बजरंग बिहारी तिवारी
विगत 6 दिसंबर (2017) को जब देश बाबासाहेब आंबेडकर को उनके परिनिर्वाण दिवस पर याद कर रहा था, राजस्थान के राजसमन्द जिले में एक बेहद शर्मनाक घटना हुई. शंभूलाल नामक व्यक्ति ने एक मजदूर मोहम्मद अफराजुल की गैंती से मारकर और जलाकर हत्या कर दी. बंगाल से मजदूरी करने आए अफराजुल की शंभूलाल से कोई निजी दुश्मनी नहीं थी. उसे इस्लाम से नफरत की घुट्टी पिलाई गई थी. उसने हत्या के समूचे कुकृत्य की अपने नाबालिग भतीजे से वीडियो रिकार्डिंग करवायी. यह वीडियो निहायत घिनौना था लेकिन मानसिक रूप से बीमार लोगों ने बड़े पैमाने पर इसे साझा किया. कुछ लोगों ने उसे अपना नायक माना. कलालवटी मुहल्ले का शंभूलाल रैगर जाति से है. इस मुहल्ले में रैगर जाति के अतिरिक्त खटीक जाति के लोग रहते हैं. ये दोनों जातियां दलित मानी जाती हैं. तमाम बुद्धिजीवियों और दलित कार्यकर्ताओं ने उचित ही इस व्यक्ति को दलित समुदाय से जोड़कर देखने का विरोध किया. फिर भी, चाहे-अनचाहे व्यापक समाज में यह संदेश तो गया ही कि एक दलित ने ‘लव जिहाद’ से खफा होकर यह कदम उठाया है. वैसे भी इस साल का छः दिसंबर बाबरी मस्जिद ध्वंस की पचीसवीं बरसी के रूप में था. फेसबुक पर सक्रिय शंभू ने ‘दुनिया भर में फैले इस्लामी जिहाद’ को रोकने का संकल्प व्यक्त किया था. शंभूलाल रैगर का फेसबुक पेज ‘शंभू भवानी’ के नाम से है. नाम में यह परिवर्तन असल में शंभू की समझ के विरूपीकरण का परिणाम है. व्यक्तित्वांतरण का यह उदाहरण उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार बेशक अपवादस्वरूप हो लेकिन वस्तुस्थिति इससे भिन्न हो सकती है. ‘मेटामॉरफोसिस’ की यह प्रक्रिया दलित साहित्य के समक्ष विकट चुनौती की तरह है.
क्या दलित रचनाकार इस चुनौती को स्वीकार करने को तैयार हैं? इस प्रश्न के परिप्रेक्ष्य में दलित कविता का अध्ययन करते हुए पता चला कि दलित कवि न केवल इस चुनौती के समक्ष खड़े हैं वरन वे उस पूरी प्रक्रिया को पहचान भी रहे हैं. जो प्रक्रिया एक सामान्य मनुष्य को संवेदनारहित बना देती है, उसे खूंखार दरिन्दे में तब्दील कर देती है उसका संज्ञान लिया जाना अपेक्षित ही नहीं अपरिहार्य भी था. दलित कवियों ने जाति संरचना में निहित हिंसा की, उसकी आविष्ट करने की यानि अपनी गिरफ्त में ले लेने की क्षमता की पहचान अपनी प्रखर सहज प्रज्ञा के बल पर प्रारंभ में ही कर ली थी. पहले आधुनिक दलित कवि के तौर पर माने गए देवेन्द्र कुमार बंगाली (1933-1991) की कविता ‘भेड़िया’ व्यक्तित्वांतरण की प्रक्रिया को कुछ इस तरह पेश करती है-
रात के उन्हीं उन्हीं पहरों में
जिसमें नींद अपनी जवानी पर होती है
वह आता है
और बगल में सोये हुए
बच्चों को उठा ले जाता है.
इससे पहले कि
लोग उसे जाने-सुनें देखें
उसका पीछा करें
एक को छोड़कर ‘वह’
दूसरे गाँव की ओर मुड़ चुका होता है.
फिर लौटकर आये न आये
इससे कोई अंतर नहीं पड़ता
बल्कि उसका आतंक बराबर बना रहता है.
… … …
उसकी भनक पाते ही
जलती हुई लालटेनों की रोशनी
कहाँ चली जाती है?
या आदमी और उसकी चारपाई के बीच
इतना लंबा फासला कहाँ से आ जाता है?
कि एक अकेला घर पूरा देश बन जाता है
और देश अज्ञात जंगलों का विस्तार
जहाँ से पक्ष-प्रतिपक्ष
किसी भी प्रकार की कोई आवाज
हिचक भी सुनाई नहीं पड़ती.
… … …
जब तक वह दुबारा लौटकर
आये-आये
तब तक हम या तो उसे पूरी तरह
भूल गए होते हैं
या हमारे हथियारों में
इतने जंग लग चुके होते हैं
या हम इतने परमुखापेक्षी हो चुके होते हैं
कि कोई दूसरा ही उसे मारे तो मारे
वरना हमारे बस का नहीं रहता!
और बच्चे भी
आदमी की शक्ल में
भेड़िया बन चुके होते हैं
किसी और की तलाश में.
(देवेन्द्र कुमार बंगाली, पृ. 277-8)
अपनी निरंतरता बनाए रखने के लिए हिंसक संरचना कई तरह के जतन करती है. अपने अनुकूल चरित्रों का पुनरुत्पादन, मेटामॉरफोसिस इसी का हिस्सा है. संरचना के हित-चिंतकों को भलीभांति पता होता है कि समूचे समाज को सांचे में नहीं ढाला जा सकता. ढांचे की उत्तरजीविता के लिए न्यूनतम बानगियों का प्रबंध करते रहना उनके लिए ज्यादा मुश्किल नहीं होता. समाज का जो तबका अपने को अधिकारसंपन्न समझता है वह तो ढाँचे की रक्षा में सन्नद्ध रहता है लेकिन जो अधिकारविहीन, संपदावंचित और (प्रत्यक्ष हिंसा से) उत्पीड़ित तबका होता है उसमे से भी कुछ लोग छाँट लिए जाते हैं. ‘प्रयोगशाला’ में डाले गए ऐसे लोग एक स्थिर और समरूप हिंदू अस्मिता में विश्वास करने लगते हैं. हिंदुत्व की संकल्पना के प्रति निपट अनालोचनात्मक बना दिए गए लोग सुदूर अतीत में स्वर्णकाल का दर्शन करते हुए वर्तमान को संकटग्रस्त मानते हैं. संकट का कारण हमेशा बाहरी हुआ करता है. कभी ईसाई, कभी इस्लाम तो कभी कम्युनिज्म. धर्म और राष्ट्र को एकमेक कर चुके ये लोग संकटनिवारण में अपनी भूमिका तलाशते हुए आसान शिकार की खोज करते हैं. अफराजुल ऐसा ही आसान शिकार बना.
संरचना को निरंतरता प्रदान करने वाली दूसरी श्रेणी अधिक परिष्कृत, सूक्ष्म और अनपहचानी है. इस श्रेणी के लोग प्रयोगशाला के नहीं, परिवेश के उत्पाद होते हैं. यह बाहरी नहीं, अंदरूनी मामला होता है. इसमें धर्म नहीं, जाति की सक्रियता होती है. जाति-संरचना का उत्पाद बन गए इस श्रेणी के लोग अविचारित घृणा करते हैं. उनकी घृणा का तापक्रम जाति के पदानुक्रम के अनुरूप आरोही क्रम में बढ़ता जाता है. इस प्रतिक्रियात्मक घृणा से सवर्ण अपनी घृणा को औचित्य प्रदान करते हैं. सवर्णसत्ता या ज्यादा सटीक तरीके से कहें तो ब्राह्मणसत्ता का घोर विरोधी व्यक्ति यह नहीं समझ पाता कि वह वास्तव में उस ढाँचे को वैध ठहराने में अपना योगदान दे रहा है!
संतमत के अध्येता वरिष्ठ दलित कवि डॉ. एन. सिंह ने अपनी एक कविता ‘कबूतर और बहेलिया’ में उक्त मेटामॉरफोसिस को बड़े सलीके से उकेरा है. पूरी कविता यों है-
“पंख फड़फड़ाते हुए
कबूतर ने कहा
माफ़ करो
आँख तरेरते हुए
अहेरी
गुस्से में चिल्लाया
तुम नहीं जानते
इन दूर तक फैले
जंगलों पर ही नहीं
खुले आकाश पर भी
मेरा साम्राज्य है
यहाँ पेट भरना ही नहीं
खुले आम घूमना भी
अपराध है
चूँकि यहाँ
लोकतंत्र है
इसलिए मैं तुम्हें
एकदम नहीं मारूँगा
फिर भी
सजा तो तुम्हें मिलेगी
अहेरी कबूतर पर झपटा और उसे पकड़कर
पिंजरे में बंद कर दिया
फिर शुरू हुआ
भूख और यातना का लंबा दौर
इस दौर से गुजरकर
बाहर आया कबूतर
बाज था.”
(डॉ. एन. सिंह, पृ. 21-22)
तीसरी श्रेणी उन लोगों की है जो अपनी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए कायांतरण करते हैं. ये लोग अपनी चेतना को स्वयं ही आगे बढ़कर उनके हवाले कर देते हैं जिनके विरुद्ध अब तक संघर्ष करते आए हैं. चेतना सौंपते ही इनका रंग-ढंग बदल जाता है. भाषा बदल जाती है. मौन और मुखरता का स्थान परिवर्तन हो जाता है. जिस तेवर की कमाई से कामना-पूर्ति का सौदा किया गया था उसे बरकरार रखने की पूरी कोशिश की जाती है. जिस तेवर की धार पहले ही भोथरी हो चुकी थी उसे ऐसी कोशिशें उत्तरोत्तर हास्यास्पद बनाती जाती हैं. कायांतरण से महत्वाकांक्षी व्यक्ति जितना अर्जित करता है उसका दुगुना उसके उत्पीड़ित समुदाय को चुकाना पड़ता है और उसका कई गुना उस आंदोलन को जिसमें वह कल तक सम्मिलित था. आंदोलन की अगुआई करने वाले अन्य लोग भी ऐसी सौदेबाजी से संदेह के घेरे में आ जाते हैं. यथास्थिति के प्रहरी इस स्थिति का लाभ उठाते हैं. अविश्वसनीयता का माहौल दीर्घावधि तक परिवर्तनकामी आंदोलनों की अकूत क्षति करता है. स्वार्थ और संरचना की सौदेबाजी में फायदा अनिवार्य रूप से संरचना का होता है. यही कारण है कि आंदोलन की रहनुमाई करने वाले (प्रच्छन्न) स्वार्थियों को चीन्हने और जो बिकने को तैयार नहीं हैं उनमें महत्त्वाकांक्षा जगाने का काम प्रमुखता से किया जाता है. जय प्रकाश लीलवान ने इस कोटि के मेटामॉरफोसिस को अपनी कई कविताओं का विषय बनाया है. उनकी कविता ‘नए क्षितिजों की ओर’ का यह अंश देखिए-
“यह
सही है
कि इतनी
गहरी रात में
किसी के भी
पैर लड़खड़ा सकते हैं..
इस आतंक की
रेत को
दिन-रात
मापता हूँ मैं
और
पाया है मैंने
कि
इस रेत की
बाँसुरी से
किसी भी
सुकून की
धुन/ नहीं
बजाई जा सकती है..
मैं
पूछता हूँ
कि
इन खण्डहरों को
क्यों
अपने सिरों पर
उठाए
फिरते हो तुम
बौनों की
तरह
जबकि
तुम्हारी पीढ़ियाँ
अपने
जलते पाँवों के
जूतों के लिए
संघर्ष के
मैदान में
मारी जा रही हैं..”
