आवाज़ें जो सुनी नहीं गयीं
गरिमा श्रीवास्तव
स्त्री साहित्येतिहास को उपेक्षित करके कभी भी इतिहास -लेखन को समग्रता में नहीं जाना जा सकता. कुछेक इतिहासकारों को छोड़ दें तो अधिकांश इतिहासकारों ने स्त्रियों के सांस्कृतिक -साहित्यिक दाय को या तो उपेक्षित किया या फुटकर खाते में डाल दिया. आज ज़रूरत इस बात की है कि सामाजिक अवधारणाओं,विचारधाराओं और औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था,समाज-सुधार कार्यक्रमों के पारस्परिक सम्बन्ध को विश्लेषित-व्याख्यायित करने के लिए स्त्री-रचनाशीलता की अब तक उपेक्षित,अवसन्न अवस्था को प्राप्त कड़ियों को ढूँढा और जोड़ा जाये,जिससे साहित्येतिहास अपनी समग्रता में सामने आ सके.
स्त्रियाँ लिखकर अपने आपको बतौर अभिकर्ता (एजेंसी)कैसे स्थापित करती हैं ,पूरी सामाजिक संरचना को कैसे चुनौती देती हैं और इस तरह साहित्य और विशिष्ट ज्ञानधारा में दखलंदाजी करती हैं,यह जानने के लिए विभिन्न जीवंत संरचनाओं के प्रतीकों से स्त्रियों को जोड़कर देखने की ज़रूरत पड़ती है. हिंदी साहित्य के सन्दर्भ में विचार करें तो स्त्री की रचनाशीलता के अधिकतर ज्ञात प्रसंग मुख्यतः मध्यवर्गीय हिन्दू स्त्रियों के ही मिलते हैं,जो इतिहास की जानकारी को एकपक्षीय और एकरैखीय बनाते हैं. यहीं पर इतिहास के पुनर्पाठ और आलोचनात्मक प्रतिमानों के पुनर्नवीकरण की ज़रूरत महसूस होती है. डा.नामवर सिंह ने साहित्येतिहास की पुनर्व्याख्या के सन्दर्भ में सही ही कहा है,
“नवीन व्याख्याओं का उपयोग भर इतिहास नहीं है, इतिहास स्वयं में एक नई व्याख्या है.”
हाल के वर्षों में स्त्री कविता के इतिहास और स्त्रियों की रचनाओं को एक बड़ा पाठक और प्रकाशक वर्ग मिला है,लेकिन अब भी हिंदी नवजागरण के दौर के स्त्री साहित्य के प्रकाशन और मूल्यांकन का अभाव ही है.
“अकेले पुरुष ही चौदह विद्यानिधान नहीं हुए हैं,वरन स्त्रियाँ भी समय-समय पर ऐसी होती रही हैं जो सोने-चांदी और रत्नजड़ित आभूषणों के अतिरिक्त विद्या-बुद्धि और काव्यकला के दिव्यभूषणों से भी भूषित थीं और अब भी हैं जिन के बखान अनेक पुस्तकों और जनश्रुतियों में विद्यमान हैं …प्राचीन ग्रंथों और कविवृत्तान्तों की खोज की थी तो उस प्रसंग में कुछ कविता ऐसी भी मिली जो काव्यकुशला कमलाओं के कोमल मुखारविंदों की निकली हुई थीं. हमने उसी को संग्रह करके यह छोटा-सा ग्रन्थ बनाया है और महिला मृदुवाणी नाम रखा है.”
“ग्रन्थ में लिखित दोनों भूमिकाएं (ज्योतिप्रसाद मिश्र ‘निर्मल’ तथा रामशंकर शुक्ल ‘रसाल’कृत)इस तथ्य से सहमत हैं कि हिंदी साहित्य में इतिहास लेखन सदैव लैंगिक पूर्वग्रहों का शिकार रहा है. इसलिए स्त्रियों का लेखन सामने नहीं आया. यदि आया भी तो,उसका समुचित उल्लेख साहित्यिक इतिहासों में प्रायः नहीं मिलता.”
अक्सर यह शिकायत इतिहास लेखकों को रहती है कि इनमें से कई स्त्रियाँ ऐसी हैं जिन्होंने या तो छद्म नामों से लिखा या फिर इनके लिए किसी और ने लिखा और प्रसिद्धि इन्हें मिली. यह भी कि यदि कोई स्त्री उत्कृष्ट रचना करने में सक्षम हो भी गई तो उसके मूल्यांकन का मापदंड पुरुष ही रहे. इस बात को मैं शेख रंगरेजन के प्रसंग में स्पष्ट करना चाहूंगी. शेख रंगरेजन संवत १७१२ में जन्मे आलम नामक ब्राह्मण कवि की पत्नी थी. आलम ने धर्म परिवर्तन करके उससे विवाह किया था क्योंकि वे शेख की रचनात्मकता के कायल थे. उनदोनों का सम्मिलित काव्य संग्रह ‘आलम केलि’शीर्षक से प्रकाशित हुआ,जिसमें कवित्त और सवैया छंद में ४०० पद संकलित हैं. लाला भगवानदीन ने शेख रंगरेजन की कविताई की प्रशंसा करते हुए कहा है:
“शेख यदि आलम से बढ़कर नहीं हैं तो कम भी नहीं. प्रेम की जिस धारा का प्रवाह आलम में है वही शेख में. दोनों की रचनाएँ ऐसी मिलती जुलती हैं कि उनका एक दूसरे से पृथक करना कठिन हो जाता है. नायिका भेद और कलापूर्ण काव्य की दृष्टि से शेख को पुरुष कवियों की श्रेणी में रखा जा सकता है. उनकी सबसे बड़ी विशेषता उसकी शुद्ध भाषा,सरल पद्धति और सुव्यवस्थित भाव -व्यंजना है .शेख के पहले और बाद में भी बहुत दिनों तक शेख जैसी ब्रजभाषा किसी भी कवयित्री ने नहीं कही.”
“हो सकता है कदाचित शेख के स्नेहासव पान से मदोन्मत्त भावुक प्रेमी ने ही प्रेम-प्रवाद में आकर शेख के नाम से रचना की हो ,जो शेख के नाम से प्रसिद्ध हो गयी हो.”
