इसका 122 वां अंक कहानी विशेषांक है जिसमें प्रकाशित कहानियों की विवेचना कर रहें हैं आलोचक सूरज पालीवाल.
‘पहल’ का कहानी विशेषांक
‘पहल’ 122 कहानी विशेषांक है. वैसे तो ‘पहल’ के हर अंक की उत्सुकता पाठक, लेखक और आलोचक तीनों को होती है पर ‘कहानी विशेषांक’ की आतुर प्रतीक्षा के मूल में यह देखना था कि ज्ञान जी ने कौन-कौन कहानीकार और उनकी किस प्रकार की कहानियों का चयन ‘पहल’ के लिये किया है. इसके मूल में ‘पहल’ की अर्जित प्रतिष्ठा और ज्ञान जी की संपादकीय दृष्टि हैं. जाहिर है कि यह अंक हाथोंहाथ लिया गया. इस अंक में तीन लंबी कहानियों के अलावा दस और कहानियां हैं. साथ में युवा आलोचक शशिभूषण मिश्र का सुचिंतित आलेख ‘कारोबारी विकास और विकास का कारोबार’ इस अंक की उपलब्धि है. ज्ञान जी बहुत कम कहने और लिखने के लिये जाने जाते हैं, कम बोलने वाले को लोग ज्यादा सुनना चाहते हैं इसलिये उनके लिखे का अपना महत्व है. ‘कुछ पंक्तियां’ के अंतर्गत उन्होंने इस अंक के बारे में लिखा है कि-
‘भीतरी बाहरी कठिनाइयों के बीच ‘पहल’ का कहानी अंक आपके सामने है. अभूतपूर्व आपदा के बीच भी भारतीय सत्ता अपना गर्हित एजेंडा पूरा करने में लगी है. देश में आदमी की दलेल और दुर्गति का ठिकाना नहीं है. हम इससे परे नहीं हैं. कहानीकारों ने अपना सर्वोत्तम लिखकर हमें भेजा. ये कहानियां मात्र छिटपुट प्रयास नहीं हैं बल्कि समय का संपूर्ण कथानक हैं. इसमें कई कहानियां ऐसी हैं जिनमें उपन्यास के लक्षण हैं. वे एक संदिग्ध और हत्यारे संसार में प्रवेश करती हैं. उनमें प्रतिरोध, आलोचना, व्यंग्य है और औपन्यासिक ढांचा है. ये कहानियां उपन्यास को छूकर लौटती हैं और समय के पार जाती हैं. हमें भरोसा है कि इन्हें 2020 में रेखांकित किया जायेगा.’
मनोज रूपड़ा के लिये ज्ञान जी ने लिखा है
‘खोज और जादू से भरे अपने भीतर के कथानक तैयार करना मनोज रूपड़ा का एक अद्भुत खेल है. वे बीहड़ कथा शिल्पी हैं और अपनी खुरदरी भाषा भी बनाई है. वे हमारा मान रखकर लिख देते हैं, पर मनोज रूपड़ा से कहानी लिखवाना एक कठिन काम है. पहल में उनकी यादगार कहानियां आई हैं.’
‘दहन’ शीर्षक से प्रकाशित इस कहानी में एक ऐसी दुनिया खुलती है, जो अंदर से डराती है. तथाकथित विकास के साथ छोटे शहरों का जो विस्तार हुआ है, उसमें अवैध धंधों की ऐसी बाढ़ आई है कि उसे लूटने के लिये तमाम गुंडे तैयार हो गये हैं. ऐसे गुंडे जो उसी शहर के निवासी हैं पर उस शहर की सांस्कृतिक विरासत के बारे में कुछ नहीं जानते. जो कुछ नहीं जानता सिवाय बदमाशियों के, उसके लिये कुछ भी गलत करने में संशय, झिझक या डर नहीं होता. मलय और मुश्ताक दो ऐसे ही गुंडे हैं, जो हर शहर में पाये जाते हैं, जिनकी अपनी न कोई अच्छी पहचान है और न उसके प्रति वे चिंतित ही रहते हैं. पिछले कुछ वर्षों में विकास, विकास पुरुष और विकास की आंधी जैसे जुमले खूब उछाले गये हैं पर ठहरकर किसी ने नहीं सोचा कि ये छद्म हमारे अपने कस्बों या शहरों को कैसे छलनी कर रहा है. एक जमाने में बंबइया फिल्मों में इस प्रकार के आतंक दिखाये जाते थे और बाहर से बंबई जाने वाला हर आदमी उस आतंक के साये में जीवित रहने को विवश होता था. यह कहानी उसी प्रकार के आतंक की छाया में आगे बढ़ती है, घटनायें कम हैं पर उनका असर लंबे समय तक रहता है. कोई भी घटना उसके असर से ही याद रहती है. कथा नायक का अपनी कम उम्र में गोदाम में जाना और मवालियों के बीच तमाम तरह की संगत करना, उन रास्तों को खोलता है जो रास्ते मलय और मुश्ताक जैसे अपराधियों से जाकर मिलते हैं.
