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Home » कृष्णा सोबती : कुछ खत, एक पिक्चर पोस्टकार्ड : आशुतोष भारद्वाज

कृष्णा सोबती : कुछ खत, एक पिक्चर पोस्टकार्ड : आशुतोष भारद्वाज

कृष्णा सोबती पर आशुतोष भारद्वाज का यह ‘स्मरण’ कृष्णा जी के जीवन के ऐसे पहलूओं को सामने लाता है जिस पर वह खुद मौन रहना पसंद करती थीं, हालाँकि यहाँ भी वह बहुत मुखर नहीं हैं. किसी भी मेजर राइटर का जीवन जिन उदात्त और सकर्मक तंतुओं से बुना रहता है, उसका कुछ एहसास इस ललित आलेख को पढ़ते हुए होता है. आशुतोष भारद्वाज बहुत अच्छा लिख रहें हैं,  कृष्णा जी पर इसी तरह लिखा जाना चाहिए.

by arun dev
April 1, 2019
in आलेख
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कृष्णा सोबती : कुछ खत, एक पिक्चर पोस्टकार्ड : आशुतोष भारद्वाज

(यह तस्वीर ओम थानवी द्वारा ली गयी है)

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कृष्णा सोबती

कुछ खत, एक पिक्चर पोस्टकार्ड                       
आशुतोष भारद्वाज


उनका मुझे पहला फ़ोन २०१० में आया था. मेरा तब तक उनसे कोई परिचय नहीं था, सिवाय इसके कि महीना भर पहले मैं उनसे ‘कथादेश’ के एक विशेषांक के लिए रचना लेने उनके घर गया था. इसलिए उनकी बात सुन मैं हतप्रभ रह गया था,लेकिन २०१७ की फ़रवरी में जो उन्होंने मुझसे कहा उसका मुझे क़तई यक़ीन नहीं हुआ.

उन्हें अंत नज़दीक दिख रहा था. उनकी स्टडी उनकी अप्रकाशित पांडुलिपियों, प्रकाशित उपन्यासों  के पुराने मसौदों, ख़त,डायरी और तमाम क़िस्म के काग़ज़ व दस्तावेज़ों से अटी पड़ी थी.

मैं अब यह सब नहीं कर पाऊँगी. मेरे पास समय नहीं बचा है. आप इन काग़ज़ों में से काम की चीज़ निकाल कर बाक़ी नष्ट कर सकते हैं?

पिछली बार उन्होंने मुझे अपनी लेखकीय दुनिया में बुलाया था, लेकिन इस बार बुलावा निजी संसार का था. एक ऐसा बुलावा जहाँ वह मुझे अपने कमरे के अंदर भेज ख़ुद बाहर जा बैठ गयीं थीं. मैं अकेला उनके शब्दों, उनकी सृष्टि से रूबरू था. एक विश्वविद्यालय उनकी पांडुलिपियाँ और अन्य दस्तावेज़ अपने अभिलेख़ागार के लिए चाहता था लेकिन वे उन्हें देने से पहले संतुष्ट हो जाना चाहती थीं कि कहीं कोई हल्की लिखत न चली जाए.

मैं आए दिन कई घंटे उनकी स्टडी में बिताने लगा. उनके ख़त, नोट्स. हम हशमत, ज़िंदगीनामा के न जाने कितने मसौदे. सफ़ेद काग़ज़ पर उनके बड़े और कंपकंपाते शब्द. हम दोनों साथ खाना खाते, विमलेश बड़े स्नेह से परोसती जातीं. उनके काग़ज़ों से शुरू हुआ सिलसिला जल्द ही लम्बा होता गया, उनके अतीत के तमाम कोने-कोटरों तक पहुँचता गया. वह अपने जीवन में उतरती जातीं. मैं किसी बायोग्राफ़र सा नोट्स लेता रहता.

ऐसी ही एक दोपहर वे बोलीं. “मुझे एक पिक्चर पोस्टकार्ड मिला. उन दोनों ने मुझे लिखा है-“हम दोनों यहाँ शराब पी रहे हैं, तुम्हें याद कर रहे हैं.”

कौन दोनों?

वह हँसने लगीं. स्मृति में डूबी हंसी जिसके किनारों पर बीते दिनों की चमक थी. हँसते वक़्त उनका चेहरा ऊपर उठ जाता था. शायद आकाश में उन्हें पुराने दोस्त दिखलाई देते थे.

