चित्त जेथा भयशून्य |
চিত্ত যেথা ভয়শূন্য উচ্চ যেথা শির,
জ্ঞান যেথা মুক্ত, যেথা গৃহের প্রাচীর
আপন প্রাংগণতলে দিবস-শর্বরী
বসুধারে রাখে নাই খণড ক্ষুদ্র করি,
যেথা বাক্য হৃদযের উতসমুখ হতে
উচ্ছসিয়যা উঠে, যেথা নির্বারিত স্রোতে,
দেশে দেশে দিশে দিশে কর্মধারা ধায়
অজস্র সহস্রবিধ চরিতার্থতায়,
যেথা তুচ্ছ আচারের মরু-বালু-রাশি
বিচারের স্রোতঃপথ ফেলে নাই গ্রাসি –
পৌরুষেরে করেনি শতধা, নিত্য যেথা
তুমি সর্ব কর্ম-চিংতা-আনংদের নেতা,
নিজ হস্তে নির্দয় আঘাত করি পিতঃ,
ভারতেরে সেই স্বর্গে করো জাগরিত ||
चित्त जेथा भयशून्य
चित्त जेथा भयशून्य
चित्त जेथा भयशून्य उच्च जेथा शिर, ज्ञान जेथा मुक्त, जेथा गृहेर प्राचीर
आपन प्रांगणतले दिवस-शर्वरी वसुधारे राखे नाइ थण्ड क्षूद्र करि।
जेथा वाक्य हृदयेर उतसमूख हते उच्छसिया उठे जेथा निर्वारित स्रोते,
देशे देशे दिशे दिशे कर्मधारा धाय अजस्र सहस्रविध चरितार्थाय।
जेथा तूच्छ आचारेर मरू-वालू-राशि विचारेर स्रोतपथ फेले नाइ ग्रासि-
पौरूषेरे करेनि शतधा नित्य जेथा तूमि सर्व कर्म चिंता-आनंदेर नेता।
निज हस्ते निर्दय आघात करि पितः, भारतेरे सेइ स्वर्गे करो जागृत॥
Where The Mind Is Without Fear
Where the mind is without fear and the head is held high
Where knowledge is free
Where the world has not been broken up into fragments
By narrow domestic walls
Where words come out from the depth of truth
Where tireless striving stretches its arms towards perfection
Where the clear stream of reason has not lost its way
Into the dreary desert sand of dead habit
Where the mind is led forward by thee
Into ever-widening thought and action
Into that heaven of freedom, my Father, let my country awake.
जहां चित्त भय से शून्य हो
जहां चित्त भय से शून्य हो
जहां हम गर्व से माथा ऊंचा करके चल सकें
जहां ज्ञान मुक्त हो
जहां दिन रात विशाल वसुधा को खंडों में विभाजित कर
छोटे और छोटे आंगन न बनाए जाते हों
जहां हर वाक्य ह्रदय की गहराई से निकलता हो
जहां हर दिशा में कर्म के अजस्त्र नदी के स्रोत फूटते हों
और निरंतर अबाधित बहते हों
जहां विचारों की सरिता
तुच्छ आचारों की मरू भूमि में न खोती हो
जहां पुरूषार्थ सौ सौ टुकड़ों में बंटा हुआ न हो
जहां पर सभी कर्म, भावनाएं, आनंदानुभुतियाँ तुम्हारे अनुगत हों
हे पिता, अपने हाथों से निर्दयता पूर्ण प्रहार कर
उसी स्वातंत्र्य स्वर्ग में इस सोते हुए भारत को जगाओ.
शिवमंगल सिंह “सुमन“ |
प्रार्थना
चित्त जहाँ शून्य, शीश जहाँ उच्च है
ज्ञान जहाँ मुक्त है, जहाँ गृह –प्राचीरों ने
वसुधा को आठों पहर अपने आँगन में
छोटे-छोटे टुकडें बनाकर बंदी नहीं किया है
जहाँ वाक्य उच्छ्वसित होकर हृदय के झरने से फूटता
जहाँ अबाध स्रोत अजस्र सहस्र विधि चरितार्थता में
देश-देश और दिशा दिशा में प्रवाहित होता है
जहाँ तुच्छ आचार का फैला हुआ मरुस्थल
विचार के स्रोत पथ को सोखकर
पौरुष को विकर्ण नहीं करता
सर्व कर्म चिंता और आनन्दों के नेता
जहाँ तुम विराज रहे हो
हे पिता, अपने हाथ से निर्दय आघात करके
भारत को उसी स्वर्ग में जागृत करो !
भवानी प्रसाद मिश्र |
ओ मेरे पिता !
ओ मेरे पिता !
