मैला आँचल में राजनीति की बारादरी : चरखा-कर्घा, लाठी-भाला और बम-पेस्तौलअमरेन्द्र कुमार शर्मा
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“अगर पहले मैंने राजनीति में भाग न लेना चाह हो तो इसका एकमात्र कारण यही है कि राजनीति आज हमें साँप की कुंडली की तरह जकड़ लेती है – चाहे जो करें, एक बार उसमें फँसने पर फिर हमारा उद्धार नहीं है. मैं उसी साँप से युद्ध करना चाहता हूँ – राजनीति में धर्मभाव को प्रवर्तित करना चाहता हूँ” – महात्मा गांधी
“नीति के प्रति जो एकांत आग्रह गांधी के सारे जीवन का प्रतीक है और जिस आग्रह को उनकी तरह प्रकट करना संसार में और किसी के लिए संभव नहीं है, उसकी हम सभी को बहुत आवश्यकता है. यह देश का बहुत बड़ा दुर्भाग्य है कि आज उस बहुमूल्य रत्न को हमें राजनीति की भंगुर नौका में, गाली और निंदा की लहरों पर, बहा देना पड़ा है.”- रविन्द्रनाथ टैगोर
एक अगस्त 1920 को बाल गंगाधर तिलक (1856-1920) की मृत्यु के ठीक बाद सात सितंबर 1920 को रविन्द्रनाथ टैगोर(1861-1941) का उपर्युक्त कथन महात्मा गांधी (1869-1948) के राजनीति में सक्रिय प्रवेश के कारण उत्त्पन्न अनिवार्य चिंता और दुःख से जुड़ा हुआ है. ‘राजनीति की भंगुर नौका में’ गांधी का शामिल होना भारत के लिए ‘दुर्भाग्य’ है, इस भावुक कथन की सतह के नीचे अपने से आठ साल छोटे गांधी के लिए टैगोर का यह मात्र भावुक कथन नहीं है बल्कि एक नीतिप्रज्ञ भारत, नैतिक मूल्यों सहित समभाव को धारण करने वाली भारतीय संस्कृति के व्याख्याता गांधी का रास्ते से हट जाना है. यह बात बहस के केंद्र में रही है कि राजनीति में गांधी, तिलक की मृत्यु से उत्पन्न रिक्तता को नए सिरे से एक नए मान-मूल्यों के साथ भरते हैं. यदि तिलक कुछ और वर्ष जीवित रहते तो यह अवसर गांधी को शायद न मिलता और राजनीति की दिशा वह न होती जो गांधी के आने के बाद विकसित हुई. यूँ तो महात्मा गांधी दक्षिण अफ्रीका में अपने कार्यों और भारत में चंपारण आंदोलन से जुड़ कर ख्याति अर्जित कर ली थी, लेकिन यह ख्याति राजनैतिक नहीं थी.
तिलक की मृत्यु के बाद धीरे-धीरे उनकी छवि में राजनीतिक मूल्य-बोध शामिल होता चला गया. दरअसल, भारतीय औपनिवेशिक राजनीति में महात्मा गांधी का आना एक अनिवार्य घटना की तरह है. जबकि स्वयं गांधी राजनीति को ‘साँप की कुंडली’ कहते हैं. यह कहते हुए वे राजनीति में आने के अपने इरादे को ‘साँप से युद्ध’ करने को शामिल करते हैं साथ ही राजनीति के लिए यह प्रस्तावना करते हैं कि मैं, ‘राजनीति में धर्मभाव को प्रवर्तित करना चाहता हूँ.’ तो क्या महात्मा गांधी ‘राजनीति में धर्मभाव को प्रवर्तित’ कर सके ? आजादी के बाद विकसित होती राजनीति और इक्कीसवीं सदी की राजनीति में क्या यह ‘धर्मभाव’ बना रहा है ? इसके उत्तर के लिए राजनीति और राजनीतिक मूल्य के विषद बहस में स्वयं को शामिल करना होगा.
यहाँ इस बहस को स्थगित करते हुए मैं फणीश्वरनाथ रेणु की राजनीतिक पृष्ठभूमि के बारे में थोड़ी चर्चा करना चाहता हूँ. यह चर्चा इसलिए आवश्यक है कि ‘मैला आँचल’ की संपूर्ण संरचना में उपर्युक्त पदबंधों, प्रतीक चिन्हों, रूपकों के माध्यम से एक गहरा तत्कालीन राजनीतिक विमर्श पसरा हुआ है और इस विमर्श का उपन्यास से बाहर एक यथार्थ राजनीतिक हैसियत भी है. बिहार में 1934 में वामपंथी रुझान के लिए ख्यात जयप्रकाश नारायण की अगुआई में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी का गठन हुआ और यह धीरे-धीरे विकसित होती हुई कांग्रेस के भीतर समाजवादी रुझानों के एक वर्ग को प्रभावित करने लगा था इसी प्रभाव को हम 1939 में कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में सुभाषचंद्र बोस की जीत होती है और महात्मा गांधी समर्थित पट्टाभि सितारमैय्या की हार. हालाँकि बाद में दबावों के बीच सुभाषचंद्र बोस को इस्तीफा देना पड़ता है.
जयप्रकाश नारायण ने 1938 में बिहार में राजनीतिक प्रशिक्षण के लिए एक ‘समर स्कूल ऑफ़ पॉलिटिक्स‘ का आयोजन किया था. इस दौरान रेणु जी बनारस में थे. लेकिन जयप्रकाश जी की इस गतिविधि का उनपर जबरदस्त प्रभाव पड़ा था. वे इस आयोजन की विस्तृत रिपोर्ट रामबृक्ष बेनीपुरी द्वारा सम्पादित साप्ताहिक पत्रिका ‘जनता‘ में पढ़ा करते थे. वे अपने एक साक्षात्कार[11] में इस पूरे प्रसंग की विस्तृत चर्चा करते हुए बताते भी हैं कि किस तरह एक महीने से भी अधिक चले इस प्रशिक्षण वाले आयोजन में जयप्रकाश जी ने प्रशिक्षण देने के लिए कमलादेवी चट्टोपाध्याय, मीनू मसानी, अच्युत पटवर्धन, नरेन्द्रदेव, मेहर अली, अशोक मेहता आदि जैसे प्रखर समाजवादी रुझान वाले विद्वानों को आमंत्रित किया गया था.
फणीश्वरनाथ रेणु के राजनीतिक गुरु जयप्रकाश नारायण रहे हैं. जब रेणु 1942 में गिरफ्तार हुए और लगभग डेढ़ वर्ष जेल में रहते हुए बीमार होकर रिहा हुए तबतक समाजवादी रुझान के लोग कांग्रेस से अपना एक अलग राजनीतिक रास्ता चुन चुके थे. 1947 की आजादी को झूठी आजादी माने जाने का प्रचलन समाजवादियों में फ़ैल गया था.1948 आते-आते समाजवादी, कांग्रेस पार्टी से अलग हो गए. रेणु 1952 तक समाजवादी पार्टी से एक कार्यकर्ता के तौर पर जुड़े रहे. 1952 में ही भारत में वयस्क मताधिकार के आधार पर पहला आम चुनाव हुआ और एक लोकतांत्रिक सरकार का गठन हुआ. फणीश्वरनाथ रेणु राजनीतिक दलों में दक्षिण से वाम, वाम से दक्षिण की आवाजाही से निराश होने लगे थे. ठीक इसके बाद रेणु में रचनात्मकता का विस्फोट होता है और 1954 में उनका और हिंदी साहित्य का भी प्रसिद्ध उपन्यास ‘मैला आँचल’ प्रकाशित होता है .
‘मैला आँचल’ को उसकी आंचलिकता के वृत्त से बाहर ‘महात्मा गांधी की जय’, ‘नमक-कानून’,‘चरखा-सेंटर’,‘स्वराज’,‘इंकलाब जिंदाबाद’,‘भारतमाता’,‘हिंसाबात’,‘वंदे मातरम’,‘सोशलिस्ट पार्टी की जै’ और मादल की ध्वनि ‘रिंग रिंग ता धिन-ता’ पदबंध के सहारे एक राजनीतिक – सामाजिक ‘पाठ’ की बारादरी के रूप में मैं देखना चाहता हूँ.
‘मैला आँचल’ उपन्यास के रूपबंध में यह समस्त पदबंध टेक की तरह पृष्ठ दर पृष्ठ उतरता चला गया है. इस टेक की भीतरी संरचना में ‘चरखा-कर्घा, लाठी-भाला और बम-पेस्तौल’[12](पिस्तौल) एक ‘कोड’ की तरह उपन्यास के खास भू-दृश्य में संरचित है जिसके ‘डिकोड’ में तत्कालीन समय की राजनीति का बखान है जो उपन्यास में वर्णित भू-दृश्य के भीतर होते हुए भी उससे मुक्त है. यह बखान एक स्तर पर आज की राजनीति का भी एक हिस्सा जैसा लगता है. इस आधार पर यह उपन्यास अपने रचे जाने, प्रकाशित[13] होने वाले समय और उपन्यास के भीतर विन्यस्त समय का भी अतिक्रमण कर जाता है. उपन्यास में जो समय घटित हो रहा है वह 1946 से 1948 के बीच का समय है. कथा-प्रवाह की बुनावट में समय कुछ पीछे और कुछ आगे भी चला जाता है. मसलन, बिहार और नेपाल में 1934में आए भूकंप[14]का उल्लेख है, बिहार में 1937 के चुनाव में जवाहरलाल नेहरू के आने का संदर्भ है, 1947 में कांग्रेस मंत्रिमंडल के समय पूर्णिया जिले में एक अंग्रेज कलेक्टर के आने का जिक्र है. ‘मैला आँचल’ का आरंभ ही 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन की लहर के प्रभाव से होता है जो गाँव तक अफवाहों के साथ यात्रा करके पहुँचता है.
