पाठकों का कवि होकर ही कोई कवियों का कवि हो सकता है. शमशेर बहादुर सिंह की कविताओं को लेकर इधर उत्साह देखने को मिल रहा है. शमशेर की कविताएँ जिस तरह के सौन्दर्य का सृजन करती हैं उसे खोलने का काम आलोचक-संपादक विनोद तिवारी का यह आलेख बखूबी करता है, यह शमशेर की कविताओं पर किसी भारी पत्थर की तरह नहीं है. इसे पढ़ते हुए आस्वाद और समझ दोनों में इज़ाफ़ा होता चलता है.
समालोचन का नया रूप उम्मीद करता हूँ आपको प्रीतिकर लगेगा.
आलेख प्रस्तुत है.
शमशेर : रचना की संरचना
टूटी हुई बिखरी हुई कुछ टीपें
विनोद तिवारी
शमशेर बहादुर सिंह के कवि-रूप और उनकी कविताओं पर बात कहाँ से शुरू की जाए, एक सामान्य पाठक के लिए यह आसान नहीं है. ख़ासकर, तब जब हिंदी आलोचना शमशेर और मुक्तिबोध जैसे कवियों को अलग-अलग कारणों से ‘दुरूह’ कवि मान चुकी हो. ‘दुरूहता’ का अर्थ प्रायः कठिन, मुश्किल, जटिल आदि मान लिया जाता है. ऐसे में क्या शमशेर और मुक्तिबोध भी केशव की तरह ‘कठिन काव्य के प्रेत हैं’ ? जो चीज हमारी समझ में आसानी से न आ सके, हमारी सामान्य बुद्धि उसे न समझ सके, इसलिए वह दुरूह हो गयी ? क्या ‘दुरूह’ और ‘दुर्बोध’ पर्याय हैं ?
यह सच है कि कवि शमशेर रिझाते हैं, आकर्षित करते हैं, पास बुलाते हैं, आत्मीय राग में सराबोर करते हैं. पर, ज्योंही आप इस नशे में डूबकर बड़बड़ाने की, कुछ कहने की, अर्थ और व्याख्या करने की कोशिश करते हैं आप खुद बजने लगते हैं और एक सीमा के बाद खुक्ख हो जाते हैं. बचे रह जाते हैं :
‘केवल प्रलाप
केवल मैं और आप
अनाप-शनाप’
शमशेर को लगातार पढ़ते हुए मैंने उनकी कविताओं पर छोटी-छोटी टीपें, कुछ-सूत्र, कुछ भाव, कहीं-कहीं कोई विचार टाँके हैं. यहाँ, अपनी टूटी हुई बिखरी हुई शक्ल में वही टीपें आपके सामने रख रहा हूँ. इसे आलोचना के ‘मुक्तक’ की तरह पढ़े जाने का निवेदन करूंगा, इस विवश समर्पण के साथ कि ‘कविताओ ! तुम चारों तरफ से मुझसे लिपटी हुई हो/और मैं तुम्हारे व्यक्तित्व के मुख में/आनंद का स्थायी ग्रास…हूँ…मूक.’
(एक)
शमशेर के साथ यह अब तक चला आ रहा है कि कोई उन्हें छायावाद से जोड़ता है तो कोई प्रगतिवाद से, कोई प्रयोगवाद से तो कोई नई कविता से. उर्दू काव्य परम्परा और अंग्रेजी काव्य-प्रभाव में भी उन्हें समझने-परखने की कोशिशें हुई हैं. शमशेर के एक तथाकथित गंभीर आलोचक ने बाकायदा एक सूत्रीकरण किया है :
‘‘ब्राउनिंग से एकालाप, एजरा पाउण्ड से अनुकरणात्मक ध्वनि चित्र, ग़ालिब से संकेत-धर्मिता, निराला से नाटकीयता, कमिंग्स से शब्दों और पंक्तियो का अंतराल आदि लेकर उन्होंने सभी को जैसे अपने यहाँ मिला दिया है.’’
