राकेश बिहारी
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पुस्तक : हाता रहीम (उपन्यास)
लेखक : वीरेंद्र सारंग
प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली
पृष्ठ संख्या : 224
मूल्य : 400 रुपये
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<![endif]–>‘वज्रांगी’ और ‘तीसरा बच्चा’ के बाद ‘हाता रहीम’ वीरेंद्र सारंग का तीसरा उपन्यास है. जनगणना इस उपन्यास का केंद्रीय संदर्भ है. मेरी सीमित जानकारी में इस विषय पर कोई दूसरा उपन्यास नहीं है. विषय-संदर्भ का यह अनूठापन ही उपन्यासों की भीड़ में ‘हाता रहीम’ को अलग ला खड़ा करता है. हर दस वर्ष पर होनेवाली जनगणना का उद्देश्य क्या है और इससे प्राप्त आंकड़े देश के विकास में किस हद तक उपयोगी होते हैं जैसे महत्वपूर्ण सवालों और बहसों के बीच जिस इकाई की सबसे ज्यादा उपेक्षा होती है, वह है – एक आम आदमी. हमेशा से उपेक्षित और वंचित उसी आम आदमी की हैसियत, उसके सरोकार और उसके जीवन व्यापार की विसंगतियों-विडंबनाओं की बारीक पड़ताल करता है यह उपन्यास. प्रगति और विकास के तमाम दावों-प्रतिदावों के बीच एक व्यक्ति की पहचान कभी उसके लिंग से होती है तो कभी उसके धर्म से, कभी उसकी जाति से तो कभी उसकी आर्थिक हैसियत से लेकिन पहचान के इन तमाम सूचकांकों के बीच उसके इंसानी हैसियत पर कहीं कोई बात नहीं होती. इंसान के रूप में एक व्यक्ति के पहचाने या कि मूल्यांकित किए जाने की जरूरतों को रेखांकित करता यह उपन्यास समय और समाज के कई अन्य जरूरी सवालों से भी जूझता-टकराता है.
वर्गविहीन समाज की स्थापना में जातीय विभाजन सबसे बड़ी बाधा है. जबतक जाति-जाति के बीच की लंबी-चौड़ी खाइयों को नहीं पाटा जाता हमारे देश में समतामूलक समाज की स्थापना की अवधारणा एक दिवास्वप्न की ही तरह है. जिस समाज के अस्तित्व में जाति की एक बहुत बड़ी भूमिका हो उस समाज को जातिविहीन कैसे बनाया जाय, यह एक बहुत बड़ा सवाल है. जिस समाज में लगभग सभी अत्याचारों के मूल में जाति-व्यवस्था हो, क्या वहाँ जाति का उल्लेख किए बिना जाति-बिरादरी की हदबंदियों को समतल किया जा सकता है? क्या जाति के उल्लेख से बच-बचा कर निकल जाने में ही जातिविहीन समाज के सपनों की सार्थकता के बीज-शब्दों के अर्थ छिपे हुये हैं? एक ऐसे समय में जब सदियों से दमित-दलित समूह अपने हक और हुकूक की वर्णमाला से परिचित हो चुके हों, उन्हें समरसता के सैद्धान्तिक और किताबी लॉली पॉप से कब तक बहलाया जा सकता है? यद्यपि अपनी तमाम सदाशयताओं के बावजूद यह उपन्यास इन असहज करने वाले प्रश्नों का कोई मुकम्मल जवाब तो नहीं खोज पाता पर पाठकों को एक ऐसे मुहाने पर ला खड़ा करता है, जहां इन जैसे सवालों से जूझना बहुत जरूरी हो जाता है. उपन्यास के अंत में श्रीधर के ये शब्द एक वंचित-शोषित समाज के चैतन्य हो उठने से उत्पन्न ऐसी ही परिस्थितियों की तरफ इशारा करते हैं –
