बलवन्त कौर
(यह लेख 1947 और 1984 से संबंधित कहानियों, संस्मरणों, हलफनामों के सहारे की गई स्मृतियों की एक बेतरतीब यात्रा है जिसमें व्यवस्थित विश्लेषण या विमर्श की जगह हिंसा और विस्थापन के अनुभवों से उपजे विचार भर हैं जो विभाजन के सत्तर सालों के बाद भी जारी उसकी निरंतरता को रेखांकित करते हैं.)
“खौफ़ और दहशत का वह मंजर इतने सालों के बाद आज फिर ताजा हो गया. उस दिन दरबार साहिब (स्वर्णमंदिर) में श्रद्धालुओं की (गुरूपुरब की वजह से) भीड़ थी या आतंकियों व फौजियों की, कहना मुश्किल है. अभी कल ही की तो बात है जब दादी की उंगली पकड़े एक बच्ची दरबार साहिब में मस्ती कर रही थी. अचानक उसकी मस्ती जिद्द में बदल गई. जिद्द, घर जाने की. घर, जो उस शहर से दूर दिल्ली में था. दिल्ली तो नहीँ पर दरबार साहब से निकल कर हम जहां पंहुचे, इतना याद है, पूरा शहर अन्धेरे में डूबा मिला. गोलियाँ शहर पर चील की तरह मँडरा रही थीँ. ज़रा सा दीवार या खिड़की से बाहर निकले नहीँ कि चील झपट्टा मार दूसरी दुनिया में पहुँचा देती. दम साधे दादी ने पोती को सीने से लगाए रखा. कहीँ ग़लती से भी चील उस बच्ची को न उड़ा ले जाए. दादी के सामने सन सैंतालीस था जहाँ मारने वाले और बचाने वाले सब आमने-सामने थे.
पर आज कौन किस को मार रहा था, पता ही नहीं था. किसी तरह खौफ़ के वे दिन-रात कटे. दिल्ली घर वापस आने की वह जद्दोजहद अपने चरम पर पहुँच गई थी. लेकिन खौफ़ और दहशत में जीता वह सारा शहर ही मानो वहाँ से भाग जाना चाहता था. न रेल में जगह, न बस में. आज का ज़माना भी नहीँ था कि अपने ज़िन्दा होने की खब़र मोबाइल या फ़ोन से दी जा सकती. एक लम्बी जद्दोजहद के बाद घर वापसी हुई. पर वे अन्धेरी, खूनी रातें कई सालों तक दुःस्वप्नों का हिस्सा बनी रहीं, दादी की नहीँ उस बच्ची की. दादी तो सन सैंतालीस देख चुकी थी. सब कुछ ठीक ठाक था. सब पहले जैसा हो गया था. लेकिन दादी कहती थी ज्यादा निश्चिंत या खुश नहीँ होना चाहिए, नज़र लग जाती है. और हुआ भी वही, नज़र लग गई. अब नज़र लग गई रोटी और बेटी के सम्बन्धों को. इस शहर पर भी चीलें उड़ने लगीँ…. “जब एक बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती तो हिलती है”… “खून का बदला खून तो होना चाहिए”..
‘क्यों बख्शा जाए इन सरदारों को … आख़िर एक प्रधानमंत्री को उसके सरदार बॉडीगार्डों ने मारा है, इतनी आसानी से थोड़ा जाने देंगें इन सरदारों को’…. बच्ची और दादी के साथ सारा घर हैरान! मानने को तैयार ही नहीँ, शहर में कुछ गड़बड़ है. चीलें उड़ रही हैं. किसी पुलिस वाले ने कहा “सरदारजी घर के अन्दर चले जाइए. सिखों का कत्ल किया जा रहा है. हमारे हाथ बांध दिए गए हैं. हम कुछ नहीँ कर पाएंगे”.
बच्ची के घर के लोग आदतन जिद्द में “जी, हम क्यों जाएं घर, हमने थोड़े ही मारा है प्रधानमंत्री को. ‘मोने’ हमें क्यों मारेगें? उनसे तो हमारा रोटी-बेटी का सम्बन्ध है, खून का रिश्ता है”. लेकिन थोड़ी ही देर में चारो तरफ मार-काट, धुँआ, लूट-पाट की खबरें हवाओं मे तैरने लगी. दादी फिर परेशान. जिन बच्चों को पाकिस्तान से जिंदा बचा कर लाई थी, आज अपने ही देश में उन्हें कैसे बचाए. देखते ही देखते कुछ लोगों ने एक सरदार पड़ोसी को मार दिया, पूरा गुरूद्वारा जला दिया. और लड़ने लगे दंगाई आपस में लूट के सामान के लिए. वह सामान भी जो साँझी सम्पत्ति था.
