कथा-सम्राट प्रेमचंद की कालजयी कहानी ‘कफन’ उनकी अंतिम कहानी भी है. यह मूल रूप में उर्दू में लिखी गयी थी. ‘जामिया मिल्लिया इस्लामिया’की पत्रिका ‘जामिया’के दिसम्बर, १९३५ के अंक में यह प्रकाशित हुई, इसका हिंदी रूप ‘चाँद’ के अप्रैल, १९३६ में प्रकाशित हुआ था. यह हिंदी की कुछ बेहतरीन कहानियों में से एक है.
इस कहानी की पुनर्रचना का विचार ही ज़ोखिम भरा है और ऊँचे दर्जे की कहानी- कला और सामाजिक संरचनाओं में आये बदलावों की गहरी समझ की मांग करता है.
कथाकार पंकज मित्र ने यह साहस दिखाया है. ‘कफन रिमिक्स’ समकालीन घीसू माधव की कथा कहने का दावा करती है. ८२ साल बाद क्या ‘घीसू’ ‘माधव’ की संताने इसी तरह विकसित हो रही हैं ? आदि आदि.
समालोचन में कथा–आलोचक राकेश बिहारी का स्तम्भ ‘भूमंडलोत्तर कहानी’ पिछले लगभग तीन वर्षो से नियमित प्रकाशित हो रहा है जिसमें अब तक १४ कहानियों की विवेचना आप पढ़ चुके हैं. यह अब पुस्तकाकार शीघ्र प्रकाश्य है.
कहानी आपके समक्ष है. विवेचना साथ में है. पहले आप कहानी पढ़ें, गुनें, विचारें. फिर विवेचना पढ़ें. देखें कथाकार ने कहानी को कहाँ तक आगे बढ़ाया है? और विवेचना में कथा की कैसी पड़ताल की गयी है.
समालोचन यह समझता रहा है कि जब तक पाठक का पाठ सामने नहीं आता पाठ पूरा नहीं होता.
कफन रिमिक्स
(बाबा -ए- अफसाना प्रेमचंद से क्षमायाचना सहित)
पंकज मित्र
शायद घीसू ही रहा हो या गनेशी या गोविन्द- नाम से फर्क भी क्या पड़ना था. एक चीज एकदम नहीं भूलते थे दोनों बाप-बेटे नाम के साथ ‘राम’लगाना, बल्कि माधो या मोहन जो भी नाम रहा हो, एकदम छोटा करके बतलाता था- एम. राम. बाप का नाम? – जी. राम. पीठ पीछे गरियाते थे लोग-ऊँह! काम न धाम, नाम एम. राम. सामने हिम्मत नहीं होती थी क्योंकि जमाना ‘इनलोगों’ का था या कम से कम ऐसा समझा जाता था. तो जनाब एम. राम अभी तुरंत गाँव के एकमात्र पी.एच.सी. मतलब प्राथमिक सेवा केन्द्र जिसे बोलचाल में छोटका अस्पताल कहा जाता था उसके बेरंग बंद दरवाजों पर कई लातें जमाकर लौटा था जिससे उसकी टाँगो में दर्द हो रहा था. भला हो जी. राम का जो शाम को दो प्लास्टिक ले आया था और भला हो जमाने का भी जो हर गाँव में यह बहुतायत में उपलब्ध था.
एम. राम – एही से हम बोलते है टौन में चलके रहिए. आदमी कम से कम घर में एड़ी घिस के तो नहीं मरेगा.
जी. राम– देख न फोन-उन करके, किसी का गाड़ी-उड़ी भेंटा जाय.
एम. राम – साला नेटवर्कवा रहे तब न. इ झमाझम पानी में गाड़ीवाला हजार रूपया मांगेगा.
जी. राम – अरे तो अबरी जोजनवा (योजना) में कुआँ मिल जायेगा तो कमाई तो हो जायेगा न.
एम. राम – हाँ! साँढ़वाला गिरेगा तो ललका फल मिलेगा.
जी. राम – गुस्सा काहे रहा है बेटा! ले एक घूँट ले ले. मन ठंढा जायेगा.
एम. राम – यहाँ बुधवंती के जिनगी ठंढा रहा है, आपको भी न – अच्छा लाइये पप्पा. कलेजा जल गया. कोन घटिया चीज ले आये.
जी. राम – हमरा एकरे से संतोष होता है. कोलवरी (कोलियरी) के टैम से आदत पड़ गया है. खाना भेंटाबे चाहे नहीं इ तो जरूर चाहिये. बहू को कुछ हो गया तो खाना पर भी आफत है. न रे?
एम. राम – दुर! इ अंधड़-पानी में नेटवर्क कहाँ मिलेगा? नर्सिया का नंबर तो है लेकिन आयेगी कैसे?
जी. राम – रोजगार बाबू (रोजगार सेवक) को फोन करके देख न, कुछ उपाय करे.
एम. राम – पीके सुतल होगा. होश में होगा तब न. एक बार देख के आओ न बुधवंती के हाल पप्पा.
जी. राम – हमरा कुछ बुझायेगा. तुमरा जनानी है, तुम पूछ आओ हाल.
एम. राम – हमरा देखल नहीं जाता है. कटल बकरा ऐसन छटपटा रही है.
जी. राम – तो हमसे कैसे देखा जायेगा. अच्छा बाबू! परसौती (प्रसूति) के लिए भी तो कुछ जोजना आता है न ब्लाक मे. सुनते है अच्छे पैसा मिल जाता है.
एम. राम – एकदम आखरी कमीना हो तुम भी पप्पा. हरदम पैसे सूझता है. यहाँ आदमी मर रहा है.
जी. राम – अरे बाबू! पैसा देखले हैं न. कोलवरी में नोट पर नोट. एक बार घुसो – काला घुप्प अंधरिया में, नोट लेके निकलो. डेली मीट-भात और अंगरेजी दारू. लेकिन तब भी हमरा लास्ट में प्लास्टिक जरूर चाहिए.
