अनिल करमेले अपनी कल्पनाशील कविता पोस्टरों से आजकल दिन की शुरुआत करते हैं,कविता को उसके पाठकों तक पहुंचाने का यह भी सार्थक उद्यम है.
उनका कविता-संग्रह ‘बाकी बचे कुछ लोग’ पिछले बरस सेतु प्रकाशन से आया था, उसकी विस्तार से चर्चा कर रहें हैं सुपरिचित कथाकार कैलाश बनवासी.
‘बाकी बचे कुछ लोग’
इस तरह रहूँ कि मेरे रहने का अर्थ रहे
कैलाश बनवासी
अनिल करमेले समकालीन कविता में बहुत अधिक उपस्थित या चर्चित नाम नहीं है. उनकी कविताओं की संख्या कम ज़रूर है,लेकिन नियमित अंतराल पर वह लिखते रहे हैं और निरंतर अपने काव्य-व्यक्तित्व को खाद-पानी देते हुए ख़ुद को दृष्टि-संपन्न बनाए रखा है. उनका पहले कविता-संग्रह ‘ईश्वर के नाम पर’ 1996 में आया था, उसके 23 साल बाद यह दूसरा संग्रह आया है—‘बाकी बचे कुछ लोग’. एक लम्बे अंतराल के बाद आये इस संग्रह में उनकी कुछ उस दौर की कवितायें भी मिलेंगी. इसलिए इनमें एक लम्बी यात्रा का आभास होता है.
संग्रह की पहली कविता ‘सुखी आदमी’ है,जिसे पढ़ते हुए इन पंक्तियों पर मैं ठिठक गया—
फिर यकायक कुछ यूं हुआ कि वह
जीवन में समेटी हुई चालाकियों से
एक बेहद सुखी इंसान बन गया
अब यह पता नहीं वह कितना सुखी है.(11)
यहाँ सुखी होने के दो ‘परसेप्शन’ हैं. दोनों ही परस्पर विरोधी. एक जिसे दुनिया सुखी मानती है, और दूसरा जिसे कवि सुखी मानता है. यह कविता इसलिए लिखी गयी क्योंकि ‘वह जीवन में समेटी गयी चालाकियों से’ सुखी बना है,जिसका यहाँ तीखा व्यंग्यात्मक विरोध है. किसी छोटे शहर से निकले एक निम्नवर्गीय व्यक्ति के लिए यही सबसे बड़ा अचम्भा होता है कि अपनी सफलता के लिए लोग उन सारे आदर्शों को कितनी आसानी से छोड़ते चले जा रहे हैं जो कभी उनके स्थायी और सारवान जीवन-मूल्य रहे हैं. इस औसत-सी कविता का ज़िक्र इसलिए क्योंकि यहीं से अनिल करमेले की कविता को समझने के कुछ सूत्र हाथ लगते हैं. कि किसी भी तरह की चालाकी से सुखी होने के प्रति बुनियादी विरोध है कवि का. यह दरअसल उस सरल सच्चे नागरिक की पीड़ा है जो देख रहा है लोकतंत्र का लगातार भ्रष्ट-तंत्र में बदलते चले जाना, और आगे चलकर ऐसे भ्रष्टाचारियों या दोगले चरित्रों का इस व्यवस्था में बहुत बेशर्मी से नए मान्य विकास-पुरुष बन जाना. इसीलिए इस कविता की अगली कड़ी के रूप में अनिल की एक अन्य कविता ‘कामयाब लोग’ को देखा जा सकता है,जहां वे मूल्य पूरी तरह से गायब हो चुके हैं और बाज़ार चतुर लोग हमारे समय के नए नायक बन चुके हैं.