(‘नए क्षितिजों की ओर’,2009 , जय प्रकाश लीलवान, भारतीय दलित अध्ययन संस्थान, नई दिल्ली, पृ. 98-99)
कहने की जरूरत नहीं कि मीडिया ऐसे रहनुमाओं को फोकस करती है, सत्ता संचालक उन्हें सार्वजनिक स्मृति में बिठा देने की जुगत भिड़ाते हैं और इनके पिछलग्गू इनकी वाचाल आक्रामक अभिव्यक्तियों को बार-बार दुहराते हैं. अपनी एक अन्य कविता ‘समय की लदान’ में लीलवान ने पीड़ित जनों के सपनों के सौदागरों को इस तरह प्रस्तुत किया है-
सब कुछ
ठीक हमारी नाक के नीचे
निरंतर चल रहा है
जिसके
वीभत्स शोर में
हमारी बराबरी के
अरमानों को
समाज के नकली रहनुमाओं ने
अपने नाश्तों में
तलकर खा लिया है..
(जय प्रकाश लीलवान, पृ. 30)
दलित कवियों की यह अंतर्भेदी अंतर्दृष्टि परिवर्तनकारी आंदोलन के लिए बहुत मूल्यवान है. दलित कविता का यह पक्ष भरोसा जगाता है.
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पेंटिग : Sunil Abhiman Awachar
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(ख)
साहित्य की अन्य विधाओं की अपेक्षा हिंदी की दलित कविता ज्यादा विविधतापूर्ण और समृद्ध है. वरिष्ठ पीढ़ी से लेकर युवतर पीढ़ी तक सर्जना के इस क्षेत्र में सक्रिय है. हिंदी के धाकड़ प्रकाशनगृहों से दलित काव्यसंग्रहों का छपना इस बात का सबूत है कि पाठकीयता में परिवर्तन से लेकर प्रकाशन बाजार तक स्थिति निरंतर बेहतर होती जा रही है. प्रस्तुत आलेख में हाल-फिलहाल आए कुछ प्रमुख काव्यसंग्रहों का अध्ययन इस लिहाज से किया जाएगा कि दलित कविता के साथ अस्मितावादी विमर्श की दिशा समझी जा सके और नई पीढ़ी से पुरानी पीढ़ी का अंतर स्पष्ट हो सके.
डॉ. सी.बी. भारती (1957) की गणना हिंदी दलित साहित्य के संस्थापकों में होती है. उनका पहला काव्य संग्रह ‘आक्रोश’ 1996 में छपा था. इस संग्रह ने दलित कविता का भावबोध सुनिश्चित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. दो दशकों के अंतराल के बाद वर्ष 2017 में उनका नया संग्रह आया- ‘लड़कर छीन लेंगे हम’. संग्रह का शीर्षक भले ही अकाव्यात्मक प्रतीत होता हो लेकिन यह डॉ. सी.बी. भारती के आक्रामक तेवर और उनकी कविता की बनावट का उद्घोषक है. इस संग्रह की भूमिका वरिष्ठ कवि डॉ. एन. सिंह ने लिखी है. भूमिका में दलित कविता पर उठाए जाने वाले सवालों की चर्चा है और उन सवालों की रोशनी में प्रतिरक्षात्मक विश्लेषण किया गया है. यह आरोप प्रमुखता से आया है कि “दलित साहित्यकारों की अनुभूतियाँ समान हैं जिसके कारण उनमें एकरूपता आ गई है.” डॉ. एन.सिंह ने उचित ही संकेत किया है कि दलित कविता के शीर्ष हस्ताक्षरों ओम प्रकाश वाल्मीकि, मलखान सिंह, जय प्रकाश कर्दम आदि कवियों का अपना-अपना काव्य-वैशिष्ट्य है. इनमें उतनी ही एकरूपता है जितनी किसी भी काव्यधारा के कवियों में होती है. भूमिका में डॉ. सी.बी. भारती की खासियत बताने के सिलसिले में यह गौरतलब बात भी नोट की गई है, “जब दलित कवि कविता के नाम पर नारे गढ़ रहा हो तब डॉ. सी.बी. भारती दलित उत्पीड़न की जड़ तक जाकर उसके कारण और निदान तक की योजना प्रस्तुत करते हैं.” करीब सवा सौ कविताओं वाले इस संग्रह में डॉ. भारती ने अनुभवजनित व्यथा को आगे न रखकर उससे उपजे आक्रोश को केन्द्रीयता दी है. उनकी आक्रोशजन्य अभिव्यक्ति की एक बानगी है- ‘अब हम उतार सकते हैं तुम्हारी भी खाल.’ (‘होगी जूतम पैजार’ पृ.121) संग्रह की पहली कविता ‘चिन्तन का समय’ बहुजनों की गुलामी पर लीक से हटकर विचार करने का आह्वान करती है. आखिर क्या वजह है कि ठग भेस बदल-बदल कर आते रहे और बहुजन हर बार ठगे जाते रहे\\ अपनी दुर्दशा पर उन्हें कभी क्रोध नहीं आया, कभी उन्होंने अपनी संगठित शक्ति का प्रदर्शन नहीं किया. कविता का समापन अंश है-
“कैसे हड़प ली गई तुम्हारी अस्मिता?/ कैसे गँवा बैठे तुम अपना सारा वजूद?/ बताओ बहुजन!/ यह वक्त पिष्टपेषण का नहीं/ यह वक्त चिंतन का है.” (पृ.19)
जातिभेद का खंडन करते हुए जो कविताएं इस संग्रह में हैं वे बौद्ध कवि अश्वघोष की याद दिलाती हैं. प्रकृति से उदाहरण देते हुए अश्वघोष ने ‘वज्रसूची’ में गूलर और कटहल जैसे फलों की तरफ ध्यान खींचा था और इस आधार पर जातिभेद को अप्राकृतिक बताया था. डॉ. भारती कहते हैं- “सभी गायें/ गायें हैं जैसे/ सभी शेर/ शेर हैं जैसे/ सभी मनुष्य/ मनुष्य हैं/ वैसे ही.” (‘जाति’, पृ.20)
इस देश का सांस्कृतिक इतिहास घृणा की अनवरत शृंखला से आबद्ध है. यह घृणा अपने उद्देश्य वर्चस्व-स्थापन में सफल रही है. ‘घृणा’ और ‘नफरत’ शीर्षक कविताएं इस चिरकालिक रोग की पहचान कराती हैं. ‘गाली’ शीर्षक कविता में कवि स्वयं को ‘चमार’ कहे जाने पर फख्र का अनुभव करता है. एक जिम्मेदार कवि के रूप में अपनी भूमिका की पहचान कराते डॉ. भारती लिखते हैं- “तुमने जब जब फैलाई है दुर्गंध/ तब-तब मैंने बिखेरी है खुशबू.” (पृ. 31) ‘भूख’ कविता में रोटी और सम्मान दोनों की जरूरत को एक-सा माना गया है. ‘आरक्षण’ कविता में कवि विरोधियों को शिड्यूल कास्ट बनकर गाँव जाने की बात करता है. व्यवस्था की असलियत तभी समझ में आएगी. ‘जोंक’, ‘परजीवी’ और ‘साजिश’ शीर्षक कविताएं सवर्ण सत्ता का यथार्थ प्रस्तुत करती हैं. इस सत्ता ने धर्म और ईश्वर की खोज अपने को शीर्ष पर बनाए रखने के लिए की थी. इसे समझाते हुए कवि कहता है- “ईश्वर कुछ लोगों के स्वार्थ की उपज है.” (पृ. 57) वर्तमान राजनीतिक-सामजिक परिदृश्य को डॉ. भारती ने ‘भेड़िये’ नामक कविता में पेश किया है-
“सावधान!
भेड़िये आ रहे है-
चुपचाप,
बिना किसी आहट के
करने को शिकार
अब वे लहूलुहान ही नहीं करते-
सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का जहर घोलते हैं.
क्रूरता व असहिष्णुता का प्रशिक्षण देते हैं
घृणा व नफरत के बीज बोते हैं.”
डॉ. सी.बी. भारती ने अपना यह काव्यसंग्रह ‘सामाजिक परिवर्तन के महान नायक संत सुकईदास परमहंस साहेब को’ समर्पित किया है. इस संग्रह में स्वामी अछूतानंद पर कविता है मगर संत सुकईदास पर कोई कविता नहीं है. भूमिका में भी उनका नामोल्लेख भर है. उनके जीवन-परिचय के संबंध में कुछ नही कहा गया है. संत परंपरा से कवि का यह जुड़ाव बहुत अर्थपूर्ण है. इससे उनकी कविता एक अजस्र ऊर्जा-स्रोत से जुड़ जाती है और दलित कविता की धारा सुदीर्घता प्राप्त कर लेती है.
डॉ. एन. सिंह (1956) के काव्यसंग्रह ‘अंधेरों के विरुद्ध’ (2016) की भूमिका में जय प्रकाश कर्दम ने बताया है कि हिंदी में दलित साहित्य का वह स्थान नहीं बन पाया है जैसा मराठी में दलित साहित्य का बना है. इसके कारणों पर कोई संतोषजनक चर्चा उन्होंने नहीं की है. एन. सिंह की कविताओं में उन्होंने ‘अनुभूति की गहराई और संवेदना का ताप’ देखा है. इस गहराई और ताप को मापने का जिम्मा पाठकों पर छोड़ दिया गया है. कर्दम जी ने यह बात बड़ी शिद्दत से रेखांकित की है कि कवि (डॉ. एन. सिंह) की कल्पना का भारत ‘असमानता मुक्त भारत’ है. यह बात ख़ास तौर पर गौर करने की है कि दलित कवियों के यहाँ देश की चिंता बार-बार प्रकट होती है. जय प्रकाश लीलवान की कविताएं तो इस मामले में बहुत बढ़ी हुई हैं. डॉ. एन. सिंह भी अपने प्रखर राजनीतिक बोध के कारण देश की वर्तमान दशा को बहुत स्पष्टता से चित्रित करते हैं. उन्होंने अपना संग्रह ‘बौद्धिक आतंकवाद से लड़कर शहीद हुए रोहित वेमुला को’ समर्पित किया है. डॉ. एन. सिंह ने बेलौस तरीके से अपनी काव्य-यात्रा के विविध पड़ावों का जिक्र संग्रह की प्रस्तावना में किया है. वे मंचीय कविता से होते हुए दलित कविता तक पहुँचे. ‘सारिका’ के दलित साहित्य पर केंद्रित अंकों ने उन्हें राह दिखाई. संत कवि रैदास का अध्ययन कर उनकी वैचारिकी समृद्ध हुई. कविता संबंधी उनकी समझ में जो गहराई आई उसका असर उनके काव्य-संग्रह ‘सतह से उठते हुए’ (1991) की भूमिका में इन शब्दों में प्रकट हुआ-
“मैं मानता हूँ कि सामाजिक परिवर्तन में कविता तत्काल प्रभावी नहीं होती और ना ही कोई बहुत बड़ी क्रांति ही कर सकती है किंतु वह जन क्रांति के लिए लोकशिक्षण और लोकजागरण के द्वारा पृष्ठभूमि तैयार करने में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है.”डॉ. एन. सिंह की वैचारिकता मार्क्सवादी संगठनों में काम करते हुए बननी शुरू हुई. इसके बाद वे आरएसएस की तरफ मुड़ गए और वहाँ से मोहभंग होने पर वे दलित चिंतन की तरफ आए. बाबरी मस्जिद ध्वंस को ‘भारतीय इतिहास का सबसे काला दिन’ मानने वाले डॉ. एन. सिंह की साम्प्रतिक भावदशा उनके ही शब्दों में : “रैदास-काव्य के विचारपक्ष को समझने की प्रक्रिया से गुजरते हुए मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि इस सड़े-गले समाज की शल्यक्रिया कर यदि हम मरहमपट्टी करना चाहते हैं तो मार्क्स और आंबेडकर के रास्ते पर ही चलना होगा.”
