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चार तिलों की चाहत और एक बिंदी लाल
ये किसकी इच्छा के अश्रु हैं
जो इस गोरी देह पर निर्लज्जता से जमे हुए काले पड़ रहे हैं
मेरी नाक पर एक थक्का है, जिसे घोड़े की पूँछ के बाल से मैं छील देना चाहती थी
मुट्ठी की उम्रक़ैद देना चाहती थी, हथेली पर उगी चाह को
तलुवे की खुजलाहट को घिस- घिस कर छुटाना चाहती थी
छाती के दर्द को मैं कर देना चाहती थी तड़ीपार
किसकी गाढ़ी लालसा ने आकार ले लिया है ?
कौन इन काले धब्बों पर हँसता है ?
रात और कुछ नहीं मेरी चाह की चादर है
मैंने जन्मों ओढ़ी हैं फटी चादरें
किसी नवजात शिशु की उजली देह हूँ मैं रात के अंतिम पहर
एक क्षण के स्मरण में भीगी हुयी बाती है मेरी उम्र
मैं जलती हूँ दीये सी, मिट्टी की उजली देह हूँ
दीपक राग की तरह मुझे गुनगुनाता है ईश्वर
कौमार्य का आलोक हूँ
मेरी भौंहों के बीच अपने लहू का तिल कौन रख गया ?
कि जैसे दो पर्वतों के बीच उगा सूरज पोंछ जाता है रात की स्याही को
जलपरियाँ
उन मछलियों को अपने काँटों में मत फाँसो
उनकी छाती में पहले ही काँटा गड़ा है
कौन कहता है मछलियों की आवाज़ नहीं होती ?
मछलियों की पलकों में उलझी हैं सिसकियाँ
टुकुर – टुकुर बोलती जाती हैं निरंतर
उनके स्वर से बुना हुआ है समुद्र का सन्नाटा
ऐसा कोई समुद्र नहीं जहां मछलियाँ रहती हों
समुद्र ठहरे हुए हैं मछलियों की आँखों में
दुनिया देख ली हमने बहुत, सातों समुद्र पार किए
जलपरियों के लिए कहीं भी सड़कें नहीं मिलतीं
बुरे वक़्त में
एक रात मैं पूरी ताक़त से चीखी कि शायद बुरा वक़्त दरक जाए
उस दिन जाना कि मेरे गले की नसें शीशे की थीं
दर्द के सारे मरहम दस मिनट की सनसनाहट के सिवाय कुछ भी नहीं
आदमी छू सकता है हाथ ऊँचा कर के चाँद को
मंगल में जीवन टटोलता है
अन्तरिक्ष में तैरती हैं जादुई मशीनें
क्या मज़ा कि इन्द्रधनुष अब भी अछूता है
पट्टियाँ रोकती हैं लहू का बहना
माथे पर गहरा चुम्बन दर्द सोखता है
एक कनकटे चितेरे के पास नहीं थी भाषा
यह बताने को, कि आख़िर उसे क्या चाहिए
उसकी जेब में बस कुछ चटख रंग रखे थे
रंगों की समझ अब भी अधकचरा है
बुरा वक़्त सिखाता है सच्ची हंसी का पाठ
हँसना, जीवन की कठिनतम कला है
कौन जानता है मुझसे बेहतर ये एक बात
कि बुद्ध कहते हैं सबसे मज़ेदार चुटकुले
बुरे वक़्त में फ़ाइलातुन-फ़ाइलातुन- फ़ाइलातुन की माला जपना
अपराध से कम तो हरगिज़ नहीं
बुरे वक़्त में हिज्जे की परवाह करना, एक ख़ास क़िस्म की चालाकी है
एक्स-रे रिपोर्ट बन कर रह जाता है आदमी बुरे वक़्त में
गिन लो कितनी गांठें हैं , कितनी टूटन रूह में
मेरे पास नहीं है कोई भाषा
यह कहने को, कि आख़िर मुझे क्या चाहिए
बस्ते में थोड़े से रंग बचे हैं
आधी रात मेरे कान से लहू रिसता है
हवा में उड़ाती हूँ चुम्बन
टिक-टिक-टिक की लय गूंजती है आसमान में
दीवार पर वान गौंग हँसता है
बुरे वक़्त में सफ़ेद हुआ बाल झड़ भी जाए
तो सहेजा जाना चाहिए किसी जागीर की तरह
अपने बच्चों की ख़ातिर
तेजी ग्रोवर के लिए
कब से तो मैं टूटी चप्पल पहने चल रही हूँ..
पाँव के छालों की मवाद नसों तक भर-भर आती हैं
हड्डियाँ अस्थि-कलश में पीड़ा से मुक्त होती हैं
कलश के बाहर लहकती हैं पीड़ा
जिसने जीवन को अपनी जिह्वा से चखा है
जिसने तोड़ा है टहनी पर उगा चंद्रमा
जो उबलते फफोले पर हौले से ठंडक बांध जाता है
वो ब्रह्मांड का सबसे दहकता सितारा है
आकृतियाँ अदृश्य की परछाईं हैं
आकारों के पीछे नीला तिलिस्म है
सूर्य की आँखों में नमी खोजना प्रकृति के नियम को चुनौती है.
जादू अदृश्य में आकार लेते हैं.
अश्रु ग्रंथि फट पड़ी है कठपुतली की आँख में !
