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Home » विजया सिंह की कविताएँ

विजया सिंह की कविताएँ

विजया सिंह चंडीगढ़ में अंग्रेज़ी पढ़ाती हैं और फ़िल्मों में रुचि रखती हैं. उनकी किताब  Level Crossing: Railway Journeys in Hindi Cinema, Orient Blackswan (2017) से प्रकाशित हुई है. उन्होंने दो लघु फ़िल्मों का निर्देशन भी किया है:  Unscheduled Arrivals (2015) और अंधेरे में (2016). साहित्य अकादेमी ने उनका कविता संग्रह ‘First Instinct’ प्रकाशित किया […]

by arun dev
February 1, 2020
in कविता
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विजया सिंह चंडीगढ़ में अंग्रेज़ी पढ़ाती हैं और फ़िल्मों में रुचि रखती हैं. उनकी किताब  Level Crossing: Railway Journeys in Hindi Cinema, Orient Blackswan (2017) से प्रकाशित हुई है. उन्होंने दो लघु फ़िल्मों का निर्देशन भी किया है:  Unscheduled Arrivals (2015) और अंधेरे में (2016). साहित्य अकादेमी ने उनका कविता संग्रह ‘First Instinct’ प्रकाशित किया है.

विजया को समालोचन पर आप पढ़ते आ रहें हैं. विजया सिंह की कविताएँ न केवल समकालीन यथार्थ से मुठभेड़ करती हैं बल्कि इतिहास में जाती हैं और उस इतिहास से वर्तमान को देखने की कोशिश करती हैं. उनकी कविताओं में आख्यान रहता है, और कौतुक भी एक मूल्य हो सकता है इसे विजया की कविताओं में देखा जा सकता है. समय में गहरे धंस कर उससे पार जाती इन कविताओं को पढ़ना एक अनुभव है.उनकी कुछ नयी कविताएँ प्रस्तुत हैं.





विजया सिंह की कविताएँ                                                           

शाहीन बाग की औरतें

शाहीन बाग की औरतों का ज़िक्र छिड़ा
बरगद के नीचे पंच परमेश्वर ने सुनाया फ़ैसला 
गुनहगार हैं ये औरतें
बस एक दो दिन और
सड़कें क्या इनके मियाँ की हैं?
हम करदाताओं के पैसों से बनी हैं ये सड़कें
लोगों के चलने  
गाड़ियों के आने-जाने के लिए
इनके पसरने के लिए नहीं
औरतों ने कहा :
यहाँ हम अनार छीलेंगी
स्वेटर बुनेंगी
पिलाएँगी चाय
देखेंगीं चाँद  
करेंगी बहस
पढ़ेंगी संविधान
बजाएँगी गिटार
लहरायेंगी तिरंगा
देंगी अपना दिल
जो उतना ही लाल है जितना हर किसी का  
गाएँगी मर्सिया
उनके लिए
जो जीते जी मर चुके
हम करेंगी पड़ताल
धड़कन की उनकी
जो धकेलने को बेताब हैं हमें
सरहद के उस पार
ये सड़कें हमारी माएँ हैं
इसके किनारे खड़ा यह पेड़
बचाना है इसे कटने से 
रात की रानी से महकाना है
इस भारी हवा को
जो ठहर गई है 
सेकने हैं भुट्टे
चबाने हैं चने
देना है एक और मौक़ा
उस हिरन को
जो भाग रहा है शिकारी से  
वह जो बना रही है सड़क
उसके बच्चों के पास नहीं है स्वेटर
यह सड़क इसने बनाई है
मिलके उसके साथ जिसके पास नहीं हैं गर्म कपड़े और पेट भर खाना. 

