रोहिणी फ़िल्म और टेलिविज़न के साथ की थियेटर की भी प्रबुद्ध कलाकार हैं. अर्थ, सारांश और गाँधी जैसी फिल्मों में उनका अविस्मरणीय अभिनय है. सुशील कृष्ण गोरे ने विस्तृत फलक पर रोहिणी हट्टंगड़ी से अभिनय जगत पर बात की है.
आजकल क्या कर रही हैं?
मुख्य रूप से टेलीविजन धारावाहिकों में ही काम कर रही हूँ. इस समय \’मायके से बँधी डोर\’ धारावाहिक की शूटिंग में वयस्त हूँ. लेकिन अवसर मिलता है तो नाटक भी खूब मन से करती हूँ. रामदास भटकल निर्देशित नाटक \’जगदम्बा\’ में काम किया. इस नाटक की मराठी और हिन्दी में लगभग 30 प्रस्तुतियां हो चुकी हैं.
आपकी बुनियाद रंगमंच यानी थियेटर है. लेकिन तीन दशकों का एक लंबा सफ़र आपने हिंदी सिनेमा में भी तय किया है – इस दौरान मुख्य और समांतर दोनों धाराओं की उम्दा फिल्में आपने कीं. थियेटर और सिनेमा के बीच आपने संतुलन कैसे बनाया? दोनों क्षेत्रों में आपका एक विशेष स्थान है.
हां. नाटक और थियेटर मेरी नींव है. थियेटर एवं सिनेमा दोनों ही व्यक्ति की कलात्मक प्रतिभा की अभिव्यक्ति के सशक्त माध्यम हैं. दोनों अपनी कृतियों को समाज के वृहत्तर आयामों से जोड़कर कला की प्रासंगिकता सिद्ध करते हैं. नाटक के लिए कड़े अभ्यास और तैयारी की जरूरत पड़ती है और अभिनेता को इसके बाद ही सफल प्रस्तुति का सुख प्राप्त हो सकता है. नाटक अपने स्वभाव से ही प्रयोगधर्मी होता है. वह परिस्थिति और समय के प्रभाव को वहन करता है. नाटक कलाकार के समक्ष हर क्षण एक नई चुनौती पेश करता है जिससे अभिनेता या अभिनेत्री हर क्षण पहले से अधिक मैच्योर होती जाती है. उसे अपने किरदार के अनुभव से खुद को एसोसिएट करना पड़ता है. अनुभवों एवं संवेदनाओं के धरातल पर जब एक्टर अपने किरदार में घुल–मिल जाए तो नाटक को ऊंचाई प्राप्त होती है. मैंने \”अपराजिता\” में एक परित्यक्ता के किरदार को इसी प्रकार जी लेने का प्रयास किया है. एक परित्यक्ता के बाहर–भीतर के संघर्ष तथा अपनी अस्मिता को रेखांकित करने की जद्दोज़हद को अपने किरदार में जीवंत कर देना सचमुच एक अनूठा अनुभव होता है जो सिर्फ़ थियेटर ही दे सकता है. मेरे लिए सिनेमा या टीवी सीरियल में एक्टिंग थियेटर का एक्सटेंशन है.
दूसरी तरफ फिल्मों में ट्रायल–एरर का मौका रहता है. उसमें अपने रोल की तैयारी नाटकों जैसी नहीं करनी पड़ती है. पूरी फिल्म टुकड़ों में बन सकती है और बनती भी है. फिल्म के किसी भाग का फिल्मांकन आगे–पीछे किया जा सकता है. एडिटिंग के चरण में फिल्मों का सिंक्रोनाइजेशन कर लेना संभव है. लेकिन नाटक में यह संभव नहीं है. तकनीकी उन्नति ने भी फिल्मों के निर्माण को बहुआयामी बना दिया है. फिल्में बहुत हाइटेक होती गई हैं लेकिन नाटक के साधन लगभग वही हैं.
ऑफ-बीट सिनेमा को कैसे समझा जाए?
