मैं थी, हूँ और रहूँगी
मृत्यु के सौ साल बाद रोज़ा लक्ज़मबर्ग
अमरेन्द्र कुमार शर्मा
“सरल जीवन को खोलने वाली चाबी खुद जीवन में ही है. यदि सिर्फ देखने का नजरिया बदल दिया जाए तो रात का गहरा अँधेरा भी बैंगनी रंग की तरह कोमल और सुंदर दिखेगा.”
(पृष्ठ 77)
2020 की ‘जनता कर्फ्यू’ और ‘लॉक डाउन’ की घोषणा के समय और उसके समानांतर 110 साल पहले 1910 के दौर में जर्मनी की ‘मास स्ट्राइक’ की अवधारणा और आवश्यकता के बारे में अगर जानने की उत्सुकता हो तो रोज़ा लक्ज़मबर्ग की यह जीवनी पढ़ी जा सकती है.
रोज़ा लक्ज़मबर्ग (1871-1919) पर लिखी यह किताब बतौर जीवनी प्रस्तुत हुई है. लेकिन इस किताब को मात्र निरे जीवनी की तरह नहीं पढ़ा जाना चाहिए. लेखिका मधु मृणालिनी की इस किताब (रोज़ा लक्ज़मबर्ग, स्त्री-मुक्ति और समाजवाद का संघर्ष) में, जीवनी के कलेवर में जगह-जगह रोज़ा लक्ज़मबर्ग की जीवन-यात्रा के घटनाक्रम पर विश्लेषणात्मक टिप्पणी से भरी हुई है. कुल 219 पृष्ठों की संवाद प्रकाशन से 2015 में प्रकाशित यह किताब 135 वें पृष्ठ से जीवनी के रूपबंध का दामन एकदम से छोड़ देती है और रोज़ा लक्ज़मबर्ग की एक ठोस वैचारिक दुनिया की यात्रा पर निकल जाती है जिसमें उस यात्रा के पड़ावों की दुश्वारियाँ हैं, वैचारिक लेखन के अपने संघर्षों हैं और स्वयं रोज़ा की अपनी जिद है. इस यात्रा में, रोज़ा के अपने समकालीनों के सिद्धांतों से तीखी बहस है. यह बहस जितना मौखिक है उससे कहीं अधिक लिखित है. इस बहस के केंद्र में बर्नस्टीन की किताब ‘इवोल्यूशनरी सोशलिज्म’ की आलोचना के बहाने रोज़ा की किताब ‘सुधार और क्रांति’ मौजूद है. इसमें ‘जन-हड़ताल’ (‘मास स्ट्राइक’) की सैद्धांतिकी है, पूँजी की गतिकी का विश्लेषण है, व्यक्ति विशेषकर मजदूरों के आत्मनिर्णय के अधिकार की स्थापना की तकनीक है, पुरुष की वर्चस्व वाली दुनिया के विन्यास में स्त्री के प्रश्नों पर रोज़ा के तीखे विचार हैं. मोटे तौर पर, हिंदी और अंग्रेजी पाठकों की एक बड़ी जमात रोज़ा लक्ज़मबर्ग की ‘सुधार और क्रांति’ किताब से परिचित है.
लेकिन, रोज़ा लक्ज़मबर्ग की इस जीवनी को इन सबसे अलग कुछ अलहदा कारणों से पढ़नी चाहिए. यह जानने के लिए कि रोज़ा के जीवन में सौंदर्य-बोध की अहमियत किस तरह से एक आवश्यक उपकरण की तरह मौजूद रही है. जिसके बारे में शायद हम कम जानते हैं. आंदोलनों और क्रांति के बीच और उससे दूर आखिर एक स्त्री-मन की चाहत क्या होती है. स्त्री, स्वयं से क्या अपेक्षा रखती है और अपने इर्द-गिर्द के लोगों से किस तरह से जुड़ना पसंद करती है. क्या स्वयं से की गई अपेक्षा पर वह खरी उतर पाती है, क्या उसे अपने ‘होने’ का संतोष मिल पाता है. क्या, लोग खासकर पुरुष, एक स्त्री से उसी प्रकार जुड़ते/जुड़ पाते हैं जैसा वह स्त्री चाहती है. आखिर एक स्त्री लोगों से, खासकर पुरुषों से किस प्रकार जुड़ना चाहती है. इन सबको लेकर इस जीवनी में उतरने या चढ़ने के लिए मैं आपके सामने कुछ चुनिंदा सीढ़ियाँ प्रस्तावित करता हूँ. इस प्रस्तावना में उतना ही नहीं है जितना कि इस जीवनी में आया है, कुछ बातें जीवनी से बाहर की भी हैं जो रोज़ा के बारे में जानना आवश्यक है, खासकर उसकी मृत्यु और मृत्यु के बाद उसके शव को लेकर 2009 तक विवादों की दास्तान.