“बोध-वृत्ति साधारणतया स्त्रियों में उतने अच्छे रूप में नहीं मिलती जितनी वह पुरुषों में मिलती है …इसलिए स्त्रियाँ भक्ति रचनाओं में ज्यादा रमती हैं अन्य विषयों की तरफ उतना आकर्षित नहीं होतीं”…गार्हस्थ्य सम्बन्धी विषयों में दक्षता प्राप्त करना स्त्रियों का एक परमोच्च कर्तव्य है.\”
सिन्धु तीर एक टिटहरी,तेहिको पहुंची पीर सो प्रन ठानी अगम अति ,
विचलत न मन धीर,तेहि प्रन राखन के लिए अड़ गए मुनि बीर,
परम पिता को सुमिरि कै सोखेऊ जलधि गंभीर.
इस छंद से रानीगुणवती के काव्य कौशल के साथ -साथ उनकी राजनैतिक सोच और पकड़ परिलक्षित होती है.
स्त्रियों के लिखे हुए ये ‘टेक्स्ट’ हमें चेतावनी देते हैं कि मौन और मितकथन का अर्थ रिक्ति नहीं है,जो अपनी बात को कहने के लिए प्रकृति और आत्मा- परमात्मा के रूपक का सहारा ले रही है वह इसलिए नहीं कि ईश भक्ति में मुब्तिला उसका मन सांसारिक रह ही नहीं गया है या उसके पास कहने को और कुछ नहीं है, बल्कि इसकी ज्यादा सम्भावना है कि उसके पास कहने को इतना ज्यादा है कि योग्य श्रोता (लैंगिक विभेद से मुक्त मस्तिष्क वाला श्रोता) मिलना मुश्किल है .ये हमारे ज्ञान और संवेदना की सीमा है जो हमें उसकी चुप्पी के पीछे छिपे अर्थ- सन्दर्भों को खोलने नहीं देती. कुछेक चुने हुए विषयों पर ही लिखना,लौकिक प्रेम की प्रच्छन्न अभिव्यक्ति के लिए भक्ति ,अध्यात्म और राष्ट्रप्रेम का सहारा लेना, ऐसे ही सीमाबद्ध आलोचकों को ध्यान में रखकर की गयी ‘सेल्फ सेंसरशिप’ है. अमृत राय ने महादेवी पर टिप्पणी करते हुए लिखा है :
“महादेवी के काव्य को मूलत: आत्मकेन्द्रिक,आत्मलीन कहना ठीक है; अपनी ही पीड़ा के वृत्त में उसकी परिसमाप्ति है. संसार की पीड़ा का स्वत: उसके लिए अधिक मूल्य नहीं है, मूल्य यदि है तो कवि की पीड़ा के रंग को गहराई देने वाले उपादान के रूप में.”
“सुभद्राजी की भावुकता कोरी भावुकता नहीं है,बाह्य जीवन पर संवेदनात्मक मानसिक प्रतिक्रियाएं हैं.यही कारण है कि उनकी कविताओं में भाव मानव -सम्बन्ध से,मानव- सम्बन्ध विशेष परिस्थिति से,विशेष परिस्थिति सामाजिक -राष्ट्रीय परिस्थिति से,एक अटूट सम्बन्ध -श्रृंखला में बंधी हुई है. भाव के सारे सन्दर्भों का निर्वाह उनके काव्य में हो जाता है. इससे उनकी वास्तविक भाव-सम्पन्नता का, संवेदनशीलता का, चित्र हमारे सामने खिंच जाता है.”
बहुत दिनों तक हुई प्रतीक्षा
कहाँ करूणानिधि केशव सोये,जागत नेक न जदपि बहुबिधि भारतवासी रोए.
जिसमें निजी मुक्ति की कामना का उद्दात्तीकरण करके उसे राष्ट्रमुक्ति से जोड़ दिया गया,इसी तरह महादेवी , जहां वे कहती हैं :कीर का प्रिय आज पिंजर खोल दो जिनकी निजी मुक्ति की आकांक्षा राष्ट्र मुक्ति और उससे भी आगे स्त्री मात्र की मुक्ति से जुड़ जाती है. भावुकता के इस उद्दात्तीकरण को क्या हम बतौर साहित्यिक मूल्य देख सकते हैं ?अब तक के सौन्दर्यशास्त्रीय चिंतन के जो प्रतिमान रहे हैं, उनमें स्त्री को तुच्छ मानवी के रूप में चित्रित किया गया या उसमें देवत्व के सभी काल्पनिक गुणों की प्रतिष्ठा कर दी गयी है. सामाजिक धरातल पर उसे तुच्छ समझने का भाव ही प्रमुख है, जिसमें यह निहित है कि स्त्री का लिखना हाशिये का लेखन है, उसके लिखे का अर्थ ही है कि उसमें घरेलू अर्थ-छवियाँ और दैनंदिन के खटराग के वर्णन प्रमुख होंगे, जिसे मुख्यधारा के स्तर तक पहुँचने के लिए अभी लम्बी कवायद की ज़रूरत होगी. उसकी कविता में गलदश्रु भावुकता होगी, यदि वह श्रेष्ठ रचना लिख भी ले तो उसके पुरुष प्रेरणा स्रोत ढूंढे जायेंगे. शायद इसीलिए उसपर हमेशा आदर्श भारतीय नारी बनने का दबाव तारी रहता है, सुभद्राकुमारी चौहान लिखती हैं –
“स्त्रीवाद को एक उत्तर आधुनिक पहचान की आवश्यकता है.”
रचनाकार भावुकता को एक रणनीति के तौर पर लेती हैं, इसलिए उन्नीसवीं शताब्दी की भावुक रचनाकारों और बीसवीं-इक्कीसवीं सदी की आधुनिक स्त्रियों में आपस में एक गहरा संबंध है.ये दोनों ही लिखकर अपने-आप को विविध विषयों के माध्यम से अभिव्यक्त करती हैं, लिंग और जेंडर के परे अपने-आप को स्वतंत्र एजेंसी के रूप में पहचनवाने की कोशिश करती हैं. उन्नीसवीं सदी और इस सदी की रचनाकारों को ‘नैतिक ऊर्जा’ के सन्दर्भ में समान धरातल पर विश्लेषित किया जा सकता है. इस नैतिक ऊर्जा के कारण ही पाठक को सीधे -सीधे संबोधित करने का साहस आता है,जो भक्तिकाल से लेकर नवजागरण की कविताओं में दीखता है. सच है कि दृष्टिकोण को बदलकर इतिहास की बहुत सारी दरारें भरी जा सकती हैं.