डॉ. एन. सिंह का यह संग्रह अपनी प्रबोधनपरक कविताओं के कारण विशेष रूप से याद किया जाएगा. समाज जिन हालातों से होकर गुजर रहा है, जो मुश्किलें रचनाकारों के सामने हैं उन सबका सटीक शब्दांकन उनके यहाँ है. वे दलितों के ठगे जाने का रहस्य समझना चाहते हैं. इसके लिए वे अतीत की छानबीन करते हैं. आर्यावर्ती भूगोल की, उसके मानस की सांस्कृतिक ‘मैपिंग’ करते हैं. मोहपाश से छूटने के लिए उसे पहचानना होता है. एन. सिंह इस मोहपाश को पहचानते हैं और तब वे बंधनमुक्ति की ओर बढ़ते हैं. ज्ञानप्रसार करने वाली सरस्वती और धनवर्षा करने वाली लक्ष्मी के होते हुए दलित अनपढ़ और निर्धन क्योंकर रह गए? यह प्रश्न करने के बाद एन. सिंह कहते हैं- “वे हमें छलती रहीं और/ हम उन्हें पूजते रहे/ क्यों?” एन. सिंह इस प्रश्न को विचार हेतु और आगे बढ़ाते तो अवश्य ही कहते कि सरस्वती और लक्ष्मी जैसी ‘देवियाँ’ पितृसत्तात्मक संरचना की उत्पाद हैं. ये स्वयं ही छली गई स्त्रियाँ हैं. ज्ञान और संपदा से सिर्फ दलित ही वंचित नहीं रहे हैं, स्त्रियाँ भी वंचित रखी गई हैं.
डॉ. एन. सिंह ने कभी हिंदूवादी संगठन में काम करके उनकी कार्यपद्धति समझी तो कभी बसपा से जुड़कर उसकी सोशल इंजीनियरिंग से मुतास्सिर रहे. इस सोशल इंजीनियरिंग के प्रभाव से उपजी एक कविता उनके आलोच्य संग्रह में भी है-
“दुकान
हमारी भी है और
तुम्हारी भी
ये बात और है कि
हमारी दुकान पर बिकता है
जूता
और तुम्हारी दुकान पर
रामनामी
हमारे लिए जूते का वही
महत्त्व है
तुम्हारे लिए जो है
रामनामी का
आओ समानता का यह
तार पकड़ें
एकता के सूत्र गढ़ें
साथ बढ़ें.”
(‘आओ साथ बढ़ें’, पृ. 35)
शायद अच्छा कहा जाएगा कि समानता का यह ‘तार’ जल्दी ही उनके हाथ से छूटा और उन्होंने अपने और अपनों को इस तरह चेताया,
“सावधान!
आ रहे हैं भेड़िये
गाय के वेश में
उनकी वाणी में जो अमृत है
दरअसल वह
विष है!
जो कान से
दिल तक पहुँच कर
धीरे-धीरे करता है असर!
वे तुम्हारे अस्तित्व का सौदा करने आ रहे हैं,
बड़ी विनम्रता से
कुछ देने का वायदा करके
वे बहुत कुछ बहुमूल्य ले जाएँगे
फिर लौटकर
नहीं आएँगे.”
(‘पहचान लो’, पृ. 41)
ये वही हैं’ शीर्षक कविता में कवि ने पुनः लिखा, “समरसता की/ रामनामी ओढ़कर/ वे फिर आ गए हैं/ अब तुम्हें ही तय करना है कि-/ यह मनुवादी समरसता/ कहाँ ले जाएगी तुम्हें?” ‘असहिष्णुता’ कविता में एन. सिंह ने एकलव्य शंबूक से लेकर रोहित वेमुला, कलबुर्गी, कामरेड पानसरे, अख़लाक़, पादरी स्टीफेंस की हत्याओं को याद करते हुए कविता का अंत इन शब्दों में किया- “सावधान!/ सांस्कृतिक आतंकवाद/ शिविरों में/ शस्त्र संचालन का/ प्रशिक्षण ले रहा है.” (पृ. 50) संग्रह की कई अन्य कविताओं ‘श्रद्धा के व्यापारी’, ‘हिंदू’ आदि में इस प्रबोधन-भाव की आवृत्ति मिलती है. ‘मुझे देवता न बनाओ’ में उन्होंने डॉ. आंबेडकर को ईश्वर बनाए जाने का निषेध किया है. ‘शहर : एक जंगल’ कविता में एन. सिंह ने नगरीय सभ्यता के चारित्रिक स्खलन पर जैसी चिंता व्यक्त की है वह इस संग्रह के ‘टेम्परामेंट’ के अनुकूल नहीं पड़ती- “वह देखो!/ उस गली के मोड़ पर वह/ सेंडिल ठीक करने के बहाने झुकी है/ लगता है किसी पत्र की आशा में रुकी है!/ जिसमें जिक्र होगा उसकी ख़ूबसूरती का/ और याचना होगी कल कहीं मिलने की!” (पृ. 101) एक वरिष्ठ कवि को कोई सुझाव देना अनपेक्षित-अवांछनीय है मगर इतना निवेदन किया जा सकता है कि अपनी वैचारिक यात्रा के चौथे पड़ाव के रूप में उन्हें स्त्री आंदोलन और लेखन से जुड़ने की बात सोचनी चाहिए.
हिंदी दलित कविता के समूचे परिदृश्य में जो कवि अपनी साधना और सर्जनात्मकता के दम पर सबसे भिन्न नज़र आता है उसका नाम जगदीश पंकज (1952) है. जगदीश वय के हिसाब से तो वरिष्ठतम हैं ही, अपनी अभिव्यक्ति-क्षमता में भी वे अपने समकालीनों की अगुवाई करने लायक हैं. संत परंपरा में जो स्थान सुन्दरदास का है, दलित काव्य परंपरा में वही स्थान जगदीश पंकज का माना जा सकता है. बेहद चयनधर्मी जगदीश के अब तक दो काव्य संग्रह छपे हैं- ‘सुनो मुझे भी’ (2015) और ‘निषिद्धों की गली का नागरिक’ (2015). दोनों को नवगीत संग्रह कहा गया है. प्रस्तुत आलेख में उनके दूसरे संग्रह ‘निषिद्धों की गली का नागरिक’ की चर्चा की जाएगी. इसमें उनकी परवर्ती रचनाएं रखी गई हैं. संग्रह की भूमिका गुलाब सिंह ने लिखी है. संग्रह नवगीत के पुरोधा देवेन्द्र शर्मा ‘इन्द्र’ को समर्पित है. गुलाब सिंह ने जगदीश पंकज को इस अर्थ में कि ‘अंधकार के बाद प्रकाश की संभावना कभी ख़त्म नहीं होती’ ऋक् परंपरा के ऋषि कवियों का वंशधर माना है. अपने ‘आत्मकथ्य’ में जगदीश पंकज ने 1965 के भारत-पाक युद्ध के बाद कवियों में छाई देशभक्ति के परिपार्श्व में अपनी गीत-रचना की मनोभूमि का संकेत किया है. उस दौरान उन्होंने जो गीत रचे वे बकौल कवि साहित्यिकता से रहित थे. इंदिरा गाँधी के प्रधानमंत्री काल में जैसा राजनीतिक माहौल था उससे संवाद करते हुए कवि की समझ बनी. जगदीश ने लिखा है कि निर्धन दलित परिवार में पैदा होने के कारण उन्हें बहुधा उनकी पृष्ठभूमि का अहसास कराया जाता रहा. उनकी रचनाओं में आक्रोश की उपस्थिति का यही कारण है. जगदीश पंकज का मानना है- “मेरी रचनाओं में आक्रोश केवल दलित के लिए ही नहीं है बल्कि शोषण पर आधारित व्यवस्था में न्यायपूर्ण प्रतिकार के लिए समान परिस्थितियों में जीने वाले सभी शोषित, पीड़ित, तिरस्कृत और बहिष्कृत आम नागरिकों की पक्षधरता के लिए सर्जना को मैंने अपना लक्ष्य माना है.”उनकी इस प्रतिबद्धता को दर्शाती पंक्तियाँ हैं-
“भीड़ में भी
तुम मुझे पहचान लोगे
मैं निषिद्धों की
गली का नागरिक हूँ
… मैं प्रवक्ता वंचितों का,
पीड़ितों का
यातना की
रुद्ध-वाणी को कहूँगा
शोषितों को शब्द
देने के लिए ही
हर तरह प्रतिरोध में
लड़ता रहूँगा
पक्षधर हूँ न्याय
समता बंधुता का
मानवी विश्वास का
अविचल पथिक हूँ.”
