नदिया के पार रीमिक्सआनंद पांडेय |
रामसनेही मिश्र और सरस्वती के विवाह के कई बरसों तक कोई संतान नहीं हुई थी. वे तीर्थ-व्रत, पूजा-पाठ, मान-मनौती सब करके निराश हो गये थे.
एक सुबह सरस्वती शौच से लौटीं तो उनका जी मिचलाता हुआ घर आया. वे भूल चुकी थीं कि औरतों के जी मिचलाने का कोई और भी कारण होता है. पति को बताईं तो उन्होंने इसे कोई वजन नहीं दिया और नीम की पत्ती चबाने की सलाह दी. दोपहर तक रह-रहकर कई बार कैय के दौरे पड़े.
तीसरे पहर नाउन-ठकुराइन किसी के घर का बैना लेकर आई. वह उनकी सखी थी. उन्हें अनमनी देख कारण पूछ बैठी. कुछ घरेलू उपचार बता चल पड़ी.
द्वार पर मिसिर गाय-भैसों को सानी-पानी दे रहे थे. उन्हें देखकर नाउन की आँखें चमक गईं. परिहास करते हुए बोली— मैं तो जानती थी कि तुम परूआ बैल हो, लेकिन आज लगा बुढ़ापे में भी साँड़ बने फिर रहे हो.
मिसिर ने बिना उसकी तरफ देखे तपाक से जवाब दिया— भौजी, जब तक तुम तिलोर बछिया बनी रहोगी, हम जुआन साँड़ बने रहेंगे. पुट्ठे पर हाथ न फेरा तो यह जनम अकारथ जाएगा. भगवान को कौन मुँह दिखाऊँगा?
नाउन मिसिर के अंग विशेष की ओर इशारा करके बोली— अरे…कनचोदऊ, तुम्हारा कट-कटकर गिरेगा…. तुम्हारे मुंह में कीड़े पड़ें…. कहाँ की बात कहाँ ले जा रहे हो!
यह नाउन का आखिरी अस्त्र होता था. वह उम्र का ख्याल किये बिना गाँव भर के देवरों से परिहास करती थी. उसमें रोते हुए को भी हँसा देनी की कला थी. जब जोड़ बराबरी का मिल जाता तो इसी वाक्य से समापन करती. मिसिर को यह सुनकर सनातन आनंद आया.
जबरदस्त हँसी-मजाक के बीच में उसे खूब संज़ीदा होने भी आता था. हँसी-मज़ाक वह दूर से करती थी लेकिन संज़ीदा होने पर वह व्यक्ति के पास जाकर खड़ी हो जाती थी. वह मिसिर के पास जाकर संजीदगी से बोली— सखी की तबीयत ठीक नहीं है. कह रही हैं मन पनछा रहा है. कुछ दवा दारू का इंतजाम करो. बेचारी अकेली है, देखभाल कौन करे.
हाँ, आज सबेरे से दिक हैं. कुछ दाना-पानी भी नहीं किया.
मिसिर ने इस ढंग से कहा कि जैसे उन्होंने दवा-दारू दे दिया है. जल्दी ही ठीक हो जाएँगी. यह कोई चिंता की बात नहीं है.
नाउन का मुँह थोड़ी देर के लिए खुला रहा. फिर ऐसा मुँह बनाया जैसे उसका विवेक जग उठा हो. थोड़ा साहस करके बोली— भगवान करें, आपकी अँगनइयाँ बधइया बजे. कोई बड़ा नेग-चार लूँगी.
मिसिर का मुँह राख हो गया. अभी-अभी हँसता हुआ उनका चेहरा संतानहीन हो गया.
वह एक क्षण के लिए शर्मिंदा हुई. उसे लगा कि उसने एक क्रूर मजाक कर दिया है. जब औरत-मर्द जवान हों तभी ये मजाक अच्छे लगते हैं. जब तीसरे पन में पैर पड़े हों और आदमी सब कुछ करके निराश हो चुका हो तो यह मजाक मजाक नहीं रह जाता. व्यंग्य बाण बन जाता है. उसको अपनी चूक का अहसास होने में देर न लगी.
मिसिर के सामने रुकना उसे असह्य लगा. वह तुरंत वहाँ से चल पड़ी. पर कुछ दूर चलकर खड़ी हो गयी. यहाँ से उसे कुछ कहना आसान लगा. अपनी चूक को ढँकने के लिए ढाँढस बँधाने के अंदाज़ में बोली— मेरा मन कहता है, अबकी मेरी जबान खाली नहीं जाएगी.
दालान में लेटी मिसिराइन यह सब सुन रही थीं. नाउन का आखिरी वाक्य मिसिर पर काम कर गया. वे तुरंत उनके पास गये. उनके चेहरे पर नाउन की झूठी बातों ने एक चमक पैदा कर थी. मिसिराइन से बोले— सुनी, फुलमतिया की माँ क्या कह रही थी! मिसराइन घृणा से भरकर बोलीं— हरामी जले पर नमक छिड़क रही है. हम न जाने किस जनम का फल भोग रहे हैं. जब हमारा भाग्य ही खोटा है तब लोगों के ताने तो सुनने ही होंगे.
