कृष्णा सोबती: अपने जिगरे के ज़ोर से ज़िन्दादिलकश्मीर उप्पल |
‘दूसरा जीवन’ का द्वार खुलने के पहले गिरधर राठी की प्रस्तावना की कुंडी खड़खड़ानी होती है. तब अपनी प्रस्तावना में गिरधर राठी बताते हैं कि कृष्णा जी से पहली बार शायद प्रयाग शुक्ल के यहां, दिल्ली के ग्रेटर कैलाश में उनकी बरसाती में हम मिले. 1970 के आसपास, 1990 के बाद पटपड़गंज में जब हमें पहली बार फ्लैट मिला, कितने चाव से शिवनाथ जी के साथ वे हमारे यहां आयी थीं.
अशोक वाजपेयी बताते हैं कि कृष्णा सोबती के निकट रहे गिरधर राठी ने इस जीवनी के लिए प्रयत्न कृष्णा जी के जीवन-काल में कर दिया था और यह जीवनी इस अर्थ में असाधारण है कि इसमें स्वयं कृष्णा जी द्वारा दी गयी जानकारी का समावेश है.
इन चिन्हों से हम पहचान पाते हैं कि गिरधर राठी और कृष्णा सोबती के पचास वर्ष लम्बे परिचय के तपने के बाद ही यह जीवनी हमारे हाथों पर रखी है. उनके इस रिश्ते की गरमाहट हमें पृष्ठ दर पृष्ठ महसूस होती रहती है. व्यक्तित्व और साहित्यिक पहचान और मूल्यांकन के कई-कई रंग हमें तैरते दिखते हैं जो काग़ज़ी रिश्तों में अक्सर गुम हो जाया करते हैं.
गिरधर राठी अपनी कई-कई आंखों से देखते-पढ़ते और कई-कई कानों से कृष्णा जी और उनके मित्रों को बोलता-सुनते हैं, कृष्णा सोबती की जीवनी लिखने के लिए अपनी कलम की स्याही उन्होंने वहीं से उठाई जहां-जहां रोशनाई दिखी उन्हें. जीवन के स्याह पक्षों की भी अपनी एक गरिमा होती है और चमक भी. अक्सर किसी लेखक के जीवन को उसकी सम्पूर्णता में देखे-समझे बिना स्याह में ही रोशनी गुम हो जाने का खतरा बना रहता है.
इसीलिए गिरधर राठी अपनी तथ्यपूर्ण, इस रूपरेखा में जीवन के रंग भरने के लिए हशमत से मदद लेकर लिखते हैं-
‘‘दूसरों की निगाह से अपने को देखती हूं तो एक मगरूर घमंडी औरत, चमक-दमक वाला लिबास और अपने को दूसरों से अलग समझने वाला अंदाज़….. अपनी नज़र से अपने को जांचती हूं तो एक सीधी-सादी खुद्दार शख़्सियत. वक्त और खुदा दोनों ही जिस पर ज्यादा मेहरबान नहीं- फिर भी अपने जिगरे के ज़ोर से ज़िन्दादिल.’’
कृष्णा जी के मजबूत जिगरे की पहचान उनकी जीवनी में हमें बार-बार होती है. एक बार तो कन्हैयालाल नन्दन को उन्होंने तड़ाक से सीधे-सीधे बरज दिया था. कृष्णाजी से नन्दन ने पूछा था- ‘अकेले रहने का निश्चय ?’
जवाब- ‘‘भोले-भाले लगने वाले ऐसे सवालों को मुझ पर जाया न करो.’’
कृष्णा जी की मित्र निर्मला जैन ने उनके सम्बंध में पूछे गए एक प्रश्न के उत्तर में कहा था – ‘शी इज ए वेरी प्राईवेट पर्सन’ गिरधर राठी बताते हैं कि अनामिका ने उनके तरह-तरह के एकाकीपन में झांकना चाहा पर विफल रहीं. हम लोगों का लाल-पीला होना तो देखते हैं पर हमें उसके सफेद और काले पड़े रंग की अक्सर तलाश रहती है.
