(रश्मि भारद्वाज की कविताएँ)
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स्त्री-कविता के पाठ को खोलने के लिए काव्य की उदात्त, महाकाव्यात्मक सौंदर्यमयी चेष्टाओं की कम, स्त्री की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और सामाजिक अवस्थिति को देखने की अधिक आवश्यकता है. ‘विमर्श’ शब्द की बदनामी के चश्मे से स्त्री-कविता को ठुकराने की मर्दवादी चालें मानवीय अनुभूतियों के एक विशिष्ट भाग को परे हटाने का बायस हो सकती हैं. हिन्दी अकादमिकता और आलोचना ने इससे न केवल आँखें चुराईं, बल्कि इसे कोलाहल में बदलकर संदेहास्पद कर दिया. इस तरह अभी हिन्दी की स्त्री-कविता भी ‘विच हंटिंग’ की शिकार हो रही है, लेकिन यह चरण पूर्ण होने के पश्चात हम स्त्री कविता को भी काव्य के उदात्त सौंदर्य के मानकों को स्पर्श करते हुए देखेंगे. दुनिया की अन्य भाषाओं की कविता में हम यह देख चुके हैं.
आलोचना का यह कार्य है कि वह चीज़ों को तरतीब से देखे और संभाले. जैसा कि एदुआर्दो गालेआनो कहता है कि, ‘एक क़ब्रिस्तान से अधिक सलीक़ेदार जगह और कोई नहीं है.’ इसलिए आलोचना विवश है रचना को मारने के लिए, उसे और सुन्दर बनाने के लिए, एक सलीक़ा देने के लिए. आलोचना रचना में सलीक़ा पैदा करती है और उसकी तरतीब को मौज़ू बनाती है. उत्तर-आधुनिक आलोचना में एक ख़ास बात है कि यह अवधारणा को मार देती है. उसी तरह, जैसे इसने लेखक और संरचना को मार दिया. हिन्दी के स्त्रीवाद पर फुको और देरिदा का अधिक प्रभाव है. देरिदा का तो आवश्यकता से अधिक. उत्तर-आधुनिक नारीवाद के विकास में हेलेन सिकोस (Helene Cixous) को ही देख लीजिये. उनकी स्थापनाओं पर देरिदियन द्विपक्षात्मक विरोध की अवधारणा का गहरा प्रभाव है. इसी प्रभाव के आलोक में हम समकालीन हिन्दी स्त्री-कविता को खोलने की कुछ जुगत कर सकते हैं.
स्त्री-कविता के बुनियादी सरोकारों में पुरुष वर्चस्व से उपजे उसके दुःखों, यंत्रणाओं और देह की कारा में बन्दी चेतना की मुक्ति के स्वप्न देखे जाते रहे हैं. व्यवहार और अधिकार की समानता से आगे बढ़ कर इन्हीं विषयों के गिर्द स्त्री-रचनाकारों ने कुछ ऐसी औचक प्रतिस्थापनाएँ रच दीं कि पुरुषों का बनाया गया यह विश्व स्तब्ध रह गया. वैश्विक-परिप्रेक्ष्य में स्त्री कविता ने भ्रम निवारण की ऐसी क़वायद की, कि सौंदर्यशास्त्रीय मान्यतायें विखण्डित हो कर छिन्न-भिन्न हो गयीं. इस विचित्र स्फोट से निहायत प्रगतिवादी पौरुष संकुचित हो कर प्रतिक्रियावाद के कीचड़ में भी फिर-फिर लोटने को मजबूर है. हिन्दी-साहित्य में स्त्री के प्रश्न पर ऐसे दृश्य इसके रोज़नामचे में दर्ज़ होते रहे हैं. उत्तर-आधुनिकता की आड़ ले कर प्रगतिवादी खेमा भी इससे दामन छुड़ाना चाहता है, अगरचे :
अभी से वो दामन छुड़ाने लगे हो
जो अब तक मिरे हाथ आया नहीं है.(नज़ीर सिद्दीक़ी)
