सौरभ राय की कविताएँ
सुबह का सूरज
डूबते सूरज सा मालूम पड़ा
और ब्रश करते हुए हँसता रहा
नहाते वक़्त पानी गरम ठंडा करता रहा
और सोचने लगा
कि देह का तापमान गड़बड़ा न रहा हो
घर से निकला –
पीले सिग्नल पर बाइक धीमी की
और रुका
भीख माँगती बुढ़िया को देख इच्छा हुई –
जेब के सारे पैसे निकाल कर दे दूँ
और ताकता रहा
अगल बगल के लोगों का मुँह
सामने से आता ट्रक
आकार से बड़ा दिखलाई पड़ा
पीछे कार की चीख
डराकर निकल गई पास से
झुका हुआ पेड़
धरती का निकला हुआ हाथ लगा
माँग रहा था जो मुझसे
अपने हिस्से की हवा का हिसाब
दफ़्तर के सहकर्मियों से मिला
जैसे आखरी बार सहकर्मियों से मिल रहा था
चाय को चाय की तरह पिया
बिजली का बिल भरने गया
एटीएम से पैसे निकाले
और गाँव फ़ोन कर सुनता रहा
छोटी बहन के स्कूल के किस्से
पैदल चला गया
किसी पुराने दोस्त से मिलने
और साथ बैठकर विचार किया
भविष्य पर
घर लौटता हुआ भटक गया
अपने ही शहर में
और अपनी मूर्खता पर मुग्ध हुआ
शाम को शर्ट उतारते हुए कल्पना की
कि किसी तवायफ के कमरे का दरवाजा खोल रहा था
पत्नी से प्रेम करते हुए इच्छा जागी
कि इसी क्षण मर जाऊँ
मृत्यु को मात देता हुआ
और उसके कान में फुसफुसाता रहा –
तुम मुक्त हो
तुम मुक्त हो
रात आधी लिखी कविता आधी छोड़ गया
उपन्यास के नायक का थोड़ी देर पीछा किया
और बहुत गहरी नींद सोया
जैसे सो रहा था
अपनी आखरी नींद.
सुबह का समय था
और दिन लगभग ढल रहा था
फ़ोन का न होना
मेरी अनुपस्थिति में लिखी गई एक रिक्त कविता थी
जिसे पढ़ता हुआ मैं आदतन झाँक रहा था फ़ोन में
जेब टटोलने की तरह.
मेरे सोचे-लिखे गए तमाम बिम्ब
कैद थे उस ब्लैक बॉक्स में,
और मैं हज़ारों मील दूर
अंतरिक्ष में तैरता एक हवाई जहाज़ था
जिसका संपर्क टूट चुका था
व्याकरण के सभी नियमों से.
मैं अपने भूलने की आदत को
याद कर रहा था
और फ़ोन कर रहा था खाली घर की दीवारों से
मेरी मौजूदगी की बातें
सोफे के पास पड़ा वह
आज नहीं पहुँचा पा रहा था
मेरे ऑफ़िस देर से पहुँचने की खबर
बॉस को कॉल कर फ़ोन कर रहा था
अराजकता की तुकबंद बातें
किसी पुराने दोस्त का कर रहा था जमकर तिरस्कार
और भर रहा था पत्नी को आशंका से.
सिग्नल पर पुलिस वाले को देख
मैं फ़ोन की तरह झन्ना रहा था
मुझे पुलिस का नंबर याद नहीं था
पुलिस के खिलाफ पुलिस में शिकायत करने का यह रूपक
कविता पर कविता लिखने जैसा बेतुका था
मेरी जेब में लाइसेंस था
पुलिसवाले की जेब में फ़ोन !
मेरा यह पापबोध
सिग्नल की तरह रंग बदल रहा था
और किसी बिछड़ी प्रेमिका के फ़ोन कॉल की तरह
मेरी भाषा को मिल रहा था
लिखे जाने का साहस.
