कथाकार-आलोचक राकेश बिहारी की इस सदी की कहानियों की विवेचना की श्रृंखला ‘भूमंडलोत्तर कहानी’ समालोचन पर छपी और यह क़िताब के रूप में आधार प्रकाशन से प्रकाशित हुई है. इधर वह २१वीं सदी के उपन्यासों पर ‘आख्यान-प्रतिआख्यान’ लिख रहें हैं. यह इस कड़ी की तीसरी प्रस्तुति है.
पत्रकार-लेखक मृणाल पाण्डे के उपन्यास ‘सहेला रे’ का प्रकाशन ‘राधाकृष्ण’ से २०१७ में हुआ, यह उनका छठा उपन्यास है. विरुद्ध, पटरंगपुर पुराण, देवी, हमका दियो परदेस, अपनी गवाही उनके अन्य उपन्यास हैं. मृणाल पाण्डे अंग्रेजी में भी लिखती हैं- द डॉटर्स डॉटर, माई ओन विटनेस, देवी उनके अंग्रेजी में लिखे उपन्यास हैं. आदि
यह उपन्यास भारतीय शास्त्रीय संगीत पर शोध की शैली में लिखा गया है, इधर रणेंद्र का भी उपन्यास– ‘गूँगी रुलाई का कोरस’ जो संगीत के घरानों और उनके टूटन पर आधारित है राजकमल से आया है.
राकेश बिहारी उपन्यासों की विवेचना में सम्यक दृष्टिकोण लेकर चलते हैं, क्रिएटिव हैं. अच्छे बुरे सभी पहलुओं को परखते हैं और उनकी तरफ इशारा भी करते हैं.
प्रस्तुत है- ‘जुलुम कर डारा री मेरी गुइयाँ..’.
आख्यान-प्रतिआख्यान (3)
जुलुम कर डारा री मेरी गुइयाँ…
‘सहेला रे’ और औपन्यासिक संरचना के प्रश्न
राकेश बिहारी
आदरणीया विद्या जी,
मृणाल पाण्डे का उपन्यास– ‘सहेला रे’, लगभग दो वर्षों से मेरे सिरहाने बना हुआ था. लेकिन किसी न किसी वजह से इसका पढ़ा जाना लगातार स्थगित होता रहा. दो दिन हुये मैंने इसे पढ़ लिया. उसी दिन से आपको यह ख़त लिखने की सोच रहा हूँ, पर एक ख़ास तरह की बेचैनी के कारण यह भी विलंबित होता रहा. हाँ, इस बीच यूट्यूब पर मैंने किशोरी अमोनकर की आवाज़ में वह बंदिश जाने कितनी बार सुन ली है, जिसे मृणाल जी ने उपन्यास के आरंभ में ही किसी पुरालेख या सुभाषित की तरह उद्धृत किया है-
“सहेला रे, आ मिलि गाएँ,
सप्त सुरन के भेद सुनाएँ,
जनम जनम का संग न भूलें
अबकी मिलें तो बिछड़ि न जाएँ.”
इस बंदिश को मैंने यूट्यूब पर सुना इस कारण आप नाराज़ तो नहीं हो रहीं? हो सके तो समझने की कोशिश कीजिएगा कि मुझ जैसे मूलविहीन नौतुरियों के लिए यह किसी वरदान से कम नहीं. ऐसा कहकर मैं संगीत और कला के समक्ष नये माध्यमों द्वारा खड़ी की गई चुनौतियों के प्रति आपकी और उपन्यास की चिंताओं को नकार नहीं रहा, बस उसके दूसरे पक्ष को भी विमर्श का हिस्सा बनाना चाहता हूँ. इस बात को और तूल देना विषयांतर का कारण हो सकता है इसलिए इस संदर्भ को यहीं छोड़ मैं ‘सहेला रे’ की उस बंदिश पर आता हूँ. तीन ताल में निबद्ध राग भूप की वह बंदिश जैसे-जैसे विलंबित की ओर बढ़ती है, उपन्यास के इस छोर से उस छोर तक फैली उदासी मेरे भीतर फिर-फिर गाढ़ी होने लगती है. आपको यह ख़त लिखते हुए भी ‘सहेला रे’ की वह सांद्र और करूण आवृति मेरे भीतर लगातार ध्वनित हो रही है.