उत्तर-आधुनिक स्त्री-कविता के मूल्यांकन के लिए पारम्परिक भारतीय काव्यशास्त्र ज़ंग लगा टीन का डिब्बा साबित होगा. यद्यपि भाषा के पारम्परिक सौन्दर्य को ग्रहण करने से इसका रचनात्मक औचित्य संगत हो सकेगा. स्त्री का कविता में अपारम्परिक चुनाव परम्परा के आग्रही अन्वेषकों में चिढ़ पैदा करेगा और वह चिढ़ बरास्ते कविता स्त्री-अस्मिता तक पहुँच जाएगी. यह स्त्रीद्वेषी प्रवृत्ति हम साहित्य की दुनिया में प्रायः देखते ही रहते हैं. परम्परा बताएगी कि मानिनी नायिका के स्तन ऐसे अमरूद की भाँति हैं जो दाँत गड़ाते ही लाल हो जाते हैं. स्त्री-कविता में ऐसे अमरूद कहाँ मिलेंगे ? या स्त्रीवादी कवि पवन करण के दशहरी आम जैसे स्तन कहाँ दिखेंगे ? इसमें तो जर्मेन ग्रीयर के व्याख्यायित स्तन ही मिलेंगे, जो स्त्री के जी का जंजाल बने हुये हैं. जिनसे वह आजिज़ है. इसलिए बिना अपने आदिम रूप को तलाश किए स्त्री कविता में अर्वाचीन हो कर सामने नहीं आ पाएगी. हिन्दी की वर्तमान स्त्री-कविता का कुछ संतोषजनक परिदृश्य देखा जा सकता है, परन्तु विचारशील स्त्री-आलोचकों के अभाव में इसके मूल्यांकन की सुव्यवस्था अभी नहीं बन पायी है, न ही इसकी कोई दूरगामी वैचारिक धार तय हो सकी है. पुरुषों द्वारा यह कार्य किये जाने पर, इस कुछ कम प्रारम्भिक अवस्था में भी, उनकी मर्दवादी वानरी उछल-कूद प्रतीत होती है. लिहाज़ा यह अभाव भी हिन्दी स्त्री कविता का पैकर न गढ़ पाने में एक वाज़िब कारण है.
रश्मि भारद्वाज के संग्रह ‘मैंने अपनी माँ को जन्म दिया है‘ की कविताओं को पढ़ते हुए प्रथम चरण के भारतीय स्त्रीवाद का सामान्य चिन्तन खुलता है. इनमें युवा स्त्री-जीवन की सामाजिकता के साथ ही उसके परिदृश्य के प्रति उसकी निगाह भी नज़र आती है. रश्मि की अनुभूतियाँ काव्य-चेष्टाओं के अनुरूप हैं और वर्तमान से जुड़ी हुयी हैं. प्रेम और दुःख की अनिर्वचनीयता गद्य-पद्य पंक्तियों के मध्य ध्वनित होती है. प्रेम और दुःख का यह राग हिन्दी स्त्री-कविता का ओरिज़न है. मध्यकालीन मीरा ने ‘अँसुवन जल सींचि-सींचि प्रेम बेलि बोई’ थी और कृष्ण-पुरुष में अपनी अतृप्त प्रेम क्षुधा का तुष्टि-मार्ग ढूँढा था. वहाँ सामन्ती परिवेश में एकान्तिक, पुरुषविहीन स्त्री-जीवन है जो कठोर पितृसत्ता से घिरा हुआ है. जिससे भक्ति ने कुछ शर्तों के साथ मुक्ति दिलाई. वहीं आधुनिक मीरा महादेवी ने भी ‘नीर भरी दुःख की बदली’ में रहस्यमय उदासी और प्रेम की अव्यक्त गीतात्मक ध्वनियाँ झंकृत कीं. यानी प्रेम और दुःख स्त्री-काव्य की परम्परागत अंतर्वस्तु है. समकालीन स्त्री-कविता से ले कर इधर की युवा पीढ़ी की टटकी कविता तक प्रेम भले अनुपस्थित मिले, परन्तु दुःख का वही रुपहला पक्ष उपस्थित है. मोनिका कुमार, अनुराधा सिंह जैसी कवयित्रियों में प्रेम के प्रति व्यंग्यात्मक स्वर भी देखा जा सकता है, दुःख वहाँ उसी रूप में है. शैलजा पाठक जैसी कवियों के पास दुःख का न्यूरोटिक आस्वाद है, जो छिछली भावुकता से आगे का रास्ता नहीं तय कर पाता.