कथा नायक के पिता हलवाई हैं, अपने रास्ते चलने वाले और धर्म भीरु लेकिन वे और उनका बेटा मलय के निशाने पर हैं. मलय ने एक दिन हलवाई पिता को सड़क पर बेइज्जत किया, जिसके कारण पिता के मन में वैराग्य उत्पन्न हो गया है. वैराग्य का दूसरा कारण उनका बेटा है जो अपने पिता के अपमान का बदला न लेकर मलय से डरकर उसकी सेवा और संगत में जुटा है. कोई भी पिता अपने बेटे से उनके अपमान का बदला लेने की सहज इच्छा करता है, बेटे के आचरण से निराश पिता दुकान पर काम करने वाले मंगल को अपनी निराशा का कारण बताते भी हैं, जिसे मंगल कथा नायक को बताता है. छोटा कस्बा जो अब अपने पंख पसारने लगा है, वह बड़ा कस्बा या शहर होकर भी उसके निवासियों के मन में कस्बा ही बना रहता है. इसलिये गांव, कस्बा, शहर और महानगर की मानसिकता भिन्न किस्म की होती है. महानगर के व्यक्ति के लिये छोटे-मोटे झगड़े कोई मायने नहीं रखते लेकिन गांव और कस्बे के लोगों के मन को वे ही झगड़े टीसते रहते हैं. उनकी मानसिक बुनावट में दूसरे लोग क्या कहेंगे जैसा कांटा हमेशा कसकता रहता है, कथा नायक के पिता भी उस कांटे के शिकार हैं, जिसका परिणाम वैराग्य और अचानक घर छोड़कर चले जाने में होता है.
‘फिर मैं हाथ पीछे बांधे कुछ देर खड़ा रहा और जलती हुई होली को ऐसे देखता रहा, जैसे वह होली नहीं कोई अर्थी हो. जब लपटें नीचे बैठने लगीं और आग से चिंगारियां निकलनी बंद हो गई तो मैंने हाथ जोड़कर अपनी आंख बंद कर लीं. मन में कोई प्रार्थना नहीं, ये विचार चल रहा था कि मलय ने जो चोट मुझे दी थी उसे शायद मैं कभी भूल पाऊंगा लेकिन पिताजी को जो चोट मैंने दी है वह कभी नहीं भूल पाऊंगा.’
यह लंबी कहानी पिता पुत्र के संबंधों की कहानी न होकर नये बनते-बिगड़ते संबंधों की कहानी है जो अनियंत्रित विकास की धुंध में मानवीय रिश्तों में आई चालाकी, बदमाशी और काइयांपन को एक साथ उद्घाटित करती है.
इस महत्वपूर्ण विषय पर बद्री सिंह भाटिया का कई वर्ष पहले एक उपन्यास आया था. हरनोट की चिंता पानी के अक्षय स्रोत नदियों को लेकर शुरू से रही है, ‘नदी गायब है’ शीर्षक से उन्होंने एक छोटी-सी कहानी भी लिखी थी, जिसने मेरे जैसे पाठकों का ध्यान अचानक आकर्षित किया था. ‘एक नदी तड़फती है’ में वे और अधिक विस्तार में गये हैं, वे केवल नदी की धारा को रोककर बनने वाले बांध की समस्या को ही नहीं उठाते बल्कि यह भी रेखांकित करते हैं कि उस बांध से पहाड़ की तलहटी की हरियाली, फसलें, पशु’-पक्षी और मनुष्य जीवन भी तबाह हो रहे हैं. सुनम दादी के पति इसी नदी में समा गये थे, फिर भी वह नदी को अपने प्राणों की तरह प्यार करती है लेकिन देखती है कि अविरल बहने वाली नदी सूख गई है और चारों ओर सूखा छा गया है.