एम. राम – तो आ गए काहे इ गाँव में सड़ने.
जी. राम – अपना मर्जी से थोड़े आये. कोन तो साला फुसक दिया कि कुछ आदमी दूसरा के नाम पर कोलवरी में मजूरी कर रहा है. हो गया इंस्पेक्शन, जिसके नाम पर हम थे, उसका नौकरी चल जाता न. तो घंटी बजने पर भी हम निकले नहीं. बस गाड़ी आया, ऊपर से एक बोझा कोयला ढार दिया. हम तो मरिये गये थे समझो. लेकिन खाली हाथे भर काटना पड़ा. जान बच गया.
एम. राम – तो कोलवरी से मुआवजा मिला नहीं कुछ?
जी. राम – कोनो हम नौकरी पर थोड़े न थे. कोय कागज-पत्तर था हमरा? कोलवरी हस्पताल में इलाज हो गया यही बहुत है. देख तो बाबू! अब जादे गोंगिया रहीं है बुधवंती. हे भगवान!
एम. राम – पप्पा! देखो न बुधवंती का आँख बंद है. अब छटपटा भी नहीं रही है. कहीं कुछ हो तो नहीं गया?
जी. राम गिलास हाथ में पकड़े मुस्करा रहा था. अपने में लीन संत हो जैसे. कह रहा हो – बच्चू! सब माया-मोह का बंधन है. इन्हीं आँखों के सामने सात-आठ (गिनती भी ठीक से याद नहीं) बच्चों को जाते देखा. तुम्हारी अम्मा को भी बिना दवा-दारू के …..
यहाँ तक कि बिना जाने किस बीमारी से गई. जानकर होता भी क्या. अभी तो कम से कम छोटका हस्पताल के उजाड़, बेरंग बंद दरवाजा में लात मारने का भी उपाय है. तब तो वह भी नहीं था. एम. राम इस अंतर-केश-दाहक मुस्कान पर सुलग उठे. इसी वजह से कई बार उन्होंने जी. राम को जी भरकर कूटा भी था. कूटते तो बुधवंती को भी थे गाहे-बगाहे. लेकिन यह कूटना क्रोध की अवस्था में प्रेम प्रदर्शन का अनोखा तरीका था उनका. पर अभी इन सबका वक्त नहीं था.
एम. राम – देखते हैं किसी का बाइक-उइक भेंटा गया तो ब्लाक तक चल जायेंगे.
जी. राम मुस्कराते रहे. जैसे कह रहे हो- क्या होगा वहां जाकर. डाक्टर, ए.एन.एम, आशा दीदी सब तो तीन बजते ही …… एम. राम निकल पड़े थे इस हिदायत के साथ – देखते रहिएगा. जी. राम मुस्कराते रहे. पीट-पीटकर पानी बरसता रहा.
आधे घंटे में एम. राम पानी से लथपथ लौटे – कोय साला मदद करने वाला नहीं. महतो जी का छौड़वा बोल रहा था – चले हम? हम मना कर दिये. उसका नजर ठीक नहीं है. बहाना खोजता रहता है. इन सारी बातों का जवाब जी. राम के खर्राटो ने दिया. एम. राम कमरे में दौड़ते गए और उसी गति से बाहर आये. बुधवंती ठंडी पड़ी थी. मुँह पर मक्खियाँ भिनक रही थी. चोरी से जलाए गये बल्ब की रोशनी में देखा. बाहर आकर जी. राम की कमर पर एक लात जमाई. बिलबिला कर उठे जी. राम.
एम. राम – यहाँ बहू मरी पड़ी है और इ पी के सुत रहा है. पापी! इसके बाद गालियों की एक लड़ी जो उसे बचपन से अबतक पहनाई गयी थी, जी. राम को वापस पहना दी. हकबकाकर उठते ही पूछा – बच्चा हो गया क्या?
एम. राम – पप्पा ! बुधवंती चल गई – बोलते-बोलते आवाज भर्रा गई. जी. राम निश्चित हुए फिर रोने लगे.
जी. राम – बड़ी गुणवंती थी रे बुधवंती. हम तो बर्बाद हो गये. रोटी का ठौर तो था. कल ही तो बियाह करके लाया था रे तू.
एम. राम-तब पप्पा ! काम-धाम कुछ?
जी. राम – का काम होगा बाबू! कोय काम देता नहीं कहता है कामचोर. इधर नहर पर कुछ दिन हुआ था मिट्टी काटने का. बदन तोड़ने वाला काम है. पैसा भी आधा.
जी. राम – अरे! झूरी महतों का मालूम नहीं है? उ तो झूल गया न बुढ़वा पाकड़ पर. एक दिन भोरे गए तो देखे भीड़ लगल है, झूरी झूल रहा है. दोनों बैलवा उसका पैर चाटले है नीचे खड़ा-खड़ा. सब बोला कि कर्जा ले लिया था बहुत और इस बार फसल मार खा गया न. बस हमरा भी काम खतम.
एम. राम – ठीक है, देखते हैं. रोजगार सेवक कौन है?
जी. राम- एक बार नाम-धाम लिख के तो ले गया था. काम मिला भी था एक बार बस दू-तीन दिन. बहू का भी लिखवा देना नाम.
एम. राम – एतना आसानी से थोड़े लिख लेगा. आजकल ग्राम सभा वाला चक्कर हो गया है. मीटिंग होगा तभिये लिखायेगा.
जी. राम – अरे हमारा तो लिखले है न. सब है, आधार कार्ड, वोटर कार्ड सब. बड़ा झमेला है – कहता है मजूरी खाता में जायेगा. हम गये थे तो सब हँस दिया. एक हाथ वाला लूल्हा का काम करेगा. सुना दिये हम भी – दुगो हाथे से कौन पहाड़ ढा दिये तुम लोग. एगो अंगूठा तो है न ठप्पा देने. तुमलोग भी तो वही करता है न. बाकी काम तो मशीने से न होता है.
