आवाज़ को आवाज़ न थी
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बहुत-सी आवाज़ों को सुनते हुए, बहुत-से दृश्यों को देखते हुए जीवन कुछ क्षण साँस लेने को थमता है तो हम देखते हैं उस सुने गए व देखे गए को प्रकट किस तरह किस जगह किया गया है. यह प्रकट करना, अभिव्यक्त करना मूल क्रिया से किसी भी तरह कम नहीं होता है बल्कि अकसर तो अधिक ही चुनौतीपूर्ण होता है. एक कलाकार, विशेषकर यदि उस का माध्यम भाषा है तो यह चुनौती और भी कठिन हो जाती है कि सुने गए व देखे गए को भाषा में किस तरह रूपायित-स्थापित किया जाए. भाषा भी हर कदम, हर सीढ़ी की अपनी होती है, कोई किसी का स्थानापन्न नहीं होता. यदि हम कविता में व्यक्त कर रहे हैं तो उस का व्यवहार-प्रकृति वह नहीं होगी जो कथा-उपन्यास की विधा में होगी. इसी तरह यदि हम संस्मरण या डायरी विधा में व्यक्त कर रहे होंगे तो उस की प्रकृति बिल्कुल भिन्न होगी. बल्कि, डायरी का आँगन हमें गद्य-पद्य में आवाजाही का पसारा देता है. जहाँ कविता या कहानी में सुने या देखे को प्रकट करने की सीमा या चौहद्दी हो सकती है वहीं डायरी में एक क्षण मात्र अपना व्यापकत्व ग्रहण कर सकता है.
यहाँ यह भी देखना महत्वपूर्ण होता है कि हम क्या सुन या देख रहे हैं के साथ ही क्या है जिसे अनसुना या अनदेखा कर रहे हैं. यह सायास भी हो सकता है और अनायास भी घटित हो सकता है. मगर जैसा भी हो उस में लेखक के (दृष्टा के) नजरिये का पता चलता है. बहुत-सा जहाँ हमें अनचाहे-विवशतावश सुनना या देखना पड़ता है, उसे काटने-छांटने या अनसुना-अनदेखा करने का विकल्प हमारे पास नहीं होता है वहीं इस अनुभव (यातना) को दर्ज करते वक्त हम इस विवशता-आरोपण से मुक्त होते हैं. उस दर्ज करने के पल को हम अपने स्व का स्वायत्त होना कहेंगे.
कुछ जगहों के अपने द्वार, अपने नियत मार्ग, अपने कूट प्रतीक, अपने चिन्ह, अपनी सूचनाओं की पताकाएँ होती हैं, हम उन जगहों में इन सब चीजों से वाबस्तगी करते प्रवेश करते हैं व इन चीजों को नियत-नियति मात्र मान ज्यादा तनाव नहीं लेते गुजरने में ही अपनी सहज सार्थकता मान लेते हैं. यह सोचते हुए कि हर चीज पर सोचना यूँ भी जरूरी नहीं. किसी ने तय किया है तो कुछ सोच कर ही किया होगा.
हमारे आसपास वांछित या अवांछित का घटाटोप हो सकता है, हम बहुत सारे जीवन्त और निस्पंद के घालमेल से घिरे हो सकते हैं. इन दोनों स्थितियों के मध्य से खुद को सहेजे गुजर जाना किसी संवेदनात्मक सत्याग्रह से कम नहीं. यह सत्याग्रह जितना सघन, जितना सूक्ष्म, जितना लचीला होगा उतनी ही भाषा की उर्वरता, उस की प्राकट्य क्षमता, ग्रहणशीलता बढ़ेगी. भाषा का रूप ही बताता है कि मूलतः हम अपने अभिव्यक्ति के पल में कितने मानवीय, कितने संवेदनशील, कितने जवाबदेह रहे हैं. यदि किसी कृति की पहचान ही उस की भाषा हो जाए तो इसे उस के रचनाकार की निष्ठा का ही प्रमाण माना जाएगा.