इसमें वह ‘मलार्मीय विडम्बना’ (विजयदेव नारायण साही) को शामिल करना जैसे भूल गए हों. गोया शमशेर कविता की जगह कोई ‘सौन्दर्य-वर्द्धक रसायन’ तैयार कर रहे हों. यह शमशेर द्वारा प्रयुक्त उस ‘विलयनवादी काव्य’ की सतही समझ से उपजा अर्थग्रहण तो नहीं, जिसमें शमशेर ध्वनित, अध्वनित, स्व, पर, आदि, अनादि, इत्यादि सब कुछ को समो लेना चाहते हैं, फ़क़त.
(दो)
एक साँचा है, उस साँचे में आप फिट हो जाइए;
हर एक के पास एक साँचा है.
राजनीतिज्ञ, प्रकाशक,…शिक्षा संस्थानों के गुरु लोगों के पास.
ये लॉबी, वो लॉबी;
रूस के पीछे नहीं अमरीका के;
नहीं चीन के अजी नहीं, अपने घर के बाबाजी के.
इस झंडे के उस झंडे के :
…लाल, नहीं भगवा, नहीं काला, नहीं सफेद….
लेखक एक बच्चा है;
उसकी ऊँगली पकड़ो
अगर वह चल सकता है तो,
नहीं तो वह साफ प्रसंग से बाहर है.
छोड़ो उसे ! कट हिम !
हाँ हाँ, कोई लिफ्ट नहीं !!
द पोयट ऐज फूल एंड प्रीस्ट’
(तीन)
यह सच है कि शमशेर की कविता समुचित व्याख्या और मूल्यांकन की माँग करती है. परंतु, इससे आगे जाकर उनकी कविताएँ अपने आलोचकों से यह माँग करती हैं कि वह उनकी मूल संवेदनात्मक अनुभूति, उस अनुभूति की रचना-प्रक्रिया और अभिव्यक्ति संबंधी संघर्ष को उसके मूल-भाव और अंतर्वस्तु के रूप में ‘आर्गनित’ करे. मुक्तिबोध जिसे ‘प्रतिबिम्बों के विभिन्न पैटर्न्स’ कहते हैं, शमशेर की कविता इन विभिन्न पैटर्न्स की समझदारी की माँग करती है. शमशेर बहादुर सिंह की कविताएँ काव्य-परंपरा के कृतरूप और कलारूप से मुक्ति के प्रयास में रची गई कविताएँ हैं. इस अर्थ में वे हिन्दी कविता के अकेले कवि हैं जो किसी कला, रूप, रूढ़ि, परंपरा, धारा, विचार अथवा एक या अनेक नियत नियति में घटा दिए जाने वाले रचनाकार नहीं हैं. शमशेर का सरलीकरण संभव नहीं, विशेषीकरण तो और भी कठिन. हमारी आदत है कि हम प्रत्येक चीज का एक बोधगम्य कथ्य ढूँढ़ लेना चाहते हैं, पा लेना चाहते हैं. नहीं मिला तो ‘दुर्बोध’ इससे भी आगे ‘दुरूह’. कविता न हुई दुर्गम चढ़ाई का शिखर हो.
होना था समझना न था कुछ भी, शमशेर
होना भी कहाँ था वह जो हम समझे थे.
(चार)
शमशेर अपनी कविताओं को ‘पोएटिक स्पीच’ और ‘कॉमन स्पीच’ दोनों से बचाते हैं. क्योंकि ‘पोएटिक स्पीच’ नैरेटिव पोएट्री, प्रोज रोमांस और नॉवेल के लिए ही सत्य हो सकता है, जैसे कि मैथिलीशरण गुप्त, केदारनाथ अग्रवाल एक हद तक मुक्तिबोध. ‘पोएटिक स्पीच’ वाली कविता, वह लोकप्रिय कविता है जो सुनाई जाती है, श्रोताओं की जुबान पर चढ़ जाती है, जैसे कि बच्चन, नागार्जुन की कविताएँ. अज्ञेय ‘पोएटिक स्पीच’ और ‘कॉमन स्पीच’ दोनों का हिप्नोटिक घालमेल करते हैं. शमशेर इससे बचते हैं.