इस जीवनी के सर्वप्रथम पृष्ठ पर ‘हम हशमत’ का यह वाक्य गैरमामूली है:
‘‘किसी भी लेखक की नयी जिन्दगी उसके पूरे हो जाने के बाद दुबारा शुरु होती है.’’
आज का यह समय कृष्णा सोबती नामक शख्सियत का दुनियावी परदे से हट जाने का समय तो है ही पर साथ ही यह समय कृष्णा सोबती की ‘अक्षर देह’ के जीवित हो ‘उठने’ का समय भी है. कृष्णा सोबती की अक्षर देह अब हमारी दुनिया पर स्थिर हो खड़ी है. हम अपने दृष्टि बोध से जो चाहें उसमें देख लें. यह हमारे ऊपर है कि अपनी दुनिया को और बेहतर दुनिया बनाने के लिए हम ही उनसे क्या लेते हैं ?
कृष्णा सोबती के न्याय के मापदंड को समझे बिना उनके और अमृता प्रीतम के मध्य के मूल और गंभीर पहलुओं विरोधाभास के बहुचर्चित को विषयांतर कर दिया जाता है. सहज-सरल कथा इतनी है कि कृष्णा सोबती का उपन्यास ‘ज़िंदगीनामा’ 1979 में प्रकाशित होकर साहित्य-अकादमी’ का पुरस्कार पा चुका था. हिन्दी साहित्यजगत में उसका स्वागत का अनुमान उसके पुर्नप्रकाशन के संस्करणों, समीक्षाओं और अनुवाद से होता है.
अमृता प्रीतम की पुस्तक ‘ज़िंदगीनामा’ 1983 में प्रकाशित होती है जिस पर ‘हरिदत्त का ज़िंदगीनामा’ का ‘ज़िंदगीनामा’ बड़े अक्षरों में रखा गया. कृष्णा जी ने अमृता प्रीतम से निवेदन किया कि वे हरिदत्त की पुस्तक का नाम में सिर्फ ‘ज़िंदगीनामा’ बदल दें – व्यर्थ ही शीर्षक के कारण दोनों पुस्तकों में कन्फ्यूजन हो रहा है. अमृता प्रीतम ने न जाने किस टोन में जवाब दिया, तुम्हीं या आप ही शीर्षक बदलो…….
कृष्णा सोबती ने 1983 में यह मुकदमा दाखिल किया जो 2011 में समाप्त हुआ. ‘इस बीच वकीलों की फीस तथा बाकी खर्चो के लिए, कृष्णा जी के शब्दों में ‘तीन घर बिक गये.’’ सन् 2011 में जज ने कृष्णा सोबती की मित्र सुकृता पाल ने गिरधर राठी को पूछने पर कहा –
‘‘यह एक सिद्धांत की लड़ाई थी और वे खुद सही थीं. लेखकीय अधिकार की, बौद्धिक सम्पदा के अधिकार की यह लड़ाई थी.’’
1984 में हाईकोर्ट ने यह मुकदमा तीस हजारी कोर्ट की जिला अदालत को सौंप दिया था. हाईकोर्ट से जिला अदालत मुकदमा तो आ गया था. परन्तु कृष्णा जी और अमृता जी के उपन्यासों की पाण्डुलिपियां पेश की गई ‘नामा’ नामावली किताबों की प्रतियां और मुकदमे की तमाम फाइलें ‘गायब’ हो गयी थीं. यह सबूत कभी जिला अदालत पहुंचे ही नहीं. फिर भी इन अदत्त सबूतों के बिना ही न्याय हो गया था.