गुरूद्वारे में सब के लिए समान रूप से उपलब्ध. दादी फिर बैचेन. बताती है- नहीँ उन्नी सौ चौरासी ,सन सैंतालीस से ज्यादा भयानक है क्योंकि उन दिनों पड़ोसियों में ‘आंख की शर्म’ तो थी. तब हमारे पड़ोसी हमें देख आँख नीची कर हमारे सामने से चले गए थे, जाने दिया था हमें, पर आज तो आँखों की शर्म भी मर गई है”.[i]
कहानी की यह दादी और उनका परिवार आज भी जीवित है पर ‘सन सैंतालीस से चौरासी’ तक की यातना, उसके पूरे परिवार की स्मृतियों का बड़ा हिस्सा है. सिर्फ़ दादी ही नहीँ सम्पूर्ण हिन्दुस्तान के जातीय मानस में ‘विभाजन’ और ‘दंगे’ हमेशा एक जीवित स्मृति के रूप में विद्यमान हैँ. अपने घरों से, सम्पत्ति से बेदखल कर दिए जाने का दर्द, अपनों को अपने सामने मरते और बलात्कृत होते देखने का दुख तो था ही, लेकिन एक नयी जगह पर ‘रिफ्यूजी’ बन पैर जमाने का संघर्ष भी इस यातना में शामिल है. विभाजन की हिंसा में जो जिंदा रह गए उन्होंने ही नहीँ बल्कि उनकी संतानों ने भी इस संघर्ष को बहुत क़रीब से देखा और महसूस किया है.
कृष्णा सोबती ने अपने एक साक्षात्कार मे विभाजन के सन्दर्भ में ठीक ही कहा हैं- “१९४७ को भूलना जितना मुश्किल है याद रखना उतना ही खतरनाक”. पर समस्या यह है कि हिन्दुस्तान की सियासत ने ‘बर्बरता और हैवानियत’ के मन्ज़र को भूलना तो दूर, इतनी बार दोहरा कर याद रखवाया है कि कुछ लोगों या समुदायों के लिए उन्नीस सौ सैंतालीस कभी खत्म ही नहीँ हुआ. जो लोग विभाजन की कहानियाँ सुनते हुए बड़े हुए थे. उन्नीस सौ चौरासी से दो हजार दो तक न जाने कितनी तरह के विभाजन उनके सामने साकार हो गए. विभाजन, जो एक ऐतिहासिक- राजनीतिक परिघटना थी, कब तीसरी पीढी के सामने फिर से साकार हो गई पता ही नहीँ चला. दादी की तरह ‘रफूजी’[ii]
कहानी की नानी भी इतिहास के उस क्षण में जीती उन्नीस सौ चौरासी को उसी दर्दनाक अतीत की छाया में देखती रहती है, जहाँ उसके ‘पेड़ जैसे तीन लड़कों’ का उसकी आँखों के सामने कत्ल कर दिया गया था. अतीत की खासियत होती है कि वह वर्तमान के साथ साये की तरह जुड़ा रहता है. इसलिए हरियाणा में दिल्ली से आए चौरासी के रिफ्यूज़ियों को देख वह सहसा कह उठती है- “हाय रब्बा, यह दिल्ली में पाकिस्तान कब बन गया” [iii].इस तरह चौरासी ने नानी के दिमाग में फिर से सैंतालीस को जागृत कर दिया और ‘मोने’ (हिन्दू) होते हुए भी सैंतालीस और चौरासी में उसके लिए कोई फर्क़ नहीँ रहा. तब वह जिनके साथ रिफ्यूजी हुई थी, उनमें से कुछ आज फिर से ‘रिफ्यूजी’ हो गए थे. हाँ, एक अन्तर जरूर था, सैँतालीस के लुटे –पिटे लोगों के बीच सब कुछ खो कर भी एक तसल्ली थी कि वे एक ऐसी जगह जा रहे हैँ जिस की नींव भले ही हिंसा पर हो पर वहाँ ‘अपने’ होंगे और फिर से किसी ‘विभाजन और विस्थापन’ का सामना नहीँ करना पड़ेगा. लेकिन चौरासी में अपने देश जैसी कोई भी अवधारणा ही बेमानी हो गई थी. प्रो हरभजन सिंह ने ठीक ही कहा-
“किसी और देश में अजनबी होता, जर्मनी में यहूदियों की तरह की नियति भोगता तो भी शायद इतना दुख नहीँ होता. पर अपने देश में बाहरी की तरह, गर्दन तोड़ने के क़ाबिल समझे जाने का दुख इससे कहीँ अधिक संताप पैदा करता था. बेवतनी से कहीँ बड़ा दुख बदवतनी का था”
बेवतन हो जाण दा दुख सी लिया, दुख जर लिया
बदवतन हो जाण दी बोली किसे मारी न सी. [iv]
अपने ही देश में ‘बदवतन’ होने के दुख ने लोगों को हिला कर रख दिया. सैंतालीस, चौरासी बन पहले से ही विस्थापितों को पुन: विस्थापित कर गया.