(पांच)
शमशेर की कविताएँ पाठक को ‘वाच्यार्थ’ के क्षेत्र से बाहर निकालती हैं. वे चित्र, संगीत आदि ध्वनि रूपों और आकार रूपों से आपको परिचित कराती हैं. शमशेर की कविताओं में एक अस्फुट भावात्मक निहितार्थ होता है. ‘कंडीशंड रिफ्लैक्सेस’ उनकी कविता में नहीं है. ट्राटस्की शाब्दिक (Verbal) और चित्रात्मक (Depictive) कलाओं के बारे में बात करते हुए लिखते हैं कि :
“A Poem is a combination of sounds, a Painting is a combination of colour spots and the laws of art are the laws of verbal combinations and of combinations of colour spots.” (कविता ध्वनियों की शब्द-संहति है और चित्रकला रंगों की पैचिंग. कला का नियम इनको अलग-अलग अभिव्यक्त करना नहीं है वरन् इनमें एक समायोजन, एक संगति बनाना ही वास्तविक कला है.)
शमशेर की कविताएँ verbal और depictive संहति की रचना हैं. यही कारण है कि शमशेर कविता में चित्रण नहीं करते वरन् चित्रण में कविता करते हैं. इसीलिए, व्यंजना और स्वर के शब्द निर्मित अर्थागम से आगे जाकर पसली और मज्जे में अंतरित अर्थ को पाना शमशेर की ‘काव्यभाषा’ को पाना है.
मगर
मेरी पसली में हैं गिन लो
व्यंजन : और उनके बीच में हैं
स्वर.
शब्द का शब्दार्थ, शब्द के चारों ओर एक शोर पैदा करता है जिसके कारण हम उससे प्राप्त हो सकने वाले अन्य संकेतों को सुन नहीं पाते. कुछ न कर पाना एक तरह की दासता है. कविता शब्द के जड़ अर्थ के बजाय विस्थापित अर्थ में अधिक खुलती-खिलाती है. पर अपनी निष्क्रियता, ध्यान देने के प्रति लापरवाही, हमें प्रथम में ही उलझाए रहती है. इसलिए हमारे सबसे कम निजी विचार सबसे अधिक व्यक्त हो जाते हैं. कविता के सहृदय भावक (आलोचक) का काम यह होता है कि कैसे वह इस निष्क्रियता को दूर भगाए जिससे उसका संवेदन विस्थापित अर्थों के प्रति अधिक संवेदनशील हो जाए. यह एक समस्या है. इसलिए कविता में लय और संगीत-तत्व का महत्व होता है. इनकी पहचान हमें प्रचलित और परंपरित अर्थ से, उस विस्थापित और ओझल अर्थ की ओर खींच कर ले जाती है. हम अधिक ध्यान देने की खास मुद्रा में आ जाते हैं. तब शब्द जिस सत्य की ओर इशारा कर रहे होते हैं, शायद हम उस निहितार्थ की ओर बढ़ पाते हैं.
बात बोलेगी
हम नहीं.
भेद खोलेगी
बात ही.
(छह)
बहुत अच्छी कविता अक्सर किसी प्रचलित और प्राप्त अर्थ के बाहर होती है. मनःस्थितियों का का ऐसा संयोजन कि शब्द अपना अर्थ खो दें. जब शब्द अपने से कम पड़ता है तब भी वह विस्थापित अर्थ देता है. ज्यादा कहना और कम कहना दोनों का उपयोग कवि मामूलीपन से हटने के लिए करता है. जब ज्यादा कहता है तो एक दबाव पैदा करता है. जब कम कहता है तो एक खालीपन या शून्य, जिसकी ओर अनेक अर्थ स्वयं ही सरक आते हैं.
लौट आ, ओ फूल की पंखड़ी
फिर
फूल में लग जा.