महात्मा गांधी के राजनीति में आने एवं संपूर्ण राजनीतिक परिवेश को प्रभावित करने तथा रेणु के राजनीतिक परिवेश[15]में होने के कारण ‘मैला आँचल’ के रूपबंध में जिन राजनीतिक संदर्भों, पदबंधों, प्रतीकों, चिन्हों, रूपकों, नारों जिनमें से कुछ का उल्लेख मैंने शुरू में सबसे ऊपर किया है, के आधार पर ‘मैला आँचल’ के ‘पाठ’ का एक ‘मैथड’ निर्मित होता है. यह ‘मैथड’ किसी भी उपन्यास के ‘पाठ’ का एक अलहदा आस्वाद निर्मित कर सकता है. कोई भी उपन्यास कुछ खास पदबंधों के सहारे अपना कथा-विस्तार पाता है. उपन्यास के कथानक का दवाब इन्हीं पदबंधों पर सबसे ज्यादा रहता है. उपन्यास में ऐसे पदबंधों की पहचान के तरीके का अपना एक ‘मैथड’ भी होता है. बहरहाल ‘पाठ’ के इस ‘मैथड’ के सहारे ‘मैला आँचल’ में रेणु की राजनीतिक पृष्ठभूमि के प्रभाव के साथ महात्मा गांधी के ‘होने’ उनके राजनीतिक चिन्हों, पदबंधों, प्रतीकों, रूपकों के माध्यम से घटित घटनाओं, घटनाओं में शामिल पात्रों की दास्तान में शामिल ‘धर्मभाव’ को समझने के लिए मैं उपर्युक्त पदबंधों, प्रतीकों, चिन्हों, रूपकों के साथ उतरने की प्रस्तावना करता हूँ.
‘मैला आँचल’ के रूपबंध में शामिल एक ‘बायनरी’ को आपके सामने सबसे पहले रखना चाहता हूँ. इस ‘बायनरी’ के एक छोर पर आधुनिक मूल्य बोध के ‘बायप्रोडक्ट’ से सृजित न केवल नैराश्य बोध एवं उसकी विसंगति है बल्कि व्यक्ति के संशयों और अनिर्णयों के बुनियादी कारणों का भी रेखांकन है. दूसरे छोर पर उस नैराश्य से बाहर निकलने की गांधीवादी दृष्टि का निर्माण है. यह दृष्टि एक उम्मीद की तरह उपन्यास में शामिल हुआ है. उपन्यास का एक पात्र डॉ. प्रशांत जो गाँव में रहकर काम करना चाहता है, कहता है–
‘क्या होगा मानव-कल्याण करके ? मान लिया कि उसने कालाजार की एक रामबाण औषधि का अनुसंधान कर लिया; अमृत की एक छोटी शीशी उसे हाथ लग गई. किंतु इसके बाद ? इसके बाद जो होता आया है, होगा. आखिर पांच आने का एक एपुल पचास रुपए तक बिकेगा. यहाँ तक उसकी पहुँच नहीं होगी ! … और यहाँ का आदमी जीकर करेगा क्या ? ऐसी जिंदगी ? पशु से भी सीधे हैं ये इंसान. पशु से भी ज्यादा खूंखार हैं ये …. पेट ! यही इनकी बड़ी कमजोरी है. मौजूदा सामाजिक न्याय-विधान ने इन्हें अपने सैकड़ों बाजुओं में जकड़कर ऐसा लाचार कर रखा है कि ये चूं तक नहीं कर सकते …. फिर भी ये जीना चाहते हैं. वह इन्हें बचाना चाहता है. क्या होगा ?’[16]
डॉ. प्रशांत में यह प्रश्नवाचकता धरती के उस हिस्से के यथार्थबोध से उपजा है, जहाँ वह जाति भेद, अशिक्षा, गरीबी, भुखमरी, बीमारी से मरते लोगों के बीच काम करने के लिए आया हुआ है. यह समाज केवल उपन्यास का ही नहीं है. हम यह जानते हैं कि भारत के अधिकांश हिस्सों की सचाई में जाति भेद, अशिक्षा, गरीबी, भुखमरी, बीमारी से मरते लोग शामिल हैं. उपर्युक्त कथन के इस वाक्य को अलग से रेखांकित करना चाहिए कि -‘पशु से भी ज्यादा खूंखार हैं ये …. पेट ! यही इनकी बड़ी कमजोरी है.’ संपूर्ण विश्व की सभ्यता का सबसे आदिम शब्द है, ‘भूख’. इसलिए ‘भूख’ के प्रश्न को सामाजिक प्रश्न की तरह नहीं बल्कि एक सांकृतिक प्रश्न की तरह देखा जाना चाहिए. अपनी-अपनी संस्कृतियों पर गर्व करने वाले वर्ग के सामने अब भी यह सबसे बड़ी चुनौती है कि वे अपनी-अपनी संस्कृति से इस सांस्कृतिक प्रश्न को हल करने की व्यवस्था का निर्माण कर सकें. संस्कृतियों के विकास में, राष्ट्र के निर्माण में ‘भूख’ एक समस्या के रूप में अब भी अटल है.
भारत के भूगोल में पसरे भूख के आंकडें अब भी हमें शर्मसार करते हैं. बहरहाल, उपन्यास के आखिरी पृष्ठ में वही प्रशांत जब गाँव की आंतरिक संरचना में धीरे-धीरे शामिल हो जाता है और भारत की मुलात्मा को गाँव में देखे जाने की प्रणाली में प्रविष्ट होता है, तब वह कहता है –
‘मैं प्यार की खेती करना चाहता हूँ. आंसू से भीगी हुई धरती पर प्यार के पौधे लहलहाएंगे. मैं साधना करूँगा, ग्रामवासिनी भारतमाता के मैले आँचल तले ! कम-से-कम एक ही गाँव के कुछ प्राणियों के मुरझाए ओठों पर मुस्कराहट लौटा सकूँ, उनके हृदय में आशा और विश्वास को प्रतिष्ठित कर सकूँ. …’[17]
उपन्यास में इस कहे को महात्मा गांधी के ग्राम-विकास की अवधारणा से जोड़ते हुए भी देखना, समझना अकारण नहीं है.
(एक)
‘महतमा गन्ही की जै’ (महात्मा गांधी की जय) ‘मैला आँचल’ उपन्यास के भू-दृश्य में एक नैतिक मूल्य और प्रेरक तत्व की तरह संरचित हुआ है. इस नारे की ताकत है कि उपन्यास के पात्रों को यह न केवल नैतिक रूप से मजबूत रखता है बल्कि ग्रामीण समस्याओं से छुटकारा प्राप्त करने के लिए राह भी दिखाता है. उपन्यास में यह नारा एक औषधी भी है. उपन्यास के ग्राम-अंचल में एक भरोसे की तरह यह नारा हर विपरीत परिस्थिति में उभरता है. अपने रोजमर्रेपन की कठिनायों में महात्मा गांधी की याद दरअसल एक हौसला देती है.
उपन्यास के कुछ पात्रों में इस हौसले की एक कहानी है. यह कहानी गांधी जी के नाम पर प्रचलित कहानियों, अफवाहों, मान्यताओं के आधार पर भी पात्रों के बीच कभी-कभी पसरती चली गई है. विशेषीकृत रूप से उपन्यास के तीन पात्र बालदेव,बावनदास और मंगलादेवी में महात्मा गांधी एक विश्वास और हौसले की तरह उपस्थित हुए हैं. उपन्यास के आरंभ में ही बालदेव को ‘रामकृष्ण कांग्रेस आश्रम के कार्यकर्त्ता’ के तौर पर, और ‘बड़ा बहादुर है’ कहकर पहचान की जाती है. (पृष्ठ 11) और अगले ही पल उसकी प्रसिद्धि पर एक कटाक्ष भी होता है- ‘
आप तो लीडर ही हो गए . तो आजकल कांग्रेस आफिस का चौका-बर्तन कौन करता है . … जेल क्या गए,पंडित जमाहिरलाल हो गए.’ (पृष्ठ19)
बालदेव के बारे में मेरीगंज[18] गाँव की यह पहली समझ है. बालदेव की विनम्रता और उसके द्वारा बात-बात पर गांधी जी का उल्लेख कभी गांववालों के सामने ताकत की तरह तो कभी कमजोरी की तरह भी उपस्थित होता है. उपन्यास का एक पात्र हरगौरी जब किसी बात पर बालदेव को मारने के लिए उठता है तब बालदेव कहता है- ‘मारिए, यदि मारने से ही आपका गुस्सा ठंडा हो तो मारिए.’(पृष्ठ 19)
बालदेव के यहाँ ‘हिंसाबात’ की कोई जगह नहीं है इसलिए वह मारपीट की एक पूर्व घटना का जब दृष्टान्त देता है -‘शिवशक्कर मौसा,बाबूसाहब गाली-गलौज करके मारने चले. मगर हम कोई लाजमान (अपशब्द) बात मुँह से निकालते हैं ? पूछिए सबों से. महतमाजी कहिन हैं …’ (पृष्ठ 20)
तब वह लाजमान (अपशब्द) को भी हिंसा की श्रेणी में रख रहा होता है. ‘महतमाजी कहिन हैं’ पदबंध बालदेव को एक ऐसी ताकत देता है जिस ताकत से वह गाँव के बीच एक बार फिर से आदर और सम्मान अर्जित कर लेता है. गांधी के नाम की उपस्थिति ही गाँव वालों के मन को श्रद्धावान बना देती है, जिसमें फिर कोई तर्क नहीं होता. ‘महतमाजी कहिन हैं’ उपन्यास के घटनाक्रम को कई बार प्रभावित करता हुआ दिखलाई देता है. बालदेव के कथन में यह एक टेक की तरह उपन्यास में शामिल हुआ है.
‘बालदेव को देखते ही यादव सेना खुशी से जयजयकर कर उठी. बोलिए एक बार प्रेम से … गन्ही महतमा की जय ! जाय. ए ! शांति ! शांति ! चुप रहो,बालदेव जी क्या कहते हैं,सुनो ! … पियारे भाइयो,आप लोग जो अंडोलन किए हैं,वह अच्छा नहीं. अपना कान देखे बिना कौआ के पूछे दौड़ना अच्छा नहीं. आप ही सोचिए,क्या यह समझदार आदमी का काम है !… आप लोग हिंसावाद करने जा रहे थे. इसके लिए हमको अनसन करना होगा. भारथमाता का, गांधी जी का यह रास्ता नहीं….’(पृष्ठ20-21)
‘अंडोलन’(आंदोलन), ‘हिंसावाद’, ‘अनसन’, ‘भारथमाता’ जैसे शब्द-प्रयोग ग्रामीण-समाज में बालदेव के माध्यम से गांधी जी पर यकीन की स्थापना है. उपन्यास की संरचना में बालदेव के माध्यम से गांधी जी के अनशन का प्रभाव गाँव में सबसे अधिक दृश्यमान हुआ है. यह कहीं – कहीं ‘उपास’ के देशज अर्थ में भी उपस्थित हुआ है. ‘बालदेव ने जिस दिन अनसन किया था,शाम को खेलावन यादव के दरवाजे पर कीर्तन हुआ था. बालदेव जी का सिखाया हुआ सुराजी कीर्तन ‘धन-धन गांधी जी महाराज,ऐसा चरखा चलानेवाले’कीर्तन के बाद बालदेव जी ने भैंस का कच्चा दूध पीकर व्रत तोड़ा था.’ (पृष्ठ 25)
उपन्यास में इस प्रकार के कई संदर्भों को देखते हुए यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि तत्कालीन भारत के ग्राम्य-अंचलों में गांधी जी की अभिग्राहयता की कई बेमिसाल कथाएँ रहीं होगी. उपन्यास की सामाजिक संरचना में भी ऐसे कई संदर्भ आते हैं जिससे गुजरते हुए लगता है कि गांधी केवल कोई एक व्यक्ति नहीं रह जाते हैं बल्कि हजारों-लाखों लोगों के लिए एक संस्था के रूप में आस्था के केंद्र बन जाते हैं. कई बार कुछ ऐसे प्रसंगों में भी गांधी का उल्लेख हो जाता है जो गांधी की बनी हुई छवि से विपरीत होता है.‘जै हो, गन्ही महतमा की जै हो! … कल खम्हार खुलेगा, पिछले साल तो खम्हार खुलने के दिन जालिमसिंह का नाच हुआ था. जालिमसिंह सिपैहिया ने एक डोमिन से शादी कर ली थी …. लेकिन इस बार कीर्तन होना चाहिए. सुराजी कीर्तन.’(पृष्ठ 75)
ऐसे ही कुछ कथाओं का विस्तार से उल्लेख कोलिन्स और लापियर ने अपनी किताब ‘मिड नाईट फ्रीडम’ में भी किया है. इस किताब का उल्लेख महात्मा गांधी की हत्या वाले प्रसंग में आगे किया जाएगा.
