भूमंडलोत्तर कहानी क्रम में कथा – समीक्षक आलोचक राकेश बिहारी ने विवेचन – विश्लेषण के लिए कथा- देश के जून २००१ के अंक में प्रकाशित रवि बुले की कहानी \’लापता नत्थू उर्फ दुनिया न माने\’ को चुना है. जिसके बारे में सुधीश पचौरी ने एक जगह लिखा है -\’कितने दिनों बाद कम से कम एक कहानी आयी है जो नितांत नये ने लिखी है जिससे हिंदी कहानी वही नहीं रहती जो अब तक नजर आती है\’. इस कहानी पर यह भाष्य कहानी के माध्यम से देश – काल को समझने का सूत्र देता है और कहानी के अनेक आयामों को भी उद्घाटित करता है. यह क्रम आगे भी जारी रहेगा समालोचन पर.
संवेदनहीन विकल्पहीनता उर्फ ‘फ्यूजन-समय’ का सच
(संदर्भ: रवि बुले की कहानी ‘लापता नत्थू उर्फ दुनिया ना माने)
राकेश बिहारी
भूमंडलोत्तर कहानी की आलोचना जिन बातों के लिए सामान्यतया की जाती है, राजनैतिक कहानियों का अभाव उनमें से एक है. जनवादी कहानी के दौर से तुलना करें तो संख्या की दृष्टि से शुद्ध राजनैतिक कहानियाँ इधर जरूर कम लिखी जा रही हैं, लेकिन यह भी सच है कि राजनैतिक निहितार्थों को प्रकटित करने वाली कहानियों का एक बड़ा और उल्लेखनीय हिस्सा आज अस्मिता संघर्ष की कहानियों के नाम से जाना जाता है. सच पूछिए तो अतीत में हाशिये पर जीने को विवश कर दिये गए व्यक्ति-समूहों के अस्तित्व और पहचान के अथक संघर्ष को रेखांकित करनेवाली ये कहानियाँ, विशुद्ध राजनैतिक कहानियाँ ही हैं. लेकिन समकालीन आलोचना सामान्यतया इन्हें राजनैतिक कहानियों से अलग कर शुद्ध रूप से अस्मिता विमर्श की कहानियों के रूप में ही रेखांकित करती है. अस्मिता विमर्श बनाम राजनीति का यह सामाजिक-राजनैतिक प्रश्न एक अलग बहस की मांग करता है. पर इतना तो तय है कि कुछ तो इस कारण और कुछ समकालीन राजनीति के चाल-चरित्र और इससे उत्पन्न जटिलताओं को ठीक-ठीक समझे बिना किन्हीं खास राजनैतिक या दलगत पक्षधरता के संधान की मंशा से संचालित होने के कारण भी भूमंडलोत्तर कहानी के प्रति आलोचना की यह अवधारणा बनी है.
पिछले पच्चीस वर्षों की राजनैतिक स्थितियों पर गौर करें तो राजनीति से पक्षधरता का विलुप्त होना एक आम बात हो गई है. यहाँ पक्षधरता को किसी चालू मुहावरे में सीमित कर किसी खास काट की दलीय प्रतिबद्धता का पर्याय न मानते हुये सत्ता और व्यवस्था के मूल्यगत आचार-व्यवहार से जोड़ कर देखे जाने की जरूरत है. ऐसी पक्षधरता की लगभग अनुपस्थिति के समानान्तर अवसरवादिता, विकल्पहीनता, स्वार्थपरक ध्रुवीकरण जैस कसैले सत्य ही आज राजनीति के अनिवार्य अवयव हो गए हैं. मूल्यों का क्षरण, निजी स्वार्थों की प्रमुखता और इन सब के बीच विकल्पहीनता की स्थिति से दो चार होता एक आम आदमी अपनी बुनियादी जरूरतों की पूर्ति के लोभ-लालच में जिस तरह विपरीत गुणधर्मी वैचारिकताओं के दो पाटों में पिस रहा है, वह दारुण ही नहीं भयावह भी है. कथादेश (जून 2001) में प्रकाशित और रवि बुले के पहले कथा-संग्रह ‘आईने सपने और वसंतसेना’ में संकलित कहानी ‘लापता नत्थू उर्फ दुनिया ना माने’ समकालीन राजनीति के इस विद्रूप चेहरे के सूक्ष्म पड़ताल का जतन तो करती ही है, अपनी सम्पूर्ण रचनात्मक उपस्थिति से भूमंडलोत्तर कहानी में राजनैतिक समझ और दृष्टि के अभाव की बहुश्रुत शिकायत का प्रतिपक्ष भी रचती है.