पारुल पुखराज की डायरी ‘आवाज़ को आवाज़ न थी‘ मेरे उपरोक्त तनिक विस्तृत (किन्तु, अनिवार्य) मन्तव्य का मूर्त रूप है. डायरी की पुस्तक के हर पृष्ठ पर दर्ज इबारत इस मूल स्वर को निरन्तर अपने प्राणों में स्पंदित रखती है, स्वर के आजू-बाजू, ऊपर-नीचे हो सकते हैं किंतु मूल स्वर न विचलित होता है न खण्डित होता है. उसका अक्षुण्ण, अडिग रहना लेखिका के मन के आग्रहों- चिंतन का परिचायक है, इस से इनकार नहीं किया जा सकता न ही इनकार होना चाहिए. संवेदनात्मक सत्याग्रह की अनुभूति ही आप को इस चरम स्थिति तक ला सकती है.
“जीना और जीते चले जाना, यही शर्त है जीवन की. अन्य कोई विकल्प इस के अलावा है नहीं. कहाँ देख रहे थे, कहाँ चल रहे थे इस का अंदाजा होते ही देखना और चलना एकरूप हो जाता है. फिर देखने की दिशा में कदम बढ़ते हैं, पाँव जिधर ले जाते हैं, उधर ही नज़र उठती है……सोचती हूँ आवाज़ की गर कोई शक्ल होती, और लोग उसे पढ़ने की सलाहियत रखते तो बिना एक दूसरे का चेहरा देखे सिर्फ आवाज़ की तासीर से एक दूसरे के दुःख पकड़ लेते……आवाज़ के नक्श दूर से ही चीन्ह कर न्योछावर कर देते अपना आप, जैसे पढ़ लेते हैं बारिश की पीड़ा, उस का उछाह, उस की कराह, हर कही-अनकही समय-असमय, उस का चेहरा निहारे बिना……बारिश की शक्ल कैसे निहारें? बारिश को तो एक घड़ी निहारते ही आँख भर आती है. समूची दुनिया हो जाती है –डब… डब… बारिश को देख नहीं सकते. बारिश को सुन सकते हैं. बारिश को देखना भरम है. ….बारिश नकूश बनते-बिगड़ते रहते हैं, उस का कोई मुकम्मल चेहरा नहीं होता.‘
(पृष्ठ 112)
पारुल की डायरी के बुनियादी चरित्र को रेखांकित करते कथाकार जयशंकर का यह कहना एक प्रकार से उस की मूल नियति और आग्रह को समझने में मदद तो करता ही है साथ ही इस की ओर अपनी प्रामाणिकता को दर्ज कराना भी है, ‘अपनी तरह की निजता-विशिष्टता और भाषा ली हुई यह डायरी की किताब हम पाठकों को बहुत कुछ गहरा और जरूरी समझाने की क्षमता लिए हुए जान पड़ती है. जिस में रोजमर्रा की हमारी ज़िंदगी की मामूली हरकतों, घटनाओं, विवरणों और तथ्यों से, मानवीय सच को बाहर निकालने की जिम्मेदार कोशिशें हैं. यह सब शायद संभव ही इसीलिए होता होगा कि पारुल पुखराज के अपने भीतर ज़रूरी जिज्ञासाओं की अनिवार्य उत्सुकता और बेचैनी की गहरी उपस्थितियाँ बनी हुई हैं. ….पारुल पुखराज की यह किताब जीवन-जगत के सच, स्वप्न और सौंदर्य को समझने- समझाने और साधने की सच्ची, गम्भीर और उल्लेखनीय कोशिश है. एक कवि के कुछ ऐसे प्रयत्न जो शब्दों के माध्यम से मानवीय जीवन को पकड़ने की लालसा और ललक लिए हुए रहता है. मानवीय जीवन, जो किसी भी सजग-संवेदनशील मन के केंद्र में बना-बैठा रहता है.‘ जयशंकर की इस गम्भीर मननशीलता के ही बरक्स समालोचक राजाराम भादू की यह स्थापना भी बेहद अर्थपूर्ण लगती है कि,
