हिंदी की सांस्कृतिक अंतर्कथाविनोद शाही |
आधुनिक काल में भाषा को मुख्यतः सामाजिक संप्रेषण की वस्तु के रूप में देखा समझा जाता है. इस दृष्टि का संबंध भाषा के उपयोगितावादी रूप से अधिक है. तथापि हम नहीं जानते कि किसी भी भाषा की उत्पत्ति कब और कैसे हुई.? हम उसके ज्ञात इतिहास के आइने में ही भाषा के चेहरे को देखने की कोशिश किया करते हैं. भाषा के उद्गम संबंधी प्रचलित दृष्टिकोण, जो उसे सामाजिक संप्रेषण और उपयोगिता से जोड़ते हैं, ज़्यादातर पश्चिम से आये हैं. पर अब हिन्दी की बाबत बात करते हुए हम भी, ‘देवभाषा’ के रूप में उसके उद्गम की अपनी पारंपरिक समझ को, एक ओर रखने लगे हैं और सारी चर्चा संप्रेषण के दायरे और उपयोग की संभावनाओं के आसपास सिमट गयी है.
हिंदी की बात होते ही आजकल विद्वानों से लेकर सरकारी वक्तव्यों तक में इस बात पर ज़ोर रहता है कि हिन्दी बोलने वालों की तादाद कितनी बड़ी है? यानी संप्रेषण के माध्यम के रूप में उसका दायरा कितना बढ़ा है. इस संदर्भ में कहा जाता है कि हिंदी ने, संख्या बल के आधार पर चीनी मेंडेरिन तक को पीछे छोड़ दिया है और अब वह दुनियां की तीसरी सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा हो गयी है.
दूसरी बात हिंदी की उपयोगिता की है. उस संदर्भ में कहा जाता है कि हिन्दी का महत्व सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में कितना बढ़ा है. कितने सौफ्टवेयर, कितने चैनल, कितने अखबार और कितनी फिल्में हिन्दी में बनती हैं और उनके देखने वालों और प्रयोक्ताओं की संख्या कितनी बड़ी है.
वैसे कुछ लोग एक तीसरी दृष्टि से भी हिंदी पर विचार करते हैं. वे यह बात करते दिखाई देते हैं कि किसी भी भाषा का महत्व उसकी अंतर्वस्तु से होता है. यह बात की जाती है, पर दबी ज़ुबान में, क्योंकि आधुनिक ज्ञान विज्ञान के मामले में हिंदी का पिछड़ापन जग जाहिर है. इसलिये इन दिनों सरकारी घोषणाओं में कहा जा रहा है कि हिंदी को अनुवाद की नहीं, मौलिक चिंतन और ज्ञान की भाषा बनाइये. यह बात सुनने में अच्छी लगती है. पर क्या यह मुमकिन भी है?
दरअसल वस्तुस्थिति यह है कि अनुवाद, मौलिक चिंतन और ज्ञान के दौर में प्रवेश करने की भूमिका बनाते हैं. अनुवाद का महत्व दो कारणों से होता है. पहला यह कि अनुवाद ऐसी कृतियों का होता है, जिन्हें कोई भाषा अपने मौजूदा ज्ञान विज्ञान के स्तर से ऊपर पाती है. तो उसका फायदा एक तरह के परकाया प्रवेश की तरह उठाया जा सकता है. इससे किसी भाषा का आत्म विस्तार होता है. और दूसरा महत्व होता है, नींद तोड़ने के लिये चुनौती देने का. अनुवाद किसी भाषा की यथास्थितिवादी जड़ता को तोड़ सकता है. इससे ज्ञान के मौलिक विकास के लिये ज़मीन तैयार होती है. पर नुकसान भी हो सकता है. अनुवाद पर अधिक निर्भरता किसी भाषा भाषी समाज को पराश्रित बना सकती है. इस वजह से हिन्दी में आधुनिक काल के आरंभिक दौर से ही औपनिवेशिकता के प्रतिरोध के स्वर मुखरित हुए हैं. राष्ट्रीय चेतना के उभार के साथ-साथ पश्चिमी ज्ञान विज्ञान के आरोप को संदेह की निगाह से देखने की प्रवृत्ति भी सामने आयी है. अकादमिक क्षेत्र पूरी तरह पश्चिमी ज्ञान विज्ञान के विकास के समकक्ष होने में अपनी शक्ति लगाते रहे हैं. इसे ‘कैचिंग अप विद द वैस्ट’ के दुष्चक्र की तरह भी देखा जाता है, जिसे तोड़ना मुमकिन नहीं लगता. विकास और प्रगति की संभावनाएं इसी वजह से पश्चिम का मुंह जोहती हैं और अंग्रेज़ी को हिंदी से अधिक महत्वपूर्ण बना देती हैं.
