कथाकार चंदन पाण्डेय का उपन्यास ‘वैधानिक गल्प’ चर्चा में है. कृति जब अपने समय को छूती है और उसका एक तरह से प्रतिपक्ष रचती है, उसका पूरक बनती है तब वह उस समय का जरूरी आख्यान तो बनती ही है भविष्य में भी जिंदा रहती है. कालजयी होने के लिए काल में धसना जरूरी होता है.
सत्यम श्रीवास्तव अच्छा लिख रहें हैं उनके लिखे में ताजगी है.
यह समीक्षा देखिये आप.
वैधानिक गल्प: एक इंवेस्टिगेशन रिपोर्ट
सत्यम श्रीवास्तव
चन्दन पाण्डेय फेसबुक के जरिये मेरे मित्र हैं. उनसे कभी मुलाक़ात नहीं है, बात भी कभी हुई नहीं. मेरे पास उनका फोन नंबर भी नहीं है. लेकिन इससे क्या? मैं एक पाठक के तौर पर उनके लेखन का बड़ा मुरीद हूँ. उनकी कहानियों से परिचय काफी पुराना है. ‘भूलना’ उनकी ऐसी कहानी है जिसे कभी भूला नहीं जा सकता. और ‘रिवाल्वर’ तो जैसे दिमाग का दही बना देती है. नसों को झकझोर देने वाली संवेगी कहानी है. क्या तो कहानीपन है और क्या भाषा. क्या प्रवाह, क्या दृश्य रचने की काबिलीयत. चन्दन आज के कहानीकार हैं. वो किस्सा-गो नहीं है. उनकी कहानियाँ पढ़े जाने में ज़्यादा तीव्र एहसास देती हैं
बहरहाल इन लंबी कहानियाओं के अलावा उनकी जो महारत है वो है फेसबुक पर की गयी छोटी-छोटी टिप्पणियाँ जो फेसबुक पर ‘व्हाट इस इन यूअर माइंड’ के जवाब में फेसबुक यूजर्स लिखते हैं. इसमें शब्द सीमित रखने की अनिवार्यता होती है अन्यथा पोस्ट का बैक ग्राउंड बदल जाता है और ‘सिमप्ल टेक्स्ट’ बन जाता है जो अन्य यूजर्स का ध्यान अपनी तरफ खींच नहीं पाता. अक्सर लोग इस ट्रिक का पालन करते हैं और अपनी बात सीमित शब्दों में कहने की कोशिश करते हैं.
मुझे याद है चन्दन ने एक बहुत संक्षिप्त सी स्टेटस टिप्पणी की थी कुछ समय पहले. उन्हें यह पढ़ कर याद आ जाएगी. टिप्पणी थी –
“इस देश में कहानी तो पुलिस लिखना जानती है या कहानी तो पुलिस ही लिखती है”.
इस टिप्पणी का ज़िक्र यहाँ इसलिए किया है क्योंकि उनका जो छोटा सा (आकार में ही) उपन्यास आया है वो दरअसल इसी टिप्पणी का विस्तार है. जी हाँ! मेरा पूरा यकीन है कि ‘वैधानिक गल्प’ चन्दन ने कम बल्कि देश कि पुलिस ने ज़्यादा लिखा है. चन्दन ने पुलिस की तरह सोचा है. जैसे देश की पुलिस चन्दन से एक एफआईआर लिखवा रही हो और चन्दन लिखते जा रहे हों. इस्वेस्टिगेशन के दौरान चन्दन पुलिस के साथ- साथ चल रहे हों और ड्यूटी खत्म हो जाने के बाद जैसे वो वापिस चन्दन बनाकर अपनी मित्र के पति की तलाश में जुट जा रहे हों.
चन्दन को यह तरीका खोजने में थोड़ा वक़्त ज़रूर लगा होगा लेकिन जब एक बार पुलिस की कार्यशैली को पूरी तरह आत्मसात कर लिया तो बस बैठ गए ड्राफ्ट तैयार करने. बीच में खुद भी प्रकट होते रहे चन्दन बनकर. परिहास के लिए यह कहा जा सकता है कि चन्दन को यह गल्प मुकम्मल करने के लिए पुलिस को भी शुक्रिया कहना चाहिए. ज़्यादा उदारता दिखाते हुए उसे सह-लेखक का दर्जा भी दिया जा सकता था. हालांकि उन्होंने पुलिस के एक बहादुर सिपाही को गल्प समर्पित किया है लेकिन दूसरे कारणों से और शायद इसी से पता चलता है कि चन्दन असल में पुलिस की किस छवि को देखना चाहते हैं.