‘वे सब अपने-अपने काम में माहिर थे
लम्बे तजुरबों से इनमें से कुछ विशेषज्ञ हो गए थे
वे कभी चूके नहीं थे इसलिए ज़िन्दा थे
दरअसल बहुत सारे लोगों और चीजों की मृत्यु पर ही
टिका था उनका जीवन
सियार की तरह चालाक और लकड़बग्घे की तरह धूर्त
और गिरगिट की तरह बदलते
वे सब शहर में थे
उनके पास कविता से लेकर पिस्तौल बेचने की कला थी
वे हर तरह के जश्न के आयोजक थे
अप्रासंगिक को प्रासंगिक बनाने में कुशल
वे इवेंट मैनेजर थे’ (75)
हम सब इस विकृत विकास के गवाह हैं. इसे पढ़ते हुए मुझे बरबस दो रचनाएँ याद आयीं. पहली, प्रख्यात कथाकार ज्ञानरंजन की पुस्तक ‘कबाड़खाना’ का निबंध ‘समय, समाज और कहानी’; जिसमें वह कहते हैं—‘यथार्थ ठोस नहीं रहा,वह हर दिन बदल रहा है. वह ज्यादा अप्रत्यक्ष,अमूर्त और सूक्ष्मता में क़ैद होने के साथ, उतना ही जटिल लुका-छिपा है. उसमें गहरी समरस मिलावट हो गयी है. उसका फोटोग्राफ आसानी से नहीं बन सकता. उसमें परदेस आ गए हैं और दीर्घकालिक संधियाँ. उनमें विश्वप्रसिद्ध वित्तीय संस्थान आ गए हैं, उनमें कूट,अप्रतिम प्रभावशाली और फुर्ती से भरे हुए दलाल आ गए हैं,उन्हें दलाल शब्द देना भी झूठ और हिम्मत का काम लगता है. क्योंकि वे बेहद खूबसूरत,संपन्न और स्वीकृत हैं.’(पृष्ठ 88)
दूसरी रचना युवा कथाकार राकेश मिश्र की कुछ बरस पहले प्रकाशित कहानी-परिवार, राज्य और निजी सम्पति’ है जिसका कमज़ोर घर-परिस्थिति से निकला होशियार नायक धन,छवि और वर्चस्व हासिल करने भ्रष्ट होकर इसी ‘इवेंट मैनेजर’ की भूमिका को चुनता है और सफल होता है.
अनिल करमेले |
(दो)
119 पृष्ठों के इस संग्रह में उनकी कुछ कविताओं को छोड़कर अधिकांश छोटे आकार की कवितायें हैं.कई तो लगभग सुक्तिनुमा हैं. इन कविताओं की संरचना प्रायः वैसी ही है जो हम आठवें-नवें दशक के अधिकांश कवियों में पाते हैं. उनके चयनित विषय इसकी गवाही देते हैं. लेकिन अनिल की मौलिकता उनके शिल्प से अधिक उसकी गहन संवेदना और पक्षधर दृष्टि में है. संग्रह में हमारे समय से छूटती,गायब होतीं उन चीज़ों पर भी कवितायें हैं जो कभी आम जन-जीवन में या रोज़मर्रा में शामिल थीं. ‘टेलीग्राम’, या ‘चिठ्ठियाँ’ या ‘डायरी’ जैसी कवितायें इसी श्रेणी की हैं जिनमें उनके अब बदले समय में नयी तकनीक के चलते गायब होने की पीड़ा और दुःख है.