उपन्यास में एक कबीर मठ की केंद्रीय उपस्थिति है. इस मठ के महंत को एक दिन सपने में सतगुरु और गांधी जी दिखलाई देते हैं. सपने में गांधी जी के सपने का एक खास संदर्भ है. उपन्यास में यह संदर्भ बड़े पैमाने पर एक गाँव की जाति-व्यवस्था से भी जुड़ता है. उपन्यास में, ‘महन्थ सेवादास को सतगुरु ने सपने में कहा- गांधी तो मेरा ही भगत है. गांधी इस गाँव में इसपिताल खोलकर परमारथ का कारज कर रहा है. तुम सारे गाँव को एक भंडारा दे दो.…. (पृष्ठ 24)
उपन्यास की संरचना में गांधी जी कोई अस्पताल खोलने वाले हैं, इसका कोई उल्लेख नहीं है. उपन्यास में अस्पताल का संदर्भ मार्टिन और डॉ. प्रशांत से जुड़ता है. लेकिन यदि सपने में यह संदर्भ है तो यह संदर्भ पूरे गाँव को प्रभावित करता है. भंडारे का इंतजाम मठ के पैसे से होता है. समस्या यह है कि भंडारे में एक साथ सभी जाति के लोग बैठकर नहीं खाना चाहते हैं. मठ में इसको लेकर विवाद होता है और इसपर चर्चा होती है. दरअसल पूरे उपन्यास में जातियों की एक वर्चस्वादी दुनिया विन्यस्त है. इस विन्यास के ख़िलाफ़ बालदेव भाषण देता है जिसमें महात्मा गांधी का उल्लेख एक बार फिर नैतिक जीत प्रदान करने वाला साबित होता है. बालदेव कहता है
‘… मगर महतमा जी के परताप से,भारथमाता के परताप से,मन में सेवा-भाव जन्म हुआ और हम सेवक का बाना ले लिए. आप लोगों को तो मालूम है,जयमंगल बाबू जो मेनिस्टर हुए है,अपना दस्तखत भी नहीं जातने हैं. बहुत छोटी जात का है. वह भी गरीब आदमी थे,मूरख थे. मगर मन में सेवा-भाव था और महतमा जी उसको मेनिस्टर चुन लिए. महात्मा जी कहिन हैं- बैसनब जन तो उसे कहते हैं जो पीर पराई जानता है रे.’(पृष्ठ 29-30)
उपन्यास मे ‘पीर पराई’ का संदर्भ जाति- पांत के भेद को ख़त्म करने के प्रयोग से उपस्थित हुआ है, उपन्यास के बाहर यह गीत करुणामय वृहत्तर संसार से जुड़ता है. महात्मा गांधी का यह प्रिय भजन इस उपन्यास की जमीन को थोड़ा और कोमल, थोड़ा और आद्र कर जाता है. इस उपन्यास में ऊँची जाति के विरुद्ध कभी-कभी प्रतिपक्ष की तरह भी महात्मा गांधी का उल्लेख होता है. यादवटोली का एक युवक राजपूतटोली के लोगों द्वारा शोर किये जाने पर कहता है-
‘… हम लोग गांधी जी का जै करते हैं तो आप लोगों के कान में लाल मिर्च की बुकनी पड़ जाती है.’(पृष्ठ 30)
महात्मा गांधी इस उपन्यास के पात्रों के बीच न केवल एक साहस के साथ उपस्थित हैं बल्कि गांधी अपने रचनात्मक कार्यक्रमों के साथ भी उपस्थित हुए हैं. बालदेव के इस कथन की सतह के नीचे हमें भारतमाता से प्रेम, प्रेम को बचाए रखने का साहस और गांधी जी के रचनात्मक कार्यक्रमों के साथ ‘स्वराज’ की ध्वनि सुनाई देती है-
‘… लेकिन पियारे भाइयो,हमने भारथमाता का नाम, महात्मा जी का नाम लेना बंद नहीं किया. तब मलेटरी ने हमको नाखून में सुई गड़ाया,तीस पर भी हम इसबिस नहीं किया.’(पृष्ठ 30)‘…
हम अपने गाँव में झाड़ू देंगे,मैला साफ करेंगे हम लोगों का सब किया हुआ है. महात्मा जी खुद मैला साफ करते थे.(पृष्ठ 31)
इस कथन को हमें ग्राम-स्वराज के अर्थों में भी समझना चाहिए. गाँव में गाये जाने वाले सुराजी गीत का उल्लेख का भी एक राजनीतिक संदर्भ है-
‘देसवा के खातिर मजरूलहक भइले फकिरवा हो,दीन भेलै रजिन्नर परसाद’ (पृष्ठ 88)
मौलाना मजहरुल हक़ का जन्म एक संपन्न घर में हुआ था और कानून की पढाई के लिए इंग्लैण्ड गए थे और भारत के प्रथम राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद (1884-1963) का जन्म बिहार के जीरादेई में एक भू-स्वामी परिवार में हुआ था. महात्मा गांधी के साथ स्वतंत्रता आंदोलन में जुड़कर दोनों अपनी विरासत की सम्पन्नता को छोड़कर ‘फकीरवा’ और ‘दीन’ हो गए थे. बिहार के इन दोनों सपूतों का यह संदर्भ उपन्यास में गाँव वालों को खूब प्रेरित करता है. उपन्यास की राजनीति में ‘फकीरवा’ और ‘दीन’ की अपनी एक अलग विशिष्ट पहचान है.
उपन्यास की संरचना में महात्मा गांधी द्वारा ‘नमक-कानून’ तोड़ने के आंदोलन की कथा का अभिग्रहण बेहद रोचक ढंग से हुआ है. नमक-कानून के साथ ‘इंकलाब जिंदाबाद’ नारे का भी दिलचस्प भाष्य उपस्थित हुआ है. नमक-कानून तोड़ने का संदर्भ उपन्यास में खेलावन बाबू और जोतखी काका के बातचीत में अतीत की एक स्मृति से जुड़कर आता है. ‘इनकिलास जिंदाबाघ का अर्थ है कि हम जिंदा बाघ हैं. … जिंदा बाघ भी उसी शाम को देखा. ईस्कूल से पचिछमी कंगरेसी तैवारी नीमक कानून बननेवाला था. बड़े-बड़े चूल्हे पर,कड़ाहियों में चिक्कन मिट्टी और पानी डालकर खौला रहे हैं. खूब गीत-नाद,झण्डा-पत्तखा ! पूछा कि यह क्या है भाई, तो कहा कि नीमक कानून बन रहा है.’(पृष्ठ 37)
महात्मा गांधी ने 6 अप्रैल 1930 को समुद्र के किनारे अपने हाथों से नमक बनाकर ब्रिटिश कानून का विरोध किया था. इतिहास में यह आंदोलन ‘डांडी मार्च’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ. इस आंदोलन की ख़बर पूरे देश में फ़ैल गई थी. उपन्यास के इस गाँव में भी यह खबर अफवाहों के साथ फैली. चिकनी मिट्टी को गर्म कर नमक निकालने की यह दास्तान सचुमच में गांधी के कार्यों की फैलती ख़बर के स्वरूप पर ठहर कर विचार किया जाना चाहिए. गांधी जी के संदर्भ से कई बार ख़बरें बदले रूप में पहुँचती थी और कई बार अफवाहों के साथ. कई बार तो गांधी जी भगवान के अवतार के रूप में याद किए जाते थे. ऐसे हजारों उदाहरण साहित्य से बाहर आम-जन में फैली हुई रही हैं. उपन्यास के रूपबंध में ‘नमक-कानून’ का उल्लेख किसी राजनीतिक घटनाक्रम की तरह नहीं आता है बल्कि यह किसी न किसी कथा-तंतु के सहारे आता है जैसे कि बालदेव गाँव से एक जुलूस लेकर मिनिस्टर से मिलने के लिए पुरैनियाँ जाता है. ट्रेन में टिकट कटाने के सवाल पर महात्मा गांधी का संदर्भ एक बार फिर दिलचस्प ढंग से आता है,
‘जिसके हाथ में गन्ही महतमा का झंडा रहता है, उससे गाटबाबू, चिकिहरबाबू, टिकस नहीं माँगता है.’
और इसी ट्रेन यात्रा में जब ट्रेन एक पुल से गुजर रहा होता है तब बालदेव नमक कानून से जुड़ा एक प्रसंग गाँव वालों को बताता है-
‘नीमक कानून के समय इसी पुल के नीचे पुलिस के सिपाहियों ने जाड़े की रात में भोलटीयरों को लाकर, पानी में भिंगो-भिंगोकर पिटा था. पानी में डुबो देता था, सर को हाथ से गोते रहता है. दम फूलने लगता था, नाक में पानी चला जाता था.’