पिछली किसी दोपहर जब मैं आ नहीं सका था अपने पुराने कागजों को टटोलते में उन्हें किसी फ़ाइल में दबा एक पीला पड़ चुका पिक्चर पोस्टकार्ड मिला था. वक्त पर किसी ने ताला-सा मार दिया. मेज पर बिखरे तमाम काग़ज़ों के बीच पचास बरस पुराना वह पोस्टकार्ड. उस पर दो इंसानों के हस्ताक्षर होंगे. यूरोप के किसी शहर की तस्वीर, जहाँ से इसे भेजा गया होगा.

उनमें से एक को वह बचपन से जानतीं होंगी, जब वह और कृष्णा शिमले में पढ़ते होंगे. दूसरे से वह कुछ साल बाद लाहौर में मिलेंगी, जब वह गवरमैंट कॉलेज में शिवनाथ के साथ पढ़ते थे, और कृष्णा फतेह चंद कॉलेज में. बीस से कम की कृष्णा तब तलक शिवनाथ से एकदम अपरिचित थीं, जिनसे वह पहली मर्तबा अपने पांचवें दशक में मिलीं थीं और फिर अंत तक उनके साथ रहीं थीं. वह विभाजन के पहले का लाहौर था जिसके सामने दिल्ली एक सूखा हुआ गाँव नजर आता था. किसी को नहीं मालूम था कि कृष्णा की ही तरह वे दोनों भारतीय कथा साहित्य को अनूठे मोड़ देने वाले थे, जिन्होंने कई दशक बाद वह पोस्टकार्ड प्राग से भेजा था, जिस पर प्राग के ओल्ड टाउन हॉल की तस्वीर थी, और दूसरी तरफ़ काली स्याही में यह पंक्तियाँ:

“प्रिय कृष्णा जी,
जब कभी दिल्ली में मिलते थे. संग ‘पीने’ का अभाव खलता था, अब पीने का अभाव नहीं, लेकिन आपकी कमी बहुत अखरती है.

निर्मल”

और इसके ठीक नीचे-

“इत्तफ़ाक़ से मैं भी निर्मल के साथ बैठा हूँ, और मैं उससे सहमत हूँ.

कृष्ण बलदेव वैद”

 

(दो)

निर्मल और वैद के अलावा एक अन्य लेखक का ज़िक्र वह अक्सर करती थीं, स्वदेश दीपक. निर्मल २००५ में चले गए, कई मर्तबा आत्महत्या के असफल प्रयासों के बाद दीपक क़रीब एक दशक पहले “ग़ायब” हो गए. उनकी मृत्यु की आधिकारिक पुष्टि अभी तक नहीं हुई है. कृष्णा ने कभी नहीं कहा कि स्वदेश दीपक की मृत्यु हो गयी. “वे अब इस ग्रह पर नहीं हैं,”वह कहती थीं, यह याद करते हुए कि “वह हमेशा अपने साथ शराब की बोतल लेकर चलते थे.”

निर्मल और सोबती की अपने काम पर बहस कभी तल्ख़ भी हो जाया करती थी. एक बार निर्मल ने उनके लेखन को “मिथ” कह दिया. “कृष्णा, योर राइटिंग इज़ अ मिथ.”

सोबती ने तुरंत आक्रोश में उन्हें याद दिलाया कि वे एक झटके से “वे बीस वाक्य”  बतला सकती हैं  “जो उन्होंने चेकोस्लोवाकिया के उपन्यासों से उठाए हैं”.

लेकिन उस शाम निर्मल को याद करते हुए उन्होंने तुरंत जोड़ा: “निर्मल की उपस्थिति के कुछ और ही मायने थे…वह अत्यंत रचनात्मक उपस्थिति थी.”

“जल्दी चला गया…ही वॉज अ गुड चैप,”  वह बोलीं, एक विरल क्षण जब उनकी आँख नम हो गयी थी. “मैं उनके बारे में कल ही सोच रही थी.”

उनकी फ़ाइलों में निर्मल का तो शायद एक पिक्चर पोस्टकार्ड ही था जो उन्होंने वैद के साथ भेजा था, ‘केबी’ के  कई ख़त थे. कुछ ख़त अमरीका से भेजे गए थे, जब वह वहाँ पढ़ाते थे. वैद उन दिनों अमरीका में थे. अभी भी वहीं हैं. उनके भारत आने की सम्भावना बहुत कम थी, लेकिन कृष्णा आश्वस्त थीं कि वैद ज़रूर लौटेंगे. “एक बार केबी से भेंट ज़रूर होगी.”