यह तय है कि शोध और आलोचना की भी अपनी सीमायें होती हैं और यह बात रामविलास शर्मा जैसे आलोचकों पर भी लागू होती है जिन्होंने पूरे साहित्येतिहास में एक भी स्त्री रचनाकार को उल्लेखनीय नहीं माना,जबकि भक्ति और रीति काल में हमें स्त्रियों की पूरी परंपरा मिलती है जो रचनारत थीं. लेकिन क्या कारण है कि बरसों तक मीरां, सहजोबाई और ताज सरीखी दो-चार के अलावा इतिहास की किताबों में स्त्रियों का ज़िक्र नहीं किया गया?
जिन स्त्रियों ने लिखा भी वे अक्सर दूसरों के नाम से या छद्म नामों से छपीं. क्या हम इसके मनोसामाजिक कारणों को बतौर पाठक और आलोचक देख पाने में सक्षम होते हैं,जबकि हर युग की आवश्यकतानुसार इतिहास भी पुनर्व्याख्या की मांग करता है. ऐसे में नवजागरण ही नहीं प्रत्येक दौर की स्त्री रचनाशीलता की पुनर्व्याख्या होनी चाहिए. समाज और सत्ता से स्त्री के बदलते सम्बन्ध,उसके लेखन के भीतर छिपी हुई दुविधाएं,जो दरअसल उसकी ईमानदारी का परिचय देती हैं,सर्वोच्च सत्ता को लौकिक रूप में पहचानने की कोशिश,अपने नाम की जगह ‘अबला पतिप्राणा’ जैसे पदों का प्रयोग, वर्तमान सन्दर्भों में विवेचन करके ही स्त्री साहित्येतिहास की मुकम्मल समझ विकसित की जा सकती है.
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने रीतिकाल के सन्दर्भ में कहा था कि इसमें मौलिकता का अभाव है.नवजागरण के दौर में कई आंदोलनों के सामने आने से मौलिकता एक आलोचनात्मक पद के रूप में विकसित हुई. इतिहास को देखने और इतिहास में शामिल होने योग्य विषयों की सारवस्तु बदली. हमने मौलिकता की सामाजिक भूमिका को देखना शुरू किया, साथ ही समाज को एक आलोचनात्मक दलील (क्रिटिकल आर्गुमेंट) के रूप में देखने की कोशिश भी. भक्तिकाल की तरह इस दौर के रचनाकारों में भी लोकचिंता अपनी पूरी अकादमिक ईमानदारी के साथ दिखाई पड़ती है. इस लोक-चिंता के स्वरुप को दलील के रूप में देखे जाने की ज़रूरत है. आज की आलोचना इतिहास का सन्दर्भ (रेफ़रेंस) तो देती है लेकिन आज के लिए उसे ‘प्रसंग’के रूप में इस्तेमाल नहीं करती. इतिहास आज कितने स्तरों पर संघर्ष करता है,उससे प्रसंग का निर्माण होता है. स्त्रियों के लिखे हुए को इतिहास से, अपने मूल्यांकन के लिए किन-किन स्तरों पर जूझना -टकराना पड़ता है ,कैसे वे लिखकर प्रतिरोध की संस्कृति का निर्माण करती हैं ,इससे ही ‘प्रसंग’ पैदा होता है.आज के युग का इतिहास जो एजेंडा देता है,रचनाकार उससे टकरा कर ही ‘प्रसंग’ का निर्माण कर सकता है. इतिहास ही नहीं इतिहास लेखन की पूरी परंपरा से टकराती,उपेक्षित ये स्त्रियाँ क्या अपने लिखे हुए के पुनर्विश्लेषण की मांग नहीं करती हैं?
औद्योगिक विकास और श्रम के अवसरों ने स्त्रियों पर नकारात्मक प्रभाव ही डाला. प्राक-पूंजीवादी व्यवस्था ,राज्य और उनके द्वारा बनाये हुए सामाजिक संबंधों ने पुनर्जागरण के दौर की स्त्रियों की स्थिति को उनकी सामाजिक हैसियत के अनुरूप अलग-अलग ढंग से प्रभावित किया.आभिजात्य और बुर्जुवा वर्ग की स्त्रियों के लिए नवजागरण (रेनेंसा) का अर्थ वही नहीं था जो साधनहीन, धनहीन स्त्री के लिए था. इसके अतिरिक्त जब भी हम पुनर्जागरण काल में स्त्री-पुरुष समानता या उनको मिले समानाधिकारों की बात करते हैं,हमें स्त्रियों के मुद्दे पर उनको मिली स्वतंत्रता के सन्दर्भ में अवश्य सोचना चाहिए. इस दृष्टि से जान केली के अनुसार चार बिन्दुओं पर सोचा जा सकता है:
पुनर्जागरणकालीन स्त्री ने मध्यकालीन सामंती समाज से प्राक-आधुनिक राष्ट्र राज्य तक जो रास्ता तय किया उससे परिवार और राजनीति की संरचना में आमूल बदलाव देखे गए.इस दौर में स्त्री नैतिकता के नए प्रतिमान गढ़े गए, बोकाशियो और अरस्तू जैसे विचारकों ने स्त्रियों के लिए दैहिक शुचिता, मानसिक पवित्रता को अनिवार्य जीवन मूल्यों के रूप में घोषित कर दिया. साथ ही पब्लिक स्फियर में पुरुष की श्रेष्ठता को बारम्बार स्थापित करने का प्रयास किया गया और ऐसे सब मामले जिनमें नीति-निर्धारण या नेतृत्व की ज़रूरत नहीं होती, उनमें स्त्रियों को स्थान दिया गया. रेनेसां के सम्पूर्ण विचार में स्त्री के लिए घरेलू देवदूती की भूमिका तजवीज़ की गयी, एथेंस को इसके उदाहरण के तौर पर देखा जा सकता है जहां कला और बौद्धिकता के उत्कृष्ट माहौल में भी स्त्रियों के लिए घर की चारदीवारी को ही सबसे उपयुक्त स्थान माना जाता था. समूचे दरबारी साहित्य में स्त्रियों के प्रति रुढ़िग्रस्त मानसिकता के दर्शन होते हैं,जिसके पीछे सामाजिक-सांस्कृतिक कारणों को देखा जा सकता है.