जैसा कि मैंने ऊपर कहा है कि नमक कानून तोड़ने का कार्य गांधी जी ने 6 अप्रैल 1930 को किया था. उपन्यास में यह घटनाक्रम ‘जाड़े की रात’ का है. कथा-बुनावट से यह पता चलता है कि नमक-कानून के तोड़ने का प्रसार ग्रामीण भारत तक किन-किन स्वरूपों में कितने-कितने दिनों बाद पहुँचा करता था. उपन्यास में इस कानून का सबन्ध एकता की भावना से भी जुड़ता है. उपन्यास में बालदेव के माध्यम से ही नमक-कानून के बाद की परिस्थिति का एक और संदर्भ खुलता है. यह संदर्भ आजादी के बाद और गांधी जी की हत्या के बाद सत्ता-प्रतिष्ठानों पर काबिज होने की महत्त्वकांक्षा से भी जुड़ता है. हम जानते हैं कि आजादी के बाद नए भारत में गांधी जी के नाम पर खोले गए संस्थानों और उसके बंदर-बाँट में गांधी जी मूल्य-चेतना कहीं नहीं थी. इस उपन्यास में कई ऐसे घटनाक्रम हैं जहाँ कांग्रेस पार्टी के साधारण इमानदार कार्यकर्त्ता आजादी के बाद हाशिए पर चले जाते हैं और दलाल किस्म के चापलूस वर्ग संस्थानों पर काबिज हो जाता है. कुछ का जिक्र हम आगे करेंगे. यहाँ नीमक-कानून के संदर्भ से इसी तरह की परिस्थिति के बीच बालदेव के संदर्भ से यह बात होती है-
‘गाँव में चरखा सेंटर खुलवा दिया, लेकिन जिला कमिटी के मेम्बर तसीलदार साहब हो गए. बालदेव की कोई खबर नहीं दी गई. कपड़े की मेम्बरी भी नहीं रही. नीमक कानून के समय से जेल जाने का यह बख्शीस मिला है.’(पृष्ठ 149)
आजादी के समय जन-जीवन से जुड़कर कार्य करने वाले आम व्यक्ति की यह पीड़ा आज की राजनीति से जुड़े आम लोगों की पीड़ा के साथ जोड़कर देखा जा सकता है. आज भारत की राजनीतिक पार्टियाँ साधारण कार्यकताओं के खून-पसीने से खड़ी होती है, चुनाव जीतती है और फिर साधारण कार्यकर्ताओं को पीछे धकेल चापलूसों को आगे कर देती है.
महात्मा गांधी के ‘स्वराज’ की अवधारणा में ‘चरखा’ का महत्त्व आत्मनिर्भरता के संदर्भ से सबसे शसक्त है. भारत में हजारों-हजार लोगों को जिनमें स्त्रियों की भागीदारी सबसे ज्यादा रही है, जोड़ने का काम चरखा के माध्यम से हुआ. यह आजादी के आंदोलन के दौरान और उसके बाद भी बड़े पैमाने पर गतिमान रहा है. साठ, सत्तर और अस्सी के दशक में गाँवों में चरखा-कताई एक बार फिर से स्त्रियों की आर्थिक आजादी का एक ताकतवर माध्यम बनकर उभरा यह एक मुहीम की तरह ग्रामीण परिवेश में पसरता चला गया था. आज यह कार्य लुप्त-प्राय है. कहीं-कहीं फैशन के तौर पर यह चलाया जा रहा है. चरखा अब ‘आरकाईव’ की वस्तु हो गई है. ‘मैला आँचल’ उपन्यास महात्मा गांधी के सिद्धांतों और राजनीति के अभिग्रहण में ‘चरखा’ को रेखांकित करता है.‘मैला आँचल’ में चरखा-सेंटर खोलने के संबंध में जब बालदेव मठ की कोठारिन लक्ष्मी से मदद की बात करता है तब लक्ष्मी चरखा-सेंटर को लेकर तल्ख़ हो जाती है. वह कहती है-‘ ‘चरखा-सेंटर ! इससे क्या होगा ?’ ‘चरखा सेंटर में ? यही चरखा, कर्घा, धुनकी और बिनाई की टरेनी होगी.’ ‘गाँव में रोज नया-नया संटर खुल रहा है – मलरिया संटर, काली-टोपी संटर, लाल झंडा संटर और अब यह चरखा- संटर !’’(पृष्ठ 116)
दरअसल, लक्ष्मी देख चुकी है कि गाँव में खुले किसी भी सेंटर से न तो गाँव में कोई बदलाव आया है और न ही उसके मठ के शोषणकारी चरित्र में. दरअसल, सामाजिक विन्यास में शामिल विभिन्न संस्थानों और संगठनों में पसरे हुए भ्रष्टाचार को रेणु ने आजादी के ठीक बाद फलते-फूलते देखा था. बिहार में बाढ़ के कारण आए आकाल में इन सबकी भूमिका को रेणु जी ने नजदीक से देखा था. उपन्यास के पात्र सिवनाथबाबू के साथ गांधीवादी पात्र बावनदास[19] के माध्यम से गाँव में चरखा-सेंटर खुलता है. चरखा-सेंटर खुलने के साथ एक फॉर्म भी गाँव में बाँटा जाता है जिसपर गांधी जी की तस्वीर लगी है और लिखा है-‘जो पहने सो काते, जो काते सो पहने.’ महात्मा गांधी ने अपनी ‘स्वराज’ की धारणा में ‘चरखा’ को एक प्रमुख यंत्र की तरह शामिल किया था. उपन्यास में गांधी जी को मानने वाली एक स्त्री पात्र मंगलादेवी है. मंगलादेवी ‘चरखा सेंटर की मास्टरनी’ है और गांधी जी के प्रभाव में रात-रात भर जागकर हैजा के रोगियों की सेवा करती है. मंगलादेवी के बारे में उपन्यास में दर्ज है कि, ‘मंगलादेवी बात करने में मर्दों के भी कान काटती है; पजामा और कुरता पहनती है, बाहर निकलते समय खद्दर का दुपट्टा भी डाल लेती है. (पृष्ठ 166)
इस संदर्भ के साथ और कई संदभों से ‘मैला आँचल’ के स्त्री पात्रों मसलन लक्ष्मी, कमली, कमलादेवी, ममता आदि के माध्यम से उपन्यास में स्त्री और उसके ‘होने’ की विरासत को अलग से व्याख्यायित किया जा सकता है. चूँकि हम यहाँ सिर्फ महात्मा गांधी के संदर्भों पर केंद्रित हैं इसलिए स्त्री पात्र पर बात को स्थगित रखते हुए ‘चरखा’ के संदर्भ को आपके सामने रखना चाहते हैं. उपन्यास में चरखा का संदर्भ महात्मा गांधी के खादी के अर्थशास्त्र से संबंधित है. महात्मा गांधी के रचनात्मक कार्यक्रमों में चरखा-सेंटर खोले जाने का आशय यह रहा है कि यदि गाँव में चरखा सेंटर खोला जाएगा और यदि घर का एक-एक व्यक्ति चरखा चलाने से जुड़ जाता है तो गाँव में अन्न-वस्त्र की कोई कमी कभी नहीं रहेगी. गाँव आत्मनिर्भर होगा और उसकी गरीबी दूर हो जाएगी. जिस गाँव में चरखा सेंटर खोला जाना है उस गाँव का अपना एक विशिष्ट अर्थशास्त्र है. उपन्यास में उस गाँव के बारे में जो दर्ज है वह केवल उसी गाँव का सच नहीं है बल्कि भारत के अधिकांश गाँव का भी सच है.
‘गाँव के लोग अर्थशास्त्र का साधारण सिद्धांत भी नहीं जानते. सप्लाई और डिमांड के गोरख-धंधे में वे अपना दिमाग नहीं खपाते. अनाज का दर बढ़ रहा है, ख़ुशी की बात है. पाट का दर बढ़ रहा है, बढ़ता जा रहा है, और भी ख़ुशी की बात है. पंद्रह रुपए में साड़ी मिलती है तो बारह रुपए मन धन भी तो है. हल का फाल पांच रुपए में मिलता है. दस रुपए में कड़ाही मिलती है तो क्या हुआ ? पाट का भाव भी तो बीस रुपए मन है. ख़ुशी की बात है.’(117)
इस गाँव के अर्थशास्त्र में ‘ख़ुशी की बात है’ का जो टेक है वह वास्तविक स्थिति से अनजान बने रहकर ख़ुशी की तलाश का या वास्तविक स्थिति से लापरवाह होने का नहीं है बल्कि आजादी के बाद विकसित सामाजिक-आर्थिक तंत्र में अनिवार्य होते गए मजबूत गोरख-धंधे के विरुद्ध कुछ न कर पाने / कुछ न हो पाने की निराशा से उत्पन्न भाव का ‘सम’ पर पहुँच जाना है. कहते हैं, जब दर्द की दवा न मिले तो दर्द को ही दवा मान लेना चाहिए. दरअसल, गाँव में ‘ख़ुशी की बात है’ के टेक की सतह के नीचे ‘ख़ुशी’ रंचमात्र भी नहीं है. ‘कपड़े के बिना सारे गाँव के लोग अर्धनग्न हैं. मर्दों ने पैंट पहनना शुरू कर दिया है और औरतें आँगन में काम करते समय एक कपड़ा कमर में लपेटकर काम चला लेती है, बारह वर्ष तक के बच्चे नंगे ही रहते हैं.’(पृष्ठ 117)
यह उद्धरण दरअसल भारत के विशाल क्षेत्र की सच्चाई है. यह सच जितना आजादी से पहले और उसके ठीक बाद का है उतना ही सच इक्कीसवीं सदी के भारत का भी है. डिजिटल होते भारत में अभी भी अधिकांश भारतीयों के लिए ठीक से शरीर ढंकने के लिए कपड़े तक नहीं है और न ही पेट भरने के लिए एक मुट्ठी अनाज. 2020 के भारत में फैली महामारी में लाखों की संख्या में प्रभावित होते मजदूरों की दशा को देखते हुए ‘मैला आँचल’ के कई संदर्भ नए सिरे से अर्थवान हो जाते हैं. महात्मा गांधी द्वारा गाँव के आर्थिक मोरचे पर ‘चरखा’ की अनिवार्य आवश्यकता को रेखांकित करना एक आत्मनिर्भर भारत निर्माण की दिशा में जरुरी पहल थी, जिसे धीरे-धीरे सिरे से जानबूझकर भुलाया गया था / भुलाया गया है. उपन्यास में भी आगे चलकर ‘चरखा सेंटर के मास्टरों और मास्टरनी में लड़ाई-झगड़ा’(पृष्ठ 222) हो जाता है. जब गाँव वालों के साथ संथालों का झगड़ा होता है उसके बाद परिस्थितियाँ तेजी से बदलती जाती है. आजादी के बाद सोशलिस्ट पार्टी के लोगों की गिरफ्तारी होती है. कालीचरण, मंगलादेवी को उसके दूर के रिश्तेदार के यहाँ कटिहार छोड़ आता है. और ‘गाँव का चरखा-सेंटर टूट गया.’(पृष्ठ 253) आज भी यह ‘टूट’ भिन्न अर्थों में जारी है. गांधी के विचारों के तमाम रूपकों, प्रतीकों, चिन्हों को एक खास दायरे में ‘रिड्यूस’ कर देने की राजनीति को आज नए भारत निर्माण की विशिष्टि परियोजना कहे जाने का प्रचलन तेजी से बढ़ा है.
