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Home » बहसतलब : रचना और आलोचना का सवाल :६: सुबोध शुक्ल

बहसतलब : रचना और आलोचना का सवाल :६: सुबोध शुक्ल

रचना और आलोचना के रिश्ते पर संवाद की इस कड़ी में अध्येयता, अनुवादक युवा सुबोध शुक्ल ने इसके द्वंद्व  की जटिलता के सरलीकरण की प्रवृति से बचते हुए, इसके कई आयामों पर ध्यान दिया है. यह लेख इस बहस को आगे ले जाती है और एक मजबूत सवाल छोडती है कि हम आलोचना की अपनी […]

by arun dev
January 16, 2012
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रचना और आलोचना के रिश्ते पर संवाद की इस कड़ी में अध्येयता, अनुवादक युवा सुबोध शुक्ल ने इसके द्वंद्व  की जटिलता के सरलीकरण की प्रवृति से बचते हुए, इसके कई आयामों पर ध्यान दिया है. यह लेख इस बहस को आगे ले जाती है और एक मजबूत सवाल छोडती है कि हम आलोचना की अपनी परम्परा से इतने विमुख क्यों हैं?. उसे रूपवादी कह कर कब तक उसके मन्तव्य से बचते रहेंगे. इसके साथ ही आलोचना की गहरी जिम्मेदारी का एहसास भी सुबोध को है. इसके लिए आवश्यक बौद्धिक परिश्रम यहाँ साफ दिखता है. 

 हिंदी आलोचना का समकाल : दावे और दर्द  
(हाशिए पर लिखा गया एक रफ ड्राफ्ट)