मेरी राय में यह समानांतर सिनेमा और मुख्यधारा के व्यावसायिक सिनेमा के ध्रुवांतों का मध्य-बिंदु है. इसमें समानांतर सिनेमा की प्रयोगधर्मिता है और मुख्यधारा सिनेमा की व्यावसायिकता भी. आप देखेंगे कि इस तरह की फिल्मों में मनोरंजन का फेस वैल्यू भी सुरक्षित रहता है और साथ ही जीवन के एग्जॉटिक पहलू सिनेमा की थीम बन रहे हैं. यहाँ रियलिज्म और फैंटसी का एक सधा हुआ और नपा-तुला मिश्रण है. इसमें हमारे आसपास के तेजी से बदलते यथार्थ को कैमरे की आँख से पकड़ने की कूवत है. यह समकालीन मुद्दों से भटकाव की रूमानी फिल्मी परंपरा से जरा हटकर उनके बीचोबीच की समस्याग्रस्त और चुनौतीप्रधान ज़िंदगी के साथ Integrate या Involve होने का एक अलग सिनेमाई नवाचार है. इसलिए कभी-कभी यह अपने फिल्मांकन या ट्रीटमेंट में surrealistic भी नज़र आता है. यही वज़ह है इन फिल्मों में वास्तविक जीवन का भदेसपन भी दिख जाता है और उसकी अपरिष्कृत जीवन शैली भी. काफी विस्तृत कैनवस ऊभरकर सामने आ रहा है ऑफ-बीट सिनेमा का. बॉलीवुड में इसका अपना एक Genre विकसित हो रहा है. काफी क्षमता और पोटेंशियल है. आप मुन्नभाई एमबीबीएस, अस्तित्व, फैशन, थ्री इडिएट्स, डेली बेली जैसी फिल्मों को इस श्रेणी में रख सकते हैं.
सिनेमा के बाद थियेटर पर लौटते हैं. आप एनएसडी की बेस्ट एक्ट्रेस रहीं हैं– थियेटर गुरु इब्राहिम अल्काजी आपके गुरु रहे हैं – तबके थियेटर और आज के थियेटर में क्या मौलिक अंतर पा रही हैं?
थियेटर का अपना एक समाजशास्त्र होता है. वह सोशल कॉज के लिए प्रयत्नशील रहता है. देख लीजिए आजादी के पहले और बाद के काफी वर्षों तक थियेटर लोकसमाज के साथ जुड़ा रहा है. बल्कि यूं कहा जाए कि थियेटर जनजागृति का एक सशक्त माध्यम रहा. वह लोगों में गलत व्यवस्था के विरोध की संस्कृति पैदा करने का अचूक साधन था. अंग्रेजी हुकूमत के विरुद्ध जनमत खड़ा करने में थियेटर की भूमिका भूली नहीं जा सकती. थियेटर हमें जागरूक बनाता है. रही बात आज के थियेटर की तो मेरा मानना है कि आज भी इस विधा में मूर्धन्य निर्देशक एवं आर्टिस्ट काम कर रहे हैं. उनकी काबिलियत से थियेटर आज के भारी व्यावसायिक दौर में भी पूरे दमखम के साथ टिका है. देखा जाए तो आज के शो बिज के ढेर सारे अभिनेता/अभिनेत्री मूल रूप से थियेटर के ही हैं.
भारत में नाटकों का इतिहास हजारों साल पुराना है और हमारे शास्त्रों में नाटक को पंचम वेद कहा गया है? भरतमुनि से लेकर भास, भवभूति, कालिदास आदि के संस्कृत नाटकों की एक लंबी परंपरा रही है. फ़िर भी यह विधा इतनी अशक्त एवं उपेक्षित है – क्यों?