रोज़ा, जीवन को विविधता में देखने पर यकीन करती थी. वह जीवन को कभी एकरस, सम पर नहीं देखती हैं. ‘रोज़ा ने जीवन को संपूर्णता में चाहा. प्रिय के साथ एकांत, मित्रों के साथ अन्त रंग वार्ता, प्रकृति के अन्य प्राणियों का साहचर्य, संघर्षशील जनता का विशाल सैलाब, नारे लगाते लोग, धावा बोलती संगठित जमात, जूझते-टकराते, बहस करते व लड़ते-झगड़ते युवाओं की टोलियाँ, पशु- पक्षी, पेड़- पौधे, मंद हवा के झोंके, जलतरंग, हिमाच्छादित चोटियाँ, खुले मैदान का विस्तार. रोज़ा को यह सब कुछ आकर्षित करता था.’ (34) रोज़ा के भीतर न कोई उदासी थी और न ही कोई हीन भावना. रोज़ा की एक बड़ी बहन अन्ना और तीन भाई थे. रोज़ा जब पाँच बरस की थी तब रोज़ा का एक कूल्हा रोगग्रस्त हो गया था और जिसका आर्थिक अभाव के कारण ठीक से चिकित्सा नहीं हो सका था. रोज़ा जीवनभर इस बीमारी के कारण पैर से झटककर चलती थीं. लेकिन रोज़ा बचपन से ही नेतृत्वकारी गुणों से भरी हुई थी. वह अपने दोस्तों के बीच खूब लोकप्रिय थीं. जब भी कोई समस्या होती उसके दोस्त कहते, ‘कोई बात नहीं, रोज़ा है न. रोज़ा मामले को संभाल लेगी.’ (19)
रोज़ा गोएथे की कविताओं से प्रेम करती थी. वह दोस्तोवस्की की रचनाओं के पात्रों का अपने पत्रों में उल्लेख करती हुई स्वयं को आत्म विश्वस्त करती थी. चार्ल्स डिकेंस को वह बेहद पसंद करती थी. फ्रेंच नाटककार ले. लांगे के नाटकों को पढ़ने के लिए हमेशा इच्छुक रहती थी. अनातोले फ़्रांस रोज़ा को काफी प्रिय थे. पियरे ब्रुड के उपन्यासों का भू-दृश्य रोज़ा को काफी प्रभावित करता था. चित्रकार बारलोम्यो मेनेजिनियो द्वारा एक महिला की बनाई पोर्ट्रेट की वह प्रशंसक थी. रोज़ा की माँ जर्मन कवि शिलर की बहुत बड़ी प्रशंसक थी इसलिए रोज़ा बचपन में शिलर को पसंद नहीं करती थीं और बाद में फिर उसे पसंद करने लगी थी.
वह अपने कोमल अहसास के साथ एक प्रतिबद्ध प्रेम में रहना चाहती थीं. वह लियो जोगिचेज के साथ कई बरस तक प्रेम-राग में रही. वह चाहती थी कि लियो जोगिचेज भी उसी तन्मयता से प्रेम करे जैसा वह उससे करती है लेकिन लियो अपनी वैचारिक यात्रा और मजदूरों के प्रति कार्यक्रमों में व्यस्तता के कारण वह समय रोज़ा को नहीं दे पाते थे जैसा रोज़ा चाहती थी. रोज़ा का अविवाहित दाम्पत्य जीवन लियो जोगिचेज के साथ कई बरसों तक रहा. रोज़ा, ‘प्रेमरहित विवाह या स्त्री-पुरुष सबंध से तीव्र घृणा करती थीं.’ ‘एक बार रोज़ा जोगिचेज से कहा था कि तुम एक ऐसी स्त्री से साथ कैसे सो सकते हो जिसे तुम प्यार नहीं करते हो.’ (45). रोज़ा जर्मनी की जमीन पर अपनी पार्टी और मजदूरों के लिए निर्बाध कार्य करना चाहती थी और इसके लिए उसे वहाँ का नागरिक होना अनिवार्य था. जर्मनी की नागरिकता हासिल करने के लिए वह गुस्ताफ लुबेक से बतौर औपचारिकता वश 1898 में विवाह कर लेती है. और पांच बरस बाद तलाक लेकर इस औपचारिक जरूरत से, गुस्ताफ का आभार मानते हुए मुक्त हो जाती हैं. लियो जोगिचेज वैचारिक व्यस्तता के कारण रोज़ा के साथ संवेदनशील समय ज्यादा नहीं बिता पाते हैं. रोज़ा की भावनात्मक आवश्यकताएँ लियो के साथ छीजती जा रही थी. ऐसे समय में रोज़ा अपने प्रिय साथी क्लारा जेटकिन के छोटे बेटे कोत्सा जेटकिन के साथ अपनी भावुक संवेदनाओं और अपनी रागात्मकता को साझा करती रहीं. इन सबके बावजूद भी रोज़ा की मृत्यु तक लियो में रोज़ा के प्रति प्यार और सम्मान काफी ऊँचे स्तर का रहा.