सुनम दादी प्रातिनिधिक पात्र है, इसलिये उसके कष्ट पूरे इलाके के कष्ट हैं और उसके निर्णय पूरे इलाके के निर्णय हैं. कहा जाता है कि पहाड़ी औरतें अपने मरदों से अधिक काम करती हैं और जो अधिक काम करता है उसका अनुभव जगत भी बड़ा होता है. इसलिये हम सूखती नदी और आसपास के इलाके को सुनम दादी की नजरों से देखते हैं, जिनके पास जीवन का विपुल अनुभव और अंतहीन तकलीफें हैं. ‘बिल्लियां बतियाती हैं’ से लेकर ‘एक नदी तड़फती है’ तक की यात्रा में यह तथ्य रेखांकित करने योग्य है कि हरनोट पहाड़ी स्त्रियों के श्रम और उनके मजबूत हौंसलों केा रेखांकित करने वाले कहानीकार हैं. दादी को जिन स्थितियों में निराश हो जाना चाहिये था, वहां वह और अधिक मुखर तथा ताकतवर होकर सामने आती है. अपनी युवावस्था में पंचायत के सदस्य द्वारा उसका हाथ पकड़ने से लेकर बांध बनने तक की विपरीत परिस्थितियों में वह हार नहीं मानती.
हरनोट की कहानी की विशेषता है कि वे कोरोना जैसी महामारी की यंत्रणा को भी कहानी में रेखांकित करते हैं. जिस बांध ने उन्हें और उनके पूरे इलाके को बरबाद कर दिया, उसी बांध पर काम करने वाले मजदूरों को वे अपने घर पर रखती हैं, खाना खिलाती हैं और हौसला देती हैं कि जब-तक तुम्हारी दादी जीवित है तब तक तुममें से कोई भूखा नहीं सोयेगा. जब मजदूर, उनकी औरतें और बच्चे भूखे-प्यासे गर्मियों के दिनों में सड़कों पर पैदल चल रहे थे तब फोटो खिंचाने वाले तो बहुत लोग थे लेकिन वास्तविक अर्थों में उनकी सहायता करने के लिये दादी जैसे बहुत कम लोग सामने आये थे. कहानी का महत्वपूर्ण बिंदु वह है जहां देश का बड़ा नेता टीवी पर अपने भाषण में झूठ बोल रहा है कि
‘आप जहां हैं वहीं रहिये. आपको अपनी जगह ही सब कुछ मिलेगा. कोई आपसे किराया नहीं लेगा. आपकी तनख्वाह भी नहीं काटी जायेगी. आप सभी को राशन-पानी आपकी जगह मिलेगा. मेरी सरकार ने सभी के लिये बढ़िया प्रबंध किये हैं.’
तब ‘दादी यह सुनकर ऐसे उठी मानो उन्हें बिच्छू ने काट खाया हो. पास बैठे मजदूर भी चौंके थे. वह जैसे आक्रोश में चीख ही गई थी- \’हरामी झूठ बोलता है.’ और ‘यह कहते हुये दादी ने टेलीविजन पर ही उसके मुंह पर थूक दिया था.’ अपने समय को रेखांकित करने की बड़ी चुनौतियां हैं, हरनोट उन चुनौतियों को रचनात्मक रूप देने के कहानीकार हैं. इस कहानी में औपन्यासिक तत्व बिखरे पड़े हैं इसलिये उम्मीद की जाती है कि हरनोट इसे थोड़ा और विस्तार देते हुये महत्वपूर्ण उपन्यास के रूप में सामने लायेंगे.