बिल्कुल सही है. भरतमुनि द्वारा रचित नाट्यशास्त्र इस विधा का पहला ग्रंथ है. पश्चिम में नाटक जीवन को ज्यों का त्यों प्रस्तुत करता है जब कि भारत में जीवन को कैसा होना चाहिए – उसकी प्रस्तुति है. हम अपने नाटकों के विकास को तीन चरणों में बांट सकते हैं – पहला शास्त्रीय दूसरा परंपरागत और तीसरा आधुनिक. पहले चरण में संस्कृत नाटक आते हैं जो नाट्यशास्त्र के नियमों और सूत्रों पर आधारित थे. भास, कालिदास, शुद्रक, विशाखदत्त तथा भवभूति की नाट्यकृतियां इस युग की प्रतिनिधि नाट्य रचनाएं हैं. दूसरे चरण का थियेटर श्रुति परंपरा पर आधारित रहा. इसका उद्भव भारत में शासन व्यवस्थाओं में परिवर्तन तथा विभिन्न क्षेत्रीय भाषाओं के साथ हुआ. इस युग को लोक या परंपरागत रंगमंच कहा जाता है. शास्त्रीय नाटकों के नागर परिवेश से भिन्न इनका परिवेश स्थानीय लोकसंस्कृति से जुड़ा था. उत्तर भारत की रामलीला, रासलीला, भांड–नौटंकी, वांग इसके उदाहरण हैं. तीसरे चरण में आकर नाटकों का तेवर राजनीतिक एवं सामाजिक संदर्भों से जुड़ गया. जैसा कि मैंने पहले ही कहा है कि अंग्रेजी हुकूमत के दौरान यह प्रोटेस्ट का एक सक्रिय माध्यम बन गया. आपको मालूम होगा कि थियेटर के जबरदस्त प्रभाव से घबराकर अंग्रेजी हुकूमत ने ड्रामेटिक परफारमेंस एक्ट, 1876 लागू कर दिया था. यहां तक के सफ़र में भारतीय रंगमंच का स्वरूप एवं शैली दोनों बदलकर आम आदमी पर केंद्रित हो
रंगमंच के पुरोधा हबीब तनवीर एवं बादल सरकार जैसे दिग्गज रंगकर्मी मृत्युपर्यन्त सक्रिय रहे तो कैसे माना जाए कि रंगमंच का भविष्य नहीं है. बंगाली थियेटर, पारसी थियेटर, इप्टा, मराठी संगीत नाटक और स्व.पृथ्वीराज कपूर के पृथ्वी थियेटर की भूमिकाएं भारतीय रंगमंच की यात्रा में मील के पत्थर हैं.
छठवें दशक में कन्नड़ में गिरीश कर्नाड, मराठी में विजय तेंदुलकर, बंगला में बादल सरकार तथा हिंदी में मोहन राकेश जैसे नाटक लेखक एक साथ अपनी–अपनी भाषा में मूल रूप में नाटक लिखने की प्राचीन परंपरा को पुनर्जीवित करने का ऐतिहासिक काम कर रहे थे.
मौजूदा परिदृश्य में भी रंगमंच में अभिनव प्रयोग हो रहे हैं. मंच पर कहानी की उपस्थिति से इस विधा के नए आयाम सृजित हुए हैं. सत्यदेव दुबे, जयदेव हट्टंगड़ी, दिनेश ठाकुर, देवेंद्र राज अंकुर, उषा गांगुली, नसीरुद्दीन शाह, मोहन महर्षि, अरविंद गौड़, रोबिन दास, सुरेश शर्मा, रंजीत कपूर, श्रीश डोभालसहित अन्य भारतीय भाषाओं में सैकड़ों रंगकर्मी उल्लखेनीय कार्य कर रहे हैं. इसलिए यह विधा उपेक्षित और कमजोर नहीं पड़ी है. थियेटर था, थियेटर है, थियेटर रहेगा.
जिस प्रकार हमारी पूरी संस्कृति शास्त्र एवं लोक के द्वंद्व की मार झेलती रही है और सामूहिक चेतना का विकास सदियों तक अवरुद्ध रहा – क्या नाट्य से लोकधर्म या लोकरंग का अभाव उसी का एक आयाम नहीं है?
हां! थोड़ी सच्चाई जरूर है इस बात में कि हमारी संस्कृति की संपूर्ण धारा में लोक एवं शास्त्र दो छोर रहे हैं. लेकिन दोनों में समन्वय के भी स्थल हैं जो विस्तृत विश्लेषण की मांग करते हैं. यह भी सच है कि अधिकतर संस्कृत नाटकों का परिवेश आभिजात्य है. उनके पात्र देवता या राजघरानों से हैं. वे जन की संवेदना या उसके साधारण जीवन से कटे हैं. वे नायकचरित हैं लोकगाथा नहीं. फिर भी इसके समातंर लोक नाटकों की एक समृद्ध परंपरा भी रही है जो लोक संस्कृति के मानस उवं उसकी चेतना को अभिव्यक्त करते हैं. ये नाटकों का फोक फॉर्म है. पूरे भारत में इनकी अनेक शैलियां है. सभी ने अपनी भाषा में लोकमन को छुआ है. नौटंकी, खेला, कृष्ण पारिजात, तमाशा, भवाई इत्यादि. लेकिन आज का नाटक तमाम रुढ़ियों का अतिक्रमण करते हुए मनुष्य और उसके जीवन की जटिल परिस्थितियों को अपनी पूरी संवेदना एवं शिद्दत से प्रस्तुत कर रहा है. आज का नाटक पूर्वाग्रहों से मुक्त हो चुका है.