(दो)
नाउन की दूर की कौड़ी सही साबित हुई. मिसिरान को एक-के-बाद एक दो लड़के हुए. बड़ा दिल्ली में नौकरी करता है. उसकी बहू को आज सुबह ही मिचली आई है. मिसिराइन खुशी में पैर नहीं रख पा रही हैं. वे चाहती हैं कि बड़े बेटे की साली को मँगवा लें ताकि बहू को घर के काम-काज से दूर रखकर पूरा आराम दे सकें. वे कहीं से चूकना न चाहती थीं.
वे छोटे लड़के की राह देख रही हैं. लेकिन, लड़का है कि इसके पाँव घर में टिकते ही नहीं हैं. बड़े भाई की शादी में मिली मोटर साइकिल लेकर वह दिनभर यहाँ-वहाँ घूमता रहता है. बाबा की पार्टी के काम से कई-कई दिन घर ही नहीं आता है. हर बात पर सबको गर्व करने के लिए कहता है. चारपायी पकड़े बाप के प्रति उसकी हमदर्दी मानो खत्म ही हो गयी है. कहता है कि इन्होंने हमारे लिए किया ही क्या है! कोई और हमारा बाप बना होता तो हम हवाई जहाज में उड़ते. मिसिर तो कुछ सुन नहीं पाते. सब माँ को ही सुनना पड़ता. माँ जवान बेटे को टोकने से बचतीं. लेकिन, आज मन-ही-मन वे छोटे के खिलाफ शिकायतों का पिटारा खोल चुकी हैं.
मिसिर पर बुढ़ापे का कहर बरपा है. न आँख से दिखता है, न कान से सुन पाते हैं. ओसारे के एक कोने में चारपायी पर पड़े-पड़े खाँसते रहते हैं. वे आज खुशी और आशंका में इतनी डूब-उतरा रही हैं कि उन्हें मिसिर की सेवा की भी सुध नहीं आयी. इससे वे बहुत क्रुद्ध हो गये हैं. अपनी मृत आवाज़ में गंदी-गंदी गालियों की बौछार से उन्हें भिगोते रह रहे हैं.
छोटन तीन बजे घर लौटा. रोज मिसिराइन उसके नहाने-खाने के पीछे पड़ जाती थीं. आज आते ही उसे खुशखबरी दीं. छोटन खुशी से उछल पड़े. भाभी के पास जाकर खबर की तस्दीक की. पीछे-पीछे मिसिराइन आईं और आदेश दिया कि भैया की ससुराल से गुड्डी को लिवाकर आओ. छोटन खुशी-खुशी तैयार हो गये. सैलून जाकर दाढ़ी-बाल कटवाये. कपड़े इस्तिरी करवाये. ससुराल जाने के सारे ठाट-बाट करके साली को लिवाने चले.
छोटन गाँव से बीस किलोमीटर दूर के एक कॉलेज में बीए की दूसरी साल में थे. दो साल पहले जब भाई की शादी में गये थे तब गुड्डी को देखकर उनके भीतर नदिया के पार फिल्म के चंदन की आत्मा चुपके से घुस गयी थी. वे गुड्डी को गुंजा के रूप में देखने लगे थे. आज उन्हें फिल्म के दृश्य जिन्दगी में उतरते लग रहे हैं. शरीर का ताप बढ़ गया है, शरीर में हल्की-सी कँपकँपी हो रही है. चित्त अस्थिर हो गया है.
(तीन)
दो कमरों, छोटे- से आँगन और बरामदे का एक घर गाँव के हिसाब से शहरी है. रामकिशोर शुक्ल आयुर्वेद के डॉक्टर हैं. खेती-किसानी से कोई वास्ता नहीं. इसलिए उनका घर किसानों के जैसा नहीं था. वे रहनेवाले कहीं और के हैं लेकिन डॉक्टरी के कारण इस गाँव में बस गये हैं. उन्होंने धरती का एक छोटा टुकड़ा खरीदकर यह घर बनवाया और यहीं के होकर रह गये. गाँववालों ने कभी उनके गाँव-घर से किसी को आते-जाते नहीं देखा. शादी-ब्याह में भी नहीं. उनका समाज-परिवार यह गाँव ही था. एक दबी-सी अफवाह थी कि वे एक धोबन को लेकर भाग आए थे. उनकी पत्नी हैं भी एक गुलाबी रेशम की धुली साड़ी की तरह. बेटे की चाहत में एक-एक करके सात बेटियाँ हुईं. सुंदरता में एक-से बढ़कर एक. उन्होंने अपनी सारी बेटियों को अच्छे से पढ़ाया. सायकिल पर बिठाकर जब वे बेटियों को परीक्षाएँ दिलवाने जाते तो लोग हँसते लेकिन अब लोग जलते हैं क्योंकि सात में से पाँच बेटियाँ प्राथमिक विद्यालय की शिक्षिकाएँ हैं. एक को दहेज के लोभ में ससुराल वालों ने जलाकर मार नहीं डाला होता तो वह भी किसी अच्छे पद पर होती. सबकी खाते-पीते घरों में शादियाँ हुईँ. गाँव के और घरों की लड़कियाँ मायके आतीं तो देखकर तरस आता. लेकिन, वैद्यजी की बेटियों को देखने पूरा गाँव जुट जाता. उन्हें देखकर लगता कि ससुराल में भी लड़कियाँ सुखी और खुशहाल रह सकती हैं.
