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संस्कृति के सवालों को लेकर लिखने वाले आलोचक, मीमांसक राजाराम भादू की नई पुस्तक ‘सांस्कृतिक हिंसा के रूप\’ की चर्चा कर रहें हैं कथाकार-लेखक हरियश राय.
सांस्कृतिक हिंसा के रुप
संरचनागत और सांस्कृतिक हिंसा
हरियश राय
(राजाराम भादू) |
केवल हथियारों के उपयोग से किसी को मारना ही हिंसा नहीं है, बल्कि किसी को साफ हवा और पीने के साफ पानी, भोजन से वंचित रखना, आवाजाही पर रोक लगाना और दिमाग को नियंत्रित करना भी हिंसा है. हिंसा के ऐसे कई प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रुप हैं और हिंसा के इन रुपों का समर्थन करने के लिए हमारे परम्परागत और सामंती युगीन विश्वास प्रणाली हमारी अन्तश्चेतना में लगातार सक्रिय रहती हैं. राजाराम भादू ने अपनी किताब ‘सांस्कृतिक हिंसा के रुप’ में उस विचार प्रणाली को सामने रखा है जो इस सांस्कृतिक हिंसा को वैध मानती है. उन्होंने सांस्कृतिक हिंसा को भारतीय संदर्भों में देखा और परखा है और उन अहिंसक विकल्पों की ओर इशारा किया है जिनकी आज सबसे ज्यादा जरूरत है.
नार्वे के शांति चिंतक समाजशास्त्री जोहन गाल्तुंग ने हिंसा की प्रकृति और इसकी परिणति का विश्लेषण कर एक नयी दृष्टि दी है. जोहन गाल्तुंग का मानना है कि,
‘’सांस्कृतिक हिंसा का अध्ययन उस प्रक्रिया को प्रकाश में लाता है जिससे प्रत्यक्ष हिंसा के कर्म और संरचनागत हिंसा के तथ्य का वैधीकरण होता है और इस प्रकार वह समाज में स्वीकरणीय हो जाती है.’’
राजाराम भादू ने उनकी इस अवधारणा तथा ‘संरचनागत हिंसा’ और ‘सांस्कृतिक हिंसा’ की अवधारणा को भारतीय चिंतन के संदर्भ में लागू करते हुए सांस्कृतिक हिंसा के दुश्चक्र की ओर संकेत किया है और उनकी अवधारणाओं को एक नया आयाम दिया है.
हिंसा की प्रकृति और हिंसा के इतिहास का उल्लेख करते हुए राजाराम भादू की मान्यता है कि मनोरंजन के रुपों में क्रूरता, अंधविश्वास, दास प्रथा, लगातार होने वाले युद्ध, दंड के रुप में भयानक यातनाएं, असहमति और विरोध के लिए मृत्यु दंड, राजनीतिक उत्तराधिकार के लिए हत्याएं, युद्ध में स्त्रियों के साथ बलात्कार, जाति संहार, मनुष्य इतिहास के जीवन के सामान्य लक्षण रहें है और यह कहना धूर्ततापूर्ण और खतरनाक है कि मानव सभ्यता प्रगति करके जंगली और बर्बर युग से बाहर आयी है. उनका मानना है कि ‘’ये उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद की विस्तारवादी हिंसा को खुली छूट देते हैं और अपने ही लोगों के पापों को छुपा लेते है. (पेज 18)
