जिन्हें हम विकसित सभ्यताएं कहते हैं, वहाँ चमक, दमक, तेज़ी और तुर्शी के बावजूद बहुत कुछ फीका, उदास, थका और अँधेरा है. इसे न कोई देखना चाहता है न दीखाना. आज अमरीका धरती की सबसे काम्य जगह है पर किसके लिए ?
विनय कुमार की अमरीका सीरीज़ की इन कविताओं में प्रवासिओं की विडम्बना तो है ही जो इस व्यवस्था में फिसफिट हैं उनकी विद्रूपता भी समक्ष है. ये कविताएँ जेहन में बैठ जाती हैं और बेचैन करती हैं.
विनय कुमार : अमरीका सीरीज़ की कविताएँ
ग़रीबी सिर्फ़ चीथड़े नहीं
अ-फट जींस और पॉलिएस्टर की हाई नेक भी पहनती है
सस्ती ही सही मगर बीयर और सिगरेट भी पीती है
उसे क़र्ज़ में डूबी हुई कार में चलने से भी परहेज़ नहीं
किराए की पोशाक पहन महँगे क्लबों में भी जा घुसती
नागरिकता भले अफ़्रीका और एशिया और दक्षिण अमेरिका की
मगर यूरोप और उत्तरी अमेरिका में भी उसने ठिकाने जीत रखे हैं
और हाँ, रंगभेद तो छू भी नहीं गया उसे
गोरे, काले और पीले सबको एक भाव से चूमती और चूसती है!
बिन रेडर्स
मॉल के बाहर ट्रैश बॉक्स के पास मँडराता झुण्ड
उस खाने के लिए है
जो नियमानुसार रात के नौ बजे अखाद्य हो जाएगा
माना कि भंडारे और डोल करुणा से भरे कटोरे हैं
मगर नकचढ़े नियम की छींक के छींटों का स्वाद भी बिलकुल वही है
यक़ीन नहीं तो पूछ लो बेरोज़गार जैक और
महँगी पढ़ाई कर रहे महेंद्र और अलताफ़ से
वक़्त से पहले पहुँच स्टोर के पके हुए खाने का सर्वे तैयारी का अहम हिस्सा है
फिर बाहर निकल आते हैं और यूँ मँडराते हैं
गोया सैर को आए हों
मगर ऐन वक़्त पर तीन दिशाओं से हमला
और अपनी पसंद का आइटम हासिल कर लेते हैं
हर रेड के बाद
तीनों अपने डब्बे उठाए एक ही दिशा में जाते हैं
कुछ दूर चलकर
बेघर जैक रेल्वे स्टेशन की तरफ़ मुड़ जाता है
और बाक़ी दोनों यूनिवर्सिटी के कैंटीन की तरफ़
भला हो बिन का जो अन्न और धन से ठसाठस भरे
अमेरिका में इन तिलंगों के पेट और दिमाग़ को पालता है
अकेला
ग़रीबी जेब के ख़ालीपन से ही नहीं
जो चाहिए उसकी क़ीमत से भी तय होती है
एक युवक मेनिया के एक एपिसोड में हॉस्पिटल क्या गया
वह और उसका भाई दोनों कंगाल
भाई ने क़र्ज़ लेकर किसी तरह उसे इंडिया भेज दिया
जहाँ वह पहुँच तो गया मगर … समझ रहे हैं न आप ..
वह इन दिनों भारत में रहता है
और सालों से उदास है
क्योंकि वह ज़िंदा है और अकेला!
बेबस
उम्र की ७२वीं पायदान से बोलता है एक मसीहा
अमेरिका सिर्फ़ तीन तरह के लोगों के लिए है –
जवान, ख़ूबसूरत और ज़रखेज़
उस महफ़िल में तीनों तरह के लोग
सबने मन ही मन अपने-अपने ईश्वर को धन्यवाद दिया
और शीराज और शारडनी की चुस्कियाँ लेते रहे
ऐसी ऊँची बातें भला वे कैसे कर सकते हैं
जो न जी पा रहे
न इस मुल्क और दुनिया से जा पा रहे
चर्च
चर्च की भीड़ कम होती जा रही
ज़्यादा से ज़्यादा संडे को पहुँच जाते कुछ लोग ..
