कौशलेन्द्र की कविताएँ |
तोतली बोलियां
मैं बच्चों की तोतली ग़लतियों पर आसक्त हूँ
बार बार सुनना चाहता हूँ उनके बिगड़े हुए शब्द,
ज़िन्दगी में कितना थक जाते हैं हम,
हर दिन सब कुछ सही-सही बोलकर
सुनकर
न भोलापन, न कहीं नमी स्नेह की
बस सही और शुष्क.
छिछली बारिशें
बारिशें भी इंसानों की तरह छिछली हो चुकी हैं
चिड़ियों सी फुदकती हैं
इस छत से उस छत पर
झूम कर बरसने वाले बादल नहीं आते अब,
जिनके बरसने पर दूर उफ़क़ तक फ़ैला काला अब्र नज़र आता था
दिन में भी रात सी घिर आती थी
हर सिम्त बस पानी ही पानी
बूंदों की लड़ियां टूटती न थीं
रूह तरबतर हो जाती थी
छतों पर शहर के शहर उमड़ आते,
अब तो लोग आपस में पूछते हैं,
क्या तुम्हारे घर कल बरसात हुई थी?
प्रसव
स्त्री को प्रसव पीड़ा में देखना
हृदय विदारक होता है
चीखती चिल्लाती ज़ोर लगाती,
अस्पताल की अनुभवी नर्स ऊपर बैठकर दम लगाती है
जैसे कोई मोटा तगड़ा हलवाई
बड़ी सी परात में दोनों हाथों से ढेर सारा आटा गूँथता हो
बीच-बीच में कराहती माँ की नज़र हम पर पड़ जाती है
बोलती है “इन्हें क्यों खड़ा कर रखे हो?”
विवशता है क्या करें, लगता है बोल दें,
आपकी पीड़ा देखने में हमें भी उतनी ही पीड़ा होती है बहन
उस पीड़ा और लाज के बीच
प्रसव होते ही वो थोड़ा सा उठकर
पहला प्रश्न यही पूछती है, लड़की है या लड़का?
ग़मज़दा घर
ऐसे घर देखे होंगे तुमने
जिनमें हाल ही में कोई गुज़र गया हो
सूनापन, सब ठहरा हुआ सा
दरीचे,दरवाज़े भी जैसे बरसों से न खोले गए हों
भीतर की हवा, भीतर ही मंडराती है
बाहर की भनक तक नहीं आती
दरख़्त भी लगता है सिर झुकाये खड़े हैं
पत्तियां भी नहीं हिलतीं
सहसा कोई अपना आता है दूर से
एक आवाज़ चीरती सी घुसती है घर आँगन में
पहचानने वाला कुत्ता पूंछ हिलाने लगता है
आते हैं आनेवाले, सहमे, झिझकते
दुःख की दुःख से भेंट होती है,
दोनों ओर के बांध टूट जाते हैं,
बाहर बैठा सूनेपन का चौकीदार दूर कहीं निकल जाता है.
दरिया में रात
चांदनी रात दरिया किनारे लहरों पर झिलमिल करती है,
दूर से सफीनो पर रोशनियां तैरती क़तारों सी नज़र आती हैं
लगता है आहिस्ता बहते दरिया में चराग़ों के मकां बहते छोड़ जाता है कोई
कुछ ठहरी, कुछ नज़दीक आती रोशनियों से कश्तियों की हलचल का पता मिलता है
बीच बहते पानी में चाँद अपना अक़्स ढूंढ़ता है
चलते चप्पुओं से गोया पानी में बहा जाता है
साहिलों पर चांदनी के ढ़ेर से बिखरे हैं जिनमें जुगनुओं से असबाब टिमकते हैं कहीं कहीं
आह! मांझी की वो दिल पर थम जाने वाली आवाज़
बहती लहरें ठहर जाती हैं
पानी पर छप छप करते वो चाप नावों के
रात बेहद ग़ौर से सुनती है ये राग
वक़्त बहता है
रात ठहरी है
जाने उस पार जाना भी है उसे या नहीं
किसको ख़बर है?
बादल का टुकड़ा
ये शाम की शफ़क़ में अकेला बादल का टुकड़ा
लगता है अपने काफ़िले से बिछड़ गया
किसी ख़ामोश सदा की जानिब ज़मीं पर देखता रह गया
जाने किन कराहती सूखती शाखों के दर्द से भीतर ही भीतर
पिघल गया
तपिश और उमस से बेचैन मुरझाते खेतों की मेड़ों पर
आसमां की ओर झांकते बूढ़े किसान के दर्द से सहम गया
सूखते पोखरों की तिशनगी से दहक उठा
यूं जला कि भाप बनकर समूचा ही बरस गया
सदियों की प्यास को एक भीगी रुई सा टुकड़ा
ख़ुद ब ख़ुद निचुड़कर बुझा गया
काफिलों को झुठला गया.
आत्महत्या
जाने क्या बात थी?
जैसे कोई ज्वार उठा हो मन में
वेदना दिखाई नहीं देती
वो हाथ नहीं मिलता जो हाथ थाम ले
वो मुख नहीं मिलता जो कहे
आओ बैठो मेरे पास, कुछ देर मेरे पास
आओ चलें कहीं घूम आएं
हर तरफ सन्नाटे से लबरेज़ फ़िज़ा काटने को दौड़ती है
हिलता रहता है आईने में
वह लटकता हुआ फंदा.
डॉ. कौशलेन्द्र प्रताप सिंह MBBS, MD (छाती एवं श्वास रोग विशेषज्ञ) हाउस न.99, कमला नगर, कलक्टर गंज फतेहपुर- 212601 (उत्तर प्रदेश) मोबाइल न. 9235633456 |
बहुत ही गहरे भाव-संवेदनाओं वाली कविताएँ, अपने तेवर और बनक में बहुत ही मसृण और संजीदा. बधाई कौशलेंद्र जी को.. समालोचन का आभार इतनी सुंदर रचनाएँ पढ़वाने को
Excellent,,,
बहुत ही बढिया
कौशलेंद्र पांडेय
राज्य सचिव यूपीएमएसआरए
9415772525
मन के सहज भावों की अभिव्यक्ति इन दिनों कविता में विरल होती जा रही है।समय के साथ जीवन का यथार्थ इतना कुरूप होता गया है कि किसी भी छोर से उसका सौंदर्य नदारद है। आज का यथार्थ इतना संश्लिष्ट एवं जटिल है कि उसे देखने परखने के लिए विचारधाराएं भी अपनी जगह महत्व रखती हैं।जरूरत है इन्हें रचना में कलात्मक ढँग से पिरोने की। पहली हीं कविता इस धारणा को पुख्ता करती है कि जीवन में कुछ अनगढ़पन भी जरूरी है। वह सौंदर्य को बढ़ाता है।सबकुछ साफ़-सुथरा और एक ढर्रे पर होना भी कितना उबाँऊ होता है। फिराक गोरखपुरी ने साहित्य के बारे में कहा था कि एक उम्दा साहित्य वस्तुतः एक उम्दा निरक्षरता है। A brilliant literature is a brilliant illiteracy. इसलिए बच्चों की भाषा भी स्वयं में एक कविता है। इसके अलावे जो कविता सामाजिक जीवन में आये विखराव को बयां करती है, वह एक राजनीतिक कविता में बदल जाती है। छिछली बारीशें, प्रसव,गमजदा घर वगैरह भी मर्मस्पर्शी कविताएँ हैं।कौशलेंद्र जी एवं समालोचन को बधाई !