कई हजार चौरासियों की माँविष्णु खरे |
यह नहीं कि करीब पचास वर्ष पहले महाश्वेता देवी की अपनी विशिष्ट छवि बनना शुरू नहीं हो चुकी थी लेकिन विचित्र व्यंग्य यह है कि उन्हें दक्षिण एशिया में एक सुपरिचित लोकप्रिय व्यक्तित्व बनाने का श्रेय 1968 की कई कारणों से अतिचर्चित महाफिल्म ‘संघर्ष‘ को जाता है जिसकी कहानी महाश्वेता की थी. निर्माता-निर्देशक एच. एस. रावेल अपनी पिछली फिल्म ‘मेरे महबूब‘ की अपार सफलता की आंधी पर सवार थे किंतु वह (और उनकी पत्नी) गंभीर बांग्ला साहित्य के पाठक भी थे और उन्हें महाश्वेता का ‘लैली आस्मानेर आईना‘ जैसा बहुआयामीय, अत्यंत सिनेमैटिक कथानक दिखाई पड़ा.लेकिन एक प्रतिबद्ध फिल्म-कथाकार के नाते महाश्वेता देवी की जो अमोघ प्रतिष्ठा है वह एक ओर तो गोविन्द निहालाणी निर्देशित ‘हजार चौरासी की मां‘ सरीखी नक्सलबाड़ी-एनकाउंटर आधारित क्लासिक पर टिकी हुई है या फिर कल्पना लाजमी की लगभग उतनी ही चर्चित फिल्म ‘रुदाली‘ पर. सिर्फ महाश्वेता ही ऐसी कहानियां लिख सकती थीं क्योंकि उन्हीं का अनुभव-संसार इतना विस्तृत और निर्भीक था. सच्चे-झूठे कारणों से अब भी कथित नक्सलबाड़ी क्रांतिकारी मारे जा रहे हैं.
‘रुदाली‘ उस राजस्थानी सामंतवादी-प्रथा पर आधारित है जिसमें निम्न-वर्ग की गरीब औरतें किसी समृद्ध पर्दानशीन सद्यविधवा के एवज में उसके पति के लिए विलाप करने किराये से बुलाई जाती हैं. दोनों फिल्मों का चर्चा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हुआ और अब वह अनिवार्यतः देखी जाने योग्य किसी भी भारतीय फिल्म सूची में शामिल है. यह बात दीगर है कि मैं कल्पना लाजमी और उनके दिवंगत मेंटर भूपेन हज़ारिका को बहुत सराहनीय नहीं समझ पाता हूं.
महाश्वेता देवी की फिल्म-कथाएं अधिकांश सिने- और साहित्य-कहानियों से बहुत अलग हैं और अधिकांश आधुनिक स्त्री-पुरुष लेखकों की कल्पना से परे हैं. सच तो यह है कि वह सिनेमा या सस्ते लुगदी-छाप पाठकों को नहीं बल्कि किसी गंभीर सामाजिक समस्या को ध्यान में रख कर लिखी गई थीं. वह सारी स्त्री-केंद्रित हैं. ‘संघर्ष‘ की मूल कहानी भी तवायफ लैला-ए-आसमान वैजयंतीमाला के इर्द-गिर्द घूमती है. इतालवी निर्देशक इताल्लो स्पिनेल्ली की फिल्म ‘गनगोर‘ एक ऐसी अभागी झारखंडी युवा मां पर केंद्रित है जिसे एक बेदिमाग फोटोग्राफर अपने बच्चे को स्तन-पान कराते शूट कर लेता है और उसकी अपनी बिरादरी उसके साथ बलात्कार कर उसे तबाह कर देती है. चित्रा पालेकर की मराठी फिल्म ‘माती माय‘ की ‘नायिका‘ मृत शिशुओं को दफनानेवाली एक गरीब औरत है जो मां बनने के बाद यह काम नहीं करना चाहती और अब सारे गांव के अन्याय का शिकार है, जिसमें उसका पति भी शामिल है.
महाश्वेता देवी ने अपनी प्रतिबद्ध नक्सलवादिता से भारतीय स्त्रियोचित-पुरुषोचित भावुकता को ध्वस्त कर दिया. वह नीर भरी दुख की बदली नहीं थीं, विद्युत्गर्जन की तूफानी मेघमाला थीं. वह निर्माता-निर्देशकों को अपनी-जैसी कहानियों पर फिल्म बनाने को प्रेरित और बाध्य कर सकीं, यह भारतीय सिनेमा का एक गौरवशाली अध्याय है.
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