बावन चिठ्ठियाँ
इन घाटियों में चलने वाली पछुआ हवाओं के बस्ते में बारिशें भरी हुयी हैं. जब-जब ये मतवाली हवाएँ अपना बस्ता खोलती हैं, नदी का पानी पुल तक चढ़ जाता है.
इंजन का काला धुआँ ट्रेन के पीछे सड़क बनाता चलता है. बारिश में सडकें बदहाल हो जाती हैं .धुएँ की सड़क आत्मा के इंद्र के कोप से मिट जाती है.
मछलियाँ घर बदलने की जल्दी में है. नदी के पानी की दीवारें छोड़ कर जल्दी ही किसी मछेरे के जालीदार दीवारों वाले घर में रहने चली जाती हैं. मछलियाँ दीवारें तोडती नहीं बल्कि घर छोड़ देती हैं.
नींद में दिशाएँ अपनी जगह बदलती रहती हैं. यह पता ही नहीं चल पाता कि सीटी से ‘बीटल्स‘ की धुनें बजाने वाला लड़का किस दिशा से आता है और कहाँ गुम हो जाता है. पीछे छूट जाता है अकेला खड़ा एक पुल, जलते कोयले की गंध और पुल के ऊपर से बह रहा नदी का पानी.
मैं कोयले की गंध को खुरच-खुरच कर निकालती हूँ और उसकी सूख गयी पपड़ियों को चूम लेती हूँ. उस सूखेपन को अपनी मुट्ठी में मसलकर उसकी राख़ अपने माथे से लगाती हूँ हर दिन…
स्वप्न तुम्हारी और मेरी आँखों के बीच बना पुल हैं.
2.
[ हॉस्पिटल से ]
वहां इतनी मायूसी और खदबदाहट भरी खामोशी थी कि क़ब्रगाह भी उस जगह से बेहतर ही होती होगी. शीशियाँ,गोलियां,सैंपल्स, तरह -तरह के नए-नए औज़ार और लम्बे चेहरे वाले उदास लोग वहाँ की ज़रूरी चीज़ें थे. ज़िन्दगी का दूर -दूर तक कोई नामोनिशान नहीं दिख रहा था.
रीढ़ पर सीढ़ियाँ लगा कर डर सिर तक चढ़ता गया…स्टेप-दर-स्टेप.
इन लोगों से हमेशा ही डर लगा है जो रग़ों में दौड़ती बेचैनी को सिरींज में भर कर कुछ जाँचना चाहते हैं.
उदास कर देने वाला माहौल था कि अचानक लगा जैसे रौशनदान से आती धूप के पंख फड़फड़ा रहे हों और वह उड़ कर अन्दर फ़र्श पर झर रही हो. पंखों वाली धूप दरअसल एक पीली तितली थी जो उजास के घोड़े पर सवार हो उस मुर्दाघर में दाख़िल हो गयी थी. धीरे -धीरे वह छोटी तितली पूरे कमरे में भर गयी. उस जगह का सन्नाटा गलने लगा. कभी दरवाज़े के गुटखों पर फुदकती तो कभी पर्दों के आगे -पीछे लुका-छिपी करती हुयी वह एक जाँबाज़ सिपाही लग रही थी जो वहां की हवा के भारीपन को अपनी तलवार से काट देने पर आमादा हो.
मैं देर तक तितली की जीत का नाच देखती रही. मुस्कराहट ख़ुद- ब ख़ुद आकर होंठों के किनारों पर झूल गयी.
आज बहरमन* याद आया.
नहीं मालूम था कि बहरमन का मास्टरपीस, वो आख़िरी पत्ता, अब उड़-उड़ कर मौत के मोहल्ले में ज़िन्दगी की ख़बर देता है.
3.
मैं स्पैनिश में कहती हूँ, तुम हिब्रू में सुनते हो, हम ब्रेल में पढ़े जाते हैं.
हम ‘खितानी‘ की तरह विलुप्त हो जाना चाहते थे पर हर सभ्यता में कोई ‘दरोग़ा‘ होता है. मुझे हो-हल्ले में हथकड़ी डाल दी जाती है. तुम चुप्पियों में मारे जाते हो.
मैं तुम्हारे कंठ में घुटी हुयी सिसकी हूँ. तुम मेरे श्वास से कलप कर निकली हुयी आह हो. रुलाई हमेशा बारहखड़ी के बाहर फूटती है. हूक की कोई व्याकरण नहीं होती.
चमकते अलंकार मेरी आँखें फोड़ नहीं सकते. तुम्हारे मौन की पट्टी मैंने आँखों पर बाँध रखी है. .
हम आयतें हैं, हम मन्त्र हैं, हम श्लोक हैं.
हम लगातार हर ज़ुबान में बुदबुदाए जा रहे हैं.
मेरे प्यारे बहरे बीथोवन,
मैं तुम्हारी रची हुयी जादुई सिम्फ़नी हूँ.
देखो ! ज़माना मुझको बड़े ग़ौर से सुन रहा है…
फ़ुटनोट –
1. बहरमन* = ओ हेनरी की ‘द लास्ट लीफ़‘ का मास्टरपीस बनाने वाला चित्रकार
2. खितानी = मंगोल भाषा परिवार की लुप्त हो चुकी भाषा. हिंदी मून ‘दरोग़ा‘ शब्द खितानी भाषा से आया है.
3. ऐलबेट्रॉस = एस टी कॉलरिज की ‘‘द राइम ऑफ़ द एन्शियंट मेरिनर ‘
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