यह किताब संरचनागत हिंसा के जोहन गाल्तुंग के तीन सिद्धांतों को भारतीय संदर्भ में रूपायित करती है. पहला, शांति शब्द का प्रयोग सामाजिक लक्ष्य के लिए होगा और इस पर अधिकांश लोगों की मौखिक सहमति होगी. दूसरा, इस सामाजिक लक्ष्य को हासिल करना जटिल और मुश्किल है पर असंभव नहीं और तीसरा, शांति को हिंसा की अनुपस्थिति के रुप में माना जाता है. इन तीन सिद्धांतों पर विचार विमर्श करने के लिए किताब में हिंसा के छ: आयामों पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है और ये छ: आयाम हैं , पहला, शारीरिक हिंसा (किसी व्यक्ति को मारने के इरादे से दैहिक क्षति पहुंचाना) और मानसिक हिंसा (झूठ, धोखा, सभी प्रकार के मतारोपण और भय) में फर्क, दूसरा, हिंसा के नकारात्मक और सकारात्मक तरीके (अपनी इच्छा के विरुद्ध काम करने पर दंडित करना और अपनी इच्छा के अनुरूप काम करने पर पुरस्कृत करना), तीसरा, हिंसा का भोक्ता से संबद्ध होना व्यक्ति, समूह या राष्ट्र की ओर से हिंसा के लिए पथराव करना या मानसिक भय के लिए परमाणु बम का परीक्षण करना), चौथा संरचना में हिंसा का शामिल होना (पतियों द्वारा अपनी पत्नियों को अज्ञान के अंधेरे में रखना, लोगों के जीवन में एक समान अवसरों का न होना व संसाधनों का असमान वितरण होना) पाँचवा इरादतन और गैर इरादतन हिंसा और छठा, प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष हिंसा.
हिंसा के इन छह: आयामों के साथ- साथ हिंसा के दुश्चक्र का भी विस्तार से वर्णन करते हुए दैहिक हिंसा के रुपों के बारे में यह बताया गया है कि दैहिक हिंसा में कुचलना (घूँसे मारना, पत्थर मारना), उग्र आक्रमण करना (फंदे पर लटकाना, चीरना, काटना ), भेदना (चाकू घोंपना, बरछी, भाला मारना, गोली मारना), जलाना (आगजनी, जलती आग में झोंकना,जला देना ),जहर देना (पानी या खाने में जहर देना, विषैली गैस से मार देना), व वाष्पित करना (जैसा परमाणु आक्रमण के बाद हुआ) तथा शारीरिक हिंसा में स्वच्छ हवा से वंचित करना ( घुटन, दम घुटना), पीने के पानी से वंचित करना (निर्जलीकरण, प्यास से मारना), भोजन से वंचित करना (भुखमरी से मौत, खाद्य पदार्थों पर रोक– अवरोध लगाना), आवाजाही पर रोक लगाना, शारीरिक बंधन द्वारा, स्थान का रोकना व दिमाग को नियंत्रित करना (जंजीर से बांधना, बेहोश करना, जेल, नजरबंदी या निर्वासन, गैसों से स्नायुओं को कुंद करना, मतारोपण करना) का समावेश है.
किताब में राजा राम भादू ने यह बताने की कोशिश की है कि सांस्कृतिक हिंसा संरचनागत हिंसा को एक आधारभूत औचित्य प्रदान करती है और प्रतीक विधान भी सांस्कृतिक हिंसा की आधार भूमि तैयार करते हैं. इन प्रतीक विधानों में चिन्ह- सितारे, क्रॉस, अर्धचंद्र, झंडे, पताकाएं ,प्रार्थनाएं व पवित्र पुस्तकें, सैन्य परेड, नायकों की मूर्तियां व तस्वीरें, भड़काऊ भाषण और पोस्टर शामिल हैं. वे बताते हैं कि सांस्कृतिक हिंसा प्रत्यक्ष और संरचनागत, दोनों तरह से व्यक्त होती है. प्रत्यक्ष हिंसा में हत्या, अशक्त बना देना, खाद्यान्न जब्त कर लेना, दमन, नजरबंदी, निष्कासित करना, दोयम दर्जे का नागरिक बना देना, शामिल हैं ओर संरचनागत हिंसा में शोषण, दूसरों में मिला देना, अलग – थलग कर देना, समूह को खंडित कर देना का समावेश है .