यह तथ्य भी उल्लेखनीय है कि अमृता प्रीतम ने अपनी पत्रिका ‘नागमणि’ में ‘कैदी नम्बर 666’ शीर्षक से इस पुस्तक को विज्ञापित किया था. बाद में लोकप्रियता देखते हुए उसका शीर्षक हरिदत्त का ‘‘ज़िंदगीनामा’’ कर दिया गया था. अमृता प्रीतम के पक्ष में खड़े लोगों के नाम ही यह बताने को काफी हैं कि मुकदमे की पृष्ठभूमि में क्या-क्या हुआ होगा. यह मुकदमा कृष्णा सोबती की उस जीवटता का परिचायक है जिसके दर्शन उनके लेखन में होते हैं.
कृष्णा सोबती के उक्त जीवन-दर्शन के आलोक में ही उनके जीवन के विवादों के घेरों को समझा जा सकता है. सन् 1991 में एक इण्टरव्यू में कृष्णा सोबती ने कहा था: ‘‘यह मुकदमा इतना लम्बा खिंचा कि ये मज़ाक ही हो गया, मैंने न्याय व्यवस्था और उसकी कारन्दाजी के बारे में बहुत कुछ सीखा, मेरी बहुत-सी ऊर्जा इसमें जाया हो गयी, लेकिन इस प्रक्रिया ने मुझे ‘दिलोदानिश’ जैसा उपन्यास भी प्रदान किया, जिसके कथानक के हृदय स्थल में न्याय का सवाल है.’’
कृष्णा सोबती ने गिरधर राठी से अपनी बातचीत में कहा भी है –
‘मेरे लिए कुछ भी सहज-सरल नहीं रहा. हर काम में विघ्न बाधा, विरोध, उलझाव का सामना करना पड़ा.’
यह जीवनी इस तरह की विघ्न-बाधाओं को स्पष्टता और तटस्थता से खोलती है. कृष्णा जी शायद ऐसी लेखक हैं जिन्होंने जितने सम्मान-पुरस्कार पाये, उतने या उससे ज्यादा संख्या में अस्वीकार भी किये.
अपनी पुस्तक ‘शब्दों के आलोक में ’ कृष्णा सोबती लिखती हैं –
‘लेखक से बड़ा लेखन है और लेखन से भी बड़े वे मूल्य हैं, जिन्हें ज़िन्दा रखने के लिए इंसान बराबर संघर्ष करता आया है, बड़ी से बड़ी कीमत चुकाता आया है, लेखन मात्र लिखना ही नहीं, लिखना जीना है, भिड़ना है, सामना करना है, उगना है, उगते चले जाना है.’
उनके प्रारंभिक लेखन से ही उनके लेखकीय आभामंडल के दर्शन होने लगे थे.
ऐन शुरुआत से देखें तो 1943-44 से ही उन्होंने जो कुछ लिखा, वह उस समय ही श्रेष्ठ पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगा था. लामा और नफीसा 1944 में और चन्ना उपन्यास का अंश अज्ञेय संपादित प्रतीक में 1948 में प्रकाशित. इसी तरह वर्षवार चलती श्रृंखला में ‘डार से बिछुड़ी’ पाठकों ने पढ़ा-सराहा.
दूसरा जीवन में उल्लिखित इतावली हिन्दी विदुषी मरिओल्ला अफरीदी से किसी लेखक की आलोचना/समीक्षा का पाठ भी सीखा-समझा जा सकता है. वे कहती हैं कि कृष्णा सोबती की रचनाओं को दो मूल आधारों पर जांचा जा सकता है. एक तो यह कि उनमें हरेक में ‘दो आवाज़ों’ में मौजूद हैं और दूसरा यह कि वे ‘अतीत और वर्तमान’ के आपसी रिश्तों से जूझती हैं.
मरिओल्ला कृष्णा सोबती के साहित्य को तीन हिस्सों में बांटा है. पहले में ज़िंदगीनामा, ज़िंदगीनामा का उत्तरार्ध और सिक्का बदल गया. इन रचनाओं में कृष्णा जी चनाब-झेलम के बीच के दोआब (पश्चिमी पंजाब अब पाकिस्तान) के ‘खोये हुए संसार’ की तरफ लौटती हैं.