बाक़ी तो सन्नाटा
क्या लोगों को पता चल गया
कि ईसा मसीह नौकरी नहीं दिलवा सकते
न कोई मुहमाँगी जीत ही
शेयर मार्केट की लहरें और रेस के घोड़े भी
उनके कहे में नहीं
मगर अपने यहाँ तो मंदिरों में बड़ी भीड़ है
प्रभु मिलते तो पूछता
क्या पॉलिटिक्स है सर जी
कि लगभग सारी पार्टियाँ एक ही गर्भगृह के आगे
अलग-अलग लाइनों में खड़ी हैं
जीतता राजा और हारती प्रजा
दोनों के होंठों पर एक ही जयकारा !
वह फटीचर
कारें दौड़ती हैं
किराए की टैक्सियाँ भी
मगर इन सड़कों पर कोई बस नहीं
इंद्रलोक का यह फटीचर
असमय बुझती हुईं आँखों
और काँपती हुईं टाँगों के भरोसे
बर्फ़ का बीहड़ कैसे पार करे
ख़ाली हो चुकी जेब
गहराती रात
और दुर्गम दूरी पर किसका बस
कॉस्को बंद हो चुका है
और रेल्वे स्टेशन काफ़ी दूर है
यूँ तो कहीं भी जाने में कोई डर नहीं
मगर स्वयं को कैसे समझाए
कि रास्ते में मृत्यु का कोई टेंट कोई घर नहीं
वह फटीचर दरअसल इतिहास का बेरोज़गार टीचर है और जानता है
कि जार्ज वॉशिंगटन की तलवार ने
मृत्यु से आज़ादी की जंग नहीं लड़ी थी !
विकास
गिरते तो सभी हैं
मगर मैं फूस की झोपड़ी
और ख़ूब ऊँची इमारत से गिरने के फ़र्क़ को समझना चाह रहा हूँ
छप्पर से कूद भी जाऊँ तो ख़ुदकुशी अधूरी रह जाएगी
मगर क्या यही बात तुम अम्पायर स्टेट बिल्डिंग के पास बनी रिहायशी मीनार के बारे में कह सकते हो ?
देखते-देखते लाखों मर गए बंगाल के काल में
मगर क्या इन्कार कर सकते हो
कि वे जो महामंदी की घाटी में जीवित रहे
वे मुर्दे नहीं थे
और क्या इन्कार
कर सकते हो कि
रूपसी बांग्ला के जल-वस्त्र दोनों विश्वयुद्धों के काँटों में नहीं उलझे
और उस अन्नपूर्णा के गर्भ में नहीं फटे बेरहम बम ?
स्वतंत्रता
सबसे अधिक जीवन और स्वतंत्रता और सुख पंछियों के हिस्से
क्या टापू और क्या सागर जी भर मँडराते
जी करता तो क्रूज़ के कंधे पर बैठ
न्यू जर्सी और न्यूयॉर्क भी घूम आते
छेड़ती हवाओं के प्यार में डूबा पानी भी
अपनी तरलता में प्रसन्न
कि जिसे भी गुज़रना है गुज़र जाओ
मगर बेचारे मनुष्य मुर्दा चीज़ों के बीच
सुखों के पीछे भागते-भागते ग़ुलाम
अगर यही जीवन है
तो कहाँ है स्वतंत्रता मिस्टर जेफरसन
अचल टापू पर खड़ी अचल इस मूर्ति की तंबई उठान
या लॉस वेगास के जुआघरों में डोलतीं परछाइयों के गुम होते जाने में ?
लिवर
एक हाथ में मज़ा
दूसरे में आज़ादी
सफ़र अच्छा था .. बहुत अच्छा
मगर अब लिवर उस पुराने ‘चीज़’ की तरह सड़ चुका है
जिसे नए की आमद के बाद फ़्रीज़ के बाहर रख दिया गया था
और जेब बीयर के उस आख़िरी केन की तरह ख़ाली
जिसे उतरते नशे की फ़िक्र में निपटा दिया गया हो
आती-जाती नौकरी से ‘चीज़’ तो लाया जा सकता है
लिवर नहीं
वह अपने संविधान से पूछना चाहता है
कि जब सब कुछ तुम्हारे ही दायरे में किया तो
मेरे और लिवर के नए टुकड़े के बीच
बीमा वाले क्या कर रहे ?
