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Home » मेघ दूत : नीटू दास

मेघ दूत : नीटू दास

नीटू दास (Nitoo Das) गुवाहाटी से हैं. Constructions of the Assamese Identity under the British (1826-1920) विषय पर (जे.एन.यू.) से पीएच.डी. हैं. इंग्लिश में कविताएँ लिखती हैं. उनकी कविताएँ  Poetry International Web, Pratilipi, Muse India, Eclectica, Seven Sisters Post, Four Quarters Magazine, Poetry with Prakriti आदि पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं. पहला कविता संग्रह  Boki २००८ में प्रकाशित हुआ था, दूसरे के शीघ्र […]

by arun dev
November 24, 2012
in अनुवाद
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नीटू दास (Nitoo Das) गुवाहाटी से हैं. Constructions of the Assamese Identity under the British (1826-1920) विषय पर (जे.एन.यू.) से पीएच.डी. हैं. इंग्लिश में कविताएँ लिखती हैं. उनकी कविताएँ  Poetry International Web, Pratilipi, Muse India, Eclectica, Seven Sisters Post, Four Quarters Magazine, Poetry with Prakriti आदि पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं. पहला कविता संग्रह  Boki २००८ में प्रकाशित हुआ था, दूसरे के शीघ्र आने की उम्मीद है. नीटू ने असमिया से  इंग्लिश में अनुवाद कार्य भी किया है. इन्द्रप्रस्थ कालेज, नई दिल्ली में अंगेजी पढाती हैं.

नीटू दास को हिदी के लिए अपर्णा मनोज ने तलाश किया है और मन से अनुवाद किया है. इन कविताओं में अनुभव और चेतना के नए सीमांत उद्घाटित हैं. कुछ सुंदर गत्यात्मक बिम्ब हैं. करुणा, कामनाएं और गहरी व्यंगोक्ति.

नीटू दास  की  कविताएँ                                                


G.R. Iranna

थुकजे श्युलिंग भिक्षुणी मठ तवांग               

हर सुबह मैं खिलाती हूँ तुम्हें
अपने अतीत के टुकड़े, ओ बुद्ध
रोज़ प्रातः खिलने पर
छितरा देती हूँ अपने पंख तुम्हारे आस-पास
मेरी उँगलियाँ उड़ती हैं
सुनते हुए गेहूं को.
हर प्रातः मैं संवारती हूँ तुम्हें, बस तुम्हें
अपनी आँखों की बेरुखी से, ओ बुद्ध
रोज़ सुबह ठण्ड दहका देती है मुझे
लकड़ियों-सा.
उगती हुई सुबह के पर्वत
बुद्ध, स्मरण कराते हैं
धूसर धब्बों के
रोज़ सुबह सुलगती पत्तियों का धुआं
ढल जाता है प्रेमगीत में
और बुद्ध, भोर के तारे आ जाते हैं करीब
और करीब तेरे मुख को
रोज़ सवेरे मेरी तनी भौंहें
जला देती हैं आकाश
गहरे और गहरी तहों तक छिप जाती हूँ मैं
अपने ही जिस्म में, ओ बुद्ध
रोज़ सुबह पत्थर करते हैं चहलकदमी
व्याकुलता के आस-पास
और मेरी भूख ठिठकते हुए सहसा
खुद को मोड़ देती है तुम्हारी तरफ, ओ बुद्ध
हर सुबह.
 

रास्ते                                           

गलियों के तले घूमो
दुनिया ने खोल दी हैं अपनी आंतें तुम्हारे लिए .
लाल पीक थूकने वाले आदमी से कहो
कि तुम्हें पैडल मार, पहुंचा दे पहाड़ी भोजला तक
वह तुम्हें उड़ाते हुए ले जाएगा बुलबुली खाना.
इंतज़ार करो तनिक.
सोचो कि चिड़ियाँ गीत गा रही हैं वहां. कोई भी चिड़िया .
बुलबुल भी हो सकती है
बीचोंबीच बाज़ार के. कनखियों से देखो
उस घर को 
जाना जाता है जो चूड़ीवाला के नाम से
सोचो चूड़ियों के बारे में
जब तुम हिचकोले खाते उछल जाओ अपनी सीट पर
कार के कुछ हिस्से दमकने लगें
झिलमिलाने लगे ग्रीस तुम्हारी देह पर. तेज़ी से निगाहें देखें
धीमे-धीमे इंजन, डैशबोर्ड, टायर, बम्पर
और तुम
आ जाओ मेरे करीब
लेकिन, इस सबके पहले भूल मत जाना चितलीकबर
न भूलना कि कब्र हो सकती है किसी बकरी की
या लड़की की या चीते की या घोड़े की
एक बेगम यहीं दफनाई गई थी, इसके करीब
रज़िया : यहीं है वह अब भी
यहीं-कहीं अमरुदवाली मस्जिद के पास.
कहानियां पीछा करेंगी तुम्हारा उसके घोड़े की
टापों की तरह
रुको यहाँ दरीबा पर
मैं खड़ी हूँ
आज खरीद दो कानो की बालियाँ मुझे
लम्बे समय तक किया
मैंने तुम्हारा इंतजार.