वैद लौटे नहीं, उससे पहले ही वह चली गईं.

जब वह अपने दोस्तों के बारे में बतातीं थीं, मुझे लगता था कोई किताब लिखी जानी चाहिए इन लेखकों की यारी पर. इनके राग-द्वेष, प्रेम और हिंसा. किस तरह ये एकदूसरे के काम को बरतते थे. एक किताब जो इनकी दोस्ती के आईने से स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी साहित्य की भी कथा सुनाती चलती हो. वैद की डायरी में भी निर्मल का जिक्र बार-बार आता है. उनकी हालिया किताब ‘अब्र क्या चीज़ है? हवा क्या है?’ में निर्मल की मृत्यु के बाद कई पन्ने निर्मल पर हैं. पच्चीस अक्तूबर दो हजार पाँच, मृत्यु से कुछ ही घंटे पहले की वैद की यह डायरी: “आज कृष्णा के फोन के दौरान जब निर्मल का ज़िक्र आया और मैंने उसे निर्मल की बुरी हालत के बारे में बताया तो वह बुझ गयी और हम दोनों उदास हो गए.”

और अगले दिन चिता के सामने यह डायरी: “निर्मल की मौत में मुझे अपनी मौत दिखाई देती रही.”

 

(तीन)

इन्हीं लम्हों में हमने तय किया था कि इस संवाद को एक रूप दिया जाए.

“मेरा आखिरी साक्षात्कार”.

वे कई बार दोहराती थीं, उस वक्त भी जब उनकी बांयी कलाई सुईयों से बिंध चुकी थी.

एक सुई से निकलती ट्यूब उनके बिस्तर के ऊपर टंगी बोतल तक जा रही है. चार महीने पहले वे बानवे की हो गयीं. भारत की सबसे उम्रदराज और सयानी रचनाकार. कई दिनों से अस्पताल में हैं, लेकिन सुबह का अख़बार अभी भी उनके सिरहाने रखा है.

यह २०१७ की जून का पहला हफ़्ता है. अपनी हस्तलिखित पांडुलिपियों के कई बक्से वे एक विश्वविद्यालय को हाल ही दे चुकी हैं. हम पिछले तीन-चार महीनों से लगातार मिल रहे हैं– उनका मयूर विहार का घर, और अब दक्षिण दिल्ली का यह अस्पताल. उनका यहाँ पांचवा दिन है, कल उन्होंने फ़ोन कर मुझे अस्पताल आने को कहा था. वे इस ‘साक्षात्कार’ को जल्द पूरा कर लेना चाहती हैं. लेकिन अब यह साक्षात्कार नहीं रहा है. हम उन तमाम जगहों पर पहुँच रहे हैं जिन्हें यात्रा शुरू करने से पहले ध्येय नहीं किया था, जो इस पाठ में दर्ज नहीं हुआ है,  शायद ज़रूरत भी नहीं है.

कई बार मिलते ही उनका पहला वाक्य होता है — आपके सवाल मुझे सोने नहीं देते. मैं सुबह से ही आपके आने की तैयारी शुरू कर देती हूँ.

वे हँसती हैं. 

उनके बोलने की गति बहुत तेज़ है. शब्द न मालूम कहाँ से बिखरे आते हैं. अनेक दशकों तक फैली स्मृतियाँ वाक्यों में घुमड़ती आती हैं. उनका बचपन, तमाम शहर, लेखकीय जीवन, दोस्त– समूचा जीवन एक ही वाक्य में उतर आता है.

उनका आग्रह है मैं उनकी आवाज़ रिकॉर्ड न करूँ, उनके कहे को काग़ज़ पर लिखता चलूँ. मैं कहता हूँ- आप तो व्यास हैं, लेकिन मैं गणेश नहीं हूँ.

उनकी रचनात्मक ऊर्जा और लेखकीय प्रतिबद्धता पर उम्र का कोई असर दिखाई नहीं देता. वह रोज़ तीन अख़बार पढ़ती हैं,लेखकों-बुद्धिजीवियों के प्रतिरोध सम्मेलनों और सेमिनारों में जाती हैं और लगभग रोज किसी को अपने आतिथ्य से नवाजती हैं. वह आज भी पूरी तरह सजग और सतर्क हैं. उन्हें अपने बचपन का गाँव, दोस्त और किताबें याद हैं, वे घोड़े भी जिनकी सवारी उन्होंने बचपन में की.