फरवरी के अंतिम सप्ताह में दिल्ली में जिस प्रकार की घटनायें घटी थीं, वे किसी भी सभ्य समाज के लिये शर्मिंदगी का कारण बनती हैं. देश की राजधानी में इस प्रकार की नृशंसता न केवल देश विभाजन की याद दिलाती है बल्कि 6 दिसंबर की भी याद कराती है. विडंबना यह है कि जो आदमी अपनी मां के प्रति नृशंसता की हद तक स्वार्थी है, जो अपनी पत्नी को कुतिया कहकर चुप करा देता है, जो आदमी अपने भाई की जमीन पर जबरन कब्जा कर खुद को हिंदुत्व का रक्षक कहता है, वह आदमी किस प्रकार के हिंदुत्व की रक्षा करेगा और किस प्रकार से उसे आगे बढ़ायेगा, इसे कहने की जरूरत नहीं है. इस माहौल में वे लोग मारे जाते हैं जो अपने परिवार, अपने पड़ौसी और अपने देश के इतिहास के प्रति बेहद संवेदनशील बने रहते हैं-उत्पल का मारा जाना केवल घटना नहीं है बल्कि अनेक घटनाओें की पुनरावृत्ति है. जो लोग यह कहते हैं कि अपने समय पर कहानियां नहीं लिखी जा सकती, उन्हें मनोज रूपड़ा, एस आर हरनोट और गौरीनाथ से यह सीखना चाहिये कि अपने समय की विडंबना को किस प्रकार रेखांकित किया जा सकता है.
मिथिलेश प्रियदर्शी की कहानी ‘हत्याओं की कहानी का कोई शीर्षक नहीं होता’ इस वक्त की सबसे बड़ी दो समस्याओं से टकराती है. इस समय देश में जिस प्रकार बेरोजगारी की दर लगातार बढ़ रही है और सरकार निजी व्यवसाय शुरू करने के नाम पर युवकों को पकोड़े बेचने या गटर की गैस से चाय बनाने के लिये कह रही है उसमें युवा हतप्रभ और दुखी है. लेकिन उन्हीं युवाओं में से एक वर्ग ऐसा भी उभरकर आ रहा है जिसे न नौकरी की चिंता है और न व्यवसाय की बल्कि वह बढ़िया-सी जेकेट पहनकर सत्ताधरी वर्ग की भाषा बोलना सीख गया है. ऐसा युवा गांव से लेकर हर शहर में पाया जाता है, वह यह समझाने की कोशिश कर रहा है कि देश के सामने समस्याएं हैं ही नहीं, जो थीं उनके समाधान के लिये महामानव लगातार जुटा हुआ है. मिथिलेश उनकी भाषा और चरित्र की बानगी का एक नमूना पेश करते हुये लिखते हैं –
‘मैं तुमको फेसबुक पर फालो करता रहता हूं. बुरा मत मानना भाई लेकिन तुम भी बहुत नकारात्मकता फैलाते हो. एक आदमी जो हमारा मुखिया है, नष्ट हुये देश को पटरी पर वापस लाने में दिन-रात लगा हुआ है. जब हम खर्राटे ले रहे होते हैं, वह जागकर अधिकारियों के साथ मीटिंग में व्यस्त होता है. अभी हम लोग बियर पी रहे हैं, वह फाइलें निपटा रहा होगा. बावजूद उसके अपने देश के लोग सोशल मीडिया पर उसका मज़ाक उड़ाते हैं, गालियां देते हैं. खुद को राष्ट्र की सेवा में इस कदर झोंक देने वाला आदमी क्या न्यूनतम सम्मान का भी हकदार नहीं है ?’
यह भावुक संदेश हैं, जिसके लिये तर्क की जरूरत नहीं है और यह बताने की भी आवश्यकता नहीं है कि विगत वर्षों में क्या खोया और क्या पाया ? पं. नेहरू जिस वैज्ञानिक सोच की बात कहा करते थे, उस सोच पर पानी फेरने के लिये इस प्रकार का भावुक वातावरण बनाया जा रहा है कि आम आदमी यह स्वीकार करे कि देश को विकास के रास्ते पर ले जाने के लिये कितना कुछ किया जा रहा है.
‘जो आज अखबार में है, वह कल प्रेमचंद की कहानियों में होगा.’