आधुनिक नवजागरण का इतिहास बताता है कि मध्य एशियायी इस्लामी नवजागरण और यूरोपीय नवजागरण, दोनों के पीछे अनूदित ग्रंथों की बड़ी भूमिका थी. इससे अरबी फारसी और यूरोपीय भाषाओं के ज्ञान विज्ञान मूलक विकास में अभूतपूर्व उछाल देखा जा सका था. ग्रीकोरोमन ग्रंथों को सातवीं आठवीं शती में मध्य एशिया के इस्लामी मुल्कों में लाया गया और उनके अनुवाद कराये गये. इससे वहां इतिहास, समाजशास्त्र, नीतिशास्त्र, किताबत आदि क्षेत्रों में वैज्ञानिक चेतना का विकास हुआ. परंतु उसके भीतर से इस्लामी साम्राज्यवाद का सत्ता विमर्श भी निकला. तेरहवीं चौदहवीं शती में इस्लामी नवजागरण का पतनकाल आरंभ हो जाता है. वहां के ज्ञान विज्ञान मूलक साहित्य को अनेक यूरोपीय विद्वान इटली और फ्रांस में वापिस लाते हैं. उन ग्रंथों का यूरोपीय भाषाओं में अनुवाद होता है. नतीजतन यूरोप रेनेसां के दौर में प्रवेश करता है.
पर जिसे हम अपने यहां प्रकट हुआ उन्नीसवीं बीसवीं शती का हिंदी नवजागरण कहते हैं, उसमें यूरोपीय ग्रंथों के हिंदी अनुवाद उतनी बड़ी भूमिका नहीं निभाते, जितनी कि सीधे अंग्रेज़ी भाषा में उपलब्ध करा दी गयी अकादमिक शिक्षा का महत्व नज़र आता है. हिंदी में अनुवाद होते हैं, पर सीमित रूप में.
नतीजतन हिंदी नवजागरण, औपनिवेशिक दौर में, राष्ट्रीय चेतना के विकास में सहयोगी होने के कारण तो महत्वपूर्ण प्रतीत होता है, पर ज्ञान विज्ञान के मौलिक विकास में उसकी भूमिका कुछ विशेष दिखायी नहीं देती.
राष्ट्रीय चेतना के सरोकारों से युक्त होने की वजह से हिंदी नवजागरण, अपने संस्कृत काल की ओर अधिक देखता है और ज्ञान विज्ञान के मौलिक विकास के लिये अपनी ज़मीन के स्रोतों की ओर मुड़ने का आग्रह करता है. तथापि इस दिशा में बहुत प्रगति नहीं हो पायी. प्राचीन ग्रंथों के हिंदी में अनुवाद तो होने लगते हैं, परंतु उनकी वैज्ञानिक पुनर्व्याख्या, हमें खुद को पश्चिम से बेहतर साबित करने के अति उत्साह में अधिकांशतः पुनरुत्थानवादी बना देती है. जैसे दयानंद सरस्वती की ‘ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका’ है. सभ्यता मूलक पुनर्व्याख्या करते हुए महात्मा गांधी भी हिंद स्वराज में हिंदी को संपर्क भाषा की दृष्टि से ही महत्वपूर्ण साबित कर पाते हैं, जिसका मकसद ‘पिशाचिनी आंग्ल सभ्यता’ के मुकाबले अपने मानवीय और नैतिक मूल्य की का महत्व साबित करना होता है. इससे भी हिन्दी के ज्ञान विज्ञान मूलक मौलिक विकास के रास्ते कुछ अधिक नहीं खुल पाते. हम बस इतना जान पाते हैं कि हिंदी हमें लोक से सीधे जोड़ती है,, अपनी बाहरी और आंतरिक प्रकृति के अधिक करीब और अधिक मानवीय होने में मदद करती है.
इस तरह हिन्दी से जुड़ने का मतलब है, राष्ट्र की आत्मा के करीब होना और मनुष्य केंद्रित सोच के साथ ज्ञान विज्ञान के एक नये मौलिक प्रस्थान के लिये खुद को तैयार करना. इससे हम हिंदी की उन संभावनाओं को खोलने और खोजने की ओर आगे बढ़ते हैं, जो हमें ही नहीं, पूरी मानवजाति को बेहतर मनुष्य होने का रास्ता दिखा सकती है.
इससे यह साबित होता है कि हिंदी की एक अपनी तरह की अलग और विशिष्ट सभ्यता संस्कृति मूलक अंतर्भूमी है, जिसे समझे बिना हम यह तय नहीं कर सकते कि हिंदी हमारे ज्ञान विज्ञान के मौलिक विकास के किस अलग और विशिष्ट मार्ग का संधान करती है.
अपनी इस विशिष्ट सभ्यता संस्कृति मूलक ज़मीन पर उतरने के लिये हमें देखना होगा कि हिंदी की मूल प्रकृति क्या है? ऐसा करने से हम यह तय कर पायेंगे कि हमारी भाषा की मूल प्रकृति हमें किस तरह के विकास की ओर आगे ले जा सकती है?