“मुझे अपना सामान बांधने में आधा घंटा लगा. मैँ सोचने लगा कि अपने घर से मैँ क्या-क्या उठाऊँ जहाँ पर पाकिस्तान से निकाले जाने के बाद से रहता आ रहा हूँ. अंततः मैने तय किया कि मैँ यहाँ से कुछ भी नहीँ उठाऊंगा, सब कुछ यहीँ रहने दूंगा………आज से सैँतीस साल पहले ऐसे ही अपना सब कुछ पाकिस्तान में छोड आया था, अब हिन्दुस्तान में ही सही….[v]
आज़ाद लोकतांत्रिक हिन्दुस्तान में यह पहली बार हो रहा था. जब व्यक्ति को उसके धर्म, उसकी अलग पहचान व वेशभूषा– पगड़ी और दाढ़ी के कारण चिन्हित करके मारा जा रहा था. पगड़ी और दाढ़ी इसलिए, क्योंकि जिन लोगों ने किसी तरह अपने बाल दाढ़ी कटवा लिए और पहचाने नहीं गए, वे बच गए.
“शाम छः बजे कत्लेआम शुरू हो चुका था..चारों ओर अन्धेरा था, इलाके का बिजली पानी काट दिया गया था, इलाके में २०० लोगों की भीड़ इकठ्ठा हो गई. वो लोगों को घर से निकालते, उन्हें मारते, फिर उन पर तेल छिड़क कर आग लगा देते….. त्रिलोकपुरी की तंग गलियों के कारण लोग चाहकर भी भाग नहीँ सकते थे. तलवारों से लैस दंगाइयों की भीड़ ने इलाके को घेर रखा था…… रात करीब साढ़े नौ बजे मैंने अपने बाल काटे ……” [vi]
अपनी पहचान बदलने वाले तो बच गए वर्ना ऐसे परिवारों और लोगों की फेहरिस्त देखी जा सकती है जिनका आधा परिवार सैंतालीस में खत्म हो गया था और बचे हुए सारे चौरासी खा गई. दिल्ली में चौरासी के बाद बसी विधवाओं की कॉलोनी इसका प्रमाण है. जीता जागता चौरासी और उसके चिन्ह इन कॉलोनियों में देखे जा सकते है.
यह बहुत दिलचस्प है कि ऐसा तब हो रहा था जब हिन्दू-सिख संघर्ष का कोई इतिहास पहले से मौजूद नहीँ था बल्कि दोनों के बीच सामाजिक-सांस्कृतिक और कई जगह रक्त सम्बन्धों का भी सांझापन था.
(पाकिस्तान से यह परम्परा रही थी कि कई हिन्दू परिवारों में एक बेटे को सिख बनाया जाता था. हिन्दू वहाँ, हिन्दू नहीँ ‘मोने’ कहलाते, शादियों भी आपस में साधारण बात मानी जाती थी. खुद दादी, जो ‘हिन्दू’ थी, का विवाह सिख परिवार में हुआ था)
स्वतंत्र भारत में उस साँझेपन को ‘प्रधानमंत्री’ की हत्या से जोड़कर ‘राज्य’ के सुनियोजित और सुसंगाठित हस्तक्षेप से तोड़ा गया. यह नरंसहार इतने सुनियोजित तरीके हुआ कि केवल दिल्ली में ही ३००० सिख और पूरे देश में लगभग ५००० सिखों को मार ड़ाला गया था. (अलग-अलग रिपोर्टों के मुताबिक)
“देखते देखते ही ट्रकों के ट्रको अजीब सी भीड. को उतार कर चले गए. कोई अनदेखा हाथ उन्हें मिटी के तेल के डिब्बे, सरीए और लाठी थमा गए. वह हुडदंगी भीड़ सामने की कोठी में से जो भी सामान मिला लूट लूट कर ला रही थी. हाथों में बरबादी और मौत का सामान लिए आदम बू, आदम बू करती भीड़ पागल सांडों कि तरह घुम रही थी जैसे ही शिकार सामने आता उसके सिर पर सरियों और लाठियों से पहले उसको जख्मी करती फिर उस पर मिट्टी का तेल डाल लाग लगा खुशी से किलकारियाँ मारती जैसे …क्रिकेट का मैच जीत लिया हो या किसी की पतंग काट ली हो या…फिरंगी का यूनियन–जैक उतार कर अपना तिरंगा लहराने में कामयाबी पा ली हो.” [vii]
इस जनसंहार में दंगाई कब ‘देश’ के रूप में और एक प्रधानमंत्री देश की ‘माँ’ के रूपक में बदल गई, पता ही नहीँ चला. जब भी दंगाई किसी सिख को मारने के लिए, टायर या पाउडर डाल के जलाने के लिए घेरते, तो उनका पहला वाक्य होता “तुमने देश की माँ को मारा है तुम्हें जिंदा रहने का कोई अधिकार नहीं है.‘ इन मरने वालोँ में स्वतंत्रता सेनानी और फौजी भी थे जिन्होंने दँगाईयों के देश के लिए लाठी और सरहद पर गोली भी खाई थी.
