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Home » अन्यत्र : महामल्ल्पुरम : अपर्णा मनोज

अन्यत्र : महामल्ल्पुरम : अपर्णा मनोज

अपर्णा मनोज पिछले दिनों महामल्ल्पुरम की यात्रा पर थीं और इस सफर को उन्होंने इस संस्मरण में सांस्कृतिक यात्रा में बदल दिया है. इस धरोहर के संचयन के अनके स्तरों को जिस तीक्षणता के साथ समझने का वह प्रयास करती हैं, विस्मित करता है. मिथकों के अनवरत, अर्थगर्भित, रोचक आयामों से आपका परिचय कराता है यह संस्मरण.    

by arun dev
December 3, 2014
in अन्यत्र
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महामल्ल्पुरम

सफ़र में धूप तो होगी                        

अपर्णा मनोज 

रेत के बंजर किनारों पर मछुआरा राजा कौनसी मछली पकड़ने बैठा है? क्या मुझे अपनी ज़मीन को पुख्ता नहीं करना चाहिए? (कि उगाने के काबिल तो हो थोड़ी ज़मीन)

लन्दन का पुल टूट रहा है ध्वस्त ध्वस्त.

पीछे मेरे नरक की आग –गिरूंगा आग में तो निखरूंगा  ( दांते के इन्फर्नो की आग की कहानी है ये )

मुझे कोई गौरैया बना दे ? गौरैया बना दे ?( जैसे फिलोमिला की बहन प्रखने/ प्रोने नन्ही चिड़िया बन गई थी )

भरभरा कर गिर गए थे बुर्ज सभी उस महल के -जहाँ कभी रहता था राजकुमार अक्वेटीन ( यही तो घटा था ओडेसी में )

अतीत के खंडहरों को जमा कर रहा हूँ अपने टुकड़ों को जोड़ने के लिए

हायरेनिमो फिर से पागल हुआ है?  लो लिखता हूँ पुनश्च: वही नाटक (पागलपन का)

दत्ता द्याध्म दम्यता शांति शांति शांति

(एक शब्द के तीन अलग -अलग अर्थ -क्यों कहा था ब्रह्मा ने नींद से जागते हुए वह निरर्थक शब्द -“दा” (कठोपनिषद)….( TS Eliot, द वेस्ट लैंड के अंतिम छंद से)

महामल्ल्पुरम के उन काले शैल-स्कंधों के सामने खड़े होकर तुम्हें दोहरा रही हूँ कवि इलियट. यहाँ खासी धूप है. आसमान इतना अधिक बुहारा हुआ मुझे अपने शहर में नहीं दिखा. सोच रही हूँ कि चेन्नई में एक घंटा पहले जिन घने बादलों को छोड़ आई थी वे क्या अभी भी चेन्नई की छत पर टंगे होंगे. सोच रही हूँ ग्यारह तारीख को बंगाल की खाड़ी में जो हुदहुद आया था, उसकी कोई आहट तक नहीं यहाँ? सैलानी बस गुमनामियों में आश्चर्य देखते हैं और तस्वीर उतारते हैं. दृश्य और सैलानी आउटसाइडर हैं. उन्हें टोले-मेले पसंद हैं जबकि यायावर देखकर सुनता भी है, बोलता भी है. कुछ अपना सामान उस जगह पर छोड़ आता है और कुछ अपने साथ ले आता है. इधर कुछ कवि हुदहुद की खबर से खूब द्रवित हो उठे होंगे. अपनी फसल उगा रहे होंगे, कविता उविता में पैसा-वैसा नहीं वर्ना कहती कैश क्रॉप.
 
मुझे तो रसूल हमज़ातोव तुम याद आ रहे हो बेतरह. मैं उन तमाम संवेदनशील कवियों की खुशामदीद चाहते हुए तुम्हें यहाँ कोट कर रही हूँ, फ़कत मेरा दागिस्तान के बहाने –“विचार और भावनाएं पक्षी हैं, विषय आकाश है; विचार और भावनाएं हिरन हैं, विषय जंगल हैं; विचार और भावनाएं बारहसिंगे हैं, विषय पर्वत है, विचार और भावनाएं रास्ते हैं, विषय वह नगर है, जिधर ये रास्ते ले जाते हैं और आपस में जा मिलते हैं …” इसलिए रसूल तुमसे माफ़ी मांगते हुए आगे जोड़ रही हूँ –प्रक्षिप्त, विषय और भावनाएं आपदाएं हैं और विचार हुदहुद..
 