छोटी बेटी गुड्डी सबसे प्रतिभाशाली है. स्कूली बोर्ड की परीक्षाओं में जिला टॉपर रही. अभी बीएससी कर रही है. मेडिकल की परीक्षा की तैयारी भी कर रही है. लखनऊ में बहनोई के यहाँ सालभर रहकर कोचिंग भी कर आई है. किसी शहर ने बहुत कम समय में शायद ही किसी को इतना ज्यादा बदला हो जितना कि गुड्डी को लखनऊ ने बदल दिया है. वह लड़की गयी और व्यक्तित्व बनकर लौटी. अब गाँव में उसका दम घुटता है लेकिन घर की माली हालत ऐसी नहीं कि वैद्यजी उसे शहर में रखकर पढ़ा सकें. वह जल्द-से-जल्द गाँव से उछलकर किसी बड़े शहर में सेटल हो जाना चाहती है. पढ़ाई ही एक ज़रिया हो सकती है, यह मूलमंत्र वह खूब समझती है इसलिए जीतोड़ मेहनत से पढ़ती है. जब कभी माँ उसके किसी व्यवहार से खीझ पड़तीं तो डॉक्टर साहब यह कहकर उसका पक्ष लेते कि एक दिन वह बहुत बड़ी डॉक्टर बनेगी. तुम्हारा घर सँभालने के लिए थोड़ी ही पड़ी रहेगी.
डॉक्टर साहब बरामदे में चारपाई पर लेटे हैं. बगल में कुर्सी पर उनकी धर्मपत्नी बैठी हैं. दोनों आपस में कुछ चर्चा कर रहे हैं. वे हमेशा साथ ही देखे जाते थे. जवानी के दिनों में गाँववाले वैद्यजी का खूब मजाक उड़ाते थे. उनको मेहरा या मेहरबस कहते लेकिन वैद्यजी घर पर रहते तो या तो लड़कियों को पढ़ाते, नहलाते-धुलाते या फिर घर के कामों में हाथ बँटाते. लड़कियों से कोई काम नहीं कराते थे. इस सोच से कि कहीं उनकी पढ़ाई का नुकसान न हो जाये. खाली समय में दोनों परानी आपस में बातें करते रहते.
इतने में एक किशोर मोटर सायकिल खड़ी कर दोनों के पाँव छूता है और मिठाई का एक डिब्बा चारपायी पर रख देता है. दोनों उसे पहचानने की कोशिश करते हैं. लेकिन, जब तक उसे समझ में आता तब तक वे उसे पहचान चुकते हैं.
शुक्लाइन पूछती हैं— का भैया, कैसे आये? सब कुशल मंगल है?
छोटन ने बड़ी विनम्रता से आने का प्रयोजन बताया.
शुक्लाइन ने आँचल पसारकर संध्या माई और भगवान का आभार जताया. एक नाती की सकुशल जचगी की प्रार्थना की. डॉक्टर साहब ने भी मन-ही-मन पत्नी की बातों को दुहराया.
गुड्डी किचन में चाय बना रही है. शुक्लाइन ने किचन से गुड्डी को बुलाया- आओ, देखो छोटन बाबू आए हैं.
छोटन को उसका बुलाया जाना अच्छा लगा. वह आई. हाथ जोड़कर भैया नमस्ते कहा. भैया कहना उन्हें बुरा लगा. जीजा कहती तो अच्छा लगता. पर गुड्डी जीजा-साले वाले देशी पचड़े से चिढ़ती थी. जब वह अज्ञातयौवना थी तब एक जीजा अक्सर ‘जीजा-धर्म’ का निर्वाह करते हुए उसके देह पर यहाँ-वहाँ हाथ फेरते थे. जब वह पुरुष मनोविज्ञान को समझने लगी तब उस जीजा के व्यवहार का अर्थ समझ में आया और वह सालीपने से चिढ़ने लगी थी. पर, छोटन इस मामले में परम परंपरा-प्रेमी थे. विवाह के समय से ही वे उससे आदर्श ‘साली-धर्म’ के निर्वाह की आशा करते आये हैं लेकिन वह उन्हें अभी तक निराश ही करती आई है. उसने दो साल से उनकी फेसबुक फ्रैंड रिक्वेस्ट स्वीकार नहीं किया है.