‘आँखें उनके लिए देखने का एक माध्यम भर हैं. वे चीजों को ही नहीं बल्कि तमाम घटना- परिघटनाओं को मन से देखती हैं और अपनी तरह से संवेदित होकर व्यक्त करती हैं. तब वस्तु-यथार्थ वह नहीं रह जाता जो वह दिख रहा है वरन् वह वैसा है जैसा उसे ग्रहण किया गया है. इसी वैयक्तिक अर्थ में यह कृति डायरी है, और इसीलिए कविता नहीं है तथा कई जीवंत किरदारों और वृत्तातों के बावजूद कथा नहीं है. “इसमें सब कुछ खुद के केन्द्र में है फिर भी स्व लगभग तिरोहित है.” प्रस्तुत डायरी दिनांक- स्थान दर्ज करने और रोजनामचा की रूढि से मुक्त है. यह देश- काल का स्वायत्त प्रतिबिम्बन है. एक अच्छी रचना आपके संवेग जगाकर अपने लिए एक मन: स्थिति बनाती है.‘
जिस एक अभ्यस्ती की ओर राजाराम भादू संकेत कर रहे हैं वह डायरी की अनिवार्यता तो नहीं किन्तु उस की परंपरा अवश्य रही है और वह है दिनांक-स्थान का इंद्राज होना. बहुत से संशय मन में उठते हैं कि यदि हम इतिहास आलेखन नहीं कर रहे हैं बल्कि अपनी मनःस्थिति की सतहों को रूप देने का प्रयास कर रहे हैं तो इन संकेतों (दिनांक-स्थान) का उस स्थिति में क्या महत्व या भूमिका हो सकती है. मन के बियाबान की सांय-सांय के लिए यह उल्लेख कोई मददगार होता हो मुझे नहीं लगता बल्कि कई बार उस बीहड़ में बाधा ही प्रतीत होता है. पारुल अपनी डायरी में इस रूढ़ी से अपने पाठ व पाठक को मुक्त करती है. यह अपने लिए व भावक के लिए अर्जित किया गया स्पेस है जिस में चीजें नैसर्गिकता में स्वयं को प्रकट कर पाती हैं. बहुत से स्वर या दृश्य या क्षण ऐसे होते हैं जो ऐसे स्पेस के अभाव में डायरी की रूढ़िबद्धता में या तो प्रवेश ही नहीं कर पाते या घुटन में दम तोड़ देते हैं. पारुल की यह डायरी बहुत सूक्ष्मता से बिना किसी शहीदी-क्रांति-अतिरेकी मुद्रा के वह अर्जन कर पाती है जो अस्तित्व की बुनियाद होती है. यह स्वायत्त होना सिर्फ अपने तक सीमित न हो कर संगी पथिक को भी उस के आस्वाद से परिचित कराना है. पारुल की डायरी की इस गहनता से गुजरते हुए ही वरिष्ठ लेखक रमेशचंद्र शाह अपना उछाह सहज ही व्यक्त करते इस के बारे बताते हैं, ‘स्मृति अबोध होती है- वह चीन्ह नहीं पाती बीत रहे लम्हों का लेखा-जोखा‘,
यह इस डायरी की लेखिका पारुल पुखराज का कहना है. परन्तु स्वयं डायरी स्मृति की इस तथाकथित दुर्बलता से पक्का-पूरा और मौलिक प्रतिशोध ले रही है- क्या यह एक सुखद विस्मय नहीं पाठकों के लिए? मगर बात इतनी ही नहीं, कुछ और भी है; और वह यह कि, यह डायरी इसकी लेखिका द्वारा जिये गए जीवन और जगत का ऐसा पक्का-पूरा ऋण चुकाती प्रतीत होती है जैसा ऋण-शोध कविता, कहानी या उपन्यास के जरिये कदाचित संभव नहीं होता.‘