११ वीं और १२ वीं शताब्दी में दरबारों में जो प्रेम सम्बन्धी काव्य दांते जैसे कवियों ने लिखा उससे एक नई तरह की साहित्यिक परंपरा की शुरुआत हुई, जिसने मध्यकालीन प्रेम-सम्बन्धी अवधारणाओं और वर्जनाओं की जगह प्रेम और नैतिकता का एक नया ही आदर्श सामने रखा. इससे पहले की दरबारी कविता सामंतशाही मूल्यों से संत्रस्त कविता थी, जिसमे किसी अधीन या किसान स्त्री की कामना करने वाले सामंत को प्रेरित करने वाले स्रोत थे, इस सन्दर्भ में कुलीन या सामंत के लिए कोई नैतिक बंधन नहीं था, दूसरी तरफ स्त्री के लिए प्रेम का अर्थ था- कि वह प्रेमपात्री बनकर ही खुश रहे और प्रेमी की प्रत्येक इच्छा का सम्मान करे, उसे प्रसन्न रखे’-दरबारी प्रेम दरअसल प्रेमियों के बीच पारस्परिक स्वच्छन्दता की वकालत करता था. लेकिन दूसरे ढंग से देखें तो इस तरह का प्रेम आभिजात्य और कुलीन स्त्रियों को ही प्रेम करने करने का अधिकार देता था,जबकि अधीनस्थ और गरीब स्त्रियाँ प्रेम पात्र बनकर और ज्यादा अधीनस्थ बन जाती थीं. दरअसल दरबारी किस्म के प्रेम में अधीनता के कई आयाम थे- सबसे पहले तो स्त्री को घरेलू और पालतू बनाना,जिसके लिए भले ही स्त्री के आगे घुटने टेककर प्रेम की भिक्षा मांगनी पड़े,या विनम्रतापूर्वक प्रेम -निवेदन करना.
दूसरे स्त्री को ऐसे भावात्मक नियंत्रण में रखना कि वह स्वतंत्रता की कल्पना भी न कर सके और प्रेम का यथोचित प्रतिदान देने के लिए निरंतर प्रस्तुत रहे. तीसरे उससे इस योग्य बनाना कि वह पति /प्रेमी के प्रति कर्तव्यशील,पवित्र और ईमानदार रहे,जबकि सामंत या जमींदार और स्त्री के सम्बन्ध एकरैखीय नहीं हो सकते थे. पितृसत्तात्मक व्यवस्था की आवश्यकताओं के अनुरूप ये सम्बन्ध बदलते रहते थे,और इस तरह दरबारी- प्रेम दाम्पत्य संबंधों से बिलकुल अलग और स्वतंत्र हुआ करते थे. पारिवारिक सम्बन्ध अपनी गति और सीमा में चलते रहते थे, उनका सामंत की अन्यान्य प्रेमिकाओं से कोई लेना-देना नहीं होता था. एक सामंत की एकाधिक प्रेमिकाएं हो सकती थीं और वह पत्नी से यौन शुचिता की अपेक्षा रखता था, वहीँ प्रेमिका से इस तरह की मांग करना संभव नहीं था क्योंकि विवाहेतर प्रेम अलग था और वह विवाह-संस्था को कहीं से भी ध्वस्त नहीं करता था. लेकिन कलात्मक सृजन के लिए विवाहेतर सम्बन्ध ही महत्वपूर्ण विषय बना. ऐसा नहीं था कि इससे विवाह संस्था नितांत अप्रभावित ही रही, लेकिन उसकी चरमराहट और टूटन सामंतशाही के अंतर्गत अति सामान्य प्रवृत्ति के रूप में पहचानी गयी.
सवाल यह है कि ऐसे सम्बन्ध आखिर ‘अवैध’ माने जाने के बावजूद समाज में चलते कैसे रहे? इसके उत्तर में यह कहा जा सकता है कि विवाह एक ऐसा सम्बन्ध था जो दूसरों के द्वारा स्थिर किया हुआ होता था ,सामाजिक जीवन के निर्वहन के लिए विवाह को ज़रूरी माना गया. चर्च द्वारा भी विवाहेतर संबंधों को हीन माना जाता था लेकिन इस तरह के दरबारी प्रेम (courtly love) या विवाहेतर संबंध को वैधता भी प्रदान की. ईसाइयत में प्रचलित प्रेम की अवधारणा ने इसे परिपुष्ट भी किया. ईसाईयत में प्रेम को सर्वोपरि माना गया और प्रेम की उद्दात्तता में यौनेच्छा का विरेचन करने पर बल दिया गया. धीरे-धीरे विवाहेतर संबंधों में प्रेम और सेक्स का मिश्रण हो गया और ईसाईयत के उपदेश किसी काम न आ सके और ऐसे संबंधों पर सामन्ती समाज की खलबलियाँ मंद पड़ने लगीं. धन और साधन संपन्न लोग चर्च के उपदेशों को उसी सीमा तक ग्रहण करते थे, जिस सीमा तक वह उनके निहित हितों के साधन में सहायक था.
जान केली के अनुसार दरबारी प्रेम के स्वरुप में निरंतर बदलाव आते रहे. बारहवीं शताब्दी के दौरान इस तरह का प्रेम और आकर्षण दरबारों में हास्य और मज़ाक का विषय भी बना और बहुत सारा साहित्य विवाहेतर प्रेम संबंधों और प्रसंगों को लेकर मनोरंजक साहित्य भी लिखा गया. Adultery या अवैध प्रेम संबंधों को लेकर चर्चाएँ भी खूब हुआ करती थीं. इन सबके बीच स्त्री की चतुराई, मूर्खता, सौन्दर्यऔर धोखों के किस्से और चर्चे दरबारों में चर्चा का आम विषय थे.
उधर स्त्री से यह अपेक्षित था कि एक ओर वह विवाह में पति को भी प्रसन्न रखे ,दावतों का आयोजन करे और दूसरी ओर प्रेमी के प्रति भी समर्पित रहे. शुचिता और नैतिकता के मिश्रण और द्वंद्व में ‘प्रेम’ एक आकस्मिक घटना के रूप में सामने आया करता. अवैधता बहुत तरह की सावधानी की मांग करती थी लेकिन प्रेम ऐसे संबंधों में भी विशुद्ध प्रेम की इरोटिक प्रकृति से इंकार नहीं किया जा सकता. इसकी अपेक्षा पुनर्जागरण के दौर की स्त्री अपेक्षाकृत ज्यादा स्वतंत्र हुई. वह प्रेम सम्बन्ध रखने या न रखने के लिए स्वाधीन थी.