माँ ने उसने बताया कि वह मौसी बननेवाली है. छोटन उसे लिवाने आये हैं. बच्चा होने तक उसे बहन की देखभाल करनी है.
उस समय तो उसने कुछ नहीं बोला. पर जब सब खा-पीकर सोने गये तब उसने जाने से साफ मना कर दिया. उसका कहना था, एक तो पढ़ाई खराब होगी. दूसरे वह इतने लंबे समय के लिए नहीं जाएगी. तीसरे दीदी के यहाँ अभी तक टॉयलेट नहीं बना है. वह खेत में शौच के लिए नहीं जा सकती है. चौथे गाँव भर के बूढ़े-जवान, जो जीजा के भाई लगते हैं, अश्लील मजाक करेंगे जो उसे कतई पसंद नहीं है.
रात में माँ के ऊँच-नीच समझाने, सुबह बाप के डाँटने और फोन पर बड़ी बहनों के दबाव बनाने के बाद वह किसी तरह से बेमन से जाने को तैयार हुई.
मान-मनुहार में सुबह का समय निकल गया. गर्मी का दिन था इसलिए डॉक्टर साहब ने दिन उतरने पर जाने के लिए कहा. तब तक गुड्डी को भी अपने कपड़े, किताबें और सामान रखने का समय मिल जाता.
गुड्डी लखनऊ से लाया बड़ा-सा एयर बैग पीठ से लटकते हुए कंधों पर टाँग बाइक के दोनों ओर पैर करके बैठी. माँ को यह अच्छा नहीं लगा लेकिन छोटन को बहुत अच्छा लगा. सरप्राइज खुशी! वे इसके नाना अर्थ लगाने लगे. बाइक गाँव से बाहर निकली तो उसकी गति तेज होनी स्वाभाविक थी. इसमें छोटन का गुड्डी को इंप्रेस करने का प्रयास भी गतिवर्धक का काम कर रहा था. संतुलन बनाने के लिए गुड्डी ने दोनों हाथों से छोटन के कंधों को पकड़ लिया. छोटन का हाल मत पूछिए. उनकी विजयी मुद्रा का सिर्फ़ अंदाज लगा सकते हैं.
वे इस विजय को दर्ज करना चाहते थे और सबको बता भी देना चाहते थे. बाइक रोककर बैठे-बैठे एक सेल्फी ली, जिसमें उनकी इस हरकत की चुटकी लेने के भाव वाला गुड्डी का चेहरा भी था, और फेसबुक पर लगा दिया— कमिंग फ्रॉम भैया की ससुराल विद साली. अपनी इस खुशकिस्मती और उपलब्धि पर ग्रेट ब्रो, झक्कास, लुकिंग ग्रेट भाई, गर्दा दोस्त जैसे सैकड़ों कमेंट्स और लाइक्स की संभाव्यता पर निश्चिंत होकर बाइक स्टार्ट करने ही वाले थे कि गुड्डी ने खुद बाइक चलाने के प्रस्ताव से उनके पैरों के नीचे की जमीन खिसका दी.
वे गुड्डी के प्रति पूर्ण समर्पण का परिचय देना चाहते थे लेकिन एक मर्दाना माहौल में लड़की बाइक चलाए और वे बैठें तो जो देखेगा, क्या कहेगा. उन्होंने इस आशय की बात उससे कही तो उसने बेलौस जवाब दिया- लोग हँसेंगे तो हँसने दीजिए. मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता. आपको पड़ता है तो पीछे मुँह छिपाकर बैठिए. प्लीज… मुझे चलाने दीजिए.
इसके आगे वे निरुत्तर हो गये. चुपचाप उतर बाइक गुड्डी को दे पीछे बैठ गये. उन्हें लगा कि देवीजी चला-वला पाएँगी नहीं! अभी हार कर अपने ही दे देंगी. लेकिन, जब उसने अनुभवी सवार की तरह बाइक भगानी शुरु की तो उनके पुरुष अहं को थोड़ी झेंप पहुँची. उन्हें क्या मालूम कि गुड्डी की बहुत- सी दबी हसरतों में से एक थी बाइकर बनकर दुनियाभर में भटकना. वह फेसबुक पर कई महिला बाइकर्स को फॉलो भी करती है. किसी-किसी से उसे साथ में चलने के ऑफर भी मिले थे पर वह अभी इंतज़ार करना चाहती है.
(चार)
पुल से होकर नदी पार करते ही सड़क को छेंककर खड़े लोगों के कारण बाइक को रोकना पड़ा. एक लड़का बाइक के सामने खड़ा हो गया. गुड्डी ने बाइक रोक दी. लड़के ने झपटकर चाभी निकाल ली. गुड्डी के दिमाग़ में अनहोनी से घिर जाने का एहसास भर उठा. अपराध की अनगिनत कहानियाँ निचुड़कर उसका निजी अनुभव बन जाने की संभाव्यता से कौंध पड़ीं. वह भय से सिहर उठी. पर संयम बनाये रखा.