ऑफ़िस में प्रवेश करता हुआ
मैं फ़ोन का दबा हुआ एक बटन था
और स्क्रीन पर लगातार छपता जा रहा था
आआआआ……
सुनो तुम्हारे कितने चेहरे
वो चेहरा जो पानीपूरी की बात करते ही
पूरी जैसा गोल
और चटकारे-सा पतला हो जाता है
वो चेहरा जो नहाए बालों को समेटता हुआ
भीगता काँपता है
दो ठहरी आँखों के पीछे
वो चेहरा जो शरारत की ताक में
बचपन का अटका कंचा बन जाता है
और चमक उठता है साइड का एक दांत
वो चेहरा जो ब्यूटी पार्लर से लौटकर बदल जाता है
फ्रिदा कालो से फेसबुक में
जब तुम्हें दोबारा पहचानने में मुझे थोड़ा समय लग जाता है
या वो चेहरा जो आधी रात की नींद में
सन्नाटे सा ताकता है
लिखी जा रही कविता को
जैसे शब्दों से तुम्हारा परिचय पुराना है
और मैं कलम लिए आ गया हूँ
प्रसंगवश.
सुनो तुम्हारे कितने चहरे
लिखने को मेरे पास जिन्हें
केवल कोरे कुछ कागज़.
शहर में किसी-से पूछ लीजिये बतला देगा –
कार सर का नाम
राँची यूनिवर्सिटी की प्रोफेसरी छोड़कर
घर बैठे पढ़ाते थे गणित
निकलते थे इनके यहाँ से
बीसों आईआईटी टॉपर !
‘माथा बाचाके !’ –
ओवर ब्रिज के नीचे
रेलवे यार्ड से सटा था उनका
दो तल्ले का मकान
गराज को बदल दिया था जिसके
छोटे से क्लासरूम में
ऊपर टिमटिमाती थी पिचहत्तर वाट की ट्यूबलाइट
और दीवारों से आती थी
नीले पोचाड़े की त्रिकोणमिति-गंध
‘कूट वाला नोटबुक लाओ !’ –
पूरी क्लास में थी बस एक ही मेज़
अक्सर पैरों पर कॉपी धरे बीतती थी शाम
और प्लास्टिक स्टूल के पाँव लचकते थे
सो अलग ।
मेज़ पर दर्ज थीं पुरानी प्रेम-घोषणाएं
और यथासंभव मिटाये जाने के बावजूद
दिख पड़ती थी चित्रकारी
कामसूत्र की किताबों को मात देती हुई ।
कैलकुलस की तरह अनंत की खोज था
साल भर का जीवन –
अलग-अलग स्कूलों के आये लड़के-लड़कियाँ
लिमिट का चिन्ह लिखते हुए
आँख मिलाने से बचते थे
प्रेम की सबसे सुन्दर जगह ट्यूशन है
यूनिफार्म से बाहर एक सामूहिक मिलन-स्थान ।
‘आरे फॉरमुला को गुली मारो
हाम इसकुल टीचार नेय है !’
सामने ग्रिल पर सुतली से बंधी रहती थी स्लेट
जिसपर हमारे लाये गये सवाल लिख
वे चले जाते थे सिगरेट पीने सड़क पर
राह गुज़रते भिखारी से कहते –
‘भोगोबान का नाम लेने से नेय होगा…
आदमी चीनना सीखो !’
‘ए छेले… आम कितना का…’
‘ट्रेन कोटार सोमोय
आभी टाइम है…’
बजती थी ट्रेन की सीटी
और अन्दर झाँककर पूछते थे –
‘हुआ ?’
‘मैथामेटिक्स को देखना सीखो
तीन ठो तो डाईमेंशेन है !’