स्पष्टत: यह वैचारिक मुक्ति की ओर संकेत करता है, जिसमें स्त्री अपनी इच्छा से सम्बन्ध रखने की दिशा में कदम बढ़ाती दीखती है. ऐसे बहुत से साहित्यिक साक्ष्य मिलते हैं जिनमें स्त्री विवाहेतर सम्बन्ध रख रही थी -जिसमें वह स्वेच्छा से आवाजाही भी कर रही थी. आदान-प्रदान के सम्बन्ध के बावजूद .क्या ये प्रसंग सिर्फ साहित्य का विषय थे या सामाजिक परिस्थितियाँ भी स्त्री के प्रति मानसिक अनुकूलन को बदल रही थीं?लेकिन स्त्री की पवित्रता की पारंपरिक अवधारणा और पुरुष पर उसकी निर्भरता के बावज़ूद प्रेम संबंधों में स्वच्छंद आवाजाही आश्चर्य पैदा करती है.
विवाहेतर और दरबारी प्रेम सम्बन्ध एक तरह का स्टेटस सिम्बल भी था,और बहुत प्रचलित था. समूचे मध्यकालीन यूरोपीय साहित्य में परस्त्री प्रेम की कवितायेँ और श्रृंगार प्रसंग भरे पड़े हैं,यह तभी संभव था जब पितृसत्ता इसे प्रश्रय और सहयोग देती क्योंकि चर्च की तयशुदा नैतिकता इसके खिलाफ़ पड़ती थी. हालाँकि शुरूआती दौर में चर्च और पुरुष प्रधान समाज को इस तरह के संबंधों से कोई दिक्कत नहीं थी,क्योंकि इसमें पुरुष के लिए ढेर स्वतंत्रता थी. दिक्कत तब शुरू हुई जब स्त्रियाँ भी अपनी यौनिकता को लिए सामने आने लगीं. जहां ईसाईयत का मूलाधार परदुःख कातरता ,करुणा और प्रेम था, वहीँ साहित्य में ऐसे प्रेमी का करूण चित्रण होने लगा,जो अपने मालिक की पत्नी से प्रेम करता है, निवेदन करता है और उसके लिए प्राण न्योछावर करने को तैयार रहता है. वह स्वामी को धोखा देता है पर स्वामिनी की सेवा करने के लिए ,उसकी प्रसन्नता के लिए हरदम तैयार रहता है. इसतरह का प्रेम वैधता की श्रेणी में नहीं आता था,जो इस बात की तरफ भी संकेत करता है कि अधिकतर आभिजात्य विवाह-सम्बन्ध किसी राजनैतिक लाभ या धन के लिए स्थिर होते थे ,जिनमें प्रेम और भावात्मक लगाव का अभाव होता था. दरबारी प्रेम को विषय बनाकर लिखे गए साहित्य से ऐसी भावनाएं विरेचित भी होने लगीं और पारंपरिक साहित्य से उसकी टकराहट भी बढ़ी.
सामंती माहौल में स्त्री की यौनिक और अन्य आवश्यकताओं में कोई फ़र्क नहीं किया जाता था और परिवारों की आतंरिक संरचना में धर्म और चर्च का भय भी अंतर्गुम्फित था. दूसरी तरफ ऐसे सामंती परिवार जहां संपत्ति का उत्तराधिकार स्त्री को मिलता था वहां पति उसकी पूरी खानदानी संपत्ति की देखभाल और प्रबंधन किया करता था ,ऐसी स्त्री से विवाह सम्बन्ध बनाने के लिए अच्छे अच्छे परिवारों के व्यक्ति आतुर रहते थे. पति या प्रेमी से सुने हुए अनुभवों और कभी कभी स्वयं उपस्थित रहकर भी स्त्रियाँ राजदरबार में कवितायेँ और गीत लिखती थीं -जिनका मूल स्वर रोमांटिक होता था, रनिवासों और अन्तःपुरों में ऐसे नाटक भी खेले जाते थे जो मुख्यत: प्रेम पर आधारित होते थे. प्राक-आधुनिक युग आते-आते दरबार सिर्फ दिखावे की चीज़ रह गए थे लेकिन अब भी साधारण स्त्रियों के लिए राजनीतिक सत्ता या नेतृत्वकारी भूमिका प्राप्त करना दूर की बात थी, बावजूद इसके कि कुछ स्त्रियाँ सफल शासक भी हुईं. लेकिन आम तौर पर स्त्री के प्रति समाज का जो रवैया था उसे नोबेलिटी पर लिखी पुस्तक में देखा जा सकता है जिसमें स्त्रियों से शिक्षित होने के साथ -साथ अच्छी नृत्यांगना,गायिका,चित्रकार,सुंदरी और आकर्षक व्यक्तित्वशाली बनने की अपेक्षा की गयी है.
इस दिनों स्त्री से अपने आप को ऐसा बनाने की अपेक्षा की गयी जो दूसरे को प्रसन्नता और जीवन्तता से भर दे. लेकिन आकर्षक दीखना और आकर्षित करना ये दो बातें थीं -जो सबसे अधिक महत्वपूर्ण थीं, जबकि दरबारों में चर्चा का विषय था राजनीति और युद्ध. वह स्त्री जो दरबार में आती -जाती थी उससे यह अपेक्षा की जाती थी कि वह आकर्षित करे, लुभाए लेकिन नीति -निर्धारण या राजनीतिक मसलों पर कोई राय न रखे. उसका युवा और आकर्षक दीखना, हाव-भाव सञ्चालन में सावधानी बरतना ही ज़रूरी था , दरबारों में अक्सर पुरुष ही वक्ता की भूमिका में होते थे और स्त्रियाँ श्रोता. स्त्रियों को कैसा दीखना, कैसा होना चाहिए ,इसके बारे में भी पुरुष ही सोचते थे.