स्वर्ण चंपा दहक रहे हैं

तुम्हारे अखरोट
हम खा गए
तुम्हारे बादाम
चिल्गोज़े चबा गए
केसर-दूध और दही में घोल पी गए
सेब, आडू , खुमानी
सब पर हमारी नज़र है
तुम्हारे ग़लीचे, शाल
और लकड़ी की नक्काशी वाली अलमारियां
हमें चाहियें अपने घरों के लिये
चाहिये हमें तुम्हारी नदियों का पानी
पहाड़ों, झरनों, और चरागाहों के नज़ारे
गर्मी की छुट्टियों  के लिये
रोगन-जोश और कहवा
इनके ज़ायके भी चाहियें
और तो और हमारे एल्बमों के लिये
हमें चाहिए एक फ़ोटो कश्मीरी लिबास में 
तुमने मेहमान नवाज़ी के सब कर्तव्य निभाए
अपनी गाड़ियों में तुम हमें ऊँचे –ऊँचे पहाड़ों से लौटा लाये
बदले में हमने क्या दिया ?
प्रजातंत्र  ?
जिसके एक हाथ में बंदूक, दूसरे में भोंपू
आँखों की पुतलियों के बराबर छर्रे
भेदने को तुम्हारे बच्चों के आकाश
जवान जिस्मों पर नीले-लाल निशान
तुम्हें उठते ही बैठा दिया जाता है
बैठते ही उठा दिया जाता है
तुम्हारे सवाल हमारे कानों में शोलों की तरह दहकते हैं
और अंगारे बन बरसते हैं स्वर्ण चंपा की पंखुड़ियों पर
तुम्हारी चीखें हमें सुनाई नहीं पड़तीं
तुम्हारे ज़ख़्म हम भरने नहीं देते
हम तुम्हारे बीच ऐसे घूमते हैं कि तुम हमें दिखाई नहीं देते.

बहनें

पूछना है मुझे उनसे
क्या तुमने जाना
कभी भी 
सुख
चरम सुख
आलिंगन में उसके
जिसकी बाँह पकड़
गुड़िया सी सजी
गहनों से लदी
तुम घूमीं 
अग्नि के चारों ओर
क्या छुआ कभी अपने आप को
वहाँ जहाँ मना किया सबने छूने से
क्या देखा कभी ख़ुद को 
निर्वस्त्र
नहाते हुए नहीं
उत्सुकता से
बेलाज  
शीशे में ?
क्या ऐसा कोई शीशा था
तुम्हारे 
हमारे घर में ?
कैसे छुआ उसने तुम्हें पहली बार
क्या उसे आता था करना प्यार
क्या कुछ कहा उसने कान में तुम्हारे?
क्या तुम भी कुछ कह पायीं ?
कैसे सौंपती हो अपने को हर बार 
क्या उसे पा सकी कभी 
बाहर, अंदर, कहीं भी ?
सोने सी काया
बिजली सा दिमाग़
चुस्त हाथ पैर
मृदु मुस्कान
कोकिल कंठ 
क्या पढ़ा कभी अश्लील साहित्य
देखी कोई फ़िल्म ऐसी
जिसने जगाया कामना को
और नहीं दिया
अपराधबोध
कितना पाया अपनी देह को?

राम राज्य

नया
आकार
ले रहा है
इस तरह
कि बदल रही है
साँस
धड़कन
रक्त चाप 
बड़ रही है
लहू में
मात्रा शक्कर की
बदल रहे हैं रास्ते
जैव रासायनिक क्रियाओं के
ख़ून हो रहा है गाढ़ा
इतना कि
जमने लगा है
धमनियों में

 (दो)

बिखरेगी मस्जिद 
बनेगा मंदिर
होगा राज्याभिषेक
फिर एक बार
श्री राम का
और निकास वैदेही का  
  

(तीन)

लक्ष्मण ने कहा
नहीं कर पाएँगे वे राम की आज्ञा का पालन
फिर भी किया ही उन्होंने
कहाँ थीं उस वक़्त
कौसल्या, सुमित्रा
उर्मिला और वे सब
जो रो-रो हुईं हलकान
जब राम गए वनवास
कहाँ थे किन्नर
जो लौटे नहीं वापस
तब तक
जब तक
लौटे नहीं राम
करुणा?
किस के लिये?
राम ही ना

जो चूक जाते हैं हर बार.