सुबोध शुक्ल
एक सजग रचना, अपने युग-संवेग का ज़िम्मेदार बयान होती है और एक सतर्क आलोचना, उस बयान की ईमानदार गवाही. यहाँ इस आलेख में  उस अकादमिक मनोविनोद और बौद्धिक अटकलबाजी  से परहेज़ किया गया है जो रचना और आलोचना की समरूपता,  उनके ऐक्य और अभेद  की सेमिनारी बातें  करती है. यहाँ मात्र उस आम व्यावहारिक समझ को ही प्रस्थान -बिंदु बनाया जा रहा है जो रचना और आलोचना को, साहित्य-संस्कृति की दो समानांतर  इकाइयां मानती  है. कम से कम हिन्दी भूगोल  की यही वास्तविकता है. यह अलग विषय है कि दोनों ही तकनीक,  अर्थ, और प्रभाव के लिए, एक दूसरे की आवश्यकता हैं और यही वस्तुगत निर्भरता, उन्हें अपने समय के संघर्ष और तनावों के बीच सक्रिय रखती है. युगीन मर्यादाओं और अनुभवों के प्रति यही पूरकता का भाव, हमेशा उन्हें सावधान  भी  करता रहता है. साहित्य  को जानने-बूझने के जिन दो ध्रुवों ने, हिन्दी विचार-जगत को प्रभावित किया, उनमें एक है- रचना और आलोचना का समाज-संस्कृति के जातीय संस्कारों से जुड़ाव और उनको विकासमान वर्तमान के प्रति जवाबदेह बनाना  और दूसरा- विरासत और परम्परा के सवालों पर पनपे, तमाम विवादों के बीच रचनाधर्मिता के खांटी मुहावरे की खोज.
रचना और आलोचना का सवाल हिन्दी सृजनधर्मिता के सबसे कठिन सवालों में से एक रहा है. ये एक तल्ख़ आवेग के साथ-साथ, आक्रामक सह-अस्तित्वका भी  ऐसा सवाल है जो हर दौर में आपसी अंतर्द्वन्द्व का कारण बनता रहा है. आज भी यदा-कदा, रचना और आलोचना के पारस्परिक अंतर्संयोजन में, एक मनमुटाव और वर्चस्व  की मंशा उभर कर सामने आ ही जाती है. इसके पीछे के कारण कहीं न कहीं सामाजिक और अकादमिक आचारशास्त्रों के वे अन्तःसंघर्ष भी हैं जो सिद्धांतों, आदर्शों और परम्पराओं की मनमानी राजनीति को अड़े रहते हैं जिससे कि रचना और आलोचना का आत्मीय रिश्ता चिढ, आवेग और उदासीनता से भरता रहता  है.
कहने-सुनने में आलोचना पर रचना के लगाए गए तीन सामान्य आरोप हैं- आलोचना का ज़रूरत से ज्यादा मौजूद होना, दखलंदाज़ चरित्र और रचना के पाठक तक सहज प्रवाह में एक दंडाधिकारी की तरह आड़े आ जाना. इसीलिये रचना और आलोचना पर बहस करते हुए यह धारणा बेमानी नहीं कही जा सकती कि अपनी मौजूदा और अर्जित परिस्थितियों में, वे एक-दूसरे के साथ व्यवहार कैसा कर रहे हैं.? क्या संवाद की आपसी संभावनाओं में, मूल्यों और पहलुओं की शिनाख्त हो पा रही है? या फिर दोनों ही अपने ही तरह की नकली मुद्राओं वाली आत्मसंतुष्टि के घेराव में कैद हैं. असल में आलोचना, रचना को उसके भौतिक आशयों में जांचने-परखने का एक आग्रह है. किसी भी भावुक वफादारी से दूर, वह रचना का सोद्देश्य और बुनियादी मानचित्र गढ़ती है. यह मानचित्र ज्यादातर रचना के अपने सामाजिक और मनोवैज्ञानिक मानसिक संगठन को चिन्हित करते हैं. लेकिन होते ये अपने आप में कच्चे खाके ही हैं क्योंकि  आलोचना का काम टीका का नहीं है और न ही वह रचना का कोई  सुविधावादी संस्करण है या सरलीकृत पाठ. आलोचना की भूमिका रचना के अंदरूनी निर्वातों और  अनगढ़ सौंदर्यबोधों  का उत्खनन करना है. और यही वह बिंदु है जहां पाठ और व्यक्तित्व के बीच का अंतर्विवेक उभर कर सामने आता है और रचना को  उसकी नैसर्गिकता तक पहुंचाता है.