हिंसा को फैलाने में सत्ता पक्ष की विचारधारा केन्द्रीय भूमिका अदा करती है. अपनी विचारधारा के अनुरूप अल्पसंख्यकों के खिलाफ दुष्प्रचार किया जाता है और हर अपराध के स्त्रोत अल्पसंख्यकों में तलाश किए जाते हैं. उन्हें अपराधी मानने की सामूहिक सोच का खूब प्रचार किया जाता है और उसको सामूहिक स्वीकृति दिलाई जाती है. यह विचारधारा किस तरह काम करती है, इस बारे में राजाराम भादू लिखते है,
\”अब धर्म की जगह राजनैतिक विचारधारा और ईश्वर के स्थान पर आधुनिक राष्ट्र आ गये हैं. आधुनिकता ने भले ही ईश्वर और शैतान को अहमियत नहीं दी हो, लेकिन चाहे और अनचाहे की दीवार यहां भी निर्मित कर दी गयी है. आधुनिकता ने हमकों एक खास तरह से गढ़ा है, दूसरों को, ‘अन्य‘ को आधारहीन किया है. और यहीं से संरचनागत हिंसा की शुरुआत होती है. अन्य लोग शोषण के जरिए आधारहीन कर दिए जाते हैं और उनका अमानवीकरण कर दिया जाता है, और वे इस कदर अमानवीयताकृत हो जाते है कि हर तरह की हिंसा में वे ही दोषी ठहराएं जाते है.’’ (पेज 53)
किताब में अंतोनियो ग्रामशी का यह सूत्र अंत: सलिला की तरह मौजूद है कि ‘’पूंजीवादी प्रणाली दंड– विधान से ही नहीं, संस्कृति और विचारधारा से भी शासन करती है.’ विकास बनाम दरिद्रता’ का दुश्चक्र अध्याय में राजाराम भादू ने एडम स्मिथ , जेम्स मिल, डेविड रिकार्डो जैसे मुक्त व्यापार की अवधारणाओं के समर्थक अर्थशास्त्रियों के हवाले से यह बताने का प्रयास किया है कि अब राजनीतिक व आर्थिक रुप से कमजोर देशों पर सीधे राजनीतिक नियंत्रण की आवश्यकता नहीं रह गई है. विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसी संस्थाओं के ज़रिये यह नियंत्रण आसानी से किया जा रहा है. बड़ी राष्ट्रीय शक्तियां विशाल बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के मार्फत अन्य देशों के प्राकृतिक व अन्य संसाधनों का दोहन करती हैं. किताब भूमंडलीकरण के प्रपंच को गहराई से सामने लाती है और यह रेखाकिंत करती है कि भूमंडलीकरण प्रपंच के घटाटोप में पूंजीवाद आत्मिक रुप से कंगाल है और अपनी कंगाली पर पर्दा डालने के लिए विश्व संस्कृति और ज्ञान का ढोल पीट रहा है, पर इस ज्ञान के मुक्त द्वारों से जो ज्ञान छन कर हमें परोसा जा रहा है उसमें अतार्किक अंध,विश्वासी और रुग्ण व्यक्तिवादी बनाने वाली फिल्में, पूजा केन्द्रित खोखली जीवन शैली को स्थापित करने वाली टेलि-धारावाहिक, और जन आंदोलनों को कलंकित करने वाले कार्यक्रम शामिल हैं.
राजाराम भादू अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन की इस मान्यता को आत्मसात करते हुए स्वीकार करते है कि विकास की कसौटी सब तरह की पराधीनता या बंधनों से मुक्ति होनी चाहिए. वे क्योटो की दोनिशा यूनिवर्सिटी की प्रोफेसर ‘नागरिकों हामा’ की इस मान्यता का उल्लेख करते है कि दुनिया में अधिक तालमेल व एक दूसरे के लिए सहारे की भावना होनी चाहिए .जंगल का राजा शेर है लेकिन उसके लालच व प्रभुत्व की भी एक सीमा है.
