वह मुजस्सिम ईरानी सिनेमा थाविष्णु खरे
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अब्बास किआरुस्तमी (22 जून,1940 – 4 जुलाई, 2016) और अपने माणिकदा सत्यजित राय में सिर्फ यही समानता न थी कि दोनों फि़ल्में बनाते थे. बेशक़ अब्बास सिनेमा में राय से सोलह साल जूनियर थे, लेकिन अब वह तथ्य गौण हो चुका है. शरीर से दोनों विशालकाय और सुदर्शन थे – चाहते तो शीर्ष अभिनेता बन सकते थे. अब्बास तो हिचकॉक की तरह अपनी कुछ फिल्मों में दिखाई भी दिए. दोनों के काम में बच्चों का विशेष महत्व हैं. दोनों हरफनमौला थे – चित्रकार, पुस्तक के मुसब्बिर, इश्तहारची, कमर्शियल कलाकार, स्टिल फोटोग्राफर, पटकथा लेखक, फिल्म संपादक, कला-निर्देशक, डॉक्युमेंटरी – निर्माता, और यदि राय कहानी लेखक थे तो अब्बास कविता और कविता के अनुवाद में एक शीर्ष-हस्ताक्षर. दोनों अपनी संस्कृतियों में गहरे पैठ हुए थे और उनके लिए लेओनार्दो दा विंची की तरह थे. यदि सत्यजित राय भारतीय सिनेमा का पर्याय हैं तो अब्बास किआरुस्तमी साक्षात ईरानी सिनेमा हैं. एक मजेदार तथ्य यह है कि अब्बास ने अपने स्ट्रगल के युवा दिनों में ट्रैफिक पुलिसवाले का काम भी अंजाम दिया. शायद इसलिए भी उनकी फिल्मों में मोटरगाड़ियां एक लघु विश्व की भूमिका निभाती हैं.
1960-70 के दशकों के बीच ईरान में एक फिल्म-संस्था बनी थी जिसका लोकप्रिय नाम ‘कानून‘ था, लेकिन उसका उद्देश्य बच्चों, किशोरों और नौजवानों का बौद्धिक विकास था. किआरुस्तमी ने उसमें तीस बरस काम किया और उसके लिए बीसियों फिल्में बनाते हुए अपने फिल्म निर्देशक का अभूतपूर्व विकास किया. वह दे सीका की नव-यथार्थवादी फिल्मों से ज्यादा प्रभावित नहीं थे लेकिन उनके सिनेमा के केन्द्र में साधारण मानव था, जिसे उन्होंने अपनी कला से असाधारण बना दिया.वह अक्सर इतावली सिने-लेखक चेज़ारे जावात्तोनी के हवाले से कहा करते थे कि सड़क पर शूटिंग करते वक्त जो पहला आदमी मेरे कैमरे के सामने आ जाए वह मेरा ‘नायक‘ हो सकता है.
किआरुस्तमी की फिल्मों की कहानियां हिंदी सिनेमा के लिए अकल्पनीय है. ‘दि एक्सपीरिएंस‘ में एक बच्चा है जो एक हमलावर कुत्ते से डरता है. ‘मुसाफिर‘ में एक उपद्रवी बच्चा है जो अपने कस्बे में राजधानी तेहरान जाकर फुटबॉल मैच देखने के लिए झूठ बोलकर कई जान-पहचान के लोगों और दोस्तों को ठगता है. ‘शादी का सूट‘ में सूट पहनने को लेकर तीन किशोरों में झगड़ा होता है.
अब्बास की पहली मुकम्मिल फीचर फिल्म ‘रिपोर्ट‘ का नायक एक कर वसूलने वाला कारकून है जो घूसखोरी के इल्जाम की वजह से खुदकुशी करना चाहता है. लेकिन किआरुस्तमी की जिस फिल्म ने उन्हें अंतरराष्ट्रीय ख्याति दिलवाई थी ‘दोस्त का घर कहा है‘, जिसमें एक आठ बरस का बच्चा अपने पास के गांव के दोस्त की तलाश में उसकी कॉपी लौटाने के लिए निकलता है ताकि वह दोस्त कहीं स्कूल से निकाल न दिया जाए. इस बहाने निदेशक ने आंचलिक, ग्रामीण ईरान का अभूतपूर्व चित्रण किया है.