“मैँ बार –बार वही पहुँच जाती हूँ वहीं, जहाँ जमुना बाजार के पास रिंग रोड़ पर बस चालक ने दारजी को उतार दिया था, आगे होता दंगा भाँपकर. दारजी उतरे ही थे कि जाने कहाँ से भिड़ों के छत्ते की तरह दंगाई उन पर टूट पड़े थे. हाथोँ में बांस और लाठियाँ लिए. किसी ने उनकी जेब नहीँ टटोली, पैसे नहीँ छीने, घड़ी नहीँ ली. बस उन्हें पीट-पीट कर मुर्दा करके वहाँ डाल गए. मालूम नहीँ, वह कितनी देर वहाँ पड़े रहे, रिंग रोड के किनारे.” [viii]
देश की माँ की हत्या का बदला हजारों सिखों से लिया जा चुका था. इस सारी दहशत के बाद औरतें बची दोहरा दुख भोगने के लिए. पति और बच्चे तो आँख के सामने खत्म हो चुके थे. लेकिन इसके बाद भी कहर नहीँ थमा-
“सुबह आँखों के सामने अपने पति और परिवार के दस आदमियों को दंगाइयों के हाथों कटते-मरते देखा था और अब रात को यहीँ कमीने हमारी इज्जत लूटने आ गए थे”.
यह कहते हुए भागी कौर के अंदर मानो ज्वालामुखी धधकने लगता है.
“दरिंदोँ ने सभी औरतों को नंगा कर दिया था. हम मजबूर, असहाय औरतों के साथ कितनों ने बलात्कार किया याद नहीँ. मैँ बेहोश हो चुकी थी…. इन कमीनों ने किसी औरत को पूरी रात कपड़ा पहनने नहीँ दिया.“ [ix]
कुछ ऐसे ही हालात देखते हुए गगन गिल की माता जी को सन सैंतालीस में जलंधर में स्तन कटी औरतों का जलूस याद आता है और वह एक हाथ में तलवार ले अपनी बेटियोँ से माफी मांगती हैँ –
“सारा समय माँ हम चारों बहनों को एक-एक करके देखती रही जब काफी देर वे लोग दूसरी मंजिल से नीचे नहीं गए, तो उन्होंने खुद को मजबूत किया. हाथ जोड़ते हुए कहा, ‘मेरी बच्चियों, अगर मुझे तुम्हें मारना पड़ा, तो मुझे माफ़ कर देना. मैनें सन् सैंतालीस में देखा था, औरतों के साथ क्या होता है….” [x]
दादी भी कहती है ‘दंगा किसी भी कौम में हो भोगना तो औरतों को ही होना पड़ता है. दंगे में भी, दंगे के बाद भी. इतना कहते ही वह पाकिस्तान में छूट गई अपनी भतीजी को आज भी याद कर रोने लगती है. दादी नहीँ जानती उसकी भतीजी आज़ादी के सत्तर साल बाद आज जीवित भी है या नहीँ. पर उसे लगता है, अगर बच कर हिन्दुस्तान आई होती तो चौरासी में न जाने उसका क्या हश्र होता. क्योंकि राष्ट्रवाद या देशभक्ति की इबारतें ज्यादातर औरतों के जिस्म पर ही लिखी जाती हैं. अमृता प्रीतम के लाख पुकारने पर भी कोई ‘वारिसशाह इनके दर्द को देख कब्र से कभी नहीँ उठता’ [xi].
गुरूद्वारों मे आग लगा, लोगों को जिंदा जला, औरतों से बलात्कार कर कामयाबी का यह तिरंगा लगातार तीन दिनों तक फहराया जाता रहा. अगर कोई कसर बच रही थी तो उसे पूरा करने के लिए गुरूग्रंथ साहिब को जलाने-फाड़ने की होड़ भी देखी जा सकती थी. ऐसी ही किसी होड़ को देख दादी फिर सैंतालीस में पहुँच जाती है जब उसके पीछे आ रहे काफिले पर अचानक मुसलमानों ने हमला कर दिया. हमलावरों के हाथों में तलवारें थी. काफिले के कुछ लोगों ने अपने सर पर गुरुग्रंथ साहिब उठाए हुए थे. इन लोगों ने हमलावरों से पवित्र ग्रंथ को नदी में प्रवाहित करने की अनुमति मांगी जो उन्हें मिल गई. यह अलग बात है कि आदिग्रंथ के साथ वे सब भी नदी में कूद पड़े थे. दादी और उनकी देवरानी अपने भाइयों की लाशें वहीं छोड़, सिसकियों को दबाए वहाँ से आगे चल दीं जहाँ चूहेवाली (अब पाकिस्तान में) में उन्हें एक मुसलमान ने पनाह दी.