‘मैला आँचल’ का रूपबंध दो भागों के अंतर्गत उपभागों में विन्यस्त है. पहले भाग में कुल चवालीस और दूसरे भाग में तेईस उपभाग हैं. ‘मैला आँचल’ उपन्यास के जिस भू-दृश्य में ‘सुराज’ घटित हो रही है वह उत्तरी बिहार का एक गाँव है. ‘सुराज’ की कहानी पहले ही भाग से शुरू हो जाती है लेकिन मैं यहाँ दूसरे भाग में आए संदर्भ को एक विशेष प्रयोजन से सबसे पहले रखना चाहता हूँ . उपन्यास के दूसरे भाग की शुरुआत एक प्रश्न से होती है और फिर उसके उत्तर का एक लंबा वृत्तांत सामने आता है -‘सुराज मिल गया ? अभी मिला नहीं है, पंद्रह तारीख को मिलेगा. ज्यादा दिनों की देर नहीं, अगले हफ्ता में ही मिल जाएगा. दिल्ली में बातचीत हो गई . … हिंदू लोग हिन्दुस्थान (हिंदुस्तान) में, मुसलमान लोग पाखिस्थान (पाकिस्तान) में चले जाएँगे.’(पृष्ठ 217) यहाँ ‘सुराज’ का संदर्भ औपनिवेशिक आजादी से है, जो पंद्रह तारीख यानि पंद्रह अगस्त 1947 को मिलने वाला है. और फिर ‘डिल्ली में बाँटबखरा करके सुराज मिल गया.’(पृष्ठ 223) यहाँ भारत विभाजन और उससे उपजी त्रासदी का भी एक संदर्भ खुलता है. यह त्रासदी उपन्यास की संरचना का अनिवार्य हिस्सा तो नहीं है. लेकिन उसका उल्लेख जरुर हुआ है- ‘… दंगा हो रहा है. सुनते हैं की डिल्ली, कलकत्ता, नखलौ, पटना सब जगह हिंदू – मुसलमान में लड़ाई हो रही है. गाँव-के-गाँव साफ़ !’(पृष्ठ 232)
महात्मा गांधी इस हिंसा के ख़िलाफ़ अनशन करते हैं और उपन्यास में बालदेव भी ‘अनसन’ करता है. उपन्यास में ‘सुराज’ यह संदर्भ महात्मा गांधी के ‘स्वराज’ की अवधारणा से भिन्न इस गाँव में औपनिवेशिक आजादी के साथ जुड़ा हुआ है. जहाँ ‘सुराज उत्सव’ ‘… हाथी पर भारथमाता की मुरती बैठाकर जुलूस’ निकालकर मनाया जाना है. जबकि हम जानते हैं कि महात्मा गांधी की नीति में ‘स्वराज’ का संदर्भ केवल औपनिवेशिक आजादी से नहीं बल्कि हर प्रकार की आत्मनिर्भरता की एक व्यापक नीति से जुड़ा हुआ है. हालाँकि उपन्यास का एक महत्त्वपूर्ण पात्र बावनदास जिसका गांधी जी पर अखंड विश्वास है, जब यह कहता है –‘अरे, सुराज क्या कद्दू-कोंहड़ा है जो काटकर बंटेगा… सुराज माने अपना राज, भारथवासी (भारतवासी) का राज. … ए अंग्रेजों . भारत छोड़ो, क्यों कहा था गांधी जी ने ?’(पृष्ठ 218) तब वह स्वराज को भारत विभाजन से अलग एक स्वतंत्र अवधारणा की तरफ संकेत कर रहा होता है. उपन्यास में ‘सुराज उत्सव’ के मनाए जाने का एक राजनीतिक संदर्भ है. वह संदर्भ तब खुलता है जब सोशलिस्ट पार्टी की तरफ से बीच में कोई नारा लगा देता है – ‘यह आजादी झूठी है./ देस की जनता भूखी है.’ (पृष्ठ 225)
हम जानते हैं कि ‘यह आजादी झूठी है’[20] जैसे पदबंध का प्रयोग आजादी मिलने के बाद 1947 की आजादी को झूठी आजादी माने जाने का प्रचलन समाजवादियों में प्रसारित था. ‘यह आजादी झूठी है’ लगभग हर दशक में कुछ निश्चित संदर्भों, संकेतों के साथ कई बार दुहराया जाता रहा है. कभी कोई विशिष्ट राजनीति के तहत तो कभी आम जनता के आंदोलनों के साथ. इस उपन्यास में पात्रों के ‘सुराजी’ बनने की एक कथा भी चलती है. बालदेव जब भाषण देकर मठ से लौटता है, और रात में सोने के लिए बिस्तर पर जाते ही अपने अतीत की यात्रा पर निकल जाता है. वह याद करता है कि वह कैसे सुराजी बना था. बालदेव अपने गाँव चन्नपट्टी में जब पहली सभा हुई थी और उसमें रामकिसुनबाबू जी का भाषण जब उसने सुना था तब उनकी पत्नी आभारानी जिसे वह ‘माये जी’ कहता था, का दुख सुनकर और तैवारी जी का गीत सुनकर बालदेव ने कहा था- ‘मेरा नाम सुराजी में लिख लीजिए. उस दिन की सभा में तीन आदमियों ने नाम लिखाया था- बालदेव,बावनदास और चून्नी गोसाईं. (पृष्ठ 35) इस उपन्यास का पात्र चुन्नी गोसाईं एक भिन्न चरित्र धारण करने वाला पात्र है. ‘सुराजी’ में नाम लिखवाने वाले दिन ही उसने यह संकल्प किया था कि ‘ चरखा-कर्घा, झंडा-तिरंगा और खद्दर छोड़कर सभी चीजें मिथ्या है.’(पृष्ठ 129)
स्वेदेशी बाना पर अब उसका सबसे ज्यादा बल है. वह भावुक होकर गाता है-
‘अरे देसवा के सब धन-धन विदेसवा में जाए रहे. मांगी पड़त हर साल कृषक अकुलाय रहे.’(पृष्ठ 129)
हम चाहें तो इसी तर्ज पर भारतेंदु हरिश्चन्द्र की प्रसिद्ध कृति ‘भारत-दुर्दशा’ को याद कर सकते हैं-‘… पै धन विदेश चली जात यही अति ख्वारी’. जो चुन्नी दास हर कार्य शुरू करने से पूर्व ‘दुहाई गांधी बाबा’ करता था. वही चुन्नी दास एक दिन ‘सुराजी’ छोड़कर ‘सोसलिस्ट पाटी’ में चला जाता है. इस बदलाव की भी अपनी कहानी है लेकिन यहाँ उससे पहले बावनदास का ‘सुराजी’ में शामिल होने के प्रसंग को रखना ठीक होगा. तनुकलाल का गीत ‘गंगा रे जमुनावाँ की धार…’सुनकर और तैवारी जी का भाषण सुनकर बावनदास का मन अकुलाता है और अपनी डेढ़ हाथ की काया को ‘भारथमाता की खातिर’, ‘गांधी बाबा के चरण’ में चढ़ा देता है.
उपन्यास अपने रूपबंध में ‘सुराजी’ बनने की कथा के साथ पात्रों में ‘सुराजी’ की जिंदगी जीते हुए उनमें आए विचलनों को भी दर्ज करता चलता है. यह एक तरह से ‘सुराजी’ की आत्म-समीक्षा है. दरअसल, आत्म-समीक्षा ‘स्वराज’ की धारणा का अनिवार्य हिस्सा होता है. मैं यहाँ उदाहरण के लिए दो पात्र बावनदास और बालदेव में आए विचलन का जिक्र करना चाहूँगा. दरअसल, यह पात्र इस उपन्यास में गांधी जी के सिद्धांतों पर चलने के लिए सबसे अधिक प्रतिबद्ध है. इस विचलन के बाद स्वयं बावनदास उसका प्रायश्चित भी करता है. बावनदास में एक विचलन उसके स्वाद से जुड़ा हुआ है और दूसरा उसकी काम-भावना से. ‘‘सुराजी’ में नाम लिखने के बाद सिर्फ दो बार बावन को माया ने अपने मोहजाल में फँसाने की कोशिश की थी. दोनों बार वह चेत गया था’(पृष्ठ 132)
दरअसल, उपन्यास में गांधी के नाम पर चंदे के रूप में औरतें एक-एक मुट्ठी अनाज इकठ्ठा करके देती है, जिसे बेचकर बावनदास को चंदे का पैसा इकठ्ठा करना है. जब वह चावल बेचने जाता है तब उसके इकट्ठे पैसे से वह दही-चुडा खाते हुए अतिरिक्त रूप से दो आने की जलेबी खरीदकर खा लेता है. जलेबी के स्वाद की बावनदास के पास अपनी एक स्मृति है. खाते ही बावनदास के सामने गांधी जी की स्मृति कौंधती है जिनके नाम पर एक-एक मुट्ठी चावल इकठ्ठा किया गया था. ‘कूट-पीसकर जो मजदूरी मिली है, उसमें से एक मुट्ठी ! भूखे-बच्चों का पेट काटकर एक मुट्ठी ! और बावन ने उस पैसे से अपनी जीभ का स्वाद मिटाया ?…व्रतभंग ! तपभ्रष्ट !… दुहाई गांधी बाबा ! छिमा करो ! बावन फूट- फूटकर रोने लगा.’ (पृष्ठ 132)
ठीक इसके बाद बावनदास कंठ में अंगुली डालकर कै करते हुए पश्चाताप करता है. दूसरा विचलन बावनदास में तब आता है जब नमक कानून तोड़ने के लिए तारावती पटना से चन्ननपटी आश्रम में आती है और फागुन की दोपहरी में आराम कर रही होती हैं. उनकी सेवा में बावनदास होता है.