अनिल की कविताओं में श्रम को जिस तरह से देखा-दिखाया गया है,वह न केवल श्रम का महत्व बहुत घनीभूत ढंग से स्थापित करती हैं,बल्कि उसके प्रति एक नया आग्रह और दृष्टिकोण भी. कविता ‘लोहे की धमक’ पढ़ते हुए बरबस केदारनाथ अग्रवाल की कविता ’मैंने उसको जब-जब देखा’ की स्मृति हो आती है. दरअसल यह कविता में भीमा लुहार के बहाने संसार के सारे श्रमशील और कर्मठ लोगों का सम्मान है. यह प्रगतिशील हिंदी कविता का एक बुनियादी मिजाज़ रहा है, जिसे निराला, मुक्तिबोध,त्रिलोचन,नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल. शमशेर बहादुर सिंह,केदारनाथ सिंह,अरुण कमल, मंगलेश डबराल, आलोक धन्वा, वीरेन डंगवाल,गोरख पाण्डेय, राजेश जोशी जैसों से लेकर अभी के युवतम कवियों में भी सहज देखा जा सकता है. यह धारा जितनी मजबूत और समृद्ध होगी, समाज उतना ही अग्रगामी होगा. लेकिन वहीं ऐसे विषय कवि के लिए एक चुनौती भी होते हैं, कि यदि इन्हें गहरे आत्मिक लगाव और जुड़ाव से नहीं लिखा गया, तो कविता खोखले और निरर्थक नारों में तबदील होती नज़र आती है. अनिल इस कठिनाई को बेहतर समझते हैं,इसीलिए उनका ढंग यहाँ गहन ऐन्द्रिक और रागात्मक है जो उनके ठोस जीवन-बोध से निकला है, यही इसे संग्रह की एक महत्वपूर्ण कविता बनाती है-
भट्ठी के लाल उजाले में
देवदूत की तरह चमकता भीमा का चेहरा
घन उठता और हज़ार घोड़ों की ताक़त से
तपते लोहे पर गिरता
लाल किरचियाँ बिखरतीं टूटते तारों की मानिंद
गिरते पसीने से छन-छन करता पकता लोहा ….
बिन लोहा अन्न और बिन भीमा लोहा
अब भी संभव नहीं है
मैं रोज़ खून में लोहे की धमक सुनता हूँ. (26)
इन पंक्तियों से ज़ाहिर है कि विचारों की ऐसी गहराई बिना ठोस जीवनबोध और बेलाग पक्षधरता के नहीं आ सकती. इस कविता की बड़ी खासियत यह भी है कि अपने कहन में कहीं भी अतिरिक्त और अतिरेक नहीं है,और यह अपने रचाव में पूरे काव्यात्मक शर्तों –खरे अनुभव, जीवनमूल्य, भाषा की कलात्मकता, सौन्दर्यबोध–के साथ है. अक्सर अपने वैचारिक जोम में कविगण अतिकथन से कविता को क्षीण कर जाते हैं. अनिल एक सजग कवि हैं जो इस खतरे से खुद को पूरे संग्रह में बचाये हुए हैं. इसीलिए यह उस परम्परा की एक सशक्त कविता कही जाएगी.
अनिल की काव्यगत विशेषता मुझे उसकी गहन संवेदना लगती है,जो दुःख के अवसरों पर भी विचलित नहीं होती. ‘हमारे यहाँ दुःख’ ऐसी ही कविता है,जो गाँव या जन साधारण के जीवन में शोक के आगमन को निस्संग भाव और उन्नत दृष्टि से दर्ज करता है.इसका ठंडा शिल्प ही इसकी शक्ति है.वह मार्मिकता या दुःख को किसी भावात्मक उबाल या लोकप्रिय काव्यात्मक टूल में नहीं बदलते. इससे कवि को सख्त परहेज है. यह लोक का कर्मठ जीवन व्यवहार है,जहाँ जीवन की मूलभूत आवश्कताओं की पूर्ति शोक से ज्यादा बड़ा दायित्व है.