स्वतन्त्रता आंदोलन से लेकर स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद के शुरुआती दो-ढाई दशकों तक राजनीति मूल्य आधारित थी या यूं कहें कि स्वयं हीं मूल्य जैसी थी. धीरे-धीरे राजनीति का वह धवल चेहरा न सिर्फ मलिन हुआ बल्कि राजनीति शुद्ध रूप से एक व्यवसाय के रूप में अपनी जगह सुनिश्चित करने में कामयाब हो गई. एक ऐसा व्यवसाय, जिसके मूल में मिलावट की कारगुजारियाँ एक हैरतअंगेज ठसक के साथ हर कदम मौजूद होती हैं. परिस्थितियाँ आज इतनी भयावह हो चुकी हैं कि ‘मिलावट’ अपना नाम बदल कर पहले हमें आकर्षित करता है और फिर धीरे-धीरे अपनी चकाचौंध की गिरफ्त में लेते हुये हमें अपना अभ्यस्त बना लेता है. पारंपरिक व्यापार के व्यवहार का वह लज्जास्पद स्वरूप जिसे कभी ‘मिलावट’ कह के हिकारत की दृष्टि से देखा जाता था, आज ‘फ्यूजन’ का नया नाम धारण कर जीवन के हर क्षेत्र में गर्व से इठला रहा है. ‘लापता नत्थू उर्फ दुनिया न माने’ के मुख्य पात्र ‘नाथू राम गांधी’ के चरित्र और उसकी नियति के माध्यम से मिलावट और ‘फ्यूजन’ की इसी विडम्बना का एक मानीखेज पाठ हमारे सामने खुलता है.
नाथू राम गांधी के नाम में छुपी विडम्बना इसी ‘फ्यूजन-समय’ के बड़े सच को रेखांकित करती है. एक बार इस दुनिया पर गौर करने की जरूरत है, मिलावट के इस उत्तर आधुनिक प्रतिरूप के कई-कई उदाहरण हमारे सामने जीवंत हो उठेंगे- नाथू राम और गांधी का फ्यूजन, वाम और दक्षिण का फ्यूजन, जनसंघ और कांग्रेस का फ्यूजन, फासीवाद और समाजवाद का फ्यूजन, धर्म और राजनीति का फ्यूजन, कांग्रेसियों और भाजपाईयों का फ्यूजन, गांधी और हेडगेवार का फ्यूजन,… इस तरह मिलावट यानी फ्यूजन की एक अंतहीन फेहरिस्त हमारे सामने तेज और दीर्घ श्वांस लेने लगती है. दरअसल फ्यूजन का यह नवाचार मूल्यच्यूत समकालीन राजनैतिक अवसरवादिता का एक मानीखेज प्रतीक है, जहां विचार और विचारधारा सुविधा और अवसर के पैरहन होते हैं, जिन्हें जब चाहा उतार दिया और जब चाहा पहन लिया. उल्लेखनीय है कि इस कहानी में युवक कांग्रेस के दफ्तर में गांधी और हेडगेवार की तस्वीरे अगल-बगल लगी रहती हैं, जिनमें से हेडगेवार की तस्वीर चुनाव के दौरान इस लिए उतार ली जाती है कि बाहर से कब कौन बड़ा कांग्रेसी नेता आ जाये.
