कहानी लिखने की कला
तनुज सोलंकी
(अनुवाद: भारतभूषण तिवारी)
उसे आँख में गोली मारी गई थी और पुलिस को इस बात से इंकार नहीं था, क्योंकि यह बात एक मेडिकल रिपोर्ट में लिखी थी और इसलिए एफ़आइआर भी इस तथ्य को लेकर होनी थी कि उसे आँख में गोली मारी गई थी.
उसे पॉइन्ट-ब्लैंक रेंज से आँख में गोली मारी गई थी और उसके चेहरे की दुर्दशा देखकर यह बता पाना मुश्किल न था, मगर ऐसा कोई बयान नहीं था जो यह बात साफ़-साफ़ कहता, दूसरी बात यह कि दूरी कितनी थी यह पता करने के लिए ज़ख्म की कोई मेडिकल जाँच भी नहीं हुई थी, और चूंकि ये दोनों ही बातें अब (वारदात को हुए कुछ महीने बीत चुके थे) स्थापित नहीं की जा सकती थीं इसलिए एफ़आइआर लिखनेवाले ने इस तथ्य को हटा देना वाजिब समझा कि उसे पॉइन्ट-ब्लैंक रेंज से आँख में गोली मारी गई थी.
जब उसे अनिश्चित सी दूरी से आँख में गोली मारी गई थी तब वह अपने घर से बेहद नज़दीक था मगर चूंकि अपने घर से इतने पास होते हुए हमला होने की बात से हमलावर/रों की हिम्मत बड़ी साफ़ नज़र आती है, इस तथ्य को हटा दिया गया और एफ़आइआर ने यह कहने का तरीका ढूँढ़ निकाला कि उसे आँख में गोली उस जगह मारी गई थी जो उसके घर से लगभग आधा किलोमीटर दूर थी.
एक अनिश्चित सी दूरी से आँख में गोली मारी जाने से पहले जब वह अपने घर से लगभग आधा किलोमीटर दूर था तो उसे तकरीबन दो दर्जन लोगों ने घेर लिया था जिनमें से बहुतों को वह जानता था क्योंकि वह उनके पड़ोस में रहता था और सारे के सारे उसे लात-घूँसे मारते हुए ‘जय जय!’ चिल्ला रहे थे मगर चूंकि मेडिकल रिपोर्ट में उसकी आँख के अलावा किसी और चोट का ज़िक्र न था, और चूंकि ‘जय जय!’ नारे की कोई रिकॉर्डिंग नहीं थी, तो इन तथ्यों को हटा दिया गया जबकि इस तर्क को मद्देनज़र रखा गया कि अपने घर से लगभग आधा किलोमीटर दूर एक अनिश्चित सी दूरी से आँख में गोली मारी जाने के लिए दर्जनों आदमियों की दरअसल कोई ज़रूरत न थी और इसीलिए एफ़आइआर में किन्हीं नामों का उल्लेख नहीं था और बस इतना दर्ज था कि अपने घर से लगभग आधे किलोमीटर की दूरी पर क्रॉस-फ़ायरिंग में उसकी आँख में गोली लगी थी.
बाईं आँख में गोली खाने पर वह होश खो बैठा था और उस पर हमला करने वाले, जो उससे एक रहस्यमयी और अनिश्चित सी दूरी पर थे, उसे मरने के लिए छोड़ गए थे मगर इस तथ्य की कोई विशेष प्रासंगिकता नहीं थी और इसीलिए एफ़आइआर में इसका ज़िक्र बिलकुल न था.
बाईं आँख में गोली लग जाने के कुछ मिनटों बाद उसे वापिस होश आया और मदद के लिए अपने इर्दगिर्द किसी को न पाकर और इस डर से कि आँख में गोली लगने का मतलब मौत पक्की है उसने अपने ख़ुदा से दुआ की कि उसे सड़क पर मौत न आए, वह कुत्ते की मौत न मरे, कि वह अपने घर की दहलीज़ तक किसी तरह पहुँच जाए और शायद उसकी दुआ में असर था इसलिए वह अपने पैरों पर खड़ा होकर और पचासेक मीटर चलकर घर पहुँच पाया, मगर चूंकि दूरी पहले ही आधा किलोमीटर बताई जा चुकी थी और चूंकि लहूलुहान खोपड़ी लिए आदमी के लिए आधा किलोमीटर की दूरी बहुत होती है, एफ़आइआर में चलकर घर जाने की बात का ज़िक्र न था.