२)
दो ख़ानदानी डेरेदार गवनहारियों, हीराबाई और अंजलीबाई की कथा दर्ज करने के क्रम में आपने जिस धैर्य और शोधवृत्ति का परिचय दिया है, हिन्दी में उपन्यास लेखन की वह धारा लगातार क्षीण होती दिखाई पड़ती है. अलबत्ता शोध के नाम पर गूगललोक से आयातित सूचनाओं से आक्रांत लेखन की आमद तो इधर खूब बढ़ी है, जहां गल्प और यथार्थ के बीच की दूरी लगभग समाप्त सी होती दिखती है. गोकि इस उपन्यास की प्रभावोत्पादकता भी इसके यथार्थ के बहुत करीब होने का एहसास लगातार कराती है, पर कुछेक स्थलों को छोड़कर, कथारस की एक खास उपस्थिति इसके उस पक्ष को क्षतिग्रस्त नहीं होने देती, जो कथास्वाद से जुड़ता है.
पाँच वंशों के लगभग दर्जन भर से ज्यादा चरित्रों की आवाजाही से विनिर्मित इस उपन्यास के पात्रों के परस्पर संबंध को समझने में उपन्यास के शुरू में दिये गए वंशवृक्ष सहायक साबित हुये हैं. हालांकि यह भी एक सच है कि इन वंशवृक्षों की मौजूदगी का प्रभाव भी उन कई कारकों में से एक है, जिनके कारण दो वर्षों से इस उपन्यास का पढ़ा जाना मेरे लिए स्थगित होता रहा कि जाने कितना जटिल होगा इसका चरित्र-विन्यास. वैसे तो हीराबाई और अंजलीबाई की जीवनकथा ही इस उपन्यास के केंद्र में है, पर इन चरित्रों की स्थापना के क्रम में जिन अन्य चरित्रों से आपने पाठकों का साक्षात्कार कराया है, उनमें हुस्नाबाई, अल्लारक्खी, हैदरी, सुकुमार बनर्जी, राधा प्रसाद, संजीव, पुतुल आदि भी उतने ही महत्त्वपूर्ण हैं.
इन सभी चरित्रों के कोलाज से ही संगीत के उस स्वर्ण युग का चेहरा विनिर्मित होता है, जब संगीत और साधना पर्यायवाची हुआ करते थे. लेकिन दुर्भाग्य यह रहा कि संगीत का वह युग और उस युग की वे विशेषताएँ कुछ ख़ास लोगों की स्मृतियों में ही क़ैद रह गईं. उस समय का कोई मुकम्मल लिखित इतिहास, जिसके नाभिकेंद्र में गीत-संगीत और उससे जुड़े कलाकार हों, नहीं लिखा जा सका.
मुझे यह देखकर अच्छा लगता है कि विगत कुछ वर्षों में हमारी भाषा के कई कथाकारों ने संगीत के उस इतिहास को औपन्यासिक वितान में रचने का काम किया है. संतोष चौबे का उपन्यास ‘जलतरंग’ और भगवान दास मोरवाल का उपन्यास ‘सुर बंजारन’ तो आपने जरूर देखा होगा. मुझे नहीं मालूम आपने उन उपन्यासों को किस तरह देखा-परखा है, पर उनसे गुजरते हुये मेरे भीतर कई तरह के असंतोष अंकुरित हुये थे. ‘जलतरंग’ की शुष्क शोध प्रस्तुति उसे उपन्यास नहीं बनने देती वहीं ‘सुर बंजारन’ में नायिका के वास्तविक जीवन को जस का तस रखने का मोह उसे न तो जीवनी बनने देता है न ही अपने समय के इतिहास की औपन्यासिक रचना. आपको यह भी पता हो कि हाल ही में संगीत को केंद्र में रखकर रचित रणेन्द्र का उपन्यास ‘गूंगी रुलाई का कोरस’ भी प्रकाशित होकर आया है. इस उपन्यास को मैंने अभी पढ़ा नहीं है, इसलिए उस पर कुछ कह नहीं सकता. बहरहाल ‘जलतरंग’ और ‘सुर बंजारन’ से जो मेरी शिकायतें थीं उसके मद्देनजर मैंने ‘सहेला रे’ को तीव्र उत्सुकता के साथ पढ़ना शुरू किया था. उपन्यास के पहले ही पन्ने पर राधा दादा को लिखी आपकी चिट्ठी पढ़ते हुये मेरी वह आरंभिक उत्सुकता बहुत जल्दी ही एक रचनात्मक जिज्ञासा में बदल गई.