इस समय मैं वैदर फोरकास्ट क्यों याद कर रही हूँ? मुझे वो क्रॉसनुमा चार कपों वाली वेदरकॉक घूमती दिख रही है. हमारे ज़माने में वह केवल झकोरों की इत्तला दिया करती थी और हुदहुद हमारे लिए धूल में लोटने वाली एकांत प्रिय चिड़िया होती थी- जिसका रैन-बसेरा  बड़े पेड़ों का कोठर हुआ करता था. आज वही चिड़िया चक्रवात का प्रतीक है. कहते है हुदहुद ने कभी इजराइली बच्चों की जान बचायी थी. कई जगहों पर पेड़-पौधे, पक्षी, जानवर जीवन के टोटम हैं तो कई जगह वे पैथोलोजिकल संवृतियों के टोटम हैं. हुदहुद नाम देना मुझे एक देश के सांस्कृतिक दिमाग से जोड़ता है.
 
खैर, मेरे सामने एक व्हेलनुमा बड़ी ग्रेनाईट चट्टान खड़ी है. कोरोमंडल की टुकड़े –टुकड़े पीठ किन शिल्पकारों का ब्राइकोलेज है? मुझे इस फ्रेंच शब्द के लिए कोई सही शब्द याद नहीं आ रहा. लिखते समय मैं बहुत देर तक शब्द में उलझी रही. लवाईस स्ट्रॉस भी मिथकों के स्ट्रक्चर्स में कच्चे माल और ब्राइकोलेज की बात करता है. ला पैंजी सौवाज़ उनकी बेहतरीन किताब है. मिथकों के जिस क़स्बे में मैं आई हूँ वहां कुछ किताबों का अवचेतन में खुलना गैर-जरूरी मालूम नहीं पड़ता.
 
इतिहास का एक कबाडखाना मेरे सामने खुला है. जैसे मेरे दादाजी का संदूक, जैसे मेरी दादी की सुहाग पिटारी, जैसे मेरे नाना जी का पानदान; जैसे एक नगर का सिंहद्वार, जैसे एक प्रांत की सरहद, जैसे सरहद पार की बोली, जैसे एक लोक नदी का दूसरी लोक नद में मिल जाना; जैसे एक देश की भविष्य-निधि, जैसे एक पीढ़ी के हाथ में परम्परा का हाथ.
 
एक कस्बे की स्मृतियाँ..छैनी, हथौड़ी, जय –विजय. इतिहास का कोई ओपन एयर थियेटर –एक के बाद एक मिथक पात्र, पर ये कहीं नहीं जाते और पर्दा कभी नहीं गिरता!
 
 महाबलीपुरम मिथक-वल्लरियों का प्रदेश है, चेन्नई से करीब 53किलोमीटर के फासले पर, बंगाल की खाड़ी से सटा, पूर्वी समुद्र का तट. कहते हैं नौ सेनाओं और जलपोतों की चहल-पहल ने इस समुद्रपत्तन को महत्त्वपूर्ण बनाया था कभी. पल्लव या पहलव राजा महामल्ल महेंद्रवर्मन प्रथम ने इसे बसाया (ई.पू. ६१० -६३०) इस सैनिक छावनी में पौराणिक कथाओं के शैल-गुल्म और सात पैगोडा (अब केवल एक पैगोडा रह गया है, शेष सागर की भेंट) क्या केवल किसी राज्य-विशेष की राजनैतिक विजयों और धार्मिक आस्थाओं के प्रतीक-चिह्न मात्र रहे होंगे या किसी सांस्कृतिक जैविक- विकास यात्रा का जरूरी हिस्सा रहे होंगे? क्यों पल्लव राजाओं ने पौराणिक त्रय को अपने गुफा -मंदिरों पर उत्कीर्ण किया? जबकि मोनोलिथ बास-रिलीफ़ मिथकों को अदृश्य स्वनिम में बदल देते हैं.
 
ये अजीब अनुभूति थी कि इन्हें देखते समय मैं भारवि को सुन रही थी कि कांचीपुरम की वह छठी शताब्दी महाबलीपुरम में खुद को गुनगुना रही थी, कि हांड –मांस का पुतला कहाँ है मिट्टी का? कि कई –कई जीवन किसी भी युग में खुद को शिद्दत से गाते हुए –वह तापस जो एक पैर पर खड़ा है सदियों से- केवल अर्जुन ही क्यों हो सकता है? पाशुपत पाने के लिए सभ्यताएँ चूर –चूर हुईं या दिप-दिप दमकने लगीं –ऐसा हर युग में हुआ कि एक होमर अनादि युद्धों की कारुणिक कथा लिखता रहा और एक वेदव्यास महाभारत में उसी जीव और प्रकृति को पुनर्सृजित करने को बाध्य हुआ जो लगातार संघर्षरत है…मुझे याद आया नीत्शे इन पलों में कि कहता हुआ जरथुष्ट्र के बहाने मुझसे, तुमसे और सबसे –“ ये रहा मेरा ही उच्च अंतरीप और वहां वह समुद्र ठाठें मारता – जैसे मेरे ही भीतर ढुलकता हुआ; बेअदब और चापलूस और सौ सिरों वाला यह वफादार विरूप-कुत्ता जिससे मैं करता रहा प्रेम …”मैं एकाश्म को देख रही हूँ, नेपथ्य में गाइड टूटी-फूटी अंग्रेजी में मुझे बता रहा है ..Look madam ..look ..the hero of the work is Arjuna, who is believed to be the ascetic doing penance in the great Relief..”
 