मेरा मानना है कि चन्दन ने उपन्यास के शीर्षक में ही पुलिस को सह–लेखक बना लिया है. आखिर पुलिस की गढ़ी हर कहानी ‘वैध’ ही तो होती है. यह उपन्यास नहीं बल्कि एक ‘वैधानिक गल्प’ है. गल्प का हिस्सा दोनों का है. वैधानिकता दिलाने का काम पुलिस का है.
यह दरअसल एक ‘इंवेस्टिगेशन रिपोर्ट’ है. जिसमें लेखक भी एक सक्रिय भूमिका निभा रहा है. हालांकि वह अनामंत्रित है, झेंपा हुआ है, सजग है, प्रेम और दोस्ती को ऊंचा दर्जा देता है, कमज़ोर तो नहीं है लेकिन अपने अतीत को लेकर थोड़ा संकोची है और इस वजह से उतना साहसी नहीं है जितना साहस का काम वो कर रहा है. वह इंवेस्टिगेशन का हिस्सा तो है ही, इसकी रिपोर्ट लिखने का काम भी उसे ही मिला है. जिसे वह अवचेतन में ही सही भरपूर ईमानदारी से लिखने की कोशिश करता है. जो भी ब्यौरे मिल रहे हैं उनमें काँट-छांट नहीं करता है बल्कि अपनी जातीय ज़िंदगी के हिस्से जोड़ता चलता है. यह अलग तरह की इंवेस्टिगेशन रिपोर्ट है और शायद इतनी ज़रूरी रिपोर्टों की आधिकारिक और वैधानिक भाषा ऐसी ही होनी चाहिए ताकि घटना से पहले, घटना के दौरान और घटना के बाद के सारे ब्यौरे बिना किसी पूर्वाग्रह और पक्षपात के ज्यों के त्यों दर्ज़ हो जाएँ और न्याय व्यवस्था ऐसी हो कि जिसमें गवाही केवल घटना के समय मौजूद या नजदीकी से जुड़े लोगों की ही न हो बल्कि उन सभी की हो जो दूर-दूर तक इस घटना में किसी न किसी रूप में संपृक्त हों. इस रिपोर्ट को न्यायालय में जिरह से पहले सार्वजनिक कर दिया जाये और आधिकारिक या वैधानिक अदालत के साथ मुक़द्दमा पाठको की अदालत में भी चले.
आह क्या तो व्यवस्था होगी? जहां समाज और सहृदय फैसले से पहले रिपोर्ट पढ़ें, खुद से उस घटना का संबंध जोड़ें, खुद को भी कटघरे में खड़ा भी करें और न्याय का अंतिम पन्ना लिखें. आखिरकार कोई घटना समाज में ही घटित होती है और समाज हम सबका है. हम सब किसी न किसी रूप में उस घटना में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से शामिल हैं. ज़रूरत पढ़े तो उस घटना के लिए खुद को सज़ा दें, दूसरे को भी उसकी गलतियाँ बताएं और उसे अगली ऐसी घटना को अंजाम देने से रोकें. यह न्याय-व्यवस्था का जनतांत्रिक स्वरूप होगा और सब एक दूसरे के लिए जिम्मेदार होंगे. सज़ा यहाँ सुधार का रूप लेगी और यह 140 परिवारों की पुश्तैनी जागीर नहीं रह जाएगी जो न्याय-व्यवस्था को संचालित करेगी और तब शायद ‘मी लार्ड’ भी किसी पान की गुमटी पर टहलते नज़र आ जाएँ और अपने ही खिलाफ लगे गंभीर आरोपों की जांच खुद न करें बल्कि समाज को भी सौंप दें. तसब्बुर है. ख्याल ही सही लेकिन इन ख्यालों की उर्वर ज़मीन चन्दन पाण्डेय ने ‘वैधानिक गल्प’ के माध्यम से हमें दे दी है.