एक मजेदार बात बताऊँ, मृणाल जी की भाषा का मैं अपने कॉलेज दिनों से ही मुरीद रहा हूँ. तब दैनिक हिंदुस्तान के संपादकीय पृष्ठों पर छपे उनके लेख की भाषा और उनके रचनात्मक शीर्षकों का मैं दीवानावार प्रशंसक हुआ करता था. ‘पहले भरपेट भोजन, फिर परिवार नियोजन’ और ‘मन न रंगाए, रंगाए जोगी कपड़ा’ जैसे शीर्षक तो मेरे स्मृतिपटल का स्थायी हिस्सा बन चुके हैं. अपने तरुण दिनों में भाषा का जो संस्कार मैंने उनके लेखों से ग्रहण किया था, आपकी चिट्ठी की भाषा ने एक बार फिर से मुझे उसकी याद दिला दी. मैं इस बात पर मुग्ध था कि कैसे कोई लेखक युगीन संदर्भों से नए शब्द अर्जित कर अतीत और वर्तमान को जोड़ने के लिए भाषा का पुल बनाता है. आपको ही आपकी भाषा की सुंदरता का क्या उदाहरण देना पर पहले ही पेज पर जिन वाक्यों को पढ़ते हुये ऐसा एहसास हुआ था उसे पुनः-पुनः याद करने का एक अलग ही सुख है-
“याद का चिट्ठियों वाला साम्राज्य तो कब का सिमट चुका. और ई मेल न जाने कितनी बेवकूफ किस्म की इमोशनल यादों पर स्पैम का ठप्पा मार पते को नफासत से डिलीट बटन दबाकर तुरत सायबर स्पेस से उड़ा सकती है. खैर, इससे पहले कि तुम भी अपने मित्र की देखादेखी डिलीट बटन की तरफ तर्जनी बढ़ाओ, जल्द से यह बेशर्म मेल भेजने की दूसरी वजह सुन लो.”
आपका यह खत, जो ‘सहेला रे’ का पहला अध्याय है, को इस उपन्यास की प्रस्तावना की तरह देखा जाना चाहिए. इसी खत से पता चला कि आपने सांगीतिक थियेटर के इतिहास पर किसी महत्वाकांक्षी शोध की शुरुआत की थी. उस शोध के दौरान आपको उस दौर से संबन्धित इतनी सारी जानकारियों की अर्गलाएं खुलती दिखीं जिसे उस मौजूदा फ़ेलोशिप में शामिल करना संभव नहीं था. संगीत के स्वर्ण युग की उन संभावित निधियों को एकत्र करने की आपकी अभिलाषा पूरी हो सके इसके लिए किसी प्रकाशक से एडवांस रॉयल्टी प्राप्त कर उस दिशा में शोध करना आपको जरूरी लगा था. शोध के लिए एडवांस रॉयल्टी और शोध के नतीजों को पुस्तकाकार प्रकाशित करने का प्रस्ताव आपने इस पत्र में राधा दादा, जो कि एक बड़े प्रकाशक हैं, को भेजा है. प्रकाशकीय सहमति के बाद हीराबाई और अंजलीबाई की जीवन यात्रा के अनुसंधान में अपनी प्रस्तावित पुस्तक के लिए जो कुछ आपको हासिल हुआ, वही इस उपन्यास में पत्र (पढ़ें ई मेल) की शैली में मौजूद है.