महतो जी हँसते हुए बोले- अरे! सब तीर-तलवार लौट जायेगा रोजगार बाबू. खाली इन लोग पाँच परिवार का नाम शुरू में ही लिख दीजियेगा. एकदम सौलिड कवच-कुंडल.
– बाबू! खाना खा लो – कितना मीठा बोलती है बहू. इ सरवा मेरा बेटवा कहाँ से सीख के आया. पप्पा. पहले बप्पा बोलता था. जब से टौन रहके आया है तभी से.
– हाँ, दे दो! – खुश थे जी. राम.
एम. राम खुश थे कि उनलोगों का नाम खातें मे इतनी जल्दी चढ़ गया. रोजगार बाबू खुश थे कि उनका उसूल कायम रह गया साथ ही कोटा भी पूरा हो गया. एम. राम की समझदारी ने उनके उसूल को बचा लिया. टाउन में रहकर आदमी समझदार हो ही जाता है. देहाती होने से पचास सवाल करता-क्यों? किस वास्ते? प्रसन्न मन से सूची लेकर प्रखंड पहुँचे. वहाँ पहुँचते ही अपशगुन दिखा- तब रोजगार सेवक जी? सुनने में आया है कि सूची में एट्टी परसेंट फर्जी नाम है. दिखाइये.
– देखिए! सरकारी दस्तावेज है. दिखा नहीं सकते.
– दस रूपया लगा के पूछेंगे तब तो दिखाइयेगा.
जी. राम – तब बाबू! अब तो किरिया-करम भी तो करना होगा न.
एम. राम – भोर होगा तब न, अब तो
जी. राम – हाँ, लेकिन बुधवंती के मट्टी को तो नीचे लाना होगा न खाट पर से.
एम. राम उठकर हाथ लगाने लगे तो जी. राम भी साथ आ गए. दोनों ने मिलकर बुधवंती को खाट पर से नीचे उतारा. एक फटी चटाई पर रखा.
जी. राम – उत्तर-दक्खिन सुलाओ. का करोगे बाबू! सोचो, एतने दिन का साथ था. विधि का विधान. पास में पैसा है न? कफन-लकड़ी सब……..
एम. राम – सब इंतजाम किया जायेगा. एतना दिन सुख-दुख में साथ दी तो करना पड़ेगा न.
जी. राम- उ तो करना ही पड़ेगा. मतलब हम कह रहे थे कि उधर रोजगार बाबू के सेवा में भी तो निकल गया न.
बड़े लाड़ से जी. राम एक प्लास्टिक पाउच फाड़कर दो गिलासों में ढाल रहे थे. एक अपनेपन से बेटे की ओर बढ़ाया – ले ले बाबू! तकलीफ घटेगा. एम. राम ने सिर नीचा किए ही गिलास हाथ में ले लिया.
जी. राम – जोजनवा वाला कुआँ पास हो जाता न. सब दुख-दलिद्दर दूर हो जाता.
एम. राम ने गटगटाकर एक ही सांस में गिलास खाली कर दिया.
जी. राम ने अनुभव बाँटा – धीरे बाबू धीरे. कलेजा जल जायेगा.
एम. राम – कलेजा तो पानी हो गया पप्पा, हमरी वैफ (वाइफ) चल गई. उ तो सरग जायगी न पप्पा?
जी. राम – एकरा में कोय शक है बाबू. एकदम पतिवरता थी. तुमको छोड़के किसी के तरफ देखी भी नहीं.
एम. राम – लैफ (लाइफ) बरबाद हो गया पप्पा.
बोलते-बोलते आधा नशा, आधी थकान से सिर एक ओर लुढ़क गया. दरवाजे से सटकर जी. राम भी ऊँघने लगे थे. पानी लगातार बरसे जा रहा था. एम. राम का फोन लगातार बजे जा रहा था. जी. राम ने झकझोर कर एम. राम को जगाया.
– ऐं!
–अरे! इ रात को रोजगार बाबू काहे फोन कर रहा है. रात-बेरात फोन करने का आदत है इसको.
– बधाई हो राम जी!
– कोन ची का सर?
–बुधवंती देवी तोरे वाइफ का नाम है न? जोजना वाला कुआँ पास हो गया उसके नाम से. हम बोले थे न वाइफ के नाम से दरखास दो. एक तो महिला, उपर से दलित. एकदम ब्रह्मास्त्र. साला पास कैसे नहीं होता.
– अभी रात में पास हुआ सर?
– अरे नहीं रे बुड़बक! अभी हमरा मतलब शाम में तुम जानबे करते हो. तनी सा-हमरा तो फिक्स है न. तो अभी नींद खुला तो सोचे तुमको खुशखबरी दें दें.
एम. राम – सर! उ बुधवंती तो-
जी. राम ने फोन छीन लिया – मैके चल गई है. बच्चा होने वाला था न तो.
–अरे कोय बात नहीं, खाता में न पैसा जायेगा. खाली हमरा सही टाइम पर जल्दी ही………
जी. राम – एकदम मालिक!
जी. राम – अब बाबू! जल्दी सोच का करना होगा.
एम. राम – मतलब.
जी. राम – देख कितना पतिबरता थी बुधवंती. जाते-जाते भी हमलोग का लंबा जोगाड़ कर गयी. भगवान! उसको एकदम सरग के गद्दी पर बैठाना. केतना मिलता है बाबू कुआँ का.
एम. राम – एक लाख उनासी हजार. उसमें बड़ा हिस्सा उ रोजगार बाबू खा लेगा.
एम. राम – लेकिन इ बुधवंती!