उत्तर-आधुनिक स्त्री के पास ‘सही’ पुरुषों की कमी नहीं है, न ही प्रेम के सभी आयामों की अनुपलब्धता है. उसकी चेतना कई नई चीज़ों से टकरा रही है. जिसमें भूमंडलीकृत महानगरीय परिवेश में उसकी कामकाजी स्थिति से ले कर उसका रचनात्मक और बौद्धिक तनाव भी है. रश्मि की कविताओं में उसी स्त्री का चेहरा है. प्रेम और दुःख का परम्परागत रूप उसे स्वीकार है, जो कि स्थायी स्त्री-गान है. उस अतिवादी स्त्री की अराजकता भी है जो किसी भी तरह के बंधन को स्वीकारने से इनकार करती है. विचारधाराबद्ध लेखकों के विरोध में उनकी इस बात के सहारे कुछ बातें कही जा सकती हैं :
“वे घोर बौद्धिक थे लेकिन उन्हें आसपास कुछ भी दिखाई देना बंद हो गया था. बुद्धि का दर्प कुछ इस तरह हावी था कि उनकी लाल क़िताब में दर्ज़ नामों के अलावा हर कोई औसत था. कविता लिखती एक स्त्री मज़ाक का पात्र थी! हर ओर शोर था, गुट थे, शब्द थे भरपूर, संवेदना, न्याय के आग्रह से भरी कविताएँ थीं. लेकिन सच कुछ और था.”
‘लाल क़िताब’ से नाराज़गी जताने से पूर्व उसका इतिहास जानने की आवश्यकता और भारत की जटिल सामाजिक-सांस्कृतिक परिस्थितियों में ‘लाल क़िताब’ धारकों को देखने की भी ज़रूरत है. बिना लाल क़िताब के भी यह बात कही जा सकती थी. हिन्दी लाल-क़िताबियों की करतूतों की सज़ा पूरी-की-पूरी विचारधारा को नहीं दी जा सकती. इसमें नुक़सान भी अपना ही है. स्पार्टकस लीग की स्त्रीवादी क्लारा जेटकिन जो अंतर्राष्ट्रीय महिला नेत्री के रूप में सामने आयीं, वे लाल क़िताब धारक थीं. अलेक्ज़ेंद्रा कोलोनताई एक साम्राज्यवादी परिवार से ताल्लुक़ रखती थीं. वे इतिहास की प्रथम स्त्री थीं, जो गवर्निंग कैबिनेट की आधिकारिक सदस्य थीं. वे 1917 से 1918 तक लेनिन की सरकार में ‘पीपुल्स कॉमिसर ऑफ़ वेलफ़ेयर रहीं. वह ‘लाल क़िताब वालों’ की सरकार थी. अलेक्ज़ेंद्रा प्राथमिक मार्क्सवादी फ़ेमिनिस्ट में एक थीं. उन्हें स्त्री के यौन-स्वैच्छाचार से गुरेज़ था, क्योंकि उनका मानना था कि बच्चे तो स्त्रियों को अकेले ही पालने पड़ते हैं.