जंगल जानवरों, पक्षियों, सरीसृपों, कीटों व पेड़ पौधों के एक जटिल इको सिस्टम को सहारा देता है, जिसमें परस्पर सहयोग भी प्रतिद्वंद्विता जितना महत्वपूर्ण है.
साम्प्रदायिक हिंसा पर विचार विमर्श करते हुए राजा राम भादू ने दार्शनिक हन्ना हारेंट के इस कथन को उद्धत किया है कि ‘सभी दूसरे कार्यों की तरह हिंसक कारर्वाईया भी दुनिया को बदलती हैं लेकिन इन बदलावों में अधिक संभावना यह है कि दुनिया और अधिक हिंसक हो जाती है. वे बताते हैं कि धर्म में राजनीति के समावेश से साम्प्रदायिकता का जन्म माना जाता है और जब साम्प्रदायिकता को सत्ता का संरक्षण मिल जाता है तो वह और भी विद्रुप हो जाती है.\'(पेज 81)
साम्प्रदायिकता के सामाजिक आर्थिक कारणों का विवेचन करते हुए वे यह भी बताते हैं कि समूहों के बीच लंबे समय से चला आ रहा वैर –भाव, विद्वेष और आक्रोश, समुदाय के अंदर अपने कार्य को सही मानने की सर्वमान्यता के कारण भी साम्प्रदायिक हिंसा जन्म लेती है. साम्प्रदायिकता के विलोम के रुप में शांतिपूर्ण सह– अस्तित्व की अवधारणा की चर्चा करते हुए वे यह संकेत करते हैं कि भारत और पाकिस्तान में चुनावों के समय घृणा से घुली शब्दावली के कारण शांति पहले ही पृष्ठभूमि में चली जाती है और इसलिए शांति की पहल में न्याय का समावेश होना बेहद जरूरी है. इसमें कोई शक नहीं कि ऐसे समाज में लोकतंत्र की कल्पना नहीं की जा सकती, जो सामूहिक हिंसा को मानदंड के रूप में स्वीकार करता है. समाज में हिंसा की सामूहिक स्वीकृति से फासीवाद जन्म लेता है, तो इसकी सफलता हिंसा को वैध बनाती है. हम अपने देश के संदर्भ में देखते हैं कि केंद्र की मौजूदा सरकार की राजनीतिक सफलताओं के बाद से देश में न केवल लोकतांत्रिक संस्थानों की प्रतिष्ठा में गिरावट आयी है, बल्कि लोगों की नैतिकता में भी गिरावट दिखाई दे रही है जिससे लोग दूसरों के प्रति बहुत जल्द असंवेदनशील हो रहे हैं और फिर वे लिचिंग के मौक़े पर निर्दयी बन रहे हैं. वे यह भी रेखाकिंत करते हैं कि सक्रिय शांति का आशय हिंसा की अनुपस्थिति ही नहीं, बल्कि विरोधियों के बीच एक तार्किक संवाद का होना भी जरूरी है.