(पृ. 63-64)
आत्मकथ्य’ में कवि ने भारत की वर्तमान राजनीतिक अवस्था को 1975-77 के मध्य लगाए गए आपातकाल से जोड़कर देखा है. सामूहिक नेतृत्व का एक व्यक्ति में केंद्रित होना तब लोकतंत्र का संकट बना था और वह संकट नए रूप में ज्यादा गहराकर पुनः लौटा है. वैचारिक असहिष्णुता बढ़ी है और “असहमति के स्वरों को दबाने तथा असहमत लोगों पर आक्रमण की घटनाएं लगातार हो रही हैं.” सरकार और शासनसत्ता न केवल असामाजिक ताकतों को रोकने में अक्षम प्रतीत हो रही है “बल्कि उनका संरक्षण भी कर रही है.” ऐसे भयावह वातावरण में कवि प्रतिकार के स्वर में बोल उठता है- “इन हवाओं में भरा आतंक/ खिड़की बंद कर दें/ अब नहीं उठती कहीं/ कोई लहर/ जिंदगी है, एक कर्फ्यूग्रस्त-सा/ कोई शहर/ हादसों से टूटते, इस मौन को/ समवेत स्वर दें/ यह नहीं संभव, सुरक्षित/ रह सकें घर में/ अब उठें, बाहर चलें/ प्रतिकार के स्वर में/ वेदना संचेतना की आग में/ आकार भर दें.” (पृ. 78)
अस्मितावादी राजनीति के अटपटे पहलुओं का प्रश्नांकन, इस राजनीति के दम पर कॅरियर की सीढ़ियाँ चढ़ते ‘रहनुमाओं’ से जिरह एक जिम्मेदार रचनाकार का जरूरी दायित्व है. जगदीश पंकज इस दायित्व को बखूबी समझते हैं. वे भग्न जनाकांक्षा को स्वर देते हुए बोल उठते हैं- “हताशा हँस रही, चिपकी/ अवश, निरुपाय/ चेहरों पर./ … विमर्शों में नहीं कोई/ कहीं मुद्दा कभी बनता/ विरोधाभास में जीती/ विफल, असहाय-सी जनता/ असहमत मूक निर्वाचन/ खड़ा है व्यर्थ/ पहरों पर.” (पृ. 37) सरल समीकरणों से बनती कविताओं वाले सपाट समय में जगदीश अपने लिए मुश्किलों भरा रास्ता चुनते हैं. दूसरों को कसौटी पर कसने से पहले वे स्वयं को सख्ती से जांचते हैं. अन्य की रचनाओं पर टिप्पणी करने से पूर्व वे अपने रचे हुए का औचित्य तलाशते हैं- “मैं स्वयं निःशब्द हूँ, निर्वाक् हूँ/ भौंचक, अचंभित/ क्यों असंगत हूँ/ सभी के साथ में चलते हुए भी/ …भव्य पीठासीन, मंचित/ जो विमर्शों में/ निरापद उक्तियों से/ मैं उन्हें कैसे कहूँ अपना/ सतत गलते हुए भी/ मैं उठाकर तर्जनी/ अपनी बताना चाहता/ संदिग्ध आहट/ किस दिशा, किस ओर/ खतरा है कहाँ/ अपने सगों से/ जो हमारे साथ/ हम बनकर खड़े/ चेहरा बदलकर/ और अवसरवाद के/ बहुरूपियों से, गिरगिटों से,/ या ठगों से/ मैं बनाना चाहता हूँ/ तीर शब्दों को तपाकर/ लक्ष्य भेदन के लिए/ फौलाद में ढलते हुए भी.” (पृ. 59-60) कवि ‘तेवर बदल-बदल कर/ बिना वजह चीखते’ रहने से बचना चाहता है. सार्थक अभिव्यक्ति को शब्दों की गरिमा से जोड़कर देखता कवि विषादपूर्ण वाणी में कहता है- “सतही नारे लेकर/ खुद को ही टेरते रहे/ वादों में बिंध गया स्वयं/ दर्शन अनुताप में सना.” (पृ. 23)
कवि की संवेदनशीलता और प्रतिबद्धता मौलिक धुन का आविष्कार करना चाहती है. ऐसी धुन जो उसके आक्रोश का वहन कर सके, जो पीड़ित समुदाय के सपनों को व्यक्त कर सके- “हमने तो खिले लक्ष्य चुन लिए/ पर उदास स्वप्न खड़े सामने/ …गाते हम स्वामियों की धुन लिए/ किंतु दास स्वप्न खड़े सामने.” (पृ. 36)
प्रश्नाकुलता मौलिकता की पूर्वशर्त होती है. कवि प्रश्नों का परिमाण नहीं घटाना चाहता. वह अपने अंतस के कोने में रखे चिरसंचित विद्रोह-भाव को स्वर देना चाहता है. दिक्कत यह है कि मुक्ति का नया प्रांगण यंत्रचालित है. यहाँ मुक्ति विभ्रम का नवीन पर्याय बनकर आई है. यंत्र-जगत पुराने वर्चस्वधारियों के नियंत्रण में है. उन्होंने जीवित मनुष्यों को निस्पंद आंकड़ों में बदल दिया है. यह नई दासता है- “और कसता जा रहा है/ सांस का बंधन/ जियें हम बेबसी में/ हैं स्वचालित यंत्र जैसे/ हम नियंत्रित/ संगणक की भांति/ गणना कर रहे हैं/ आंकड़ों में बस/ हमारा नाम ही है/ तथ्य सूखे फूल जैसे/ झर रहे हैं/ पारदर्शी आईना है/ क्रूर आवर्तन/ समय है बेकसी में.” (पृ. 26) मुक्ति और दासता का लुभावना घालमेल करके नई बाजार व्यवस्था ने अपने पाँव पसारे हैं. इस ‘बाजार’ को लेकर दलित कविता ज्यादा चिंतित नहीं दिखती. जय प्रकाश लीलवान के बाद जगदीश पंकज ऐसे दूसरे कवि हैं जो इसे अपनी रचना का विषय बनाते हैं. उनकी आलोचनात्मक निगाह से गुजरकर यह मसला दलित साहित्य के सरोकारों में शामिल होता है. विश्वग्राम का हिस्सा बनता ‘न्यू इंडिया’ सिर्फ आश्वासन दे रहा है- “मुक्त-व्यवस्था में संवेदी/ सूचकांक ही निर्णायक है/ प्रतियोगी अवसाद, घुटन भी/ अब कितनी पीड़ादायक है/ …हर आयातित राजमार्ग से/ पहले देशी पगडंडी है/ सबकुछ लाकर बेच रहे हैं/ सजी हुई कचरा मंडी है.” (पृ. 48)
पुराने बाजार की पहुँच सीमित थी. नए बाजार ने देहरी से लेकर शयनकक्ष तक और विचार से लेकर सपनों तक सबको अपनी पहुँच के भीतर कर लिया है- “आ गया बाजार/ घर की देहरी को लांघ/ जागृति से शयन तक/ … इस व्यवस्था में प्रबंधन के/ नियम काफी कड़े हैं/ हम किसी उत्पाद के ही/ लक्ष्य बनकर आँकड़े हैं/ हम इकाई बन रहे बस/ लाभ से लेकर/ निरर्थक अध्ययन तक.” (पृ. 74)
दलित कवि कथ्य को आत्यंतिक महत्त्व देते हैं. भाषा पर वे विचार करते कम ही दिखाई देते हैं. जगदीश पंकज इस मामले में भी सबसे अलग हैं. वे भाषा पर, कथ्य के संवाहक पर उतनी ही गंभीरता से मनन करते हैं. माध्यम के प्रति असावधानी अंतर्वस्तु का क्षरण कर सकती है. जलते हुए शब्द तापरहित हो जा सकते हैं- “जल रहे हैं/ शब्द कुछ/ चिंगारियों के साथ/ लेकिन अर्थ गायब” (पृ. 44) इसीलिए कवि आह्वान करता है- “आइये अब करें/ नवभाषा सृजन हम/ नयी आस्था का/ सुलगता व्याकरण ले.” (पृ. 83)
माध्यम की परवाह करने वाला कवि हिंदी की चिंता भी करता है. अस्मितावादी काव्य-परिदृश्य में यह विरल प्रसंग है- “अब जरा अपने क्षितिज को/ दें नए विस्तार/ भाषा से, सृजन से/ सिर्फ शब्दों से नहीं/ व्यवहार से भी/ अस्मिता के भाल की/ बिंदी बचाएं/ अब प्रदूषण के/ प्रहारों से घिरी जो/ मधुमयी वह शाश्वती/ हिंदी बचाएं/ मित्र भाषा से मिलें जो शब्द/ स्वागत कर मिलें/ अब मुक्त मन से.” (पृ. 73)
श्यौराज सिंह बेचैन (1960) कई विधाओं में सक्रिय हैं. पत्रकारिता, शोध, आलोचना, साहित्येतिहास, आत्मकथा, कहानी आदि क्षेत्रों में उन्होंने उल्लेखनीय योगदान दिया है. उनका तीसरा कविता संग्रह ‘चमार की चाय’ (2017) अपने आकार में पूर्ववर्ती संग्रहों से बड़ा और अपनी वैचारिकता में तुलनात्मक रूप से परिपक्व है. यह संग्रह उन्होंने गुरु रैदास को समर्पित करते हुए उन्हें कार्ल मार्क्स से पहले का साम्यवादी अर्थात् सबके सुख की कामना करने वाला बताया है. इस संग्रह के प्रारंभ में ओम प्रकाश वाल्मीकि, राजेन्द्र बड़गूजर और स्वयं कवि द्वारा लिखित तीन भूमिकाएं हैं. वाल्मीकि जी की भूमिका वस्तुतः वह समीक्षात्मक टिप्पणी है जो उन्होंने बेचैन के पहले काव्य संग्रह ‘क्रौंच हूँ मैं’ पर लिखी थी. इसमें वाल्मीकिजी ने बेचैन की काव्यकर्म की विशेषताओं को स्पष्ट करते हुए उन्हें ‘रोजमर्रा के शब्दों से सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक सरोकारों को अभिव्यक्त’ करने वाला कवि कहा है. इस संदर्भ को आगे बढ़ाते हुए वाल्मीकि जी यह भी कहते हैं कि “दलित साहित्य का उन्मेष संवेदनात्मक अभिव्यक्ति है जो कलात्मक पैतरेबाजी पर विश्वास नहीं करती.”अपनी भूमिका में राजेन्द्र बड़गूजर का निष्कर्षात्मक कथन है, “बेचैन जी आज तक लिखे गये तमाम साहित्य को भोंथरा सिद्ध करते हैं.” उनकी स्थापना है कि “भारत में द्विजों द्वारा लिखा गया साहित्य एक छलावा है.” यह भी कि द्विज कवियों ने अपनी रचनाओं से “वैमनस्य, दकियानूसी और फूट का ही निर्माण किया है. जार कर्म को बढ़ावा दिया है. द्विज कवि की कविता कामोद्दीपक बनी है.” बेचैन को आजीवक परंपरा का कवि बताते हुए राजेन्द्र बड़गूजर कहते हैं, “यदि आजीवक संस्कृति का प्रचार-प्रसार होता, हर व्यक्ति काम में विश्वास रखता तो संभव है हम पूरे विश्व में सर्वश्रेष्ठ होते.” यह ‘भूमिका’ दलित कविता के बारे में हमारी समझ बनाती है या नहीं, इस पर बहस हो सकती है मगर इतना निश्चित है कि यह आलोच्य संग्रह को सृजन-संदर्भ से बढ़ाकर विमर्शात्मक क्षेत्र में रख देती है.
अपनी भूमिका ‘हाय रे! चमार, वाह रे! चमार’ में श्यौराज सिंह बेचैन ने काव्यसंग्रह के शीर्षक ‘चमार की चाय’ पर विचार किया है. शीर्षक के पहले पद ‘चमार’ के औचित्य-निरूपण के सिलसिले में उन्हें निराला, अदम गोंडवी और डॉ. धर्मवीर की रचनाओं क्रमशः ‘चतुरी चमार’, ‘चमारों की गली’ ‘चमार की बेटी रूपा’ की याद आई है. आशय यह कि शीर्षक हेतु इस शब्द के चयन की एक साहित्यिक परंपरा बन चुकी है. नयापन दूसरे पद ‘चाय’ में है. इसका संबंध समकालीन राजनीति से है. ‘एक चाय वाले’ के प्रधानमंत्री बनने के बाद इस शब्द को चर्चा के केंद्र में आना ही था. ‘चाय पर चर्चा’ मार्का राजनीति तो इतनी जल्दी अप्रासंगिक होती हुई पीछे जा चुकी है लेकिन अस्मितावादी विमर्श के अनुकूल होने के कारण इसे शीर्षक के चुना गया है. श्यौराज जी ने लगे हाथ राष्ट्रीय शिक्षा नीति के लिए यह सुझाव भी दिया है कि यू.के., अमेरिका की तर्ज़ पर पढ़ाई के साथ कुछ घंटे शारीरिक श्रम करना अनिवार्य बना देना चाहिए. ‘श्रम संतुलन’ बनाना असल में ‘राष्ट्रोन्नति’ पर ध्यान देना है. “बच्चा किसी का भी हो राष्ट्रपति का या एक आम नागरिक का, उसे पढ़ाई के साथ कुछ घंटे काम करना अनिवार्य होना चाहिए. उन कामों में चाय बेचना भी एक काम है. मानव संसाधन मंत्रालय व्यवस्था करे कि विश्वविद्यालय किसी भी छात्र को स्नातक डिग्री देने से पहले श्रम सम्पन्न करने के प्रमाणपत्र प्रदान करें. उनके बगैर कोई भी पढ़ाई पूरी नहीं मानी जानी चाहिए.”
बौद्ध धम्म से श्यौराज सिंह बेचैन को कोई लगाव नहीं है. यह बात वे अन्यत्र भी लिख चुके हैं. इस भूमिका में भी उन्होंने यह मुद्दा उठाया है. वे बताते हैं कि भिक्षु “बुद्ध विहार में रैदास और कबीर की बात करना पसंद नहीं करते. बुद्ध विहार में रैदास की तस्वीर नहीं टाँगी जा सकती. जबकि सौ में सत्तर भिक्षु पूर्व के चमार हैं, रैदासी हैं और कबीरपंथी हैं.” मा. कांशीराम, मायावती, ‘डेंजर चमार’ की अठारह वर्षीया गायिका गिन्नी माही आदि का उल्लेख करते हुए वे खीझभरे स्वर में पूछते हैं- “पंजाब में चमार मानवतावादी चेतना (वाले) सतगुरु रविदास के साथ बाबा साहेब अम्बेडकर को लेकर चल रहे हैं. इधर के चमार बुद्ध को लेकर और सबको छोड़ने के उपक्रम कर रहे हैं. यहाँ तक कि अपनी पहचान को भी. प्रश्न परेशान करता है कि आखिर बेटा अपने बाप को बाप क्यों नहीं कह पा रहा है?”