(सात)
शमशेर की प्रेम सम्बन्धी कविताएँ प्रेम की अधिरचना हैं– सुपरस्ट्रक्चर ऑफ लव. शमशेर प्रेम और उसके भाव से उत्पन्न मानवीय चाहना पर छायावादियों की तरह कोई आवरण नहीं डालते न ही प्रयोगवादियों की तरह निर्वेद में जाते हैं. गहरी आसक्ति, प्रेम की वेदना-यातना को शमशेर गझिन अभिव्यक्ति देते हैं. शमशेर की प्रेम कविताओं में एक सफरिंग है- दर्दनाक रोमान.
(आठ)
शमशेर बहादुर सिंह की कविताओं में प्रेम कोहनी में बने घाव की तरह है, जिसका दर्द जाता नहीं, निरंतर बना रहता है, पर अनजान. परंतु किसी से हल्का-सा भी छू जाने पर वह दर्द फिर उभर आता है, अपना अहसास कराने लगता है. शमशेर ने अपनी कुछ कविताओं पर (जो दो-चार से अधिक नहीं हैं) छोटे-छोटे सांकेतिक नोट लिखे हैं. ऐसी ही एक कविता है ‘रेडियो पर एक योरोपीय संगीत सुनकर’. रेडियो पर बजने वाली यह योरोपीय धुन कवि मन को इस तरह रूमानी बना देती है कि उसे लगता है कि
‘‘किसी अरबी-रूमानी इतिहास के हीरो और हीरोइन अपने घुटते आवेश, मर्म से जलते उच्छवास और कभी दर्दनाक फरियादों के क्षण, कभी आँसुओं भरे मौन को मूर्त कर रहे हैं.’’
शमशेर को प्रायः अज्ञेय की तरह ‘मौन’ का कवि मान लिया गया है. क्या ‘मौन’ सचमुच में शमशेर की कविता का विलंबित लय है? या घनानंद की तरह उनकी कविताओं में एक ‘मौनमधि पुकार है ? इन दोनों से आगे शमशेर ‘अमरन मौन’ की बात करते हैं – हिया जरत रहत दिन रैन.
(नौ)
Romantic poets were primarily interested in their own individuality and in those things that made them different from other people.
शमशेर एक बौद्धिक रोमानी कवि हैं. प्राक्-आधुनिक छायावादी रूमानियत से होकर निकलते हुए सही अर्थों में आधुनिक रोमानी कवि. प्रारंभ में रोमैंटिसिज्म को क्लासिज्म के विरोध में प्रस्तुत किया गया. आगे चलकर इसमें सुधार करते हुए इसे रियलिज्म का विरोधी माना गया. पर, आज क्या यह एक सही स्थापना है कि रोमानवाद सचमुच में यथार्थवाद का विरोधी है?
(दस)
रामविलास शर्मा ने जैसे मुक्तिबोध के मूल्यांकन में आरोपित मान्यताओं के बल पर अतियाँ की हैं, वैसी अतियाँ शमशेर के मूल्यांकन में भी मिलती हैं. जैसे, ‘सौन्दर्य’ के धरातल का अवलोकन उड़ती निगाह से करते हैं. वे लिखते हैं,
‘‘अंग्रेजी कवियों में कीट्स और हिन्दी कवियों में गिरिजा कुमार माथुर की सी सघन एन्द्रियता शमशेर में है लेकिन वह मूर्तिकार नहीं कि अंग प्रत्यंग गढ़ कर रख दें, न वह ‘कीट’ कवि हैं कि वीभत्स में ही उनका मन रमे, न वह ‘एब्सट्रैक्ट आर्ट’ वाले हैं कि ज्यामिति की रेखाओं में नारी का रूप खो जाय. कई लोगों ने उन्हें इम्प्रेशनिस्ट कवि (या कवि रूप में इम्प्रेशनिस्ट चित्रकार) कहा है. इम्प्रेशनिस्ट चित्रकार भी सौन्दर्य को ऐसी निगाह से नहीं देखते जैसे शमशेर. रूप और आकार की समग्रता के बदले शमशेर एक झलक भर देते हैं, पार्श्वबिम्ब से काम चलाते हैं और यह झलक या पार्श्वबिम्ब ही उन्हें बेहोश करने के लिए काफी है.’’
