सॉनेट मंडल की कविताएँ |
मरता हुआ सैनिक : कुछ छवियाँ
1.
एक थके हुए सिर पर अनिच्छा से टिका हुआ कॉम्बैट हेल्मेट
और गर्भ में गोलियाँ रखी हर वक्त चौकन्नी एक बन्दूक
एक दूसरे से टिके हैं अनसुलझे अनुशासन में —-
एबसर्ड और अद्भुत का अनोखा मिश्रण
2.
आँखें टिकी हुईं उगती सुबह पर, जो अपने दिल में सूरज लिये
रस भरे बादलों की उनींदी छाया को सोख लेती है
आँखें झपकती हैं छुई-मुई की तरह जब विचार मर रहे होते हैं
घुसेड़ी गई देश भक्ति की सरहद पर
3.
धुएँ की चादर पीछा करती है कहीं बहुत दूर हुए हवाई हमलों की
और ऊपर बादल अपनी गरज से चीखती दलीलों को दबा रहा है
एक थकी कल्पना म्यूज़िकल नोट्स की तरह उठती और गिरती है
यथार्थ की डोर पर,जो बोझिल निर्जनता में बक्सा-बन्द है.
4.
एक अविश्वासी हाथ सिगरेट जलाता है और पथराव करता है
पास के किसी गड्ढे से, त्यौरियाँ चढ़ाता है तय परिणाम पर
एक जोड़ा युद्धरत होंठ भुनभुनाते हैं बचपन का कोई गीत
भटकते हुए धुएँ से एक मनहूस बवंडर उठता है.
5.
वह सिर पड़ा है बेजान, उसकी आँखें अब भी जड़ी हुईं इस होती सुबह पर
वह बन्दूक अगले साथी के इन्तज़ार में है और हेलमेट ढुलक आया है
वह मरा सा गड्ढा लगभग सूखा हुआ अब और पानी नहीं दे पाता
और वह बहता खून भी उसे भर नहीं पाता.
6.
अपने शैशव में एक परिवार खेलता है घर में, बेखबर
तर्क टूटी दीवारों को खरोंचते हैं, रास्ता खोजते
इन जादुई बन्दूकों को पॉप कल्चर से मिटा देने का
पीड़ा की बिखरी रेत में आशा की मारीचिका मुस्काती है.
कोई नहीं दरवाजे पर इन्तज़ार में
यह दरवाजा यादों की एक सूनी नाव है
जो अकेली तिर रही है चरमराती आवाज में
उस भय भरती नदी में —
जो पकड़ कर भींच लेती है मुझे
भूतकाल में दौड़ जाने की उम्मीद के खिलाफ
वह नाव —
जिसे मैं अपने ननिहाल जाती कच्ची सड़क से
देख सकता था.
यादों के शान्त गहरे पानी पर
बैलेंस बनाते काठ के पटरों की
चर्र-चों की आवाजें
जैसे किसी बियाबान से उठती आवाजें थीं
जो उन यादों में घुसने के खिलाफ चेतावनी थी मेरे लिये
वहीं दूसरी तरफ
अतीत की महक
भूतकाल से टहलती आती उन्हीं हवाओं के कन्धों पर सवार थी
जिसमें महक थी पिछली आँधी में गिरे कच्चे आमों की
गर्मी की ऊँघती दोपहर की आवाजों ने
अपनी बातों में फुसला कर मुझे उन हवाओं को सूँघने से रोक दिया
यह सिर्फ दो दशक पहले था
कि मेरी जिन्दगी छन्द थी
और अब — मैं गम्भीर कवितायें चाहता हूँ.
मुक्त होने के खयालों में सबसे अधिक मुक्त था
कैद रहना
बचपन के अपने गाँव में
कच्ची सड़क, पानी
और आम के बगीचे में
वह सब कुछ था — बस कुछ ही पल पहले.
वे पल मेरी उम्मीद से बड़े हो गये हैं
और अब, जब मैं अपने नाना से मिलने आया हूँ
मैं सुन सकता हूँ
लपलपाती लू को
जो एक जोड़ा दरवाजों को झकझोरती
फड़ाफड़ाती हुई बहती है
उस दरवाजे पर जहाँ कोई नहीं है इन्तज़ार में.
हरामजादी सरहदें और झण्डे
कोई आनन्द नहीं हो सकता
मरे पशुओं का उत्सव करने में.
गाय तो कब की मर चुकी है
और सूअर यहाँ वहाँ बिखरे पड़े हैं.
कुछ पैर अभी भी थरथरा रहे हैं.
माटी से —
कुछ के अँकुर फूट आये हैं
कन्द की तरह उनकी देह
जमीन के भीतर दबी है
तुम सबने गूँगे पशुओं को शहीद कर
फिर से एक पाठ गढ़ लिया है.
तुम कट्टरों के लिये
ये गूँगे और अस्पष्ट पन्ने
सबसे आसान थे विकृत करने को
कि हंगामा खड़ा किया जा सके
कविता की स्पष्टता भी अभी
किसी मदहोश अस्पष्टता में फँसी हुई है
और सभी इन्ज़ार में हैं
आँसुओं के इन्तज़ार में
उस कठोर आकाश से
जो भारी है लेकिन सहनशील. वे सब
नाटक कर रहे हैं निष्क्रियता का
चोरी छिपे नजरें मिलाते हैं
देश की सीमा के बलात्कार पर
गलियों में
पूरी अटलता से
एक जल प्रलय उतरेगा आकाश से
क्योंकि तर्क खो चुके हैं इन अन्धेरों में
चिढ़े हुए इन संदेश वाहकों को तब
तलवारों और धर्म ध्वजों का व्यूह भेद कर
निकलना होगा
नोंकों और छोरों से
चीरते हुए उनके उपदेशों को
इन हरामजादी सरहदों पर.
युद्ध के समय में आस्था
गर्मी का एक मौसम युद्ध करता है भीतर
और आँसू सूख जाते हैं
हारे हुए सैनिक निर्वासित
खून के साम्राज्य से
घायल कविता रोजाना की सड़क के नुक्कड़ों पर
मृत्यु का उपहास करती है
जैसे जूते की हील से यूँ ही कुचली जाने के बाद भी
अधबुझी सिगरेट से
धुआँ निकलता रहता है बिना रुके
रहस्य की छाया में मरते सपने
भाग्य के आदेशों को धता बताते हैं
क्रूर मिसाइलों से घिर कर
बहती उदासियाँ
जंग खाये झरोखों से सिर टकराती हैं
स्मृति और आस्था की पैनी जकड़
जीवितों में उम्मीद जगाती है
और अचानक हुए विस्फोट की हैरत
मुखौटे झाड़ देती है —
सियारों के रति- रोदन और
परागों से जगी उत्तेजना के बीच
यह हवा सूँघ लेती है ज़हर
और शून्य, अनजान
फिर भी, हम साँस लेते हैं, गहरी आस्था में
कि हम प्रेम की उपज हैं
और किसी गर्माहट में दफना दिये जायेंगे.
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