शिमला में मार्को पोलो

शिमला में मार्कों पोलो का आना तय नहीं था
फिर भी लोगों को विश्वास था कि एक दिन वह आएगा ज़रूर
बहुत दिनों से वे भूल चुके थे 
सड़कों के नाम, पुरानी पड़ चुकी इमारतों के नक़्शे
रास्ते, जिन्हें बुरांश क़ब्ज़ा चुके थे 
पेड़, जो सरकते गए थे पीछे 
ज्यों-ज्यों देवदार घेरते गए जंगल
पानी के स्रोत भी वे भूला चुके थे
भूलने लगे थे वे शहर का अंतरंग भूगोल
और इतिहास वाइस रॉय की इमारत से पहले का
बस इतना उन्हें याद रहा कि बेगार करवाई गई थी
खाने में मिली थी डबल रोटी मुरब्बे के साथ
जो किसी को हज़म नहीं हुई
कुछ दिन काम बंद रहा
लाट साहब नाराज़ हुए बहुत
पत्नी से विरह नाक़ाबिले बर्दाश्त हो रहा था 
दूरबीन से सतलुज का हरा उन्हें बहुत भाता 
पर ये नज़ारे अकेले देखते-देखते वे उकताने लगे  
उन्हें चाहिए थे सेर-सपाटे, वाइन के ज़ाम, नाच के हसीन पल
फ़ॉक्स ट्रॉट के क़दम- दो आगे, एक बाएँ  
फिर संगिनी का- दो आगे, एक दाएँ
दाएँ, बाएँ, बाएँ, दाएँ
धरती के अनंत घेरे
संगीत की धुन पर
कहाँ थे बाक और ब्रॉम्ज़
संतोष करना पड़ रहा था झींग़ुर ही से
करुणा उनमें कम थी कुतूहल बहुत अधिक
झींगुर के पैर उलटे लटका कर निरीक्षण करवाया उसके गले का
मिला कुछ नहीं तो नाम क्रिकेट पड़वा दिया
उससे भी संतोष न हुआ तो द्विपद नामकरण करवाया 
नामकरण में मज़ा आने लगा तो
जितने जीव जंतु, वनस्पति थे आस-पास सबको मिले नए नाम 
चाय के बाग़ान लगवाए
सुंदर कप और केतलियां मँगवाई ढेर की ढेर चीन से
बर्मा के जंगल कटवाए
टीक से बनवाए फ़र्श, छतें और ज़ीने महीन कारीगरी के
फूलों की क्यारियाँ, महकती लताएँ, चिनार के पेड़ 
रास्ते बनवाए,  ट्रेनें चलवाईं
सुरंगे निकालीं, परिदृश्य बनाए
रंगमंच खुलवाए
आकशगंगा, किन्नर कैलाश
और चुँधियाती बर्फ़ के अनंत नज़ारों के लिए
बनवाया एक ख़ास बरामदा
लेडी डफ़रीन का टेरस
तिब्बत तक फैला साम्राज्य
नदियाँ, पहाड़ सब पर उनकी नज़र थी
सिर्फ़ इशारों ही से बदल देते थे वे सदियों का चलन
देखते-देखते लोगों के परिधान बदलने लगे
बदल गए जीने के तरीक़े
भाषाएँ विलुप्त होने लगीं
जैसे स्लेट पर कोई गीला कपड़ा फेर दे 
शाक्य मुनि की भूमि-स्पर्श वाली मूर्ति
पत्रभार के काम में आ लगी 
उनके सिर पर हाथ फेरते
साहब, सभ्यताओं के नक़्शे बदलते जाते 
कहाँ किस देश कितने घुड़सवार 
गोला बारूद, तोपें, बन्दूकें 
काले सैनिक, गोरे अफ़सर
कौन-कौन किस दिशा में, कहाँ तक
कब-कब 
वे तय कर देते 
बनखौर पर बंदरों की उछल-कूद देखते-देखते  
अंत तक-जब तक उनकी माली हालत ख़राब नहीं हुई  
और ज्येष्ठ पुत्र की मृत्यु
उनके उन्नत ललाट पर शिकन तक न आई

(दो)