कहने की जरूरत नहीं कि इस तरह की राजनैतिक अवसरवादितायेँ अंतत: किसी जरूरतमन्द का जीवन ही तबाह करती हैं. गांधी के राम राज्य की परिकल्पना के समानान्तर नब्बे के दशक में राम मंदिर निर्माण और बाबरी मस्जिद का ताला खुलवाने के बहाने क्षुद्र राजनैतिक मंशाओं के जन मानस में घुसपैठ की पैतरेबाजियों को बारीकी से विश्लेषित करती यह कहानी प्रतीकों की राजनीति के स्याह-सफेद को भी रेखांकित कर जाती है. प्रतीकों की यह राजनीति पढे-लिखे लेकिन बेरोजगार और जरूरतमन्द लोगों की मजबूरी का दोहन कैसे करती है उसे भी इस कहानी में आसाने से देखा जा सकता है है. एक अदद नौकरी की जरूरत नाथूराम गांधी को एक ऐसे दुष्चक्र में फंसा कर रख देती है जहां उसे अपने विवेक और अपनी पहचान को खुद से दूर कर स्वयं को दो अलग-अलग विरोधाभासी वैचारिक परिस्थितियों में ढालने को तैयार करना पड़ता है. एक तरफ वह ‘मी नाथूराम गोडसे बोलतोय’ के जवाब में एक ऐसा सनसनीखेज नाटक लिखने को विवश हो जाता है जिसे देख कर लोग नाथूराम का नाटक भूल जाएँ तो वहीं दूसरी तरफ वह ‘मी नाथूराम गोडसे बोलतोय’ में नाथूराम का किरदार निभाने को भी तैयार हो जाता है. दिलचस्प लेकिन विडंबनात्मक है कि सदाशिव राव जो एक कांग्रेसी है, और समर्थभाऊ जो एक भाजपाई है दोनों नाथू राम गांधी को बिल्कुल एक-से प्रलोभन देते हैं-
“और इस बार चुनाव जीता कि मण्डल ऑफिस में तेरी नौकरी पक्की. नगर विकास कमेटी में भी तुझे लूँगा,” सदाशिव मुस्कुराये, “तू मेरा इतना काम कर दे बस!”
“और तुम चाहे इस घड़ी हमारी सहायता करो न करो, मैं स्टांप पर लिख के दे देता हूँ कि अगले सत्र में तुम्हारी नौकरी पक्की. मेरे असिस्टेंट का पद पिछले दो वर्षों से खाली है. कोई समझदार लड़का नहीं मिल रहा था.“ समर्थभाऊ ने विश्वास दिलाने वाले लहजे में कहा.
स्पष्ट है कि सामनेवाले की जरूरत को भाँप कर चारा फेंकने की यह चालबाजी सदाशिव राव और समर्थभाऊ के तथाकथित वैचारिक अंतरों को पाट कर उन्हें एक ही धरातल पर ला खड़ा करती है, जहां राज्य और राजनीति से लोक कल्याण के तत्व कैसे बाहर कर दिये जाते हैं पता ही नहीं चलता और देखते-ही-देखते राजनीति शिकार का खेल बन कर रह जाती है.
गांधी पर लिखे जाने वाले नाटक की परिकल्पना करते हुये नत्थू उर्फ नाथूराम गांधी रचनात्मकता की एक नई दुनिया में चला जाता है. वह गांधी बनाम नेहरू की बहस के बहाने विभाजन की त्रासदी को बिलकुल ही नए तरीके से देखना चाहता है. उसे शिद्दत से इस बात की जरूरत महसूस होती है कि गांधी और नेहरू दोनों का पुनर्मूल्यांकन किया जाना चाहिए.