भयहीन मन हो जहाँ,
ओर जहाँ सर ऊंचा रहे सदा;
ज्ञान हो मुक्त जहाँ;
ओर संकीर्ण अपनी-अपनी दीवारों से
टुकड़ों में बंटी नहीं हो दुनिया जहाँ;
जहाँ शब्द आते हों सत्य के अंतस्तल से;
अश्रांत आकांक्षा जहाँ बाहें फैलाती हैं पूर्णता की ओर;
जहाँ मरे-मिटे रिवाजों के अंतहीन मरुस्थल में
सूख न चुकी हो मनीषा की निर्मल धारा;
जहाँ ले चलते तुम मन को
निरंतर-विस्तारित कर्म ओर विचारों की ओर;
स्वाधीनता के उसी स्वर्ग में
ओ मेरे पिता
जागरित हो मेरा भारत देश !
मंगलमूर्ति |
हो चित्त जहाँ भयशून्य, माथा हो उन्नत
हो चित्त जहाँ भयशून्य, माथ हो उन्नत
हो ज्ञान जहाँ पर मुक्त, खुला यह जग हो-
घर की दीवारें बनें न कोई कारा,
हो जहाँ सत्य ही स्रोत सभी शब्दों का
हो लगन ठीक से ही सब-कुछ करने की,
हों नहीं रूढ़ियां रचतीं कोई मरुथल-
पाये न सूखने इस विवेक की धारा.
हो सदा विचारों-कर्मों की गति फलती,
बातें हों सारी सोची और विचारी,
हे पिता! मुक्त वह स्वर्ग रचाओ हममें,
बस, उसी स्वर्ग में जागे देश हमारा.
प्रयाग शुक्ल |
शिवमंगल जी का अनुवाद मूल के अपेक्षाकृत ज्यादा निकट है।
आज की राजनीति संकीर्ण और ओछी मानसिकता की बन गयी है । ऐसे दूषित समय में विश्व कवि रवींद्र नाथ टैगोर की कविता को जन जन तक पहुँचाना आवश्यक हो गया है । गुरुदेव अपने चिंतन में विश्व नागरिक थे और अध्ययन और ज्ञान असीम था ।
वसुधैव कुटुम्बकम् सनातन धर्म का मूल संस्कार तथा विचारधारा है जो महा उपनिषद सहित कई ग्रन्थों में लिपिबद्ध है । इसका अर्थ है-धरती ही परिवार है । यह वाक्य भारतीय संसद के प्रवेश कक्ष में भी अंकित है ।
अयं बन्धुरयं नेति गणना लघुचेतसाम् ।
उदारचरितानाम तु वसुधैव कुटुम्बकम् ॥
महोपनिषद, अध्याय 6, मंत्र 71
अर्थ-यह अपना मित्र है और यह नहीं है, इस तरह की गणना छोटे चित्त वाले लोग करते हैं । उदार हृदय वाले लोगों को तो (सम्पूर्ण) धरती ही परिवार है ।
कई महान कविताओं व भारत के राष्ट्रगान के रचयिता आचार्य रवींद्र नाथ टैगोर से एक बार प्रख्यात फ़िल्म कलाकार बलराज साहनी, जो तब शांति निकेतन में अध्यापक थे, ने प्रश्न किया कि जिस प्रकार भारत का राष्ट्रगान उन्होंने लिखा है तो क्यों न सम्पूर्ण विश्व के लिये भी एक विश्वगान भी लिखें ? इस पर उन्होंने कहा कि वह तो पहले ही लिखा जा चुका है । 16वीं शताब्दी में गुरु नानक के द्वारा विश्व ही नहीं अपितु सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के लिये गान है । गुरुदेव टैगोर इस आरती से प्रभावित थे । उन्होंने स्वयं बांग्ला में इसका अनुवाद किया ।
गुरु नानक 1506 या 1508 में पुरी के जगन्नाथ मंदिर की यात्रा में गये थे । और इसका उच्चारण किया था । गुरु नानक ने अपनी आरती में परमात्मा के विराट स्वरूप का चित्रण किया है और कल्पना की है कि समस्त ब्रह्माण्ड ही उसकी पूजा में लीन है ।
आरती के प्रारम्भिक बोल इस प्रकार हैं ।
गगन में थालु, रवि चंदु दीपक बने,
तारका मंडल जनक मोती ।
धूपु मलआनलो, पवण चवरो करे,
सगल बनराइ फुलन्त जोति ॥
कैसी आरती होइ ॥
भवखंडना तेरी आरती ॥
अनहद सबद बाजत भेरी ॥
वाह
सुन्दर आयोजन। किसी अनूदित एक कविता को लेकर चर्चा भी हो सकती है। ध्यान अधिक केंद्रित होता है। फिर यह तो एक विशेष बहुमूल्य कविता है।
एक सुंदर कविता और उसके चार अनुवाद पढ़कर मन भर गया है शिवमंगल सिंह सुमन का अनुवाद अपने आप में अद्भुत है और सहज भी
बहुत सुंदर। सभी अनुवाद अपनी अपनी तरह से सृजनात्मक और विशिष्ट।