दादी लगातार चौरासी में सैंतालीस को खोजती नज़र आती. ‘सैंतालीस से चौरासी तक ने गुरूग्रंथसाहिब को भी प्रधानमंत्री का इतना हत्यारा बना दिया कि पवित्र ग्रंथों की विरासत संभालने वाले ‘मोने’ तक भी इस वहशीपन से घबरा उठे’. ‘झुटपुटा’ कहानी के ‘मोने’ चौधरी साहब को जब लोग उलाहना देते है कि लूट-पाट मची थी और आगजनी में वह कहीँ नज़र नहीँ आये तो उनका जबाव था-
“मेरे घर में दरबार साहिब रखा है ना. एक कमरे में हमने छोटा –सा गुरूद्वारा बनाया हुआ है ना, साईं. अब किसी बदमाश को पता चल जाता तो मेरे घर को ही आग लगा देता. अब अपना ही कोई आदमी उन गुंडों को बता देता कि इधर दरबार साहिब रखा है, तो वे मेरे घर को ही आग लगा देते. हम हिन्दू तो एक-दूसरे को काटते हैँ ना. [xii]
दरअसल 1984 भारतीय लोकतंत्र का वह हादसा है जिसने आज प्रबल हो चुकी हिंसक और उद्धत हिन्दूवादी मानसिकता जो सैंतालीस में शैशवावस्था में थी, को रचने और गढ़ने का काम किया. आज़ादी के सैंतीस साल बाद दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र एक हिन्दू राष्ट्र में रूपान्तरित हो रहा था. एक एक ऐसा राष्ट्र जिसमें सिख या अल्पसंख्यक इस देश के समान नागरिक नहीँ बल्कि ‘आतंकवादी या गद्दार’ थे.
तब प्रधानमंत्री की हत्या की प्रतिक्रिया से लेकर,सिखों के आतंकवादी और गद्दार होने के न जाने कितने नैरेटिव गढ़ दिए गए थे. यहाँ तक कि फैली हुई हिंसा के बीच सिखों के प्रति सहानुभूति कम करने के लिए अनेक तरह की अफवाहों ने भी अपना काम किया- ‘सिखों ने भी तो पंजाब में हिन्दुओं को मारा है, ‘सिखों ने पानी में जहर मिला दिया है’, ‘सिख रेजीमेंट ने बगावत कर दी है’ या फिर ‘पंजाब से हिन्दुओं को मार कर गाड़ी भर कर भेजा जा रहा हैँ’. ठीक वैसे ही जैसे सन सैंतालीस में सरहद के दोनों तरफ सर कटी लाशों का हजूम लेकर गाड़ी आने की अफवाह फैली और इन अफवाहों ने हिंसा को बढ़ाने के साथ जायज ठहराने के तर्क भी तलाश लिए. चौरासी में भी ऐसी ही अफवाहों( प्रधानमंत्री की मौत पर सरदारों ने मिठाईयाँ बांटी आदि) द्वारा हिंसा को उचित ठहराया गया.
किसी समुदाय के प्रति नफ़रत फैला कर उनका जनसंहार कराने के इस प्रयोग को आज़ाद और लोकतांत्रिक भारत में पहली बार सफलता पूर्वक अंजाम दिया गया. बाद में यह प्रयोग और खुले तौर पर २००२ में दोहराया गया. आज तो अफ़वाहों का उत्पादन एक छोटे-मोटे उद्योग के रूप में ‘पोस्ट-ट्रुथ’ की शक्ल में हमारे दौर का एक लक्षण बन चुका है.
इस मानसिकता को गढ़ने में तब की पुलिस प्रशासन, मीडिया, विपक्ष सब ने न सिर्फ़ अहम भूमिका निभाई बल्कि उनके भीतर का साम्प्रदायिक चरित्र, भी पूरी तरह से उभर कर सामने आया. इस संहार के बाद जब
“पहली बार संसद बैठी तो पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी की मृत्यु पर तो शोक-प्रस्ताव आया, पर देश में मारे गए ५००० निर्दोष सिखों के बारे में एक लफ़्ज़ तक नहीं बोला गया था. सत्ता-पक्ष तो मौन रहा ही, उस वक़्त विपक्ष ने भी अपनी जुबान सिल ली थी.” [xiii]
तब के विपक्ष में वामपंथी पार्टियों के अलावा भारतीय जनता पार्टी भी शामिल थी. आर एसएस के पूर्वप्रमुख नानाजी देशमुख ने भी ‘प्रतिपक्ष’ पत्रिका में दिए गए अपने तात्कालिक संदेश में इन दंगों को इंदिरा गाँधी की हत्या के साथ-साथ सिख आतंकवाद से उभरी सहज प्रतिक्रिया ही बताया.[xiv] अगर उस समय सत्ता का यह साम्प्रदायिक चरित्र नहीँ उभरता तो शायद उसके बाद 1991-92 और बाद में 2002 भी नहीँ होता. इन सब की नींव चौरासी ही बना. नानावती आयोग में आए हलफनामों और साहित्य के आत्मकथनों में पुलिस और मीडिया की भूमिका को देखा जा सकता है. दादी को याद आता है जब सैंतालीस में लायलपुर स्टेशन (अब पाकिस्तान में) पर मालगाड़ी में बैठे काफिले के लोग गाड़ी चलने की उडीक (इन्तज़ार) कर रहे थे तभी मुस्लिम हमलावरों ने धावा बोल दिया लेकिन उस समय गोरखा रेजीमेंट के सैनिकों ने पहुँच कर न सिर्फ़ सभी को बचाया बल्कि गाड़ी को सही सलामत अमृतसर तक भी पहुँचाया. लेकिन आज चौरासी मे तो पुलिस स्वयं दंगाइयों का रोल अदा कर रही थी. पुलिस के भीतर का साम्प्रदायिक चरित्र इस समय साफ़ तौर पर उभर कर सामने आया था. बाद में हाशिमपुरा, गुजरात दंगों आदि में पुलिस के इस चरित्र को साफ़ तौर पर देखा जा सकता है.