एक अनिश्चित सी दूरी से अपनी बाईं आँख में गोली खाने और किसी तरह घर पहुँचने के बाद उसके परिवार वाले उसे अस्पताल ले जाने की हर संभव कोशिश तब तक करते रहे जब तक एक रिक्सावाला, जिसके मज़हब का पता न लगाया जा सका, न मिल गया, जो फिर उसे और उसके परिवार के दो और सदस्यों को अस्पताल ले तो गया पर रास्ते में दो दफ़े ‘जय जय!’ भीड़ द्वारा तक़रीबन धर लिया गया मगर दोनों ही मौकों पर वह ऐसी गज़ब की तेज़ी से उनसे बच निकला कि बाद में परिवार वालों ने कयास लगाया था, ख़ासकर इसलिए कि उन्हें उसका चेहरा याद न रहा, कि रिक्शावाला शायद किसी और ही दुनिया का रहा होगा, मगर चूंकि एफ़आईआर ने शिकायतकर्ता को उसकी रिहाइश वाली जगह से आधा-किलोमीटर दूर रखा था और चलकर घर जाने की बात का ज़िक्र न था, तो रिक्शावाले की कहानी को, जो वैसे ही पारलौकिक प्रतीत हुई जा रही थी, शामिल करना संभव न था और चूंकि पुलिस ने मीडिया के समक्ष- और कुछ दीगर एफ़आइआरों में भी- यह भूमिका ले रखी थी कि इलाक़े के सारे घायलों को अस्पताल वह ले गई थी, तो एफ़आईआर में कही जा सकने वाली एकमात्र चीज़ यह थी कि अपने घर से लगभग आधे किलोमीटर की दूरी पर होते हुए क्रॉस-फ़ायरिंग में गोली खा चुकने के बाद शिकायतकर्ता को (पुलिस द्वारा) अस्पताल पहुँचाया गया.
अपनी बाईं आँख में गोली खा चुकने के बाद, (पुलिस द्वारा) अस्पताल पहुँचा दिए जाने के बाद, डॉक्टरों के यह कह चुकने के बाद कि वह ज़िन्दा रहेगा, दंगों के थम चुकने और उसके घर पहुँच चुकने के बाद- या कह लें बदतरीन के बीत चुकने के बाद- न्याय की ज्वलंत उत्कंठा ने उसके दिल में जगह जमा ली थी और वह शिकायत दर्ज करवाने पुलिस थाने पहुँचा था, मगर उसने पाया कि शिकायत दर्ज करना कोई आसान काम नहीं क्योंकि शुरुआती कुछ मौकों पर ने पुलिस इसे वक़्त देने लायक नहीं समझा, फिर धावा बोला महामारी ने जिसके पीछे-पीछे लॉकडाउन आया, जिससे चीज़ों पर स्थगन लग गया क्योंकि पुलिस स्वयं वायरस पर लाठियाँ बरसाने और फिर लाखों मज़दूरों को शहर में लॉक कर देने में व्यस्त हो गई, और जब यह सब हो रहा था, जब बन्दिशों के चलते दुःख-तकलीफ़ें बढ़ रही थीं, जब भूख और अपने गाँव-जवार की याद से लोग परेशान थे, तब उनकी समस्याएँ उसकी अपनी समस्या में मिलने लगीं और इस कदर मिलने लगी कि उसकी तकलीफ़ ख़ुद किसी बन्दिश का रूप लेने लगी पर फिर जब आख़िरकार लॉकडाउन उठा लिया गया तब एक नई उम्मीद जाग उठी और वह फिर पुलिस थाने में नमूदार हो सका ताकि वह कहानी बता सके कि उसे आँख में गोली कैसे लगी थी.
जब लॉकडाउन बीत चुका, वह पुलिस थाने गया जहाँ पहले की ही तरह जिस पुलिसवाले को उसकी शिकायत लेनी थी उसने इस बात में कोई रुचि नहीं दिखाई कि उसे आँख में गोली कैसे लगी और असल में उसे धमकाया कि उसके बारे में दुबारा बात करने पर अंजाम ठीक नहीं होगा, मगर ख़ुशकिस्मती से यह धमकी एक वकील ने सुन ली जो किसी वजह से उस कमरे में मौजूद था, जिसने फिर उस आदमी की तरफ़ से पुलिसवाले का सामना किया और वहीं उसी वक़्त उसकी कहानी लिख ली- तथ्यों वाली कहानी: कि वह आदमी अपने घर से बेहद नज़दीक था, कि भीड़ ने उसे घेर लिया था और पीटा था, कि उसे पड़ोसी ए ने पॉइन्ट-ब्लैंक रेंज से गोली मारी थी और दीगर पड़ोसी अ ,ब ,स और द भी भीड़ में शामिल थे, कि उन्होंने उसे मरने के लिए छोड़ दिया था, कि वह चल कर अपने घर पहुँचा था, कि उसे रिक्शे में अस्पताल पहुँचाया गया था- जो फिर उसने पुलिसवाले को दे दी; और फिर भी, बावजूद इसके, जो एफ़आइआर तैयार हुई उसमें लिखा था कि इस आदमी को क्रॉस-फ़ायरिंग में गोली लगी थी, कि उसे अनिश्चित सी दूरी से बाईं आँख में गोली लगी थी, और यह कि उसे (पुलिस द्वारा) तुरंत अस्पताल पहुँचाया गया था.
