विजय राय के संपादन में लमही का ‘हमारा कथा समय’ तीन अंको में फैला हुआ है, लगभग १७५ आलेखों वाले इस महाविशेषांक की इधर चर्चा है. २००० में वर्तमान साहित्य ने इसी तरह से ‘शताब्दी कविता विशेषांक’, ‘शताब्दी कथा-विशेषांक’ और ‘शताब्दी आलोचना पर एकाग्र’ के तीन अंक (२००२) प्रकाशित किये थे. हालाँकि इन विशेषांकों में पूर्व प्रकाशित चयनित आलेख ही अधिक थे.
लमही के ‘हमारा कथा समय’ में लगभग समकालीन सभी पीढ़ियों का प्रतिनिधित्व हो गया है, प्रत्येक कथाकार पर एक आलेख है. इससे हिंदी कथा-संसार की एक मुकम्मल तस्वीर तो बनती ही है कथा और कथा-आलोचना में रूचि रखने वालों के लिए भी यह एक संपदा है, इनमें कुछ महत्वपूर्ण आलेख शामिल हैं. एक ऐसे समय में जब वृत्तान्त की जगह नहीं बची है विजय राय ने लमही के माध्यम से महावृत्तान्त रचा है. बधाई दी जानी चाहिए.
समालोचन \’हमारा कथा-समय\’ पर कीर्ति बंसल और शुभा श्रीवास्तव के दो आलेख प्रकाशित कर रहा है.
हिन्दी कहानी पर एक समग्र दस्तावेजी कार्य
कीर्ति बंसल
पिछले कुछ दशकों में हिन्दी कहानियों पर अनेक पत्रिकाओं के विशेषांक आए हैं जो साठोत्तरी से लेकर आज तक की अनेक कहानियों और कहानीकारों को आच्छादित करते हैं. किन्तु प्रतिष्ठित पत्रिका ‘लमही’ के सम्पादक श्री विजय राय जी ने इसे मुकम्मल शक्ल देने का जो बीड़ा अप्रैल-सितम्बर, 2019 अंक से उठाया था, उसे जनवरी-मार्च, 2020 में अंजाम तक पहुँचा दिया है. निश्चय ही यह एक श्रमसाध्य कार्य रहा होगा क्योंकि अपनी मूल प्रकृति में यह सर्वसमावेशी, आलोचनात्मक और संग्रहणीय कार्य है.
हिन्दी साहित्य समाज में पुरुष लेखन के बीच और बरअक्स पिछले कुछ समय में महिला लेखन ने भी अपना प्रभावीशाली स्थान बनाया है. स्त्री-लेखन पर अक्सर यह आरोप लगाया जाता रहा है कि वह मूलभूत साहित्य का सृजन नहीं करता, बल्कि देखा जाए तो समग्रता में सत्य इससे अलग ही है क्योंकि स्त्री-लेखन हृदय को स्पर्श करने की क्षमता रखने के साथ-साथ आलोचनात्मक सामाजिक और पितृसत्तात्मक विश्लेषण की तरफ बढ़ा है. यह प्राकृतिक और स्वाभाविक ही है कि स्त्री-लेखन में श्रद्धा, दया, सहानुभूति, ममता, सौजन्य, कोमलता, करुणा, त्याग, सेवा आदि भाव ज्यादा दिखते हैं किन्तु ये महिला कथाकार ही हैं, जिन्होंने हाशिये पर धकेल दी गयी अस्मिताओं को उचित स्थान दिलाने के लिए मुसलसल संघर्ष किया है. यद्यपि, प्रारम्भ से ही, यदि वैश्विक स्तर पर देखें, तो जॉन स्टुअर्ट मिल जैसे पुरुषों द्वारा भी नारियों के दमन, शोषण, पीड़ा, दु:ख-दर्द आदि को वैचारिक साहित्य जगत में जगह दिलायी गयी परन्तु महिला लेखन ही इन चेतनाओं को वास्तविक रूप में साहित्य में अभिव्यक्त कर सकने की क्षमता रखता है. ऐसा इसलिए है कि क्योंकि नारियों का जीवन नारियाँ ही बेहतर समझ सकती हैं, वह भी बिना किसी पूर्वग्रह के. भारतीय सामाजिक व्यवस्था ने अनादिकाल से स्त्री-अस्मिता को उचित स्थान व महत्व नहीं दिया, ज्ञान क्षेत्र से लेकर धर्म क्षेत्र तक में उनके प्रवेश तक को भी वर्जित माना गया. अपने पारिवारिक एवं प्राकृतिक दायित्व, शिक्षा के अभाव, आर्थिक विषमता, पुरानी रूढ़िवादी मान्यताओं एवं पितृसत्तात्मक प्रवृति के कारण आरंभ में महिलाएँ साहित्य साधना में पुरुषों से थोड़ा पीछे रहीं. इसके उपरांत महिलाओं ने सामाजिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक एवं पौराणिक वृत्तान्तों के लेखन में बहुमूल्य योगदान दिया है. अब वे पुरुषत्व की दासता की बेड़ियाँ उतारकर फेंक चुकी हैं और हर क्षेत्र में प्रगति की राह पर विविध क्षेत्रों में कदम बढ़ा रही हैं.