क्या सचमुच! शमशेर सौन्दर्य को ‘रूपाकार’ नहीं करते, बस उसको झलकाते हैं, पार्श्वबिम्ब रचते हैं? क्या पार्श्वबिम्ब और झलक एक ही चीज है? झलक और पार्श्वबिम्ब दो भिन्न अवतरण हैं. खुद रामविलास जी ने जिस कविता का उदाहरण अपनी बात को सिद्ध करने के लिए चुना है, वही उदाहरण मैं रखता हूँ-
नील जल में उषा की गौर झिलमिल देह
रात का गहरा साँवलापन स्तनों का बिम्बित उभार लिए
उसकी अधखुली अँगड़ाइयाँ हैं
कमल के लिपटे हुए दल
कसे भीनी गंध में बेहोश भौंरे को.
यहाँ नील जल. रात का गहरा साँवलापन! कमल के लिपटे हुए बिम्ब, झलक भर हैं या पार्श्वबिम्ब? और अगर झलक भर हैं तो उषा की झिलमिल देह/अधखुली अँगड़ाइयाँ क्या हैं, पार्श्वबिम्ब या झलक?
(ग्यारह)
शमशेर रीतिवादी संस्कार के कवि हैं ?
दरअसल, रामविलास जी का शमशेर वाला लेख ‘मार्क्सवादी विवेक होते हुए भी उनकी कविता मार्क्सवाद के अनुरूप नहीं हुई’ की एक जिद्दी धुन में लिखा गया है. सबसे पहले तो यह अंतर बैठाना पड़ेगा कि रीतिवादी रूमानी सौन्दर्यबोध और आधुनिक रूमानी सौन्दर्यबोध क्या हैं? और अगर रीतिवादी रूमानी सौन्दर्यबोध की संगति मार्क्सवादी विवेक से बैठ जाती तो उसका ‘रूपाकार’ क्या होता अथवा आधुनिक रूमानी सौन्दर्यबोध की मार्क्सवादी विवेक से संगति बैठ जाए तो उसका ‘रूपाकार’ क्या होगा? कविता क्या सचमुच ‘केटेगरी’ में सौन्दर्य का बोध करती और कराती है? अगर, हाँ ! तब तो ‘केटेगरी’ होने के नाते वह पूर्व निर्धारित है. ऐसे में तो शमशेर की केटेगरी, जिसे रामविलास जी स्वयं स्पष्ट करते हैं ‘मार्क्सवादी विवेक संपन्न’ केटेगरी है. वस्तुतः यह मूल समस्या शमशेर की न होकर रामविलास जी के भावबोध और विचार बोध की अपनी खुद की समस्या है, जो भारतीय संस्कृति और परंपरा की साधना के साथ-साथ मार्क्सवादी विवेक की अराधना के नैतिक कर्तव्यबोध का अन्तर्विरोध है. अगर, आपने अकुंठ सौन्दर्य का वर्णन कर दिया तो उसे रीतिवादी रूमान और उर्दू के रीतिवादी प्रभाव में ही देखा जाता है. इससे काव्य की पौरुषता (जिसे रामविलास जी क्रांति के लिए अनिवार्य मानते हैं, और केदारनाथ अगवाल को ‘पौरुष के कवि’ के विशेषण से नवाजते हैं.) स्खलित होती है. मार्क्सवादी विवेक के बावजूद कवि भटक जाता है और ‘नव्य रहस्यवाद’ के गुहालोक में चला जाता है. उसी गुहालोक से वह टॉर्च की रोशनी में ‘व्यक्तिवादी प्रपंचों’ की झलक या पार्श्वबिम्ब रोशन करता रहता है. पर इन सबके बावजूद,
‘‘…हर जगह शमशेर का अपना एक रंग है. कविता भरी-पूरी न उतरे, पढ़कर लगे कि असंगठित संवेदन कागज पर उतार दिए गए हैं, तब भी उनकी कविता से आनंद आता है.’’