‘रोज़ा एक स्त्री के रूप में मातृत्व का आनंद लेना चाहती थीं.’ (62)
रोज़ा उस युवा बुनकर के जज्बे के लिए गर्भवती होना चाहती थीं, जिस बुनकर ने एक सभा में रोज़ा के सामने लोगों से चिल्लाकर कह रहा था कि, ‘… यदि रोज़ा भी आज गर्भवती होती और हम लोगों के बीच भाषण देती होतीं, तब मुझे यह और अच्छी लगती.’ (49)
रोज़ा यह स्थापित करना चाहती थीं कि मर्दों के बीच एक गर्भवती स्त्री अपना भारी शरीर लिए काम कर सकती है. रोज़ा ने अपने प्रेमी जोगिचेज को पत्र लिखती हुई कहती हैं, सभा में ‘अगली बार जाने के पहले मैं गर्भवती होने की पूरी कोशिश करूँगी.’
रोज़ा को बच्चों से खूब लगाव था. यह इस घटना से समझा जा सकता है जब रोज़ा की दोस्त कार्ल काउत्स्की (जिसके विचार पर बाद के दिनों में रोज़ा ने कई लेख लिखकर कड़ा और तीखा प्रहार किया था. और धीरे-धीरे काउत्स्की से रोज़ा के संबंध बाद में ख़राब हो गए थे) और उसकी पत्नी लूसी काउत्स्की (जो अंत तक रोज़ा के करीब रहीं) 1900 ईस्वी में ‘पाल लाफर्ग के यहाँ मार्क्स की कुछ रचनाओं की लिखित प्रति लाने के लिए गए थे तब रोज़ा ने उनके दोनों बच्चों की माँ के संपूर्ण प्यार के साथ देख-रेख की. रोज़ा उन्हें खाना बनाकर खिलातीं, स्कूल के लिए तैयार करतीं और उनके स्कूल के होमवर्क करने में उनकी मदद करतीं.’ (88) यदि रोज़ा के स्त्री मन का बारीक अध्ययन करना हो तो प्रेम और मातृत्व के सवाल पर रोज़ा के व्यवहार का अध्ययन किया जा सकता है, जहाँ वह क्रांति और आंदोलनों से दूर अपने स्त्री-मन के साथ सुकून से होती हैं. लूसी काउत्सकी के बच्चों के साथ गुजारे गए समय और व्यवहार की छोटी-छोटी घटनाओं में रोज़ा की भूमिका और उसकी सहजता को एक सजग स्त्री-मन या यह कह लें कि हमें एक माँ से साक्षात्कार होता है. और यह भी सच है की रोज़ा माँ बनना चाहती थी लेकिन बन न सकी थी.
रोज़ा को खुले आकाश के नीचे प्रकृति के लंबे विस्तार को निहारते हुए शाम को डूबते सूरज की मद्धिम पड़ती किरणों के बीच सैर करना काफी प्रिय था. वह प्रकृति से सीधे और खुले संवाद करने की हिमायती थीं.