भूमिका में उठाए गए मुद्दों की अनुगूँज संग्रह की कविताओं में सुनी जा सकती है. लोकधुन पर आधारित उनकी लंबी कविता ‘इकतारा’ में कहा गया है कि कोई बुद्ध, ईसा या संत दलित की गरिमा नहीं लौटा पाया. इस कविता में तुलसीवादियों से सवाल करते हुए कई पंक्तियाँ हैं. एक प्रसंग देखिए- “तुलसीदास का काव्य-कर्म/ क्यों झूठा साबित करता है/ रामराज बस राज राम का,/ निष्कासन सीता का है./ राज खुला ‘श्यौराज’ आज अब/ अविरल तर्कों के द्वारा/ तुन-तुन…तुन-तुन-तुनन…एकतारा.” (पृ.59) इस अविरल तर्क पर तुलसीवादी शायद ही कुछ बोलें क्योंकि यह प्रसंग तुलसी रचित है नहीं. विमर्शकार को भाषण में नहीं पर लेखन में सावधानी बरतनी चाहिए.
देश को आजादी मिलने के बाद भी दलित उत्पीड़न का सिलसिला थम नहीं रहा. बेचैनजी ने भूमिका में इस सवाल को बहुत शिद्दत से उठाया है और अपनी तमाम कविताओं में भी इसे रखा है. ‘जारी है’ शीर्षक कविता में वे दलितों के अनवरत संघर्ष को रेखांकित करते है. संघर्ष के सफल न होने के कारणों पर विचार करते हुए वे यह भी कह जाते हैं कि दलित स्त्री के साथ न देने से ऐसा हुआ है- “सत्तर साल/ हो गये स्वराज को/ अब तक दलित को/ दला था/ अब क्रूरता से कुचल रहा है./ और मुक्ति युद्ध/ दलित स्त्री को साथ-/ साथ न रहने से/ विफल रहा है.” (पृ.80) जब राजनीति को हर बदलाव की कुंजी माना जा रहा हो उस समय यह कहना ध्यान देने लायक है- “समाज/ बदलेगा/ तो/ बदलेगा देश भी/ सियासत/ बदलने से बहुत-/ कुछ कम बदलता है.” (पृ. 87) ‘गुरु गुड़ चेला शक्कर’ कविता में गुरु-शिष्य का बड़ा रोचक संवाद रचा गया है. इस संवाद का एक अंश देखिए- “चेला बोला-/ “गुरु मैं इसे/ रखूंगा जैसे/ ‘कामरेड’/ जाति को रखकर/ उसमें/ लिप्त नहीं होते हैं./ अथवा जैसे न्यासी/ धन के-/ संरक्षक होते हैं बेशक/ पर आसक्त नहीं होते हैं.” (पृ. 98-99) ‘चमार की चाय’ कविता आत्मकथात्मक शैली में है. नैरेटर का बचपन मुर्दा-मवेशी उठाने में, बूट पालिश करने में, होटल पर बरतन धोने में, अखबार बाँटने में और कृषि-मजदूर बनकर मजदूरी करने में गुजरा. इसके बावजूद पढ़ने की ललक ने उसे शिक्षा के दरवाजे तक पहुँचा दिया. उसके एक दलित मित्र ने उसे चाय की दुकान खुलवा दी. एक ओबीसी मित्र ने इस दुकान पर उसकी अनुपस्थिति में लिख दिया कि यहाँ ‘चमार की चाय’ मिलती है. इस सूचना ने उसकी दुकान के ग्राहक तोड़ दिए. कवि को ये सब बातें तब याद आईं जब प्रधानमंत्री मोदी ने ओबामा को अपने बचपन की कहानी सुनाई. चाय से जुड़े हुए ये दोनों बचपन एक-से होकर भी अलग-अलग हैं-
“हालाँकि वे-
कहाँ हैं और मैं कहाँ हूँ
फिर भी कवि होने के नाते मैं
प्रधानमंत्री जी के हालातों से
अपने हालातों की तुलना कर लेता हूँ.”
(पृ. 116-19)
‘बुरा किया बंटवारों ने’ कविता में बेचैन पुनः बुद्ध से सवाल करते हैं कि क्या उन्हें अपने समय के भंगी, चमार, धोबी, कुम्हार का जीवनवृत्त मालूम था? क्या उन्हें इन लोगों से सहानुभूति थी? यह प्रश्न उन्हें बाबा साहेब तक ले जाता है. वे अपना मंतव्य देते हैं- “इसलिए बाबा साहेब की/ सब शिक्षाएँ शिरोधार्य हैं/ पर बुद्ध की शरण में जाना/ … और ब्राह्मण स्त्री से/ अछूत नायक के विवाह का/ अनुकरण करना लगता है बेकार.” (पृ. 121-22)
इस संग्रह पर मोदी और ओबामा का गहरा असर है. ‘ओबामा’ शीर्षक कविता में यह उद्गार दर्ज है- “ ‘चाय बेचने वाला’/ भारत का प्रधानमंत्री है/ लोकतंत्र के संविधान का चमत्कार है/ ओबामा का विचार है.” (पृ. 141) ‘गंगा का नाती अछूत’ में ओबामा फिर लाए गए हैं- “और तुमने कहा-/ मोदी जी चाय बेचने वाले का बेटा है/ और मेरे ग्रांडफादर बावरची थे. सोचने लगा कि मैं क्या हूँ-/ गंगी चमार का नाती-/ भारत का अछूत?” (पृ. 152) एकता का सूत्र कविता के अंत में भी है-
“उनचास की वय में/ ओबामा की आत्मकथा/ ‘पिता से मिले सपने’/ और पचास की वय में/ मेरी आत्मकथा-/ ‘मेरा बचपन मेरे कंधों पर’/ प्रकाश में आयी और/ दोनों एक साथ दो हज़ार नौ में/ अछूत और अश्वेत जोड़ते हैं हमें.” (पृ. 153)
‘गंगी बब्बा चोखामेला’ कविता में पुनः ओबामा उपस्थित हैं- “ओबामा के दादा-/ रसोइया थे ब्रिटिश आर्मी में/ और मेरे बब्बा/ गुलाम भी थे और अछूत भी.” (पृ. 159) ‘संवाद कविता’ में गाँधी आंबेडकर का संदर्भ पति-पत्नी की अंतरंग बातचीत में बड़े अनूठे और चुटीले अंदाज में प्रस्तुत हुआ है- “सवाल- सो क्यों नहीं जाते,/ रात आधी जा चुकी है./ जवाब- अगर मैं/ सो जाऊँगा तो?/ तो/ गाँधीजी नहीं हो जाऊँगा?/ तो मुझे जागते/ रहना है/ मुझे तो डॉ. अम्बेडकर/ का नक़्शे-कदम होना है./ सवाल- मैं जानती हूँ/ तुम सो नहीं सकोगे/ गाँधी जी नहीं/ तुम अम्बेडकर ही बनोगे/ मैं मर गई तो किसी/ ब्राह्मणी से पुनर्विवाह करोगे.” (पृ. 160)
एक और समान नाम वाली ‘संवाद’ शीर्षक कविता संग्रह के लगभग आख़िरी हिस्से में दी गई है. इसमें आंबेडकर नहीं, मार्क्स मतानुयायी लोगों को निशाने पर लिया गया है- “चिंतन के स्तर पर/ व्यावहारिक/ प्रयोग के रूप में/ और सामाजिक/ स्वीकृति के धरातल पर/ मार्क्स-मत/ बुरी तरह पराजित है.” बेचैन सवाल करते हैं कि कि क्या वामपंथी जाति की गंभीरता समझ सके हैं? क्या वे संविधान-पथ को, अम्बेडकर-मत के अनुयायियों को सही मानकर उनका अनुसरण प्रारंभ कर सके हैं? क्या इन मार्क्सवादियों ने दलित साहित्यकारों का नेतृत्व स्वीकार कर लिया है? इन सभी प्रश्नों का उत्तर नकारात्मक है क्योंकि- “वे इंसानियत/ से सर्वोपरि/ ऊपर उठे हुए देवत्व की/ कोटि के लोग हैं.” (पृ. 181)
संग्रह की अंतिम कविता ‘समय लगेगा’ में बेचैन जी का प्रशांत स्वर इस तरह गूँजा है- “फूँक मारकर-/ अस्पृश्यता भी/ उड़ाई नहीं जा सकती./ समय लगेगा/ सुलझने-समझने में/ जाति धर्म/ अलगाव की गुत्थी-/ यूँ ही नहीं सुलझाई जा सकती.” (पृ. 184)
असंगघोष (1962) वरिष्ठ पीढ़ी के युवा हस्ताक्षर हैं. यहाँ विवेचित अन्य दलित कवियों की तुलना में उनके काव्य संग्रहों की संख्या सबसे अधिक है. उन्होंने काव्य रचना का अपना मार्ग पा लिया है. वे अपनी अभिव्यक्ति में स्पष्ट बहिर्मुखी प्रकृति के कवि हैं. सत्य की पहचान कर लेने के बाद असमंजस की कोई जगह नहीं बचती. असंगघोष न कभी दुविधा में पड़ते हैं और न ही अपने पाठकों को ऊहापोह में डालते हैं. ‘खामोश नहीं हूँ मैं’ संग्रह से उनकी मुखर काव्ययात्रा की शुरुआत हुई थी. ‘हम ही हटाएंगे कोहरा’ से होती हुई उक्त यात्रा ‘ईश्वर की मौत’ (2017) तक पहुँची है. यह उनका छठा काव्यसंग्रह है. प्रस्तुत आलेख में इसी की चर्चा की जाएगी. सरोकार और शैली की एकसूत्रता उनके समस्त संग्रहों को एक जिल्द के भीतर रखती है.