आदरणीया विद्या जी, अपनी प्रस्तावित पुस्तक के लिए आपने जो श्रम किया है, जितनी यात्राएं की हैं, जो सामग्रियाँ इकट्ठा की हैं, वह निःसन्देह एक महत्त्वपूर्ण कार्य है, इसकी सराहना भी की जानी चाहिए. पर यहाँ मेरी जिज्ञासा कुछ और है. पुस्तक लेखन की इस पूरी प्रक्रिया में जिसे आप हर जगह शोध कहकर पुकार रही हैं, क्या सचमुच इसे शोध कहा जाना चाहिए? शोध तो मूलतः समाज विज्ञान की एक प्रक्रिया है न, जिसके मूल में सर्वेक्षण, डाटा विश्लेषण, प्रवृत्ति निरूपण जैसी कई उप-प्रक्रियाएं भी शामिल होती हैं? कोई कथाकार किसी शोध के दौरान इस तरह हासिल निष्कर्षों को किस तरह एक औपन्यासिक कृति में ढालता है, वह चर्चा का एक अलग विषय है, पर आपने जिस प्रविधि से जानकारियाँ इकट्ठा की हैं क्या उन्हें शोध के बजाय अलग-अलग व्यक्तियों के संस्मरण का समुच्चय नहीं कहा जाना चाहिए? हाँ, आपकी इस बेबाकी के लिए मैं आपकी तारीफ जरूर करना चाहता हूँ कि आपने अपनी इस ‘शोधयात्रा’ में कहीं भी उपन्यास लिखने का कोई दावा नहीं किया है.
यदि मुझे ठीक-ठीक याद है तो आपने अपने पहले पत्र में शोध के नतीजे को पुस्तकाकार छापने की जो बात कही है, पूरी किताब में आद्योपांत उस पर कायम भी रही हैं. आपके हवाले से इस उपन्यास के दूसरे पात्र भी उसे प्रस्तावित पुस्तक ही बताते हैं. अब ‘शोध’ में हासिल नतीजे से बनी किताब की संरचना से ही तो यह तय होगा कि वह किताब उपन्यास है या इतिहास, जीवनी है या संस्मरण या कि कुछ और. इस प्रक्रिया के दौरान आपको प्राप्त चिट्ठियाँ, जिसे आप लगातार अपने प्रकाशक और बड़े भाई संजीव से साझा करती रही थीं, भी तो आपकी पुस्तक के लिए कच्चा माल ही थीं न! इन चिट्ठियों में छुपे रहस्यों को आप अपनी पुस्तक में कैसे तरतीब देंगी, आपने तो अभी यह भी नहीं तय किया था. इसलिए इन्हे समवेत रूप में जब मृणाल जी ने उपन्यास कहकर हमलोगों को सौंपा तो इसकी संरचना को लेकर मेरे भीतर कई सवाल खड़े हुये.
जिस कृति को हम उपन्यास कह रहे हैं, उसके पात्रों के बीच कैसा अंतर्संबंध होना चाहिए? उस कृति के कथासूत्र में संयोजन और समायोजन की कौन सी विशेषताएँ होनी चाहिए? उपन्यास के भिन्न अध्याय आपस में कितने सम्बद्ध या कितने स्वतंत्र हो सकते हैं? ‘सहेला रे’ के कुछ हिस्सों से गुजरते हुये मुझे मेरे प्रश्नों के माकूल जवाब भी मिले. पर कुछ हिस्सों की मूल कथा से असंबद्धता ने मुझे किंचित परेशान भी किया. मेरे कहे का मतलब आप समझ रही होंगी कि मेरी परेशानी का अर्थ यह नहीं है कि उन हिस्सों में मौजूद जानकारियाँ निरर्थक हैं. मेरी चिंता दरअसल यह है कि क्या अपने मौजूदा स्वरूप में किताब के वे अंश औपन्यासिक संरचना के कितने अनुकूल हैं? ऐसा भी नहीं है कि इस तरह के प्रश्न मेरे भीतर पहली बार उठे हैं. सच कहूँ तो पिछले दो-चार वर्षों में प्रकाशित और चर्चित अधिकांश उपन्यासों को पढ़ते हुये उपन्यास की संरचना को लेकर ऐसे सवालों से मैं दो-चार होता रहा हूँ.