इन स्त्रियों की रचनात्मकता का क्षेत्र बहुआयामी है- मातृत्व, प्रेम,आध्यात्मिकता, सांसारिक, भौतिक समस्याएं,उनके सामाजिक रुझान , स्वयं को स्थापित करने का प्रयास और पितृ सत्ता को चुनौती देती रचनाकारों को संज्ञान में लेना ज़रूरी है. इस दौर की पहली कवयित्री इज़ाबेला व्हिटनी की पहली कविता १५७३ में छपी थी. वह शहर से गुज़ारिश करती है कि उसे गुमशुदगी में ही दफ़न कर दिया जाए –
पहली तो वे जो बुर्जुआ परिवारों से जुड़ी हुई थीं, जिन्हें शैक्षिक ,आर्थिक मदद के लिए किसी के सामने हाथ फ़ैलाने की ज़रूरत नहीं थी.
दूसरी वे जिन पर पर सेंसरशिप इतनी हावी थी कि प्रारंभ में इन्होंने सृजन की जगह अनुवाद को ही अपनाया जिनमें एलिजाबेथ फर्स्ट, एनी सेसिल दे वेरे और मेरी सिडनी थीं.
तीसरी तरह की रचनाकार वे थीं जो साधारण परिवारों से सम्बद्ध थीं,लेकिन दरबारों से भी किसी न किसी रूप में जुड़ी हुई थीं. एनी द्रोविस, एमिलिया लान्येर, डायना प्रिमरोज़ इसी श्रेणी में आती हैं लेकिन वे अक्सर हाशिये पर ही रहा करती थीं,उन्हें हमेशा संरक्षण की आवश्यकता का अहसास होता रहा.
इज़ाबेला व्हिटनी , राचेल स्पेघट, एलिस सटक्लिफ और ऐनी ब्रोड्स्ट्रीट की रचनाओं से ज़ाहिर होता है कि उन्हें आर्थिक संरक्षण की ज़रूरत थी ,यद्यपि वे बुर्जुआ वर्ग से सम्बद्ध थीं और कोई न कोई घरेलू रोज़गार करती थीं. व्हिटनी लिखा कि मैं शरीर और मस्तिष्क से परिपूर्ण हूँ पर धन से कमज़ोर हूँ.
नदियाँ,हाँ नदियाँ जो चिंघाड़ती हैं
सागर की उफनती लहरों सी नदियाँ चिंघाड़ती हैं
तोड़ती हुई कगारों को,सीमाओं को पार करती
नदियाँ चिंघाड़ती हैं.
कहीं वह आसमान के राजा को संबोधित करती हुई लिखती है:
आकाश के देवता
दृढ और सत्य तुम्हारे वचन झूठे हैं .
रेनेसां की कवयित्रियों में स्वर-वैविध्य है, कभी उनमें आध्यात्मिकता का स्वर है तो कभी व्यंग्य, कभी वे नास्टेल्जिक हैं तो कभी आत्माभिव्यक्ति के लिए व्याकुल दीखती हैं; मसलन व्हिटनी व्यंग्य का अत्यंत प्रभावी प्रयोग करती है.वर्जीनिया वुल्फ़ ने रूम ऑफ़ वंस ओन में लिखा था कि स्त्रियाँ स्थायित्व और सुरक्षा चाहती हैं. प्राक आधुनिक कवयित्रियां घर और घर के अभाव को सामान्य रूप से कविता का विषय बनाती हैं. जेन और एलिज़ाबेथ कवेंडिश अपने घर की स्मृति में कवितायेँ लिखती हैं. उधर ऐनी ब्रैडस्ट्रीट घर छूटने की यातना को अभिव्यक्त करती है. घर के अलावा परिवार जनों की मदद,उनके भावनात्मक सहयोग और उनके न रहने पर उपजे अभाव को भी कवितायेँ अभिव्यक्त करती हैं. मेरी सिडनी, फिलिप और राबर्ट सिडनी एक परिवार के थे वैसे ही मेर्री र्रोथ के साथ विलियम हर्बर्ट जुड़े थे, कवेंडिश परिवार में जेन, एलिज़ाबेथ विलियम और मार्गरेट कवेंडिश और एनी सेसिल मशहूर साहित्यिक परिवार से सम्बद्ध थीं.
साहित्यिक पृष्ठभूमि से आई हुई ये रचनाकार साहित्य की दुनिया से सुपरिचित होती थीं. सबसे दिलचस्प यह है कि साधारण या बुर्जुआ वे चाहे किसी भी पृष्ठभूमि-साधारण या बुर्जुआ से सम्बद्ध हों- आत्म से संवाद की प्रक्रिया सभी में लक्षित होती है. १९७०के दशक तक पश्चिमी स्त्रीवादी आलोचना ने स्त्री रचनाकारों और उनकी आत्मकथाओं के अन्तःसम्बन्ध को पूरी तरह उजागर कर दिया, इसलिए इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि इस दौर में वे किसी वैचारिक चेतना पर केन्द्रित न रहकर निजी अनुभूतियों को वाणी देने में मुब्तिला थीं. एलिज़ाबेथ प्रथम की कवितायेँ कैद के दिनों की तकलीफ का बयान करती हैं.व्हिटनी भी आर्थिक अभाव के दिनों ,लान्येर विगत यौवानानुभवों, कवेंडिश बहनों ने सिविलवार के अनुभवों के आत्मपरक सन्दर्भ कविताओं में दिए हैं.
प्रेम और शोकगीत– ये दो सन्दर्भ कथ्य के तौर पर इनकी कविताओं में सामान्यतः पाए जाते हैं. उदाहरण के तौर पर मेरी सिडनी ने अपने मृत भाई फिलिप की स्मृति से ही पाम अनुवाद की शुरुआत की जेन कवेंडिश ने भी अपनी बहन एलिज़ाबेथ को याद करते हुए लिखा एनी सेसिल- दे -वेरे ने अपने दिवंगत पुत्र की स्मृति में लिखा एनी ब्रैडस्ट्रीटभी अपने पौत्र की स्मृति को कविता का विषय बनाती हैं- पारिवारिक सम्बन्ध ,जीवन की भावुक प्रतिक्रियायें इन सबको कविता का विषय बनाना इस बात को दर्शाता है कि ये रचनाकार बौद्धिकता से ऊपर भावुकता को प्रधानता दे रही थीं,निकट परिजनों की मृत्यु और अभाव शोकगीतियों में अभिव्यक्त हो रहा था.