दुनिया की कोई भाषा ऐसी नहीं, जिस में ज्ञान विज्ञान की सभी शाखाओं और रूपों का बराबर विकास संभव हो.
यूरोपीय भाषाओं की जो मूल प्रकृति है, वह उन्हें विशुद्ध ज्ञान से अधिक, कला, विज्ञान और भौतिक शक्ति संग्रह के विकास की ओर प्रवृत्त करती है.
मध्य एशियायी अरबी फारसी आदि की मूल प्रकृति उन भाषाओं को इतिहास, मजहब, नैतिकता और सत्ता अधिग्रहण के प्रश्न पर अधिक केंद्रित करती है.
इनकी तुलना में संस्कृत के मूल वाली भारोपीय शाखा वाली हमारी भारतीय भाषायें विशुद्ध ज्ञान के दार्शनिक रूपों, उससे जुड़े गणित, खगोल विद्या व ज्योतिष के सवालों तथा जीवन मूलक आध्यात्मिक विकास पद्धतियों पर अधिक ध्यानस्थ रहती हैं. जहां तक यूरोपीय भाषाओं का सवाल है, वे भी हैं तो भारोपीय भाषा परिवार की ही, परंतु वे भारतीय भाषाओं की तुलना में अधिक मूर्त्त भौतिक जगत की ओर उन्मुख दिखायी देती हैं. इसके पीछे सांस्कृतिक विकास के उस दौर में सामने आया अंतर है, जिसे जागरणकाल कहा जाता है. ग्रीको रोमन दर्शन काल में यूरोप की चिंतन धारा के विकास की दिशा, आदर्श विचार से पदार्थ की ओर दिखायी देती है. जबकि हमारे वैदिक आधार वाले उपनिषदों व दर्शनों में, भौतिक पदार्थों से आरंभ करके उनके, सूक्ष्मता स्तरों की खोज की दिशा पकड़ी गयी. जैसे गायत्री मंत्र में ‘भूर्भुवः स्वः’ है. उसमें ‘ यानीभू’ भौतिक जगत से आरंभ करके, ‘भुवः’ यानी मन, वायु या अंतरिक्ष लोक तक, और फिर वहां से ‘स्वः’ यानी स्व से संबद्ध आत्मा या आदित्य लोक की ओर रुख किया गया है.
उपनिषद, ‘अन्नमय कोश’ से आरंभ करके, ‘प्राणमय’, ‘मनोमय’ और ‘विज्ञानमय’ कोश से होता हुआ आखिर ‘आनंदमय कोश’ तक पहुंचता है. इससे हमारे चिंतन की दिशा मूर्त से अमूर्त्त की ओर हो गयी. अमूर्त्त से मूर्त्त की ओर आता पश्चिम भौतिक यथार्थ के विविध विज्ञानों की तर्क विधि वाली भाषा बोलने लगा. उनकी तुलना में हम भौतिक संसार की परिवर्तनशीलता और क्षणिकता को रेखांकित करते हुए, गहरे सच की ज़ुबान वाली भाषा की ओर चले गये. यही वजह है कि हमारी भाषा की समझ, मूलतः ‘वाणी’ या ‘वाक्’ की समझ मे बदल गयी. एक वैदिक ऋचा कहती है कि मनुष्य भाषा के एक ही आयाम को समझ पाते हैं, शेष तीन उसके सामान्य बोध के लिये गूढ़ बनाए रहते हैं. इस आधार पर भर्तृहरि जैसे वैयाकरण, भाषा के सामान्य रूप को, जिसे सब समझ सकते हैं, ‘वैखरी’ कहते हैं. जबकि उसके गूढ़ या गहरे पक्षों को ‘मध्यमा’, ‘पश्यंती’ और ‘परा’ के रूप में देखा गया. उनके चिंतन में भाषा की जगह वाक् या वाणी की बात अधिक नुमाया है. हिंदी की मूल प्रकृति को, इस सांस्कृतिक ज़मीन से जोड़े बिना, उसके विकास की संभावनाओं को खोजना कठिन हो सकता है.
इस विवेचन से हम यह समझ सकते हैं कि हिंदी में ज्ञान विज्ञान के मौलिक विकास की संभावनाएं तभी अधिक मुखर हो सकती हैं, जब हम अपनी खोज को कुछ खास क्षेत्रों पर केंद्रित करेंगे. इनका संबंध अमूर्त विषयों से अधिक हो सकता है. जैसे गणित, खगोलशास्त्र, जीवन और मस्तिष्क के रहस्य जैसे क्षेत्र हैं. हिंदी भाषा भाषी समाज ऐसे विषयों और क्षेत्रों की गहराई में शेष भाषाओं की तुलना में अधिक उतर सकता है. ये क्षेत्र हिंदी की अपनी अलग और विशिष्ट सांस्कृतिक ज़मीन से खाद पानी ग्रहण कर अधिक तेज़ी से पल्लवित हो सकते हैं.