इस पड़ाव पर भी वह अपने हरेक शब्द को लेकर अत्यंत सजग हैं. जो भी मैं लिख रहा हूँ उसे मुझे बोल कर सुनाने को कहती हैं. अगर कुछ दिन मैं आ नहीं पाता, तो मुझसे फोन पर पिछली बार का लिखा सुनती हैं. हाल ही उनकी मुक्तिबोध पर किताब आयी है. विश्व साहित्य में शायद ऐसे अवसर कम ही होंगे जब अपने तिरानवे वर्ष में किसी सर्जक ने एक समकालीन रचनाकार पर किताब लिखी हो. उम्र का वह क्षण जब हम अपनी बची चीजें समेटने में व्यस्त होते हैं, वे किसी दूसरे लेखक पर किताब को आकार दे रही थीं. लेकिन वह उसकी छपाई को लेकर प्रकाशक से बहुत नाराज़ हैं. सारी प्रतियाँ उठवा लेना चाहती हैं. उन्होंने साठ साल पहले अपने पहले उपन्यास चन्ना की पांडुलिपि प्रकाशक से वापस ले नष्ट कर दीं थीं. अपने शब्द-कर्म पर उन्हें अखंड अभिमान है.

एक घटना का वे अक्सर जिक्र करती थीं. नब्बे के दशक में जब वे भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान में राष्ट्रीय फैलो थीं, संस्थान के नए अध्यक्ष गोविंद चंद्र पांडे आए हुए थे. एक औपचारिक सत्र में उन्हें सभी फैलो से मिलना था. पांडे ने सभी से अपना परिचय देने को कहा. कृष्णा को यह बात बहुत अखरी कि जो व्यक्ति उन्हें जानता है, वह उनका परिचय मांग रहा है. “हम पिछले कुछ दिनों से मिल रहे हैं. फिर भी आप मेरा नाम जानना चाहते हैं.      I have an ordinary name, but sir, my signature is very expensive (मामूली सा मेरा नाम है, पर श्रीमान मेरे हस्ताक्षर का बड़ा मूल्य है)” , वे सबके सामने बोलीं थीं.

जून की इस दोपहर वह अस्पताल में अपने कमरे के पलंग पर लेटी हैं, आसमानी नीला गाउन पहने. विमलेश उनके बिस्तर को पैंतालिस डिग्री के कोण पर उठाती हैं. उनके चेहरे पर ताज़ी बर्फ़ सी झुर्रियाँ हैं, आँखों में पहली बरसात की चमक.

“कहाँ थे हम पिछली बार?”



(चार)

यह ‘आखिरी साक्षात्कार’ अधूरा रह गया. दो महीने बाद, सितंबर २०१७, मैं शिमला की उसी पहाड़ी पर रहने चला गया, उसी संस्थान में फैलो बन जहाँ कभी नब्बे के दशक में कृष्णा रहा करती थीं. वैद भी उन्हीं दिनों हफ़्ते भर के लिए यहाँ आए थे, सोबती-वैद संवाद यहीं दर्ज़ हुआ था, संयोग से उसी काँच-घर में जो आज मेरी स्टडी है, जहाँ मैं ये शब्द लिख रहा हूँ.  संस्थान के कर्मचारी विजय को अभी भी याद है कि उन्होंने सोबती-वैद संवाद के लिए टेप रिकॉर्डर इसी काँच-घर की मेज पर रखा था.

निर्मल भी यहीं रहे थे, सत्तर के दशक की शुरुआत में.

मेरे यहाँ आने के बाद वे फोन पर संस्थान और उन जगहों के बारे में उमंग से पूछती थीं जहाँ वह कभी रहीं थीं. उनकी आवाज़ में झुर्रियाँ और सलवटें नहीं थीं. उनका स्वर ऊर्जा और उत्साह से सराबोर होता था. वह शिमले की बर्फ़ और बरसात को ले उत्सुक रहती थीं, और यह जानकर खिल जाती थीं कि उनका पहाड़ बहुत अधिक नहीं बदला है. “बहुत सुंदर. मुझे अभी भी अपना अपार्टमेंट याद आता है.”

सुंदर. प्यारा. उत्तेजना.