‘वैधानिक गल्प’ हमारे अभी और बिलकुल अभी के वर्तमान और विशेष रूप से राजनैतिक वर्तमान को समझने की सबसे ज़रूरी कुंजी है. गल्प का नितांत शाब्दिक अर्थ है – मिथ्या प्रलाप, शेख़ी, डींग और आपसदारी में प्रयुक्त होने वाला शब्द –गप्प. इन गप्पों को, मिथ्या प्रलापों को, शेखियों और डींगों को समाज में प्राय: महत्वहीन ही नहीं बल्कि बुराई के तौर पर देखा जाता है. लेकिन जब इनका ‘कर्ता’ कोई ऐसे पद या ओहदे पर हो जो किसी तरह ‘विधि सम्मत’ हो. तब यही गप्पें, मिथ्या प्रलाप, शेखियाँ, और डींगे ‘विधि का बल’ प्राप्त कर लेती हैं. हालांकि गप्पें, या डींगे या शेखियाँ यह बनी रहती हैं पर वह वैधानिक हो जाती हैं. यह जो बल है या आधार है जिससे इन बे सिर–पैर की बातों को सब मान्यता दे देते हैं यह कई तरह से प्राप्त हो सकता है. परियार में एक विधान या विधि काम कर सकती है, समाज में कुछ अलग विधि-विधान काम कर कर सकते हैं और आज के आधुनिक राष्ट्र–राज्य में कोई अन्य और सर्वोपरि विधान काम कर रहा होता है जैसे –संविधान. अलग अलग विधानों की मान्यताओं के आधार पर अलग अलग ओहदे के लोगों को अलग अलग तरह से गल्प रचने की सहूलियतें देश –समाज को मिली हुई हैं.
चन्दन ने इन अलग अलग वैधानिक स्रोतों की गहरी पड़ताल अपने उपन्यास में की है. काबिले-गौर बात यह है कि ये सारी पड़तालें मूल कथा और उसके अभिन्न ब्यौरों में ही मौजूद हैं. इन सत्ता–संरचनाओं के तमाम प्रचलित रूपों को लेकर कोई सामाजिक–राजनैतिक चिंतन करने की मुद्रा में वह नहीं आते बल्कि पाठक के समक्ष वह स्वत: अनावृत होते जाते हैं.
मूलत: अंतर-धार्मिक प्रेम संबंधों को केंद्र में रखकर जिस तरह आज के हिन्दूवादी बर्चस्व और उसे मिले राजनैतिक, कानूनी, सामाजिक और मनोवैज्ञानिक समर्थन की बहुआयामी परतें इस कहानी में खुलती हैं उससे सत्ता का डरावना कॉकटेल बनता है. एक तरह का प्रायोजित नेक्सस जो थोड़ी ही उर्वर ज़मीन में तेज़ी से अपनी जड़ें जमा लेता है.
लव-जिहाद जैसे पद-युग्म के लिए पूर्वी उत्तर प्रदेश के एक छोटे से कस्बे गोमा में किस तरह ज़मीन तैयार है इसका बहुत स्वाभाविक चित्रण हुआ है. गोमा जो गोरखपुर से लगा हुआ है. इस पद-युग्म की तीक्ष्णता का ठीक अनुभव शायद मुंबई या दिली जैसे महानगर में अभी भी उस सहजता से न होता. यह संभाव है क्योंकि लव-जिहाद अपराध की एक नयी केटेगरी बनाई चुकी है. इस शब्द का ज़िक्र भारत की दंड संहिता में नहीं है. आधिकारिक रूप से इस तरह की घटना को यानी दो बालिग स्त्री-पुरुष के बीच के प्रेम को जिनमें पुरुष मुसलमान हो और स्त्री हिन्दू हो उसे देश का कानून अपराध नहीं मानता. देश के संविधान में यह उनकी चयन की स्वतन्त्रता है. और यह मौलिक अधिकार है जिसे कोई सरकार नहीं छीन नहीं सकती. लेकिन पिछले डेढ़ दशकों में यह एक अपराध मान लिया गया है.
असल में इस कथा में जो सबसे प्रोमिनेंट अंतर्धारा है वह ‘लव-जिहाद’ है जो किसी एक साम्प्रादायिक–राजनैतिक गिरोह के दिमाग की उपज है, जिसे तमाम प्रचार माध्यमों से देश के कोने- कोने में फैलाया गया और पहले से सांप्रदायिक आधार पर ‘गढ़े’ गए समाज ने आत्मसात किया है. कानून के तथाकथित पहरेदारों ने अपने सांप्रदायिक रुझानों के आधार पर इसे अपराध में बदल डालने की देशव्यापी कार्यवाहियाँ कीं, मीडिया ने इसे पुख्तगी दी और अंतत: एक शैतानी विद्वेषपूर्ण कल्पना ने प्रेम जैसे पवित्र भाव और व्यक्ति (यों) की संविधान प्रदत्त अधिकारों के सहज इस्तेमाल को घनघोर ढंग से सांप्रदायिक अपराध में तबदील कर डाला. क्या यह हमारे समय की वो सबसे बड़ी ‘गल्प’ नहीं है जिसे ‘वैधानिक’ बना दिया गया है?