इनके अलावा हिंदी को ज्ञानभाषा के रूप में विकसित करके समृद्ध बनाने का काम आध्यात्मिक क्षेत्र में भी सहज संभव है. तथापि यहां इस बात को रेखांकित करना ज़रूरी लगता है कि हिंदी का मौजूदा परिदृश्य इस संदर्भ में कुछ भटक गया सा लगता है. अनेक कारणों से हिन्दी की आध्यात्मिक यथार्थ वाली ज़मीन पर भाव-भक्ति वादी धार्मिकता कब्ज़ा जमा कर बैठ गयी है. अध्यात्म का विकास मनुष्य और प्रकृति के सीधे रिश्तों की भूमि पर होता है. जबकि धार्मिकता प्रकृति और मनुष्य दोनों को गौण बनाकर, उनकी जगह ईश्वर, अवतार शास्त्र और कर्मकांड को ले आती है.
हिंदी भाषा के विकास के इतिहास पर एक निगाह दौड़ायें. आप यह बात आसानी से देख समझ पायेंगे कि हिंदी ने, अध्यात्म को अपनी विद्रोही चेतना के द्वारा सींच कर बचाया है और ऐसा करने के लिये उसने, सत्ता के विविध रूपों को बार बार चुनौती दी है. सत्ता के ऐसे रूपों में ब्राह्मण और मौलवी के सामंतों बादशाहों से संबंध खास तौर पर नुमाया रहे हें. सत्ता के सामाजिक रूपों में आती है वर्णाश्रम समर्थित जाति व्यवस्था. सांस्कृतिक तल पर, सत्ता को कर्मकांड व्यवस्थित व स्थापित करते हैं.
जबकि हिंदी की आत्मा को, वह आध्यात्मिक चेतना वाणी प्रदान करती है, जो सत्ता के इन तमाम रूपों को साहसपूर्वक चुनौती देती रही है. यह आध्यात्मिक चेतना मूलतः समन्वयवादी है, परंतु यह जो समन्वय लाती है, वह लाक्षणिक न होकर, तात्विक है. वह विविध देवी देवताओं या ईश्वर और अल्लाह को एक दूसरे की बगल में बिठा कर समन्वय नहीं करती, वह चेतना की मानवीय भूमि पर, मनुष्य को सर्वोपरि मानने की आधार भूमि पर खड़ी होकर समन्वय करती है. यह तात्विक समन्वय ही वास्तविक धर्मनिरपेक्षता है. उसमें धर्म शेष नहीं बचता. वह न हिंदू को हिंदू रहने देता है, न मुसलमान को मुसलमान. इसके उलट वह जो धार्मिक समन्वय है, वह धर्म की मानवीय ज़मीन की बात करके धर्म को बचाता है. वह कहता है कि एक अच्छा हिंदू और एक अच्छा मुसलमान, दोनों अपनी-अपनी जगह अच्छे हैं. इन दोनों बातों के फर्क को समझना इसलिये ज़रूरी है, क्योंकि उसके आधार पर हिंदी के उद्भव और विकास की सांस्कृतिक व्याख्या संभव है.
हिंदी के उद्भव काल को एक हज़ार ईस्वी के आसपास माना जाता है. आठवीं शती में हर्ष के बौद्ध साम्राज्य के बिखर जाने के बाद भारत पर अनेक इस्लामी शासकों के हमले होने लगते हैं. भारत के कुछ भूभागों पर उनके कब्ज़े और लूटमार की घटनाएं, थोड़े थोड़े अंतराल के बाद घटित होने लगती हैं. मुहम्मद बिन कासिम का सिंध पर कब्ज़ा आठवीं शती में ही देखने को मिल जाता है. वह इस्लाम का उत्कर्ष काल भी है, जिसमें उसका साम्राज्यवादी विस्तार होने लगता है. तथापि सिंध में इस्लामी शासन के दौरान ही वहा हिंदू इस्लाम संस्कृतियों के समन्वय के सुबूत मिलने लगते हैं.
उस दौर की एक प्रसिद्ध सूफी रचना ‘दमादम मस्त कलंदर’ में झूलेलाल को एक पीर की तरह याद किया जाता है.
दसवीं शती के बाद से मध्य एशिया से भारत आने वाले सूफियों के पूरे सिलसिले ही दिखाई देने लगते हैं. नाथ योगियों से उनकी निकटता का नतीजा, मुसलमान जोगियों के संप्रदाय के प्रकट हो जाने के रूप में, सामने आता है. हिंदी के उद्भव की सांस्कृतिक ज़मीन इसी तरह के समन्वय के द्वारा निर्मित होती है.