“स्थिति को देखते हुए ग्रंथी ने सब सिखों को दोपहर गुरूद्वारे में इकठ्ठे होने को कहा, ताकि हमले की स्थिति में कुछ तो प्रतिरोध किया जा सके. भीड़ ने सात दफा हमला लिया… दोपहर तीन बजे के क़रीब पुलिस मौक़ा-ए-वारदात पर पंहुची. सिखों को लगा कि लम्बे समय से जो संघर्ष चल रहा है वह खत्म हुआ. …पुलिस ने आते ही इस तरह के तेवर भी दिखाए. सिखों से कहा सभी गुरूद्वारे के अन्दर एक कोने में चले जाओं… सिख पुलिस पर भरोसा कर अन्दर चले गए. लेकिन उनकी आंखे तब खुली की खुली रह गई, जब दंगों को नियंत्रित करने के लिए आए रिज़र्व पुलिस बल ने गुरूद्वारे पर उसी तरफ गोलियां चलानी शुरू कर दी , जिस तरफ सिखों को इकठ्ठा किया गया था….” [xv]
यहाँ तक की दूरदर्शन तक हिंसक वक्तव्यों के प्रचार प्रसार में लगा हुआ था. बार बार कैमरे का फोकस ‘खून बदला खून’ या ‘सरदारों ने देश की मां को मारा है खून के छींटे उनके घरों तक भी जाने चाहिए’ जैसे नारों को बार बार दिखा रहा था. दादी की पोती को अच्छी तरह याद है कि यह वही समय था जब रविवार सुबह दूरदर्शन पर सिंह-बन्धुओं की आवाज में ‘कोई बोले राम-राम… ‘शब्द से सुबह की शुरूआत होती थी. उसी दूरदर्शन का साम्प्रदायिक राष्ट्रवादी चरित्र उभर रहा था. यह इस मामले में अनोखा नरसंहार था जिसमें भीड़ का नेतृत्व समाज के सम्मानित नेता कर रहे थे. इन नेताओं का दबदबा इतना था कि अस्पतालों तक ने जले लोगों या घायल सरदारों का इलाज करने से मना कर दिया था. पंजाबी में कहावत है “नहूवाँ नालों मास कदी अलग हो सकता है?” (नाखूनों से भला कभी मांस अलग हो सकता है) लेकिन चौरासी ने मांस को नोच-नोच कर अलग कर दिया.
“तभी कुछ लोग दुकान के अन्दर से एक अलमारी को घसीट कर सड़क के बीचोबीच ले आये और देखते-ही-देखते धू-धू करती आग के शोले उसमें से निकलने लगे… मानो लोहड़ी जलायी गयी हो. साइन बोर्ड तोड़ने वाला अभी छड़ से अलमारी को पीट रहा था.
“दुकान सरदार की है मगर घर तो हिन्दू का है.” तमाशबीनों में से एक आदमी बोला, “इसलिए अलमारी बाहर खींच लाए हैँ.”
इस पर एक और आदमी ने टिप्पणी की, “इधर पीछे ड्राई क्लीनर की दुकान को आग नहीँ लगाई.”
“क्यों?”
“क्योंकि उसमें एक हिन्दू और एक सिख दोनों भाई वाल हैँ.”…
“पीछे मोतीनगर में ड्राईक्लीनर की एक दुकान किसी सिख-सरदार की है. उसे जलाने गए तो किसी ने पुकार कर कहा, ‘ओ कम्बख्तों, दुकान सिख की है पर उसमें कपड़े तो हिन्दुओं के ही हैँ. इस पर इसे भी छोड़ दिया गया.“ [xvi]
भीष्म साहनी की कहानी ‘झुटपुटे’ का पात्र चौरासी के समय ही यह भविष्यवाणी कर देता है कि चौरासी के नौसिखिए दंगाई जब पैरों के बल खड़े हो जाएंगे तो क्या कहर बरपेगा.