और मन ही मन मुस्कराते मैं सोच रही हूँ कि ये जो झंडा है, जिसमें बन्दर बना है, अर्जुन का होना चाहिए; ऊपर उठते नागों के बीच मैं उलूपी को पहचान पा रही हूँ और गाइड कह रहा है कि पल्लव राजा नाग जाति से थे नाग जाति के थे. नाग थे.. और यहाँ आने से पहले मनोज के मित्र मैनन मोहन बता रहे थे कि पल्लवों का नाता आंध्र प्रदेश के किसानों से था. कहते हैं पेरूचोटरु उदयन ने कौरवों और पांडवों की सेनाओं को भोजन करवाया था और पल्लव इन्हीं की प्रशाखा थे. पल्लवों को जानने के लिए मेरे पास इन जनश्रुतियों के सिवा कोई पूर्वज्ञान नहीं था. खैर, अहमदाबाद लौटकर इतिहास की ऑथेंटिक किताबें पढूंगी कि आखिर ये पल्लव कौन थे? इनकी भाषा प्राकृत थी पर संस्कृत के महाकवियों भारवि और दंडी से इनका क्या रिश्ता था? वेंगी के विष्णुकुंडित का नाती महेंद्रवर्मन और संस्कृत में ‘मत्तविलास प्रहसन’ का रचियता (महामल्ल्पुरम को बसाने वाला) क्या शिव-भक्त होने के बाद भी बौद्धों से आकर्षित न हुआ था! मैं मन्त्रमुग्ध एकाश्म पर जड़ी कहानियों के कूटबंधों को समझने की कोशिश में थी जिनका सम्बन्ध मुझे बचपन में पढ़ी जातक कथाओं से साफ़ दिखाई दे रहा था.
 

एक ही बास –रिलीफ़ के बारे में गाइड अलग-अलग बातें कह रहा था.. “देखिये, इस रिलीफ़ को गंगा दो भागों में बाँट रही है, यानी यह दो गगन-गुफाएं हैं, गंगा इन्हें जोडती है. ऊपर उठते नागों ने अपने सिर पर गंगा को धारण किया है. और यह जो तपश्चर्या-पटल है- हो सकता है वह तापस अर्जुन न हों, भागीरथ हों. इसके बायीं ओर शिव और तपस्वी की बहु-अर्थी मूर्तियाँ हैं, लोकजीवन है: जो ठिगने और मोटे युगल हैं वे यक्ष हैं. शिव के गण भी हो सकते हैं ये. उधर दायीं तरफ जंगल है, आकाश की तरफ उड़ते गन्धर्व –युगल हैं…” मैंने बीच में टोका –गन्धर्व –युगल इतने लम्बे क्यों हैं?” उसने हँसते हुए कहा कि पल्लव शायद ईरानी उद्गम से थे –पार्थियन. इसलिए इन स्मारकों में आप तीन तरह का स्थापत्य देख सकेंगी –ईरानी, द्रविड़ और बौध ..” आवाक मैं उस पुरोवाक को समझने की कोशिश करती रही..धूप से मेरी आँखें चौंधिया गई थीं या किसी और कारण से! एक साथ कितनी अस्मिताएँ अपनी कथा सुना रही थीं..अनेक परम्पराएँ एक –दूसरे में घुली-मिली थीं..

वहीँ थोड़ी दूरी पर त्री-मूर्ति गुफाएं हैं. एक कृष्ण मंडपम है, जिस पर गोवर्धन की कथा उत्कीर्ण है. एक गेंदनुमा बड़ी चट्टान है जिसे गाइड बटर-बौल बता रहा था..इसका कोई औचित्य न भी हो पर दिलचस्प तो था ही..मखनिया-गेंद और हमने यहाँ कुछ तस्वीरें खींची..बस यही थोडा आमोद –प्रमोद.
 