छोटन निर्भीक युवा थे. स्कूल-कॉलेज के झंझटी और लफड़ेबाज़ लौंडों के साथ उठना-बैठना था. इधर राजनीति में भी सक्रिय थे. फुर्ती से कूदकर गुड्डी के सामने ढाल की तरह खड़े हो गये. उनका खून खौल उठा. ताव में आकर सवाल-जवाब करने लगे. उनके सामने एक छोटी-सी भीड़ थी. इसलिए उनके अंदाज़ में संयम भी था.
इस तरह के झुंड को ज्यादातर ऐसे लड़के-लड़कियाँ हाथ लगते जो प्रेम में होते और घर वालों के चोरी-छिपे मिलते इसलिए वे पकड़े जाने पर प्रतिरोध नहीं करते. उन्हें डर होता कि बात बढ़ेगी तो घरवालों तक पहुँचेगी इसलिए वे तरह-तरह की यातनाएँ भोगकर और अन्याय सहकर भी कुछ न बोलते. भीड़ का मन जब लड़की के देह से खेलने, नोच-खसोटने से और जोड़े को पीटने से भर जाता तो उनकी गिड़गिड़ाहट और निवेदन देने लायक हो पाता. तब उसमें क्षमा का भाव पैदा होता. उन्हें पाँव पर गिराकर माफ कर देती. और दुबारा ऐसी गलती न करने का वचन लेकर जाने देती. कब से यह रीति चली आ रही थी, यह कहना बड़ा कठिन है.
हाल के दिनों में देश की सांस्कृतिक राजनीति में कुछ ऐसा हो गया था जिससे इन भीड़ों के इस कर्म में हिंसा और देह सुख के साथ-साथ संस्कृति और समाज की रक्षा का दायित्व-सुख भी जुड़ गया था. सरकार ने रोमियो विरोधी दस्ता बनाकर जनता को भी जागरूक कर दिया था. ऐसी भीड़ों में यह जागरूकता सबसे पहले फैली और इसने अपने काम को और अधिक सुरक्षा-भावना से करना शुरू कर दिया था. सुदूर इलाकों में पुलिस की उपस्थिति कम थी इसलिए पुलिस का काम भी इन्हें ही करना पड़ता था. ऐसे माहौल में रोमियो मनचले और मनचले संस्कृति सेवक मान लिये गये थे.
छोटन और गुड्डी आज ऐसे ही एक नव जागरूक और अनुभवी भीड़ के हवाले पड़ गये थे. छोटन और गुड्डन को बदनामी का डर न था. दोनों में कुछ छिपाने को नहीं था. वे प्रेमी जोड़े न थे. उनमें प्रेम करने का अपराधबोध न था. इसलिए उनमें आत्मविश्वास था. उन्होंने झुंड के सदस्यों को दबाव में लेने की कोशिश की. भीड़ तो मान-मर्दन के सुख के लिए ही तो रोज़ शाम इकट्टी होती थी. इसलिए छोटन का निरपराध और सहज प्रतिरोध भीड़ को चुनौती की लगी. इससे झुंड की नैतिक सत्ता और प्राधिकार चौकन्ना हो गया. लड़की के आत्मविश्वास और प्रतिरोध के प्रयासों ने उसे पतिता सिद्ध कर दिया था. ऐसी लड़कियों के रहते गाँव-समाज की लड़कियों के नाम खराब होते हैं. यह बात भीड़ के मन में तुरंत बैठ गयी. झुंड की नजर में यह दंड के सही पात्र थे. वे छेड़ दिए गये नाग की तरह दोनों पर टूट पड़े.
एक ने डाँटते हुए धमकाया— उड़ो मत, अभी बताता हूँ, क्यों रोका हूँ.
दूसरे ने दबाव में लेते हुए पूछा—किसके लड़के हो? तेरा घर कहाँ है?
तीसरे ने इनकी ओर आते हुए न्यायाधीश की मुद्रा और स्वर में आरोप सिद्ध किया— गाँव-देश की बहन-बिटिया हैं, इनकी इज्जत खराब करते हो. छिनरई करते हो… स्साले. इसके बाद सजा देने की बारी आयी. कइयों ने एक साथ छोटन पर थप्पड़ और घूसों की बरसात कर दी.
