हुज़ैफ़ा कश्मीरी युवा कवि हैं और प्रतिरोध, दुख, अस्मिता और स्मृतियों में डूबी कविताएँ लिखते हैं. वे फिलहाल \”प्रतिरोध की कविताओं\” (फैज़ अहमद फैज़, आगा शाहिद अली, महमूद दरवेश) पर कश्मीर विश्वविद्यालय से शोध कार्य (पीएच.डी) कर रहे हैं. वह अँग्रेजी और उर्दू में लिखते हैं. उनकी कविताएँ कश्मीर लिटरेचर, यशश्री, लक्सेमबर्ग रिव्यू, इण्डियन लिटरेचर, पेपरकट्स और मिरास आदि पत्रिकाओं में छप चुकी हैं.
उनकी पांच कविताओं का अँग्रेजी से अनुवाद हिंदी के यशस्वी युवा कवि तुषार धवल ने किया है. ऐसा लगता है जैसे इसे हम मूल में पढ़ रहे हों. क्या सघन तेज़ आंच की कविताएँ हैं ? हिंदी में हुज़ैफ़ा को लाने के लिए शुक्रिया तुषार.
हुज़ैफ़ा पंडित की कविताएँ
बूहु कश्मीर के लिये एक शोकगीत गाता है.
दिल में अब यूँ तेरे भूले हुए ग़म आते हैं
जैसे बिछड़े हुए क़ाबे में सनम आते हैं
और कुछ देर न गुज़रे शब-ए-फ़ुरकत से कहो
दिल भी कम दुखता है, वो याद भी कम आते हैं
एक हमीं को नहीं एहसान उठाने का दिमाग़
वो तो जब भी आते हैं माइल-ब-करम आते हैं
(फ़ैज़)
बूहु गाता है \’सिघरा आँवीं साँवल यार\’
मृत प्रेमियों को पुकारो कुछ देर और
कोई प्रेमी रोता है अपनी मुर्दा ज़ुबान से
इस शोक पर अर्थ लेपो कुछ देर और
हम जानते हैं नियम क्या हैं, कानून क्या
हत्यारों को हमें छलने दो कुछ देर और
काले ताबूतों से तावीज़ लटकते हैं
अधजले वादों की गिरह खोलो कुछ देर और
वादा है कि मेहशर में सर नंगे होंगे हमारे
सूरज से कह दो कि जी भर दहक ले कुछ देर और
महकती स्याही उलट दो, दफ़ना दो ज़रीदार पन्ने
अच्छी कविताओं का अकाल सहो कुछ देर और
___
___
सन्दर्भ :
बूहु : एक सूफ़ी कवि जो सैराकी भाषा में लिखते थे
सिघरा आँवीं साँवल यार : जल्दी आ जा साँवले यार
मेहशर : फ़ैसले का दिन
इन्क्वाइरी कमिशन के समक्ष मन:स्थिति
क़त्ल-ए-आशिक किसी माशूक़ से कुछ दूर न था
पर तिरे अहद से आगे तो ये दस्तूर न था
(ख्वाज़ा मीर दर्द)
हम हटा लेंगे दिलों से अपने ग़म
इन खाली दिलों में किराये पर नहीं बसोगे?
हम छोड़ देंगे अपनी जात और क़ौम
तुम पैग़म्बर हमारी क़ाफ़िरी के नहीं बनोगे?
हम काबू में रखेंगे अपनी मौतों को
नीलामी में उसे हमसे हासिल नहीं करोगे ?
हमने छोड़ दिया है ख्वाहिशों को अब
कुबूल इस अन्दाज़-ए-बयाँ को नहीं करोगे ?
हम भूल चुके हैं तुम्हारे हर नाम
हमारी गुफ्तुगू को खामोश तुम नहीं करोगे ?
हमने इरादा किया है वफादारियों का
बहला कर कैद में चमड़ी नहीं उधेड़ोगे ?
हम छोड़ चुके हैं अब अपने घरों को
हमें इतिहास के आईनों में नहीं रखोगे ?
अपनी कैद की खिड़की से ताकते हैं हम
वहाँ के हरे चाँद तारे नहीं बुझाओगे?
हम भी कैद यारों को पुकारते हैं, फ़राज़
वे जवाब नहीं देंगे खबरों से कत्ले-ए-आम की
क्या बीत गई अब फ़राज़ अहल-ए-चमन पर
याराँ-ए-क़फ़स मुझको सदा क्यों नहीं देते
फ़राज़ इस गुलशन के बाशिन्दों पर
क्या गुजरी है इन दिनों
मेरे कैद यार जवाब क्यों नहीं देते
सलामती की मेरी दुआओं का ?