हिंदी की सांस्कृतिक अंतर्कथा के यही दो महानायक हैं, मुसलमान सूफी जो जोगी हो सके और नाथ सिद्ध, जो निरगुन संतों के रूप में यह कह सके कि ‘मानुस की जाति एक ही होती है’ और उनमें ‘न कोई हिंदू है न मुसलमान’. हिंदी की इस सांस्कृतिक अंतर्कथा का समाजार्थिक पहलू, रेशम मार्ग से होकर तिजारत करने निकले व्यापारियों से ताल्लुक रखता है, जो भारत और मध्य एशिया के बीच आवाजाही करते थे. इधर डिंगल, व्रज, अवधी और पंजाबी जैसी भाषाएं बोलने वाले थे और उधर अरबी फारसी के लोग थे. इतनी सारी भाषाओं की आपसदारी ने हिंदुस्तान को एक नयी ज़ुबान दी, जिसका नाम था हिंदी.
हिंदी, यानी बहुत सी भाषाओं के मेल से बनी एक ‘खरी या खड़ी बोली’, जिसे विविध प्रदेशों और राज्यों के भीतर बाहर सब समझ पा रहे थे. पर बात बहु प्रादेशिक रूप में हिंदी के संप्रेषण या संपर्क का माध्यम होने भर की नहीं थी, उसे एक भाषा के तौर पर विकसित होने में मदद की उसकी सांस्कृतिक अंतर्कथा ने.
वह एक उच्चतर व अधिक मानवीय संस्कृति के प्रकट होने और विकसित हो सकने की अंतर्कथा है, जो हिंदी को उसकी आत्मा प्रदान करती है. आधुनिक हिंदी, खड़ी बोली का व्यवस्थित रूप है. वे सभी भाषाएं, जिनके आपसी मेलजोल से खड़ी बोली बनी, आखिरकार अपने अपने प्रदेश तक सीमित बोलियों की तरह पीछे छूट गयीं.
हिंदी साहित्य के तहत डिंगल, ब्रज और अवधी के मध्यकालीन साहित्य को भी, हिन्दी के साहित्य की तरह ग्रहण किया जाता है. तथापि आज हम जिसे हिन्दी कहते हैं, उसे आधार मानने पर कहना पड़ेगा कि डिंगल में रचित वीरगाथा, ब्रज में रचित कृष्ण भक्ति साहित्य और अवधी में रचित रामभक्ति साहित्य, आधुनिक हिन्दी के पूर्व रूपों में रचित हैं, ऐसे पूर्व रूपों में, जो समांतर रूप में आज भी विद्यमान हैं.
आधुनिक काल में भी ब्रज और अवधी में साहित्य रचना होती है. पर अब हम उस साहित्य को हिंदी का साहित्य न कह कर, ब्रज और अवधी का साहित्य कहते हैं. यह तथ्य बहुत से लोगों को परेशान करने वाला लग सकता है, क्योंकि आदिकाल और भक्तिकाल का अधिकांश साहित्य, इस नुक्तेनिगाह से, हिंदी के पूर्व रूपों का साहित्य होकर रह जायेगा. इससे बड़ी घबराहट पैदा हो सकती है, क्योंकि यह मानते ही लग सकता है कि फिर हिन्दी साहित्य के पास बचेगा ही क्या?
लेकिन अगर हम वैज्ञानिक रूप में सोचते हैं, तो हम आधुनिक हिन्दी के वास्तविक पूर्ववर्ती रूपों के महत्व को जानने समझने की दिशा में एक कदम आगे बढायेंगे. वह बात अधिक तर्क संगत होगी. उससे हमें आधुनिक हिंदी के खड़ी बोली की तरह विकसित होने के वास्तविक इतिहास को रेखांकित करने में मदद मिलेगी. तब हम जान पायेंगे कि हिंदी को हिन्दी के रूप मे गढ़ने और विकसित करने वाले असल लोग कौन थे. इससे ब्रज, अवधी या डिंगल के साहित्य का महत्व तो कम नहीं होगा, पर हिन्दी के एक भाषा के रूप में विकसित होने के इतिहास में, उस साहित्य की जगह, सहयोगी व पूरक की भूमिका निभाने के रूप में दर्ज की जायेगी.
खड़ी बोली के उद्भव में भारत की विविध ‘बोलियों’ के अरबी फारसी से तालमेल की स्थिति इतनी गहराई पकड़ती है कि उनके आपसदारी वाले समन्वय से एक बिल्कुल नयी भाषा का जन्म हो जाता है. हालांकि यहां यह भी कहा जा सकता है कि अगर मुसलमान भारत में न आये होते, तब भी हम एक नयी भाषा के प्रकट होने के साक्षी होते. पर फिर वह भाषा खड़ी बोली से काफी अलग तरह की होती. इस बात के प्रमाण हमें सरहपा की काव्य भाषा में आठवीं शती में ही मिलने आरंभ हो जाते हैं. उनकी भाषा में उड़िया, मराठी, बंगाली और असमिया जैसी भाषाओं का ब्रज और अवधी से मेलजोल, यह बताता है कि भारत में वह दौर एक व्यापक भूभाग की आपसदारी की सांस्कृतिक अंतर्कथा को रचने वाला दौर था. इस अंतर्कथा को वाणी देने वालों में अग्रणी थे, हमारे नाथ और सिद्ध कवि. हिंदी साहित्य का आचर्यों के द्वारा स्वीकृत इतिहास, इन कवियों को भी उसी तरह सीमित महत्व देता है, जैसा बाद के उसी रंग और चाल वाले निरगुन और सूफियों को. हालांकि हिंदी का वास्तविक इतिहास उन्हीं की वजह से अस्तित्व में आया.