गुड्डी बाइक को स्टैंड पर लगाने के बाद छोटन को छेंककर बचाने लगी. छोटन पर गिरने के लिए उठे कई हाथ उसके सिर और पीठ पर भी पड़े. पर वह छोटन को एक बच्चे की तरह अपनी छाती में छुपाकर बचाने की कोशिश करती रही. तब तक किसी बलिष्ठ लड़के ने उसके बालों को पीछे से खींचकर उसे खड़ी कर दिया. उसकी पीठ को अपनी छाती से जकड़कर उसके स्तनों को मसलने और उसके नितंब में अपने को रगड़ने लगा. उसके बिखरे काले घुंघराले बालों की महक से वह मोहांध हो गया. पल भर में उसे लगा कि वह उसे बचाकर कहीं दूर लेकर चला जाय. जब तक गुड्डन उसके चंगुल से खुद को छुड़ा पाती तब उसके जैसे कई और उस पर टूट पड़े. तरबूज़ की फाँक जैसे उसके होठों से निकले खून से उसके दाँत लाल हो गये. पता नहीं काटनेवाले के मुँह में खून कैसा लग रहा था. उसके बालों से छूटकर जमीन पर गिरी उसकी गुलाब के फूल की कढ़ाई वाली हेयर क्लिप किसी के पैरों से दबकर टूट गयी थी. प्लास्टिक के टूटे टुकड़े सीसे के फूल के चारों ओर काँटों की तरह बिखरे थे. उसकी कातर चीख-पुकार-दुहाई पर किसी का ध्यान न था. जैसे टूटी क्लिप किसी को नहीं दिख रही थी.
एक थोड़े उम्रदराज लगनेवाले ने सबका ध्यान खींचा और धक्का देकर उसके देह से सबको अलग किया. वे उसके शरीर से किसान के पत्थर से उड़ जाने वाली चिड़ियों की तरह नहीं दूर हुए बल्कि शव-भोज कर रहे गिद्धों की तरह ढिठाई से बमुश्किल अपने कदम पीछे उठाने की तरह हटे. लड़कों के बीच से लड़की को खींचते हुए पूछा—तू किसकी बेटी है रे? गुड्डी के पस्त पड़े मन को यह आदमी रक्षक और सहारे की तरह लगा. उसने उसके प्रति कृतज्ञतापूर्ण भाव से उत्तर दिया.
एक आदमी उसी दिशा से बड़ी हड़बड़ी में आया जिससे गुड्डी और छोटन आये थे. अपनी बाइक खड़ी करते हुए आश्चर्य और वीरता मिश्रित भाषा में बोला— पंद्रह किलोमीटर से पीछा कर रहा हूँ. गाड़ी का पेट्रोल खत्म हो गया था नहीं तो कब का धर लिए होते. हमें तो लगा कि गँड़ुआ नचनिया के पीछे लगाकर बैठा है. ये तो लौंडिया है भोसड़ी के.
भीड़ अब किसी न्याय के उच्चतम मूल्यों के प्रति अत्यंत समर्पित और दायित्वबोध से भरी हुई अदालत बन गयी थी. उसने लड़की के बाइक चलाने और उसके पीछे लड़के के बैठने को उनके पतित और चरित्रहीन होने का सबसे अकाट्य सबूत माना. कोई भली लड़की बाइक नहीं चला सकती, कोई भला मर्द लड़की के पीछे नहीं बैठ सकता! वह इस निष्कर्ष पर पहुँच चुकी थी कि ऐसी ही लड़कियों की देखादेखी पूरे समाज की लड़कियाँ बिगड़ रही हैं. लड़कों का क्या दोष? सुंदर लड़कियाँ खुद ही फँसाती हैं लड़कों को. कोई लड़की जब तक खुद नहीं चाहती तब तक कोई लड़का उसे नहीं फँसा सकता.
झुंड से थोड़ी दूर सड़क के किनारे लेटे हुए एक आदमी ने लड़खड़ाती जबान में आदेश देने के दारोगाई अंदाज में कहा—लाओ, बाँधो छिनरों को. लौंडो, फोन करके रोमियो स्क्वॉड को बुलाओ.
पीछा करते हुए पहुँचे सज्जन को बात गड़ रही थी कि वे एक लड़की की बाइक से आगे न निकल सके. इस खीझ से निजात पाने के लिए उन्होंने अपने रक्षक के सामने फरियादी की तरह खड़ी होकर रोती आवाज़ में गुहार लगाती गुड्डी के नितंब पर पूरी ताकत से लात मारी. गुड्डी का मन हार चुका था. हारे मनवाले शरीर में कितनी ताकत होती? कटे पेड़ की तरह मुँह के बल गिर पड़ी. पीठ पर फिर कई लात पड़े. वह चीख़ से खुद को बचा रही थी. चीख़ ऐसी कि मृतकों में भी करूणा और दया पैदा कर दे.
लड़खड़ाती आवाज़वाले आदमी ने पूरे जोर से पूछा— अरे स्सालो, मार डालोगे क्या?