कई बार तो यह भी मन में आता है कि कहीं ‘अकविता’ और ‘अकहानी’ की तरह ‘अउपन्यास’ के शिल्प में उपन्यास लिखे जाने का समय तो नहीं है यह? समकालीन उपन्यास को जाँचने-परखनेवाले सुधी आलोचकों के प्रति मैं बहुत उम्मीद से देखता रहा हूं कि अपनी मीमांसा में वेकुछ इस मुद्दे पर भी अपनी बात रखेंगे. लेकिन…
श्रद्धेया विद्या जी, मुझे तो ‘सहेला रे’ से गुजरते हुए लगातार यह भी लगता रहा कि इसके कुछ हिस्सों या अध्यायाओं की मूल कथा से असंबद्धता के जो प्रश्न मेरे भीतर कुलबुलाते रहे, वे कहीं न कहीं आपके ज़ेहन में भी थे. अपने पात्रों के साथ एक ख़ास तरह की तटस्थ तन्मयता के अभाव का लेखकीय बोध हो या कि स्वयं आपके कथा स्रोतों द्वारा अपने ही असमबद्ध बातों के पक्ष में दिये गए उनके तर्क, कहीं न कहीं उपन्यासकार और आपकी दुविधा को ही तो प्रकट करते दिखते हैं न! इससे पहले कि मेरी बातें आपको किसी नई उलझन में डाल दें, आईये मैं सीधे-सीधे आपको उपन्यास के उन हिस्सों तक लिए चलता हूँ-
“अबतक मैंने लिखा छपाया चाहे जितना हो, किसी दूसरी किताब पर काम करने में कभी मुझे अपने स्रोतों या पात्रों के साथ इतना उत्कट लगाव भी महसूस नहीं हुआ. डर सा लग रहा है! क्या इस पुस्तक में मेरी जैसी रुक्ष अकादमिक यह सब समेट भी सकेगी.”
(पृष्ठ 43, सहेला रे)
“तुम कहोगे आए थे हरिभजन को औ’ ओटन लगे कपास. क्या किया जाए यह विस्मयकारी कपास है ही इतनी बहुरंगी.”
(पृष्ठ 43, सहेला रे)
“कथानायिका हीरा यानी बीबी विक्टोरिया मसीह से इलाका मुआयने के दौरान उनके मिलन की भूमिका इस तनिक लंबे संदर्भ बिना नहीं समझी जा सकती, यह मेरी अकुंठ राय है. इसलिए इतना लंबा चौड़ा ऐतिहासिक ताना-बाना पेश किया है.”
(पृष्ठ 61, सहेला रे)
उम्मीद करता हूँ कि उपर्युक्त उद्धरणों से आपको यह स्पष्ट हो गया होगा कि मैं उपन्यास के किन संरचनात्मक अन्तरालों या विशेषताओं की तरफ इशारा कर रहा था. बहुत संभव है आप इसे शंकामूलकता के अनिवार्य लेखकीय गुण से जोड़कर देखें, पर मुझे तो यह असमबद्धता की संभावित पाठकीय प्रतिक्रियाओं को संबोधित करने का एक लेखकीय उद्यम ही ज्यादा लगता है. मैंने अभी ऊपर बदलती रचनाशीलता के बीच औपन्यासिक संरचना पर बहस की जरूरत को रेखांकित किया है, ‘सहेला रे’ अपनी मूल कथा के साथ और समानान्तर जिस तरह अपनी रचना प्रक्रिया और रचनात्मक दुविधाओं पर भी बात करता चलता है, उसे मैं इस बहस या संवाद की तरफ बढ़े हुये एक कदम की तरह देखना चाहता हूँ. हाल के दिनों में प्रकाशित मुझे कोई और ऐसा उपन्यास याद नहीं आ रहा जो अपनी शैल्पिक प्रस्तुति में घोषित रूप से औपन्यासिक संरचना पर इस तरह से बात करता हो. मुझे लगता है, औपन्यासिक संरचना के प्रश्नों को रचनात्मक अकादमिक विमर्श से जोड़ सकने की इस क्षमता को इस उपन्यास की एक विशेषता के रूप में रेखांकित किया जाना चाहिए.