आरंभ में फ्रॉयड तथा मार्क्स के विचारों को, गैर-बराबरी के उन्मूलन के हित, कथा साहित्य द्वारा समाज में लाने की कोशिश की गयी, जिसमें महिला कथाकारों का योगदान उल्लेखनीय रहा. होमवती देवी, सत्यवती मलिक, कमला चौधरी, चंदेसेन ऋषभ सेन जैन, सुमित्रा कुमारी सिन्हा, चंद्रकिरण सौनरेक्सा, तेजरानी पाठक, शन्ति मेहरोत्रा, कंचनलता सब्बरवाल आदि कुछ नाम इस सिलसिले में लिया जा सकता है. सन् 1960 के बाद शिक्षा का प्रसार एवं प्रचार हुआ जिससे महिलाएं लाभन्वित हुई. महिला कथाकारों में शशिप्रभा शास्त्री, कृष्णा अग्निहोत्री, दीप्ति खण्डेलवाल, मृदुला गर्ग, निरूपमा सेवती, आदि के नाम विशेष उल्लेखनीय है. प्रेमचंद से जैनेन्द्र तक की समयावधि में, महिला कथाकारों में लेखन की प्रक्रिया, बहुत कम दिखाई देती है. सन् 1960-70 में दर्जनों लेखिकाओं ने अपने लेखन से साहित्य को समृद्ध किया और अनेक कहानीकार सामने आए, जिनमें प्रमुख हैं : मन्नू भंडारी, उषा प्रियंवदा, कृष्ण सोबती, मृणाल पाण्डेय, शशिप्रभा, ममता कालिया, सुधा अरोड़ा, मालती जोशी, सूर्यबाला, कृष्णा अग्निहोत्री, चित्रा मुद्गल, राजी सेठ आदि के नाम विशेष उल्लेखनीय है.
‘लमही’ का ‘हमारा कथा समय-1’ महिला कथाकारों पर केन्द्रित है. इसमें ममता कालिया, सूर्यबाला, सुधा अरोड़ा, नासिरा शर्मा और शीला रोहेकर से लेकर युवा महिला कथाकारों, जैसे नीलाक्षी सिंह और आकांक्षा पारे काशिव तक का लेखन व्याप्त है. अपने मौलिक और प्रखर लेखन से हिन्दी साहित्य की शीर्ष पंक्ति में अपनी जगह स्थापित कर ममता कालिया ने ग्राम से लेकर महानगरीय जीवन के विविध आयामों को बुना है. इनकी कहानियों में यथार्थ मर्मस्पर्शी रूप में मिलता है. आज के युग में नारी का निरंतर शोषण, पाश्चात्य जीवन का नारी जीवन पर प्रभाव एवं आधुनिक जीवन की सामाजिक विसंगति का चित्रण ममता कालिया की कहानियों में प्रस्तुत और चित्रित है. आपकी अधिकांश कहानियाँ नारी को केन्द्र में रखकर लिखी गई है जो नारी समस्याओं के साथ-साथ उसके विविध पहलुओं का भी निदर्शन कराती हैं.
वर्ष 2019 में व्यास सम्मान से सम्मानित नासिरा शर्मा की कहानियाँ अपने मूल स्वभाव में सार्वभौमिक रही हैं. हिन्दी, उर्दू, फारसी, पश्तो, अंग्रेजी जैसी अनेक भाषाओं की जानकार नासिरा शर्मा ने हिन्दी को बेहतरीन कहानियाँ और उपन्यास दिए हैं. नासिरा शर्मा का दृष्टिकोण सदैव मानवीय रहा है एवं उनकी कहानियाँ विश्वबन्धुत्व का प्रसार करती हैं. कृष्णा सोबती, अलका सरावगी एवं मृदुला गर्ग के बाद आप चौथी ऐसी महिला लेखक हैं जिन्हें हिन्दी साहित्य में साहित्य अकादमी (2016) पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है. आपके प्रमुख संग्रहों में ‘पत्थरगली’, ‘सबीना के चालीस चोर’, ‘खुदा की वापसी’, ‘दूसरा ताजमहल’, ‘आसमान’, ‘कागज की नाव’, ‘परिजात’ आदि उल्लेखनीय हैं. नसिरा शर्मा की कहानियाँ ऊपरी आवरण के नीचे दबे मनुजत्व को उभाकर ऊपर लाने की प्रतिबद्धता से युक्त हैं.
दीपक शर्मा की कहानियाँ अपने केन्द्र के रूप में हिंसा को सामने लाती हैं. वह हिंसा, जो वार्तालाप और संवाद का, समझ और बोध का विरोध करती रही है. इस हिंसा पर प्रहार दीपक शर्मा की कहानियों की विशेषता रही है. इनकी कहानियों में जब हिंसा प्रमुख तत्व के रूप में नहीं भी मौजूद होती, तब भी पृष्ठभूमि में उसका मन्द, किरकिरा स्वर बजता हुआ सुनाई देता है. इनकी कहानियों का मर्म हिंसा और उसके मूल अभिप्रेरणों की पहचान कर उन्हें उजागर करना है. इनकी कहानियों का कटु यथार्थ चौंकाता है, प्रश्न छोड़ता है और सोचने के लिए विवश करता है. पर उनके कथन में सादगी एवं सहजता है जो विवादत्मक मुद्दों को भी शालीनता से कह जाते हैं.