जहाँ दरबारी कविता में निजी-दुःख सुख को गोपन रखने की प्रवृत्ति थी वहीँ इस दौर की स्त्रियाँ खुलकर अपनी संवेदनाएं व्यक्त कर रही थीं. आश्चर्य नहीं कि इस दौर में स्त्रियों ने लौकिक प्रेम को काव्य की वस्तु के रूप में सहजता से स्वीकार किया. हिंदी में तो स्त्रियों द्वारा लौकिक प्रेम की प्रकट अभिव्यक्ति के खतरे बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में ही उठाये जाने शुरू हुए ;जबकि इंग्लैण्ड में मैरी रोथ के सानेटों में उनके चचेरे भाई और प्रेमी विलियम के प्रति अकुंठित प्रेम अभिव्यक्त हो चुका था. रोथ का प्रेम विलियम के प्रति दुखांत ही रहा. दरबारी समीकरण, रिश्ते-नाते परिवार और उत्कट प्रेम के बावजूद दोनों का न मिल पाना तत्कालीन सामाजिक -पारिवारिक संबंधों के विश्लेषण का नज़रिया भी प्रदान करता है.
इसी सन्दर्भ में एलिज़ाबेथ प्रथम की कविता An Answer को देखा जा सकता है, जो वाल्टर रेले के प्रति प्रेम की अभिव्यक्ति है.एलिजाबेथ कवेंडिश भी प्रेम की अभिव्यक्ति की राह में किसी वर्जना को नहीं मानतीं. एनी ब्रोड्स्ट्रीट अपने अनुपस्थित पति के बारे में लिखती है :
My head, my heart, mineeyes, my life, nay, more
यह वही भाषा और वही रूपक हैं जो दरबारी कविताई में प्रयुक्त होते थे. यद्यपि अधिकांश शोकगीत नितांत निजी हैं, लेकिन प्रेम कवितायेँ सहज और उत्कट हैं,जिनसे सामान्य पाठक का साधारणीकरण हो जाता है. ये कवितायेँ आत्मपरक अधिक हैं, जिनमें आधुनिक कविता के बीज परिलक्षित होते हैं.सामान्य श्रेणी की कवितायेँ भी ये स्त्रियाँ लिख रही थीं जिनमें राजनैतिक, धार्मिक-विश्वास और आस्थाएं अभिव्यक्त हो रही थीं.
इनकी रचनाएँ इस बात का प्रमाण हैं कि स्त्रियाँ व्यक्तिगत मसलों से सामाजिक-सार्वजनिक मसलों की तरफ जा रही थीं.रचनाओं में आत्मविश्लेषण का पैनापन और विषय का चुनाव इसका प्रमाण है.अधिकांश रचनाकार राजनीतिक विषय के रूप में शासक एलिज़ाबेथ के जीवन को ग्रहण करती दीखती हैं.साम्राज्ञी एलिज़ाबेथ की लोकप्रियता,उनकी सरकार,राष्ट्रीय नीतियां आम जनता की रूचि और चर्चा का विषय थीं. स्त्रियाँ उन्हें सत्ता और स्त्री नेतृत्व के अद्भुत समन्वय के प्रतीक के तौर पर देखती थीं.एलिज़ाबेथ के बारे में ब्रोडस्ट्रीट लिखती है:Now say, have women worth? or have they non?
or had they some, but with our Queen it’s gone?
But she,thoughdead,will vindicate our wrong;
Let such as say our sex is void of reason
Know ‘tis a slander now, but once was reason’
कवयित्रियों में ऐसी कोई नहीं है जिसने रानी एलिज़ाबेथ की चर्चा किसी न किसी रूप न की हो. ड्रोविच, सिडनी, स्पेघट, प्रिमरोज़ और ब्रोड्स्ट्रीटने रानीको धर्म-संस्थापिका के रूप में चित्रित किया, उधर इज़ाबेला व्हिटनी , एलिज़ाबेथ प्रथम, एनी सेसिल, लान्येर, रोथ और कवेंडिश बहनों ने सीधे-सीधे धर्म के प्रति निष्ठा तो नहीं दिखाई पर जीवनी और अन्तःसाक्ष्यों में उनके प्रोस्तेटेन्ट धर्म के प्रति रुझान स्पष्ट दिखाई पड़ते हैं. इनमें से सिर्फ एलिस सत्कलिफ्फ़ ही ऐसी है जो कैथोलिक धर्म के प्रति अपने रुझान को स्पष्ट शब्दों में अभिव्यक्त करने का साहस करती है,जबकि सन १६३४ में जब वह लिख रही है तब इस तरह की काव्यात्मक अभिव्यक्ति करना खतरे से खाली नहीं था.
यह इस बात को पुष्ट करता है कि प्राक-आधुनिक काल की कवयित्रियाँ अपने विश्वासों के सन्दर्भ में खतरे उठाने का साहस कर रही थीं और अपनी कविताओं में बार-बार ईश्वरीय सत्ता का ज़िक्र भी करती थीं, जो उन्हें भौतिक जगत में बाधाओं से टकराने की हिम्मत देती है. यह भी गौरतलब है कि इन स्त्रियों को पितृसत्ता द्वारा निर्धारित मोरल पुलिसिंग से भी टकराना पड़ता था, जो कमोबेश आज के सन्दर्भ में भी सही है. स्त्री का आज्ञाकारिणी, मौन रहना आदर्श माना गया, वहीँ वह भौतिक शब्द लिखकर पुरुषप्रधान क्षेत्र में सेंध लगाती है. प्रकाशन से उसका लिखा हुआ भी अन्य रचनाकारों की तरह ही पाठकों के व्यापक संसार तक पहुँचने लगा. ऐसा नहीं कि पाठकों ने बड़ी उदारता से ग्रहण किया हो या इनकी प्रतिभा को सराहा हो ,उलटे लेखिकाओं की चारित्रिक शुचिता पर प्रश्नचिन्ह लगाये जाने लगे और उन्हें जुगाडू ,लाभ-लोभ के लिए सम्बन्ध स्थिर करने वाली ‘असती’ का ख़िताब मिला. बहुत संभव है कि कई रचनाकार सेंसरशिप और लोकापवाद की वजह से अपना लिखा छपवाने को राजी नहीं हुईं. उनकी रचनाये -नाटक, प्रहसन,कवितायेँ बंद कमरों के भीतर ही प्रदर्शित हुयीं, कही-सुनी गयीं या यों कह लें पारिवारिक हदबंदी में रहीं और आम जनता तक पहुँच ही नहीं पायीं.