रोज़ा एक कुशल वर्डवाचर थी. वह चिड़ियों से बे इंतहा प्रेम करती थीं. वह जर्मनी में गाने वाली पक्षियों के ख़त्म हो जाने की परिघटना का जिक्र बहुत ही दुखी होकर करती हैं. अपने वैचारिक दोस्त कार्ल लिब्कनेख्त की पत्नी सोफिया लिब्कनेख्त को विश्वयुद्ध के दौरान 12 मई 1918 को जो पत्र रोज़ा लिखती है उसमें वह एक लार्क पक्षी और उसके फुदकते बच्चों, उसके दौड़ने के तरीकों के बारे में विस्तार से लिखती है. वह अपनी जेल यात्राओं में उन पक्षियों को खोजती रहती हैं जिसे उन्होंने पिछली बार जेल में देखा था. तेजी से विकास के कारण चिड़ियों के भोजन और उसके बसेरे के उजड़ जाने से चिंतित रहती थी. वह चिड़ियों की भाषा और उसकी अभिव्यक्ति पर चर्चा करती हुई एकदम से काव्यमय हो जाती थीं. वह घायल फतिंगो की चिंता करती हैं जिसे हजारों चीटियाँ घेरकर जिंदा खाए जा रही है, वह उन चीटियों को अपने रुमाल से दूर भगाकर फतिंगे को घास में सुरक्षित छोड़ देती थी. वह उस भैंस का जिक्र करती है जो एक लौरी में बंधा है और किसी अवरोध के कारण लौरी को आगे खींच नहीं पा रहा है, उसका गाड़ीवान उसे चाबुक की बट से पीट-पीटकर बेहाल किये जा रहा है. भैंस की पीठ पर बहती खून की धार के बीच भैंस की आंखों में फँसी हुई करुणा रोज़ा को भीतर तक झकझोर देती
है.
रोज़ा पौधों से प्यार करती थी. उसने 250 पौधों का एक हर्बेरियम बनाया था. रोज़ा कहती थीं कि ‘मैं फिर से पादप जगतमय हो गई हूँ. यह मेरा प्रिय पेशा है और तनावमुक्त होने का सबसे अच्छा तरीका है.’
रोज़ा युद्ध की विरोधी थी. प्रथम विश्व युद्ध के दौरान रोज़ा युद्ध-विरोधी कार्यक्रमों में सबसे सक्रिय विचारकों में से एक थीं. रोज़ा का मानना था कि, ‘जब व्यापक जनता इस निष्कर्ष पर पहुँच चुकी है कि युद्ध आम जनता के ख़िलाफ़ प्रतिक्रियावादी तथा अ-सामाजिक प्रक्रिया है, तब युद्ध का जारी रहना असम्भव है.’ रोज़ा यह मानती थी की, ‘व्यक्तिगत हत्या का क्रांति से कुछ भी लेना-देना नहीं होता है.’ (53)
रोज़ा 1907 के दूसरे इंटरनेशनल के स्टुट्गार्ट सम्मलेन में लेनिन के साथ एक साझा परचा साम्राज्यवाद, युद्ध तथा उपनिवेश के पर तैयार किया जिसे पढ़ने के लिए लेनिन ने अपनी स्थिति के प्रतिनिधित्व के रूप में दूसरे इंटरनेशनल में रोज़ा का नाम आगे बढ़ाया. वैचारिक यात्रा में वह कई बार लेनिन के नजदीक रहीं. इस सम्मेलन में रोज़ा एकमात्र स्त्री प्रतिनिधि थीं. इस सम्मेलन में रोज़ा ने स्त्री विषयक कई मुद्दों को राजनीतिक जमीन पर प्रस्तुत करने में सफ़ल रहीं. स्त्री के मताधिकार के पक्ष को मजबूत करने के कई तर्क रोज़ा खड़े करती हैं. दूसरे इंटरनेशनल में रोज़ा द्वारा प्रस्तुत किए प्रस्ताव को ‘लेनिन ने सबसे असाधारण और महत्त्वपूर्ण बताया था.’ मजदूरों में महिला मजदूरों की जरूरतों और उसकी आवाज को राजनीतिक मंच पर प्रस्तुत करने वाली सबसे प्रखर स्त्री के रूप में रोज़ा जानी जाती हैं. रोज़ा को हमेशा खुद को स्थापित करने में काफी संघर्ष करना पड़ता था क्योंकि ‘वह यहूदी थी, महिला थीं और एक उत्पीड़ित राष्ट्र पोलैंड की वासी थी.’ (47)
रोज़ा का अपने समकालीनों से संबंध एक दम खुला और अनौपचारिक हुआ करता था. यह संबंध चाहे अगस्त बेबेल के साथ हो, कार्ल लिब्कनेख्त के साथ हो, क्लारा जेटकिन के साथ हो, अल्क्जेंद्रा कोलानतई के साथ हो, लूसी काउत्स्की के साथ हो, फ्रांज मेहरिंग के साथ हो या फिर लेनिन के साथ. वह सभी से खुल कर मिलने वाली स्त्री रही हैं. एक घटना है कि जब बीसवीं सदी के आगमन का एक समारोह आयोजित था तो उसमें रोज़ा अपने जीवन-साथी लियो जोगिचेज के साथ युगल नृत्य कर रहे थे उसी समय अगस्त बेबल उनके बीच आए और जोगिचेज को किनारे करते हुए स्वयं रोज़ा के साथ नृत्य करने लगे. यह एक ऐसा दृश्य था जो उस समारोह को सबसे अलग और यादगार बनाता है.