बाईं आँख में गोली लगने वाली बात को चार महीने से ज़्यादा हो चुके थे और पुलिस थाने में उसके बयान की प्राप्ति को लगभग एक महीना बीत चुका था कि एक जवान पुलिसवाला एफ़आईआर की एक प्रति उसे देने आया जिसमें कहानी कुछ इस तरह पेश की गई थी कि उसका हरेक पन्ना पलटते हुए वह भौंचक्का होता गया और आख़िरकार पुलिसवाले से, जो अब तक अपना मास्क पहने हुए था, पूछ बैठा, ‘यह कहाँ से आया, भाई?’
यह सुनकर पुलिसवाले ने कागज़ उसके हाथों से अपने हाथों में लिए और उसमें दर्ज एक तारीख़ पर उँगली से थपथपाते हुए बोला, ‘अस्पताल में तुमने जो बयान दिया था, उससे’ और फिर वह तारीख़ देखकर उस आदमी को धक्का सा लगा क्योंकि जिस दिन उसे गोली लगी थी वह उसके एक दिन बाद की तारीख़ थी मतलब जिस दिन वह अस्पताल में बेहोश था, और ऐसी हालत में वह कोई बयान नहीं दे सकता था, और सच्चाई यह थी कि अस्पताल में जितना वक़्त वह रहा उसमें कोई बयान दे ही नहीं सकता था, उसके परिवार वालों के अलावा कोई उससे नहीं मिला था- न पुलिस,न मीडिया, न शुभचिंतक- इसलिए उसने ज़ोर से अपना सर हिलाया और हाथ जोड़कर कहा ‘ना ना ना’ और पुलिसवाले को असलियत समझाने की कोशिश की, जिस पर पुलिसवाले ने ‘साहित्य’ के गुणों के बारे में अमूर्त ढंग से बात करना शुरू किया कि उम्दा और विश्वसनीय साहित्य कभी भी यथार्थ के बारे में न होकर हमेशा ही आवश्यक के सम्भाव्य में मिश्रण के बारे में होता है, और कैसे, दरअसल, सम्भाव्य की भी कोई अहमियत नहीं, अहमियत केवल आवश्यक की है, वह हमेशा ही प्रथम प्रयोजन रहा है और रहेगा और सम्भाव्य को उसकी सेवा करनी होगी, और फिर पुलिसवाले का लहजा अचानक बदल गया और वह एफ़आइआर के मुद्दे पर पहुँचा यह कहते हुए कि जो दस्तावेज़ उसे आज मिला है वह वास्तविकता का दस्तावेज़ न होकर आवश्यकता का है और जो कुछ संभव था वह उसमें जोड़ दिया गया है उस आवश्यकता को पुख़्ता बनाने के लिए और इसलिए कुल मिलाकर उस आदमी को उसकी अंतिम सलाह यह होगी कि वह आवश्यकता को स्वीकार करे, कि जो लिखा है उसे सच मान ले, कि वह बाकी सब भूल जाए, क्योंकि ऐसा न करने पर वह वह आदमी बन सकता है जिसे किसी दिन अपने घर से थोड़ी ही दूरी पर, दाहिनी आँख में एक अनिश्चित सी दूरी से गोली मारी जा सकती है.
मुज़फ़्फ़रनगर, उत्तर प्रदेश में जन्मे तनुज सोलंकी कोटक लाइफ इंश्योरेंस कंपनी में कार्यरत हैं, अंग्रेज़ी में तीन किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं. 2019 में कहानी संग्रह ‘दीवाली इन मुज़फ़्फ़रनगर’ के लिए साहित्य अकादमी युवा पुरस्कार से सम्मानित हैं. गुड़गाँव में रहते हैं.
tanuj.solanki@gmail.com
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भारतभूषण तिवारी/bharatbhooshan.tiwari@gmail.com