अनुभव और कहन के बीच की पेचीदगियों में ठेठ अस्मितावादी कविता नहीं उलझती. बहुपरतीय यथार्थ के गुत्थमगुत्था जोड़ों और दराजों से होकर लिपिबद्ध हो पाने की राह निकालती भाषा यहाँ निर्बाध बहती है. कविता की काया के विभिन्न पक्ष लय, छंद, आवृत्ति और अन्विति की परवाह सत्य के साथ समझौते की तरह देखे जाते हैं. असंगघोष के काव्य-विस्तार में अस्मितावाद द्वारा मुहैया कराया गया सच अपनी पूरी चमक के साथ मौजूद है. अंधेरा होने से पहले मशाल जला लेने का आह्वान कवि के चौकन्नेपन का सबूत है और शोषकों के शिकस्त की शुरुआत है- “हमारी मशालों की रोशनी में/ जग के सामने नंगा होने से/ कब तक बचेगा/ यह नर पिशाच?” (पृ. 23)
‘ईश्वर की मौत’ संग्रह का आगाज़ ‘जाति की बू!’ कविता से हुआ है. इसमें पुरानी हायरार्की के समांतर नई हायरार्की दिखाई देती है. पुराना पदानुक्रम चेतना में है जबकि नया ठोस रूप में सामने. ‘मैं’ शैली की इस कविता का ‘मैं’ अफसर है और उसका चपरासी पुरानी हायरार्की का ‘कलक्टर’. सवर्ण-दलित और चपरासी-अफसर का यह उलटफेर सवर्णता को सांसत में डाले हुए है. अफसर जब भी अपने इस भृत्य से पानी लाने को कहता है तब-तब उसका चोटिल जात्याभिमान उसके रंग-ढंग में झलक जाता है. अफसर चाहे तो इसके लिए उसे दण्डित कर सकता है मगर, “उसकी इस उद्दंडता पर/ मैं उसे दण्डित भी नहीं करता/ ताकि मेरे हर बार पानी पिलाने को कहते ही/ इसकी श्रेष्ठता पर/ लगती रहे चोट/ कचोटता रहे उसका मन/ कि उसे यह दिन भी देखने थे.” (पृ. 11)
यह सवर्ण सब समय एक-सा नहीं रहता. वह गिरगिट की तरह रंग भी बदलता है जैसे ‘अवसरवादी’ कविता का ‘सफेदपोश त्रिपुंडी’. चुनाव के वक्त वह अपनी ‘देवभाषा’ भूलकर बूट पालिश करने वाले की भाषा बोलने लगता है. इस पहेली को बूट पालिश करने वाला जब तक समझता तब तक वह “चकाचौंध की उस लौ में/ मर्चुरी में लगी/ शव-शीतलन पेटिका के/ उद्घाटन का फीता काटने/ दौड़ पड़ा.” (पृ. 12-13) त्रिपुंडी का मर्चुरी की तरफ दौड़ पड़ना कवि का अर्थपूर्ण संकेत है. इस संकेत को कवि ‘कब्र’ शीर्षक कविता में इस तरह खोल देता है- “ऐसे ही तुम्हारी कब्र भी/ मैं ही खोदूंगा जल्दी/ तुम बस/ अपने कफन का इंतजाम करो.”(पृ. 34) अपनी इस कामना को नैरेटर ने ‘चमगादड़’ कविता में इस तरह रखा है- “मैं/ तुम्हें लटकते देखना चाहता हूँ/ चमगादड़ की तरह उल्टा/ यूकेलिप्टस के पेड़ की/ ऊँची डालियों पर.” (पृ. 76) बरगद और गूलर जैसे पेड़ों की डालियों पर लटकने वाले वास्तविक चमगादड़ यूकेलिप्टस की ऊँची डालियों की तरफ (अगर उसमें लटकने लायक डालियाँ होती हों!) शायद ही कभी रुख करें. ‘ताक धिना धिन’ (पृ.24) का दलित भले ही ताउम्र ‘उनके’ तबले के लिए खाल मढ़ता रहा हो पर उसका बेटा अब उस तबले को बजाने लगा है. ‘समय के साथ वर्चस्व’ इसी तरह टूटता है. इस कविता में संगीत की भाषा का इस्तेमाल उल्लेखनीय है.
ईश्वर का नकार दलित आंदोलन की मूल संकल्पनाओं में है. तमाम दलित कवियों जिनमें मलखान सिंह संभवतः सबसे आगे हैं, ईश्वर को संबोधित कविताओं की खूब रचना की है. इन कविताओं में आस्तिकता पर चोट है, अंध आस्था का उपहास है और ईश्वर की मृत्यु की घोषणा है. वैश्वीकरण के इस युग में जबकि शोषकों ने अपना कायापलट कर लिया है, ईश्वर को ख़ारिज करने वाली कविताएं लिखना ‘सेफ जोन’ में विचरण करना है. आज जिस दमनतंत्र से लोकतांत्रिक शक्तियों को जूझना है वह ईश्वर-विश्वासी नहीं है. वह भी आपके स्वर में अपना स्वर मिलाकर कह सकता है कि ईश्वर, “अरे! वह तो/ कभी का मर गया है!” (पृ. 63) तब इस तरह की सलाहें कितनी प्रासंगिक रह जाती हैं- “उस कमजर्फ ईश्वर को/ जोर से गरियाओ!” (पृ. 55) धर्मसत्ता ने दलित समुदाय पर जो हीनता थोपी है, इतिहास के इतने लंबे दौर में उसे दबाकर रखा है उसकी इतनी उग्र प्रतिक्रिया अस्वाभाविक नहीं कही जा सकती- “इस आसमान को गहरे से जोतकर/ उस (ईश्वर) का सिंहासन ध्वस्त करेंगे/ ख़त्म करेंगे उसकी सत्ता/ उसका कुटिल राज.” (पृ. 122) कवि का विश्वास कितना भोला है कि ईश्वर की सत्ता का ध्वस्त होना समतापूर्ण समाज की गारंटी है! वह प्रदत्त भाषा की छानबीन किए बगैर उसका प्रयोग करता है और अपने आक्रोश को संग्रह के बिलकुल अंत में इस ऊँचाई पर ले जाकर विस्फोटक अंदाज में व्यक्त करता है- “अब चीखने की बारी/ तेरी है/ तू चीख स्साले!” (पृ.128)
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पेंटिग : Sunil Abhiman Awachar
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(ग)
युवतर पीढ़ी के दलित रचनाकारों में दलित स्त्री कवियों की उपस्थिति विशेष रूप से उल्लेखनीय है. मूल्यबोध, सरोकार, गुणवत्ता और विशिष्ट पीढ़ीगत अंतर के लिहाज से दलित स्त्री कविता को अस्मितावादी विमर्श से कुछ भिन्न और स्वायत्त मानते हुए उस पर अलग से विचार किया जाना उचित रहेगा. यहाँ दलित अस्मितावादी काव्यधारा के कुछ नए हस्ताक्षरों तक लेख को सीमित रखा जाएगा. नए रचनाकारों को हम कुछ अपेक्षाओं के साथ पढ़ते हैं. ये अपेक्षाएं उस काव्यधारा-विशेष की परंपरा और समकालीन परिस्थितियों के आग्रह के योग से बनती हैं. परंपरा में नवता का सन्निवेश करते रहना जरूरी होता है. यह काम रुक जाए तो परंपरा रूढ़ि बनने लगती है. रचना पिष्टपेषण-भर न हो इसके लिए अभिव्यक्ति के माध्यम अर्थात भाषा प्रयोग के संबंध में सावधानी बरती जाती है. अंतर्वस्तु और अभीष्ट बहुत-कुछ समान होते हुए भी कविता की प्रभाव-क्षमता तथा ग्राह्यता में जो अंतर आता है वह मुख्यतः भाषा को बरतने के ढंग के कारण. भाषा-बर्ताव का एक सिरा पुरखा-कवियों को जानने और उनके भाषा-व्यवहार के अधिगम से जुड़ता है. ‘अपनी’ परंपरा के कवियों को पढ़ना जरूरी है तो ‘विरोधी’ परंपरा के रचनाकारों को जानना भी उपयोगी हो सकता है. पुराने काव्य-संसार को साझी विरासत मानना इस अर्थ में समृद्धिकारक है कि इससे परंपरा पर दावेदारी का दायरा बढ़ता है और मजबूत भी होता है. परंपरा के नकार पर प्रारंभिक पीढ़ी का बल था. आज जरूरत है उसके साथ विवेकपूर्ण आलोचनात्मक संबंध बनाने की. अद्यतन वैश्विक ज्ञान-संपदा और सृजन से गहरी वाकफियत आवश्यक है. सोशल मीडिया पर हो रही गतिविधियाँ विश्व साहित्य के प्रति नए दलित रचनाकारों की बढ़ती जिज्ञासा का साक्ष्य देती हैं. इस जुड़ाव के नतीजे आने वाले दिनों में दिखाई देंगे.
नई पीढ़ी के हीरालाल राजस्थानी (1968) पेशे से मूर्तिकार हैं. वे दलित कार्यकर्ता और संगठनकर्ता भी हैं. कविता उनकी अभिव्यक्ति का प्राथमिक माध्यम नहीं है. अपने पहले काव्यसंग्रह ‘मैं साधु नहीं’ (2017) की भूमिका में उन्होंने स्वीकारा है, “मेरी रुचि का क्षेत्र मूर्तिकला है. लेकिन जब मेरी अभिव्यक्ति वहाँ पूरी नहीं होती तो मैं उसे लेखन में पूरी करने का प्रयास करता हूँ.” अभिव्यक्ति की पूरक विधा के तौर पर कविता कभी कवि के मनोगत को निखार-संवार कर प्रकट कर देती है तो कभी फिसलकर अनचाहा भी घटित कर देती है. कविता को पूरा वक़्त चाहिए, जीवन का हर क्षण चाहिए, यह बात हर नवागत सृजनोन्मुख व्यक्ति को समझनी है. हीरालाल राजस्थानी अपने अनुभवों और सरोकारों को बड़े दायरे में रखकर देखते हैं. वे जातिभेद के साथ वर्गभेद से मिले दंश को भी रेखांकित करते हैं. उन्होंने अपने इस कविता संग्रह को दलित लेखक संघ की उपलब्धि के रूप में देखा है. उनके संग्रह की प्रस्तावना शीलबोधि ने लिखी है. शीलबोधि स्वयं कवि हैं. उनका कहना है कि हीरालाल के सृजन से “आशाओं के झरने निकलते” हैं. यह भी कि उनकी “कविताओं में परिवार और समाज समान महत्त्व के साथ” आए हैं. कलावादी लोग हीरालाल की कविताओं से ‘बहुत-कुछ सीख’ सकते हैं, शीलबोधि ने यह मंतव्य भी जाहिर किया है.
आंबेडकरवादी विचार से सम्बद्धता के कारण हीरालाल राजस्थानी की कविताओं का तेवर पूर्वपरिचित है. वे गाँव को रहने लायक नहीं मानते. संग्रह की पहली कविता में वे कहते हैं- “गाँव से शहर भले/ जहाँ न ठाकुर का कुआँ,/ न मनुवादी मुंडेरें.” ‘मनुवादी मुंडेर’ एक ध्यानाकर्षक बिंब है. आज से आधी शताब्दी पहले यह स्थापना निरापद-सी थी कि शहर रहने के लिए भले हैं. आज जब निगम की पाइपलाइन अक्सर सूखी रहती है और आटे-दाल का बजट रोज बीस लीटर पानी का पीपा खरीदने में खर्च होता है तो शहर की हिमायत में कवि की वर्गीय स्थिति भी शामिल हो जाती है.