“आप देखिये साहब कितना बांटा है! ब्राह्मण का नाम- चक्रपाणि, कलाधर, मुरलीधर, राजाराम, देवव्रत. क्षत्रिय का नाम- बलवान, हनुमान, वीरेंद्र”, महेंद्र, नागेंद्र, जोधाबाई, कलावती. वैश्य का नाम- करोड़ीमल, गरीबदास, रामसजीवन, ओमप्रकाश, सोना, रूपवती, फूलझारी, बाला. शूद्र का नाम- कतवारी, घुरहू, गोबरी, जहरा, मोहरा, मूंस, लेड़ी, चेखुरी. मेरा नाम मेरे पिता ने बहुत सोच-समझ कर रखा है- श्रीधर. …क्या नहीं बांटा है साहब जानवर, त्योहार, देवता, चिड़िया-पक्षी, पत्थर भी बाँट दिया है. मेरा तो एक बार मन हुआ था कि अपनी देह में आग लगा दूँ साले को भसम हो जाय! न रहेगी देह ससुरी न इतना हिस्सा लगेगा! मैं ऐसे नहीं जान गया साहब! नौ दिया तेल जला है, तब जानता हूँ. बहुत खून चुसवाएं हैं हमारे बाप-दादा, गटई रेतवाए हैं! गाली सुने हैं- बहनचोद, बेटीचोद, मादरचोद, भाग साले डंडा डाल देंगे उलटकर! अब मुझे कोई कह कर देखे तो हम बतावें कि क्या मतलब होता है इसका!”
गौरतलब है कि श्रीधर जिस तरह के विभाजनों की बात यहाँ कर रहा है, वह महज नामों का अंतर भर नहीं है. बल्कि इसके पीछे प्रताड़णा और वंचना की सुनियोजित साजिश की लंबी कहानी है जिसकी जड़ें हमारी मांस-मज्जा में गहरे धँसी हुई हैं. यही कारण है कि एक खास सीमा के बाद सार्वजनिक जीवन में सहानुभूति और स्वानुभूति का फर्क स्पष्ट नज़र आने लगता है. तभी तो उपन्यास का सूत्रधार देवी प्रसाद दलितों-वंचितों के प्रति तमाम सदाशयताओं के बावजूद नामों के पीछे छिपी सामाजिक, आर्थिक और वर्णगत सच्चाईयों को खुद विश्लेषित नहीं करता जबकि श्रीधर की अनुभवजन्य चिंताएँ वर्ण और नाम के अंतर्संबंधों के पीछे काम करनेवाली संहिताओं के रगो-रेश में उतर जाती हैं. श्रीधर की बात में तल्खी का जो ताप दिखता है, उसका भी यही कारण है.
जनगणना हेतु प्रयुक्त किए जानेवाले फॉर्म के विभिन्न कॉलमों के शिल्प में गुंथे कथानक के माध्यम से यह उपन्यास वर्ग और वर्ण विभेद के तमाम सामाजिक, आर्थिक और मनोवैज्ञानिक प्रभावों की पड़ताल करता है. नाम, क्रमांक, परिवार में सदस्यों की संख्या, लिंग, मकान की स्थिति, घर में प्रयुक्त किए जाने वाले उपकरण यथा रेडियो, टी वी वगैरह, बैंक खाता आदि के कॉलमवार ब्योरों के बीच यह उपन्यास जिस तरह बड़े शहरों की तलछट में बसे कस्बों और बस्तियों में रहने वाले लघु मानवों के जीवन की त्रासदियों को व्याख्यायित करता है उससे समकालीन यथार्थ के कसैलापन का तो पता चलता ही है प्रगति के सरकारी आंकड़ों के समानान्तर उन कस्बों की असली विकास-यात्रा की तस्वीरें भी साफ होती चलती है. यह उपन्यास के शिल्प की विशेषता है कि आम जनजीवन की दशा इस कदर उभर कर आ पाई है. पर इस क्रम में उपन्यास एक तकनीकी खामी का शिकार हो गया है. उपन्यास में यह दिखाया गया है कि देवी प्रसाद जनगणना के क्रम में कॉलमवार जानकारियाँ इकट्ठा करते हैं. यानी एक-एक कॉलम की जानकारी इकट्ठा करने के लिए पूरे बस्ती में घूमते हैं. जबकि हकीकत में एक परिवार से संबन्धित सारी जानकारियाँ एक साथ ही एकत्र की जाती हैं.