उत्तर-आधुनिक अतिवादी इको-फ़ेमिनिस्ट फ़्रांस्वा दि यूबोण अलेक्ज़ेंद्रा की ही बात को कुछ परिवर्तित रूप में आगे बढ़ाती हैं कि ‘स्त्री और धरती में बीज बो-बो कर प्रकृति और स्त्री का दमन-शोषण करने वाले पुरुष ही हैं, और स्त्री की मुक्ति से ही प्रकृति की मुक्ति भी संभव है.’ अभिप्राय यह कि स्त्री-मुक्ति-आन्दोलन के प्राथमिक स्वर उसी ‘लाल क़िताब’ की देन हैं, जिनसे रश्मि नाराज़गी ज़ाहिर करती हैं. कुछ ‘लाल-क़िताब’ धारकों के धत्कर्मों के आधार पर एक ऐतिहासिक, वैज्ञानिक विचार-प्रणाली पर प्रतिक्रियावादी अविलंबिता रश्मि के वैचारिक शैथिल्य का परिचय देती है. इस तरह का सूक्ष्म प्रतिक्रियावाद उसी फ़ासिस्ट मर्दानगी को हवा देता है, जो स्त्री से प्रेम कर भी गया तो देह और मर्द-मानसिकता की अहं की तुष्टि के लिए. ब्याह जैसे आनुबंधिक संग-साथ के लिए तो उसे बच्चों की शुद्ध नस्ल पैदा करने वाली ग़ुलाम स्त्री ही चाहिए. इस तरह रश्मि का काव्य-आधारित उदारवादी बुर्जुआ फ़ेमिनिज़्म मध्यवर्गीय स्त्री के मुक्ति-पथ से एक गिट्टी तक हटाने में समर्थ नहीं है. तब वह छत्तीसगढ़ की आदिवासी स्त्री के लिए कर पायेगा, जिसकी योनि में बेंत मथ कर पत्थर भरे जा रहे हैं ? और हाथरस की उस दलित लड़की के लिए, रात्रि के तीसरे पहर तांत्रिक अनुष्ठान की भाँति राज्य द्वारा जिसकी बलत्कृत देह का हवन किया जा रहा है ?
रश्मि के पास जो अच्छी हैं उनमें ‘महानगर में औरत’ जैसी कविताएँ बानगी हैं. जहाँ किसी तरह की सनसनी या कृत्रिम अनुभूतियों का भान नहीं होता. शिल्प और भाषा के अभाव से जूझते हुए भी यह कविता इधर लिखी गयी अच्छी स्त्री-कविताओं में से एक है. इसका सच युधिष्ठिर के कुत्ते जैसा है. यहाँ स्त्री का प्रेम के प्रति संदेह इसे वैश्विक समकालीनता से सम्बद्ध करता है :
“प्रेम में भय है
या कि भय से ही प्रेम है
वह अपने अंदर के उस शैतान से डरती है
जिसे सब कुछ चाहिए
आँख भर की नींद
उम्र भर के सपने
थोड़ी सी आँच
और एक मजबूत गर्म हथेली
से थाम कर दुखों को पिघलता महसूस किया जा सके.”
उत्तर-आधुनिक स्त्री का प्रेम के प्रति संदेह स्त्री-कविता का ऐसा अनूठा भाव है, जो यथार्थ की अन्तिम तहों से निकला हुआ लगता है. इस कविता का पहला वृत्त दुःखों को पारिभाषित करता है. सुकून के लिए बुद्ध की मूर्तियाँ हैं, लेकिन जहाँ कवयित्री शेष है, वहाँ उसकी आत्मा भी है:
“सभी सांसारिक अनुष्ठानों के बीच भी
शेष रहा मेरी आत्मा का एकान्त.”
(मैं शेष रही)
यद्यपि बुद्ध को किसी ने सुकून के लिए चुन लिया है, तो बुद्ध या आत्मा में से एक को चुनना चाहिए. बुद्ध कहते हैं कि, ‘आत्मा और देह मिल कर भी किसी शाश्वत अस्तित्व का निर्माण नहीं करते.’ रश्मि की कविताओं का यह दार्शनिक विरोधाभास और उथलापन बताता है कि दर्शन की गहरायी में गये बिना अच्छी कविता लिखना दुश्वार है. दर्शन को फ़ैशन की तरह नहीं, पूरे ज्ञानात्मक तनाव और मनोविक्षुब्धकारी पीड़ा के साथ चेतना में उतारना पड़ता है. अच्छी बात यह है कि जीवन में कठिन सिद्धांतों को चुन लेने पर जो भय और संशय की स्थिति उपजती है, वह कविताओं की अर्थध्वनियों में निचुड़ने लगती है और वहाँ वे अधिक ईमानदार नज़र आती हैं.
