यक्षिणी यात्राओं के बारे मेंअंचित |
मुझको यात्राएँ आकर्षित करती हैं. यात्राओं में आप हमेशा सम्भावनाओं के बीच में होते हैं- कुछ भी नया घटने की सम्भावना और घटित में कुछ मिल जाने की सम्भावना. और फिर कवि तो ‘अनंत रिले-रेस’ में है. यानी उसके आसपास जो घटित हो रहा, ना सिर्फ़ वो इवेंट है, कवि ख़ुद भी एक इवेंट का हिस्सा ही है. ढाँचे का हिस्सा भी और ढाँचे से बाहर भी.
ब्लर्ब में अनामिका जी, साझी स्मृतियों की बात करती हैं, युंग से उधार लेते हुए. मैं सोच रहा हूँ ये साझी स्मृतियाँ कैसी हैं- चूँकि इवेंट चल रहा है, रेस जारी है, स्मृतियाँ अभी भूत हुई ही नहीं- तो क्या इस यात्रा में आवाजाही उन बंधनों से मुक्त है जिनसे इंसान और ईश्वर बँधे हैं और या तो कवि मुक्त हो सकता है या कवि की कल्पना और उसका विषय?समय की प्रकृति इस पूरी लिखत में बदल जाती है और कवि और कवि का सबजेक्ट, दोनों, एक दूसरे के बिलकुल पास चले आते हैं- अगर समय की कोई धारा है तो उससे परे- समय-तर!
कवि की इच्छा है, ऐसी स्थिति में ‘सच ‘ कहे, ‘पूरा’ सच कहे. हमारे समय में सच के साथ अपनी दुविधाएँ और चिन्ताएँ हैं लेकिन यह यहीं कह देना चाहिए कि कवि सत्योत्तर की तमाम सुविधाओं से परे जा कर पाँव टिकाने के लिए कोई आधार खोज रहा है- अपने से बाहर, स्वयं से अलग. कवि अपनी यात्रा में “युद्धों और मानवीय गरिमा की सदी से चलता हुआ वस्तुओं और वासनाओं की सदी में” आ गया है. और वह यहीं अस्त हो जाएगा लेकिन यात्रा जारी रहेगी.
आगे इधर फिर लौटूँगा.
जो हो रहा है वह कविता में हो रहा है, लेकिन उसका असर यहाँ- अगर वहाँ और यहाँ में भेद है- पर रिले रेस ने यहाँ और वहाँ का अलग होना ध्वस्त कर दिया है. वस्तुत: सब यहीं है- अर्थात एक ही है और अभी पूर्ण-घटित नहीं हुआ सो अनिश्चित है.
2.
यात्रा जो है, वह ‘अपनी भाषा का पानी’ देखने की कोशिश भी हैं, जिसमें ‘तुम्हारी परछाइयाँ’ (यक्षिणी की) हैं. पहली कविता यहीं ख़त्म होती है, कविता ख़त्म होने से पहले, आख़िरी हिस्से में “चुनार”, “सैकत पत्थर” जैसी ठोस चीज़ों से कवि तरल और ऐब्स्ट्रैक्ट चीज़ों की तरफ़ बढ़ जाता है. (भाषा का पानी). इसीलिए एक यात्रा यह भी है- जो स्थापित है, उससे अनिश्चित की तरफ़ – तयशुदा से सम्भावना की तरफ़.