जी. राम – वहीं तो! सुन! ध्यान से सुन! किसी को कानोंकान खबर नहीं हो. कुछ इंतजाम करना होगा. भगवान भी हमलोग का भला चाहते हैं तभी इ छप्पर फाड़ बारिश……….
सहन के किनारे रखी कुदाल उठा लाये अपने एक मात्र हाथ मे. सिर पर बोरे का घोघे (छाते की तरह) डाल दिया, जैसे रणभूमि में जाने के लिए तैयार सिपाही हो.
एम. राम – लेकिन पप्पा, बुधवंती की मट्टी खराब हो जायेगी. इ सरग कैसे जायेगी.
जी. राम – कोय लौट के बताया है कि सरग गया कि कहाँ गया.
एम. राम – लेकिन हमरा से पूछेगी कि हमरा किरिया-करम भी नहीं किए तो हम का जवाब देंगे?
जी. राम – किरिया-करम तो होगा बस थोड़ा दूसरा तरीका से. देख. माटी का शरीर माटी में मिलना है. चाहे जैसे मिले. गफूरवा का बाप मरा था तो सरग गया होगा कि नहीं. एतना एकबाली आदमी था.
कीचड़ से लथपथ, थकान से चूर वे घर लौटे तो पौ फट रही थी. चापाकल पर दोनों ने रगड़-रगड़कर नहाया. पानी बरसना भी बंद हो चुका था.
जी. राम ने जम्हाई लेकर जवाब दिया – धरती ही कफन है उसका. सो जा. दस बजे प्रखंड आफिस भी जाना है न रोजगार बाबू से मिलने.
शायद घीसू ही रहा हो या गनेशी या गोविन्द- नाम से फर्क भी क्या पड़ना था. एक चीज एकदम नहीं भूलते थे दोनों बाप-बेटे नाम के साथ ‘राम’लगाना, बल्कि माधो या मोहन जो भी नाम रहा हो, एकदम छोटा करके बतलाता था- एम. राम. बाप का नाम? – जी. राम. पीठ पीछे गरियाते थे लोग-ऊँह! काम न धाम, नाम एम. राम. सामने हिम्मत नहीं होती थी क्योंकि जमाना ‘इनलोगों’ का था या कम से कम ऐसा समझा जाता था. तो जनाब एम. राम अभी तुरंत गाँव के एकमात्र पी.एच.सी. मतलब प्राथमिक सेवा केन्द्र जिसे बोलचाल में छोटका अस्पताल कहा जाता था उसके बेरंग बंद दरवाजों पर कई लातें जमाकर लौटा था जिससे उसकी टाँगो में दर्द हो रहा था. भला हो जी. राम का जो शाम को दो प्लास्टिक ले आया था और भला हो जमाने का भी जो हर गाँव में यह बहुतायत में उपलब्ध था.
जी. राम उवाचे थे- हम तो पहले ही बोले थे बंद होगा. रात में तो वहां सियार बोलता है. नर्सिया एगो होली-दशहरा आती है बस.
एम. राम – एही से हम बोलते है टौन में चलके रहिए. आदमी कम से कम घर में एड़ी घिस के तो नहीं मरेगा.
जी. राम– देख न फोन-उन करके, किसी का गाड़ी-उड़ी भेंटा जाय.
एम. राम – साला नेटवर्कवा रहे तब न. इ झमाझम पानी में गाड़ीवाला हजार रूपया मांगेगा.
जी. राम – अरे तो अबरी जोजनवा (योजना) में कुआँ मिल जायेगा तो कमाई तो हो जायेगा न.
एम. राम – हाँ! साँढ़वाला गिरेगा तो ललका फल मिलेगा.
जी. राम – गुस्सा काहे रहा है बेटा! ले एक घूँट ले ले. मन ठंढा जायेगा.
एम. राम – यहाँ बुधवंती के जिनगी ठंढा रहा है, आपको भी न – अच्छा लाइये पप्पा. कलेजा जल गया. कोन घटिया चीज ले आये.
जी. राम – हमरा एकरे से संतोष होता है. कोलवरी (कोलियरी) के टैम से आदत पड़ गया है. खाना भेंटाबे चाहे नहीं इ तो जरूर चाहिये. बहू को कुछ हो गया तो खाना पर भी आफत है. न रे?
एम. राम – दुर! इ अंधड़-पानी में नेटवर्क कहाँ मिलेगा? नर्सिया का नंबर तो है लेकिन आयेगी कैसे?
जी. राम – रोजगार बाबू (रोजगार सेवक) को फोन करके देख न, कुछ उपाय करे.
एम. राम – पीके सुतल होगा. होश में होगा तब न. एक बार देख के आओ न बुधवंती के हाल पप्पा.
जी. राम – हमरा कुछ बुझायेगा. तुमरा जनानी है, तुम पूछ आओ हाल.
एम. राम – हमरा देखल नहीं जाता है. कटल बकरा ऐसन छटपटा रही है.
जी. राम – तो हमसे कैसे देखा जायेगा. अच्छा बाबू! परसौती (प्रसूति) के लिए भी तो कुछ जोजना आता है न ब्लाक मे. सुनते है अच्छे पैसा मिल जाता है.
एम. राम – एकदम आखरी कमीना हो तुम भी पप्पा. हरदम पैसे सूझता है. यहाँ आदमी मर रहा है.
जी. राम – अरे बाबू! पैसा देखले हैं न. कोलवरी में नोट पर नोट. एक बार घुसो – काला घुप्प अंधरिया में, नोट लेके निकलो. डेली मीट-भात और अंगरेजी दारू. लेकिन तब भी हमरा लास्ट में प्लास्टिक जरूर चाहिए.
एम. राम – तो आ गए काहे इ गाँव में सड़ने.