आधुनिक युग की महिला कहानीकार सुधा अरोड़ा की कहानियों में महानगरीय परिवेश में जीने वाली निम्न मध्यमवर्गीय महिलाओं की विसंगतियों का रूपायन है. इनकी कहानियों में पारिवारिक सम्बन्धों में आने वाली दरार का भी चित्रण है. यहाँ कथानक सम्बन्धी कुछ तत्व विभाजन तथा राजनीति पर आधारित हैं. लेखिका नारी समस्या के साथ-साथ देश की आर्थिक तथा राजनीतिक समस्याओं को भी प्रस्तुत करती हैं. मैत्रेयी पुष्पा का कथा साहित्य ग्रामीण तथा नगरीय जीवन के क्षेत्र से सम्बन्धित रहा है जिसके केन्द्र में नारी है. इनके कथा लेखन में अन्त:सम्बन्ध के साथ नागरी जीवन की आपा-धापी में कार्यरत महिलाओं के वैचारिक संघर्ष का चित्र भी दिखाई देता है. सामाजिक कुव्यवस्था, निजी अनुभव, व्यक्तिगत बन्धन तथा आत्मीय रिश्ते ऐसी कई चीजें हैं, जिन्हें विजय राय ने महिला लेखन के रूप में इस विशेषांक में श्रमसाध्य तरीके से सहेजा है. भारतीय लेखिकाओं के विषय में यह बात विशेष तौर पर कही जा सकती है, क्योंकि यहाँ एक महिला कई तरह की सामाजिक एवं निजी भूमिकाओं के एक अद्भुत समुच्चय का निर्वाह करती है. इसके अतिरिक्त प्रवासी महिला लेखन पर प्रांजल धर ने शानदार टिप्पणी की है.
‘लमही’ का ‘हमारा कथा समय-2’ ज्ञानरंजन, दूधनाथ सिंह, काशीनाथ सिंह, रवीन्द्र कालिया, नीलकान्त, हिमांशु जोशी, बल्लभ डोभाल, विद्यासागर नौटियाल, हरिपाल त्यागी, कामतानाथ, जितेन्द्र भाटिया, रमेश उपाध्याय, असगर वजाहत, मंजूर एहतेशाम, शंकर, पंकज बिष्ट, स्वयं प्रकाश, संजीव, शिवमूर्ति, महेश कटारे और महेश दर्पण जैसे दिग्गज कथाकारों पर केन्द्रित है. इन पर वैभव सिंह, रोहिणी अग्रवाल, अखिलेश, पंकज पराशर, निशान्त, महेश दर्पण, अच्युतानन्द मिश्र और अमिताभ रायआदि की टिप्पणियाँ संक्षिप्त में इन कथाकारों की रचना प्रक्रिया को, इनके समय को, इनकी भविष्य-दृष्टि को और इनके शिल्प को बयाँ करती हैं. सम्पादकीय में विजय राय जी ने ठीक ही लिखा है कि, “कुछ लोग मानते हैं कि यह कहानी के केन्द्रीय महत्व की सदी है. लेकिन मैं इससे सहमत नहीं हूँ. साठोत्तर कथाकारों ने अपने समय को लिखा और आज के कथाकार अपने समय की चिन्ताओं और अनुभूतियों को लिख रहे हैं.” निश्चय ही अपने समय की गति को पकड़ सकना और उसके इर्द-गिर्द सार्थक कथा साहित्य की बुनावट कर पाना एक चुनौतीपूर्ण कार्य रहा है. इस दूसरे खण्ड में 48 पुरुष कथाकारों का मूल्यांकन प्रकाशित है.
‘लमही’ का ‘हमारा कथा समय-3’ समकालीन अवधि पर प्रकाश डालता है. यहाँ अनेक कथाकारों ने भारतीय जीवन के लगभग सभी पक्षों और पर्यवेक्षणों का गंभीर अध्ययन पेश किया है. इतिहास का यह ऐसा सुनहरा समय है, जहाँ मानव जीवन के लक्ष्यों, आदर्शों, अधिकारों, प्रतिमानों एवं परिप्रेक्ष्यों की सम्मिलित और संश्लिष्ट अवधारणाओं से प्रभावित होकर कथाकारों ने ऐतिहासिक कथा साहित्य की रचना की. लमही का यह तीसरा खण्ड हिन्दी भाषा के समकालीन कथा-साहित्य की उसी चेतना का राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक आदि पहलुओं पर अध्ययन प्रस्तुत करता है, जो लगभग 73 आलेखों को 292 पृष्ठों में समेटे हुए है. कहानी एक व्यक्ति विशेष या समुदाय विशेष के जीवन का यथार्थ नहीं, अपितु जीवन और समाज के बहुआयामी चरित्रों, मूल्यों एवं सरोकारों के उपेक्षित दृश्यों तक दृष्टि प्रदान करने का एक गम्भीर माध्यम है. कहानी का प्रयोजन कुछ सुजात, उदात्त और परोपकारी व्यक्तियों की जीवनी या उनके जीवन-वृत्त का चित्रण करना नहीं, अपितु समग्रता में सुकृतियों एवं विकृतियों के साथ एक सैद्धांतिक और विश्वसनीय विश्लेषण करना है. यथार्थपरक बिम्बों के माध्यम से अपनी जीवन-दृष्टि को व्यक्त करने, मानव जीवन की कटु वास्तविकता को चित्रित करने और कला के गर्भ से सामाजिक जीवन को प्रगति और नव-निर्माण का संकेत देने जैसे सफल और सार्थक प्रयास कहानी के अंतर्गत हुए हैं जो साहित्य की और किसी भी विधा के अंतर्गत नहीं हो पाये. शायद इसका उत्स कथा की मूल संरचना में ही निहित हो. ‘लमही’ के ये तीनों खण्ड भारत के इतिहास, उसकी सम्पूर्ण विशेषताओं तथा वितृष्णाओं का साक्षात्कार कराते हैं.
‘लमही’ नामक छोटे से गाँव ने मुंशी प्रेमचन्द के रूप में हिन्दी साहित्य को समृद्ध करने वाला एक अनमोल रत्न भारत को दिया. जिस पर ‘लमही’ के ‘हमारा कथा समय-3’ के सम्पादकीय में प्रेमचन्द की कहानियों के दृष्टिकोण को बेहद सटीक रूप से सम्पादक विजय राय ने प्रस्तुत किया है. कालजयी कथाकार प्रेमचन्द ने अपनी कहानियों और उपन्यासों के माध्यम से प्रगतिशील विचारों, पिछड़े वर्ग के जीवन एवं सामाजिक स्वाधीनता को एक बुलंद आवाज़ प्रदान की, जिसने हिन्दी साहित्य लेखन में युगान्तरकारी परिवर्तन उत्पन्न किए.