हमारे यहाँ के ड्रामा स्कूलों से प्रशिक्षित होकर निकले रंगकर्मी ब्रेख्त, स्तानिस्लाव्स्की आदि के नाम ज्यादा रटते हैं. वे अपनी लोक या शास्त्रीय शैलियों के साथ अंतरंग नहीं होते. क्या इस बात में दम है?
सहमत नहीं हूँ. औपचारिक पाठ्यक्रमों के दौरान नाट्यशास्त्र के पुरोधा के रूप में इन सब को पढ़ाया जाता है. उनके नाट्य-सिद्धांतों को पढ़ाया जाता है. इसमें कोई असंगति तो नहीं दिखती. रही बात लोक और शास्त्र की तो आज के परिदृश्य में भी लोकरंगमंच में सक्रियता काफी है. नीलम मानसी का काफी जोर लोकनाट्य पर है.
भवई, तमाशा, भाँड़, नौटंकी, यक्षगान, नाचा लोकनाट्य के विविध रूप हैं. इनका आज भी महत्व है. हबीब तनवीर, के.पणिक्कर जैसी विभूतियों ने लैंडमार्क काम इस विधा में किया है. अपनी प्रतिभा से इन लोगों ने लोक रंगमंच की इन शैलियों को अपने अलग अंदाज में विकसित भी किया है.
कुछ लोग नाटकों को अब एक \’स्पोकेन ड्रामा\’ कहने लगे हैं क्योंकि वे शब्दबहुल होते जा रहे हैं. अभिनय की स्वयत्तता आंगिक अभिव्यक्तियों में कहीं अंतर्भुक्त होती थी जो खो रही है. दृश्यृ-श्रव्य माध्यमों के प्रौद्योगिकीप्रसूत नए माध्यमों ने मौन की सब जगहों को बाइटों और डिजीटलों से भर दिया है.
मैं इससे सहमत नहीं हूँ. मैं सारे देश के परिप्रेक्ष्य में कह सकती हूँ कि थियेटर जहाँ भी हो रहा है वहाँ उसमें बड़ी संभावनाएं दिख रही हैं. शब्दों से ज्यादा अभिनय को महत्व दिया जाता है. रतन थियाम, कावलम पणिक्कर, एम.के.रैना, बंशी कौल तो काफी वरिष्ठ पीढ़ी के रंगकर्मी हैं जिनके नाटक मील के पत्थर हैं. यहां तक कि नए रंगकलाकारों में बहरूल इस्लाम, नीलम मानसी, ऊषा गांगुली के नाटकों को आप केवल देखकर समझ सकते हैं.
यदि यह सही है तो आप जैसी वरिष्ठ रंगकर्मी एवं रंग चिंतक से नाट्यमंच में परिवर्तन या उसके उद्धार के लिए क्या अपेक्षा की जाए?
एक सामान्य रंगकर्मी के रूप में मेरी कामना रही है और इसके लिए मेरी कोशिश भी रही है कि थियेटर की संस्कृति विकसित हो. थियेटर हमारे जीवन के साथ अभिन्न रूप से जुड़े. इसके लिए जरूरी है कि रंगकर्म को प्रतिबद्धता के साथ लिया जाए. केवल कैरियर की भावना के साथ इसमें आना इस विधा के साथ न्यायपूर्ण नहीं है. दूसरे व्यावसायिक माध्यमों में कैरियर आपके लिए मूलमंत्र हो सकता है लेकिन रंगकर्म एक खास तरह की कलात्मक निष्ठा एवं सांस्कृतिक प्रतिबद्धता के साथ की जाने वाली साधना से कम नहीं है. हम लोग नए रंगकर्मियों को इसी रंग साधना के लिए प्रेरित करते हैं. अगर कोई थियेटर में पारंगत हो गया तो थियेटर का उत्थान होगा ही, साथ ही उसकी नाटकीय प्रतिभा से दूसरे माध्यमों का भी नया संस्कार होगा. हमें रंगमंच की नई पीढ़ी से काफी उम्मीद है क्यों कि उनमें एक साथ रंग साधना और नित–नवीन मीडिया के साथ तादात्म्य बैठाने की क्षमता दोनों है.