जी. राम – अपना मर्जी से थोड़े आये. कोन तो साला फुसक दिया कि कुछ आदमी दूसरा के नाम पर कोलवरी में मजूरी कर रहा है. हो गया इंस्पेक्शन, जिसके नाम पर हम थे, उसका नौकरी चल जाता न. तो घंटी बजने पर भी हम निकले नहीं. बस गाड़ी आया, ऊपर से एक बोझा कोयला ढार दिया. हम तो मरिये गये थे समझो. लेकिन खाली हाथे भर काटना पड़ा. जान बच गया.
एम. राम – तो कोलवरी से मुआवजा मिला नहीं कुछ?
जी. राम – कोनो हम नौकरी पर थोड़े न थे. कोय कागज-पत्तर था हमरा? कोलवरी हस्पताल में इलाज हो गया यही बहुत है. देख तो बाबू! अब जादे गोंगिया रहीं है बुधवंती. हे भगवान!
एम. राम दौड़कर कमरे में घुसते है. थोड़ी लड़खड़ाहट भी है चाल में. मोबाइल निरंतर सटा है कानों से. बुधवंती अस्त व्यस्त हालत में है. चेहरें की ऐंठन बता रही है कि असह्य यंत्रणा है. एम. राम भावुक हो उठते हैं. साल भर ही तो हुए हैं. कितनी अपनी लगने लगी थी. धीरे-धीरे आवारा घर पालतू बन रहा था. दिन भर ढबढियाने (इधर-उधर घूमने) के बाद घर आने पर पेट भर खाना और आँख भर नींद. बुधवंती से शादी से पहले तो बाप कहीं से पेट भर के आ रहा है तो बेटा कहीं से. सिर्फ एक ही बात तय होती थी. दोनों ढक होके लौटते थे. जिन आँखों की झाल ने एम. राम को जीवन का स्वाद बताया था उन्हीं आँखों को बंद देखकर एम. राम का जी बैठा जाता था. कमरे से घबराकर बाहर निकल गया.
एम. राम – पप्पा! देखो न बुधवंती का आँख बंद है. अब छटपटा भी नहीं रही है. कहीं कुछ हो तो नहीं गया?
जी. राम गिलास हाथ में पकड़े मुस्करा रहा था. अपने में लीन संत हो जैसे. कह रहा हो – बच्चू! सब माया-मोह का बंधन है. इन्हीं आँखों के सामने सात-आठ (गिनती भी ठीक से याद नहीं) बच्चों को जाते देखा. तुम्हारी अम्मा को भी बिना दवा-दारू के …..
यहाँ तक कि बिना जाने किस बीमारी से गई. जानकर होता भी क्या. अभी तो कम से कम छोटका हस्पताल के उजाड़, बेरंग बंद दरवाजा में लात मारने का भी उपाय है. तब तो वह भी नहीं था. एम. राम इस अंतर-केश-दाहक मुस्कान पर सुलग उठे. इसी वजह से कई बार उन्होंने जी. राम को जी भरकर कूटा भी था. कूटते तो बुधवंती को भी थे गाहे-बगाहे. लेकिन यह कूटना क्रोध की अवस्था में प्रेम प्रदर्शन का अनोखा तरीका था उनका. पर अभी इन सबका वक्त नहीं था.
एम. राम – देखते हैं किसी का बाइक-उइक भेंटा गया तो ब्लाक तक चल जायेंगे.
जी. राम मुस्कराते रहे. जैसे कह रहे हो- क्या होगा वहां जाकर. डाक्टर, ए.एन.एम, आशा दीदी सब तो तीन बजते ही …… एम. राम निकल पड़े थे इस हिदायत के साथ – देखते रहिएगा. जी. राम मुस्कराते रहे. पीट-पीटकर पानी बरसता रहा.
आधे घंटे में एम. राम पानी से लथपथ लौटे – कोय साला मदद करने वाला नहीं. महतो जी का छौड़वा बोल रहा था – चले हम? हम मना कर दिये. उसका नजर ठीक नहीं है. बहाना खोजता रहता है. इन सारी बातों का जवाब जी. राम के खर्राटो ने दिया. एम. राम कमरे में दौड़ते गए और उसी गति से बाहर आये. बुधवंती ठंडी पड़ी थी. मुँह पर मक्खियाँ भिनक रही थी. चोरी से जलाए गये बल्ब की रोशनी में देखा. बाहर आकर जी. राम की कमर पर एक लात जमाई. बिलबिला कर उठे जी. राम.
एम. राम – यहाँ बहू मरी पड़ी है और इ पी के सुत रहा है. पापी! इसके बाद गालियों की एक लड़ी जो उसे बचपन से अबतक पहनाई गयी थी, जी. राम को वापस पहना दी. हकबकाकर उठते ही पूछा – बच्चा हो गया क्या?
एम. राम – पप्पा ! बुधवंती चल गई – बोलते-बोलते आवाज भर्रा गई. जी. राम निश्चित हुए फिर रोने लगे.
जी. राम – बड़ी गुणवंती थी रे बुधवंती. हम तो बर्बाद हो गये. रोटी का ठौर तो था. कल ही तो बियाह करके लाया था रे तू.
एम. राम इस अनवरत विलाप के बीच शांत होकर बुधवंती का चेहरा देखे जा रहे थे. उसी तरह जब पहली बार देखा था और आँखें की ओर देखते हुए पूरी मिर्च चबा ली थी मुख्यमंत्री दाल-भात योजना के दुकान पर. सी-सी कर उठने पर बुधवंती ने पानी दिया था. तय नहीं कर पाये थे एम. राम कि बुधवंती की आँखों में झाल ज्यादा थी या हरी मिर्ची में. उन दिनों शहर में रिक्शा चला रहे थे एम. राम. दोनों टाइम उसी दुकान पर खाना खाने लगे चाहे उनके रैनबसेरे से लाख दूरी हो. बुधवंती उस दुकान में खाना बनाने का काम करती थी. अब रैनबसेरा तो रिक्शेवालों का था और बुधवंती वहां जा नहीं सकती थी. कम-से-कम रात में तो वहाँ रूकना एकदम असंभव था. एम. राम के मन में एक आदिम इच्छा ने जन्म लिया और रिक्शा मालिक के पास रिक्शा जमा करके बचाये हुए पैसे और बुधवंती को लेकर गाँव आ गए. रास्ते में कालीमंदिर में दैवी सम्मति भी ले ली. जब वे पहुँचे तो जी. राम मरणासन्न अवस्था में पड़े थे. सिर्फ आसपास कई प्लास्टिक पाउच पड़े थे. लगता था कई दिनों से भोजन के बदले इसी अमृत का सेवन कर रहे थे. आते ही बुधवंती ने घर का मोर्चा संभाल लिया – साफ-सफाई, चौका-बरतन, खाना-पीना. दोनों जी. राम को टाँग कर चापाकल पर ले गये. नहलाया-धुलाया, कपड़े बदले, खाना खिलाया. भर पेट भात का नशा अलग होता है. जी. राम घंटों सोते रहे.