‘लमही’ के इस तीसरे खण्ड में राकेश बिहारी,असीम अग्रवाल, देवयानी भट्ट, प्रताप दीक्षित, शशि श्रीवास्तव, बृजपाल गहलोत, दया दीक्षित, अमिय बिन्दु, सन्दीप कुमार सिंह, सत्या प्रकाश तिवारी, अमिताभ राय, श्याम अंकुरम, कुमार मंगलम, मधुकर खराटे, भालचन्द्र जोशी, महेश दर्पण, नीलाभ कुमार, निशान्त, शशिभूषण मिश्र, ममता कालिया, अखिलेश्वर पाण्डेय, ओम निश्चल, पुनीता जैन आदि उल्लेखनीय लेखकों ने समकालीन हिन्दी कथा साहित्य के प्रमुख रचनाकारों के बारे मे टिप्पणियाँ की हैं.
भक्ति साहित्य के विद्वान पुरुषोत्तम अग्रवाल एक सुप्रसिद्ध कथाकार भी हैं जिनकी कहानियाँ एक साथ साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक पहलुओं को ग्रंथित करती हुई दिखाई देती हैं. बृजपाल महतो द्वारा कहना बिल्कुल सटीक है कि पुरुषोत्तम अग्रवाल की कहानियाँ कथ्य, वैचारिक तेवर, हास्य-व्यंग्यात्मकता के पुट तथा वर्तमान राजनीतिक-सामाजिक परिदृश्य सम्बन्धी विचारों एवं निष्कर्षों को प्रस्तुत करती हैं. कुल मिलाकर देखा जाए तो पुरुषोत्तम अग्रवाल के भीतर का कथाकार विस्तृत दृष्टिकोण, वैचारिक प्रखरता, सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक दृष्टि से बहुत सम्पन्न है.
हिन्दी साहित्य पर कुमाऊँ अंचल के हिन्दी साहित्यकारों ने भी एक विशिष्ट छाप छोड़ी है. इन कथाकारों में शैलेश मटियानी, हिमांशु जोशी, रमेशचंद्र शाह, मृणाल पांडे, बटरोही, पंकज बिष्ट, नवीन चंद्र जोशी, संजय खाती आदि प्रमुख हैं. वरिष्ठ लेखक एवं पत्रकार महेश दर्पण द्वारा संजय खाती जैसे विरल कथाकार पर लेख ‘लमही’ के इस खण्ड को और अधिक उत्कृष्ट बनाता है. संजय खाती की कहानियाँ अपनी सरल भाषा एवं संवेदना के कारण पाठकों का ध्यान खींचती हैं. उनकी कहानियों में विवरण एवं संक्षेपण की अद्भुत मिलावट है. शैलेश मैटयानी को अपनी छोटी कहानियों के लिए जाना जाता है जिसमें अपने लेखन के माध्यम से वे भारतीय निम्न एवं मध्यम वर्ग के जटिल संघर्ष को आत्मसात और व्यक्त करते हैं. मटियानी के नायक भिखारी, पिक पोकेटर्स जैसे हाशिये के अनेक बुनियादी पात्र हैं. हिन्दी के सभी दिग्गजों ने शैलेश मटियानी को प्रेमचन्द के बाद हिन्दी कहानी का एक महत्वपूर्ण हस्ताक्षर माना है जिसमें गहरी संवेदना, सच्चाई तथा पारदर्शिता द्रष्टव्य हैं. बटरोही की कहानियों में गाँवों, कस्बों और छोटे-बड़े शहरों का परिवेश व्याप्त है, जिनमें सहज भाव के साथ पात्रों की आर्थिक विषमता एवं मानसिक झंझावात निहित हैं. देवयानी भट्ट ने बटरोही की ठोस ग्रामीण यथार्थ को चित्रित करने वाली छवि पर ज़ोर दिया है. वे कहती हैं कि गाँव की भाषा और संस्कृति की पहचान का लहजा बटरोही जी की कहानियों पर आंचलिक छाप छोड़ता है.
कवि, कथाकार और उपन्यासकार सन्तोष चौबे हिन्दी के उन दुर्लभ साहित्यकारों में से हैं जो साहित्य तथा विज्ञान में समान रूप से सक्रिय हैं. वे साहित्य, जन विज्ञान और साक्षरता आन्दोलन में पिछले तीन दशकों से सतत सक्रिय हैं. अरुण प्रकाश हिन्दी साहित्य के सुप्रसिद्ध कथाकार एवं पत्रकार रहे. प्रताप दीक्षित ने लिखा है कि इनकी कहानियाँ समय और समाज में मनुष्यता, संवेदना और यथार्थ की तलाश के साथ समय की अबाध गति में परिवर्तन के प्रत्येक बिन्दु को पकड़ने की कोशिश करती हैं. इनकी कहानियाँ किसी एक शैली में बँधी हुई नहीं हैं, अपितु हर कहानी का अलग और स्वतन्त्र व्यक्तित्व है. यहाँ नई भाषा, संरचना एवं आन्तरिक गतिशीलता का बेजोड़ संगम है. इनकी बहुत सारी कहानियाँ स्त्री-केन्द्रित हैं जिसमें आयातित सोच वाली शहरी स्त्रियों का नहीं, बल्कि हाशिये पर धकेली गई स्त्री का विमर्श है. इनकी कहानियों में जीवन की निरन्तरता और जिजीविषा है जो मनुष्य के अन्दर लुप्त होती हुई करुणा, संवेदना और प्रेम को खँगालकर सतह पर ले आती है.