अनिल ने इसी के साथ नौकरीपेशा मध्यवर्ग का तथाकथित ‘सुखी’ जीवन भी बहुत नजदीक से देखा है.और उस लगभग निष्क्रिय, एकसार और निरर्थक जीवन पर वह अपनी टिप्पणी दर्ज करते हैं. ‘रोशनी’ कविता में वह कहते हैं-
उन रास्तों पर चलता चला गया
जहां चलते रहने के अलावा कुछ भी नहीं था. (36)
इसी कड़ी में उनकी कविता ‘जिद’ को भी रखा जा सकता है, या चार पंक्तियों की कविता ‘मृत्यु’-
मन और इच्छाओं का संतुलन
जीवन में विचित्रताओं को समाप्त कर देता है
और पूरी उम्र को निरापद और रसहीन
हम सिर्फ मृत्यु की प्रतीक्षा करते हैं. (101)
(तीन)
हर कवि ही नहीं, हर नागरिक का अपना एक शहर होता है,जो उससे छूट जाता है.जहां आत्मीय स्मृतियाँ बस्ती हों, जहाँ उसका बचपन बीता हो,जहां उसने पहला प्रेम किया हो,ऐसा गाँव या शहर आपसे कभी नहीं छूटता. अनिल के लिए छिंदवाड़ा ऐसा ही शहर है,जिस पर संग्रह में इसी नाम से एक लम्बी कविता है—संग्रह की सबसे लम्बी कविता यही है. कवि के मन में आज भी वही छिंदवाड़ा बसता है जो वह छोड़कर आया था. लेकिन इसके बावजूद वह किसी अतीतमोह से ग्रस्त नहीं है. वह समय के साथ बदलते शहर को अपने गहरे आलोचकीय विवेक से देख रहा है.
नए ज़माने की नजर लग गयी उसी छिंदवाड़ा को
जहां सैकड़ों कालोनियों में बसकर भी
उजड़ गयी उसकी आत्मा.(67)
यहाँ पाठक छिंदवाड़ा के बहाने देश के तमाम ऐसे छोटे शहरों या कस्बों में बहुत तेज़ी से ज़ारी तथाकथित आधुनिकीकरण उर्फ़ बाजारीकरण को देख सकता है,जो उनका भूगोल,अर्थशास्त्र ही नहीं,समाजशास्त्र भी बदल देने पर आमादा है. वास्तव में ऐसी कवितायें जहाँ अपने भले और भोले सामाजिक दिनों को याद रखने की ज़रूरत पर बल देती हैं,वहीं,हमारे मानस में मौजूद अनुपयोगी और अप्रासंगिक हो चुकी नयी-पुरानी विकृतियों और विचारों से बाहर आने पर भी जोर देती है. इससे ज़ाहिर है,कवि की असल चिंता में सिर्फ कोई ख़ास प्रिय नगर नहीं, बल्कि पूरी पृथ्वी और मनुष्यता है,जो दिन-पर-दिन अधिकाधिक घायल होती जा रही है.
जिस एक कविता के लिए इस संग्रह को याद रखा जा सकता है,वह कविता है—‘बैंडिट क्वीन के एवज़ी दृश्य में.’ फिल्म में निर्देशक ने नायिका फूलन देवी (सीमा बिस्वास) के एक पूर्ण निर्वसन दृश्य के लिए किसी अन्य विवश स्त्री को इस्तेमाल किया था. यह उस विवशता की मर्मान्तक पीड़ा की कविता है–
लम्बी काली रातों की लगातार दबोच के बाद
इस सुबह की मरियल सी रोशनी में
उस स्त्री को दिख रही थी
अपने भाई के जीवित बच जाने की उम्मीद
जो कुल हज़ार रुपये के एवज़ में
अपनी आत्मा को लहूलुहान करती
वह बैंडिट क्वीन की छाया
जा रही थी निर्वसन कुएँ पर पानी लाने
बरसों से कायम घोर कट्टर वर्णभेदी, लिंगभेदी और स्त्रीविरोधी हमारी समाज-व्यवस्था में यह कोई नयी, पहली या अनोखी घटना नहीं है, बल्कि आज हम रोजाना इससे भी भयानक, हौलनाक और लोमहर्षक नृशंसताएं देख रहे हैं,जिसके चलते धीरे-धीरे हमारी संवेदनाएं भोथरी होकर ऐसे तमाम अमानुषिकताओं और अनाचारों की आदी होती जा रही हैं. लेकिन कवि की उस अनाचार से विकल उद्वेलित, किंतु इसके कारकों की गहरी समझ के कारण यह कविता अनायास बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है. अनिल ने जिस गहरी संवेदना,प्रतिबद्धता के साथ ठंडे शिल्प में इसे रचा है, पढ़ने के बाद हम शॉक्ड हो जाते हैं. यह बहुत विचलित कर देने वाली कविता है. यह दरअसल कला के नाम पर भीषण गरीबी और बेबसी का किया जाने वाला निर्मम शोषण है,वेश्यावृत्ति कराने की तरह घिनौना काम है; और पीड़ित की यही यातना उजागर करना कवि का ध्येय है.