आलोचना की यह समूची प्रक्रिया रचना के भीतरी इतिहास और संस्कारों को एक वैज्ञानिक अनुशासन के साथ देखने की भी  है. यह वैज्ञानिकता आलोचना के रचनाधर्मी मंशाओं को समझने का पहला टूल है. और चूंकि विज्ञान पूर्वाभास और परिकल्पना के दोआब पर खड़ा होता है इसलिए रचना के परिवृत्त में आलोचना के भी अपने स्वप्न और दावे होते है. नई समीक्षा के महत्वपूर्ण चिन्तक  नॉरथ्रोप  फ्री ने अपनी चर्चित पुस्तक ‘एनाटॉमी ऑफ क्रिटीसिज्म’ में आलोचना और रचना की पारस्परिक संगति  की चूल बैठाने के लिए दो पदों का प्रयोग किया है- सांस्कृतिक बोध (cultural wisdom) और अप्रत्यक्ष प्रस्तुति (presentation of invisible). नई समीक्षा, अप्रत्यक्ष प्रस्तुति को  रचना के चरित्रगत ढाँचे के  हिडिन एजेंडा और सांस्कृतिक बोध को परम्पराओं के  कन्फेशन  के रूप में विवेचित करती  है. असल में रचना एक सांस्कृतिक मिक्स्चर है और आलोचना, उस मिश्रण का अलग-अलग प्रासंगिकताओं, व्यवस्थाओं, शक्तियों और समाज की बुनियादी हलचलों के आधार पर किया जाने वाला एक वर्गीय कर्म. यह उसकी वर्गीय चेतना  ही है कि वह हर युग-चेतना के आलोक में समाज,राजनीति और तमाम अवधारणाओं को मांजती-परखती है. एक तरह की सभ्यता-मीमांसा. यही वजह रही कि ‘इतिहास, रचनाकार और सांस्कृतिक सन्दर्भों से दूर रचना के  एकाकी पाठ’[i] का नई समीक्षावादी विमर्श, आलोचना का व्यापक स्वर बनने से चूक जाता है. और समाज, संस्कृति  और रचनाकार से रचना का विस्थापन, पाठ के शिल्प में उस सर्वसत्तावादी निरंकुश चेतना को जन्म देने लगता है, जहां रचना और आलोचना के मैत्रीपूर्ण रिश्ते, अधिकार की प्रतियोगिता में तब्दील हो जाते हैं. ऊपर मिक्स्चर की बात की गयी थी. यह मिक्स्चर रचना के मैकेनिज्म में एक रासायनिक उत्पाद का काम करता है जो देशकाल के सांस्कृतिक-राजनीतिक मुहावरों के बीच, रचना में जीवन और जीवन में रचना के नुक्ते को ठीक-ठीक जगह लगाता रहता है.
शायद यही वजह रही होगी कि उत्तर-संरचनावादी माडल ने रचना की जगह पाठ को सर्वाधिकार दिये. केंद्र और हाशिए के बहुपरती नज़रियों  का जन्म हुआ. पाठान्तार्गत  अभिव्यक्ति में अंतर्विरोध और अनिर्णय के अंतहीन सिलसिले को मजबूती मिलनी शुरू हुई. आलोचना की  मानकीकृत अवधारणाओं और आत्मतुष्ट कसौटियों को चुनौती दी जाने लगी, यहाँ तक कि  उन्हें खारिज़ भी  किया जाने लगा. यह रचना  और आलोचना की परम्परागत विकास-यात्रा का चौंकाने वाला पटाक्षेप था. अब रचना को एक माल की तरह और आलोचना को उस माल के ब्रांड टैग और मार्केटिंग एजेंट के रूप में भी देखे जाने लगने के खतरे बढ़ गए. कमोवेश हुआ भी यही.
विचारधाराओं के दुनियावी फैलाव का प्रभाव, भारतीय मनःस्थितियों के ऊपर और खास तौर पर हिन्दी साहित्यालोचन पर तब पड़ता है जब वार्ताओं और बहसों के तौर पर उनकी मौजूदगी, एक नौसटैल्जिक कार्निवल की तरह रह जाती है. फिर चिंतन और मनन का स्थान सम्मोहन और हड़बड़ी से भरा जाता है और ज़रूरत-सहूलियतों के नाम पर  औपचारिक रूप से हवा-बाँधने का काम प्रारम्भ होने लगता है. खैर इससे साहित्यालोचन में पाठधर्मी प्रयोगधर्मिता  तो बढ़ती ही है, साथ में  विरोधाभास, अस्थायित्व और संभ्रम भी. आलोचना को रचना मानकर चलना अब भी हिन्दी सृजनशीलता के लिए सामान्य अनुभव का विषय नहीं है. इसे बड़े झिझक के साथ स्वीकार किया जाता है- वह भी कुछ गढ़े गए सैद्धांतिक मतवादों की उपस्थिति के कारण.
