस बात का उल्लेख न किया जाये कि मनोज ग्रामीण परिवेश में गहरे धँसी जाति-व्यवस्था को तो बखूबी समझते हैं, लेकिन इतनी बड़ी समस्या पर इतनी गहराई और संवेदना से बात करते हुये भी उनकी दृष्टि प्रशासन और राजनीति से दूर रह जाती है. उल्लेखनीय है कि कहानी में जिस गाँव का वर्णन है वह डाक और पुलिस विभाग से जुड़ा हुआ है. ऐसे में व्यवस्था का पंगु, भ्रष्ट या कागजी होना तो समझ में आता है लेकिन संदर्भित कालबोध से सम्बद्ध प्रशासनिक और राजनैतिक व्यवस्था के राग-रंग का कहानी में सिरे से गायब होना कुछ बचे रह जाने या कि छूट जाने की कसक भी पैदा करता है. बावजूद इसके बाहर के सूखे और बाढ़ को भीतर की शुष्कता और तरलता के साथ जोड़ कर अलगाव और समूहबोध की निर्मिति के परस्पर अंतर्द्वंद्वों को जिस रचनात्मक वैभव के साथ यह कहानी प्रस्तुत करती है वह इसे महत्वपूर्ण और यादगार बनाता है.
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