इसी तरह पारुल की यह डायरी अपनी तल्लीनता में कितनी ही जकड़ने त्यागती है, ध्वस्त करती है. उन का यह लेखन ऐसा करते वक्त कहीं भी वाचाल या मुखर न हो अपनी प्रशान्त-संयमित भाषा के सहारे चीजों को घटित होते, दृश्य को दृश्यमान होते देखता है. उन का देखना कहीं भी घटित की प्रकृति की लय को बाधित नहीं करता है. अक्सर डायरी में यही नहीं हो पाता बल्कि लेखक के अपने आग्रह प्रबलता से हस्तक्षेप करते हैं, अपनी मंशा को जाहिर करते हैं. यहाँ हम वह परिचित आक्रोश, असंतुष्टि, अपराधबोध या अपूर्ण कामनाओं का काला कोरस नहीं देख पाते हैं जिनके लिए यह धारणा रही है कि उन हेतु ही कोई डायरी लिखने को अग्रसर-विवश होता है. क्या हम किसी के दबे शोर या ढंके मन की परतें उघड़ने देखने ही डायरी की ओर बढ़ते हैं. आखिर वह क्या लालसा या विवशता या कामना रहती होगी जिस के चलते हम किसी के डार्क जोन में झांकने से खुद को रोक नहीं पाते हैं. और, इसे भी कैसे बिसराएं कि क्या हम नियतन ऐसा करते हैं कि कोई आए और हमारी गर्द के गुब्बार में खुद को बिसरा दे. यानी ऐसा लेखन कहीं अपने भीतर पढ़ाने व पढ़ने की मंशा लिए चलता है. वहाँ निजी भी उस तरह निजी नहीं होता है जिस तरह वह दिखता है बल्कि वह निजी होने के प्रकट रूप में कुछ बंट जाने विलयित होने को आकुल होता है. पारुल की यह डायरी इस विधा की इस परिचित प्रेरणा से बहुत हठ से दूरी बनाए निर्मित हुई है. यहाँ कोई मुखर आवाहन नहीं है बल्कि आलाप का मौन पसारा है जिस में भावक भी अपना मौन समाहित कर सकता है. सयुजा सखाया की तरह एक जीव जब दाना चुगता है तो दूसरा जीव उसे देख रहा होता है. उस का देखना भी इस कदर शांत संयमित है कि जो घटित हो रहा है उस में बाधक न हो उस के नियतन को पूर्णता प्राप्त करने देता है.
“प्रभा अत्रे मारूबिहाग गा रही हैं. मेरे सामने इस वक्त उन की आवाज़ कोई गलियारा है जिस में पुराने दुःख की तरह एक शब्द बार-बार कौंध कर वहीं कोनों अंतरों में समा जाता है. शब्द गुज़र जाने के बाद पुनः उन के गान के चौबारे में लौटने वास्ते, बंदिश में उस के दोहराव पर मैं खुद को हर दफ़ा उसे सुन ने से बचा लेती हूँ…..जीवन में अनगिनत लम्हे दर्ज हुए जिन में अक्षुण्ण रह पाना हमारे लिए दुरूह था. जिन के इर्द-गिर्द बने रहने से परहेज करते बारहा ख़ुद को ख़ारिज करते रहे. ….यूँ भी महसूस होता है, अप्रिय परिस्थितियों में किसी अन्य को ख़ारिज करने से बेहतर है ख़ुद ख़ारिज हो जाना.”