दूसरी रचनाएं वे हैं जहां स्मृति की आवाजें सुन पड़ती हैं- लामा, डार से बिछुड़ी, मित्रों मरजानी, सूरजमुखी अंधेरे के और दिलोदानिश. तीसरे प्रकार की वे रचनाएं हैं जो ‘आत्मकथा और गल्प (फिक्सन)’ के बीच हैं – यारों के यार, तिन पहाड़, बचपन, ऐ लड़की और समय सरगम. यह उल्लेखनीय है कि मरिओल्ला इन रचनाओं के प्रकाशन वर्ष का उल्लेख करते अपनी विवेचना प्रस्तुत करती हैं.
इतालवी हिन्दी विदुषी मरिओल्ला अफरीदी समीक्षा-शास्त्र के कुछ सूत्र छोड़ जाती हैं जिन्हें पकड़कर बहुत कुछ बुना जा सकता है. कृष्णा सोबती की ‘फुलकारी’ जीवन के रंगों से बुनाई है, उसमें कोई रंग घटाया बढ़ाया नहीं जा सकता.
कृष्णा जी 1952 से 1980 तक दिल्ली सरकार के शिक्षा निदेशालय में सम्पादक रहीं. नेशनल बुक ट्रस्ट की ट्रस्टी भी. गिरधर राठी विस्तार से उनकी लिखी पुस्तकों की टाइपिंग और प्रकाशन के किस्से सुनाते हैं. उनकी भाषा-भूषा का ‘हिन्दीकरण’ आम प्रचलित हिन्दी लिपि में कर दिया जाता था. पाठकों और समीक्षकों के पूर्व कोई लेखक पांडुलिपि की टाइपिंग और प्रकाशन की सीढ़ियां कैसे चढ़ता है यह भी हैरान करने देने वाली रोचक कथाएं हैं. कृष्णा जी के बोलने में पंजाबियत का रंग बेशक चिन्हित किया जा सकता था, लेकिन लेखन में उनके भाषाई ‘रजिस्टर’ इतने बहुरंगी थे कि कभी शुद्ध संस्कृतनिष्ठ हिन्दी का, तो कभी नफीस उर्दू का कलमकार होने का भी गुमान हो सकता था. असल में कृष्णा सोबती की यह जीवनी लेखकों की पाठशाला है. नये लेखक इसे पढ़ने के बाद बहुत से कष्ट भोगने के पहले कई-कई सबक सीख सकते हैं.
कृष्णा सोबती ने एक विवाद के संबंध में प्रसिद्ध न्यायविद् ऐण्डले साहब को बताया तो उनकी चेतावनी मिली जो सभी लेखकों को भी याद रखनी चाहिए -‘लेखक बनना है तो अपने कर्तव्य और अधिकार भी जानना चाहिए.’
कृष्णा सोबती एक लेखक की गरिमा कितना मानती थीं कि उचित भाषा में पत्र न मिलने पर उन्होंने बिड़ला-फाउण्डेशन का बहुमूल्य ‘व्यास-सम्मान’ अस्वीकृत कर दिया था. सन् 2010 में उन्होंने कांग्रेस की यू.पी.ए. सरकार के समय ‘पद्म भूषण’ अलंकार लेने से मना कर दिया था. इसी तरह साहित्यकारों के पक्ष में बोलने में असमर्थ रहने वाली साहित्य अकादमी का पुरस्कार तथा फैलोशिप भी उन्होंने लौटा दी थी. कृष्णा सोबती लेखक की स्वायत्ता और स्वतंत्रता पर सरकारी बंदिशें या छाया किसी भी रुप में नहीं चाहती थीं.