काली हांडी, चाँदनी हूँ मैं, सिर फोड़ती चिड़िया, तीर्थाटन के बाद जैसी अनेक कहानियों के रचनाकार अमरीक सिंह अपनी कहानियों में वंचित वर्ग का प्रतिनिधित्व करते नजर आते हैं. अमरीक की कहानियों में सशक्त कथ्य देखने को मिलता है जो उनकी पारखी निर्मम किन्तु निष्पक्ष दृष्टि का उदाहरण है. बेहद महत्वपूर्ण सम्पादक और गम्भीर कथाकार अखिलेश की कहानियाँ बहुस्तरीय एवं बहुआयामी होती हैं जो जीवन की सामयिक एवं भावनात्मक स्थितियों का प्रतिनिधित्व करती हैं तथा विश्लेषित सच को प्रस्तुत करने का प्रयास करती हैं. इनकी कहानी की संरचना में पात्रों एवं घटनाओं के स्थान पर विषय और समस्याएँ महत्वपूर्ण हुआ करती हैं. समकालीन कथाकारों में महत्वपूर्ण स्थान रखने वाले कथाकार अखिलेश की तमाम कहानियाँ उनके राजनीतिक परिप्रेक्ष्य व विचार का अवबोधन कराती हैं. अपनी कहानियों द्वारा इन्होंने बेरोजगारी, मानवीय छल-छद्म, स्त्री शोषण, भ्रष्टाचार, साम्प्रदायिकता आदि समस्याओं को उजागर किया है. इनके कथा साहित्य में बदलते हुए समाज के परिदृश्य के साथ भाषा की अपूर्वता भी देखने को मिलती है. इन कहानियों में प्रगतिशील समाज के यथार्थ की जटिलताओं को भली-भाँति देखा जा सकता है. इनके संग्रह भारतीय समाज और व्यवस्था से जुड़े प्रश्न उठाते हैं जो पाठकों पर दूरगामी असर छोड़ते हैं.
साहित्य के मानचित्र पर अपनी अनूठी जगह दर्ज कराने वाले वरिष्ठ कथाकार राजेंद्र राव की कहानियों में विचारात्मकता, व्यंग्यात्मकता तथा मार्मिकता एक साथ परिलक्षित होती है. राजेंद्र राव का कथा लेखन सामाजिक प्रचलनों के खंडन, असंगठित श्रमिक वर्ग से सम्बन्धित मुद्दों और वैचारिक सम्भावनाओं का हृदयस्पर्शी चित्रण है. इनकी रचनाएँ विश्वसनीय, वास्तविक तथा पाठक के अन्तर्मन की गहराई में अमिट छाप अंकित करती है.
चर्चित कथाकार उदय प्रकाश की कहानियों की भाषा गूढ़ार्थों से युक्त भाषा है, यह इतनी प्रगाढ़ है कि यह पाठकों को सीधे सम्बोधित करने की शक्ति रखती है. उनकी रचनाशीलता एवं विचारधारा के केन्द्र-बिन्दु आम-आदमी एवं उसकी सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक समस्याएँ हैं. ‘पीली छतरी वाली लड़की’ और ‘पुतला’ आदि कहानी संग्रहों के द्वारा वे निरन्तर सामाजिक विसंगतियों पर प्रहार करते हुए आम-आदमी की समस्याओं को केंद्र में लाने के लिए क्रियाशील रहे हैं. हरि भटनागर अपनी कहानियों में पात्रों, चरित्रों एवं परिस्थितियों के प्रति तीव्र संवेदनात्मक भाव रखते हैं. श्याम अंकुरण ने अपने लेख में कहा है कि हरि भटनागर की कहानियों को पढ़ते हुए यह धारणा पुख़्ता हो जाती है कि यहाँ निम्नवर्गीय समूह के लोगों के जीवन के सरोकारों का गहराई के साथ निकटस्थ होकर अध्ययन किया गया है, संजीदा और संवेदनशील नजरिये से. हरि भटनागर की कहानियाँ निरन्तर संघर्षशीलता और मूल्यवत्ता का विकास करती चली आयी हैं. उनकी रचनाओं में मनुष्येतर जीवधारियों के मार्फत सामन्ती जकड़बन्दी और अत्याचार के खिलाफ प्रखर मानवीय प्रतिरोध की तीक्ष्ण वाणी है.
भगवानदास मोरवाल ने अपनी कथा-साहित्य के माध्यम से समय के यथार्थ की जटिलता, व्याकुलता तथा उपभोक्तावादी समाज में बदल रहे मनुष्य के समस्त सामाजिक सम्बन्धों व संकेतों के विभिन्न आयामों को निडरता से अभिव्यक्त किया है. इनकी कहानियों में आधुनिक सत्तातंत्र एवं विकास-प्रक्रिया की अत्यन्त जटिल विकृतियाँ प्रमुखता से उपस्थित हैं. यहाँ कहानियों में नई भाषा, नए प्रकार के चरित्र और कथा स्थितियों की प्रचुरता विद्यमान है. भगवानदास मोरवाल मानवीय मूल्यों की पैरवी करने वाले कथाकार हैं. अशोक मिश्र गहरी लोक समझ से युक्त वर्तमान समय के प्रमुख कथाकार हैं, जिनकी कृति ‘दीनानाथ की चक्की’ बहुत प्रशंसित रही है. इनके भीतर अपने साधारण और सहज नैरेशन में असाधारण ब्यौरे वर्णित कर देने का कौशल मौजूद है.