रश्मि की कविताओं में महानगरीय स्त्री का एलियेनेशन अपनी ओर ध्यान खींचता है. यह उन उकताहटों की ओर ले जाता है, जो इस भूमण्डलीकृत सभ्यता का अभिशाप हैं. औरत का अलगाव और अजनबियत इस रूप में भिन्न है कि पुरुषों की इस अवस्था में लैंगिक वर्चस्व और यौन वस्तुकरण नहीं है. कतिपय मार्क्सवादी स्त्रीवादियों ने भी इसीलिए मार्क्स के एलियेनेशन के सिद्धांतों को स्त्रियों की अजनबियत और अलगाव के लिए अपर्याप्त और अनुपयुक्त माना है. ‘जहाँ प्रार्थनारत हैं पुरखे’ और ‘हम आजकल कहीं नहीं रहते’ कविताएँ अजनबियत, जड़ों से कटने और स्थानिक परिवर्तनों से उपजी अस्थानीयता के बोध की कविताएँ हैं. यह महानगरीय परिवेश के उस मध्यवर्गीय जीवन की त्रासदी है, जो कहीं दूर से आ कर पड़ाव करता है. महानगर के नक़ली जीवन और संवेदनहीन पर्यावरण में अपने अस्तित्व के प्रति सन्देह उपजना स्वाभाविक है. इसीलिए रश्मि को लिखना पड़ता है कि:
“आजकल हम कहीं नहीं रहते
अपने ओढ़े हुए खोल में भी नहीं.”
स्त्री का अलगाव और अजनबियत रश्मि की कविताओं में पृथक भी नज़र आता है. इसमें उसकी वह सांस्कृतिक अस्वीकार्यता का बोध है, जिसे समाज आसानी से वापसी का अवसर नहीं देता. वह विवशता जो फिर कोई दरवाज़ा नहीं खोलती जो इन सुन्दर पंक्तियों में व्यंजना के साथ स्पष्ट हुयी है :
“तुम्हारी एड़ी में निर्वासन का तीर धँसा है
माथे पर अंकित है बहिष्कार की लिपि.”
प्रेम और देह की व्यथाएँ भी रश्मि की कविताओं में प्रगाढ़ता से अभिव्यक्त हैं. इनमें नैराश्य का रूखापन है, किन्तु इसी निराशा से स्त्री अपना जीवन रचती रही है. प्रेम बहुत समझदार हो कर नहीं किया जाता और इसकी विफलताएँ सफलताओं से अधिक उदात्त और महान होती हैं. ‘पति की प्रेमिका के नाम’ कविता भाषा-और शिल्प के बड़े संकट से ग्रस्त है. इसमें सम्प्रेषण का अभाव है, परंतु इसका शीर्षक भीतर की संरचना का पता दे देता है :
“तुम्हारे पास जो आया था
वह मेरे प्रेम का शेष था
हमारे संबंध की बची रह गई
इच्छाओं का प्रेत,
यह कितना कठिन रहा होगा
कि तमाम समय मुझ सा नहीं होने की चेष्टा में
मैं मौजूद रहती होऊँगी तुम्हारे अंदर
और उसकी सुनाई कहानियों के साए
आ जाते होंगे तुम्हारे बिस्तर तक”
इस कविता में भारतीय स्त्री के कमज़ोर प्रेम की विडम्बना का कुछ आभास होता है. प्रेम के प्रति कोई स्पष्ट दृष्टिकोण निर्मित न कर पाना भारतीय स्त्री की बड़ी ट्रेजडी है. ‘पति की प्रेमिका के नाम’ शीर्षक से यह सीखने की आवश्यकता है कि पति प्रेमी हो इसकी संभावना क्षीण होती है. यदि पति प्रेमी होता तो संसार की सभी ब्याहताएँ प्रेमिकाएँ होतीं. प्रेम न केवल इस अनुबंधीय जीवन से बहुत ऊपर की वस्तु है, प्रत्युत इससे बहुत दूर भी है. ‘वयस में छोटा प्रेयस’ विषय में बेहद नयी कविता होते हुए भी कोई प्रभाव नहीं उत्पन्न करती है, कारण है देह के संसर्ग में उसका परिसीमन. प्रेयस प्रेमिका के मन में अपनी उपस्थिति को लेकर संशय में है. प्रेम का यह संशय कविता की स्त्री का संशय है, पुरुष का नहीं. प्रेम की विफलताएँ प्रेम के प्रति संशय कम नहीं करतीं, बढ़ाती जाती हैं. किसी फ़िल्म में एक बड़ी आयु का प्रेमी अपनी नौयौवना प्रेमिका से कहता है कि, उसने अब तक के जीवन में पाँच बार तलाक़ लिया, इसका मतलब है कि उसने पाँच बार प्रेम पर भरोसा किया. इस प्रसंग को इस बेहद नयी तरह की कविता ने अपने समापन में चरितार्थ किया है :
“वह मरुभूमि में
पानी की फसल बोना चाहता है
हौले से कानों में पूछता रहता है
गहरी बारिशों के दौरान भी
तुम तृप्त तो हुई ना !”