इसके लिए वह गांधी को सत्याग्रह और अहिंसा के खांचे से बाहर निकाल के देखना चाहता है तो नेहरू को समाजवादी लोकतंत्र और पंचशील के सिद्धांतों से. लेकिन रचनात्मकता सनसनीखेज कैसे हो सकती है! सदाशिव राव तो गांधी के बहाने कुछ ऐसा सनसनीखेज चाहता है जिसे देखकर लोग गोडसे के नाटक को भूल जाएँ. ऊहापोह के इसी विंदु पर नत्थू निर्णय लेता है – “काफी ऊहापोह के बाद मैंने तय किया कि मैं लिखूंगा. सदाशिव राव के लिए नहीं, बल्कि इसलिए कि नौकरी पायी जा सके… और वैसा लिखूंगा, जैसा सदाशिव राव कहते हैं. “
नौकरी की उम्मीद में नाथूराम गांधी उर्फ नत्थू अपने नाटक में गांधी जी को महादेव शंकर के अवतार की तरह प्रस्तुत करता है. एक ऐतिहासिक चरित्र के साथ किसी मिथकीय पात्र का यह फ्यूजन कहानी का वह विंदु है जहां विज्ञापन की भाषा और ‘टार्गेट कस्टमर ग्रुप’ की जरूरत के बीच एक अदद नौकरी की संभावित गारंटी की प्रत्याशा किसी रचनाकार को इतिहास से भी छेड़छाड़ करने के साहस से भर देती है. धार्मिक और भावनात्मक ध्रुवीकरण के रास्ते सत्ता पर काबिज होने का सपना देखनेवाली पार्टी की रणनीति के जवाब में धार्मिक चरित्रों के इस्तेमाल की इस नई प्रविधि से उत्साहित सदाशिव राव नत्थू के हाथ चूमते हुये कहता है- ‘काश, तुम लड़की होते’ लेकिन प्रशंसा के उस कोमलतम क्षण में भी नत्थू को अपनी नौकरी की ही याद आती है – “मेरी नौकरी तो पक्की हुई न राव साहब?” दाशिव राव के उत्साह और नत्थू की इस कातरता के बीच वर्तमान राजनीति का वह स्वरूप दिख जाता है जहां नेता का अर्थ बहेलिया होता है और एक आम मतदाता अपना स्वाभाविक अधिकार जताने की बजाय एक लोभी चिड़िया की स्थिति जीने को विवश हो जाता है.
सत्ता में गज़ब का सम्मोहन होता है. लोभ और लोलुपता के संभावित भविष्य का गणित थोड़े ही दिनों में नत्थू को भी राजनीति की धूर्त शब्दावली से परिचित करा देता है. तभी तो सदाशिव राव के प्रस्ताव पर नाटक लिखने का निर्णय लेते हये ऊहापोह से गुजरने वाला नत्थू, समर्थभाऊ और सदानंद के गोडसे का अभिनय करने का प्रस्ताव सुनने के बाद राजनीति की पाठशाला के एक गंभीर प्रशिक्षु की तरह कह उठता है – “मुझे नौकरी की परवाह नहीं. मैं आपके साथ काम करूंगा. जो इंसान दूसरों के काम न आ सके उसका जीना ही बेकार है.“ संकोच और शुरुआती ऊहापोह को लांघते हुये राजनीति के अखाड़े की तरफ नत्थू के उठे ये कदम राजनीति को लेकर ‘काजल की कोठरी’ ले मुहावरे को ही चरितार्थ करते हैं. लेकिन वह है तो एक आम आदमी ही न! और फिर उसका उद्देश्य भी सत्ता नहीं नौकरी की प्राप्ति है. सदाशिव राव का एक छोटा-सा संदेश कि ‘तुम भी घर के भेदी निकले, विभीषण!