विचार की संकरी गलियों को पहचानकर हीरालाल ‘मानवता’ के विचार को ही सर्वश्रेष्ठ मानते हैं. ‘सर्वश्रेष्ठ’ नामक कविता में वे कहते हैं कि स्त्री और पुरुष दोनों को इंसान बनाने की जरूरत है. ‘इच्छा’ शीर्षक कविता में वे परिवार की रूढ़ आदर्श धारणा का अनुमोदन करते हैं. ‘सौंदर्य’ कविता में वे वास्तविक सौंदर्य को मन व विचार के स्वस्थ होने में देखते हैं. ‘सकारात्मकता’ कविता में वे स्त्री के ‘गृहणी’ होने की सार्थकता को इस तरह रेखांकित करते हैं- “एक स्त्री/ जो सूरत से बदसूरत/ लेकिन उसके चेहरे पर/ गर्व के भाव हैं/ क्योंकि वह गृहणी है/ घर को संभालती/ परिवार को पालती है.” (पृ. 29) इस कविता का उलट भाव दूसरी कविता में है- “स्त्रियाँ तो अब वे हैं/ जो घरों की चारदीवारी में सड़ रही हैं/खेतों की फसलों में खप रही हैं/ रिश्तों के तानो-बानों में उलझ गयी हैं” (पृ. 30) माँ पर लिखते हुए वे पुनः दिल की गहराइयों से चिर-परिचित शैली में महिमागान करते हैं- “तुम जननी/ सृष्टि-सृजन के लिए/ साक्षात् शक्ति रूप/ तुम्हारा जन्म देना/ दुनिया का सबसे/ सुंदर भाव है/ इसके लिए तुम/ सम्मान की अधिकारणी हो/ ये आनन्द सहज बनाए रखना/ क्योंकि/ इसके आगे पूरा ब्रह्माण्ड/ तुच्छ और नत-मस्तक है.” (पृ. 33)
शायर को लीक छोड़कर चलने वाला कहा गया है. यह कथन आलंकारिक है. ऐसे अवसर बहुत कम होते हैं जब शायर बे-लीक होता हो. विमर्शपरक कविता की अपनी लीक बनी है. कवि इस लीक पर चलता है और चलने की सलाह भी देता है- “अनुभवों का प्रकाश लेकर/ तुम रोशन करते रहना/ हर दीये को/ … अपने जीवन का सारांश बाँटते रहना/ अपनी कौमी संतानों को.”(पृ. 34) कुछ कविताओं में हीरालाल जीवन की बिडंबनाओं को निरायास व्यक्त करते नज़र आए हैं. उनकी ऐसी एक कविता है ‘ईमानदारी’- “ईमानदारी/ बैसाखियों के सहारे/ वफादारी की/ चौखट पर/ दासता की बेड़ियों में/ छटपटाती/ दम तोड़ती/ साँसों के समंदर में डूब/ अपना वजूद/ खोजती हुई/ लाश बनकर/ ऊपर तैर आती है!!” (पृ. 22) कबीर के सन्दर्भ से लिखी उनकी लघु कविता ऐसी ही है. भाषा व्यवहार के मामले में हीरालाल कई बार असावधान दिखते हैं और कई बार कुछ अबूझ-सा रच जाते हैं- “मन जब/ आकार की/ प्रक्रिया में होता है/ तो वह व्यवहार में/ तब्दील हो/ अच्छा या बुरा होने लगता है.”(पृ. 15)
भाषा का ऐसा ही प्रयोग उन्होंने काव्य-संग्रह के समर्पण वाली पंक्ति में किया है- “उन/ महानुभवों/ को समर्पित/ जो मानवीय/ मूल्यों के/ सरोकार रहे/ हैं!” संत काव्य परंपरा में ‘साधु’ शब्द बार-बार प्रयुक्त हुआ है. कबीर तो बहुधा साधु को ही संबोधित करते हैं. यह साधु अकर्मण्य प्राणी नहीं है. वह जीवन को सहज जीता हुआ, सारे सामाजिक और पारिवारिक दायित्वों का निर्वाह करता हुआ चिंतनशील आचरणशुद्ध व्यक्ति है. अपने संग्रह का शीर्षक ‘मैं साधु नहीं’ तय करते हुए हीरालाल ने अर्थ-विपर्यय कर दिया है. इस शीर्षक से लिखी कविता में उनका कथन है- “मैं साधु नहीं/ क्योंकि/ मुझे मोह है उनसे/ जो नहीं टूटते कभी मेहनत से!” (पृ. 68) ‘मेरी कलम’ नामक कविता में वे इसे (कोष्ठक में अर्थ देकर)और स्पष्ट करते हैं- “मेरी कलम/ …मेरी उँगलियों को/ संगठित होना सिखा/ मुझे साधु (निकम्मा)/ होने से भी बचाती है.”
‘उल्टा चोर’ और ‘नीला सलाम’ जैसी कविताओं में हीरालाल राजस्थानी संभावनाशील कवि के
रूप में दिखाई पड़े हैं. उनका आक्रोश जितना विस्तृत, समावेशी, सांद्र, अंतर्मुखी अर्थात् काव्योचित होता जाएगा, यह संभावना उतनी ही मूर्त होती जाएगी.
कर्मानन्द आर्य (1984) के स्वभाव में कविता रची-बसी है. आलोचक बिना कोई जोखिम उठाए उनकी कविताओं की मुक्तमन से सराहना कर सकते हैं. अपने पहले संग्रह ‘अयोध्या और मगहर के बीच’ (2016) में वे विविध रुचियों वाले कवि के रूप में दिखाई पड़ते हैं. इस वैविध्य में अन्विति है, विरुद्धों का सामंजस्य नहीं. अस्मितामूलक चेतना उनके सृजन की नियामक शक्ति है. प्रस्तुत संग्रह का केन्द्रीय भाव प्रेम है. अस्मिता का मेल आक्रोश से बैठता है परंतु यहाँ प्रेम से उसकी सहज संगति बन गई है. इस रसायन में आक्रोश जज्ब हो गया है. आत्मचेतस प्रेम स्त्री-स्वत्व के प्रति खासा संवेदनशील है. नई बनती स्त्री की छवियाँ उनके यहाँ अपेक्षाकृत कम हो सकती हैं मगर स्त्री-व्यक्तिसत्ता के प्रति सजग-सचेत नए बनते ‘पुरुष’ का चित्र उन्होंने बखूबी खींचा है- “इसी धरती के किसी कोने पर/ कोई मेरी तरह जिद्दी है/ कोई तेजवान, अकेला इन दिनों/ देखता है तुम्हारे ख्वाब/ बिलकुल मेरी तरह/ मुझे अच्छा लगता है/ कोई चाहता है तुम्हें/ मेरी सतृष्ण चाहतों के साथ/ ओ मेरी प्रिया! ओ मेरी पत्नी/
एक विचित्र अर्थ में धर्मशास्त्र अस्मितावादी कविता के लिए उपजीव्य होते हैं. मिथकों, पुराण-कथाओं और शास्त्रीय वचनों से ईंट-गारा लेकर यह कविता आकार ग्रहण करती है. अस्मितावादी कविता चाहकर भी शास्त्र के सन्दर्भों से असम्पृक्त नहीं रह सकती है. अपनी कविताओं के लिए कर्मानन्द भी ‘शास्त्र’ की तरफ जाते हैं. उनकी खूबी यह है कि वे राजनीतिक संदर्भ देकर ‘शास्त्र’ से ली गई सामग्री को समकालिक बना देते हैं. उनके संग्रह का शीर्षक इसकी पुष्टि करता है. संग्रह की भूमिका में नंद भारद्वाज ने लिखा है- “एक तरफ अयोध्या, जो कि तुलसी विरचित राम की जन्मभूमि के रूप में सनातनी आस्था का केन्द्र मात्र था, वह धर्म और वोट की सतही राजनीति के चलते एक संवेदनशील मुद्दा बनता गया, वहीं दूसरी तरफ तुलसी के ही समकालीन संत कवि कबीर की पुण्यस्थली मगहर और उसी सनातनी रूढ़ परंपरा के विरुद्ध उनकी धर्मनिरपेक्ष सोच सत्ता-व्यवस्था की उपेक्षा का शिकार होती गई है.” (पृ. 9) गाय की राजनीति और गौ रक्षकों के आतंक के समय में एक कवि की प्रतिक्रिया आलोच्य संग्रह में इस तरह दर्ज है-“गाय नहीं, बकरी माँ है/ न किसी से ईर्ष्या न द्वेष/ न वैतरणी पार कराने की जहमत/ वे नहीं चाहती थीं सांस्कृतिक बगावत.” (पृ.67)
संस्कृति को विद्रूप करके उपजी राजनीति शासन के सेकुलर ताने-बाने को अपदस्थ करती चलती है. इस राजनीति से मुकाबला करने के लिए चाहे-अनचाहे उसी संस्कृति-कोष से सामग्री लेनी पड़ती है. कर्मानन्द की कविता यह जिम्मा ठीक से निभाती है- “रामलला, समझते हैं राजनीति का व्याकरण/ बूढ़ी आस्थाओं के डूब जाने से पहले/ रोते हैं कभी-कभी अपने कृत कर्मों पर/ थरथराती है दीपक की लौ भीत एवं मद्धम/ दूरियों को पाटने वाली राहें/ पोंछती हैं पसीना/ छांह बरसाती धूप के लिए ढूंढते हुए आसरा/ सुखी हैं अयोध्यावासी/ मगहर चर्चा में नहीं रहता/ खुद से डरा सहमा पहुँचता है राजधानी/ एक डरे हुए दलित की तरह/ जिसका खेत छीन लिया है दबंगों ने/ थाने में जिसकी रपट नहीं लिखता दरोगा/ उल्टा चोरी के आरोप में कैद करता है उसकी आत्मा/ हर बार विडंबना की राह चलता/ मगहर अयोध्या के आईने में अपना अक्स देखता है/ जैसे दाढ़ी का सफ़ेद बाल देखता है बूढ़ा युवा.” (पृ. 60)
चोरी के आरोप में कैद की जाती आत्मा, दाढ़ी के सफ़ेद बाल देखता बूढ़ा युवा जैसे कथन सामान्य अनुभव को व्यंजक बना देते हैं. ऐसी ही व्यंजकता उनकी ‘जनरल डायर’ कविता में दिखाई देती है- “सोचता हूँ तुम्हारा होना कितना प्रासंगिक है/ जब देश के सत्तर प्रतिशत नागरिक स्वतंत्रता का हठ किए बैठे हों.” (पृ. 114) जनरल डायर की प्रासंगिकता की कई वजहें कविता में चित्रित हैं. उनमें एक वजह यह भी है- “तुम्हारा सीना तो नहीं नापा मैंने/ लेकिन प्रधानमंत्री के सीने से बिल्कुल कम नहीं होगा/ तुम्हारे सीने का आयतन”. कविता की आत्मपरक शैली ऊधम सिंह का स्मरण कराती है. ऊधम से कवि का नाता जुड़ता तो है!