राजाराम राम भादू ने हिंसा के अन्य क्षेत्रों का उल्लेख करते हुए यह बताने का प्रयास किया है कि हिन्दू धर्म प्रणाली में दलितों की तरह, स्त्रियां भी संरचनागत दमन और हिंसा की शिकार रही हैं और इस्लाम व ईसाई धर्मों में भी पितृसत्ता को वैधता प्रदान कर स्त्रियों को अपने अधीन बनाए रखने की हिमायत की गई है. उनका यह भी मानना है कि गरीब बच्चों को शिक्षा से वंचित रखना या उन्हें दोयम दर्जे की शिक्षा प्रदान करना संरचनागत हिंसा का सबसे सूक्ष्म और सर्वनाशी रुप है,और शिक्षा का यह सर्वनाशी रुप सरकारी तंत्र में रचा बसा है. वे लिखते हैं कि
’’पितृसत्ता स्त्री के समक्ष सिर्फ भौतिक बाधा ही नहीं खड़ी करती बल्कि वह स्त्री मन का भी अनुकूलन करती है. पितृसत्ता ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न करती है, जिससे स्त्री पितृसत्ता के मूल्यों को आत्मसात कर ले.’’ (पेज 115)
किताब में हमारे आज के समय के सबसे ज्वलंत विषय ‘उग्र राष्ट्रवाद’ पर विचार करते हुए रेखाकिंत किया गया है कि राष्ट्र और राज्य परस्पर एक होते हुए भी एक नहीं हैं क्योंकि राज्य एक भौगोलिक क्षेत्र होता है जिसकी सीमाएं होती हैं जो अपनी जनता पर शासन करता है व अपने भूभाग में संप्रभुता का दावा करता है जबकि राष्ट्र ऐसे लोगों का समूह है जो यह दावा करता है कि वे भाषा, संस्कृति ओर ऐतिहासिक पहचान के साझेपन से आपस में बंधे हुए हैं. उनका मानना है कि ‘’ राष्ट्र का उल्लेख राज्य के संदर्भ में न होकर, प्राय: पूरी संस्कृति, परम्पराओं, मूल्यों और भाषाओं के साथ होता है .’’ पेज 125
राजाराम भादू तमाम शोधों के आधार पर यह स्थापित करते हैं कि मनुष्य मूलत: हिंसक नहीं है और अहिंसा जीवन की एक स्वाभाविक शैली हो सकती है. इसके लिए सांस्कृतिक हिंसा के स्थान पर सांस्कृतिक शांति को तवज्जो देते हुए जोहन गाल्तुंग को उद्धत करते है कि,’’ संरचनागत और सांस्कृतिक हिंसा का सच्चा प्रतिकार करना है तो हमें विकल्प में संरचनागत और सांस्कृतिक शांति की स्थापना करनी होगी (पेज 150 ).
इस संदर्भ में किताब में गांधी ओर नेल्सन मंडेला और गौतम बुद्ध के कई प्रसंग दिए गए हैं जहां उन्होंने शांति की स्थापना की पुरज़ोर वकालत की. गौतम बुद्ध के मन, वचन और कर्म में शुद्धता की के अनुकरण पर जोर देते है. वे नेल्सन मंडेला के इस कथन पर मोहर लगाते हैं कि ‘’ मेरे लिए अहिंसा एक नैतिक सिद्धांत नहीं, बल्कि एक रणनीति थी,’ इसी तरह वे गांधी की अहिंसा को एक पद्धति के रुप में स्वीकार करते हुए गांधी की केन्द्रीय अवधारणा, प्रेम को महत्व देते हैं. इस हिंसा के विकल्प के रुप में गांधी के अहिंसा के सिद्धांत को रखा जा सकता है. गांधी ने 1931 में लंदन में भारतीय छात्रों को संबोधित करते हुए यह कहा था कि ‘’ मुझे अपने देशवासियों की पीड़ाओं के निवारण से भी अधिक चिंता मानव प्रकृति के बर्बरीकरण की है. जब गांधी बर्बरीकरण की बात करते हैं तो वे केवल स्थूल हिंसा की बात नहीं करते, उसमें हिंसा के वे सभी रुप और आयाम शामिल हैं जिन्हें ‘संरचनागत हिंसा,’ ‘सांस्कृतिक हिंसा’ और ‘पीडि़तोन्मुख प्रत्यक्ष हिंसा’ के रुप में परिभाषित किया गया है. यकीनन युद्ध एक प्रत्यक्ष हिंसा है, लेकिन प्रकृति का विनाश, बेरोजगारी, मानव प्रकृति का एक आयामी होते चले जाना, मानवीय अकेलापन, विभिन्न प्रकार के सामाजिक व राजनैतिक तनाव, संरचनागत हिंसा और उसे वैध ठहराने वाली विश्वास प्रणाली अर्थात सांस्कृतिक हिंसा की ही अभिव्यक्तियां है.