कृष्णा सोबती पुरस्कार और उन्हें मिलने वाले सम्मान से तब और ऊँची हो जाती हैं, जब वे देश में घटित घटनाओं और आन्दोलनों पक्ष-विपक्ष में अपनी तीखी प्रतिक्रियाएं व्यक्त करती हैं. इनसे उनके सामाजिक सरोकारों का दायरा अनंत हो जाता है. नर्मदा बचाओ आन्दोलन के लिए राष्ट्रपति के नाम काव्यात्मक पत्र और 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद के ध्वंस पर उनकी तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की थी. यही नहीं उन्होंने अपने घर पर लेखकों एक बड़ी बैठक भी आयोजित की थी. इसी तरह लेखकीय अस्मिता के कई ‘सत्याग्रहों’ में उनकी उपस्थिति चमकने और सत्ता प़क्ष के लिए कौंधने वाली सिद्ध होती थी.
92 वर्ष की उम्र में उन्होंने मुक्तिबोध की जन्मशती पर उन्हें एक पुस्तक के रुप में श्रद्धांजलि दी- ‘मुक्तिबोध: एक व्यक्तित्व सही की तलाश में. मुक्तिबोध के प्रति उनकी आस्था 1964 से ही रही जब वे एम्स अस्पताल पहुंच जाती थी. वहां अशोक वाजपेयी, उनकी भावी पत्नी रश्मि जी और श्रीकान्त वर्मा उपस्थित मिलते रहे.
कृष्णा सोबती की सामाजिक-प्रतिबद्धता उनके लेखन के साथ सत्ता प्रतिष्ठानों के विरुद्ध उनकी दो-टूक आवाज़ और उनके वसीयतनामा में स्पष्ट होती है. आज़ादी की चेतना से उनका लेखन उदय होता है और उनके ही शब्दों में
‘‘लेखन मात्र लिखना ही नहीं, लिखना जीना है, भिड़ना है सामना करना है.’’ कृष्णा सोबती के जीवन में डूबकर विश्राम पाने की कोई चाह और राह नहीं. वे अंतिम समय तक अपने ताप से उगती रहीं और रोशनी बिखेरती रहीं.
कृष्णा सोबती का वसीयतनामा स्वयं अपने आप में हिन्दी-साहित्यिक जगत की एक धरोहर है. इसमें कृष्णा जी ने अपने घर परिवार के किसी सदस्य को ट्रस्ट-फाउण्डेशन में शरीक नहीं किया. कृष्णा जी ने अपनी सेवा में अठारह बरस बिताने वाली सहायिका विमलेश के आवास के लिए स्थायी बन्दोबस्त कर दिया. इसके साथ ही उन्होंने फाउण्डेशन के जरिये विमलेश की मदद जारी रखने की व्यवस्था भी पक्की की.
कृष्णा सोबती ने एक करोड़ रुपये से अधिक की रज़ा फाउण्डेशन के अशोक वाजपेयी को दी. इसी तरह ज्ञानपीठ पुरस्कार 2017 के ग्यारह लाख की राशि भी रज़ा फाउण्डेशन को प्रदान की. इन राशियों से ‘‘शिवनाथ कृष्णा सोबती निधि’’ रज़ा फाउण्डेशन ने बनायी और अलग से उसके उद्देश्यों के अनुसार कार्यक्रम शुरु किये.
अशोक वाजपेयी ने कृष्णा जी आग्रह किया कि ज्ञानपीठ की राशि अपने खर्चो के लिए रख लेनी चाहिए. परन्तु कृष्णा जी ने मना कर दिया. उल्लेखनीय है कि कृष्णा सोबती ने आनंद लोक सोसाइटी का फ्लैट भी कुल्लू या शिमला में अपनी तरफ से ‘लेखक-गृह’ बनाने पर विचार कर रही थीं. गिरधर राठी लिखते हैं – ‘किश्तों में और फिर एकमुश्त, कापीराइट राजकमल प्रकाशन को बेचने के बाद मिली रायल्टी भी उन्होंने सिर्फ अपने खुद पर खर्च की हो, ऐसा नहीं. सर्वस्व एवं आत्मदान के ऐसे उदाहरण बहुत खोजने पर ही मिलेंगे.