दृष्टिकोण के बदलाव से निष्कर्षों का बदलना लाज़िमी है. यहां इस संदर्भ में एक भूमिका बनाने की कोशिश की जा रही है.
खड़ी बोली का वह रूप, जो आधुनिक हिंदी की तरह हमारे समय का हिस्सा है, अपनी सांस्कृतिक अंतर्कथा को लिखने की शुरुआत दसवीं शती के आसपास करता है. तब होता यह है कि इस्लामी शासन से आक्रांत सिंध, संस्कृति के फलक पर हिंदू और मुसलमान की आपसदारी और सांझेपन की इबारत को लिखने लगता है. दसवीं शती के मध्यकाल में जन्मे झूलेलाल सिंधु से वरुण देवता के अवतार की तरह प्रकट हुए संत के रूप में सक्रिय होते हैं. सिंधी लोगों के लिये वे आज भी पूज्य हैं. सिंधी से प्रभावित उनकी खड़ी बोली में भारत पहली दफा इस्लामी और हिंदू संस्कृतियों के महासमन्वय की ओर अग्रसर होता है. उस भाषा में उनका संदेश है, ‘ईश्वर अल्लाह हिक आहे’.
यानी ईश्वर और अल्लाह इक हैं. दसवीं शती का सांस्कृतिक समन्वय का वह सूत्र वाक्य, दस सहस्राब्दियों का सफर तय करके बीसवीं शती में महात्मा गांधी के वर्धा आश्रम में एक भजन की शक्ल लेता है, ‘ईश्वर अल्लाह तेरो नाम.’
खड़ी बोली को, तत्कालीन नवजागरण और राष्ट्रीय चेतना व अखंडता का आधार बनाने वाले गांधी, उसे ‘हिंदुस्तानी’ कहते हैं और उसे ‘भारत की आत्मा’ की आवाज़ की तरह गुंजायमान करते हैं. यह वह हिंदी है, जो संस्कृत की ओर उन्मुख हिंदी और अरबी फारसी की ओर उन्मुख उर्दू में विभाजित नहीं है. वही हमारी वास्तविक हिंदी है, हमारी रूह की ज़ुबान.
इसे ज़मीनी हकीकत बनाने का आगाज़ करने वाले झूलेलाल की बाबत बाद में सिंध ने यह कहा कि तेरहवीं शती में वहां के सेवन इलाके में जो सूफी पीर शाहबाज़ कलंदर के रूप में प्रकट हुआ, वह झूलेलाल का अवतार था. सिंध में इसे लेकर जो गीत रचे गये, उनमें झूलेलाल और शाहबाज़ कलंदर में अभेद दिखायी देता है. इस तरह का एक गीत है, जो आज भी मशहूर है, “दमादम मस्त कलंदर”. कहते हैं इसे तेरहवीं सदी के सूफी अमीर खुसरो ने लिखा था, उस अमीर खुसरो ने, जिसे खड़ी बोली का पहला कवि कहा जाता है. इस गीत का एक पद देखिये,
“ओ लाल, मेरी पत्त रखियो बला झूले लालण,
सिन्धड़ि दा, सेवन दा, सख़ी शाहबाज़ क़लन्दर!
दमादम मस्त क़लन्दर, अली दम-दम दे अन्दर”
यानी झूलेलाल ही सिंध के सेवण का शहबाज़ कलंदर है. लह अली की तरह हर एक के दम या प्राणों में रहता है. यहां हिंदू मुस्लिम संस्कृतियों की आपसदारी की यह जो अंतर्कथा है, वह आज भी हिंदी का सांप्रदायिक विभाजन करने वालों के गले की फांस बनी हुई है. बीसवीं शती में इस आपसदारी की हत्या महात्मा गांधी को गोलियों से भून दिये जाने के रूप में होती है. फिर इक्कीसवीं सदी में शाहबाज़ कलंदर की दरगाह को एक फिदायीन हमले में ध्वस्त कर दिया जाता है. तारीख है 16 फरवरी 2017. लगता है हिंदी का इतिहास घूम फिर कर अब वहां आकर खड़ा हो गया है, जहां से उसने अपने होने की शुरुआत की थी. यह वह हिंदी है, जो न मूलगामी हिंदू को रुचती है, न कट्टर मुसलमान को. तो उसके उद्गम स्रोतों को ही मिटा देने के हालात पैदा हो गये हैं. खेर, वहां से यहां तक के उस के सफर पर एक निगाह डालनी तो बनती ही है.