कथाकार सूर्यनाथ सिंह की कहानियाँ आज के युवाओं के संकटों पर रोशनी डालती हैं और उन पर गम्भीरता से विचार-मन्थन करती हैं. निरन्तर हो रहे शहरीकरण के बावजूद हमारा देश आज भी गाँवों का ही एक देश है और ये गाँव अब सीधे-सादे सरल-हृदय लोगों के फिल्मी गाँवों की तरह नहीं रहे हैं. यहाँ भी जीवन उतना ही जटिल एवं कष्टसाध्य है जितना कि कहीं और. नीलाभ कुमार बताते हैं की सूर्यनाथ सिंह की कहानियाँ यह बताती हैं कि गाँव अब बदल चुके हैं, वे राजनीति के अखाड़ों में तब्दील हो चुके हैं और शहर में रहने वाली पीढ़ी के लिए जरूरत पड़ने पर पैसे जुटाने का एक साधन हैं. इनकी कहानियाँ किशोरों और युवाओं के मन की अंधेरी गलियों में खुलती हैं.
रचनाकर लाल्टू की कहानियाँ मनुष्यता की लगभग समस्त संवेदनाओं से परिपूर्ण हैं. कहानीकार अमिय बिन्दु लिखते हैं कि इनकी कहानियाँ पढ़ते हुए पाठक दिल थामकर बोल सकता है कि मनुष्य, मनस जीवी प्राणी है. मनुष्य के मन को उधेड़ने की नितान्त बुनियादी दृष्टि कथाकार लाल्टू अपने पास रखते हैं जो अपने पात्रों की संवेदनाओं से बिना छेड़छाड़ किए उनकी प्रत्येक परिस्थिति एवं विचार को पाठको के सम्मुख प्रस्तुत करते हैं.
सार्वकालिक कथाकार रमाकान्त का कथा संसार बेहद सधे हुए शिल्प में अत्यन्त प्रभावशाली रहा है, जो अत्यंत मर्मवेधी कथा-संसार है. रमाकान्त सामाजिक एवं सांस्कृतिक संरचनाओं के धनी रहे हैं. इसके प्रमाण के रूप में उनकी जो रचनाएँ पाठकों को सर्वाधिक प्रभावित करती है, उनमें ‘सपने की ऊँचाई’, ‘क्रेमलिन टाइम’, ‘साँप’, ‘तीसरा देश’, ‘छोटे-छोटे महायुद्ध’, ‘खोयी हुई आवाज़’, मंगत की खोपड़ी में स्वप्न का विकास’ आदि प्रमुख हैं.
भारत की आदिवासी आत्मकथाओं और संस्मरणों से भारत और विश्व साहित्य को समृद्धि मिली है. यह ध्यातव्य है कि पिछले दो दशकों के दौरान भारत में आत्मकथा साहित्य पर बहुत चर्चाएँ हुई हैं. खासकर दलितों और स्त्रियों की आत्मकथाओं पर, लेकिन इस साहित्यिक विमर्श में आदिवासी आत्मकथाओं पर कोई चर्चा नही हुई है. जबकि भारतीय आदिवासी आत्मकथा लेखन का इतिहास आधी शताब्दी पुराना है. इसलिए पुनीता जैन ने यह ठीक ही लिखा है कि यह जरूरी है कि आदिवासी आत्मकथा लेखन के इतिहास और उसकी विशिष्टता को साहित्य में रेखांकित किया जाए.
कुल मिलाकर ‘लमही’ के ‘हमारा कथा साहित्य’ के ये तीनों खण्ड एक निरन्तरता, विश्लेषण और समग्रता का प्रतिनिधित्व करते हैं और भविष्य में भी इनका दस्तावेजी महत्व दूर तक और देर तक बना रहेगा.
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कीर्ति बंसल
8586866747
8586866747
लमही पत्रिका
हमारा कथा समय-३
शुभा श्रीवास्तव
लमही का हमारा कथा समय-3 विशेषांक अपने रचनात्मक योगदान के लिए सदैव स्मरणीय रहेगा. विशेषांक तो समय समय पर हर पात्रिका निकालती रही है पर इतने व्यापक फलक पर कहानीकारों का मूल्यांकन शायद ही किसी अन्य पत्रिका ने किया हो यह मुझे स्मरण नहीं है. कहानी की दिशा में सक्रिय कुल 73 कहानीकारों के हर पक्ष का विश्लेषण इस अंक की सबसे बड़ी उपलब्धि कही जा सकती है.
कुछ पत्रिका के विशेषांक तो प्रशस्ति पत्र जैसे होते है और कुछ स्मृति आख्यान लगते है. अपने स्मृति कोश को खंगालने पर मुझे कुछ ही विशेषांक ऐसे प्राप्त हुए है जो पाठक की जिज्ञासा और ज्ञान को संतुष्ट करते हैं. लमही का हमारा कथा समय-3 विशेषांक इस दृष्टि से परिपूर्ण है. यहाँ न तो प्रशस्ति पत्र की श्रृंखला है और न ही स्मृति आख्यान. यहाँ कुछ है तो वह है रचनाकार का साहित्य को दिया गया योगदान और समीक्षा तत्व.
जैसा कि मैंने कहा कि यहाँ प्रशस्ति पत्र नहीं है. अपनी बात के समर्थन में दो उदाहरण दूंगी. प्रथम है ममता कालिमा का यह कथन अनुज के सन्दर्भ में – अनुज की कई कहानियां ऐसी है जो बेहतरीन होते-होते रह गई है. हमें किसी भी रचनाकार से परफेकशन की उम्मीद नहीं पालनी चाहिए.\” इसी प्रकार से आलोक अपने लेख में शशांक को दुरुहता पर चर्चा ही नहीं करते बल्कि कारणों की पड़ताल भी करते हैं. अपने समर्थन में वह नामवर सिंह को भी उद्धृत करते हैं.