(पृष्ठ 119)
पारुल की इस डायरी में परस्परता व निजता का ऐसा गान है जो युगल होते हुए भी अपनी एकात्मकता को भी सहज रहने देता है. उन का देखना व सुनना कोई बाधक क्रिया न हो कर पर्यवेक्षण का व्यापकत्व है जिस में खुद लेखक का मनन, उस का निज अनुभव बेहद सधे पाँव इस देखने सुनने में समाहित हो जाता है. वह सृष्टि की, चराचर जगत की स्थिति से, विचलन से खुद को दूर छिटकाए किसी द्वीप की वासी नहीं है बल्कि उस के यहाँ उस के मन की हलचलों के साथ ही आसपास के जीव-जगत भी रमण करते, वास करते हैं. यहाँ विशिष्ट या सामान्य न हो कर सहज स्वरूप में अन्य के भाव का तिरोहित होना है. इस रूप में यह डायरी अपनी परम्परा में अकेली व प्रथम है. इस ने डायरी के नितान्त वैयक्तिक बहाव के बरक्स समष्टि से संयुक्ति के भाव मे अपना समाहार रचा है.
“हम एक-दूसरे के तामीर किए हुए घरों में रहते हैं. …ठोस ज़मीन पर बनी हवेली की नींव पहले-पहल कागज पर रखी जाती है. …..कबूतर के घरौंदे में मैना अंडे देती है. कौए के नीड़ में कोयल. मनुष्य अपनी चौखट पर ताला जड़ कर रखता है. अपना घर जैसी कोई शै इस दुनिया में शायद ही कहीं हो. अपना घर जिसे मानते हैं, सार-सम्भार की हुई वह देह तक पराई है. ….जीवन भटकते हुए कई-कई दहलीजों को अपना समझने के भरम में बीतता चला जाता है.” (पृष्ठ 32)
(दो)
“हम न जाने कितनों के प्रेम में पगे हुए थे वह न जाने कितनों से चिढ़ा हुआ था. हमारे प्रेम में चिड़िया थी, चिड़िया के प्रेम में आकाश, आकाश के प्रेम में पृथ्वी, जंगल, नदियाँ और पहाड़. उस की चिड़चिड़ाहट में दूर-दूर तक सिर्फ मनुष्य थे, उन्हीं के ईजाद किये हुए तीर कमान, उन्हीं की शिकार सभ्यताएँ…….हम अपने उजाले से उस का अंधेरा देख रहे थे वह अपने अंधेरे में लिथड़ा हमारी रोशनी की हदों में बढ़ता चला आता था. न हमें चैन था न उसे. अंधेरा, उजाला, प्रेम और चिड़चिड़ापन इस कारण बहुत नजदीक रहने लगे थे बिलकुल पड़ोसियों की तरह……एक रोज अपने प्रेम की रक्षा हेतु नए पड़ोस की चाहना मन में संजोए हम निःशब्द उस की खिन्नता व खिसियाहट से कोसों दूर पौ फटने से पहले ही कहीं चले जाना चाहते थे; लेकिन ठीक उसी वेला सारे परिंदे चहचहा कर उड़ने लगे, नदियाँ कल-कल बहने लगीं, देवालय में किसी ने अलस्सुबह ही शंख फूँक दिया. इस कलरव से वह पड़ोस भी जाग गया जो अब तक अंधेरा समेटे कहीं दुबका था……उस दिन हम ने जाना कि इतना प्रेम चुपचाप उठाना-धरना हमारे अकेले के वश का नहीं है.”
(पृष्ठ 51)
इस डायरी में जहाँ बात का विलम्बन है वहीं तात्कालिकता का निषेध स्वयं इसकी प्रकृति में निहित है. अपने परिवेश के प्रति लेखक की संवेदनशील दृष्टि उसके मूल को विश्लेषित करती है. मनुष्य समाज पर आई महामारी के प्रकोप को जिस तरह दर्ज किया गया है वह अपनी विधा के प्रति निष्ठा का उदाहरण है. अपने आग्रहों को किनारे रखते वे स्थितियों को उनकी सूक्ष्मता में प्रकट होने देती हैं, जिसे ‘लॉकडाउन-2020′ खण्ड में पृथक से स्थान दिया गया है. डायरी का यह हिस्सा आने वाले समय में इतिहास की बगल का सर्जनात्मक आलेखन होगा जो यह बता पाएगा कि एक रिपोर्टर या इतिहासकार से पृथक लेखक के लेखन में किस तरह कोई विषय मात्र तथ्य न हो कर हमारे संवेदन तंतुओं को प्रभावित करने वाले तत्वों को भाषा में उसकी निर्मम नियति के साथ रूपायित करने का जतन होता है.