आज भी आलोचना एक मध्यस्थ की भूमिका में ही अधिक है. इसकी बड़ी वजह है आलोचना के चरित्र का व्यापारिक होते जाना. अधिक से अधिक कृति-केंद्रित अथवा व्यक्ति-केंद्रित बनते  जाना. मेरा मानना है कि एक जागरूक आलोचना अपने साहित्येतर मूल्यबोधों और कला-वर्गों को, रचनान्तार्गत  एक वैकल्पिक ज़रूरत के रूप में रेखांकित करती है. कृति और पाठ में यही संवैधानिक भेद है कि जहां पाठालोचन, विचारधाराओं के समाजशास्त्र में, रचना को स्वायत्त करता है वहीं कृतिगत आलोचना, एकायामी चिंतन के ठहराव और ठंडेपन से ग्रस्त होती है. कृति का पाठ में तब्दील न हो पाना (कुछेक अपवादों को छोड़ दें तो) हिन्दी आलोचना के विकास की बड़ी रुकावट है.
मूल्यांकन और व्याख्यावादी विमर्श ने भी आलोचना को कमोवेश कुंजी की शक्ल दे डाली है. यह बात भी नकारी नहीं जा सकती कि आलोचना के अंतर्गत, रचनाधर्मी वातावरण की  लगभग सभी  प्रक्रियाओं का समावेश हो जाता है  पर साहित्य में टुकड़ों की तरह फ़ैली टीकाओं, भाष्यों, शब्दार्थ-विवेचना, समीक्षा और भाषणों को कुल मिलाकर ‘आलोचना’ कहा जाने लगना, उसके सन्दर्भ और उपस्थिति को बौना कर देता  है. वाल्टर बेंजामिन इसे ‘साहित्य का फासिज्म’ कहते थे- जब कोई सिद्धांत अपने निकटवर्ती सिद्धांत पर मुलम्मे की तरह चढ कर उसे मैं कह कर पुकारने लगे तो समझ लेना चाहिए कि समाज के आतंरिक-अनुशासन की जड़ें खोखली हो रही हैं.[ii]
आज भी हिन्दी क्षेत्र की आलोचना-पद्धति को निरी विधा के रूप में ही पहचाना जाता है, किसी वस्तुनिष्ठ चिंतन-प्रक्रिया के रूप में नहीं. आलोचना के मुद्दे पर विधा का सवाल कलापरक और लोकप्रिय माध्यमों वाला ज्यादा है. पश्चिमी-आलोचना पद्धति में विधा (genre) शब्द का प्रयोग तकनीक, संचार और कलापरक साधनों के मध्य आतंरिक संगति के सूत्र के  बतौर किया जाता  है. किन्तु साहित्यालोचन (Literary Criticism) के सवाल वहाँ भी ना तो व्यावसायिक विनिमय के सवाल हैं न ही मॉस कल्चर के प्रतिरूप के. वस्तुतः साहित्यालोचन  एक प्रतिपक्ष है जो रचना के सार्वजनिक जीवन में जनतंत्र की तरह शामिल होता है. असहमति, संभावनाओं और रचना तथा समाज के बीच के  अप्रकट मंतव्यों को वृहत्तर मानवीय और आधुनिक सरोकारों के साथ जोड़ कर देखे जाने वाला  नैरेटिव.
हिन्दी साहित्यालोचन का तीसरा कमज़ोर तत्व है- विमर्शपरक  अध्ययन पद्धति का अभाव. पश्चिम में साहित्यालोचन, डेसिप्लिन  की श्रेणी में आता है. यह  अध्ययन की वह अंतर्व्यवस्था है जो रचनाकार की इच्छा-चेतना से लेकर, पाठ की शक्ति-संरचना तक का, मौजूदा जीवन-परतों के तमाम पहलुओं का क्रिटीक तैयार करती है. इस बाबत आलोचना को बहुविधात्मक और बहुदिशात्मक होना होता है. संभवतः इसीलिये मनोविश्लेषणवादी  आलोचना रचना को कृतिकार का आत्मजगत कहती है और आलोचना को समाज का. इसीलिये आलोचक की जिम्मेदारी, किसी पूर्वनिश्चित विचारधारा से रचना के पाठ को अनुकूलित करने की न हो कर, सामाजिक  मनोजगत के दायरे में पाठ को खड़ा कर उसे ‘संदिग्ध’करने की होती है. यहाँ उसे अपने समकाल के जीवन-विवेक की तरह काम करना होता है. सवाल खड़े करने होते हैं, सवालिया होना होता है.