किआरूस्ती की ये फिल्में आसान नहीं हैं, लेकिन ‘क्लोज अप‘ की कहानी से ही होश फ़ाख्ता हो जाते हैं. फिल्मों के पीछे पागल हमारे देश में भी ऐसी ठगी रोज होती है. एक धोखेबाज एक ईरानी परिवार से यह कहकर उन्हें लूटने की कोशिश करता है कि वह प्रसिद्ध सिने-डायरेक्टर मोहजिन मखमलबाफ़ है और उन्हें लेकर अपनी अगली फिल्म बनाना चाहता है. आप इस फिल्म की सिम्तों का तसब्बुर कीजिए. इस अकेली फिल्म पर लाखों शब्द लिखे जा चुके हैं जिसने वेर्नर हेत्सोग, गोदार, नान्नी मोरेत्ती, क्वेतीन तारांतीनों और मार्टिन स्कोरसेसे सरीख जीनियसों को अपना मुरीद बना डाला था.
खुदकुशी की थीम एक बार फिर अब्बास की फिल्म ‘चेरी का स्वाद‘ में लौटती है जिसे कान फिल्म समारोह में ‘स्वर्ण ताड़पत्र‘ (पाल्म द’ ओ) से सम्मानित किया गया था.यह कहानी भी किआरुस्तमी की भयावह नैतिक और कलात्मक जिदों से हमारा कलेजा कंपा देती है. वही नायक एक खुदकुशीपसंद शख्स है जो बीसियों आदमियों को अपनी कार में यह जानने के लिए लिफ्ट देता है कि उनमें से कोई उसकी मदद आत्महत्या करने में करेगा या नहीं. अंतिम लम्बे सीन में वह अपनी खुली कब्र में जिंदा लेटा हुआ मौत का इंतजार कर रहा है. ऊपर डरावने बादलों के पीछे चांद लुका-छिपी खेल रहा है. फिर फिल्म में और पर्दे पर अंधेरा हो जाता है जिसे कि आरूस्तमी ने हवा और कुत्तों के भौंकने के पाश्व-संगीत में कई असह्य मिनटों तक दिखाया है. बदी के लिए पर्दे से बेहतर कब्र क्या हो सकती थी!
किआरुस्तमी की आखिरी फिल्म ‘जैसे कोई इश्क करता हो‘ जो जापानी पृष्ठभूमि पर बनाई गई थी दर्शकों और समीक्षकों द्वारा सराही गई, किंतु उसे बहुत लोकप्रियता जाने क्यों नहीं मिली. उसके बरक्स 2010 की सर्टिफाइड कॉपी को फिर कान सर्वोच्च पुरस्कार के लिए दाखिल किया गया था बहसआगेज़ रही. किआरुस्तमी की फिल्मों में सैक्स और स्त्री-पुरुष सबंध बहुत सीधे और महत्वपूर्ण बनकर नहीं आ पाते और एक फ्रैंच स्त्री तथा एक अंग्रेज मर्द के रिश्तों को लेकर रची गई इस फिल्म में दर्शकों ने एक ऐसी विखंडित शादी को देखा जो उन्हें बनावटी और समझ से कुछ परे प्रतीत हुई. उसे उसकी तकनीक के लिए सराहा गया, लेकिन सभी ने ‘बात कुछ बनी नहीं’ कहा. सिर्फ रोजर एबर्ट ने उसकी अकु्ंठ प्रशंसा की. उल्लेखनीय यह है कि नायिका जुलिएत बिनोशको सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का सम्मान मिला.
किआरुस्तमी ने हाफिज़, रूमी, अत्तार और उमर खय्याम जैसे महान मध्ययुगीन ईरानी-फारसी और आधुनिक कवियों से अपनी फिल्मों में इतने प्रकट और प्रच्छन्न प्रभाव ग्रहण किए हैं.विश्व-कविता के पाठक भी वह थे. खुद फारसी में जापानी हाइकू लिखते थे और वे हमारे यहां के घटिया फिल्मी शायरों-कवियों जैसे न थे, कि उन्हींपर किताबें लिखी गई हैं.