कवि तमाम जतन भी इसीलिए कर रहा है. जो दृश्य है उससे अदृश्य की कल्पना- तीसरी कविता में कहता है “मुमकिन है वो बिलकुल ऐसी ही रही होगी.’ और उस यक्षिणी की आवाज़ सुनने के लिए एक और यात्रा पर कवि “दृष्टि और सृष्टि के सबसे पुराने अन्धकार”में चला जाता है. यह जगह कहाँ है- वहाँ, जहाँ पहुँच कर कवि ख़ुद घोषणा करता है कि अब वह, ‘देह और इतिहास के बाहर देखने’ लग गया है. (चौथी कविता). उस अन्धकार की जगह ऐसी है जहाँ शब्द और अर्थ के बीच का सम्बंध स्थापित नहीं हो पाता- जो पत्थर है वह पत्थर नहीं है और इसीलिए कवि भी (बस) पत्थर नहीं है. लगभग दर्शन और अतार्किक प्रेम के सामने सब अनश्वर- ‘ओझल हो जाना नष्ट होना नहीं’ (आठवीं कविता). यक्षिणी चूँकि किसी एक खाँचे में नहीं है, इसीलिए कई खाँचों में है- “कथा भी, प्रथा भी, व्यथा भी.” क्रियेशन का जादू ही है जो कवि को रचियता के सम-तुल्य बनाता है- “तराश दो तो एक पत्थर भी कितना कुछ कह सकता है”
लेकिन कवि ईश्वर नहीं है तो खंडित है तो धैर्य से परे है और इसीलिए एक हाईरार्की बन जाती है और इसीलिए कवि को यात्रा-पथ मिल जाता है और संभवतः इसीलिए वह तरल बन सकता है. धैर्य होता कवि में या समय में तो थम गया होता लेकिन उसके होने में अधीरता की बड़ी भूमिका है. इसीलिए कवि ख़ुद को ‘अधीर’ समय का यात्री बोलता है- सम्भवत: अपने काल का कुछ लेश मात्र उसमें छूट गया है, उससे प्रेरणा लेकर. यानी यह यात्रा कवि की निर्मिति की यात्रा भी है. वह आकार के बारे में सोच रहा है. अपूर्ण से श्रेष्ठ की तरफ़ जाते हुए- ऐसा श्रेष्ठ जो ज़रूरी नहीं कि किसी एक खाँचे में बैठ जाए- परिभाषा से ऊपर.
क्या यह उस तरह के दर्शन की बात है जहाँ जीव को जगत से होते हुए परम की तरफ़ बढ़ना है? क्या इसीलिए टी एस इलियट आख़िर में कैथ्लिक हो गया? क्या इसीलिए कमला दास जीवन के आख़िरी सालों में मुसलमान हो गयीं?
क्या कवि की यात्रा यही है- पार्थिव से मनुष्यतर (कवि कुँवर जी से यह शब्द उधार लेता है.), समय-तर, परम की तरफ़ बढ़ना?
क्या समस्त कला इसी ध्येय से निर्देशित नहीं होती?
3.
यह यात्रा अंतत: अन्वेषण भी है, कई अर्थों में. सबसे पहले स्वयं का अन्वेषण, स्वयं के होने का अन्वेषण , अपने कवि होने का अन्वेषण और उसकी स्वीकृति. “कवि हूँ…कहीं भी जा सकती है मेरी भाषा!” (इक्कीसवीं कविता) कवि बार बार यक्षिणी की यात्रा, उसकी आयु, उसके होने से अपने होने की तुलना करता है. कवि के पास यात्रा की आकांक्षा है तो उसके पास यात्रा के जतन भी हैं- उसकी भाषा, उसकी दोस्त है, यात्रा का मोड है, यात्रा का जतन है और यात्रा का मार्ग भी. तो यह यात्रा यक्षिणी समय में तो कर रही है लेकिन उसके लिए उसका हाथ पकड़ कर कवि की भाषा ही चल रही है- डांते के वर्जिल की तरह- “बाहर निकल पाती अगर” (चौबीसवीं कविता).
इसी यात्रा में छब्बीसवीं कविता में वह हतप्रभ होकर पूछ बैठता है कि वह शिल्पी कैसा जिसने यक्षिणी की काया पर अपना नाम भी नहीं खोदा, और अगली ही कविता में यह आश्चर्य कि, “प्यारे नारसिसस / प्यार हर कोई करता है स्वयं से”. उनतीसवीं कविता आते आते, उस यात्रा का आशय स्पष्ट होता है और वह यात्रा पूर्णत: प्रकट होती है जिसकी पूर्व-ध्वनियाँ पूर्व कविताओं में हैं. देह से ही विदेह की तरफ़, जहाँ से हिमालय और आल्प्स तक पहुँचा जा सकता है, यक्षिणी के बहाने उसके समय को जानने की कोशिश और इस तरह, “अपने भीतर छायाओं की तरह डोलते हज़ारों सालों के वन में खो जाने की” कोशिश.