यदि ऐसा होता तो प्रेमचंद आज प्रासंगिक और बड़े कथाकार नहीं होते. तात्कालिकता को रचनात्मक बनाना हरेक के बस की बात नहीं है, यह शेर की सवारी की तरह है, जो इसे साध लेता है, वह बड़ा कथाकार होता है. अपने समय पर लिखने के खतरे बहुत हैं इसलिये समझदार लोग व्यवस्था से नाराज भी होते हैं तो ट्रम्प की बात करते हैं या पाकिस्तान और चीन को गरियाते रहते हैं. ‘पहल’ के इस अंक के कहानीकारों ने अपने समय की चुनौतियों पर सीधे-सीधे लिखकर अपने साहस और अपनी रचनात्मक क्षमता का परिचय दिया है, इसलिये ये कहानियां भविष्य में इक्कीसवीं सदी के इस भयावह समय की दस्तावेज बनेंगी.
प्रज्ञा लगभग एक दशक से लिख रही हैं इस बीच उनके दो उपन्यास और कई महत्वपूर्ण कहानियां प्रकाशित हुई हैं. बहुत कम समय में उन्होंने अपनी पहचान बनाई है. इस अंक में उनकी कहानी ‘बुरा आदमी’ प्रकाशित हुई है. कहानी को जिस तरह उन्होंने शुरू किया था, उससे लगता था कि उदारीकरण के बाद निजी संस्थानों या दुकानों में काम करने वाले युवाओं की तकलीफों के साथ वैश्विक परिदृश्य पर निजीकरण के दुष्प्रभावों को बतायेंगी. काम के घंटे तय करवाने के लिये मजदूर आंदोलनों ने कितनी कुर्बानियां दी हैं, वह सब निजीकरण ने खत्म कर दिया है. जिस पूंजीवाद, साम्राज्यवाद और शोषण के विरोध में हम लगातार लिखते और बोलते रहे, वहीं हमारे बच्चे नौकरी करने के लिये विवश हैं. हम चाहते थे कि वे पढ़-लिख जायें पर यह नहीं चाहते थे कि पढ़-लिखकर वे अमेरिका चले जायें या हिंदुस्तान में कोरपोरेट दुनिया के नौकर होकर रह जायें. प्रज्ञा ने शुरूआत ऐसे ही एक युवक की घनघोर पीड़ा के साथ की थी पर पता नहीं रात के अंधेरे में उसे लड़की मिली और कहानी का मिजाज़ बदल गया. जहां तक मेरी समझ है कोई भी लड़की घर से भागकर या ऐसे ही रात के अंधेरे में नहीं जाती है, उसका लड़की होना ही उसका दुश्मन बन सकता है इसलिये वह समझदारी के साथ ऐसी भीड़ भरी जगहों पर जाती है जहां वह सुरक्षित रह सके.
इस अंश को छोड़ दें तो बाकी कहानी नौकरी की व्यस्तता और पुरुष के विश्वास की कहानी बनती है. यह कहानी ऐसे समय में आई है जब स्त्री विमर्श की पैरोकार जोर-जोर से कह रही हैं कि पुरुष का विश्वास मत करो, घरों में लड़कियों का शोषण हो रहा है और जहां वह काम कर रही हैं वह जगह विश्वसनीय नहीं है. प्रज्ञा व्यक्ति पर विश्वास करती हैं इसलिये उनकी मान्यता है कि अच्छा आदमी अच्छा ही रहेगा और बुरा कभी बदल नहीं सकता. यह कहानी उस अच्छे आदमी की कहानी है जिसे स्वभावतः बुरा आदमी माना जाता हैं.
‘पहल’ का यह अंक ऐसे समय आया है, जब इक्कीसवीं शताब्दी के दो दशक गुजर चुके हैं यानी इस शताब्दी का पांचवां हिस्सा बीत चुका है इसलिये अब कोई दिवा स्वप्न हमारी आंखों में नहीं है कि हम इक्कीसवीं शताब्दी में कोई बहुत बड़ा तीर मार लेंगे या दुनिया में हम अपने शोध और वैज्ञानिक सोच के लिये जाने जायेंगे, अब तय हो गया है कि यह शताब्दी भी सांप्रदायिकता, जातिवाद, प्रांतीयता के उभार और टुच्चे समझौतों के लिये ही याद की जायेगी. ‘पहल’ के इस अंक में तमाम तरह की महामारियों और दुरभिसंधियों को रेखांकित करती कहानियां हैं जो हमारे अपने समाज की अलग-अलग तस्वीरें हैं, आप चाहें तो इन्हें मिलाकर एक कोलाज भी बना सकते हैं.
श्री ज्ञानरंजन
१०१, रामनगर, आधारताल
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