लड़खड़ाती आवाज़ और गुड्डन की चीखों का असर हुआ कि छोटन की मूर्छा टूटी और वह उसे बचा लेने के लिए उसकी ओर बढ़ना चाहा. इसका असर भीड़ पर भी हुआ. परिणाम के डर से कुछ तो दबे पाँव वहाँ से भाग खड़े हुए. जो ज्यादा ढीठ और साहसी थे वे गुड्डी को छोड़कर छोटन को घेर कर खड़े हो गये. एक अनुभवी लगनेवाले व्यक्ति ने छोटन से पिता का नाम पूछा. नाम से जाति का पता चल गया. पता चलते ही अब तक का उसका बना-बनाया संतुलन खराब हो गया. वह अब तक शाकाहार का सेवन करता आया था. अचानक उसे मांसाहार की तलब लगी. उसने उछलकर छोटन की कमर के नीचे के हिस्से पर डंडे से पीटना शुरु कर दिया. साथ में दंडित करनेवाली आवाज़ में गालियाँ बरसा रहा था— ब्राह्मण होकर ये सब करते हो. हम लोग पैलगी करते हैं और तुम स्साले नाम खराब करते हो… सटाक्. नाम खराब करते हो… सटाक्.
लड़खड़ाती आवाज़ में फिर सुनायी दिया— अरे स्सालो, मार डालोगे क्या?
जो गिद्ध अब तक गुड्डी को लहूलुहान करके समूह भोज का आनंद उठा रहे थे वे सहसा छोटन पर टूट पड़े.
वैद्यजी की राजदुलारी एक तरफ अचेत पड़ी थी. तो बहुत मान-मनौती के बाद अधेड़ावस्था में मिसिरजी को बाप का सुख देनेवाले छोटन दूसरी तरफ. दोनों को साँसे तकलीफ दे रहीं थीं लेकिन दोनों की चेतना की लीला अभी न रूकी थी. शाम की ठंढी हवा से गुड्डी के खून में सनने से बच गये सिर के एक हिस्से के बाल बल खा रहे थे. भौंरों जैसी काली बड़ी-बड़ी आँखें कठोर धरती की छाती में अधखुली निष्कंप गड़ी हुई थीं.
एक लड़का पूरे मनोयोग से वीडियो बना रहा था. उसने उकसाया कि दोनों को कमर से नीचे नंगा करके लड़के को लड़की के ऊपर लिटा दो ताकि वीडियो ज्यादा-से-ज्यादा शेयर हो. दो लड़कों ने यह काम पूरा किया. गुड्डी और छोटन दो जिस्म एक जान के रूप में पेश किये जा चुके थे.
लड़खड़ाती आवाज़ में किसी ने कहा पुलिस आ गयी. दो-चार मुँहों से एक साथ निकला— आने दो. कौन-सा गलत किया है. दूसरे ने कहा, पुलिस के हाथ लग जाते तो क्या हल्दी-दूब से चूमती… फिर भी भीड़ में अपराधबोध और कानून के भय की एक लहर ने उसे पल भर में अदृश्य कर दिया.
कुछ तमाशबीन अभी उन्हें घेरे खड़े थे. ये मारनेवाले नहीं थे. सिर्फ़ देखनेवाले थे. इसलिए ये किसी दंड के भय से बचे हुए थे. ये लोग सिर्फ तमाशा देख रहे थे लेकिन मन-ही-मन कभी दुख, कभी खेद भी महसूस करते थे. लेकिन, इन्हें बचा लेने का भाव उनमें न आया.
मारनेवाले उन्हें अमर समझ रहे थे. उतरते अंधेरे के एकांत में वे उन्हें बेहोश जानकर छोड़ भागे थे. ताकि किसी अनहोनी का जिम्मा उन पर न आये. वे उनकी जानें नहीं लेना चाहते थे. वे तो सिर्फ मनोरंजन के मकसद से दिनभर खेती-बाड़ी के काम के बाद शाम में यहाँ इकट्ठा होते थे. उनका जीना ऐसे ही था जिसमें ऐसे काम अजूबे नहीं थे.
गुड्डन-छोटन के शरीर समाज के उच्च नैतिक स्तर के स्मारक की तरह अचल पड़े हुए थे. कोई कहता लगता है मर गये, कोई कहता अभी साँसें चल रही हैं.
यदि उन्हें इस जगह न रुकना पड़ा होता तो थोड़ी दूर बाद उन्हें खेतों और बागों से भरा रास्ता मिलता. कुछ वैसा ही जैसा ‘नदिया के पार’ में था. जहाँ रूककर चंदन ने गुंजा से पूछा था— हम आपके हैं कौन?