खड़ी बोली के साहित्य के आरंभिक रूप की बात करें, तो उसका आदिकाल अमीर खुसरो (1253-1325) के सूफी साहित्य के रूप में हमारे सामने आता है. उनके साहित्य की मूल भूमि सूफियाना है, परंतु उसके अनेक रंग और विविध शैलियों की मौजूदगी उस की व्यापकता का सुबूत है. खुसरो के काव्य में वह हिन्दी पहली दफा एक सांस्कृतिक दस्तावेज की तरह दर्ज होने लायक होती है, जो हमारी आधुनिक हिंदी के इतनी करीब है कि उसके रचनाकाल के तेरहवीं शती तक पीछे सरक जाने की बात पर हमें संदेह हो सकता है.
दूसरी बात यह भी गौरतलब है कि खुसरो जिस तरह की खड़ी बोली में अपनी काव्य रचना कर रहे थे, वह आगे चल कर कबीर के काव्य में एक नयी ऊंचाई को हासिल करती है. इससे यह समझ पाना कठिन नहीं कि खुसरो जिस खड़ी बोली की ओर रुख करते हैं, वह कबीर तक आती हुई गोया एक परंपरा के विकास की सूचना देने लगती है.
खुसरो के काव्य के कुछ ऐसे उदाहरण यहां दिये जा रहें हैं, जो उनकी परंपरा को कबीर से जोड़ते हैं,
खुसरो:
आ साजन मोरे नयनन में सो पलक ढाप तोहे दूँ,
न मैं देखूँ और न को न तोहे देखन दूँ.
कबीर:
नैना अंदर आब तू, ज्यों ही पलक झपेऊं
न हों देखूं और को, न तुध देखन देऊं
खुसरो
खुसरो पाती प्रेम की बिरला बाँचे कोय,
वेद, क़ुरान, पोथी पढ़े प्रेम बिना का होय.
कबीर:
पोथी पढ पढ जग मुआ पंडित भया न कोय
ढाई आखर प्रेम के, पढे सो पंडित होय
खुसरो और कबीर में जितनी निकटता दिखाई देती है, उससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि हिंदी का उद्भव एक खास सांस्कृतिक अंतर्भूमि से जुड़ा हुआ है. वह सांस्कृतिक चेतना हिंदी की अंतर्वस्तु या आत्मा है. उससे जुदा होने या कर दिये जाने पर हिंदी, हिंदी नहीं रह जाती. इस बात को न समझने की वजह से हिंदी के वे रूप सामने आये हैं, जो निष्प्राण और निष्प्रभ लगते हैं.
यह सांस्कृतिक चेतना न निरी सूफियाना भावबोध वाली है, न विशुद्ध नाथपंथी योगियों के ज्ञानात्मक अद्वैत वाली. यहां हम एक नयी सांस्कृतिक चेतना को जन्म लेता पाते हैं, जो सूफी प्रेमपूर्ण और निरगुन ज्ञानमार्ग को एक दूसरे के साथ इस कदर समन्वित करती है कि दोनों को एक दूसरे से अलहदा करना मुमकिन नहीं रह जाता. यही वह ज़मीन है, जहां हिंदू न हिंदू रह जाता है, न मुसलमान मुसलमान.
इसे हम भारत में प्रकट हुए मध्यकालीन नवजागरण के मुख्य कारक की तरह भी देख सकते हैं. यह नवजागरण गैर धार्मिक या गैर सांप्रदायिक अध्यात्म के रूप में हमारे सामने आते हैं. वह ज्ञानात्मक प्रेम या प्रेमात्मक ज्ञान की संस्कृति के रूप में चौदहवीं पंद्रहवीं शती में भारत में प्रकट होता है.
यहां गौर करने वाली बात यह है कि यही वह दौर है, जब भारत में हिंदी का खड़ी बोली वाला वह रूप समाज और संस्कृति की रूह की ज़ुबान बनता है, जो सारे बंधनों से यहां के मनुष्य की मुक्ति को यकीनी बनाना चाहती है. इसके निशाने पर धार्मिक रूढ़ियां और कर्मकांड ही नहीं, सामाजिक असमानता, भेदभाव और अन्याय की आधारभूमि बन गये वर्णाश्रम और जाति व्यवस्था तक आ जाते हैं.