(वयस में छोटा प्रेयस)
प्रेम को ढील दिये जाने से प्रेम के मानक क्षुद्र होते गये हैं, जबकि कविता ने सदैव प्रेम को उदात्तता प्रदान की है. स्त्री-कविता प्रेम विषयक दृष्टिकोण में पुरुष से अधिक परिपक्व और यथार्थवादी होनी चाहिए, बल्कि कई मौक़ों पर होती ही है. उसने हमेशा सतही प्रेम की रोमानी और बेवकूफ़ाना भ्रान्तियों का निवारण किया है. रश्मि के यहाँ स्त्री-प्रेम का गंभीर और यथार्थवादी आभास कुछ मिलता है, सम्यक प्रतिस्थापनाएँ नहीं मिलतीं. आख़िर इस सदी की हिन्दी स्त्री कविता ने हमें यह बात भी बतायी है कि ‘स्त्री को प्रेम से अधिक नींद की ज़रूरत है.’
देह की बहस बहुत पुरानी हो चुकी है. देह का विमर्श स्त्रीवाद की वैचारिकी को संकुचित भी करता है. पश्चिमी स्त्रीवाद ने इससे मुक्ति पा ली है और उधर स्त्री देह की दिव्यता संबंधी विचार प्रस्तुत किये गये हैं. देरेदियन विखण्डनवाद ने देह के भी टुकड़े-टुकड़े कर दिये. योनि, गुदा, नितम्ब, स्तनों आदि पर बहुत बहस की जा चुकी है. योनि पर रश्मि ने जो कविताएँ लिखी हैं, वे कुछ प्रभावित नहीं करती हैं, बस एक ऊहा सी उत्पन्न करती हैं :
मालिश के दौरान भी
भले ही खुली रही देह
योनि को ममता का स्पर्श नहीं मिला.
(अस्पर्श)
उसे योनि को वहन करते हुए
योनि की इच्छाओं से मुक्त रहना था.
(सृष्टि)
उपभोग के बाद
वह घटना की पात्र थी
स्त्री की मृत देह पर भी
योनि को उसके होने की सजा दी गयी.
(अभियोग)
या वह सिर्फ रही
अक्षत, अविचल
विजित की जाने वाली योनि मात्र.
(संसर्ग)
पितृसत्ता का एक बड़ा षड्यंत्र यह भी है कि स्त्री अपनी जैविकी के प्रति पशेमानी महसूस करे और धीरे-धीरे वह अपनी देह के प्रति घृणा से भर जाए. पुरुष स्त्री की अपनी देह के प्रति उस अन्यमनस्कता और घृणा का लाभ उठाए. यहाँ देरेदियन दर्शन स्त्री की देह को खण्ड-खण्ड करके और ही प्रकार की जैविक निराशाएँ उत्पन्न कर सकता है. योनि के इस प्रसंग में लेखिका नोआमी वुल्फ़ की इस बात को जोड़ना आवश्यक होगा जो उन्होंने ‘योनि’ नाम से लिखी अपनी आत्मकथा में लिखी है :
“वल्वा, भग और योनि को बेहतर ढंग से महासागर की उस सतह की भाँति समझा जा सकता है, जिसका चित्र उसके जल के नीचे झमझमाती रोशनी के संजाल से खींचा गया है- जटिल और कोमल, कई अलग-अलग तरह के तंत्रिका-पथ.”