(पांच)
रात उतर आयी है. मिसिर की साँसे लंबी हो रही हैं. गले से घर्र-घर्र की आवाजें आ रही हैं. चारपायी से उतारकर उन्हें जमीन पर लगे बिस्तर पर लिटा दिया गया है. गाँव भर के लोग इकट्ठा हो गये हैं. पास के कुछ रिश्तेदार भी आ गये हैं. बड़कऊ को फोन पहुँच गया है, वे चल चुके हैं. छोटन का फोन बंद आ रहा है. शुकुलजी ने बताया कि वे टाइम से निकल गये थे. उन्हें अब तक पहुँच जाना चाहिए था. सरस्वती पति के पास जमीन पर पस्त हैं. छाती पीटपीट कर विलाप कर रहीं हैं. कुछ महिलाएँ उनको सँभाले हुई हैं. नाउन बीच-बीच में उनकी साड़ी ठीक कर देती. उधर छोटन के आने में देरी की वजह से उनकी कलप दुगुना हो गयी है. यमराज उनका प्राण दोनों ओर से नोंच रहे हैं. मन में बड़ी कसक है, दोनों लड़के बाप का मुँह नहीं देख पा रहे हैं.
गोदान कराया गया. मुँह में गंगाजल डाला गया. मिसिरजी निर्मोही की तरह सबको रोत-कलपता छोड़ चले गये.
गाँव के बड़े-बुजुर्गों ने बेटों के आने के बाद ही दाह-संस्कार करने का फैसला किया. इसलिए पूरी रात और अगले दिन कम-से- कम दोपहर तक माटी की रखवाली करनी थी.
पुलिस ने लाशों को कब्जे में लिया और बाइक की डिक्की तोड़कर कागज निकाला. गाड़ी वैद्यजी के नाम-पते पर थी. एक सिपाही उनके पास दौड़ाया गया. वैद्यजी ने लाशों की पहचान की. वे छोटन के शव को घर खबर नहीं पहुँचा पाए. न उनके घर इत्तला कर पाये. बेटी का शव लेकर घर चले गये.
बड़कऊ आ चुके थे. बड़े पुत्र के नाते अंतिम क्रिया और कर्मकांड में उलझे हुए थे. सूर्यास्त से पहले-पहले मुखाग्नि देने की हड़बड़ी थी. शव उठने ही वाला था कि पुलिस की एक गाड़ी रूकी. सही पते की पुष्टि के बाद कुछ लिखा-पढ़ी हुई. गाड़ी से एक शव उतारा गया. एक और शव देखते ही वज्रपात हो गया. चारों ओर फिर से चीख-पुकार मच गयी. मिसिर परिवार के सात दुश्मन भी रो पड़े.
मिसराइन फिर से अचेत हो गयीं. बड़कऊ और उनकी पत्नी भी होश में कहाँ थीं? ग्राम प्रधान को पुलिस ने एकांत में बुलाकर पूरी घटना के बारे में बताया. प्रधान ने पुलिस की बात को एकाध खास लोगों को बताया. पल भर में यह बात फैल गयी कि छोटन भाई की साली के साथ खुलेआम गलत काम कर रहे थे. राहगीरों की मार से मौत हुई है. यह बात फैलते ही रोना-धोना कम हो गया. जितने मुँह उतनी बातें होने लगीं. नाउन ने कुछ महिलाओं को इस तरह की खुसुर-पुसुर करते सुना तो बिगड़ पड़ी— जा माता, अपने ही आँगन का पौधा न पहचान पायीं? हमार छोटन ऐसा न था. बड़ी तपस्या से आया था. चिड़िया-सा फुर्र हो गया. बेबस हाथ मलते रहिए. अलोप हो गया.
कुछ समझदार लोगों ने बाप के शव से एक कफन उतारा, बांस काटकर एक टिक्ठी सजायी और एक साथ दोनों शवों को लेकर श्मशान की ओर चल पड़े. बड़कऊ कभी बाप को कंधा देते, कभी भाई को.
अभी तक चौबीस घंटे भी न हुए थे कि वह वीडियो गाँव के एक लड़के के पास पहुँच गया. उसने श्मशान पर ही कुछ लोगों को दिखाया. थोड़ी ही देर में वीडियो कई मोबाइलों में पहुँच गया. सामने जलती लाशों से के प्रति रीति-रिवाज को छोड़ लोग झुंड-के-झुंड वीडियो देखने लगे. वीडियो से छोटन के गलत काम की पुष्टि हो चुकी थी. जितने लोग बोल रहे थे उन सबका यही विचार था कि अच्छा ही हुआ. ऐसे पापियों के साथ ऐसा ही होना चाहिए. कुछ लोग जरूर किसी भी हालत में इस पर भरोसा नहीं कर पा रहे थे. जो लोग कुछ नहीं बोल रहे थे, वे किसी को बेमौके पर इस तरह की बात करने से रोक भी नहीं रहे थे.
बाप के शव के बगल में जल रही छोटन की लाश सचमुच घृणा की ज्वाला में भस्म हो रही थी.
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आनंद पाण्डेय (अम्बेडकर नगर, 15 जनवरी 1983)
‘पुरुषोत्तम अग्रवाल संचयिता’ का ओम थानवी के साथ सह-संपादन तथा ‘सोशल मीडिया की राजनीति‘ नामक पुस्तक का संपादन. ‘लिंगदोह समिति की सिफारिशें और छात्र राजनीति‘ नाम से एक पुस्तिका प्रकाशित.
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