(चार)
देश में लगातार बढ़ते फासीवादी प्रवृत्ति और नफरत का उद्गम और माध्यम अब अहंकारी और उज्जड राष्ट्रवादी सत्ता-व्यवस्थाएं हो गयीं हैं.जो अपने लक्ष्यों को पाने किसी भी हद तक जा सकती हैं. संस्कृति के रास्ते लाया जा रहा मौजूदा अंध राष्ट्रवाद का तूफानी उभार इसी अभियान का हिस्सा है.
वह हर बार एक घटिया तर्कहीन बात के साथ
कहता है इस देश के लोग यही चाहते हैं
अपनी सार्वजनिक स्वीकार्यता के लिए
अंततः हर तानाशाह संस्कृति के पास ही आता है(28)
ऐसे में भी न्याय के पक्ष में खड़े रहने वाले ‘बाक़ी बचे कुछ लोग’ की कविता अनिल रच रहे हैं. संग्रह की इस शीर्षक कविता को इसी खुले और स्पष्ट राजनीतिक विचार एवं पक्षधरता के मद्देनज़र देखे जाने की ज़रूरत है. एक समय आता है,जब कविता के बिम्ब, उपमाएं या शिल्प प्रत्यक्ष होते अन्याय,शोषण,लूट,अत्याचार के सामने नाकाफ़ी हो जाते हैं और कवि को अपने कहन का जोखिम इससे परे जाकर उठाना पड़ता है,जिसको लेकर मुक्तिबोध कहते हैं—तोड़ने ही होंगे मठ और गढ़ सब’. यहाँ कवि अपनी पारंपरिक भूमिका से हटकर एक नई भूमिका को चुनता है,जिसे ज़रूरी नहीं कि दूसरे सहमत हों, यहाँ तक कि इसे कविता से बाहर केवल एक राजनीतिक बयान ही मानने लगे. यह ऐसा दौर है जिसमें लोगों को विरोध और परिवर्तन की ज़्यादा ज़रूरत है,जो उस पुराने मुहावरे या शिल्प या भाषा में संभव ही नहीं. इसीलिए आज की कविता में भाषा,मुहावरे या शिल्प में इतने बदलाव देखने में आ रही है. इस कड़ी में संग्रह की “रात के तीसरे पहर में’, ‘राहत’ ’यह समय’ ‘बेहतर दुनिया की कोशिश में’ जैसी कविताओं को रखा जा सकता है. ‘राहत’ कविता की इन पंक्तियों को देखिये-
हमें पता ही नहीं चलता कि नीचता
कैसे धीरे-धीरे पुण्य में बदल गयी है
और एक दुखी बलात्कृत जलती हुई स्त्री को देखना
एक ऐतिहासिक अवसर में शामिल हो गया है. (64)
या कविता ‘यह समय’ की ये पंक्तियाँ–
यहाँ सबके अपने एंटेलिया हैं
और उनमें हमारे लहू से भरे रक्तकुंड
जिनमें नहाकर चमकती चमड़ी लिए
वे प्रेतों की तरह डोलते रहते हैं
इस महादेश की आत्मा पर
और मैं इसे कविता में कहने की गुस्ताखी करता हूँ.(89)
कहना न होगा अनिल की इधर की कविताओं में तंत्र की विकृतियों,चालाकियों, आडम्बरों और शोषण के प्रति गहरी आक्रामकता है,जिसे कविता के दायरे में पूरा कर पाना निश्चय ही हमारे समय की एक बड़ी चुनौती है. यहीं मुझे हमारे समय के प्रखर आलोचक और कवि विजय कुमार की अपनी किताब ‘खिड़की के पास कवि’ में लिखी यह बात याद आती है—