साइबोर्ग कहावतें                        

कठफोड़वा
कभी मूक नहीं था
हम उड़ने के लिए ही थे
जैसे
इकेरस तार से बना गुलाब
ख़ुशबू उतनी ही देता है जितना एक असल
भरी गर्मी
धूल में नहीं बदलेगी.
मशीन में बैठा प्रेत
एक जिन्दा वृक्ष है.
निस्तब्धता करती है सृजन
संगीत से जुड़े कानों का
घास के शोक का कारण
कि उसे केवल हरा रहना है.
पत्थरों से आप खून पा सकते हैं. व्यंग्योक्ति
एक नेक परिचारिका है. पूजा करो
प्रतिकृतियों की; सपने तमाम
उसी पर आश्रित है.
मेरी आँखें हैं
तुम्हारी भी हो सकती हैं ये.

मेरी दीवार में बसर करती है बारिश       

मेरी दीवार में बसर करती है बारिश. दीवार मेरी
ओढती है नशा.
घूँट में पी जाती है बरसात को
और उछाल देती है उसे
दागदार नदियों की तरह
यह एक सम्वती अनुष्ठान है
कि यह चाहती है रोगन,
बेलबूटे.
मैं चिपका सकती हूँ छापे
अपनी दीवार पर
ताकि छिपा सकूँ बरसात के छोड़े निशाँ …
किन्तु
हाथों के छापे, जंगली औरत
नीम के पेड़ों की उँगलियाँ
चिपके हुए अगनित खरपतवार, असुर, ज़रदोज़ी की
मछलियाँ जो उलझ गई हैं बरसात के जाल में
और दुबक गई हैं बरसात के भाषा-चिह्नों में.
मेरी दीवार सिरजती है उन्हें
अर्थों की एक फसल, लुकछिप कर
जिन्दा रखती है
मेरी दीवार को.
मेरी दीवार
करती है मुझे इशारे.
कहती है मुझसे :
यही है घर तुम्हारा
स्वीकारो इसे
और हो जाओ तुम बरसात.

दादी की गोदरेज                                           

अब घर की स्त्रियाँ
उकडू बैठी
काठ की उस चीज़ को
और नहीं कर पातीं आलिंगन
उन्हें चाहिए होता है कुछ मज़बूत
बनिस्पत के
उन नक्काशियों के
जो हर सप्ताह चमकाए जाने
और अपनी अंगूरी-पत्तियों, छल्लेदार फूलों की
झाड-पोंछ की मांग करते हैं
गोदरेज
फौलादी-सपाट
आई थी घर
ज्यादा धूमधाम से
ठेलागाड़ी में
जिसमें धोखा देने वाले सम्मोहक,
घुमावदार मोड़ नहीं थे
जहाँ जम सकती थी गर्द
कई आदमी
पसीने से लथपथ बनियानों वाले
चिल्लाते-गरियाते उसे धकेल, खींच रहे थे
तब तक
जब तक वह लम्बी-सलेटी
तन कर खड़ी न हो गई
अकेले
घर के ऐंठ से भरे छोटे-से कोने में.
इतराई वह
अपने बहाकर ले जानेवाले नाम पर
और बन गई झटके से कोख
पुराने  रेशम, इत्र, पाउडर के लिए
जबकि लकड़ी की बनी वह
बिस्तर से लगी
बाँझ-सी पड़ी रही
जिसमें और कुछ नहीं
जालसाज़ शिफौन बची थी
साथ देने के लिए.
नयी अलमारी थी बेपरवाह और विचित्र
जब चरमराती बेसुरी आवाज़ में
तो चाहती अपने आस-पास गहरी चुप्पी.
वह खोली नहीं जा सकती थी तब
जबकि सो रहे होते थे घर में
कोमल शिशु.
दबी आवाज़ में
लोग फुसफुसाते
कि  अब सूखी-कुरकुरी नीम की पत्तियां
भी बचा नहीं पातीं तमाम कपड़े
जैसे सहेजकर रखती हैं उन्हें
बर्फ-सी छोटी शानदार नैप्थलीन गोलियां.



रोज़मर्रा की कविताएँ:

सेफ्टी पिन

मैं मछली हूँ
तार की मछली  
चीज़ें सहेजती
ओंठ और दोस्ती एकसाथ
थोडा यहाँ चुभकर
थोडा वहां भेदकर
और एक मीठी परिधि खून की.
 

टी .वी . रिमोट

स्मृति और उसके विलोम के बीच
मैं रहता हूँ धुंधलाय-सा.
असबाब की तहों में
लुकछिप जब खोजते हैं मुझे
अजनबी नाखून
खट-खट चलती उँगलियाँ देह पर
उद्वेलित करती मुझे.
चाप होकर तब
उन हाथों को बनाता हूँ सुडौल
जिनके वश में हूँ मैं.

छाता

मैं एक फूल
आसूं और सूरज से
होता क्षरित 
एक लौह कंकाल
देता है मुझे पंख.
जरुरत हो परदे की

मुझे तलाशना.


___________________________________


अपर्णा मनोज

कविता, कहानी, अनुवाद, आलोचना
aparnashrey@gmail.com

Tags: नीटू दास
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समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

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