कुल मिलाकर अब्बास किआरुस्तमीईरान के सिने-पिता तो हैं ही, संसार के एक महानतम निदेशक हैं. उन्होंने फिल्मों के जरिये ईरान को वह अद्वितीय राष्ट्रीय अस्मिता दी जो सारे अरब विश्व में थोड़ी-बहुत तुर्की के पास ही है. हमारे असगर वजाहतके बावजूद ईरान में सांस्कृतिक और कलात्मक दमन और मृत्यु-दंड तकरीबन रोजमर्रा हैं, लेकिन किआरुस्तमी ने कई आरोप सहते हुए भी एक लम्बे अर्से तक अपने सिनेमा के लिए गुंजाइश निकाली – सिर्फ आखिरी दो फिल्में उन्हें ज़लावतनी जैसे हालात में यूरोप और जापान में बनानी ही पड़ीं. वह लुकाठी और मशाल लेकर बाहर नहीं निकले, लेकिन अपने द्वारा प्रेरित और निर्मित दर्जनों युवतर बागी फिल्मकारों के समर्थक रहे.आज के करीब सारे निदेशक और सिनेमा उन्हीं की देन है – उसी तरह जैसे मिस्र को नील नदी की देन कहा जाता है.
उनका सिनेमा कब वृत्तचित्र बन जाएगा और कब कथा-कृति, यह कहा नहीं जा सकता. उन्होंने हमेशा अज्ञात अभिनेताओं के साथ काम करने की अधिकतम कोशिश की. उनकी फिल्में प्रयोगों से भरी पड़ी है, लेकिन वह न तो किसी ‘नूवेल बाग‘ से प्रभावित थे और न कोई नई धारा प्रवाहित करना चाहते थे. सत्यजित राय की तरह उन्हें भी सिनेमा का ‘जैंटिल जायंट‘ कहा जा सकता है. राय की तरह उनकी तीन फिल्मों को बतर्ज ‘अपू फिल्मत्रयी’, ‘कोकर फिल्मत्रयी’ नाम दिया गया है. जिस तरह राय की कई फिल्में राजनीति को बेहद महीन इस्तेमाल करती हैं जिस पर बहुत कम ध्यान दिया गया है, उसी तरह कियारुस्तमी का सिनेमा भी सियासी है. उन्होंने अपनी फिल्मों में कार को भी एक ‘पोलिटिकल स्पेस‘ बना डाला है. ‘हमें हवा ले जाएगी’ (1999) में वह कफन-दफन की रस्मों को फिल्माने एक दूरदराज के कुर्दी गांव जाते हैं और उन्हें मालूम पड़ता है कि एक कुर्दी बुढ़िया का चला-चली का वक्त है तो उसे शामिल किए लेते हैं, लेकिन वह इतनी सख्तजां है कि अल्लाह को प्यारी होने से एक लम्बा इनकार कर देती है और फिल्मकार को मौत छोड़कर जिंदगी में लौटना पड़ता है. अब्बास किआरुस्तमी की इस बेवक्ती बफात से विश्व सिनेमा, विश्व राजनीति और विश्व-संस्कृति को गहरा धक्का लगा है. यह नुकसान अकूत है.
हम भारत के मुरीद नए सूचना-एवं-प्रसारण मंत्री वेंकेय्या नायडू से यही इल्तिजा कर सकते हैं कि वह इस गोआ फेस्टिवल में किआरुस्तमी का पूरा पुनरावलोकन रखें. उन्हें कोलकाता फिल्म समारोह में सम्मानित किया गया था, लेकिन भारत के दर्शकों को उनकी सारी फिल्मों की दरकार है और उनसे ज्यादा हमारे फिल्मकारों को है जो बनाना तो क्या, ऐसा सिनेमा समझना तक भूल चुके है. लेकिन सच तो यह है कि किआरुस्तमी की फिल्मों के बाद अपनी अच्छी फिल्में और अपना अच्छा साहित्य भी बेमानी लगने लगता है.
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विष्णु खरे
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