‘हमारे समय में कविता और क्या हो सकती है? वह उस सीमा रेखा की खोज है जिसके एक तरफ अर्थहीन शोर है दूसरी तरफ जड़ खामोशियाँ. कविता इन दोनों स्थितियों के बीच इतिहास की तमामविडम्बनाओं और त्रासदियों से गुजरती हुई तमाम तरह के धोखों,फरेबों,प्रपंचों,बदकारियों का सामना करती हुई भरोसे की कोई अंतिम चीज बन जाना चाहती है. वह इस पूरे समय का एक निदान चाहती है और इस बुनियादी सवाल को उठाती है कि यह सब क्यों?’ (पृष्ठ 94)
(पांच)
इस संग्रह की जो खामी सतह में नजर आती है,वह है इसका सम्पादन. कवितायेँ बे-सिलसिलेवार रख दी गयीं हैं,जिससे पाठक को एक भावबोध से दूसरी ही कविता में उससे बिलकुल उलट किसी दूसरे भावबोध में आना पड़ता है. अच्छा होता,कवि ने कविताओं के मिजाज़ के अनुसार इसे खण्डों में विभक्त किया होता,जिसकी इस संग्रह में पूरी संभावना थी. उदाहरण के लिए,यहाँ स्त्री और प्रेम विषयक कविताएँ अच्छी संख्या में है,जिसके पृथक खंड रखे जा सकते थे.
पिछले कुछ दशक से हिंदी साहित्य में स्त्री-विमर्श एक प्रमुख स्वर है. निश्चय ही बदलते समय के साथ उन सारे स्त्रीविरोधी मूल्यों,मान्यताओं को ध्वस्त करने की ज़रूरत है,जो लम्बे सामंती और पितृसत्तात्मक व्यवस्था का कूड़ा है. अनिल की कवितायें ‘कविता’ में ही अपना विमर्श रचती हैं. ’उसके आगमन पर’ जैसी कविता सिर्फ़ विचार या विमर्श के सहारे नहीं लिखी जा सकती. भ्रूण-हत्या बैन है, लेकिन लिंगभेद चारों तरफ़ घनघोर ज़ारी है. पारंपरिक स्त्रीविरोधी सोच के चलते कन्या के जन्म पर जैसा विषाद घरों में व्याप्ता है,उसकी मार्मिक अभिव्यक्ति इस कविता में है.
उसने भीतर जिन हाथों से
महसूस की थी मखमली थपकियाँ
उन्हीं हाथों में अब नागफनी उग आयी थीं
वह जानती थी
पूरा कुनबा कुलदीपक के इंतज़ार में खड़ा है. (39)
यहाँ कुलदीपक शब्द ही हमारी लिंगभेदी समाज व्यवस्था पर तमाचा जड़ते गहरा रेटॉरिक रच रहा है.
इसी कड़ी में अनिल की एक अन्य महत्वपूर्ण कविता ‘गोरे रंग का मर्सिया’ को देखना होगा. यह भी सैकड़ों बरसों से हमारे जनमानस में स्थायी रूप से बस चुके,जड़ हो चुके तथाकथित सौन्दर्य के मानदंडों और मान्यताओं पर कड़ा हमला है. जिसे बाज़ार ने अपने विराट मुनाफे के लिए बड़ी तत्परता से लोक लिया है और अभी भी उसके मानदंड वही है. आज भी इसी रंग को सर्वोच्च सत्ता और प्रतिष्ठा हासिल है. दरअसल यह एक भयानक व्यापारिक और नस्लवादी अंतर्राष्ट्रीय षड्यंत्र है उन देशों के खिलाफ जहां त्वचा का रंग कुदरती तौर पर काला है. अनिल इस कविता में इस षड्यंत्र को बखूबी उजागर करते हैं.