ग्रिल से लटकती स्लेट पर
नहीं लिखा कभी तीन लाइन से अधिक
और बदल जाता था पिंजरे-सा कमरा
एक जीवंत ग्राफ में –
आँखों के वर्टेक्स से हाथ निकलकर
बन जाता था हाईपॉटन्यूस
जिसपर फिसलते हुए समझ जाते थे हम
ढलान की गहराई
थीटा ग़ज़ल के तबले-सी बजती थी
‘शून्य’ थी एक अभेद्य संसार की खिड़की
जिसमें झाँक वे नचाते थे सवालों को
‘एक’ की जादुई-छड़ी से
फ्रैक्शन को उलट देते थे
रेतघड़ी की तरह
ढूँढ निकालते थे स्क्वायर रूट किसी गुप्तधन का
और प्रोबबिलिटी हल करते हुए निपोरते थे दाँत
जैसे जीत रहे हों जुए में पैसा
‘जितना भेरियेबल है उतना इकुएशेन बानाओ’
‘जीरो से डिभाइड तुम्हारा माथा खाराप है ?’
वेक्टर लगाकर सुलझा देते थे
कॉम्प्लेक्स नंबर के सवाल
और लॉग टेबल में देखकर बतलाते थे
छज्जे पर बैठी चिड़िया का घनत्व ।
हमारी नोट्स उतारती कलम
अक्सर फिसल जाती थी
उनके छज्जे तक चढ़ने में –
बूलियन अलजेब्रा पर बिखेर देती थी बाल
बिरसा चौक की लड़की
और नयी फिल्म की नायिकाएं
होने लगी थीं मेज़ पर दर्ज़.
अंगूठे पर नाचते थे कलम
धोनी के हेलीकाप्टर शॉट की तरह
कि अच्छा खेल रहा है राँची का छौंड़ा
नाम रौशन करेगा !
वैसे देखा जाये
तो हममें राँची का कोई नहीं था
जब एक कोई निकालता था आईआईटी
तो ‘हमारा लड़का क्रैक किया’
छपता था राँची के अलावा
कितने गाँवों टाउनबाजारों के
लोकल अखबारों में !
बाहर लगी रहती थीं साईकिलें
जिनमें किसी एक पर बैठे
उँगलियों में सिगरेट दबाये
ट्रिन-ट्रिन घंटी बजाते थे –
‘तुमलोग का कुछ नेय होगा
अपना गाँव लौट जाओ
गोरू दूहो !’
ऐसे तबसरों पर जवाब देने से नहीं चूकता था
इकोनॉमिक्स का नितीश
सुनाता था अक्सर नॉनवेज चुटकुले
एक साथ दबती थी उसकी आवाज़ और आँख
डिमांड सप्लाई की तरह
अद्भुत हुनर था उसमें बिना कहे कह देने का –
स्वीकार करना चाहूँगा
सीखी है उसकी कॉमिक टाइमिंग से
मैंने भी थोड़ी सी कविता ।
छोड़ दिया था नितीश ने बीच में ही आना
लेकिन मैं जाता रहा उनके यहाँ आखिर तक –
एकसाथ चमत्कृत और हताश
और आईआईटी की परीक्षा लिखने के बाद
जब जान गया कि नहीं निकलेगा
और भी अधिक –
सिर्फ मिलने के लिए
या डाउट लेकर.
रिजल्ट निकलने के बाद
कई सालों तक राँची रहा
और हर बार –
ओवरब्रिज के ऊपर से गुजरते हुए
नीचे खड़ी साइकिलें दिख भी जातीं
कार सर नहीं दिखे.
भर्तृहरि : पाँच प्रेम कविताएँ
1.
भरे वक्ष
नैन ठगे गठीला
यौवन तेरा
2.
खुलती आँखें –
देखो नीलकमल
मन में खिला
3.
अलसाई सी
सुबह, सपनों को
जैसे सहेजे
4.
वैरागी मन
जैसे जंगल में
उदास हिरन
5.
अमर फल
हथेली से हथेली
जाता फिसल