“आजकल फिर धूसर रंगों वाला एक चित्र बनाने का दिल कर रहा है मेरा. ये दिन जो बहुत लंबे और अनिश्चित हैं. जिन में कोई किसी से कुछ भी कह नहीं पा रहा है. कोई किसी के करीब आने को उत्सुक नहीं. लोग अपनी छाया तक से सिहर जाते हैं. इन्हीं दिनों मुझे ख़्याल आता है कि एक साल दो महीने बीत गए संपूर्ण मालकौंस सुने, कोई बंदिश कोई तान गुनगुनाए…..देखती हूँ किसी चमत्कार की तरह न जाने कैसे सर्दियों के कुछ फूल बगीचे में अब तलक टँके रह गए हैं. निराशा और अवसाद के बीच पृथ्वी जी भर कर साँस ले रही है…..सड़क पर साइरन की आवाज़ रेंगती हुई बहुत अकेली है.”
(पृष्ठ 146)
“जहाँ कोई नहीं होता वहाँ अक्सर जंगल अपनी जड़ें जमाने लगते हैं. मुझे चेर्नोबिल याद आता है, वहाँ प्रकट हुई हरियाली भी…..सब जानते हैं कि उन्हें कहीं कोई अवश्य सुन रहा है. तुम अपने शहर में दो कदम चल कर दिखाते हो. मैं अपने मोड़ पर पत्तों का हुजूम गुजरता सुनती हूँ.”
(पृष्ठ 149)
“अब हम नींद में चोंकते हुए तरह-तरह की आशंकाओं से हर समय भयभीत रहते हैं. अकल्पनीय घटित की पीड़ा मन में दबाए, न हुए का शुक्र मनाते……माँ अधिकतर भूली रहती है कि पापा नहीं हैं अब. उन्हें कोरोना का भी कोई अंदाजा नहीं. वे अनभिज्ञ हैं कि किसी रात एक प्राइवेट नर्सिंग होम द्वारा पापा को बाहर निकाले जाने पर कैसी लाचारी से जूझता रहा उनका पुत्र….उन्हें कुछ भी याद नहीं सिवा इस के कि अस्पताल जाने से पहले पापा ने उन्हें नमस्ते किया था. यही एक स्मृति है जो उन्हें हर वक्त सताती रहती है. हर बेबसी को शब्द नहीं मिलते.”
(पृष्ठ 160)
डायरी में पारुल के स्वर में कई स्वरों की प्रगाढ़ता से गुजरते लगता है जैसे किसी बिसरे चौक से गुजर रहे हैं, या किसी अज्ञात भय में सन्नाटे को ओढ़े किसी कस्बे में ठिठकना पड़ गया है. भाषा को वह उन्मुक्त सघनता प्राप्त हुई है जिस के चलते उसका दर्पण उन कोनो उन पलों को देख पाया है जो नितान्त संकोची हैं. भाषा में प्रयुक्त शब्दों के अतिरिक्त एक पात्र और है जो बहुत महत्वपूर्ण पक्ष है, वह है उसका मौन किन्तु सतत सक्रिय संवेदन. पारुल के गद्य में वह अदृश्य, अकथ अपने स्वरूप में विकस पाया है. और हमारे तुमुल कलही युग में वह ह्रदय की बात का नरम कोना यदि गर्द में गुम नहीं पाया है तो इस का कारण लेखक की धीरता भरी आत्मीयता है. अकसर हम कुछ पढ़ते हैं तो बहुत कुछ याद में साथ रह आता है. इस डायरी में पारुल का भाषा के साथ का यह व्यवहार, यह रहवास पाठक की याद में बसा रह जाता है. अपने माध्यम के प्रति ऐसा निर्मम-तटस्थ किन्तु संवेदनशील निबाह ही वह प्रमाण होता है जिस से हम लेखक की बर्ताव विधि को जान पाते हैं, यह बर्ताव ही आगे चल कर विस्तार में समग्रता को प्राप्त करता है.