‘तारावती जी की ऑंखें लग गईं. बावन ने हिलते-डुलते परदे के फांक से यों ही जरा झंकार देखा था. उसका कलेजा धक् कर उठा था. …पलंग पर अलसाईं सोई जवान औरत ! बिखरे हुए घुँघराले बाल, छाती पर से सरकी हुई साडी, खद्दर की खुली हुई अंगिया ! … कोकटी खाड़ी के बटन !… बावन के पैर थरथराते हैं. वह आगे बढ़ना चाहता है.’(पृष्ठ 133)
और तभी सामने दीवाल पर गांधी जी की हाथ जोड़े मुस्कुराते हुए तस्वीर बावनदास देख लेता है और एक गहरे पछतावे बोध में समा जाता है. वह कह उठता है-‘बाबा, छिमा ! छिमा ! दो घड़े पानी ! दुहाई बापू ! पानी, पानी ! शीतल जल! ठंडक !’(पृष्ठ 133)
इसके लिए बावनदास प्रायश्चित के लिए सात दिनों का उपवास करता है. दरअसल, तत्कालीन समय में महात्मा गांधी ग्रामीण भारत के अधिकांश हिस्से में एक किगवदन्ति की तरह ख्यात हो रहे थे. एक नैतिक व्यक्ति के रूप में जन-जन के जीवन को वे प्रभावित कर रहे थे. लोगों को लगता था कि अपने द्वारा किए अपराध के लिए यदि गांधी से क्षमा माँग लिया जाए तो पाप से मुक्त हुआ जा सकता है.‘गांधी जी तो अवतारी पुरुख हैं.’(पृष्ठ 42)
उपन्यास में बावनदास के लिए ‘दुहाई गांधी बाबा ! छिमा करो !’ एक नैतिक बल के साथ उपस्थित हुआ है और उसे विश्वास है कि जिसके उच्चारण से, गांधी जी के बताए उपवास से वह अपने विचलनों से मुक्त हो सकता है. महात्मा गांधी की जीवन-चर्या में यह उपवास उन्हें औपनिवेशिक सामाजिक बुराइयों से लड़ने और भारतीय समाज को अहिंसक राह पर चलने के लिए प्रेरित करने में एक नैतिक बल प्रदान करता था. गांधी जी के सिद्धांतों पर चलने के लिए बालदेव ‘सुराजी’ में नाम तो लिखाता है, लेकिन उसके जीवन में कुछ ऐसे क्षण आते हैं जब वह अपने गांधी मार्ग से हटने लगता है. बालदेव को जबसे ‘कपड़ा की मेम्बरी’ यानी की ‘कपड़े की पुर्जी बाँटने का काम’ मिला है तब से उसे ‘… अब रोज दस-पंद्रह बार से ज्यादे झूठ बोलना पड़ता है.’(पृष्ठ 85)
वह कपड़े लेने वालों के सामने तरह-तरह से झूठ बोलता है. उपन्यास में आगे चलकर बालदेव से ‘कपड़ा मेम्बरी’ का काम लेकर तहसीलदार विश्वनाथप्रसाद को ‘कपड़े, चीनी और किरासन तेल’ की मेम्बरी दे दी जाती है. बालदेव को हटाने का कारण बताया जाता है कि वह कपड़ा का ‘बलैकी’ करता था. आजादी के बाद गांधी के नाम पर परिवर्तित होती राजनीति में ‘कोटा परमिट’ के खेल का एक इतिहास तो है ही साथ ही साथ तस्करी और जमाखोरी का भी पसरता हुआ संजाल है. आजाद भारत में दशकों से बदले हुए स्वरूप में यह ‘खेल’ हर राजनीतिक दौर का एक अनिवार्य हिस्सा रहा है. उपन्यास में बावनदास की हत्या इसी तस्करी को रोकने के क्रम में कर दी जाती है. बालदेव में एक और विचलन तब आता है, जब बावनदास, गांधी जी से हुए पत्राचार की सभी चिट्ठियाँ बालदेव को सौंपते हुए कहता है कि यह सभी चिट्ठियाँ वह गाँगुली जी को दे दे. उपन्यास के रूपबंध में इन चिट्ठियों का संदर्भ दुबारा तब आता है जब बावनदास की हत्या की जा चुकी है. जब बालदेव गाँगुली जी के पास पुरैनियाँ पहुँचता है, तो गाँगुली जी उससे पूछते हैं-‘ बावनदास ने कुछ दिया है आपको ?’(पृष्ठ 301)
बालदेव झूठ बोल देता है – ‘जी, ऊहूँ …नहीं ’. दरअसल, बालदेव को लगता है कि आजादी के बाद जिस तरह से गांधी जी द्वारा लिखित पुर्जा दिखाकर कोई भी कांग्रेस पार्टी की सरकार से लाभ प्राप्त कर लेता है, कोटा-परमिट प्राप्त कर लेता है तो वह क्यों नहीं इन चिट्टियों के सहारे लाभ ले ले. वह सोचता है, ‘इन चिट्ठियों को देखते ही जमाहिरलाल नेहरु जी बावनदास को मेनिस्टर बना देंगे, नहीं तो डिल्ली जरुर बुला लेंगे. … यों भी आज तक जितने लीडर आए, सबों ने बावनदास से ही हंसकर बातें कीं.’ (पृष्ठ 301) पुरैनियाँ से लौटने के बाद अपने साथ रह रही लक्ष्मी से भी वह झूठ बोल देता है कि बावनदास के चिट्ठियों का बस्ता वह गाँगुली जी को सौंप दिया है. दरअसल बालदेव ने देखा है कि किस तरह से लक्ष्मी बावनदास के बस्ते पर रोज श्रद्धा से चंदन और फूल चढ़ाती थी. चिट्ठियों को कभी पढ़ती थी और पढ़कर रोती थी. और एक रात बालदेव धूनी की आग के पास बैठकर चुपके से लक्ष्मी से नज़र बचाकर एक चिट्ठी निकालता है तभी लक्ष्मी जाग जाती है और बालदेव के झूठ को देख लेती है-‘ दुहाई गांधीबाबा ! बाबा ए …! लछमी बिछावन पर से ही झपटी है – गुसाईं साहेब ! छि: छि: यह क्या कर रहे हैं !… सतगुरु हो, छिमा करो ! बालदेव ! … पापी,… हत्यारा.’ (पृष्ठ 302)
इसके बाद धूनी की आग लछमी के कपड़े में लग जाती है. लछमी बालदेव से बस्ता ले लेती है. कमर में लिपटा हुआ कपड़ा नीचे गिर जाता है. और वस्त्रहीन लछमी रोने लगती है. चिट्ठी के आग में जल जाने का जिक्र उपन्यास में नहीं है लेकिन जिस तरह की परिस्थिति का निर्माण हुआ है उससे सहज ही अंदाज लगाया जा सकता है कि बावनदास का बस्ता और चिट्ठी जल गई होगी. उपन्यास की कथा में जो बालदेव टेक की तरह ‘महतमा जी कहिन हैं- ’, और ‘जै गन्ही महतमा’ कहता रहा है वही बालदेव महात्मा गांधी और बावनदास की मृत्यु के बाद सत्य से दूर होकर घोर विचलन का शिकार हो जाता है. आजादी के बाद और महात्मा गांधी की मृत्यु के बाद स्वयं को गांधीवादी कहने वाले वर्ग की राजनीति में इस प्रकार के विचलनों का भी अपना एक इतिहास रहा है.
(दो)
साथ ही जब एक जुलूस के साथ बालदेव जब नेताजी से कंट्रोल में कपड़े की आपूर्ति बढ़ाने के लिए मिलने शहर जाता है, तब वहाँ भी जुलूस के साथ नारा लगाता है -‘इनकिलास जिंदाबाघ’. (पृष्ठ 87) लेकिन यह नारा धीरे-धीरे सोशलिस्ट पार्टी का नारा भी बन जाता है. ‘चरखा-कर्घा, लाठी-भाला और बम-पेस्तौल’ की राजनीति में ‘हिंसाबात’ का प्रश्न सबसे महत्वपूर्ण है. ‘हिंसाबात’ क्या है ? इसपर अलग-अलग विचार उपन्यास में हैं. कालीचरण के मन में ‘हिंसाबात’ को लेकर एक दुविधा है जिसे वह सोशलिस्ट पार्टी के जिला-मंत्री से पूछता है. ‘जी, यदि हम कोई काम करने लगें, दस पबलिक की भलाई का काम, और जिसको कोई ‘हिंसाबात’ कहकर रोके तो हम क्या करेंगे ?’(पृष्ठ 89) और जिला-मंत्री के बोलने से पहले कामरेड राजबल्ली जी तुतलाते हुए कहते हैं – ‘अ-अ-अरे! काम-काम-रेड, उससे साफ़ ल-प-लप-लफ्जों में कह दीजिए कि फ़ो-फ़ो-फ़ो-फोट्टी-टी-टू के मुभमेंट में अहिंसा के भरोसे रहते तो आ-आ-आ-ज ग-द्दी नसीब नहीं होती’(पृष्ठ 89)
यहाँ 1942 के आंदोलन का एक महत्वपूर्ण संदर्भ है जिसमें कांग्रेस बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेती है और कम्युनिस्ट पार्टी इस आंदोलन का विरोध करती है. भारतीय इतिहास में इस प्रसंग को लेकर कई बार काफी तीखी बहस हो चुकी है.[23]बहरहाल, ‘हिंसाबात’ पर सवाल के उत्तर के बाद कालीचरण का विचार बनता है कि ‘हिंसाबात तो बुरजुआ लोग बोलता है’ (पृष्ठ 90) और इसी आधार पर वह बालदेव को ‘बुरजुआ है, पूँजीवाद है’ (पृष्ठ 91) कहता है. कालीचरण कामरेड का अर्थ समझाता है. ‘कामरेड माने साथी. हम सभी साथी, आप भी साथी. यहाँ कोई लीडर नहीं. सभी लीडर, सभी साथी हैं.’(पृष्ठ 90) और वह ‘सुशलिंग पाटी’ (सोशलिस्ट पार्टी) को भगत सिंह से जोड़ते हुए असल पार्टी बताता है -‘यही पाटी असल पाटी है. गरम पाटी है. ‘किरांतीदल’ का नाम नहीं सुना था ? … बम फोड़ दिया फाटक से मस्ताना भगतसिंह, यह गाना नहीं सुने हो ? वही पाटी है.’(पृष्ठ 90)
कालीचरण एक बार भगत सिंह को फाँसी दिए जाने की घटना का उल्लेख जिस तरह से करता है उसे पढ़ते हुए लगता है कि न केवल गांधी जी के बारे में बल्कि अन्य स्वतंत्रता सेनानियों के बारे में भी जानकारियाँ कई बार भिन्न-भिन्न अफवाहों, अतिशयोक्तियों के साथ गाँवों में पहुँचती रही होगी. ‘… पाँच बार फाँसी की रस्सी खिंचा. दस-दस आदमी एक-एक ओर लटक गए. खींचने लगे, खींचते रहे और उधर भगतसिंह के मुँह से निकलता जाता था- इनकिलाब, जिंदाबाघ’ (पृष्ठ 199) इन्हीं सब प्रभाव के कारण उपन्यास में कालीचरण मुट्ठी बांधकर ‘लाल सलाम’ (पृष्ठ 98) कहते हुए भाषण देता है-‘जमीन किसकी ?जोतनेवालों की ! जो जोतेगा वह बोएगा,जो बोएगा व काटेगा. कमानेवाला खाएगा,इसके चलते जो कुछ हो ! …कालीचरण समझा रहा है.’ ….. मंगल माँझी इसको गीत में कहता है – ‘जोहिरे जोतबे सोहीरे बोयबे’(पृष्ठ 100)
दरअसल, ‘जमीन, जोतनेवालों की ! पूँजीवाद का नाश !’ नारे में ‘कांग्रेस अमीरों की पार्टी है’ का एक प्रतिपक्ष कालीचरण अपने गाँव में रच रहा है. प्रभु वर्ग द्वारा एक स्थापित राजनीति के बरक्स मजदूरों, किसानों, आदिवासियों की राजनीति. लेकिन इस प्रकार की राजनीति इस उपन्यास में आदिवासियों के साथ भूमि पर अधिकार के मुद्दे को लेकर हुए संघर्ष में खंडित भी होती है.