गुफ़्तगू
स्टैचू अव लिबर्टी वाले टापू से
वर्ल्ड ट्रेड सेंटर साफ़ दिखाई देता है
ऊँचाई की वजह से क़रीब भी महसूस होता
ऐसा लगता दो ऊँचे और मशहूर इंसान
एक दूसरे के रू ब रू हैं
इस ख़याल के साथ एक ख़याल यह भी आता
कि रात के अंधेरे में जब कभी तन्हाई मयससर
गुफ़्तगू भी होती होगी
सोचता हूँ कि धंधे की धुनों पर थिरकते
वर्ल्ड ट्रेड सेंटर के पास तो कहने को बहुत कुछ
लिबर्टी के पास क्या
थोड़ा सा इतिहास और सैलानियों की भीड़ की बातें ही तो
इनमें उस १०२ मंज़िले की क्या दिलचस्पी
जहाँ टुरिज़म की कमाई एक स्प्रेड शीट में एक कॉलम-भर
मगर कान पक जाते होंगे लिबर्टी के जब शुरू हो जाता होगा वह
फँस जाती होगी बेचारी जैसे कोई कवि
व्यापारियों के क्लब में
कभी-कभी बहस भी हो जाती होगी
कि असली आज़ादी की रूह किस में
लिबर्टी कहती होगी- इसमें क्या बहस
और वह ठठाकर हँस देता होगा
कि बड़ी रक़म ख़र्च हुई है तुझे बनाने में
और छवियाँ तो तेरी भी बिकतीं
मेरी प्यारी लिबर्टी दादी
काश तुझे दिखा पाता कि
मेरी १०१वीं मंज़िल से कितनी छोटी और कितनी कुहरीली दिखती है तू !
छोटी टाउनशिप
रहना ही होता यहाँ इस मुल्क में
तो किसी छोटी टाउनशिप में पनाह लेता
जहाँ एक ही चौराहा एक ही पब एक ही कॉफ़ी शॉप
और सिर्फ़ तीन रेस्तराँ – एक इंडियन, एक इटालियन और एक कोई भी
वहाँ एक ही क्लबहाउस होता
कम से कम सौ साल पुराना
अँखरी ईंटें और सिर पर खपरैल
सामने एक नदी होती साँवली और दुबली
दाहिनी तरफ़ बड़ा मैदान
नदी पर एक पुलिया भी
ऐसी जगह जहाँ बैठो तो
पानी में नहाता चाँद दिख जाए
वह क्लब ज़रा ऑर्थोडॉक्स होता
कम से कम एक मामले में
लाल और उजली वाइन शहर की हद में बसी इकलौती वाइनरी से ही….और दोनों ज़रा तेज़
बस दो यूनिट और आत्मा के रोएँ गुनगुना उठें
दिसम्बर की एक दोपहर जब बर्फ़ धूप की तरह बिछी होती
सुरूर की आँच में पार करता दूर तक फैला मैदान
और कविता की पंक्तियाँ किरणों सी छिटकती रहतीं
किसी और दिन जब तुम्हारे साथ
तय कर रहा होता यही ट्रेल
तो सर्द हवाओं के बावजूद दाहिने हाथ से दस्ताने निकाल थाम लेता कोट की जेब से खींचकर तुम्हारा हाथ
तुम उम्र का वास्ता देती और मैं कोई शेर सुना देता
हम अक्सर इकलौते कॉफ़ी शॉप तक जाते
जहाँ मानूस बेयरा सालों पुरानी मुस्कान के साथ वही दिलकश एस्प्रेसो और लाटे से हमें यूँ नवाज़ता गोया यह कॉफ़ी शॉप अपनी ख़ानदानी जागीर हो
छोटे बहर की ग्यारह मिसरों वाली इस ग़ज़ल को अलग-अलग सुरों में इतनी बार गाते हम
कि हौले-हौले इसे अपनी रूह की हवेली में तब्दील कर देते !
पारले जी
पारले जी
एक बिस्किट का नहीं
उस बिरवा का नाम है
जो तुम्हारी हस्ती के आँगन में
मिट्टी के तुलसी चौरे में उगा है
वह बिरवा कितना ज़िद्दी है
कि घाट-घाट का ज़हर पीकर भी नहीं मुरझाया
और आज तुम्हारी अठत्तरवीं किताब के जश्न के मौक़े पर
समोसे के बग़ल में छोटे बच्चे-सा मुस्कुरा रहा है
किसी मेहमान ने नहीं छुआ उसे
फिर भी ..
सुना है, जब भी किसी मुबारक मौक़े पर
इंडियन स्टोर में फोन करते तुम
वे लोग बिना कहे भी पारले जी के कुछ डब्बे भेज ही देते हैं
किसके लिए