उदय प्रकाश, शैलेश मटियानी, धीरेंद्र अस्थाना, पंकज सुबीर प्रभात रंजनजैसे बड़े फेम के रचनाकारों के साथ नयी संभावना के मजबूत स्तम्भों को भी विशेषांक में स्थान देना विजय राय जी की संतुलित दृष्टि का परिणाम है. समालोचकीय दृष्टि देने में शोधार्थी के साथ ही अध्यापन क्षेत्र से जुड़े समीक्षक और स्वतन्त्र लेखन द्वारा अपने दायित्व का निर्वहन करने वाले समीक्षको के लेख होने के कारण इस अंक में विचारों की विविधता और संतुलन भी इस अंक को संग्रहणीय बनाता है.
यह अंक इसलिए भी लम्बे समय तक याद किया जाएगा कि इसमें आलोचना के शास्त्रीय औजारों के साथ नवीन मानदण्ड भी रूपापित किये गए है. सभी समीक्षकों ने कथाकारों की रचनाओं को समकालीन यथार्थ से जोडा ही नहीं बल्कि वर्तमान सामाजिक परिवेश की पड़ताल भी की है. वस्तुत: रचनाकार की सफलता भी इसी में है कि वह अपने समय की नब्ज को कितना मजबूती से पकड़ता है. यह समय और कहानी की नब्ज कितना भविष्योन्मुखी है यह आलोचनीय दृष्टि के केन्द्र में रहा है. इसीलिए सभी आलोचनाएं एकांगी होते हुए भी सार्वभौमिक एवं सार्वकालिक है.
इस अंक को हम अगर वर्गीकृत करते देखे तो कुछ समीक्षाएं लेखक केन्द्रित है तो कुछ कहानी केन्द्रित है. कुछ लेख सामग्री को प्रमुखता देते हैं तो कुछ संवेदना को.
इस अंक को हम अगर वर्गीकृत करते देखे तो कुछ समीक्षाएं लेखक केन्द्रित है तो कुछ कहानी केन्द्रित है. कुछ लेख सामग्री को प्रमुखता देते हैं तो कुछ संवेदना को.
इस अंक में विषय के विभिन्न कोण जैसे प्रेम, विवाह, मूल्य, अंचल, शहरीकरण विश्वग्राम, राजनीति आदि विभिन्न कोण से कहानीकारों की कहानियों को देखा परखा गया है. इस नजरिये से देखने पर हमें ज्ञात होता है कि सन साठ के बाद कहानियों का मूल कथ्य कैसे तेजी से बदला है. इसीलिए सत्य प्रकाश मुकेश की कहानियों को जूम करके पढ़ने की वकालत करते है. वहीं पर सीमा कहानियों के केन्द्रीय बिन्दु के माध्यम से धीरेंद्र अस्थाना के कहानीकार वैशिष्टय को निखारती है.
जैसा कि मैंने अभी कहा कि यह अंक सन साठ के बाद की कहानियों के मूल कथ्य के परिवर्तन को दर्शाता है. इसका उदाहरण कई लेख है. भरत के लेख नवें दशक की प्रवृत्ति और प्रकृति के मध्य विचरण करते संजय सहाय के लेखकीय कथ्य को विवेचित करते हुए चलता है. इसी प्रकार से मनीष भी सुधांशू गुप्त और नब्बे के दशक के महत्वपूर्ण पक्षों को मस्तिष्क में गुंफित करते हुए उनके कहानीकार के सफल गुणों को उपस्थित करते हैं. इसी प्रकार से सुधांशू पंकज सुबीर जैसे सशक्त हस्ताक्षर को भारतीय समाज और कहानी के मध्य आलोडित करके उसके कहानीकार व्यक्तित्व को पाठक के सामने ले आते है. मीना बुद्धिराजा ने अपने लेख में उदारीकरण, भूमण्डलीयकरण के दौर को विभिन्न आयामों से देखते हुए राकेश बिहारी को मूल्यांकित किया है. यह अंक साठ के बाद से आज तक की प्रवृत्तियों को रेखांकित करने में समर्थ है इसमें कोई सन्देह नहीं है. इस अंक ने अपने को नई कहानी या अन्य किसी भी आन्दोलन के वाद विवाद से अपने को तटस्थ रखा है और कहानीकार को केन्द्र में रहा है.
इस अंक में हमें विचारों के प्रस्तुतीकरण के कुछ नए पैटर्न भी दिखाई देते है जो सरल व सहज है. जहाँ अजय ने पंकज की कहानी को उप विषयों में बाँटकर मूल्यांकित किया है वही विपिन ने मनोज कुमार के शीर्षक से कहानियों को परखा है.
लमही के इस अंक के कुछ लेख लम्बी यात्रा भी कराते हैं. अमिताभ रायअखिलेश के कहानी कौशल के साथ अन्य रचनाकारों से भाषिक संरचना को भी तौलते है. अखिलेश अपनी पूर्ववर्ती पीढ़ी से कितने प्रभावित है और परवर्ती पीढ़ी को कितना प्रभावित करते है इसकी चर्चा मुझे प्रिय लगी. यह तथ्य अन्य लेखो में भी आता तो और अच्छा रहाता. अरुण होता ने मनोज रूपड़ा की लम्बी कहानी साज नासाज पर प्रभाव पूर्ण वक्तव्य दिया. नवीन तथ्यों के साथ वह कथा, पात्र, संवाद, भाषा आदि पर भी गहनता से विचार रखते है.