अगर हम मध्यकालीन नवजागरण और खड़ी बोली की इस आपसदारी को समझ पा रहे हैं, तो हमारे लिये यह समझ पाना कठिन नहीं होगा कि इसके बाद सोलहवीं शती के मध्य से जो दौर आरंभ हुआ, उसने हमारे नवजागरण के विकास की संभावनाओं को कुंठित क्यों कर दिया. वजह यह थी कि उस दौर में भारत एक दफा फिर से हिंदू और इस्लामी संस्कृतियों के पुनरुत्थान की ओर उन्मुख हो गया. सूफी और निर्गुण धारा की जगह रामभक्ति और कृष्ण भक्ति आ गयी. इसके साथ ही हिन्दी की खड़ी बोली वाली अंतर्भूमि भी कुंठित हो गयी और हम उसकी जगह अवधी और ब्रज के साहित्य के वर्चस्वी होने की स्थिति के साक्षी हो गये.
फिर दोबारा हिंदी के खड़ी बोली वाले रूप का विकास तब आरंभ हुआ, जब उन्नीसवीं सदी में प्रकट हुए हिंदी नवजागरण के साथ हालात बदल गये. साहित्य से अधिक संस्कृतनिष्ठ अवधी और ब्रज को एक तरफ करके हिंदुस्तानी की बात उस दौर में फिर से नुमायां हो जाती है. भारतेंदु, बालकृष्ण भट्ट और बालमुकुंद गुप्त जैसे लेखक हिंदुस्तानी को महत्व देते हुए हिंदी नवजागरण को एक नयी ज़मीन प्रदान करते हैं. महात्मा गांधी इस मिली जुली ज़ुबान के महानायक के रूप में उभरते हैं और भारत की आज़ादी की बात भारत की मुक्ति की बात से गलबहियां डालती हुई रूपांतरकारी भूमिका में दिखाई देती है.
हिंदू मुस्लिम विभेद को पाटने में हिन्दी नवजागरण की एक बड़ी भूमिका है. पर बीसवीं शती के मध्य तक आते-आते हिंदी नवजागरण की मशाल की लौ फिर से मंद होने लगती है. हिन्दी के हिंदी और उर्दू में अंतर-विभाजन को गहराने में सांप्रदायिक ताकतों को कामयाबी मिलने लगती है. विभाजित रूप में हिंदी और उर्दू का विकास भी सांस्कृतिक अंतर-वस्तु के तल पर कुंठित होने लगता है. मतलब साफ है. यह बात हमारे सामने उपस्थित समय के पटल पर मोटे अक्षरों में दर्ज हो कर साफ चमक रही है कि अगर हिंदी को वाकई अपना विकास करना है, तो उसे अपनी समन्वयात्मक संस्कृति की ओर रुख करना होगा. पर समन्वयी संस्कृति का विकास तब होगा, जब हिंदी, औपनिवेशिक दौर में अंग्रेज़ों के शरारत की वजह से बद्धमूल हो गये अपने सांप्रदायिक विभाजन को, खारिज कर देगी. तब हमें वह ज़ुबान मिलेगी, जो हिंदी में बोलते वक्त, उर्दू जैसी लगेगी और उर्दू में बोलते वक्त हिंदी जैसी.
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फिर दोबारा हिंदी के खड़ी बोली वाले रूप का विकास तब आरंभ हुआ, जब उन्नीसवीं सदी में प्रकट हुए हिंदी नवजागरण के साथ हालात बदल गये. साहित्य से अधिक संस्कृतनिष्ठ अवधी और ब्रज को एक तरफ करके हिंदुस्तानी की बात उस दौर में फिर से नुमायां हो जाती है. भारतेंदु, बालकृष्ण भट्ट और बालमुकुंद गुप्त जैसे लेखक हिंदुस्तानी को महत्व देते हुए हिंदी नवजागरण को एक नयी ज़मीन प्रदान करते हैं. महात्मा गांधी इस मिली जुली ज़ुबान के महानायक के रूप में उभरते हैं
अत्यंत ही पठनीय आलेख ।
मैं विनोद शाही जी से सहमत हूँ कि जिस मध्यकालीन नवजागरण का विकास और उसका तात्विक समन्वय खड़ी बोली में अमीर खुसरो से शुरू होकर कबीर तक आता है, उसका विकास 16वीं सदी के उत्तरार्द्ध से मंद पड़ गया। हमारे काव्य से वह सूफियाना रंग धूमिल होता गया जो जाति-धर्म से परे सभी को जोड़ता था।खड़ी बोली पर ब्रज और अवधि का बर्चस्व उस सांस्कृतिक समन्वय के बरक्स एक अलग पुनरुत्थानवादी धारा थी जिसमें सगुण तत्व हावी होने लगे। प्रेम और मनुष्यता उनमें भी थी लेकिन वह एक खास संप्रदाय तक सीमित थी। बहुत ही सार्थक और मूल्यवान आलेख, विनोद शाही जी एवं समालोचन को साधुवाद !
हिन्दी की समझ के लिए हिन्दुस्तान की समझ आवश्यक है।उस सांस्कृतिक ताने-बाने को समझे बिना हिन्दी भाषा की बुनियाद को नहीं समझा जा सकता है।ज्ञानवर्धक आलेख।