\’ जिधर मुंह काला किया है उधर ही रहना, अब मुझे अपनी सूरत न दिखाना “ उसे बेतरह परेशान कर जाता है. घात के आरोप का यह तीर निशाने पर बैठता है. नतीजा… वह नाटक वाले दिन ही अचानक गायब हो जाता है. नत्थू का यूं गुम हो जाना क्या है आखिर? उसका पलायन? या एक दोगली व्यवस्था का मौन प्रतिरोध जिसका हिस्सा बनते-बनते वह रह गया या कि बचते-बचते भी वह उसी का शिकार हो गया? स्थिति बहुत पेंचीदा है. लेखक इस जटिलता को बखूबी समझता है. किसी सीधे-सरल अंत पर पहुंच कर परिस्थिति की इस जटिलता को ठीक से अभिव्यंजित नहीं किया जा सकता. इसलिए वह नत्थू की गुमशुदगी के कारणोंकी संभावनाओं को खुला छोड़ देता है. जिसका जो मन हो वही अर्थ ग्रहण करे. लेकिन आगे चल कर जंगल में किसी पेड़ से लटकती उसकी लाश को बच्चों द्वारा देखना, उसके पीछे से खून का रिसाव और डायरी में एक जगह नत्थू का अपनी प्रेमिका से बचपन में अपने यौन शोषण की बात कहना… यथार्थ के चेहरे की यह जादूई उपस्थिती पहले से व्याप्त जटिलता में कुछ और पेंच डाल कर उसे और सघन और परतदार बना देती है. आखिर यहाँ तक पहुँच कर कहानी क्या इशारा करना चाहती है? अलग-अलग राजनैतिक दलों के द्वारा नत्थू का इस्तेमाल किये जाने के उपरांत उसके पीछे से खून निकलने की प्रतीक रचना के समानान्तर नत्थू के बचपन की उन तिक्त स्मृतियों को खड़ा कर आखिर लेखक कौन सा रूपक खड़ा करना चाहता है? कहीं वह यह तो नहीं कहना चाह रहा कि अपनी-अपनी स्वार्थ सिद्धि के बहाने अलग-अलग राजनैतिक दल एक आम आदमी का अप्राकृतिक यौन शोषण कर रहे हैं? यह एक बहुत ही वीभत्स मेटाफर है? यहाँ प्रश्न यह भी उठता है कि क्या इस तरह के मेटाफर से बचे बिना यह कहानी पूरी नहीं हो सकती थी? नत्थू की नियति के समानान्तर कहानी का यह प्रतीक-विधान भी मुझे समान रूप से परेशान करता है.
उल्लेखनीय है कि लगभग पूरी कहानी डायरी के प्रचलित शिल्प में लिखी गई है. डायरी नत्थू की ही है जिसमें यह पूरा घटनाक्रम दर्ज है. लेकिन उसके लापता होने के बाद का कोई भी जिक्र वहाँ मौजूद नहीं है. नत्थू द्वारा सपने में किए गए आग्रह के आधार पर उसकी कहानी लिखते हुये लेखक के मन में कई सवाल पैदा होते हैं- “मसलन, नत्थू ने नाटक के मंच से गायब होने के बाद के एक क्षण का भी कोई जिक्र क्यों नहीं किया? क्या वह खुद गायब हो गया था? तो क्या वह डायरी लिखते पकड़ा गया था? क्या उसी का परिणाम था वह दृश्य जो बच्चों ने देखा था? लेकिन उस दृश्य सहित नत्थू कहाँ लापता हो गया? यदि नत्थू अपनी डायरी को और आगे लिखता, तो क्या लिखता? क्या नत्थू के डायरी लिखने से किसी को नुकसान था? क्या नत्थू की डायरी को कुछ लोग खोज रहे है?” लेखक दरअसल ये प्रश्न नत्थू से नहीं अपने समय से पूछ रहा है. और फिर ये सवाल लोकतन्त्र में आम आदमी की ताकतों की तरफ भी तो इशारा करते हैं, जिनका बोध आज के समय की सबसे बड़ी जरूरत है. नाथूराम और गांधी में बंटे नत्थू का सच क्या इस समय का रूपक नहीं है, जहां बीच के रास्ते पर चलना किसी तलवार की धार पर चलने जैसा होता है? दुधारी तलवार पर चलने की इस विकल्पहीन विवशता को रेखांकित करती इस कहानी को समकालीन राजनीति की गंभीर समीक्षा के रूप में भी पढ़ा जाना चाहिए.
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