ऐसी अनूठी यात्रा से गुजरते जब लगता है कि अब शायद स्टेशन आने को है और हमें इस डायरी की रेल से उतरना होगा तब किसी सुखद आश्चर्य की तरह रेगिस्तान में जैसे किसी झोंपड़ी में मटकियां रखी प्याऊ दिख जाती है वैसे ही अंतिम पन्नों से पूर्व लेखक ने ‘स्मृति गद्य‘ का खण्ड रखा है. और सच में इस गद्य की तासीर मटकी के शीतल जल सरीखी ही है. इस प्याऊनुमा पड़ाव में जब हम प्रवेश करते हैं तो मालूम पड़ता है कि कैसा छिपा हुआ संसार हमारी प्रतीक्षा कर रहा था. पारुल का यह गद्य उन के लेखन का एक ऐसा पड़ाव है जो सदैव उन के पाठकों के लिए अविस्मरणीय रहेगा व लेखक के रूप में उन्हें उस समृद्धि की अनुभूति कराएगा जिस की कामना हर लेखक करता है. एक ही पुस्तक में एक लेखक किस तरह अपनी भाषा के दो संसार लिए हो सकता है उस के लिए यह पुस्तक श्रेष्ठ उदाहरण होगी. पारुल के लेखक को गम्भीरता से ग्रहण करने वाला पाठक उन के गद्य की इस समृद्ध विविधता से सदैव आप्लावित रहेगा. दो ध्रुवों को साधने में उन की भाषा व शैली ने जो वयस्कता व संवेदनशील तासीर दिखाई है वह एक लेखक के रूप में उन्हें सदैव स्मरणीय रखेगा. अपने ननिहाल कन्नौज में व्यतीत अतीत को पारुल ने बहुत ही सघन मन से गान होने दिया है जिस में इत्र की तरह हमारे अस्तित्व के रोम रोम में पसर जाने की कुवत है. हिंदी गद्य में संस्मरण विधा में पारुल का यह सृजन अविस्मरणीय है.
कुछ श्वेत श्याम चलचित्रों की क्लासिकी परम्परा की तरह यह गद्य सदैव एक मानक रहेगा. जिस में मात्र अतीत का स्मरण ही नहीं अपितु अतीत की अपनी वाणी और महक है. जीवन के वे वृक्ष यहाँ दिखाई देते हैं जिन्हें और किसी वक्त हम किसी पुरानी सचित्र किताब में ही देख पाते हैं. यहाँ चीजों को देखने का कैमरा वह नहीं है जो पूर्व में डायरी के पन्नों के वक्त था. यहाँ पारुल चीजों को भरपूर बोलने देती हैं, घटित होने देती हैं, घटित को अपना पसारा लेने देती हैं. यहाँ उदासी का वह रंग नहीं है जो डायरी के पन्नो पर फैला था बल्कि यहाँ ननिहाल-इत्र का झोंका है जो यादों में जाने कहाँ किन के पास चला जाता है. ऐसे गद्य को रचते वक्त जो गर्मास और ठावस वांछित होता है वह पर्याप्त मात्रा में रहा है. ‘आवाज़ को आवाज़ न थी‘ शीर्षक की यह किताब जो घोषित रूप से डायरी का घर है किंतु जिसके पड़ोस में जिसका अपना कन्नौजी ननिहाल भी है.
अनिरुद्ध उमट पता: |
आवाज़ को आवाज़ न थी (डायरी) /पारुल पुखराज (२०२१)/सूर्यप्रकाशन मन्दिर, बीकानेर /मूल्य- 300 रुपए