रात में नीमरोशनी में जब एम. राम ने बुधवंती के नग्न पीठ पर उत्तप्त हाथ फेरा तो उभरे निशानों का अनुभव कर काँप गए. जोर डालकर पूछा तो बुधवंती ने पूरी कहानी बयान की कि कैसे उसके गाँव की एक दलालिन ने नौकरी दिलाने के नाम पर दिल्ली ले जाकर बेच डाला था जहाँ मालिक मालकिन उसे बेतों से मारते थे. कोठी के अंदर बंद करके रखते. बाहर जाने नहीं देते.
आगे एम. राम सुन नहीं पाये और उस अदृश्य मालिक के प्रति गालियों की बौछार करके बुधवंती से प्रेम करने लगे (बाबा-ए अफसाना प्रेमचंद से फिर क्षमायाचना क्योंकि कहानी में इस तरह के दृश्य को अप्रूव नहीं करते वे)
सुबह जी. राम मुस्कराते हुए उठे. बहुत दिनों के बाद भोर इतनी उजली हुई थी. सुबह-सुबह काली चाय मिली थी. एम. राम को चाय की आदत पड़ गयी थी शहर में कुछ दिन रहने से.
एम. राम-तब पप्पा ! काम-धाम कुछ?
जी. राम – का काम होगा बाबू! कोय काम देता नहीं कहता है कामचोर. इधर नहर पर कुछ दिन हुआ था मिट्टी काटने का. बदन तोड़ने वाला काम है. पैसा भी आधा.
एम. राम. – और झूरी महतो के यहाँ खेत में?
जी. राम – अरे! झूरी महतों का मालूम नहीं है? उ तो झूल गया न बुढ़वा पाकड़ पर. एक दिन भोरे गए तो देखे भीड़ लगल है, झूरी झूल रहा है. दोनों बैलवा उसका पैर चाटले है नीचे खड़ा-खड़ा. सब बोला कि कर्जा ले लिया था बहुत और इस बार फसल मार खा गया न. बस हमरा भी काम खतम.
एम. राम – ठीक है, देखते हैं. रोजगार सेवक कौन है?
जी. राम- एक बार नाम-धाम लिख के तो ले गया था. काम मिला भी था एक बार बस दू-तीन दिन. बहू का भी लिखवा देना नाम.
एम. राम – एतना आसानी से थोड़े लिख लेगा. आजकल ग्राम सभा वाला चक्कर हो गया है. मीटिंग होगा तभिये लिखायेगा.
जी. राम – अरे हमारा तो लिखले है न. सब है, आधार कार्ड, वोटर कार्ड सब. बड़ा झमेला है – कहता है मजूरी खाता में जायेगा. हम गये थे तो सब हँस दिया. एक हाथ वाला लूल्हा का काम करेगा. सुना दिये हम भी – दुगो हाथे से कौन पहाड़ ढा दिये तुम लोग. एगो अंगूठा तो है न ठप्पा देने. तुमलोग भी तो वही करता है न. बाकी काम तो मशीने से न होता है.
जिस दिन का यह वाकया है सभी पशोपेश में पड़ गये थे. रोजगार सेवक ने सबको शांत करवाया –भाईयों! शांति रहिए, शांति रहिए. बैठक को भरस्ट मत कीजिए. पाँच घर ही तो मात्र दलित है गाँव मे. सबको लेके चलना है साथ. सब ठप्पा लगाइये.
– जी. राम!
पुकार पर जी. राम ने उठाया अपना एक मात्र हाथ-हाजिर मालिक.
–आइये ठप्पा लगाइये. यहाँ पर. सबका नाम प्रखण्ड में भेजा जायेगा. बी.डी.ओ. साहेब जाँच करेंगे फिर जिला जायेगा.
–पैसवा कब तक मिल जायेगा मालिक – जी. राम व्यग्र थे.
–अरे, अभी देर लगेगा. सवधानी रखना पड़ता है. रोजगार सेवक ने धीरज की गोली खिलाई. आजकल बहुत झोल-झाल है. आर. टी. आई, सोशल आडिट.
महतो जी हँसते हुए बोले- अरे! सब तीर-तलवार लौट जायेगा रोजगार बाबू. खाली इन लोग पाँच परिवार का नाम शुरू में ही लिख दीजियेगा. एकदम सौलिड कवच-कुंडल.