यदि उपन्यासकार ने उपन्यास के सूत्रधार देवी प्रासद द्वारा भरे हुये शीट्स के कॉलमवार अवलोकन के दौरान फ्लैशबैक की तकनीक का इस्तेमाल कर इसे लिखा होता तो इस दोषसे मुक्त हुआ जा सकता था. फिलहाल उपन्यास की संरचनात्मक प्रविधि के साथ जुड़ा यह तकनीकी दोष खटकता है. बावजूद इसके जनगणना फॉर्म के हर कॉलम की कथा और हर कथा के पीछे छिपे विमर्श की त्रासदी जो पानी से जुड़ी हो या बिजली से, मकान की दीवार, छत या फर्श से जुड़ी हो या रसोई या शौचालय से सब के सब कहीं गहरे बेचैन करती हैं. महज दरो-दीवार को घर नहीं कहते के बहुश्रुत जुमले के विरुद्ध छत और दीवार की अहमियत को रेखांकित करनेवाली कई करुण कहानियाँ इस उपन्यास में बिखरी पड़ी हैं. रोटी, कपड़ा और मकान की मौलिक जरूरतों से महरूम लोगों के लिए घर, मनोरंजन, बचत और निवेश जैसी बातें कितनी बड़ी विलासिता हैं इस उपन्यास से गुजरते हुये आसानी से समझा जा सकता है.
इस उपन्यास के केंद्र में नायकत्व की भंगिमा से सम्पन्न कोई एक विशेष चरित्र नहीं है. एक हद तक ‘हाता रहीम’- जिस इलाके में उपन्यास की संदर्भित जनगणना हो रही है, को ही इस उपन्यास का केंद्रीय चरित्र कहा जा सकता है. गो कि ‘हाता रहीम’ एक बस्ती या मुहल्ले का नाम है पर उसका वास्तविक अक्स किसी भौगोलिक परिसीमा या सरकारी दस्तावेज़ में उल्लिखित चौहद्दी से नहीं विनिर्मित होता बल्कि उस इलाके में रहने वाले लोगों के जीवन से जुड़ी घटनाएँ, उनके सुख-दुख, उनके मन-मस्तिष्क में आकार लेतीं भय, चिंता संघर्ष और सपनों की छोटी-बड़ी रेखाओं आदि से मिल कर ही ‘हाता रहीम’ का नैन-नक्श उभरता है. इस क्रम में बार-बार सामने आते उपन्यास के छोटे-छोटे चरित्र यथा- रामलखन, झब्बो, जुबैर, इस्माइल, नंदलाल, कसपाती, किसमतिया आदि अपने भीतर स्वप्न, यातना और संघर्ष की जाने कितनी ऊर्जावान चिंगारियाँ समेटे हुये हैं. कथा-पटल पर अपनी लघु-उपस्थिति के बावजूद अंतहीन दुखों और लगातार उपेक्षित होती चिंताओं के बीच इनके भीतर अंकुरित हो रहे बदलाव के बीज हमें कहीं न कहीं गहरे आश्वस्त भी करते हैं लेकिन नीति निर्धारकों का संवेदनारहित व्यवहार हमें चिंतामुक्त नहीं होने देता. यही कारण है कि व्यक्तिगत उत्साह के रहते हुये भी आम जन की हैसियत जनगणना सूची में दर्ज हो जाने से ज्यादा की नहीं हो पाती. आम आदमी के जीवन का पर्याय बन चुकी यातनाओं और उनके आँखों में मद्धम हो रहे सपनों को एक संगठित आवाज़ की तरह पहचाने जाने की जरूरतों को भी यह उपन्यास बार-बार रेखांकित करता है. जनगणना के सरकारी काम से इतर देवी प्रसाद के सामाजिक संगठनकर्ता की भूमिका और उनके सान्निध्य में जुबैर के समाजोन्मुखी विकास को इसी दृष्टि से देखा जाना चाहिए.