समरहिल के लिए क्या कहीं कोई ट्रेन थी ?
वहाँ कैसे पहुँचते थे ?
अगर सपनों में नहीं
तो क्या सुबह-सवेरे?
घोड़ों पर या फिर पैदल ही ?
जुजुराणा की बिलखती आवाज़
के किनारे-किनारे
भराल के खुरों के निशानों
में ठहरे पानी में अपना अक्स देखते
माघ या चैत्र
किस सदी बुरांश सबसे अधिक खिले थे?
क्या अब भी
पज्जा के फूल सैलानी चोरी से 
अपने बस्तों में छुपा ले जाते हैं ?
क्या वृंदा अब भी सैर पर जाने से पहले
जेबें चोक्लेट से भर लेती है ?
क्या उसकी पीठ अब और झुक आई है ?
ऐननडेल पर अनंत तक फैली सफ़ेद चादरें
तकिए के गिलाफ़
और वीआइपी जाँघिये, हर रंग के
जिनके इलास्टिक ढ़ीले पड़ चुके हैं
सिर्फ़ नाड़े और कमरबंद उन्हें थामे रखेंगे 
धरती- जो खींचती है हर चीज को अपनी ओर –
के पास लौट जाने से
सैलानियों के थके कदम और झुके कंधे
नहीं सह सकते इतना उजाला
इतना गाढ़ा हरा
चम-चम करता नीला
पैडों की आपसी बातचीत
उड़ने वाली गिलहरियों की लहराती पूँछ
नहीं, नहीं दो दिन बहुत हैं, समरहिल में
फ़हश होगी इससे अधिक की लालसा
यूँ भी आकाश गंगा को देखते-देखते
हम भूल सकते हैं अपने आप को
और यह उचित नहीं होगा
हम छोड़ आये हैं नीचे मैदानों में
चरमराती अर्थ व्यवस्था 
सड़कों पर डेड़ सौ मील की रफ़्तार से चलने वाली गाड़ियाँ
और टीवी पर बोलते ही चुप करा देने वाले पत्रकार
इनसे निज़ात सभ्यता से ग़द्दारी होगी.

(तीन)

एक गाँव
जहाँ नीली स्लेट के बस कुछ एक घर थे
और घने, बहुत घने जंगल थे
वहाँ जाते-जाते रह गया था
मार्कों पोलो
पर भूला नहीं था वहाँ जाने का रास्ता
एक दिन लौटना ही था उसे
और वह लौटा कई शताब्दियों बाद
एक हरी बस पर अपना नाम गुदवा कर.

सुबह की सैर

इस आदमी की टाँग थक चुकी है
इसके मोटे पेट और भारी भरकम सिर को ढ़ोते
यह जो इतनी धड़ाम से गिरती है
बेंच पर बार-बार
यह कह रही है
अब और चल नहीं पाऊँगी
मोटे पेट से कहो की चले
सिर से कहो कि
उलटा हो ले
थुल- थुल हाथों से कहो
बन जाएँ पैर
और चलें हाथ, हाथ 

(दो)

यह औरत
इसमें अभी गुंजाइश है
नज़ाकत की
हालंकि
इसके चेहरे की कठोरता यह संकेत नहीं देती
इसके सुडोल, कोमल कंधों की झलक देता
‘कोल्ड शोल्डर कट’ वाला कुर्ता
बताता है
अभी पूरी तरह ध्वस्त नहीं हुई है
नर्म ख़रगोश सा
कुछ बचा है इसके भीतर

(तीन)

दिल
दिल्ली है या आगरा
फतेहपुर सीकरी
या पुराना क़िला
लोग कर रहे हैं ज़िक्र
पुरानी इमारतों और शहरों का
घूमते जाते हैं गोल-गोल
और तय नहीं कर पाते
कब ठहरना है, कब चलना है
किसी ने कहा
दिल तो टूटना ही था
बाज़ीगर थी वह लड़की
मक्कारियाँ थीं किरदार में उसके
उसने कहा
नहीं कर पाएगा वह फिर से भरोसा
और छोड़ गया सब पीछे
उसके सिरहाने मिला दीवान ग़ालिब का
__________
singhvijaya.singh@gmail.com 
Tags: विजया सिंह
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