यहाँ रामविलास जी ‘कविता से आनंद’ का क्या अर्थ लेते हैं ‘रीतिवादी रूमानियत’ से या ‘मार्क्सवादी विवेक’ से. क्योंकि डॉ. नगेन्द्र ने भी लिखा है कि ‘शमशेर की कविता आनंद देती है.’ रामविलास जी तो ‘मार्क्सवादी विवेक’ से ही शमशेर की कविता का मूल्यांकन करते हैं जबकि डॉ. नगेन्द्र का ‘रीतिवादी रहस्यवाद’ तो जगजाहिर है.
(बारह)
रामविलास जी शमशेर की कविता का सिन्टेक्स और डाइनेमिक्स समझ नहीं सके. इसीलिए केदारनाथ अग्रवाल का रूमानी सौन्दर्य चित्रण उन्हें पसंद है. रीतिवादी पोएटिक सिन्टेक्स का ग्रहण ही रीतिवादी होना नहीं है. यह दरअसल, रामविलास जी की इस मार्क्सवादी चाहना का फल है जिसमें कविता सीधे-सीधे राजनीतिक, सामाजिक और नैतिक विवक्षा से युक्त हो. यह आग्रह एक तरह का moral inversion है. ऑक्टोवियो पॉज का एक मशहूर कथन याद आ रहा है :
\”Poet is a food which the bourgeoisie-as a class has proved incapable of digesting.\”
शमशेर की कविताओं को पढ़ते हुए यह कभी नहीं लगता कि उनके लिए नैतिक (moral) और कलात्मक (artistic) दुविधा कोई मानी रखती है.
रामविलास जी के लिए आधुनिकता का अर्थ-विवेकशील तार्किकता, बुद्धिवाद, राष्ट्रीय चेतना (जातीयता) और औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था का विरोध था. पूँजीवादी व्यवस्था में व्यक्ति-मन की जटिलताओं, जीवन की अनेकार्थताओं का उनके लिए कोई महत्त्व नहीं था. दरअसल, यह ‘आधार’ और ‘अधिरचना’ की वह सामान्य समझ है जिसमें ‘पूँजी’ आधार है और उसका प्रतिबिम्ब ‘संस्कृति’ अधिरचना. पर, रामविलास जी संस्कृति को यदि प्रतिबिम्ब मात्र न मानकर पूँजी के प्रतिफल के रूप में अर्थान्तरित कर पाते तो संभवतः आधुनिकता के संकटों को समझ पाते और आधुनिकतावाद को भी. अर्नेस्ट फिशर का मानना है कि ‘‘कला का कार्य पूँजीवादी देशों में भी और समाजवादी देशों में भी अजनबियत को उजागर करना और जीवन की अमानवीय परिस्थितियों के विरुद्ध संघर्ष करना है.’’ फिशर ब्रेख़्त का उदाहरण देते हैं और लिखते हैं कि ‘‘ब्रेख़्त ने इतिहास में अपना स्थान एक निश्चित विचार धारा के संवाहक के रूप में नहीं, अपितु एक उत्कृष्ट कवि के रूप में बनाया.’’
(तेरह)
शमशेर यह अच्छी तरह जानते हैं कि भावों का उपकथन और विचारों का अनुकथन कविता नहीं है. प्रत्येक मनुष्य भाव और विचार की दृष्टि से किसी न किसी ‘समकाल’ में जीता है, किसी न किसी समरूपों की मौजूदा या कल्पित कोटियों में सोचता है, उसे पाने या दूर करने की कोशिश करता है. यह पाना और छोड़ना भी व्यक्तिगत नहीं, सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों पर निर्भर करता है. उसकी विभिन्न स्तरीयताओं पर निर्भर करता है. फिर, ऊपरी सतह पर तैरते हुए शब्दों में ही ‘कविता’ को पा लेने की चाह हमें निराशा से भर देगी. संभव है कि मुँह चिढ़ा देगी. ऐसे में हमारी खीझ इस ढंग से व्यक्त होगी कि हम उसे रीतिवादी या रूपवादी कविता कह उसके मुँह पर अनैतिकता की कालिख पोतकर भाग खड़े हों.