सौन्दर्य की परिभाषा में
समाया हुआ है गोरा रंग …
आखिर गोरा रंग
हमेशा फ़कत रंग ही तो नहीं रहा. (44)
यह संग्रह अपनी प्रेम कविताओं के कारण भी विशिष्ट बन पड़ा है. अनिल के यहाँ प्रेम गहन ऐंद्रिकता, आवेग और रोमान के साथ-साथ ज़मीनी बेचैनी और चिंता लिए हुए है. यह कपोल-कल्पित दैहिक या वायवीय नहीं है. यहाँ वे सारे रंग, शब्द और खुशबूएं मिलेंगी जिनसे प्रेम अपना आकार विस्तारित करती हैं — सूरज,चंद्रमा, चांदनी,तारे, पेड़, नदी, हवा,खुशबू इत्यादि.
मगर तुम्हारी गंध
जैसे चंद्रमा से झरती हुई चांदनी
मेरी देह में रक्त के साथ बहते हुए.(63)
या इन पंक्तियों को देखें—
जाने से कोई चला नहीं जाता
तुम्हें पता ही नहीं चलता
और वह तुम्हारे साथ रहता है (110)
प्रेम और स्त्री को लेकर अधिसंख्य एशियाई समाज जिन भयावह कट्टरताओं ,संकीर्णताओं में जीता रहा है,वह जगजाहिर है. भारत के सन्दर्भ में इसीलिए अरुंधति राय कहती हैं कि यह एक साथ कई सदियों में जीता हुआ देश है. इस इक्कीसवीं सदी में भी जाति, धर्म या वर्ग आधारित घृणा,कट्टरता और हिंसा का ग्राफ खतरनाक तेज़ी से लगातार ऊपर जा रहा है. खासकर प्रेम और स्त्री के मामलों में. यह बेहद शर्म ही नहीं कलंक की बात है ! और इस क्रूरता और कट्टरता में सिर्फ गाँव-खेड़े के अशिक्षित लोग ही नहीं हैं,बहुत पढ़े-लिखे, सभ्य और संपन्न कहे जाने वाले शहरी लोग भी बड़ी संख्या में शामिल है. अपनी तथाकथित आन की रक्षा के लिए उन्होंने इधर एक नया शब्द गढ़ लिया है—‘ऑनर किलिंग’. इस हत्या,बर्बरता को लेकर उन्हें कोई पछतावा नहीं,वरन उसकी जगह एक बर्बर हिंसक चमक होती है—‘कलंक’ को मिटा डालने का. संग्रह में इस पर एक बेहतरीन कविता है—‘यह धरती के आराम करने का समय है’. अनिल ने इसे प्रेम कविता के शिल्प में गहरी रागात्मकता से लिखा है,जिससे कविता अधिक प्रभावी और मर्मस्पर्शी बन पड़ी है.
और एक क्रूर हत्यारा अट्टहास
फैला है प्रेम के चहुँ ओर
एक घृणित कार्रवाई बनने को तत्पर है संस्कार
कलंक है एक भारी
जिसे धो डालने को व्याकुल है सारा संसार
उनकी चैन की नींद
उस स्त्री की मृत्यु में शामिल है
जो इन दिनों मुझसे कर रही है प्रेम
(117)
‘सपनों की लडकियां’ कविता इसलिए उल्लेखनीय है क्योंकि यहाँ कवि प्रेम को लेकर सिनेमा या बाज़ार द्वारा फैलाये गए ढेर सारे निरर्थक कोमलताओं या हवाई रोमानों के बरक्स उसे जीवन के वास्तविक और ठोस धरातल पर न केवल देख रहा है,बल्कि उसे सच में बदलना चाहता है
मैंने प्यार किया उन लडकियों से
जिनके नाखून लगातार बर्तन मांजने से काले पड़ गए थे
जिन्हें काटने की उन्हें फुर्सत नहीं थी
जिनकी एड़ियाँ फटी हुई थीं
और वे बरसों तक एक ही जोड़ी चप्पल की मरम्मत करवातीं
पार करती थीं कठिन रास्ते….