भाषा की हम अगर बात करेंगे तो शशि भूषण ने आलोचनात्मक भाषा का आदर्श प्रस्तुत किया है. सत्य नारायण के लिए, उनकी भाषा और आलोचकीय बानगी देखिए – \”वह ग्रामीण जीवन के जीवंत और घटनापूर्ण परिवेश के साथ जातिव्यवस्था की भेदभाव मूलक व्याप्ति और उसमें गुथी हाशिए के समाज की पीडा और आक्रोश को गल्प के सांचे में ढालने वाले कला कुशल कहानीकार है.” पर इसका यह अर्थ नहीं लगाना चाहिए कि अन्य की भाषा शशि से कमतर है. वास्तव में किसी ने का ध्यान रखा तो किसी ने विषय सामग्री का. नजरिये की भिन्नता ने सबकी भाषा में वैविधता का निर्माण किया है.
शोधार्थी असीम अग्रवाल ने शैलेश मटियानी की आंचलिकता को कई सन्दर्भों में परखता है. आंचलिकता के सामाजिक भौगोलिक, सांस्कृतिक सन्दर्भ को रेखांकित करते हुए वह शैलेश जी के स्त्री व दलित विमर्श की कहानियों को नहीं भूलते है. कीर्ति बंसल का लेख कई बडे लेखकों के वक्तव्यों को से उद्धृत किया गया है. रमाकांत के मुल्य उनके टेक्स्ट पर व्यापक चर्चा की गई. सामग्री को केन्द्र में रखकर देवयानी ने बटरोही की ग्रामीण संवेदना, मध्यवर्ग और प्रताप दीक्षित ने स्त्री विमर्श को रेखांकित किया है. किरण सूद का लेख तुलनात्मक कसौटी पर तेजेन्द्र शर्मा की कहानियों के विषय वैविध्य को बखूबी बयाँ करता है.
यह विशेषांक नि:संदेह शास्त्रीय आलोचकीय मापदण्ड से इतर नये आलोचकीय दिशा की ओर संकेत है. अमिय के भावनात्मक आलेख पाठकीय मर्म को जाते छू जाते है. समीक्षा में एक भाव धारा बहती चली जाती है और पता ही नहीं चलता है कि हम आलोचना पढ़ रहे हैं या कहानी को.
हरिओम पर ओम निश्चल का लेख काव्यात्मकता की ओर झुका हुआ है. ओम निश्चल हरिओम के ग़जलकार रूप से ज्यादा प्रभावित है. प्रिंट अथवा लेखकीय त्रुटि के कारण इनके लेख में दो स्थलों पर दुहराव आ गया है. पृ0 263 में गाँधी के सत्ता के विकेन्द्रीकरण और रामराज्य की बग्घी का तथ्य शब्दश: पृ0 264 पर भी अंकित है. अन्यथा पूरा लेख हरिओम की किस्सागोई और कहानीकार के व्यक्तित्व के हर पहलू को पूरा उभारता है.
दया दीक्षित का राजेन्द्र राव पर लघु शोध कहा जा सकता है. इन्होंने राजेन्द्र राव के साहित्यिक जीवन की रूपरेखा के साथ ही उनकी नई पौध के निर्माण में भूमिका और सृजनात्मक संकल्पना दोनो पक्षों को पाठक के समक्ष रखा है. राजेन्द्र राव की सृजन माला से पुनर्नवा (दैनिक जागरण) संपादन तक का पूरा ब्योरा और साथ ही नाटक आदि पर सार्थक चर्चा करता हुआ उत्कृष्ट लेख बन जाता है. सिर्फ विषय ही नहीं उनकी भाषा पर भी पर्याप्त नियन्त्रण लेख का वैशिष्टय है.
अंक के अंत में डॉ. पुनीत जैन का हिन्दी के दलित और आदिवासी कथाकार लेख हाशिए के कथाकारों पर प्रकाश डालता है. मोहनदास, सूरजपाल चौहान, अजय नावरिया, ओम प्रकाश वाल्मिकी और जय प्रकाश कर्दम की कहानियों के मूल स्वर विद्रोह को बखूबी उकेरा है. दलित समाज की शिक्षा, अपमान, पीडा, और उनका यथार्थ कैसे सलाम, बदबू, विखण्डन, भय आदि कहानियों में बिखरा पड़ा है यह पुनीता का लेख पाठक के सामने सजीव रूप से उपस्थित कर देता है. पीटर पाल एकका , मंगल सिंह मुंडा जैसे रचनाकार आदिवासी समाज की समस्या ही नहीं उसके समाधान के लिए भी सृजनरत है. पर रचनाकारों ने सामान्य मुद्दो से अपना मूह नहीं फेरा है. इन्होंने वृद्धों की समस्या, समलैंगिकता, शोषण, शहरीकरण और संवेदनहीनता जैसे तमाम मुद्दों पर भी बेबाक लिखा है. पीले पत्ते सोमा जैसी कहानियाँ अपने सृजनात्मक सरोकार के लिए लम्बे समय तक साहित्य के पन्नों में दर्ज रहेगी.
वैसे तो यह अंक और भी बहुत कुछ कहता है पर लेख की अपनी सीमा है. अन्य समीक्षकों के नाम गिनाने य स्थूल बातों को कहने से मैंने अपने आप को रोक लिया है. उनके संदर्भ में फिर कभी चर्चा अवश्य करूंगी. अन्त में सिर्फ इतना ही कहकर समापन करूंगी कि लमही का हमारा कथा समय विशेषांक अपने सृजनात्मक योगदान के लिए हिन्दी साहित्य के इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में अंकित रहेगा.
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शुभा श्रीवास्तव
09455392568