चार पुश्त पहले गाँव में संथालों के संथाल परगना की पथरीली मिट्टी को छोड़कर आने की भी एक कहानी इस उपन्यास में दर्ज है. दरअसल, भूमि की समस्या संपूर्ण बिहार की सबसे जटिल समस्या रही है. यह समस्या आज भी ज्यों की त्यों बनी हुई है. रेणु जी ने इस समस्या को बहुत ही नजदीक से देखा था. रेणु ने 1970 में ‘दिनमान‘ पत्रिका के लिए उसके संपादक रघुवीर सहाय को एक साक्षात्कार दिया था जो ‘दिनमान’ में ही ‘टूटता विश्वास‘ शीर्षक से प्रकाशित हुआ था. यह पूरी बातचीत तत्कालीन राजनीतिक स्थितियों के साथ रेणु के अपने जिले की भूमि समस्या पर केंद्रित था. इसलिए यह अकारण नहीं है कि बहुत पहले ‘मैला आँचल’ में भूमि पर अधिकार का प्रश्न, भूमि से जुड़ी जाति-व्यवस्था का प्रश्न और उसमें शामिल राजनीति का ढ़ांचा स्पष्ट ढंग से उपस्थित हुआ है. हालाँकि उपन्यास में ‘ जुलुम होगा गया./ क्या हुआ ?/ जमींदारी परथा खतम./ जुलुम बात !’ (पृष्ठ 172 ) का उल्लेख हुआ है जिसके कारण गाँव के एक वर्ग में गहरा रोष है और दूसरी तरफ ख़ुशी में गाँव के संथालटोली में ‘मादल’ बजता है. ‘धरती माता का प्यार झूठा नहीं. फिर खेतों में जिंदगी झूमेगी. आषाढ़ के बादल बजा रहे हैं मादल, बिजली नाच रही है. तुम भी नाचो. …नाचो रे ! मादल बजाओ जोर-जोर से.’… डा डिग्गा, रि-रि ता धिन!(पृष्ठ 173)
दरअसल, इस ‘मादल’ में जमींदारी के ख़त्म होने की ध्वनि है. लेकिन हम जानते हैं कि भारतीय सामाजिक संरचना में यह ध्वनि स्थाई नहीं रह पाती. उपन्यास के आगे के घटनाक्रम में भी यह नहीं है. जमीन पर कब्ज़े की एक नवीन पद्धति कानून के भीतर रहते हुए भारत में विकसित होती चली गई. ‘कानून बनने के पहले ही कानून को बेकार करने के तरीके गढ़ लिए जाते हैं. सुई के छेद से हाथी निकाल लेने की बुद्धि ही आज सही बुद्धि है.’(पृष्ठ 175) आगे चलकर इस बुद्धि के विकास के कारण ही यह बात हरगौरी को समझ में आती है कि, ‘काली टोपीवाले नौजवानों की लाठियों से ज्यादा ख़तरनाक हथियार है – कानूनी नुक्स !’(पृष्ठ188) उपन्यास से बाहर की दुनिया में अब भी जमीन पर कब्ज़ा बड़े पैमाने पर भू-स्वामियों का बना हुआ. भूमिहीनों की समस्या अब भी हमारे भारतीय गाँवों का यथार्थ है. बिहार की सामाजिक और राजनीतिक संरचना में भूमि का महत्त्व आज भी सबसे ज्यादा है. ‘बेजमीन आदमी आदमी नहीं, वह तो जानवर है.’(पृष्ठ175)
भूमि पर अधिकार समाज में वर्चस्व से जुड़ा हुआ है. हम जानतें हैं कि रेणु की राजनीतिक समझ समाजवादी विचार से जुड़ी हुई रही है. उपन्यास के राजनीतिक दृष्टिकोणों में से समाजवादी दृष्टिकोण कई बार सतह के ऊपर आकर पात्रों के माध्यम से ‘वाचालता’ के साथ उपस्थित भी होता है. यह दृष्टिकोण उपन्यास के रूपबंध में प्रभावी रूप से शामिल गांधी जी के विचार में अहिंसा की धारणा के ठीक विपरीत है. इस ‘वाचालता’ को उपन्यास में ‘झंडे’ ‘हिंसा’ और ‘इंकलाब’ पदबंध की राजनीतिक आशयों के प्रसंग से समझा जाना चाहिए जो कभी-कभी एकदम गाढ़ा होकर उभरता है – ‘…यह जो लाल झंडा है, आपका झंडा है, जनता का झंडा है, आवाम का झंडा है, इंकलाब का झंडा है. इसकी लाली उगते हुए आफ़ताब की लाली है, यह खुद आफ़ताब है. इसकी लाली, इसका लाल रंग क्या है ? … रंग नहीं ! यह गरीबों महरूमों मजलूमों, मजदूरों के खून में रंग हुआ झंडा है !’….. ‘बोलिए एक बार प्रेम से सोशलिस्ट पार्टी की जै …’ (पृष्ठ 103) उपन्यास की बुनावट में प्रवाहित होती हुई राजनीति में ‘महतमा गन्ही की जै’ के समानांतर ‘सोशलिस्ट पार्टी की जै’ का ‘पाठ’ हमें भारत के तत्कालीन और वर्तमान के राजनीतिक घटनाक्रम की तरफ ले आता है.
उपन्यास में कई ऐसे पात्र हैं जो अपनी राजनीतिक शुरुआत ‘महतमा गन्ही की जै’ के साथ करते हैं और बाद में ‘सोशलिस्ट पार्टी की जै’ में शामिल हो जाते हैं. बदली हुई परिस्थिति और संदर्भ में आज की राजनीति का भी यह सच है. उपन्यास में, हलवाहों, चरवाहों और मजदूरों का नेता कालीचरण है. उपन्यास में बालदेव कालीचरण के इस कार्य से दुखी है कि – ‘हमारे कांगरेस के मिम्बरों को भी सोशलिस्ट पाटी का मिम्बर बना लिया है.’ ( पृष्ठ 116) इसलिए इस बिखराव को रोकने के लिए गाँव में ‘चरखा-सेंटर’ खोले जाने की पहल करता है. बालदेव इस बात से भी दुखी होता है कि मठ की कोठारिन लक्ष्मी सोशलिस्ट पार्टी को मदद करती है. वह कोठारिन से कहता भी है की – ‘लेकिन कोठारिन जी ! गन्ही महतमा का रस्ता ही सबसे पुराना और सही रस्ता है.’(पृष्ठ 116)
उपन्यास के बाहर ‘गांधीवाद’ और ‘समाजवाद’ के रास्तों और लक्ष्यों को लेकर आज भी बहस का यही दृष्टिकोण रहा है कि दोनों में से बेहतर कौन है. लेकिन धीरे-धीरे राजनीतिक इच्छा शक्ति से बाहर सामाजिक इच्छा शक्ति में गांधी के साथ अम्बेडकर और समाजवाद के इकट्ठे मार्ग से चलकर मुक्ति की कामना की एक नई बहस शुरू हुई है. उपन्यास में ‘बौद्धिक क्लास’ ‘बुद्दू किलास’ के संबोधन के साथ उपस्थित हुआ है. इस संबोधन के भी एक राजनीतिक निहितार्थ है. यह ‘बुद्दू किलास’ सोशलिस्ट पार्टी में है और ‘काली टोपीवाला’ दल में भी. उपन्यास में ‘काली टोपीवाला’ का संदर्भ उसके संयोजक के एक भाषण से बड़े ही नाटकीय ढंग से उपस्थित हुआ है -‘इस आर्यावर्त में केवल आर्य अर्थात शुद्ध हिंदू ही रह सकते हैं … यवनों ने हमारे आर्यवर्त की संस्कृति, धर्म, कला-कौशल को नष्ट कर दिया है. अभी हिंदू संतान मलेच्छ संस्कृति की पुजारी हो गई है.’(पृष्ठ 119) लाठी, भाला, तलवार से लैस इस दल का हरगौरी अपने हाथ से तलवार भांजते हुए कहता है – ‘यवनों पर मुझे क्रोध नहीं होता. यवनों का पक्ष लेनेवाले हिन्दुओं की तो गरदन उदा देने को जी करता है.’(पृष्ठ 119)
दरअसल, उपन्यास के इस भाषण और कथन के कई राजनीतिक ‘पाठ’ किये जा सकते हैं. क्या 1954 में उपन्यास में लिखे इस कथन को वर्तमान समय की साम्प्रदायिक उन्माद के साथ जोड़कर पढ़ा जा सकता है ? क्या इस कथन को वर्तमान सदी में हुए कुछ ‘मौब लिंचिंग’ की घटनाओं से जोड़कर भी देखा जा सकता है ? क्या इसे भारतीय संस्कृति को एक खास साँचें में ढाले जाने की जिद की तरह भी देखा जा सकता है ? इन प्रश्नों के उत्तर की तरफ जाने के क्रम में हमें दूसरी किस्म की अतिवादिता की तरफ भी ध्यान देना चाहिए. मैं उपन्यास के भीतर से ही इस अतिवादिता की तरफ आपका ध्यान आकृष्ट करना चाहता हूँ-
‘ बम-पेस्तौल के सामने काली टोपीवाले की लाठी क्या करेगी ? हाथी के आगे पिद्दी !’(पृष्ठ 121)
उपन्यास में राजनीति के इन भिन्न संदर्भों को दो अतियों के रूप में पढ़ना चाहिए जिसमें ‘हिंसा’ एक अनिवार्य तत्व की तरह है. एक ‘हिंसाबात’ है, जो गांधी जी के चिंतन से बहुत दूर है . और यह भी कि इन अतियों की जिम्मेदारी केवल ‘काली टोपीवाला’ या ‘सोशलिस्ट पार्टी’ पर ही नहीं है बल्कि एक भिन्न अर्थ में यह जिम्म्देदारी जनता की भी है. उपन्यास के इस उद्धरण को, एक अलग आशयों के साथ पढ़ना चाहिए और समझना चाहिए साथ ही साम्प्रदायिक उन्माद और इस उन्माद के विरुद्ध एक दूसरे किस्म के उन्माद के वातावरण में एक जिम्मेदारी के रूप में भी देखा जाना चाहिए – ‘गलती तो पबलि की ही है, कोई कांग्रेस में तो कोई सुशलिस्ट में तो कोई काली-टोपी में, इस तरह तितिर-बितिर रहने से पबलि की कोई भलाई नहीं हो सकती.’(पृष्ठ 120)
यदि भारतीय स्वयं को ‘वोट बैंक’ के घेरे से आजाद हो कर एक स्वतंत्र व्यक्ति के तौर पर देखे जाने की प्रणाली का विकास कर लेता है और एक लोकतांत्रिक मूल्यों के साथ रहने की पद्धति का विकास अपने सामाजिक परिवेश में कर लेता है, तो जाहिर है फिलवक्त की राजनीतिक दुरभिसंधियों में वोट बैंक के रूप में एक औजार की तरह बरते जाने से स्वयं को मुक्त कर सकता है. लेकिन वास्तविकता का एक अनिवार्य पहलू या तो है ही -‘गलती तो पबलि की ही है’.