यहाँ स्त्री का अपनी जैविकी के प्रति नैतिक, गरिमामय और उत्साहित करने वाला भावबोध देखने लायक़ है. रश्मि की कविताओं में ऐसे प्रस्तुतीकरण का सर्वथा अभाव है. प्रस्तुतीकरण की इस समस्या से मुक्त होने के पश्चात ही वे अपनी कविता तक वैश्विक स्त्रीवादी बहस को ला पाएंगी. स्त्री कवियों को पुरुषों के उस प्रजातिगत और नस्ली बैरभाव की ओर दृष्टि डालनी चाहिए, जिसमें मादा ही निशाने पर है. इसे रचनात्मकता के और प्रगाढ़ साँचे की ओर ले जाना होगा, जिसकी संभावना रश्मि की कविताओं में कम नज़र आती है. लचर शिल्प कविताओं को अपठनीय बना देता है. यहाँ भी यह कमज़ोरी देखने में आती है. प्रतीकों और बिम्बों का भी सर्वथा अभाव खटकता है और काव्य के सामान्य सौंदर्य से भी महरूम करता है. हाँ, हिन्दी के गद्य की प्रांजलता, जिससे कविताएँ प्रस्तुत की गयी हैं, उससे आस रखी जा सकती है. अभी इन कविताओं के बारे में यही कहना चाहिए कि ये कविताएँ कहलाने के लिए रची गयी कविताएँ हैं.
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संतोष अर्श कविताएँ, संपादन , आलोचना रमाशंकर यादव ‘विद्रोही’ पर संतोष अर्श की संपादित क़िताब‘विद्रोही होगा हमारा कवि’ अगोरा प्रकाशन से प्रकाशित. |
संतोष मेरे प्रिय युवा आलोचकों में हैं। उनकी मौलिकता चकित करती है। उनको पढ़ने पर पता चलता है कि वे एक दुर्दांत पढाकू भी हैं जिनके बगैर एक आलोचक का काम नहीं चल सकता। उनके पास एक अचूक इतिहास दृष्टि है। रमाशंकर यादव विद्रोही पर किताब का सम्पादन करके संतोष ने अपनी प्रतिभा और सूझ-बूझ का लोहा मनवा लिया है। उनकी छोटी-छोटी कविताएं आपका मन मोह लेती हैं। समकालीन विशेषकर सबार्ल्टन साहित्य को संतोष से बहुत उम्मीद है।
मुश्किल लेकिन बेहतरीन एवं व्यवस्थित रूप से लिखा गया आलेख, इसके पाठक गरिष्ठ ही हो सकते है, दूसरा बहुत सारे वृहद सन्दर्भ है जिस पर थोड़े से फुट नोट भी होते तो मजा आता
बहरहाल सन्तोष, जिसे प्यार से डॉक्टर कहता हूँ, मेरे प्रिय लेखक और लाड़ले अनुज भी है और उनके लिखें एक एक शब्द को ध्यान से पढ़ता हूँ, इधर युवाओं में वो बेहद जमीनी और खरे आलोचक है जो निष्पक्षता से लिखते है 💝 जियो प्यारे
बढ़िया आलेख
वैचारिकी, व्याख्या और मूल्य निर्णय से संतुलित लेख। हिंदी आलोचना में सम्प्रति ऐसे लेखों की आवश्यकता है। संतोष अर्श को बधाई।
बहुत सुचिंतित आलेख। रश्मि की कविताओं की मौलिकता , कमज़ोरी और असर की गहरी तटस्थ पड़ताल है साथ ही विस्तृत परिप्रेक्ष्य के कारण विचारोत्तेजकता भरपूर है।
अच्छा लगा।
बधाई हो संतोष अर्ष
संतोष अर्श का अन्तर्पाठ एक नयी समझ बनाता है। महत्वपूर्ण लेख।
संतोष अर्श की समीक्षा को समझते हुए सिर्फ एक ही बात रह जाती है कि चीजों को समझने में उनकी अपनी दृष्टि अधिक सक्रिय है।
यह सही है कि रश्मि भारद्वाज प्रेम और पीड़ा की कवयित्री हैं और वे अपना स्वयं का रास्ता बनाना चाहती हैं।
हीरालाल नागर