गिरधर राठी के अनुसार कुछ आलोचकों का आक्षेप है कि कृष्णा सोबती की रचनाओं में संयोगों की भरमार है. वे आगे बताते हैं कि खुद उनके जीवन में संयोगों का घटाटोप-सा छाया रहा जिसकी एक मिसाल कृष्णा सोबती और शिवनाथ का सहजीवन है. गिरधर राठी ने कृष्णा – शिवनाथ अध्याय का शीर्षक दिया ‘नदी नाव संयोग’ अपने में बहुत कुछ कहता है.
इन दोनों की जन्मतिथि और जन्म वर्ष एक है, दोनों की माताओं का नाम एक, लाहौर में दोनों पढ़े. इन संयोगों के कई-कई आदि हैं. देश की आज़ादी और बंटवारे के बाद शरणार्थियों की आवक और नयी दिल्ली के बढ़ने-बनने के सूक्ष्म ब्यौरे शिवनाथ और कृष्णा जी दोनों की किताबों में मिलते हैं.
शिवनाथ जी भारत-सरकार के एक बड़े आई़. ए. एस. अधिकारी थे. वे 1983 में उनकी पत्नी के निधन के बाद (वे पुत्र को पहले ही खो चुके थे) शिवनाथ अकेले 1989 में आनंदलोक सोसाइटी के अपने अपार्टमेन्ट बी-505 में रहने आ गए. भारत सरकार तथा अन्य देशी- विदेशी संस्थानों के, या वहां से पदमुक्त विद्वानों-अफसरों की यह गेट बन्द बस्ती शिवनाथ जी को रास आ गई.
कृष्णा सोबती ने 1990-91 में उसी आनन्दलोक सोसाइटी का बी-503 नम्बर का फ्लैट खरीदा. शिवनाथ जी ने सोसाइटी एसोसिएशन के अध्यक्ष के नाते सोसाइटी के पुस्तकालय-वाचनालय का उद्घाटन करने आयीं कृष्णा सोबती को पहली बार देखा था. इसके बाद इण्डियन लिटरेचर के सम्पादक के आग्रह पर ‘ऐ लड़की’ का चुनौतीपूर्ण अंग्रेजी अनुवाद किया. इसके बाद ‘डार से बिछुड़ी’ का अनुवाद शुरु किया.
कृष्णा जी को शिमला में नेशनल फैलो का आमंत्रण मिला तब शिवनाथ भी अगले तीन साल में कुछ महीने हर वर्ष सोबती जी के अतिथि के रुप शिमला में उनके घर रहे. सितंबर 1919 में दिल्ली लौटने के बाद कुछ दिन शिवनाथ के घर रहकर भोपाल के अपने फ्लैट में चली गयीं. भोपाल में कृष्णा जी बीमार हो गयी शिवनाथ जी वहां गये और एक महीना रुककर आ गये. कृष्णा जी जब स्वस्थ हुईं तो दिल्ली वापिस आ गयी और तभी उन्होंने साथ रहना शुरु किया.
प्रो. श्यामाचरण दुबे एवं डॉ. लीला दुबे के फ्लैट में 24 नवम्बर 2000 को मैरिज रजिस्टार के सामने एक दो जनों की उपस्थिति में विवाह हुआ. साहचर्य में उम्र का क्या सवाल ? एक-दूसरे की उपस्थिति की उष्मा काफी रही.
लेखक कृष्णा सोबती और लेखक अनुवादक शिवनाथ जी का ‘विवाह’ उन दोनों की 75 वर्ष की आयु में हुआ. दोनों की जन्मतिथि और जन्म वर्ष 18 फरवरी 1925 थी. क्या विवाह केवल दो शरीरों के ही होते हैं ? क्या विवाह जैसे बंधन से साहचर्य और लेखकीय सलाह-मशविरा से उत्पन्न रचनात्मकता कम है.