गोकि यह उपन्यास घोषित रूप से स्त्री जीवन को केंद्र में रखकर नहीं लिखा गया है, बावजूद इसके इसमें आए कुछ स्त्री चरित्रों की उपस्थिति के भीतर एक गहरा लैंगिक विमर्श भी अंतर्निहित है. पुरुषों के सामने उनके नकारेपन का उल्लेख करते हुये परिवार के मुखिया के रूप में एक स्त्री का अपना नाम दर्ज कराना सामाजिक संरचना में हो रहे उल्लेखनीय बदलावों को रेखांकित करता है. इस क्रम में झब्बो और ‘नई बस्ती की बी. ए. पास एक स्त्री’ की जिजीविषा को विशेष रूप से रेखांकित किया जाना चाहिए जो जीवन यापन के लिए किसी पुरुष का मोहताज नहीं हैं. पर एक ऐसे उपन्यास में जहां हर छोटे-बड़े पात्रों को उसके नाम के साथ दर्ज किया गया हो, जहां श्रीधर जैसा आत्मचेता पात्र व्यक्ति के नाम के बहाने एक सामाजिक विमर्श को रेखांकित करता हो, वहाँ एक मजबूत स्त्री पात्र को बिना नाम के ‘एक स्त्री’ के रूप में चित्रित किया जाना खटकता है.
स्त्री पात्रों पर यह बात अधूरी होगी यदि देवी प्रसाद की पत्नी सुशीला का जिक्र न किया जाय. सुशीला की उपस्थिती उपन्यास में कई कारणों से महत्वपूर्ण है. सुशीला का देवी प्रसाद के साथ लगातार बने रहना और उनके काम में सहयोग करना न सिर्फ उपन्यास के कथानक को गति प्रदान करता है बल्कि दांपत्य में स्त्री-पुरुष दोनों की जरूरतों और उनके सान्निध्य के महत्व को भी रेखांकित करता है. लेकिन उपन्यास के आखिरी कुछ अध्यायों में जब देवी प्रसाद डूडा कॉलोनी में जनगणना के लिए जाते हैं, सुशीला उपन्यास से गायब हो जाती हैं. गौरतलब है कि यहाँ तक आते-आते देवी प्रसाद का व्यक्तित्व बहुत ज्यादा बौद्धिक हो गया है. जबतक देवी प्रसाद घर या दफ्तर के दैनंदिनी कार्य-व्यापार से जूझ रहे थे सुशीला उनके साथ थी लेकिन जैसे ही उनकी भूमिका विशुद्ध रूप से एक बौद्धिक नेतृत्वकर्ता की हुई पत्नी की उपस्थिति जाती रही. पूरे उपन्यास में लगातार उपस्थित रहनेवाली सुशीला को इस तरह अंत में अचानक छोड़ दिया जाना कई सवाल खड़े करता है. क्या स्त्रियाँ सिर्फ रोजमर्रा के सामान्य जीवन-व्यापार भर के लिए हीं उपयोगी हैं? क्या बौद्धिक विमर्श सिर्फ पुरुषों का कार्यक्षेत्र है? हो सकता है सुशीला को कथानक से अनुपस्थित करते हुये लेखक ने इन प्रश्नों पर न सोचा हो और जनगणना के ब्योरे तैयार करने में देवी प्रसाद के दक्ष हो जाने के कारण सुशीला के और उपस्थित रहने को गैरज़रूरी समझ लिया हो. लेकिन सुशीला के होने-न होने को इस तरह सीमित कर देना उचित नहीं. यद्यपि मोटे तौर पर यह उपन्यास स्त्री जीवन को लेकर बहुत सकारात्मक और सचेत है, लेकिन चेतना के सूक्ष्मतम स्तर पर खिंची ये महीन दरारें लेखकीय नीयत और औपन्यासिक नियति के बीच एक फासला बना देती हैं.
कुछ संरचनात्मक कमियों के बावजूद जनगणना के बहाने आम जन जीवन से बावस्ता यह उपन्यास अपने संदर्भ और सरोकारों के कारण विशिष्ट और पठनीय है.
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पुस्तक : हाता रहीम (उपन्यास)/ लेखक : वीरेंद्र सारंग
प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली
पृष्ठ संख्या : 224/ मूल्य : 400 रुपये