किताब में ‘अहिंसा एक पद्धति’, ‘नैतिकता’ ‘बहु संस्कृतिवाद’, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का जीवन मूल्य मानते हुए संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा मानव अधिकारों से संबंधित घोषणा पत्र का उल्ल्ेख करने के साथ- साथ यह सवाल उठाया है कि क्या मानवाधिकारों की संकल्पना एक नयी अहिंसक संस्कृति की आधारभूमि हो सकती है ? और क्या मानवाधिकारों का सम्मान और उनके लिए सत्याग्रह नैतिक आचरण की एक बुनियादी कसौटी नहीं है ?
किताब में हिंसा के इतिहास को खँगालते हुए उन्होंने यह संकेत किया है कि सांस्कृतिक हिंसा का विकल्प सांस्कृतिक शांति है इसलिए ऐसे सांस्कृतिक पक्षों को खोजना जरूरी है जो प्रत्यक्ष और संरचनागत शांति को औचित्य और वैधता प्रदान कर सकें. इसीलिए वे गांधी के‘जीवन की एकता’ व ‘साध्य व साधन की एकता’ सिद्धांतों को महत्वपूर्ण मानते हैं. उनका मानना है कि राष्ट्रवाद का कोई भी मॉडल जो बहुलतावाद को कमजोर करता है,उसे स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए.
‘सांस्कृतिक हिंसा के रुप’ किताब में सबसे पहले जोहान गोल्टुंग के विचारों को उनकी समकालीन धारणाओं से जोड़कर देखा गया है और हिंसा के मूल स्त्रोतों की पड़ताल की गई है. हमारे भारतीय समाज में मौजूद दलित , स्त्री पुरुष भिन्नता व सम्प्रदाय को केन्द्र में रखकर की गई हिंसा को क्रमशः संरचनागत और सांस्कृतिक हिंसा के रुप में विश्लेषित किया गया है. इसके साथ ही आर्थिक व शैक्षणिक क्षेत्र में भी हिंसा के प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रुपों की ओर पाठकों का ध्यान आकृष्ट किया गया है. जोहान गोल्टुंग अपने चिंतन में शांति का प्रस्ताव करते है संरचनागत और सांस्कृतिक शांति की रणनीतियों का उल्लेख करते हुए बताते हैं कि ये सिर्फ रक्षात्मक और निष्क्रिय ही नही बल्कि सृजनात्मक और अग्रगामी भी हैं. अपनी इस किताब में राजाराम भादू ने हिंसा के अहिंसक प्रतिकार के रुप में भारतीय समाज में पहले से ही विद्यमान सहिष्णुता, सहयोग ,सत्य व न्याय के साथ गांधी- दर्शन को आत्मसात किया है. यह किताब संवेदनात्मक स्तर किताब गरिमापूर्ण मानवीय समाज बनाने के आकांक्षा के रुप में किसी भी प्रकार की हिंसा का निषेध करती हुई शांति के पक्ष में खड़ी होती है जो इस किताब की बहुत बड़ी खूबी है और ऐसी किताबों की आज के समय में सबसे ज्यादा जरूरत है.
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हरियश राय
दो उपन्यासों ‘ नागफनी के जंगल में ’ और‘ मुट्ठी में बादल’ के अलावा छह कहानी संकलन ‘बर्फ होती नदी’, ‘उधर भी सहरा’,‘अंतिम पड़ाव, ‘वजूद के लिए’, ‘सुबह- सवेरे ’ व ‘ किस मुकाम तक\’ आदि प्रकाशित.
‘भीष्म साहनी : सादगी का सौंदर्य शास्त्र’ व ‘कथा- कहानी : एक ‘ का संपादन
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