३)
इसे एक संयोग ही कहिए कि मैंने यह उपन्यास मार्च महीने में पढ़ा है. मार्च यानी स्त्री दिवस का महीना. मृणाल जी के समूचे लेखकीय जीवन में स्त्री सरोकारों के प्रति उनकी जिस प्रतिबद्धता को मुझ जैसे उनके पाठक हमेशा से महसूस करते रहे हैं, उसका आस्वाद ‘सहेला रे’ में शुरू से अंत तक बना रहता है. उपन्यास के आरंभ में आपके, यानी एक स्त्री के पुस्तक लेखन और शोध के प्रस्ताव को दो-दो पुरुषों (राधा दादा और संजीव) की सहमति या स्वीकृति हो या फिर इसका अंतिम अध्याय- हैदरी बी की बेटी अमाल का वह ईमेल जिसमें आप अपनी प्रस्तावित पुस्तक का उपसंहार हो सकने की संभावना देखती हैं, हुस्नाजान और हीराबाई का बहनापा हो या फिर हीराबाई और अंजली बाई के द्वन्द्वातक संबंध, एक लेखिका से लेकर तवायफ और उसकी संततियों तक के जीवनानुभवों, उनके निजी सुख-दुख, राग-विराग, भीतर-बाहर के संघर्ष और इन सबके प्रति समाज का अनुकूलित हो चुका व्यवहार, जिस वैचारिक अंतर्दृष्टि और रचनात्मक संयम के साथ इस उपन्यास में दर्ज हुये हैं, वह निःसन्देह प्रशंसनीय है. लेकिन कुछ हद तक चयनित शिल्प की सीमा तो कुछ हद तक पात्रों को पुनर्सृजित करने के लिए अपेक्षित लेखकीय धैर्य के अभाव के कारण यह उपन्यास अपनी कथा मध्यस्थों के सहारे संप्रेषित करता है. काश आपकी शोधयात्रा में मिले उन पात्रों को सीधे-सीधे उपन्यास के चरित्रों में ढाल दिया जाता! आप समझ रही हैं न, यह सिर्फ मेरी ही नहीं, परमलाल शाह की भी कसक है, जिसे उन्होंने आपको लिखे अपने खत में भी अभिव्यक्त किया है-
“बेहतर होता यदि मेरे तरह आप अपने को गंधर्व किन्नरों के वंशज बतानेवाले हमारे इन शर्मीले प्रशंसाभीरू वनरौतों, बादियों के रचे मनोमुग्धकारी सांगीतिक किस्से खुद उनके मुख से ही सुन पातीं. पर अभी समयाभाव से मुझे ही हिवेट साहिब, गुलाब और हिरुली की सरस प्रेमगाथा को पाने नीरस गद्य में आपके आगे प्रस्तुत करना पड़ेगा.”
प्रिय विद्या जी! लेखक होने के नाते आपसे एक हमपेशा अपनापा-सा हो गया है, इसीलिए आपको प्रिय संबोधित करने की छूट ले रहा हूँ. उम्मीद है आप इसका बुरा नहीं मानेंगी. क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि इन पात्रों को पुनर्सृजित करने का धैर्य रखा जाता तो उपन्यास में इस तरह के कई स्थल न सिर्फ ज्यादा रोचक हो जाते बल्कि तब मुख्य कथा के साथ इन जैसे पात्रों के आनुषंगिक जुड़ाव की रचनात्मक संभावना इन्हें असम्बद्ध होने के आरोपों से भी बचा लेती?
मुख्य कथा के समानान्तर यह उपन्यास संगीत की दुनिया जे जुड़े कई ऐसे मुद्दों की तरफ भी इशारा करता है, जिन्हें सभ्यता और संस्कृति के इतिहास का अनिवार्य हिस्सा होना चाहिये. संगीत की गंगा-जमुनी तहजीब हो याकि कलाकारों और उनकी हमपेशा संततियों के बीच अनवरत चलनेवाली प्रशंसा और स्पर्धा की जुगलबंदी, जीवन की न्यूनतम व्यावहारिक जरूरतों को न पूरा कर पाने के दंश से उपजी विडंबनाएं हों या समय के साथ नितांत अकेले पड़ते जाने की आंतरिक तकलीफ, सांस्कृतिक अवशेषों को स्क्रैप और मलबे में बदल दिये जाने वाले व्यावसायिक सोच की तकलीफदेह नियति हो या फिर नई तकनीकों के आगमन के बीच स्वतः हाशिये पर सिमट जाने को मजबूर कलावंतों के जीवन की त्रासदियाँ या फिर संगीत की समरस और समावेशी परंपरा को हिन्दू-मुसलमान में विभाजित करने की सुनियोजित कोशिशें, उपन्यास में आये ये प्रसंग किसी भी सभ्य समाज की चिंता के कारण होने चाहिए. लेकिन उपन्यास की शिल्पगत सीमा लेखिका को इन प्रसंगों में गहरे नहीं उतरने देती. काश मृणाल जी ने विभिन्न चरित्रों के साथ हुये आपके पत्रव्यवहार को उपन्यास न समझ कर इस उपन्यास का कच्चा माल समझा होता!