रोजगार बाबू सार्वजनिक रूप से हँसना तो दूर कभी मुस्कराते भी नहीं थे तो फाइलें समेटने लगे. पद का नाम रोजगार सेवक था और यह उसी तरह के सेवक थे जैसे मंत्री जनता के सेवक होते हैं, प्रधानमंत्री प्रधान सेवक होते हैं. दरअसल मजा यह था कि जनता कोई दिखनेवाली चीज तो थी नहीं. ईश्वर की तरह एक अमूर्त कल्पना थी तो सीधे-सीधे ऐसा नहीं होता था कि जनता नाम का प्राणी आया और उसकी टाँगे दबाने बिठा दिया गया या मालिश या चम्पी करनी पड़ गयी. जनता उस न दिखनेवाली गर्द की तरह थी जो जब जरूरत हुई विरोधी पक्ष की आँखों में झोंकने के काम आती थी. तो रोजगार सेवक भी मन ही मन में गा रे मन रे गा करते हुए जनता के लिए सौ दिन या एक सौ बीस दिन का रोजगार सुनिश्चित करके चले गये. दूसरे-तीसरे दिन से जी. राम ओर इसी तरह के प्राणी प्रखण्ड के चक्कर लगाने लगे. बैंक में जाकर दरबान से पूछते – बाबू. पैसवा आया? गाँव के बरगद के नीचे ताश खेलते लड़के आपस मे बात करते – पैसवा आया तुम्हारा? काम शुरू नहीं हुआ तो पैसा कोन बात का? पोखरा खोदायेगा यहाँ पर. जनता पोखर में पानी और खाते में रूपया देखने का भान करने लगी.
– बाबू! खाना खा लो – कितना मीठा बोलती है बहू. इ सरवा मेरा बेटवा कहाँ से सीख के आया. पप्पा. पहले बप्पा बोलता था. जब से टौन रहके आया है तभी से.
– हाँ, दे दो! – खुश थे जी. राम.
खुश थे एम. राम भी. रोजगार बाबू ने एम. राम को ठीक पहचान लिया था. लिख लिया था नाम भी
– नाम एम. राम, जाति –
– नाम बुधवंती देवी, जाति –
एम. राम खुश थे कि उनलोगों का नाम खातें मे इतनी जल्दी चढ़ गया. रोजगार बाबू खुश थे कि उनका उसूल कायम रह गया साथ ही कोटा भी पूरा हो गया. एम. राम की समझदारी ने उनके उसूल को बचा लिया. टाउन में रहकर आदमी समझदार हो ही जाता है. देहाती होने से पचास सवाल करता-क्यों? किस वास्ते? प्रसन्न मन से सूची लेकर प्रखंड पहुँचे. वहाँ पहुँचते ही अपशगुन दिखा- तब रोजगार सेवक जी? सुनने में आया है कि सूची में एट्टी परसेंट फर्जी नाम है. दिखाइये.
– देखिए! सरकारी दस्तावेज है. दिखा नहीं सकते.
– दस रूपया लगा के पूछेंगे तब तो दिखाइयेगा.
सवाली जी दरअसल उस नई उग आयी बिरादरी के सदस्य थे जो अंधेरे कोने अतरे में अचानक सवालिया टार्च की रोशनी फेककर अस्त व्यस्त हालत में देख लेते थे. फिर कुछ दे दिलाकर सवालों के टार्च बुझाने की मिन्नत की जाती थी. प्रखण्ड, जिला, राजधानी में इन सवाली लोगों की संख्या बढ़ती जा रही थी. दस रूपया लगाया, लाखों का सवाल पूछ डाला. कभी-कभी दाँव लग गया तो एकाध महीने का खर्चा निकल गया. कभी-कभी दाँव उल्टा भी पड़ जाता था – ‘इसके पाँच सौ पन्ने हैं. फोटोकापी के पाँच सौ जमा करा दें तो फाइलों की प्रति उपलब्ध कराई जा सकती हैं.’दुर साला! अब पाँच सौ कौन लगाये? इसमें हर तरह के सवाल होते थे-मसलन सूची में अनुसूचित जाति के कितने लोग हैं से लेकर अमरीकी आर्थिक नीति से कटमसांडी प्रखण्ड के कितने लोगों का जीवन सीधे-सीधे प्रभावित हुआ तक.
बुधवंती की देह को छूकर देखा एम. राम ने. ठंढी पड़ रही थी देह धीरे-धीरे. जी. राम दरवाजे के पास धीमे सुर में विलाप करते हुए कनखियों से एम. राम की गतिविधियों पर नजर रख रहे थे. एम. राम बार’बार भावुक हो रहे थे. भिनक रही थी, मक्खियाँ, उड़ा रहे थे. आजकल बरसात के दिन थे तो मक्खियाँ कभी भी कहीं भी भिनकती रहती थी. दिन-रात का खयाल किये बिना. जी. राम ने मन को स्थिर किया. सवालिया निगाह बेटे पर डाली.
जी. राम – तब बाबू! अब तो किरिया-करम भी तो करना होगा न.
एम. राम – भोर होगा तब न, अब तो
जी. राम – हाँ, लेकिन बुधवंती के मट्टी को तो नीचे लाना होगा न खाट पर से.
एम. राम उठकर हाथ लगाने लगे तो जी. राम भी साथ आ गए. दोनों ने मिलकर बुधवंती को खाट पर से नीचे उतारा. एक फटी चटाई पर रखा.
जी. राम – उत्तर-दक्खिन सुलाओ. का करोगे बाबू! सोचो, एतने दिन का साथ था. विधि का विधान. पास में पैसा है न? कफन-लकड़ी सब……..
एम. राम – सब इंतजाम किया जायेगा. एतना दिन सुख-दुख में साथ दी तो करना पड़ेगा न.
जी. राम- उ तो करना ही पड़ेगा. मतलब हम कह रहे थे कि उधर रोजगार बाबू के सेवा में भी तो निकल गया न.
बड़े लाड़ से जी. राम एक प्लास्टिक पाउच फाड़कर दो गिलासों में ढाल रहे थे. एक अपनेपन से बेटे की ओर बढ़ाया – ले ले बाबू! तकलीफ घटेगा. एम. राम ने सिर नीचा किए ही गिलास हाथ में ले लिया.
जी. राम – जोजनवा वाला कुआँ पास हो जाता न. सब दुख-दलिद्दर दूर हो जाता.
एम. राम ने गटगटाकर एक ही सांस में गिलास खाली कर दिया.