“अभी शुरूआत है, साईं, अभी शुरूआत है. जब सीख जायेंगे तो ऐसी ग़लतियाँ नहीँ करेंगे- हम लोग अभी नौसिखुआ हैं ना, इसलिए. जब सीख जाएँगे तब तुम देखना. दूर से ही एक -दूसरे को देखकर रोंगटे खड़े हो जाया करेंगे. अभी तो बच्चा पैरों के बल खड़े होना सीख रहा है…. [xvii]
यह नौसिखिया दंगाई मानसिकता १९९२ और २००२ में पूरी तरह से वयस्क हो चुकी थी. इसलिए चौरासी से अधिक सुनियोजित ढ़ंग से २००२ की घटना हुई. दंगाई मानसिकता २००२ तक आते आते पूरी तरह अपने चरम पर पंहुच गई. इतनी चरम पर कि धर्म व मज़हब के नाम पर जिन की देह पर अक्सर दंगाई अपनी विजय-पताका लहराया करते थे, वे औरतें भी लूटपाट और हिंसा का हिस्सा बनने लगीँ. उन्नीस सौ सैंतालीस में सारी हिंसा के बावजूद उस पर लिखे साहित्य में कई प्रेम-कहानियाँ मिलती हैं. लेकिन चौरासी पर लिखे साहित्य में मानवीयता के कई लम्हे आते हैं पर प्रेम-कहानी जैसी कृतियाँ लगभग अनुपस्थित हैं. यह एक हैरत की बात है. शायद प्रेम कहानियों की दुनिया को नफरतों की आंधियों ने चौरासी और दो हजार दो तक आते-आते उड़ा दिया. बल्कि मानवीय संवेदना की नियति यहाँ तक आ पहुँची कि अध्यापक भी हिन्दू और सिखों में तब्दील हो गए.
“१६-१७ साल मैंने कॉलेज और विश्वविद्यालय में हिन्दी पढ़ाई थी. मेरे ज्यादातर विद्यार्थी हिन्दू थे और वे मेरे उनके प्रति और हिन्दू संस्कृति के प्रति प्यार को जानते थे जानते ही नहीं, बल्कि उन्हें इस संबंध में दृढ़ विश्वास भी था. पर मुसीबत के वक्त मेरे पास कोई नहीँ था ” [xviii]
स्मृतियों का विभाजन राष्ट्र की चेतना के विभाजन में बदल चुका था. दिल्ली जैसे शहर में हरभजन सिंह ने कभी सोचा नहीं था कि वे एक अलग समुदाय का हिस्सा हैँ, लेकिन चौरासी के हादसे ने उन जैसों न जाने कितनों को एक नये प्रकार के अल्पसंख्यक, असुरक्षित समुदाय के रूप में उभार दिया था. लेकिन इंसानियत का जज्बा इस विभाजित राष्ट्रवादी चेतना से कहीं बड़ा है. इसीलिए अपने घर से बेदखल होने से पहले वह घर में दिया जला कर रखा चाहता है ताकि जो कोई भी इस घर पर कब्जा कर रहने आए वह घर में इंसानियत को रोशन पाए.
उजड़ चुक्का है घर भावें नथावाँ कोई बस जाऊ
उदी ख़ातर ही जाँदी बार इक दीवा जगा चलिए.
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असाडे क़ातलाँ ने ताँ परेवाँ (प्रेतों) संग वसणा है
बड़ा गाहिरा इन्हाँ दा दुख, न दे के बददुआ चलिए [xix]
इन्सानियत के इसी रिश्ते के कारण भुक्त-भोगियों की स्मृति में सिर्फ़ यातनाओं और दंगाइयों के बिम्ब ही नहीँ मौजूद रहते बल्कि उन लोगों के भी बिम्ब दर्ज रहते हैं जिन्होंने अपनी जान दे कर भी लोगों की जान बचाई. दादी को लाहौर के पास के गाँव का वह मुसलमान आज भी याद है जिसने पूरी रात उसे व उसके बच्चों को पनाह दी. चौरासी वालों को वो पुलिस वाला याद है जिसने सीसगंज गुरूद्वारे में फँसे हजारों सिखों को अपनी नौकरी की परवाह किए बिना बचाया या इस तरह के अनेक अन्य गुमनाम लोग जो स्वयं खत्म हो इन्सानियत के जज्बे को जिंदा रख गए. साहित्य भी इसी जज्बे से चलता है.