गुजिश्ता जमाने की जिन तवायफ़ों ने खून-पसीना और यौवन की कुर्बानी की कीमत पर भी पक्के गाने की लौ को बुझने नहीं दिया उनके जीवन का सुख-दुख अपनी तमाम सीमाओं के बावजूद उदासी के संगीत की तरह इस उपन्यास में लगातार बजता रहता है. उन गवनिहारों की कसक, अकेलेपन का दंश, आजीवन राग और रस लौटाने के बाद स्वयं तप्त और रिक्त रह जाने की नियति मुझे भी उदास और बेचैन किए दे रही हैं. इसलिए बस इतना ही.
उम्मीद है आपने एक अपरिचित के इस ईमेल को स्पैम समझकर डिलीट नहीं किया होगा और इसे पूरा पढ़ गई होंगी. क्या आप इसे मृणाल जी को फॉरवर्ड कर देंगी? मैं तो इस ईमेल की कॉपी सीधे उन्हीं को भेजना चाहता था, पर उपन्यास में उनके ईमेल का पता नहीं मिला इसलिए यह आग्रह आपसे कर रहा हूँ.
आपका बहुत समय ले लिया.
सादर-सप्रेम-सधन्यवाद
एक पाठक
पुनश्च:
एक जरूरी बात तो रह ही गई. यूं तो मूल कथा में उनकी उपस्थिति बहुत हस्तक्षेपकारी नहीं है, पर उपन्यास में राधा दादा का होना, एक अलग कारण से भी इसे महत्त्वपूर्ण बनाता है. मेरी स्मृति में तुरंत कोई दूसरा उपन्यास नहीं कौंध रहा जिसमें प्रकाशक का किरदार इतना महत्त्वपूर्ण हो. राधा दादा की सहमति के बिना यह उपन्यास कहाँ संभव हो पाता! भले यह उपन्यास का केंद्रीय विषय नहीं है, लेकिन लेखक-प्रकाशक संबंध, एडवांस रॉयल्टी, शोधपरक लेखन के लिए प्रकाशकीय सहयोग, लेखकीय अधिकार जैसे मुद्दे जिस सहजता से प्रतीक रूप में यहाँ मौजूद हैं, वह हिन्दी के हर लेखक की आंखों में पलने वाला एक हसीन सपना है. किंचित कारणों से इन मुद्दों पर व्यवस्थित बातचीत का माहौल हमारी भाषा में नहीं बन पाया है. ‘सहेला रे’ का संरचनात्मक विधान इस दिशा में सोचने के लिए भी कई सूत्र उपलब्ध कराता है.
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राकेश बिहारी
(11 अक्टूबर 1973, शिवहर,बिहार)
पेशे से कॉस्ट अकाउंटेंट. कथा लेखन तथा कथालोचना दोनों विधाओं में समान रूप से सक्रिय.
प्रकाशन:
वह सपने बेचता था, गौरतलब कहानियाँ (कहानी-संग्रह) केंद्र में कहानी, भूमंडलोत्तर कहानी (कथालोचना)
सम्पादन :
‘स्वप्न में वसंत’ (स्त्री यौनिकता की कहानियों का संचयन), ‘खिला है ज्यों बिजली का फूल’ (एनटीपीसी के जीवन मूल्यों से अनुप्राणित कहानियों का संचयन), ‘पहली कहानी : पीढ़ियां साथ-साथ’ (निकट पत्रिका का विशेषांक)’ ‘समय, समाज और भूमंडलोत्तर कहानी’ (‘संवेद’ पत्रिका का विशेषांक)’, बिहार और झारखंड मूल की स्त्री कथाकारों पर केन्द्रित ‘अर्य संदेश’ का विशेषांक, ‘अकार- 41’ (2014 की महत्वपूर्ण पुस्तकों पर केन्द्रित), ‘रचना समय’ का कहानी विशेषांक, ‘पुनर्सृजन में रेणु’ (कथादेश’ का रेणु केंद्रित विशेषांक, फरवरी 2021)
वर्ष 2015 के लिए ‘स्पंदन’ आलोचना सम्मान से सम्मानित.
संपर्क:
डी 4/6, केबीयूएनएल कॉलोनी, पोस्ट – कांटी थर्मल, जिला- मुजफ्फरपुर (बिहार) 843 130
मोबाईल – 9425823033 ईमेल – brakesh1110@gmail.com