15 जनवरी 1919 जब बर्लिन की सड़कों पर ठंड पसरी हुई थीं. रोज़ा को उसके वैचारिक सहयात्री कार्ल लिब्कनेख्त के साथ गिरफ्तार कर बर्लिन के विल्वेर्स अपार्टमेंट ले जाया और फिर वहाँ से इडेन नाम के एक होटल में ले जाया गया. पहले कार्ल लिब्कनेख्त को रायफल के बट से मारा गया फिर धक्का देकर उसके पीठ में गोली मार दी गई. फिर थोड़ी देर बाद रोज़ा को भी पहले रायफल के बट से मारा गया और गोली मारकर उसकी लाश को बर्लिन के पास बनेवाली एक नहर में फेंक दिया गया. कई महीनों बाद वहाँ से रोज़ा का कंकाल बरामद किया गया.
रोज़ा की मृत्यु को लेकर विवाद रहा है. हालाँकि यह इस जीवनी का हिस्सा नहीं है लेकिन यह जानना जरूरी है कि रोज़ा का शव रोज़ा की ही है इसके लिए ऑटोप्सी 13 जून 1919 को की गई. और उसके बाद उसी दिन फ्रीडरिख स्फेल्ड कब्रिस्तान में रोज़ा को दफना दिया गया. उसके बाद 2009 तक रोज़ा के शव की पहचान को लेकर काफी विवाद चलता रहा. कुछ पुराने पोस्टल स्टाम्प जिसे रोज़ा द्वारा इस्तेमाल की गई है, कहा गया था उसकी सघन जाँच की गई, लेकिन उससे भी समाधान नहीं निकल पाया फिर उसके बाद यह विचार आया कि रोज़ा का कोई रक्त-संबधी मिल जाए तो उसके डी एन ए की जाँच कर पता लगाया जा सकता है. 2009 में ही 79 वर्ष की एक महिला इरेने बोर्डे जो स्वयं को रोज़ा की भतीजी बताती थी, ने डी एन ए टेस्ट के लिए अपने बाल दिए. उसके टेस्ट से भी यह साबित नहीं हो सका कि कब्र में रखे गए कंकाल रोज़ा के ही हैं.
रोज़ा लक्ज़मबर्ग की पूरी दास्तान को सन 1966 में जे.पी. नेटल ने अपनी जीवनी में दर्ज किया है. 1980 में जर्मन फ़िल्म डायरेक्टर वारवारेटा मौन टोरोटा (1942) ने रोज़ा पर 123 मिनट की एक सराहनीय फ़िल्म बनाई है. वारवारेटा मौन टोरोटा नई जर्मन सिनेमा आंदोलन की एक प्रमुख हस्ताक्षर रहीं हैं. इस फ़िल्म को बेस्ट फीचर फ़िल्म का जर्मन फ़िल्म अवार्ड मिला और रोज़ा का अभिनय करने वाली जर्मन अभिनेत्री बारबरा सुकोवा (1950) को कांस फ़िल्म फेस्टिवल में बेस्ट अभिनेत्री के लिए जर्मन फ़िल्म अवार्ड प्राप्त हुआ. बाद में जर्मन अभिनेत्री बारबरा सुकोवा, स्विट्ज़रलैंड के प्रसिद्ध उपन्यासकार मैक्स रुडोल्फ फ्रिस्च (1911-1991) के चर्चित उपन्यास ‘होमो फाबर’ पर आधारित वोल्कर स्चल्लोन्दोर्फ्फ़ (1939) की फ़िल्म वायेजर (1991) में अभिनय करके काफी चर्चित हुई.
रोज़ा लक्ज़मबर्ग को इसलिए भी पढ़ा जाना चाहिए कि जिससे हम जान सकें कि अपने समय का कोई विचारक यह क्यों कहता है कि- “मैं उनके मस्तिष्क को शब्दों की ताकत से नहीं, बल्कि अपनी अंतर्दृष्टि की सांसों से, प्रतिबद्धता की ताकत से और संप्रेषण की प्रबलता से झकझोरना चाहती हूँ. कैसे ? कहाँ ? मैं अब भी नहीं जानती.” (48)
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अमरेन्द्र कुमार शर्मा
कविताई और आलोचना लेखन
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा
amrendrakumarsharma@gmail.com