मुम्बई के लिये ट्रेन
धुआँ उड़ाती तम्बाकू की गन्ध का,
रोग और मध्यम वर्गीय पसीने और तेल से
पके मजदूर बालों की मालिश करती, अनिच्छा से
ट्रेन चल पड़ी
पटरियाँ पाखानों पर पली
घास पहनी हुई,
झुग्गियों से अल्हड़ गुजरती
फैली सार्वजनिक जमीनों में गुँथी
उस भीड़ की तरफ
लकड़ी के गीले कुन्दों सी जो ठूँस दी गई है
काँक्रीट के सड़ते जंगलों में
जख्म खाई झुग्गियों की
धूप जली चमड़ी पीछे छूट गई अब धुँधली रह गई है
जब मेरे ख्वाब लड़खड़ा कर चल पड़े
दु:स्वप्नों के धुँधले बंदरगाह में जहाँ
तीखी आवाजें थीं सीटियों सी, दरिद्रता के
रोजाना दिखावे पर पलते
लोगों के नकली विलाप थे
खाकी कपड़ों में नाश्ता बेचने वाले ने
मेरी पसलियों को अपनी तीखी पुकार से कोंचा
और अपना रास्ता बनाने में
मुझे पाव में वड़े की तरह
एक तरफ ठूँस दिया
मैंने सुलह कर ली
रंग बिरंगी रोशनी चमकाते बॉल बेचने वाले
चिथड़ों में घूमते उस अन्धे से
मेरे विदेशी नुमा उच्चारण में
विदेशी मुद्रा की गंध थी
फिर भी मैंने उन्हें दिया
नम्र दया के बासी शब्द
मैं हाई स्कूल में पढ़े भूगोल की स्मृतियाँ
भूल गया
और राष्ट्रीयता के ढकोसले का भी
अधिकार गँवा बैठा
क्या वे इसे गद्दारी कहेंगे
यदि मैं कह दूँ कि मेरी गोरी त्वचा और भूरे केश
कश्मीर की बर्फीली चट्टानों ने रंगा है
यूरोप की धूप ने नहीं
शहर में उतरते ही मैं
समयहीन अहमियत से सरकते लकवाग्रस्त सपनों से
टकरा गया
संस्कृति, उस बूढ़े भिखारी ने कहा, साधारण है।
काल्पनिक वतन
जब मैं भयंकर मानसून से भागते
धूसर बारिशों की कीचड़ में सने
अपने काल्पनिक वतन के खो जाने का
शोक करता हूँ
मैं अपने निर्वासित दुख को अपने गीले कलेजे से
भींच कर चिपकाये ‘द नेमसेक’ की एक प्रति में
उड़ेल देता हूँ
कई मुठभेड़ों पहले \’आशिमा\’ की छपी साँसों में
पूरबी दुखों पर बहरी अफवाहों से उगी
मेरी जिज्ञासा को
उसने अपना कौमार्य दे दिया था
चोरी के कागज की खुरदुरी छुअन पर
मैं एक पुरानी याद को जीता हूँ
सोलह महीने पहले, कश्मीरी दोपहर की गरमाहट से भरी
उस ऊँघती कार में
मैंने आँसू पोछे थे उसकी हमनाम के
अचानक आँसू और सूजी आँखों में उकेरे
उसके ग़म पर शोक किया था मैंने
उस पन्ने को मैंने थकी आह से बुकमार्क किया था और
ज़फ़र की ग़ज़ल बजाया था
\’पए फ़ातिहा कोई आये क्यों कोई चार फूल चढ़ाये क्यों
कोई आके शम्अ\’ जलाये क्यों मैं वो बेकसी का मज़ार हूँ\’
एक खानाबदोश काल्पनिक यादों के
उधड़े हुए धागों की
रफ़ू करता है.
कर्फ्यु में जुम्मा
चीज़ें अलग थीं तब
जब फटा हुआ आकाश
मेरी रिसती हुई खोपड़ी पर बोझ नहीं बनता था
किसी पते के अकाल में
मैं कुछ स्क्वेयर फीट में बसता था
रोशनी के इस शहर में
किसने कल्पना की थी कि
गैस भरे अन्धेरे राज करेंगे
यह दु:स्वप्न कभी मुझसे टकराया न था
क्या तुम्हें शक हुआ था कभी इसका ?
कई बारिशें बरसती हैं
एक से तो बाढ़ भी आई टी.आर.पी
और एहसान फ़रामोश लोगों की
लेकिन जख्मी खूनों के दाग
झेलम के टाँकों और
चोट से नीले पड़े सेबों की खोल से
नहीं मिट पाते हैं
अब तुम्हारी माशूक सन्नाटे के मथे गये पर्दे की
बैरिकेड के पीछे कैद है
कभी, जब शहर एक भाषा बोलता था
वह मुअ’ज़्ज़िन था.
_______
तुषार धवल
22 अगस्त 1973,मुंगेर (बिहार)
पहर यह बेपहर का (कविता-संग्रह,2009). राजकमल प्रकाशन
ये आवाज़े कुछ कहती हैं (कविता संग्रह,2014). दखल प्रकाशन
ये आवाज़े कुछ कहती हैं (कविता संग्रह,2014). दखल प्रकाशन
कुछ कविताओं का मराठी में अनुवाद
दिलीप चित्र की कविताओं का हिंदी में अनुवाद
कविता के अलावा रंगमंच पर अभिनय, चित्रकला और छायांकन में भी रूचि
सम्प्रति : भारतीय राजस्व सेवा में
tushardhawalsingh@gmail.com