लूकाच इस ‘संदिग्धता’ को ‘शक्ति संरचना के गढे  गए दायरे में समाज के अंतःकरण का अतिक्रमण करना’[iii]कहता है- सभी सार्वभौमिक नैतिकताओं और सर्वस्वीकृत ज्ञान-मीमांसाओं के छद्म को तिरोहित करते हुए. यही कारण है कि विचार एक सामाजिक उत्पाद है, कोई व्यक्तिपरक मनोविलास नहीं. किसी भी तरह से तयशुदा दावों और स्वयम्भू बोधों के आधार पर पाठ की स्थानिकता और उसके रेडिकल जवाबदेहियों को सुनिश्चित नहीं किया जा सकता. यदि आलोचना, समाज के भीतर घट-बन रहे अनुभवों को, भाषा के रूप में पहचानने का प्रयास करती है तो निश्चित ही वह उसी समय,  रचना की पाठ चेतना को भी समकालीन तर्कों में, वैचारिक बनाने का प्रयास कर रही होती  है.
आधुनिक उपभोक्तावाद और बाज़ार के समानांतर कला-भेदों  के सुनियोजित विज्ञापनवाद ने भी आलोचना और रचना के बीच मनोरंजन, खबरों, और प्रचार-प्रसार के आभासी साधनों का बोलबाला बढ़ाया  है. इससे रचना की प्रतिनिधि शक्ति अंतर्मुखी हुई है और सामाजिक यथार्थ-चेतना आत्मतुष्ट कल्पनालोक की ओर मुड़ने लगी  है. फलस्वरूप आलोचना भी सब्लीमेशन की स्थिति में  है. बाज़ार की मांगों पर आधारित यथार्थ की प्रायोजित सीमाएं, आलोचना की रचना में भागीदारी वाली मुद्रा को हड़पने लगी हैं.जिसका परिणाम है- एक आयातित संवेदना के मध्य  भविष्य का  रोमान उकेरने वाली  साहित्य-भाषा और जबरन उस रोमान को जीवन के तमाम सरोकारों के मध्य यथार्थ का जामा पहनाने वाली आलोचना-भाषा.
कहने का तात्पर्य मात्र इतना ही है कि विस्तारवादी और दबाव समूहों के बढते खतरे, आलोचना और रचना पर अपनी जकड बढ़ा रहे हैं और उनके बीच का सहज द्वंद्वात्मक रिश्ता, प्रतिस्पर्धात्मक बनता जा रहा है. इन्हीं वजहों से हिन्दी आलोचना के अपने जातीय मूल्य और विरासत के उपकरण धूमिल पड़े है. इसी सम्बन्ध से एक बात और निकलती है कि हिन्दी साहित्यालोचन में रचना की तमीज़ का  स्पष्ट या अप्रत्यक्ष प्रभाव आलोचना की सेहत  पर भी  पड़ता है.  जहाँ  हिंदी आलोचना आज भी तमाम अपवाद प्रयासों के बावजूद माध्यमों और प्रतीकीकरण की अवस्था में ही जी रही है, मात्र बयानों और गतिविधियों की  आवाजाही को ही दर्ज कर रही है; लोक ,संस्कृति और सभ्यताओं के व्यापक दायरे में उसके निकष की पड़ताल आज भी की जानी बाकी  है. क्योंकि रचना या आलोचना की संरचना के सवाल कहीं न कहीं जीवन के वजूद और उसकी हैसियत को भी झिंझोड़ते हैं .

     


[i] \”a close and detailed analysis of the text itself to arrive at an interpretation without referring to historical, authorial, or cultural concerns\”   – Ransom, John Crowe. The New Criticism. New York: New Directions, 1941.
[ii] Walter Benjamin – Illuminations (1955)
[iii] George Lukacs – The Meaning of Contemporary Realism, 1957

सुबोध शुक्ल : इलाहाबाद विश्वविद्यालय से आजादी के बाद की हिन्दी कविता पर शोध संपन्न, आधुनिक सामाजिक  और सांस्कृतिक विमर्शों में दिलचस्पी और इन्हीं विषयों से संबद्ध एक किताब शीघ्र प्रकाश्य,फुटकर आलोचनात्मक आलेख और अनुवाद- आलोचना,तद्भव,बहुवचन और पूर्वग्रह आदि पत्रिकाओं में प्रकाशित .

फ्रांज़ फेनन के एक लेख का अनुवाद यहाँ पढ़ा जा सकता है. 


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