खुद देश का गृह मंत्रालय, सर्वोच अदालत, सैकड़ों उत्पीड़ित युवा इस बात से इंकार करते हैं कि दो अलग-अलग मज़हबों के वयस्क युवाओं के बीच अगर प्रेम का सोता फूट ही जाता है और वह परवान चढ़ ही जाता है तो इसमें कोई आपराधिक साजिश या मज़हबी षड़यंत्र नहीं है. लेकिन यह न केवल एक सोची-समझी मजहबी साजिश बना दी जाती है बल्कि पुलिस की कहानियों में यह गंभीर आपराधिक घटना की तरह कानूनी जामे के साथ पेश की जाती है.
कोई ऐसी घटना कैसे आपराधिक बनती है और छोटे छोटे कस्बों में इसकी यान्त्रिकी क्या है और कैसे वर्गीय, धार्मिक, राजनैतिक और व्यापारिक हित काम करते हैं इसका बहुत शानदार चित्रण चन्दन ने अनसुईया के मित्र होने के नाते तो नहीं लेकिन दिल्ली से किसी रसूखदर मित्र द्वारा कुछ तिकड़म लगाकर पुलिस के आला अफसर के मार्फत उन्हीं के यहाँ एक पार्टी में शामिल होकर किया है. यह वह जमावड़ा है जहां सब अपने अपने स्वार्थ लिए शामिल होते हैं और सभी के स्वार्थ साधने के लिए एक ही कार्यवाही का मसौदा तैयार होता है और सभी इस कार्यवाही को अंजाम देने के लिए अपनी अपनी हैसियत और कैफियत से अपनी अपनी भूमिका तैयार कर लेते हैं और फिर अगले रोज़ से उस पर अम्मल बजावणी शुरू हो जाती है.
जिन पाठकों ने उपन्यास पढ़ा है और यह दृश्य याद है उन्हें हालांकि यह लगेगा कि ऐसी कोई योजना बनते हुए उस पार्टी में दिखाया तो नहीं गया. सच भी है. ऐसा कहा ही नहीं गया. न तो संवादों में और न ही लेखक के द्वारा. यहाँ हमें यह याद रखना होगा कि यही चन्दन पाण्डेय की खासियत है. वो कई मौकों पर शब्दों को लेकर इतने मितव्ययी हो जाते हैं कि उस दृश्य विशेष को ही मुखर होना पड़ता है. वह दृश्य खुद ही संवाद बन जाता है. आप चाहें तो एकालाप कह लें. जहां लोग बातें कर रहे हैं, ठहाके लगा रहे हैं. कई लोग एक साथ अलग- अलग बातें कर रहे हैं लेकिन आप उस पूरे दृश्य को समग्रता में आत्मलाप करते सुन रहे हैं. आपको वही सुनाई दे रहा होता है जो चन्दन वहाँ चल रहीं बातों और अन्य कार्यवाहियों/गतिविधियों से नहीं बल्कि उन सबों की एक जगह हुई मौजूदगी को ही दिखाकर कहना चाहते हैं. यहाँ आपको उपन्यास की मूल कथा और विशेष रूप से शीर्षक से अपना ध्यान नहीं हटाना है.
मुख्य बात है कि कुछ रचा जा रहा है और जो आपराधिक है. लेकिन उसे वैधानिक बनाया जा रहा है. अपराधों को वैधानिक बनाना ही आज की सबसे राजनीति और तमाम संस्थाओं का मुख्य पेशा हो गया है.