जी. राम ने अनुभव बाँटा – धीरे बाबू धीरे. कलेजा जल जायेगा.
एम. राम – कलेजा तो पानी हो गया पप्पा, हमरी वैफ (वाइफ) चल गई. उ तो सरग जायगी न पप्पा?
जी. राम – एकरा में कोय शक है बाबू. एकदम पतिवरता थी. तुमको छोड़के किसी के तरफ देखी भी नहीं.
एम. राम – लैफ (लाइफ) बरबाद हो गया पप्पा.
बोलते-बोलते आधा नशा, आधी थकान से सिर एक ओर लुढ़क गया. दरवाजे से सटकर जी. राम भी ऊँघने लगे थे. पानी लगातार बरसे जा रहा था. एम. राम का फोन लगातार बजे जा रहा था. जी. राम ने झकझोर कर एम. राम को जगाया.
– ऐं!
– फोन!
–अरे! इ रात को रोजगार बाबू काहे फोन कर रहा है. रात-बेरात फोन करने का आदत है इसको.
– बधाई हो राम जी!
– कोन ची का सर?
–बुधवंती देवी तोरे वाइफ का नाम है न? जोजना वाला कुआँ पास हो गया उसके नाम से. हम बोले थे न वाइफ के नाम से दरखास दो. एक तो महिला, उपर से दलित. एकदम ब्रह्मास्त्र. साला पास कैसे नहीं होता.
– अभी रात में पास हुआ सर?
– अरे नहीं रे बुड़बक! अभी हमरा मतलब शाम में तुम जानबे करते हो. तनी सा-हमरा तो फिक्स है न. तो अभी नींद खुला तो सोचे तुमको खुशखबरी दें दें.
एम. राम – सर! उ बुधवंती तो-
जी. राम ने फोन छीन लिया – मैके चल गई है. बच्चा होने वाला था न तो.
–अरे कोय बात नहीं, खाता में न पैसा जायेगा. खाली हमरा सही टाइम पर जल्दी ही………
जी. राम – एकदम मालिक!
एम. राम अपने बाप को फटी आँखों से देखे जा रहा था. जी. राम का नशा हिरन हो चुका था.
जी. राम – अब बाबू! जल्दी सोच का करना होगा.
एम. राम – मतलब.
जी. राम – देख कितना पतिबरता थी बुधवंती. जाते-जाते भी हमलोग का लंबा जोगाड़ कर गयी. भगवान! उसको एकदम सरग के गद्दी पर बैठाना. केतना मिलता है बाबू कुआँ का.
एम. राम – एक लाख उनासी हजार. उसमें बड़ा हिस्सा उ रोजगार बाबू खा लेगा.
जी. राम – अरे तो कोनो हमलोग का पूंजी लगा है, जो मिलेगा सब फायदे न है. कुआँ खनवाने में कहीं एतना पैसा लगता है. धन्य है बहू!
एम. राम – लेकिन इ बुधवंती!
जी. राम – वहीं तो! सुन! ध्यान से सुन! किसी को कानोंकान खबर नहीं हो. कुछ इंतजाम करना होगा. भगवान भी हमलोग का भला चाहते हैं तभी इ छप्पर फाड़ बारिश……….
सहन के किनारे रखी कुदाल उठा लाये अपने एक मात्र हाथ मे. सिर पर बोरे का घोघे (छाते की तरह) डाल दिया, जैसे रणभूमि में जाने के लिए तैयार सिपाही हो.
एम. राम बाप का बाना देखकर थोड़े परेशान है मगर धीरे-धीरे समझ में आ रही है बात.
एम. राम – लेकिन पप्पा, बुधवंती की मट्टी खराब हो जायेगी. इ सरग कैसे जायेगी.
जी. राम – कोय लौट के बताया है कि सरग गया कि कहाँ गया.
एम. राम – लेकिन हमरा से पूछेगी कि हमरा किरिया-करम भी नहीं किए तो हम का जवाब देंगे?
जी. राम – किरिया-करम तो होगा बस थोड़ा दूसरा तरीका से. देख. माटी का शरीर माटी में मिलना है. चाहे जैसे मिले. गफूरवा का बाप मरा था तो सरग गया होगा कि नहीं. एतना एकबाली आदमी था.
जी. राम पूरे दार्शनिक हो चुके थे. दर्शन को कर्तव्य में भी ढालने को सन्नद्ध भी. एम. राम भी भावकुता के खोल से धीरे-धीरे बाहर आ रहे थ. एक चमक सी आँखों में लौट रही थी. कुदाल बाप के हाथ से ले ली. घर के पिछवाड़े टाँड़ जमीन थी. आज उन्हें अपने रहने के ठिकाने पर गर्व हुआ कि गाँव के एक किनारे रहने के भी अपने फायदे हैं. एम. राम गड्ढा खोदते जाते. जी. राम एक मात्र हाथ से मिट्टी निकाल-निकाल कर फेंकते जा रहे थे. बोरे का घोघो फिंका चुका था. दोनों कीचड़ में लथपथ किसी दूसरे ग्रह के प्राणी लग रहे थे जो किसी गुप्त खजाने की तलाश कर रहे हों. साढ़े तीन हाथ लंबा और चार हाथ गहरा गड्ढा खुद जाने तक दोनों रूके नहीं. कौन कहता था वे कामचोर थे.
कीचड़ से लथपथ, थकान से चूर वे घर लौटे तो पौ फट रही थी. चापाकल पर दोनों ने रगड़-रगड़कर नहाया. पानी बरसना भी बंद हो चुका था.
नींद से भारी आँखों को थोड़ा खोलते हुए पूछा
जी. राम ने जम्हाई लेकर जवाब दिया – धरती ही कफन है उसका. सो जा. दस बजे प्रखंड आफिस भी जाना है न रोजगार बाबू से मिलने.
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पंकज मित्र