(चौदह)
शमशेर की कविता अनुभूतियों का सरलीकरण नहीं होने देती. विजयदेव नारायण साही ने अपने लेख ‘शमशेर की काव्यनुभूति की बनावट’ में इस सरलीकरण के खतरों से आगाह करते हैं. पर, उस लेख की दिक्कत यह है कि वह ‘मार्क्सवादी सौन्दर्य’ बनाम स्वच्छंदतावादी ‘विशुद्ध सौंदर्य’ की बहस में फँस जाता है. प्रणाली वही है, रामविलास शर्मा वाली. एक उन्हें मार्क्सवाद की कसौटी पर कस कर देखने और पाने का प्रयास करता है. दूसरा, उसी प्रणाली से उन्हें मार्क्सवाद की कसौटी पर चढ़ने हे नहीं देता, चढ़ाने का भी ऐतराज करता है. इसलिए दोनों का उपार्जित लक्ष्य तय है. जबकि, शमशेर हैं कि वह किसी भी तरह की कसौटी पर, उसके अतिवाद पर अपने को कसे जाने की चुनौती देते रहते हैं. उनकी कविताएँ किसी भी तरह की बनी-बनाई कसौटी को नकार देती हैं. तभी तो विजयदेव नारायण साही के इस निष्कर्ष से असहमत नहीं हुआ जा सकता
“शमशेर की काव्यनुभूति एक व्याकुल शांति की तरह स्थिर है. मूलतः वह हम जिसे जीवन कहते हैं, दो अतियों अथवा सीमांतों के बीच गति और प्रतिगति का एक झीना, झिलमिलाता हुआ और बेचैन संतुलन है.”
(पन्द्रह)
सामान्यीकरण या सरलीकरण भी एक तरह की बर्बरता है – ब्रेष्ट
अनुभूतियों का सरलीकरण न होने देना कवि शमशेर की कविताओं की उपलब्धि और मुश्किल दोनों हैं. उनकी कविताएँ ‘इंटरटेन’ तो करती हैं पर ‘इंटरप्रेट’ नहीं होतीं. हम शमशेर की कविताओं के प्रभाव में अपने को भूल सकते हैं पर भाव-विह्वल नहीं हो सकते. प्रेमी की तरह उसके अन्तरंग बन सकते हैं पर उस अन्तरंगता का बयान नहीं कर सकते.
(सोलह)
अंत में शमशेर :
मेरी जिन कविताओं पर चित्रकला का प्रभाव है, उनकी आलोचना आप चित्रकला की तरह करेंगे तो गलती करेंगे. वही गलती आप तब करेंगे जब मेरे कहानियों की आलोचना आप कविता की आलोचना की तरह करेंगे.
(सत्रह)
मेरे कवि ने कभी किसी ‘फार्म’, शैली या विषय का सीमा-बंधन स्वीकार नहीं किया. फ़ैशन किन विषयों पर लिखने का है, कौन सी शैली ‘चल रही है’, किस वाद का युग आ गया है या चला गया है – मैंने कभी इसकी परवाह नहीं की. जिस विषय पर जिस ढंग से लिखना मुझे रुचा, मन जिस रूप में भी रमा, भावनाओं ने उन्हें अपना लिया, अभिव्यक्ति अपनी ओर से सच्ची हो, यही मात्र मेरे कोशिश रही – उसके रास्ते में किसी भी बाहरी आग्रह का आरोप या अवरोध मैंने सहन नहीं किया.
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विनोद तिवारी
आलोचक और संपादक
‘आलोचना की पक्षधरता’, ‘राष्ट्रवाद और गोरा’ आलोचना-कृतियाँ इसी वर्ष प्रकाशित.
‘नई सदी की दहलीज़ पर’ आलोचना पुस्तक के लिए ‘देवीशंकर अवस्थी सम्मान’ और ‘वनमाली कथालोचना सम्मान’ से सम्मानित.‘पक्षधर’ पत्रिका के संपादक.
दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली में हिंदी का अध्यापन
सम्पर्क: C-4/604, ऑलिव काउंटी, सेक्टर-5, वसुंधरा, गाज़ियाबाद-201012
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