लिखने और प्रकाशित होने के सन्दर्भ में स्त्रियों को बहुत हीन दृष्टि से देखा जाता था, इसीलिए आधुनिक काल तक भी रेनेसां काल की कई नाट्य-रचनाएँ पाठकों -दर्शकों तक नहीं पहुँचीं, जिनकी रचना स्त्रियों द्वारा की गयी थी. प्राप्त पांडुलिपियाँ इस तथ्य को पुष्ट करती हैं कि स्त्रियाँ सिर्फ प्रेम और क्षोभ की क विताओं की रचना तक ही सीमित नहीं थीं बल्कि जनविधा के रूप में नाटक को भी अपना रही थीं. मैरी सिडनी के The Tragedy of Antonie and Jane तथा एलिज़ाबेथ कवेंडिश के लिखे नाटक The Concealed Fancies को उदाहरणस्वरुप देखा जाना चाहिए. सिडनी के संवादों का गठन,एलिजाबेथके पात्रों के चरित्र -गठन पर शेक्सपीयर और मरलोव का प्रभाव दीखता है ,साथ ही यह भी कि वे लगभग सभी विधाओं पर हाथ आजमा रही थीं. डोरीच द्वारा कविता में ही नाटकीय संवादों का आयोजन किया जाना हमें बताता है कि वह संवाद द्वारा जनता तक अपनी बात पहुँचाने का प्रयास कर रही थी, क्योंकि नाटक सर्वाधिक लोकप्रिय विधा के रूप में स्थापित थी.
यह तथ्य रेखांकित करने योग्य है कि ये स्त्रियाँ अपनी यौनिकता को लेकर बहुत सचेत हैं और यही सचेतनता इन्हें आधुनिक बनाती है. मसलन लान्येर ने Slave Deus Rex Judaeorum में चर्च की धार्मिक और दकियानूसी सोच को चुनौती देते हुए लिखा कि मर्यादा का पतन पुरुष के द्वारा होता है, स्त्री द्वारा नहीं :
“Her fault, though great, yet he was most to blame”
इसी तरह राशेल और एनी ब्रोडस्ट्रीट स्त्रियों को अमर्यादित कहने वालों को कोसती हैं और कहती हैं कि पुरुष ही स्त्री को पथ भ्रष्ट करता है, उसकी उपलब्धियों में बाधक बनता है. Joseph Swetnam जिसने ‘The Arraignment of women’ में स्त्रियों को अविश्वस्त और रहस्यमयी कहा था,स्त्री-निंदा के उसके एजेंडे पर टिप्पणी करते हुए ‘Mortality Memorendum’ में स्पीघटने जोसेफ के बारे लिखा
“ As a Monster or a devil (who) on Eve’s sex…foamed filthy froth”
प्रिमरोज़, रोथ और कवेंडिशने रचनाओं में सदियों से प्रचलित स्त्री के कुमारित्व की रक्षा या उसके न होने की स्थिति में उसे चरित्रहीन मानने को उलट दिया और कहा कि प्रत्येक बार पुरुष ही इतना मासूम नहीं होता कि वह स्त्री के बनाये जाल में उलझ जाए,या अपना जीवन नष्ट कर दे.
डायना प्रिमरोज़ ‘A chain of Pearl’ में इस बारे में लिखा :
“Siren Blandishments/ which are attended with no foul events”
(Temperance,lines 5-6)
अपने सानेट ‘Pamphilia to Amphilanthus’ में मैरी रोथ ने स्त्री को स्थिर मति और पुरुष को अस्थिर मति कहा है. एलिज़ाबेथप्रथम की कवितायेँ, एनी सेसिल की शोकगीतिका ,मैरी सिडनी की प्रारंभिक कवितायेँ स्त्री की यौनिकता का सम्मान करने का भाव व्यक्त करती हैं. इनमें से सिर्फ व्हिटनी ने ‘A Communication’ की सातवीं पंक्ति में स्त्री को मूर्खा कहती है,लेकिन यह तय है कि ये सभी रचनाकार समाज में स्त्रियों के प्रति परंपरागत सोच को बदलने के लिए प्रयासरत थीं.
प्राक-आधुनिक और आधुनिक स्त्री रचनाकारों के विषय में जानकारी एकत्र करना, उनके लिखे हुए को सम्पादित करके प्रकाशित करना इतिहास में स्त्री-रचनात्मकता की अप्राप्य और उपेक्षित धारा की विलुप्त कड़ियों को जोड़ना है. भारत और पश्चिम में स्त्री के लिखे हुए की उपेक्षा के सन्दर्भ में आश्चर्यजनक समानता लक्षित होती है. यूरोप के पुनर्जागरण और भारत के नवजागरण में स्त्री के मुद्दों पर ढेर सारी समानताओं के बिंदु मिलते हैं. स्त्रियों के लिखे के विषय में जानकारी हो या उनकी रचनाओं के संकलन हों, तब इनकी खोज और विश्लेषण इतिहास और शोध की दिशा में नई संभावनाओं के द्वार खोलने में मददगार हो सकता है. यद्यपि पिछले बीस वर्षों में स्त्री-अध्ययन और लैंगिक अध्ययन केन्द्रों द्वारा ऐसी बहुत सी पुस्तकों और पांडुलिपियों की खोज की गयी है जिससे इतिहास की दरारों को भरने में मदद मिली है और विशेषकर स्त्री रचनात्मकता का मुकम्मल इतिहास लिखने की दिशा में प्रयास हुए हैं, फिर भी स्त्री रचनात्मकता के बहुत से पहलू अभी भी उपेक्षित और अनछुए ही रह गए हैं. इस तकलीफ और आकांक्षा की अभिव्यक्ति ‘sighs’ शीर्षक कविता में एनी ब्रोडस्ट्रीट ने की है –
(Before the Birth of one of her Children, lines 25-6)
रेनेसां ने बहुत सी गीतकारों, कवयित्रियों और संवेदनशील कलाप्रेमियों को रचनात्मकता की अनुकूल मनोभूमि और प्रेरणा प्रदान की. यह समय स्पेंसर और शेक्सपीयर जैसे प्रतिभा शालियों का था, लेकिन इन्हीं के समानांतर स्त्रियाँ छंद बद्ध काव्य भी रच रही थीं,ठीक भारत की तरह जहाँ ब्रजभाषा समेत कई लोकभाषाओं में स्त्रियाँ पुरुषों की तर्ज़ पर छंद बद्ध रचनाएँ लिख रही थीं.
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