कल्पना के झूले झूलते हुए कवि की “सारी इच्छाएँ धधक उठती हैं. वह ‘मेघों का स्वामित्व‘ सोचता है और चाहता है कि ‘सारा ज्ञान‘ उसके सामने प्रस्तुत हो और देखे कि कैसे कवि भाषा के सहारे अप्रत्याशित भी सम्भव कर सकता है. कवि सोचता है और “अलकापुरी” बस जाती है. कैसे कविता में सब विचार की और संवेदना की गति से सम्भव है.
जैसे ही कवि, ‘कल्पना के अनंत’ की तरफ़ बढ़ता है, मुझको लगता है कवि ने अभी तक यक्षिणी की कोई बात की ही नहीं. वह दरअसल अपनी कविता से बात कर रहा है, अपनी यात्राओं में तमाम प्रश्न कविता से ही पूछ रहा है, उसकी यात्राएँ, उसके अन्वेषण तमाम, उसकी सब चिन्ताएँ कविता में ही हैं, कविता से ही हैं और कविता को लेकर ही है.
स्पेंसर का एक प्रसिद्ध सॉनेट है, जिसमें वे कहते हैं, “my verse your virtues rare shall eternize” (मेरी कविता तुम्हारी ख़ास ख़ूबियों को अमर कर देगी) बहुत साल पहले, तब मित्र रही एक स्त्री ने एक प्रश्न मुझसे किया था कि अगर शेक्सपीयर को यह पंक्ति लिखनी होती तो कैसे लिखता!
उस स्त्री ने फिर ख़ुद ही कहा था कि शेक्सपीयर को नायिका की ख़ूबियों से कोई मतलब नहीं होता और वह सिर्फ़ अपनी कविता के बारे में सोचता.
इस विरोधाभास के बीच ही हर कवि की यात्रा है. कविता का उद्गम संभवतः यहीं है.
फ़ुटकर – एक
कविता के निकट आकर आप बंधनों से टूटने लगते हैं, ढाँचों का बिखराव, उनका दाँव, उनका खोखलापन आपकी समझ में आने लगता है- संदेह और अविश्वास आपके सबसे क़रीबी मित्र हो जाते हैं. बहुत मासूमियत और प्रथम स्पंदन की तरह एक कविता में यह ज़ाहिर है, इस तरह कि कवि भी हैरान होता है, इस तरह कि जैसे इस बात को स्वीकार करने के लिए वह बैठा हुआ तो था लेकिन इस बात का बोझ उसको परेशान कर देता है –
‘जब भी आता है तुम्हारा ध्यान
ईश्वर और उसके व्यासों की न्यायप्रियता पर संदेह
गहरा होने लग जाता है’
फ़ुटकर- दो
मिथ न सिर्फ़ बिम्ब होते हैं, जिस रहस्य और संस्कृति के संसर्ग से उनकी रचना होती है, उस घाटी में कवि के लिए अनेक कथायें बिखरी रहती हैं. ऐसे जैसे समुद्र-मंथन हुआ हो और समुद्र के तले से कवि के लिए अनेक प्रकार के अमृत निकल गए हों- बार बार नए होते हुए, बार बार नई तरह से कहे जाने की सम्भावना के साथ पैदा हुआ- कुछ एक थमा हुआ नहीं बल्कि अनेक सम्भावनाओं को अपने भीतर समेटे हुए – हमेशा ही प्रस्तुत लेकिन हमेशा स्पर्श से दूर.
यक्षिणी में उन सभी पूर्व-काव्यों का स्मरण चिंतन है जो यक्षों का मिथ रचते हैं और बार-बार अपनी परम्परा का भान है- कालिदास के मेघ अनेकों बार आते हैं, उनके यक्ष, उनका विरह बार बार कवि को याद आता है. रामगिरि तो एक स्थान है ही है. लेकिन यह अब सिर्फ़ एक यक्ष का नहीं है.
‘वे अकेले लोग
जो मॉरिशस गए थे
या क़तर और कैलिफ़ोर्निया जाते हैं
रामगिरि उन सबकी तड़प का घर है.’
कविताओं में मिथ रिडिफ़ाइन होते रहते हैं, जो अलौकिक है, वह लौकिक में लगातार बदलता रहता है. इसी तरह जो प्राचीन है, सामयिक में परिवर्तित होता जाता है.