अपने दो पुरखों- बाबा साहेब आंबेडकर और नामदेव ढसाल को कवि ने बहुत शिद्दत से याद किया है. बाबा साहेब पर हिंदी के अन्य दलित कवियों ने भी लिखा है पर उनमें श्रद्धा का तत्व ज्यादा और कविताई कम है. कर्मानन्द ने इनके मध्य संतुलन बनाने की कोशिश की है. आंबेडकर पर लिखी उनकी कविता इस तरह शुरू होती है– “इससे पहले न ऐसी धरती थी न ऐसी मिट्टी/ न कोई कला थी न ऐसा कलाकार/ न ऐसी नफरत थी न ऐसा प्रेम/ फिर तुमने मिट्टी को छुआ/ कला पैदा हुई/ कलाकार पैदा हुआ/ प्रेम पैदा हुआ”. (पृ. 115)
ढसाल पर लिखी कविता में वे इस ‘पैंथर’ कवि का महत्त्व रेखांकित करते हैं- “तुम्हारी कविता का एक शब्द/ खोल रहा है सदियों से रुंधा हुआ गला/ …हर नदी के पानी से जुड़ी हुई है/ तुम्हारी आवाज”. (पृ. 110)
तथागत बुद्ध का उल्लेख उनकी कविता ‘कोई लाश जलती है मेरे भीतर’ में इस तरह हुआ है- “जब यशोधरा को छोड़कर गए थे बुद्ध, बहुत रोये थे/ ध्यानमग्न होते हुए उभर आती थी एक तस्वीर.” (पृ. 51) नियमगिरि की पहाड़ियों की मृत्यु से संदर्भित शोकगीत की तरह है यह कविता. बहुराष्ट्रीय निगमों के उजाड़चक्र में फंसकर कटते, सूखते, नष्ट होते जंगल-बगीचे, नदी-नाले और गिरि-प्रांतर के साथ अपनी चिता को जलती देखना कवि की पराभूत मनोवृत्ति का सूचक नहीं अपितु उसकी द्रावक प्रतिबद्धता का प्रमाण है- “मुझे सुकून है/ उन्हीं पहाड़ियों पर जल रही है मेरी चिता/ मैंने मृत्यु से पलायन का समझौता नहीं किया.” (पृ. 52)
‘जेंडर सेंसिटिव’ कवि के रूप में कर्मानन्द एक तरफ एक्टिविस्ट की तरह दिखाई देते हैं तो दूसरी तरफ गझिन अनुभूतियों वाले सर्जक के रूप में. ‘तेलू ठकुराइन की अचकन’ (पृ. 57) में उनकी कविता की स्त्री थोपी गई जिंदगी से विद्रोह करती है तो ‘लज्जा तुम्हारा आभूषण नहीं है’ में वे दलित स्त्रियों से कहते हैं- “तुम्हारे खून में आ रहा है उबाल/ तुम आक्रोश को गीत में बदल रही हो/… दलिताओं! लज्जा तुम्हारा आभूषण नहीं है/ तुम्हारा आभूषण है ज्ञान, विवेक, विद्रोह.” (पृ. 56) प्रेम कवि के रूप में कभी वे संलग्नता की मनःस्थिति में और कभी विषाद की भावदशा में दिखाई देते हैं. ‘यादों के डाकिये’ कविता में उनकी अनुभूति इस तरह शब्दबद्ध हुई है- “तुम्हारी याद आ रही है/ जबकि यह यादों का मौसम नहीं है/ पारंपरिक प्रेम जा चुका है/ आदतों में बदलाव और बेचैनी बढ़ रही है/ जिधर देखता हूँ उधर/ और जिधर नहीं देखता वहाँ सब ओर सन्नाटा है. (पृ. 77) स्मृतियाँ प्रेम के तंतुओं को पुनर्नवा करती प्राणवान बनाए रखती हैं. कर्मानन्द की कई प्रेम कविताओं में यादों को पृष्ठभूमि से अग्रभूमि तक रखा गया है- “जब बहुत उदास और बोझिल रातों में/ यादों का डाकिया/ डाल जाता है तुम्हारी डाक/ जब आरती के दिए की तरह/ एक मद्धिम लौ/ उन अक्षरों पर बेहोश हो जाती है/ जब काली रातो का अंत शुरू में ही हो आता है/ तब मैं बहुत देर/ बहुत वक़्त तक/ पढ़ता हूँ तुम्हारे वे लब/ जो लिखे नहीं जा सके/ कहे न जा सके/ जिए न जा सके/ पिछली कई सदियों के पहले.” (पृ. 98) प्रेम काव्य के प्रसंग में कर्मानन्द ने एक कविता में बाणभट्ट को याद किया है. ‘उत्तर बाणभट्ट’ शीर्षक से लिखी यह कविता सातवीं सदी के कादंबरीकार को सलाह देने के खयाल से रची गई लगती है- “लिखो बाणभट्ट/ प्रेम केवल राजाओं की विरासत नहीं/ वह कवियों को भी मिलता है/ यथावसर.”(पृ. 79)
बाण को अगर उत्तर देने का मौका मिलता तो वे कहते कि किसी अन्य लेखक (आ. हजारी प्रसाद द्विवेदी) के जरिए संवाद करने या सलाह देने की बजाए सीधे मुझसे मुखातिब होते तो क्या ही अच्छा होता! बाण ने लिखा है कि उनके समय में प्रेम में डूबे कवि लोक में खूब दिखाई देते हैं- ‘प्रायः कुकवयो लोके रागाधिष्ठित दृष्टयः.’ प्रेम में डूबे होना और प्रेम में डूबे दिखना दो भिन्न या उलट स्थितियाँ हैं. बाण ऐसे पाखंडी प्रेम कवियों को ‘कुकवि’ कहते हैं. इनकी संख्या में कमी आई हो, ऐसा नहीं लगता. तीन जन्मों में प्रेमकथा ‘कादंबरी’ में संभवतः पहली बार भारतीय साहित्य में कोई चांडाल कन्या पूरे स्वाभिमान के साथ राजभवन में प्रवेश करती है और पहली बार सती प्रथा का संज्ञान लेकर उसके विरुद्ध किसी कवि की आवाज सुनाई पड़ती है! जो हो, एक नए रचनाकार का प्राचीन कवि से यह संवाद प्रीतिकर है.
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पेंटिग : Sunil Abhiman Awachar
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दलित कविता की अंतर्धारा में युयुत्सा मुख्य है. युयुत्सा युद्धैषणा= युद्ध करने की इच्छा है. वागीश शुक्ल की किताब ‘शहंशाह के कपड़े कहाँ हैं?’ (2006) के पहले निबंध ‘साहित्य क्या है?’ के शुरुआती वाक्य में कहा गया है- ‘साहित्य मृत्यु का सामना करने की विधि है.’ प्रस्तुत प्रसंग में इस कथन को कुछ इस तरह रखना चाहूँगा : दलित कविता हत्या का सामना करने की तरकीब है. दलित कविता एक अनचाहे युद्ध से जूझते हुए रची जाती है. मृत्यु अवश्य ही अजेय है और उसके आगमन का देशकाल भी पूरी तरह अज्ञात होता है लेकिन दलित कविता जिस युद्ध और हत्या का मुकाबला करती है उसका पता-ठिकाना अक्सर पहले से मालूम रहता है. विवाह में दलित दूल्हे का घोड़े पर बैठना हो या किसी दलित का प्रधानी के इलेक्शन में खड़े होना ये सब हत्या को आमंत्रित करने वाले कारण बन जाते हैं. मगर, ये नए कारण हैं और मात्र इनके उल्लेख से यह भ्रम हो सकता है कि जाति आधारित हत्या कोई नया फेनोमिना है. सचाई यह कि हमलों और हत्याओं का विधान वर्णवादी अपसंस्कृति के मूल में है. सर उठाकर चलता हुआ दलित ‘प्रभु-नेत्रों’ के लिए असह्य रहा है. दलित कविता इन्हीं हत्यारी निगाहों का सामना करने के क्रम में विकसित हुई है. वह इसीलिए युयुत्सा की नहीं, प्रति-युयुत्सा की कविता है. उसकी आक्रामकता प्राथमिक नहीं, प्रतिरोधी है. उसमें आक्रमण की कला नहीं, प्रत्याक्रमण की मजबूरी है.
दलित अनुभव हिंसा झेलने के अनुभव हैं. दलित स्मृति हत्या, लूटपाट, आगजनी और निर्वासन के अनुभवों से भरी हुई है. स्मृतियों की यह दुनियां दलित कवि को विरासत में मिलती है. हिंसापूरित वर्तमान इसे हीनता, हताशा और अवसादबोध से संवलित करता चलता है. दलित कविता को ऐसे माहौल में अपनी भूमिका पहचाननी और निभानी पड़ती है. दलित कवि भीतरी सीमा पर घनीभूत हताशा से टकराता है और बाहरी सीमा पर प्रतिरक्षा के तरीकों की खोज में लगा रहता है. वह खामोश रहने के नतीजों से वाकिफ है. स्वयं बोलता कवि औरों का मौन भी तोड़ना चाहता है-
“जितना रहोगे चुप
मारे जाओगे बेदर्दी से उतना ही
उनके हाथों में होंगे
तमंचे, बंदूक, लाठी, डंडे, हथगोले
साथ होगी पुलिस, सेना, शक्ति
और तुम निहत्थे
मारे जाओगे
बचकर भागने से पहले ही
तुम्हारी चुप्पी ही हो जाएगी खड़ी
तुम्हारा रास्ता रोककर.”
(ओम प्रकाश वाल्मीकि, पृ. 97)
वे किसी अपरिहार्य कारण से ही हत्या करते हों, यह कतई आवश्यक नहीं है. सीधे खड़े होने, आसमान ताकने, हँसने, गुनगुनाने और बिना डरे बोलने-भर से वे चिढ़ सकते हैं और हत्या करने पर उतर सकते हैं- “जब जब तुम कोशिश करते हो/ आदमी बनने की/ वे चौकन्ने होकर/ लग जाते हैं तैयारी में/ एक और युद्ध की.” (वही, पृ. 47) कर्मानन्द उन स्थलों को चिन्हित करते हैं जहाँ हत्याएं हुई हैं- “दिल्ली, पटना, झाबुआ, गोहाना, बाथे/ वर्णवादी फौजें रोज मारती हैं जिन्हें/ उनके कपड़े उतारती हैं रोज/ जिस देश में सबको पिटने की आदत हो/ वहां जज वाली अदालत खामोश बैठी रहती है.” (पृ. 47) सतत, संगठित और सुनियोजित हत्याओं से डरे-सहमे समुदाय में आत्म-विश्वास पैदा करते देवेन्द्र कुमार बंगाली का स्वर मुक्तिबोध के स्वर से मिलता है. ‘भूल गलती’ का काव्य-नायक हार का बदला चुकाने आता है. यह नायक कोई और नहीं ‘हृदय का गुप्त स्वर्णाक्षर’ है जिसे मुक्तिबोध ने ‘संकल्प-धर्मा चेतना का रक्तप्लावित स्वर’ कहा है. देवेन्द्र की कविता ‘कोठ का बाँस’ का नायक दलित जन के द्रवीभूत आक्रोश का साकार होता रूप ही है जिसका साथ देने के लिए पूरी प्रकृति तैयार हो गई है-
“कल तक का गुस्सा
जो रात एक जगह जम गया था
सुबह होते ही पिघलकर चारों तरफ फैलने लगा
देखते-देखते आसमान लाल हो उठा
उसने मुड़कर देखा
वह अकेला नहीं था और न निहत्था
हवा के तेज झोंके से
शाख और पत्तियों में ठन गई थी
पौधे अगल-बगल में खड़े थे
कमर की सीध में बन्दूक की तरह तने हुए
झाड़ियाँ तरकश के तीर की तरह
गर्दन निकालकर टाक रही थीं मौके की ताक में
एक इशारे पर बाहर निकलने के लिए
किनारे की कोठ का बाँस झुक आया था
नीचे जमीन तक
गोया कह रहा हो कि देखो मुझमें
कितनी लाठियाँ निकल सकती हैं?
मैं ख़त्म होने को नहीं
काटने के बाद अगली बरसात में फिर कोंपल फूटेगी
नये नये बाँस होंगे मुझसे भी ऊँचे
मजबूत और सलीके के
आने वाले सूरज का स्वागत करने के लिए
मेरी पैदाइश ही है जुर्म के विरोध में.”(पृ. 276)
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संदर्भ ग्रंथ-सूची
असंगघोष, ‘ईश्वर की मौत’(2017), सान्निध्य बुक्स, गाँधीनगर, दिल्ली.
ओमप्रकाश वाल्मीकि, ‘अब और नहीं…’ (2009), राधाकृष्ण प्रकाशन प्रा.लि., दरियागंज, नयी दिल्ली.
डॉ. एन. सिंह, ‘अँधेरों के विरुद्ध’ (2016), वाणी प्रकाशन, दरियागंज, नयी दिल्ली.
कर्मानन्द आर्य, ‘अयोध्या और मगहर के बीच’ (2016), करतारपुरा इंडस्ट्रियल एरिया, जयपुर.
जगदीश पंकज, ‘निषिद्धों की गली का नागरिक’ (2015), अनुभव प्रकाशन, साहिबाबाद, गाजियाबाद.
जय प्रकाश लीलवान, ‘समय की आदमखोर धुन’ (2009), भारतीय दलित अध्ययन संस्थान, नई दिल्ली.
देवेन्द्र आर्य, ‘आधुनिक हिन्दी कविता के पहले दलित कवि : देवेन्द्र कुमार बंगाली’ (2017), ऑथर्स प्राइड पब्लिशर प्रा.लि., मयूर विहार, नई दिल्ली.
वागीश शुक्ल, ‘शहंशाह के कपड़े कहाँ हैं?’ (2006), वाणी प्रकाशन, दरियागंज, नयी दिल्ली.
श्यौराज सिंह बेचैन, ‘चमार की चाय’ (2017), वाणी प्रकाशन, दरियागंज, नयी दिल्ली.
डॉ. सी. बी. भारती, ‘लड़कर छीन लेंगे हम’ (2017), वाणी प्रकाशन, दरियागंज, नयी दिल्ली.
हीरालाल राजस्थानी, ‘मैं साधु नहीं’ (2017), कदम प्रकाशन, रोहिणी, दिल्ली.
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