समय-सरगम में कृष्णा जी के शब्द हैं- ‘वे अपने कमरे में. मैं अपने कमरे में मेरी आदत रात-रात भर काम करने की, सुबह देर से उठने की. उनका दिन प्रातः से शुरु. हम दोनों के स्वभाव अलग लेकिन एक दूसरे को पूरी तरह समझने वाले…….’
24 नवम्बर 2000 को एक घर और दो अलग कमरों में साथ रहने वालों में एक शिवनाथ जी 7 फरवरी 2014 को वह कमरा और यह संसार खाली कर गए. उनकी विदाई के पांच वर्ष बाद 25 जनवरी 2019 को कृष्णा सोबती ने भी इस हमारी साहित्यिक दुनिया में हमारे लिए अपना ‘दूसरा जीवन’ शुरु किया.
पुस्तक: कृष्णा सोबती की जीवनी: दूसरा जीवन/लेखक – गिरधर राठी/ प्रकाशक – सेतु प्रकाशन और रजा फाउण्डेशन का सह-प्रकाशन / पृष्ठ – 279 / प्रथम संस्करण 2021/ मूल्य – 280रु.
_______________________
कश्मीर उप्पल
एमआईजी – 31, प्रियदर्शिनी नगर
इटारसी (म.प्र.) 461 111
मोबाईल – 9425040457
गिरधर राठी लिखित कृष्णा सोबती की जीवनी दूसरा जीवन की समीक्षा समालोचन में पढ़ी, जिसे कश्मीर उप्पल ने लिखी है।
किताब के बारे में ठोस जानकारी हासिल करना है तो यह समीक्षा अवश्य पढ़ लेना चाहिए।
कश्मीर उप्पल जी को बधाई।
दूसरा जीवन की बहुत अच्छी समीक्षा।ऐसी कि हमेशा किसी रचना की तरह याद रहे।
अद्भुत… अविस्मरणीय! कृष्णा जी की समूची शख्सियत जैसे आँखों के आगे आ गई। गिरधर राठी जी द्वारा लिखी गई इस विलक्षण जीवनी का आस्वाद तो मिला ही, कश्मीर उप्पल ने जिस गहरे जुड़ाव और रागात्मकता के साथ लिखा है, उसकी भी एक गहरी छाप मन पर है, और बनी रहेगी।
इस सुंदर सर्जनात्मक समीक्षा को पढ़वाने के लिए ‘समालोचन’ और भाई अरुण जी को साधुवाद!
स्नेह,
प्रकाश मनु
कश्मीर भाई की ये विचारोत्तेजक समीक्षा ‘दूसरा जीवन’ को सिर्फ़ पढ़ने के लिए ही नहीं उकसाती बल्कि आपको अपने आपसे से रू-ब- रू कराने की एक उत्तेजनात्मकता दृष्टि भी देती है.
कश्मीर भाई बहुत ही विनम्र और गहराई से भरे
व्यक्तित्व हैं, उन्होंने अपने से भी गहनतम संवाद किया है .
वैसे भी आजकल समीक्षा कृशकाय हो गई है,
पता नहीं संवाद का ये खुला आसमान इतना बंद क्यों होता जा रहा है, वैसे भी दुनिया ऊलजलूलता से भरी पटी है .
ऐसे बीहड़ समय में विचारों के आदान-प्रदान से
संपन्न- परंपरा का लगभग खो जाना दुखदाई व क्लेशपूर्ण तो है ही साथ ही साथ संवादहीनता को बियावान करना कमोबेश ग़ैरज़िम्मेदार दायित्व भी है.