फ़ुटकर तीन
संग्रह की साठवीं कविता सभ्यता की विचार-यात्रा है- शताब्दियों से चलते हुए आधुनिकता में स्थापत्य और फिर देखना उसके भी आगे उस ऋतु में, जो उत्तरोतर मेघ की ऋतु है. ‘अब मार्ग व्यक्ति विचार और अविचार/सब व्यभिचार की वारूणी के लिए पंक्ति में खड़े हैं. और यह कि ‘ये किसके पात्र हैं/किसके देवता किसके ऋषि/किसके नायक किसकी नायिकाएँ.’ यह अपने समय की ही तो बात है, जब हम रोज़ नए खुदा बना रहे हैं, नए ऋषियों के सामने नतमस्तक हो रहे हैं, नए नायकों के लिए युद्ध लड़ रहे हैं- विचार की यात्रा का यह सोशल-मीडिया युग ही तो है- अपने अच्छे के लिए भी, अपने बुरे के लिए भी.
लेकिन कवि परेशान है, यह समय उसको काटता है. सत्तरवीं कविता में कहता है – ‘अब नए जादू मुझे हैरान कर रहे हैं/और नए जादूगर परेशान.’ यक्षिणी का जादू, इस नए जादू से अलग है.
फ़ुटकर चार
कवि अपनी काव्य यात्रा के जिस पड़ाव पर है, कई चीज़ें स्वत: उसकी निर्मिति का हिस्सा हो चुकी हैं और अपनी पहले की कविताओं की तरह इस किताब में भी (जिसको वह महाकाव्य नहीं कहता, क्योंकि वह कालिदास सरीखा नहीं हो सकता) अपने समय में लगी हुई कीलों की तरफ़ इंगित करता चलता है, उसका समयबोध, उसकी यात्राओं के बनिस्पत भी स्वत: ज़ाहिर होता है, सहज ज़ाहिर होता है –
क्रोध कुबेरों का मनोरंजन है.” ऐसे ही, “आता है कोई चतुर सुजान/और राजा को ईश्वर का अवतार बता जाता है/आता है कोई नीतिज्ञ/और धर्म को राजा का छत्र बना जाता है.” कवि जाना तो अलकापूरी जाना चाहता है लेकिन उसका समय ऐसा है कि उसकी कविता लाशें गिन गिन कर थक गई है.
अंत में
किताब ख़त्म होते होते, कवि की इच्छाएँ घटने लगती हैं. उसको थोड़े की ही चाह रह जाती है- ‘अनिश्चित यात्रा में कुछ अंतरंग परछाइयाँ हों/ यही बहुत है!’ अपनी कविता से बस इतनी सी चाह, बस इतना ही प्रयोजन, बस इतनी ही महत्वाकांक्षा.
ये कविताएँ यात्राएँ ही हैं, कल्पना के अनंत में, वहाँ जहाँ मुक्ति है. “मुक्ति यानी इच्छाएँ चाहे जहाँ ले जाएँ.” यक्षिणी इस यात्रा की सहयात्री बने, यक्षिणी इस यात्रा का बिम्ब, यक्षिणी इसी यात्रा से मुक्ति क्योंकि,
“एक आदिम छाया की ऊँगली थामे
कहीं जा सकता है कोई
वस्तुओं के भीतर
बादलों के पार
कहीं भी.”
और कवि अपनी यात्रा के अंत की कल्पना करता है. अंत में वह अपने समय में लौटता है. वह रोशनी से अंधेरे की तरफ़ लौटेगा. वह आदमी है, इस लोक का है, वह यात्रा तो करेगा लेकिन उसका घर यहीं हैं.
जिस जल की तलाश उसकी प्यास को है, वह जल जीवित हुए पत्थर में नहीं, हाड़-माँस में है, कविता में नहीं है, जीवन में है- इसीलिए तमाम रास्ते तय कर लेने, अपने बंधनों के साथ यात्राएँ कर लेने, समय पार कर लेने के बाद भी, कवि मनुष्य है और मनुष्य है तो माया है, मोह है- उस जल जिसको पीकर-
‘बच सकते हैं…बचे खुचे प्राण
उस स्त्री की आत्मा में बसते हैं
जो…मनुष्य है…यक्षिणी नहीं!
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