ये शब्द उनकी वर्णमाला में बार-बार आते थे. उन्हें शिमले के संस्थान को छोड़े पच्चीस बरस हो गए थे लेकिन यहाँ के पुराने कर्मचारी अभी भी उन्हें याद करते थे. करीब पैंतालीस वर्षों से शांतिनिकेतन में रह रहे जर्मनी के टैगोर अध्येता मार्टिन कैंपचेन उन्हीं दिनों यहाँ तीन महीने के लिए एसोशिएट फैलो बन कर आए थे. कृष्णा ने मार्टिन को एक गरम कमीज भेंट की थी. जिस पर उन्हें स्नेह उमड़ता था, उसे वह अक्सर ऊनी कपड़े दिया करतीं थीं. मार्टिन उन्हें याद कर कहते हैं. “वे मेरी स्मृति में अभी भी दर्ज हैं. बहुत ही निर्भीक और स्वाभिमानी महिला थीं.”

 

(पांच)

मेरे पास उनका सबसे पहला फोन 2010 में आया था. वे अपनी एक किताब की पाण्डुलिपि प्रकाशक को भेजने से पहले मुझे पढ़वाना चाहतीं थीं. मेरी तब कुछ कहानियाँ ही प्रकाशित हुईं थीं. उनके भरोसे पर हतप्रभ मैं मेज पर रखी उनकी पाण्डुलिपि के कागज समेट रहा था कि उन्होंने विमलेश को आवाज दी. विमलेश को जैसे मालूम था, वे अंदर से एक लिफाफा ले आयीं. मैं भौंचक. उसमें रखी राशि आज के स्तर पर भी अच्छी-ख़ासी थी. लेखक अक्सर मित्रों की पांडुलिपियाँ पढ़ते हैं,  अजनबियों की भी. इसके एवज में पैसा देना एकदम अनसुना, अप्रत्याशित था. मैंने बहुत मना किया लेकिन वे नहीं मानीं – ‘जो लोग लिखते हैं, मैं उनके समय की बहुत कद्र करती हूँ.”

इसके बाद जब भी वह मुझसे अपने लिखे पर राय चाहती थीं,  हमेशा जिद कर एक लिफाफा थमा दिया करतीं थीं. २०१७ की गरमियों में जब उनके घर काफ़ी समय बिताने के बाद भी उनके काग़ज़ ख़त्म नहीं हो रहे थे, तो मैं उनकी फ़ाइलें घर ले जाने लगा. हर चौथे-पाँचवें दिन तीन-चार फ़ाइल ले जाता, कुछ दिन बाद छँटनी कर उन्हें लौटा जाता, दूसरी फ़ाइल ले जाता. ऐसी ही किन्हीं फ़ाइलों में मुझे कुछ ख़त और काग़ज़ मिले, जो मुझे लगा सार्वजनिक नहीं होने चाहिए. अभिलेख़ागार भी नहीं जाने चाहिए. उन्होंने बड़ी निष्ठा से अपने एकांत को जिया था. पिछली पूरी सदी और इस सदी के दो दशकों पर उनका जीवन फैला हुआ था. उनके दोस्त थे, प्रेम भी, लेकिन उनके एकांत में कभी किसी का दख़ल नहीं था.

एक बार उनको आए किसी खत को पलटते हुए मैंने उनसे पूछा था.

“रोमांस?  उससे?” वह हंसने लगी, जिसके मायने कुछ भी हो सकते थे.

पिछले वर्षों में उन्होंने अपने कई करीबी मित्रों को जाते हुए देखा था. एक बारीक अवसाद उनके ऊपर अक्सर बिछ जाता. “मैं अभी भी बची हूँ,” वे अक्सर कहतीं. क्या उन्हें यह ख्याल सताता था कि उनके बाद उनकी चीजों का क्या होगा? ढेर सारी किताबें, खत, फ़ाइल. हमारा संवाद अक्सर उनकी बिखरी चीजों पर आ अटक जाता. उनका स्वाभिमान उन्हें इस फिक्र को स्वीकारने नहीं देता था लेकिन उनकी कसक कभी उनके बड़े फ्रेम वाले चश्मे के बाहर झलक जाती थी. वे लेखकों के लिए एक रेजीडेंसी स्थापित करना चाहतीं थीं.