गिरधर राठी जी ने कृष्णा जी के जीवन के विस्तीर्ण आकाश में विचरते हुए बहुविध नक्षत्रों
की खोज की है , जो लगभग लुप्त-प्राय: थे.उन्होंने जीवन की समग्रता और रचनाधर्मिता को जिस विराट परिदृश्य को गहराई से देखा,जाना,और पाया है वह राठीजी की प्रखर पैनी तीक्ष्ण दृष्टि से ही संभव था . यह सिर्फ़ आत्म-कथा भर नहीं है, उनकी रचनाशीलता का विस्तृत आख्यान भी है. ये स्मृति वंचित नहीं वरन स्मृति जीविता का वैचारिक संवाद है तो भावोच्छवास के साथ बौद्धिकता की घनीभूत जीवंतता भी है.
वे कृष्णाजी से कितनी बार मिले,उतनी बार जितनी बातचीत हुई उस मंथन से नये- नये रत्न नयेपन के साथ बटोरते रहे, उन असंख्य रत्नों की
प्रदीप्ति से’दूसरा जीवन’ दमकता, प्रकाशित होता रहेगा .
राठीजी के प्रसंग में, मैं तो कुछ नहीं कह सकता वे तो सूर्य हैं और मैं उनकी एक टूटी-फूटी रश्मि को चुरा लेता हूँ.
कश्मीर भाई को पुनः-पुन: धन्यवाद, आभार.
वंशी माहेश्वरी.
बहुत बढ़िया परिचय कृष्णा जी के जीवन का…उनकी रचनाओं से तो हम परिचित हैं पर उनके जीवन से थोड़ा कम – इस आलेख ने उन धुंधलकों पर रोशनी डाली है।
– यादवेन्द्र
कृष्णा सोबती की जीवनी को साहित्य के अलावा एक अच्छे माता -पिता के लालन -पालन की संस्कृति को समझने के लिए भी पढ़ा जाना चाहिए विशेषकर लड़कियों की। हमारे घरों में पुस्तकों तो खरीदी ही जाती हैं पर रात में बच्चों के बीच बैठकर उन्हें पुस्तक पढ़कर सुनाना शायद ही होता हो। बच्चों के लेखनी पर ध्यान देना। डायरी लिखने को प्रेरित करना.बच्चों को लाइब्रेरी जाने पुस्तकें लाने को प्रेरित करना. अकेला होने पर लड़कियां किस बात का ध्यान रखें और साहस और स्पष्टवादिता आदि संस्कारों के साथ कृष्णा सोबती सम्पूर्ण रुप से प्रौढ़ हुई हैं. उनका यह बचपन ही वह पौधा है जो आज उनका ही नहीं हमारा ज़िन्दगीनामा बनकर हमें छाया दे रहा है…कश्मीर उप्पल
अभी मूल पुस्तक नहीं पढ़ी है पर कश्मीर उप्पल जी की समीक्षा ने उत्सुकता बढ़ा दी है। गिरधर राठी जी ने ‘दूसरा जीवन’ के माध्यम से कृष्णा सोबती जी को एक और जीवन देने समतुल्य कार्य किया है। एक लेखक के जीवन के कई पक्ष होते हैं जिन्हें राठी जी ने सम्यक दृष्टि से देखा-लिखा है। राठी जी और उप्पल जी, दोनों को धन्यवाद।
जिस पुस्तक पर टिप्पणी इतनी प्रवाहमान है, वह पुस्तक कितनी रोचक और यथार्थ से परिपूर्ण होगी । जीवन, समय के साथ सत्ता और अन्याय से लडने का जज्बा बहुत कम लोगों में होता है । उनमें से एक कृष्णाजी थी । उप्पल सर को धन्यवाद एक बेहतर पुस्तक से परिचय कराने के लिए ।
कश्मीर उप्पल की समीक्षा गिरधर राठी की किताब को पढ़ने की उत्सुकता जगाती है. किताब के प्रति आकर्षित करने के लिए भाई अरुण देव का धन्यवाद.
बहुत अच्छा लेख। कई नई बातें पता चलीं।