माना जा रहा है कि सिनेमा और अब टीवी सीरियल कला, प्रतिष्ठा और वैभव तीनों कलाकारों को दे रहे हैं – इसलिए आज के दौर में इन माध्यमों को नकारा नहीं जा सकता. क्या आप भी इसे एक सच मानती हैं?
देखिए इसकी वज़ह यह है कि सिनेमा और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के तकाजे व्यावसायिक होने के साथ-साथ मनोरंजन पर आधारित हैं. इसके अलावा उनकी पहुंच घर–घर तक है. इसलिए इन माध्यमों से जुड़ा कलाकार लोकप्रिय हो जाता है. आज के दौर में यहां भी कड़ी प्रतिस्पर्धा है. वही कलाकार टिक पाता है जिसमें कोई विशेषता होती है. इसलिए ऐसा भी नहीं कि सिनेमा या टीवी में प्रतिभा की जरूरत नहीं पड़ती. लेकिन इतना जरूर है कि थियेटर का संदेश सिनेमा से हमेशा बड़ा रहा है. सस्ते मनोरंजन और जीवन के विकट घात–प्रतिघात के चित्रण में जो फ़र्क होता है वही फ़र्क थियेटर और मनोरंजन उद्योग की प्रस्तुतियों में होता है. सिनेमा बनाम थियेटर इस मुद्दे पर अलग से लंबी बातचीत की जा सकती है.
क्या टेलीविजन धारावाहिक Saas-Bahu Saga यानी सास-बहु कथा के अनवरत क्रम से मुक्त नहीं होंगे?
हम रात-दिन चलने वाले चैनलों के 24X7 युग में जी रहे हैं. चैनल कंटेन्ट के मामले में नवोन्मेषी होते जा रहे हैं. इस टीआरपी संचालित वियूंग स्पेस पर कब्ज़ा जमाने के लिए सभी चैनल एक दूसरे से आगे निकलना चाहते हैं. बेशक उनके व्यावसायिक तकाजे निहित होते हैं. टी.वी. का एक बड़ा दर्शक वर्ग महिलाओं का है जिसको केंद्र में रखकर ऐसे धारावाहिक बनाए जाते हैं. इसलिए वे एक ख़ास ढंग से घरेलू या सास-बहू कथाक्रम बन गए हैं. लेकिन शुद्ध समीक्षकीय दृष्टि से बार-बार उन्हें घटिया स्तर का होना बताना भी एक पूर्वाग्रह है. यदि आप ग़ौर से देखें तो बहुत अच्छे धारावाहिकों का भी निर्माण होता है.
आपको थियेटर और सिनेमा दोनों का इतना व्यापक अनुभव है. क्या कभी फिल्म निर्देशन भी करेंगी?
अभी तक न कोई इरादा है और न ही कोई योजना. मैं समझती हूँ निर्देशन के लिए अपना एक अलग प्रकार का मानस और विजन होता है. एक अलग माइंडसेट. मैं उस रूप में अपने निर्देशन के करीब नहीं पाती हूँ. मेरे पति स्व.जयदेव जी निर्देशक थे. मैंने देखा है कि क्या-क्या चीजें जरूरी होती हैं. बहुत शिद्दत चाहिए तब जाकर कोई फ्रेम बनकर निकलता है.
गाँधी में काम करने के बाद आप घर-घर में लोकप्रिय हो गईं. अंतर्राष्ट्रीय ख्याति मिली. कैसा लग रहा था कस्तूरबा का किरदार निभाते वक्त?
ज़ाहिर है – वह एक बहुत समृद्ध और महान अनुभव था. गाँधी जैसी शख्सियत के जीवन से जुड़ा कोई भी प्रसंग हमेशा महान है. फिर \’बा\’ तो उनकी जीवन-संगिनी ही थीं. लिहाज़ा उनका किरदार भी बहुत चुनौतियों से भरा था. उसे परदे पर जीना एक अभूतपूर्व अनुभव था. लग रहा था fulfill हो रही हूँ. अभिव्यक्त हो रही हूँ.
नई पीढ़ी से कुछ……..
मैं नई पीढ़ी के रंगकर्मियों से यही कहना चाहूंगी कि वे थियेटर के लिए अपनी प्रतिबद्धता पैदा करें. उसे स्टेपिंग स्टोन के रूप में इस्तेमाल न करें. थियेटर के प्रशिक्षण में तपकर कोई भी कलाकार अपने अभिनय की एक अनूठी छाप छोड़ सकता है– माध्यम चाहे कोई भी हो.