कहते हैँ स्मृतियों का पीड़ा से बड़ा गहरा रिश्ता होता है. एक स्मृति न जाने कितनी अन्य स्मृतियों से जुड़ जाती है. भीष्म साहनी भिवंडी के दंगा पीडितों के बीच जाते हैं तो उन्हें उन्नीस सौ सैंतालीस याद आता है. दादी चौरासी देखती हैं तो उन्हें सैंतालीस याद आता है. हम २००२ सुनते हैं तो चौरासी याद आता है. चौरासी के डर और यातना के ऐसे ही क्षणों में खुशवंत सिंह भिवंडी जलगाँव आदि के दंगा पीड़ितो के साथ दर्द का सांझापन महसूस करते हैँ “मैं अपनी बारी का इंतजार कर रहा था. मुझे लग रहा था कि निशाने के लिए बंद तीतरों में से मैं भी एक तीतर था जो ढक्कन के खुलने और अपने निशाना बनने का इंतजार कर रहा था. ज़िदगी में पहली बार मैंने अनुभव किया कि नाज़ी जर्मनी में यहूदियों को कैसा लगता होगा और भिवंडी, जलगांव, मुरादाबाद, राँची और अन्य जगहों में जब दंगे हुए थे, तो मुसलमानों पर क्या गुजरी होगी. जीवन में पहली बार मुझे मालूम हुआ कि पूर्वआयोजित हत्याकांड, अग्निहांड, जाति-संहार आदि शब्दों के असली मायने क्या होते हैं.“ [xx]
दरअसल स्मृतियों का ताना बाना कुछ ऐसा ही होता है. एक से दूसरी स्मृति जुड़ती जाती है और दर्द की पूरी एक शृंखला बना देती है. इसीलिए दादी विभाजन के इतने सालों बाद भी बार-बार सैंतालीस हो जाती है. लेकिन हाँ दादी को सैंतालीस को लेकर उतना गिला शिकवा नहीँ है जितना उसके परिवार को चौरासी को लेकर है. चौरासी उनकी व्यक्तिगत ही नहीँ सामुदायिक स्मृति का हिस्सा है लेकिन सवाल है कि यह राष्ट्र की सामूहिक स्मृति का हिस्सा बन पाया है या नहीँ. सामूहिक स्मृतियाँ कैसे बनती हैं यह खुशवंत सिंह के इस कथन में देखा जा सकता है जहाँ उनकी व्यक्तिगत चौरासी की यातना उन्हें यातना के शिकार भिन्न देशकाल की यातनाओं से जोड़ देती है. उनकी व्यक्तिगत यातना सामूहिक यातना में तबदील हो जाती है. क्या कभी सैंतालीस या चौरासी की स्मृतियाँ पूरे राष्ट्र की सामूहिक संवेदना का हिस्सा उसी प्रकार बन पाएँगीं कि राष्ट्र का हर व्यक्ति उस दर्द से दो-चार हो सके जिस दर्द से चौरासी के शिकार गुजरे हैं. आज जो कुछ हो रहा है उसमें ऐसा होता दिखता तो नहीं है. कहीं विभाजन के सत्तर सालों में राष्ट्र की स्मृति या संवेदना विभाजित तो नहीं हो गई है. यदि हाँ, तो सवाल यह उठता है कि इस संवेदना के और कितने विभाजन होंगे.
[ii] स्वदेश दीपक- कहानी रफूजी
[iv] हरभजन सिंह (ले०) – उन्नीस सौ चौरासी, पृष्ठ121, सम्पादन–संकलन, अमरजीत चंदन, पृष्ठ , चेतना प्रकाशन, लुधियाना 2017
[v] .खुशवन्त सिंह, मेरा लहूलुहान पंजाब,(अनु० उषा महाजन) पृष्ठ –101, राजकमल प्रकाशन, 1993
[vi] बी.बी.सी पर दिया साक्षात्कार https://www.bbc.com/hindi/india/…/130411_sikh_riots_mohan_vk
[vii] राजिन्दर कौर-कहानी, हुण रोटी खाणी सोखी हो गई सी, पृष्ठ 157 , संकलन सम्पादन जिन्दर – 1984 दा संताप, संगम प्रकाशन, समाना 2014
[viii] गगन गिल – इत्यादि, लोकमत पत्रिका
[ix] जरनैल सिंह, कब कटेगी चौरासी, पृ० 27 ,पेंग्विन बुक इंडिया, यात्रा बुक्स, 2009
[x] गगन गिल –इत्यादि, लोकमत पत्रिका
[xi] देखें विभाजन पर लिखी अमृता प्रीतम की कविता- अज आखाँ वारिश शाह नूँ–
[xii] भीष्म साहनी- कहानी झुटपुटा, पृष्ठ 23
[xiii] जरनैल सिंह, कब कटेगी चौरासी, पृ० 117 ,पेंग्विन बुक इंडिया, यात्रा बुक्स, 2009
[xiv] संपादक -जॉर्ज फर्नांडिज़ प्रतिपक्ष, 25 नवंबर 1984 ,
[xv] जरनैल सिंह, कब कटेगी चौरासी, पृ० 82 ,पेंग्विन बुक इंडिया, यात्रा बुक्स, 2009
[xvi] भीष्म साहनी- कहानी झुटपुटा, पृष्ठ 19-20
[xviii] हरभजन सिंह (ले०) – उन्नीस सौ चौरासी, सम्पादन, पृष्ठ 121–संकलन, अमरजीत चंदन, चेतना प्रकाशन, लुधियाना 2017
[xx] खुशवन्त सिंह- मेरा लहूलुहान पंजाब, पृष्ठ-99, राजकमल प्रकाशन, 1993
· इनके अतिरिक्त नानवाती आयोग की रिपोर्ट का इस्तेमाल किया गया।
· जहाँ कहीं भी अनुवाद हैं वह स्वंय लेख के लेखक द्वारा ही किए गए हैं।
(आलोचना पत्रिका से आभार सहित)
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