रफ़ीक़ और अनसुईया की ये कहानी ऐसे बहुत सपाट सी एक कहानी है जिसमें रफ़ीक़ का मुसलमान होना, लेकिन प्रगतिशील मूल्यों और विचारधारा के साथ सामाजिक जीवन में राजनैतिक सक्रियता से रंगमंच करना. युवाओं को बेहतर समाज बनाने के अपने सपनों में शामिल करना. एक अनाम से कॉलेज में आजीविका के लिए पढ़ाने का पेशा अपनाना. अपने मूल गाँव से दूर आकार यहाँ रहना बसना लेकिन समाज परिवर्तन की क्रांतिकारी गतिविधियों में खुद को संलग्न रखना. युवाओं की एक बढ़िया टीम खड़ी करना और जिसमें अनसुईया को जीवन की धुरी बनाए रखना. नाटक टीम में अन्य लड़कियों का भी काम करना. फिर एक के बाद एक तमाम घटनाएँ घटने जाना और उनके बीच कई बार कोई ठोस अंतरसंबंध ने दिखलाई पड़ना लेकिन अनिवार्य रूप से मौजूद होना. और जिसमें यह लेखक, एक लेखक के ही रूप में आभ्यांतरिक रूप से घटनाओं को एक लड़ी में पिरोने का काम करता है अंतत: कुछ ठोस पकड़ भेल लेता हो पर रफ़ीक़ का निश्चित तौर पर पता नहीं लगा पाना…रहस्य, रोमांच और सर्द उदासी, निराशा और साज़िशों को समझती, उससे जूझती घटनाओं के बीच लेखक को वह व्यक्ति भी मिलता है जिसे इस उपन्यास के माध्यम से सम्मान दिया गया है.
कहानी पूरी नहीं है. उतनी ही है जीतने से यह व्यवस्था और उसके वैधानिक स्रोत चिन्हित और बेनकाब किए जा सकें. सुखांत तो नहीं ही है, लेकिन दुखांत भी नहीं कहा जाएगा. कहानी बता कर पाठकों का रोमांच खत्म नहीं करना चाहिए. इसलिए ये ज़हमत तो पाठकों को उठाना ही चाहिए. और यह उपन्यास 140 पन्नों में आपको पढ़ने का आनंद देगा और जो वास्तव में उपन्यास पढ़ने का प्राथमिक और अनिवार्य उद्देश्य होता है या होना चाहिए और यह शास्त्रानुमोदित भी है.
अंत में यह उल्लेख करना ज़रूरी है कि एक लेखक के तौर पर और एक पात्र के रूप में मौजूद लेखक के तौर पर भी खुद को कैसे असंपृक्त और लगभग निर्वैयक्तिक रखा जा सकता है यह वो विशिष्टता है जो इधर के लेखकों में बमुश्किल मिलती है. एकोमोडेटिव होना और होकर जीना और लिखना भी शायद इसे ही कहते हैं.
भाषा में प्रवाह है, रोमांच है और असर भी है लेकिन कई बार उसके तन्तु टूटते नज़र आते हैं. घटनाओं का पेस बहुत तेज़ हो जाता है और भाषा का प्रवाह कई बार उनके लिहाज से थोड़ा ‘कनसुर’ हो जाता है. इसे कांट्रास्ट भी कह सकते हैं लेकिन मुझे थोड़ा बेहतर की गुंजाइश संभव लगती है.
संकेत खूब हैं, ब्यौरे भी खूब हैं. कई बार लगता है कि चन्दन इसे ब्यौरे से कह देंगे और पात्रों के आने की ज़रूरत ही नहीं पढ़ेगी. शुरुआत में जब वो गोमा का चित्रण करते हैं तो थोड़ी देर के लिए ऊब होती है लेकिन जब इंवेस्टिगेटिव एप्रोच लेते हैं मध्य के बाद तब लगता है कि इन ब्यौरों के बिना यह कहानी इस ट्रैक पर चल ही नहीं पाती. याद रखे जाने लायक प्रसंग और दृश्य तो हैं पर संवाद बहुत नहीं हैं.
बहरहाल, एक शानदार उपन्यास के लिए चन्दन को बहुत बहुत बधाई. युवा लेखकों के सरोकार केवल भाषा और स्टाइल में नवाचार ही नहीं हैं बल्कि गंभीर संरचनात्मक और राजनैतिक चिंताएँ उनके कथानक हैं, यह बहुत तसल्ली देता है और प्रेरणा भी.
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सत्यम श्रीवास्तव पिछले १५ सालों से सामाजिक आंदोलनों से जुड़कर काम करते हैं. प्राकृतिक संसाधनों और गवर्नेंस के मुद्दों पर गहरी रुचि है. मूलत: साहित्य के छात्र रहे हैं. दिल्ली में रहते हैं और \’श्रुति\’ ऑर्गनाइजेशन से जुड़े हैं.
satyam.shrivastava@sruti.org.in
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