मृत्यु भी कभी बर्फ के पाँव लिए आती है, गरिमा और मौन के साथ. वे जिस दिन गईं उनका प्रिय शहर शिमला बर्फ से ढका हुआ था. ठीक जिस क्षण उन्होंने दिल्ली में आखिरी सांस ली, छाता लिए एक स्त्री शिमले में मेरे काँच-घर की खिड़की के नीचे से गुजर रही थी. बर्फ गिर रही थी. रात भर गिरती रही थी.

_________________ 

शिमला के उच्च अध्ययन संस्थान के फ़ैलो, पत्रकार, आलोचक, कथाकार, आशुतोष 
सम्प्रति दैनिक अख़बार ‘इंडियन एक्सप्रेस‘ में कार्यरत हैं.
ई पता : abharwdaj@gmail
Tags: आशुतोष भारद्वाजकृष्णा सोबती
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Comments 12

  1. Gopeshwar Singh says:
    3 years ago

    आशुतोष भारद्वाज का कृष्णा सोबती पर लिखा यह संस्मरण पढ़कर एक बढ़िया कविता पढ़ने – सा आनंद मिला। आशुतोष को बधाई।

    Reply
  2. अनुपमा says:
    3 years ago

    अद्भुत संस्मरण!

    Reply
  3. लता प्रासर says:
    3 years ago

    सभी आलेख ग्रहणीय और पठनीय है

    Reply
  4. ममता कालिया says:
    3 years ago

    आशुतोष भारद्वाज ने कृष्णा सोबती जी के अंतिम वर्ष अच्छे पकड़े हैं।लेखक का लिखा,अधलिखा,सब यों ही छूट जाता है।हर वरिष्ठ रचनाकार को आशुतोष कहाँ मिलते हैं।

    Reply
  5. धीरेंद्र अस्थाना says:
    3 years ago

    अभी कृष्णा सोबती पर लिखा तुम्हारा संस्मरण, अधूरा साक्षात्कार,जो भी कह लो,एक सांस में पढ़ गया। मैं जिंदगी भर इसी तरह का नायाब लेखन पढ़ना चाहता था लेकिन संपादक की नौकरी करने के कारण मुझे बहुत बहुत अधिक औसत लेखन और अनेक बार खराब लेखन भी पढ़ना पड़ा।यह अलग बात है कि मैंने अपनी सामर्थ्य भर ढूंढ ढूंढ कर अपने महबूब लेखकों का उम्दा साहित्य भी काफी पढ़ा। आज तुम्हें पढ़ने के बाद मेरे भीतर सोई यह कसक बनैली हो गई कि हाय, मेरा बहुत सारा कीमती समय व्यर्थ के लिए खर्च हो गया।
    उम्र में काफी छोटे होने के बावजूद आज से तुम भी मेरे महबूब लेखक हुए

    Reply
  6. Gita Pandit says:
    3 years ago

    आशुतोष जी ने बहुत आत्मीयता से लिखा है।

    Reply
  7. devendra mewari says:
    3 years ago

    पढ़ कर समृद्ध हुआ। शब्दों की हिम-पंखुड़ियां स्मृति के आकाश से बरस रही हैं और सचमुच खिड़की के नीचे से एक स्त्री गुजर रही है।

    Reply
  8. Hari mridul says:
    3 years ago

    आशुतोष, सदा की तरह इस बार भी खूब रचनात्मक लिखा। आत्मीय गद्य। अपूर्व छटा। युवाओं में कृष्णा जी पर भला ऐसा लिखने की और किसकी पात्रता? पाठ का ऐसा सुख बहुत कम मिलता है। भाई, आपकी यह रचनात्मकता। उत्तरोत्तर बढ़ती जाए। धन्यवाद समालोचन।

    Reply
  9. Anonymous says:
    3 years ago

    आपके शानदार लेखन में कृष्णा जी का शानदार व्यक्तित्व शानदार तरीके से प्रतिध्वनित हुआ….

    Reply
  10. कुमार अम्बुज says:
    3 years ago

    अंतिम पंक्तियाँ इस सुंदर, आत्मीय लिखत को कुछ अधिक सर्जनात्मक संस्पर्श देती हैं। पढ़कर सुख मिला।

    Reply
  11. Anonymous says:
    3 years ago

    आत्मीय संस्मरण.
    कृष्णा सोबती पर एक ज़रूरी बात.

    Reply
  12. अलका सरावगी says:
    3 years ago

    लगता है पढ़ते ही जाएँ!

    Reply

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समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

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