इस हक़ीक़त की दुनिया में
मैं नहीं चाहता था सपनों की लडकियाँ (96)
यहाँ प्रसिद्ध इजराइली कवि यहूदा अमीखाई की ये पंक्तियाँ बरबस याद आ जाती हैं–
मैं करता हूँ प्रेम तुमसे रोज़मर्रा के चौरस में
सबसे ज्यादा सपाट ज़रूरतों में
(छह)
यूं तो उम्मीद,संकल्प और संघर्ष या अपने कवि-कर्म को लेकर यहाँ कई कवितायें हैं, लेकिन उनके बीच सबसे चमकदार और प्रभावशाली कविता है—‘मैं इस तरह रहूँ’. ऐसी आत्माभिव्यक्ति की कवितायें प्रायः सभी कवियों के पास मिल जाएंगी. अनिल यहाँ आकर्षित करते हैं तो अपनी विनम्रता, प्रतिबद्धता,समर्पण और गहन ऐंद्रिकता के कारण. इस कविता को अनिल के प्रतिनिधि या पोस्टर कविता की तरह देखा जा सकता है.
मैं इस तरह रहूँ
जैसे बची रहती है आख़िरी उम्मीद
मैं स्वाद की तरह रहूँ लोगों की यादों में
रहूँ ज़रुरत बनकर नमक की तरह…
इस तरह रहूँ कि मेरे रहने का अर्थ रहे (104)
वैसे यह बहुतों की जानकारी में है, कि अनिल करमेले पिछले कुछ बरसों से सुंदर और प्रभावशाली कविता पोस्टर्स बनाने का काम निरंतर कर रहे हैं.
अपनी अब तक की कविता यात्रा में अनिल ने अपना निजी विशिष्ट मुहावरा भले न विकसित कर पाया हो, लेकिन चीजों को देखने की अपनी दृष्टि अर्जित कर ली है,और यही आगे चलकर कवि के निजी मुहावरे को निर्मित करता है. इसके लिए ज़रूरी है कविताओं की संख्या के साथ-साथ उनके कैनवास का बड़ा होना. इसी के साथ, उन्हें वर्तमान जीवन और यथार्थ की नयी खोजों के लिए निरंतर उसके तहखानों,बीहड़ों में ज्यादा गहरा उतरना होगा. जिसके लिए मुक्तिबोध कहते हैं—मुझे चाहिए मेरा असंग बबूलपन ! या गोरख पाण्डेय जिसे कहते हैं—उलटी चीज़ों को उलट देने का काम.
कविता संग्रह– ‘बाकी बचे कुछ लोग’ (अनिल करमेले)
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कैलाश बनवासी
\’लक्ष्य तथा अन्य कहानियाँ\’ (1993), \’बाजार में रामधन\’ (2004), \’पीले कागज की उजली इबारत\’ (2008), \’प्रकोप तथा अन्य कहानियाँ\’ (2015), \’जादू टूटता है\’ (2019), \’कविता पेंटिंग पेड़ कुछ नहीं\’ तथा \’लौटना नहीं है\’ (उपन्यास) प्रकाशित हैं.
कहानियाँ विभिन्न भाषाओं में अनूदित हुई हैं. सम-सामयिक घटनाओं तथा सिनेमा पर भी गंभीर लेखन
प्रेमचंद स्मृति कथा सम्मान (2010), वनमाली कथा सम्मान (2014), गायत्री कथा सम्मान (2016) आदि अनेक पुरस्कारों प्राप्त.
41, मुखर्जी नगर, सिकोलाभाठा,
दुर्ग (छत्तीसगढ़)
मो. — 9827993920