आदि वराह मंडपम पर मैं देर तक रुकी रही. इसका निर्माण नरसिंह वर्मन ने करवाया पर इसे पूरा किया था उसके पोते परमेश्वर वर्मन ने. अधिकतर यह मन्दिर बंद रहता है, पर जब हम पहुंचे यह खुला हुआ था. गुफा के बीचोंबीच वराह की प्रतिमा है. नज़र वहीँ उलझकर रह गई थी ..अकेली प्रतिमा है जो पत्थर की न होकर मोर्टार से बनी है.
 
कहते हैं हिरण्याक्ष पृथ्वी को घसीटकर सागर में ले गया. हृदयविदारक पृथ्वी का रुदन विष्णु को बेचैन कर गया. वराह बनकर विष्णु धरती को बचाने चले आये थे. अपनी थूथन पर पृथ्वी को उठा लिया था. हिरण्याक्ष मारा गया. जैसे –जैसे वराह धरती को आलिंगनबद्ध किये समुद्र से ऊपर उठा- पर्वत बने, घाटियाँ बनीं और वराह के दांत पृथ्वी पर जहाँ भी लगे वहीँ वे उर्वरक हो गईं …  फर्टिलिटी और सृजन के मिथक जीवन की सनातन दीर्घा को रचते हुए…..मुझे बचपन में ये कहानियां कौन सुनाता था? कौन ? मुझे याद आया उन सुंदर हाथों का स्पर्श जो बगल में लेटाये मुझे लोरीभरी कथाएँ  सुनाते रहे थे..कोई तुम्हें भी तो सुनाता होगा!
 
फिर हम लोग पांच रथों के लिए चल दिए. दक्षिण की चट्टानों से ये करीब पञ्च सौ मीटर की दूरी पर हैं. पैदल का करीब 20 मिनिट. समुद्री हवा बराबर पंखा  झल रही थी सो पसीना ठंडक दे रहा था. उत्तर दिशा का पहला रथ हमारे सामने था. द्रौपदी –रथ. इसका स्थापत्य दक्षिण के मंदिरों से भिन्न था. कुछ झोंपड़ीनुमा. गोपुरम पर शिखर नहीं था. भीतर दुर्गा की चार हाथों वाली भव्य प्रतिमा. मकर तोरण. सोचती थी कि ये पाँचों रथ किसी विजय अभियान का संकेत थे या फिर वही पांडवों की पुराकथा –३६ साल हस्तिनापुर का वैभव भोगने के बाद संसार का त्याग और स्वर्ग की महायात्रा..द्रौपदी सबसे पहले गिरी थीं मेरु पर चढ़ते हुए..क्यों? मेरे मन का वहम था वर्ना मृत्यु अभियान की गौरव गाथाओं का अंकन कौन नरेश करता!
 
अर्जुन और धर्मराज के रथ रेप्लिका थे. बस एक अंतर था –अर्जुन के रथ में शिव और धर्मराज में हरि-हर और अर्धनारीश्वर की प्रतिमा. यह कैसा जमावड़ा था! जो आपस में लड़ते थे वे एक हो रहे थे. संगमन!
 
शाम होने लगी थी. श्रीजिता (मेरी बेटी) बहुत थक गई थी. हमें लौट लेना चाहिए. समुद्र किनारे का मंदिर रह गया था. टिकिट हाथ में था. पैदल काफी चलना पड़ता. बेटी ने मेरे चेहरे की तरफ देखा –वहां कुछ छूट जाने का दुःख था. उसने मेरा हाथ पकड़ा और मंदिर का रुख लिया ..आसूं की दो स्वार्थी बूँदें मेरी आँखों पर अटक गईं.
 

मंदिर बाद को देखा. पहले सागर की लहरों से खेले. ढलवा बालू में स्टेपू ..यानी घर –घर का खेल, फिर शंख बजाने का खेल, फिर एकत्रित सीपियों में लहरें भरने का खेल और पेब्लो नेरुदा की ऑन द ब्लू शोर ऑफ़ साइलेंस ..क्या यह कोई अकेली लहर है या इसके वज़ूद का दूर तक फैलाव या केवल खारी आवाज़ या तेज़ चमक..अनुमति मछलियों और जहाजों के लिए ..सच तो यह है कि गहरे सोने से पहले चुम्बक की तरह खिंचकर चला जाऊँगा मैं लहरों के शिक्षा देश में….

मंथर गति से हम लौट रहे थे …मंदिर बाद में
__________________
 
सभी फोटो : श्रीजिता भटनागर
कथाकार, कवयित्री अनुवादक अपर्णा मनोज. अहमदाबाद में रहती हैं.
aparnashrey@gmail.com
Tags: Mahabalipuramमहामल्ल्पुरम
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