उपन्यास में ‘वंदे मातरम्’ का संदर्भ कुछ बड़े राजनीतिक आशयों के साथ नहीं आया है बल्कि छोटे कद के बावनदास के साथ जुड़कर तब आया है जब वह ‘सुराजी’ में नाम लिखवाकर रामकिसुनबाबू के घर पहुँचता है तो रामकिसुनबाबू की पत्नी आभारानी उसे देखते ही कह उठती है –‘बंदेमहातराम ! बंदेमहातराम ! बावनदास को वह ‘आमार भगवान’ से ही संबोधित करती है और बावनदास उसे ‘माय जी’ कहकर संबोधित करता है. उपन्यास में बावनदास की राजनैतिक हैसियत का अपना एक खास परिदृश्य है जो अन्य गांधीवादी पात्रों से अलहदा है. बिहार में गांधी और नेहरु के दौरे में बावनदास के विशिष्ट तरह से शामिल होने की दास्तान है. उपन्यास में इस बात का उल्लेख मिलता है कि महात्मा गांधी भी अभारानी को माँ कहकर संबोधित करते हैं.
‘1934 में भूकंप-पीड़ित क्षेत्रों के दौरे पर जब बापू आए थे, साथ में थे रामकिसनबाबू, आभारानी और बावनदास. बावनदास के बिना आभारानी एक डेग भी कहीं नहीं जा सकतीं. गांधी जी हँसकर बोले थे, माँ, तुम्हारे भगवान से इर्ष्या होती है.’(पृष्ठ 130)
उपन्यास की कथा-बुनावट में रामकिसुनबाबू, आभारानी और बावनदास के त्रियक की एक अलग दास्तान है, जिस दास्तान में गांधी एक राजनेता के रूप में नहीं बल्कि एक श्रद्धा के विषय के रूप में मौजूद होते हैं. ‘मैला आँचल’ का संपूर्ण कथा-विन्यास मेरी दृष्टि में पाँच पात्रों की धुरी पर गतिमान है. लक्ष्मी, बालदेव, बावनदास, कालीचरण और डॉ. प्रशांत. इन पाँच पात्रों के माध्यम से मैला आँचल के ‘कथा- विस्तार’ को समझाया जा सकता है. राजनीतिक जमीन की धुरी पर ‘मैला आँचल’ को समझने के लिए दो पात्र बावनदास और कालीचरण को केंद्र में रखकर उपन्यास की संपूर्ण राजनीतिक संरचना को समझा जा सकता है.
बिहार में जब 1937 में जवाहरलाल नेहरु का दौरा हुआ था. उपन्यास में इस दौरे के संदर्भ से बावनदास की नेहरु जी से मुलाकात का उल्लेख हुआ है. बावनदास और नेहरु दोनों मंच पर हैं. बावनदास नाटे कद का है. जब वह भाषण देने के लिए उठता है तब माइक-स्टैंड ऊँचा होने के कारण उसे असुविधा होती है.‘नेहरु जी बड़ी फुर्ती से उठकर जाते हैं, माइक खोलकर हाथ में ले लेते हैं. झुककर बावनदास के मुँह के पास ले जाते हैं. ‘बोलिए ’ जनता हँसती है. बावन जरा घबरा जाता है. नेहरु जी मुस्कराकर उसके गले में माला डाल देते हैं.’(पृष्ठ 131)
दूसरे दिन ‘नेशनल हेराल्ड’ के पहले पेज पर बावनदास को माला पहनाते नेहरु जी की तस्वीर छपती है.1942के आंदोलन में भी बावनदास कचहरी पर गोली-बारी के बीच झंडा फहराने का काम कर चुका होता है. उपन्यास में बावनदास की राजनैतिक हैसियत का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि उसका पत्राचार महात्मा गांधी के साथ भी है. वह अपने नाम से महात्मा गांधी को चिठ्ठी लिखवाता है और उसका जबाव भी आता है -‘भाई बावनदास जी आपका ख़त मिला. उस बार ससांक जी सबको पढ़कर सुना रहे थे- महात्मा जी ने बावनदास को परनाम लिखा है.’(पृष्ठ 190)
उपन्यास के कथा-विस्तार में बावनदास केवल गांधी जी पर ही भरोसा करता है, इसलिए बावनदास को गांधी जी के ख़त पर भरोसा है. बावनदास जब चरखा सेंटर में झगड़े के हालात देखता है तब वह फिर चिट्ठी लिखता है. उसका जवाब मिलता है, ‘ बापू ने चिट्ठी में जवाब दिया है : भगवान बावनदास जी ! आप ही धीरज छोड़ दोगे तो भक्तजनों का क्या होगा ?… बापू के प्रणाम !’(पृष्ठ 230)
बावनदास पर चर्चा की निरंतरता में कालीचरण की राजनीति और कालीचरण से जुड़े स्त्री-प्रसंग पर थोड़ी चर्चा यहाँ करना ठीक होगा. उपन्यास में कालीचरण मठ की दासिन लक्ष्मी से जब बात करता है तब महंथ रामदास को शक होता है लेकिन जब वह देखता है कि ‘कालीचरण हमेशा लक्ष्मी से चार हाथ दूर हटकर’ बात करता है तब उसका संदेह ख़त्म हो जाता है. इसके बाद महंथ एक महत्वपूर्ण बात कालीचरण के बारे में कहता है-‘ लाल झंडा और सुशलिस्ट पाटी को वह औरत की तरह प्यार करता है.’(पृष्ठ 114)
इस कथन की परीक्षा उपन्यास के कथा-विस्तार में आगे चलकर मंगलादेवी के साथ कालीचरण के संबंधों और इस संबंध के बारे में गाँव में होने वाली चर्चा के प्रसंग से होती है. दरअसल, इस चर्चा के गहरे सामाजिक और राजनीतिक संकेत हैं. इस संकेत की यात्रा उपन्यास के भीतर जिस प्रकार से संरचित हुई है उपन्यास से बाहर आज उससे भी ज्यादा सघन रूप में संरचित है. चरखा सेंटर की मास्टरनी मंगलादेवी जब ‘टाइफायड’ से पीड़ित होती है तब उसे यादवटोली के कीर्तन-घर के साफ़-सुथरे, हवादार कमरे में ले जाया जाता है. असल में यह कीर्तन घर सोशलिस्ट पार्टी का ऑफिस भी है. शायद ऑफिस के नाम पर मंगलादेवी यहाँ नहीं आतीं क्योंकि वह गांधी जी के चरखा-कार्यक्रम से जुड़ी हुई हैं. कालीचरण यहाँ बीमार मंगलादेवी की सेवा करता है. इस सेवाभाव में प्रेम की कोपलें फूटने लगती है. उपन्यास में कालीचरण और मंगलादेवी के इस संवाद की एक विशिष्ट शैली है. फणीश्वरनाथ द्वारा रचित इस संवाद के शिल्प में रंगमंचीय अभिनय का लास्य है.
‘दवा पी लीजिए.
नहीं पियूँगी.
पी लीजिए मास्टरनी जी ! दवा.
कालीबाबू, एक बात कहूँ ?
कहिए !
आप मुझे मास्टरनी जी मत कहिए.
तब क्या कहूँ ?
क्यों ? मेरा नाम नहीं है ?
मंगलादेवी ?
नहीं.
तो ?
सिर्फ मंगला.
दवा पी लीजिए.
मंगला कहिए.
मंगला !’
(पृष्ठ 156)
इस संवाद की सतह के नीचे जो प्रेम की नदी है उससे धीरे-धीरे कालीचरण उतरता चला जाता है. उसे रह-रहकर मंगला की याद आती है. रेणु जी ने मंगलादेवी के आँखों के सौंदर्य का उल्लेख किया है- ‘आँखें बड़ी अच्छी, खास तिरहुत की आँखें !’(पृष्ठ 166) इन्हीं आखों की गिरफ्त में कालीचरण है. डॉक्टर ने मंगला को बिस्कुट खाने के लिए कहा है और रेल-भाड़ा बचाकर कालीचरण मंगला के लिए बिस्कुट खरीदता है. ‘कालीचरण का व्रत टूट गया. उसके पहलवान गुरु ने कहा था – पट्ठे ! जब तक अखाड़े की मिट्टी देह में पूरी तरह रचे नहीं, औरतों से पाँच हाथ दूर रहना.’(पृष्ठ 156)
कालीचरण जानता है कि ‘पाँच हाथ दूर रहने से मंगलादेवी की सेवा नहीं की जा सकती थी.’ धीरे-धीरे सोशलिस्ट पार्टी में कालीचरण और मंगलादेवी के संबंधों से एक नए किस्म की बहस शुरू होती है. ‘सुराजी कीर्तन’ और ‘किरांती-गीत’ की जुगलबंदी की राजनीति शुरू होती है. नशे में सोमा, सनीचरा का संवाद गाँव की आंतरिक आर्थिक संरचना की न केवल पड़ताल है बल्कि संवाद की सतह के नीचे राजनीति के गठजोड़ में अपने लाभ की एक अनिवार्य लालसा भी है. ‘चरखा-सेंटर पर भी अब अपना ही कब्ज़ा समझो. मास्टरनी जी बिना कालीचरन के पूछे पानी भी नहीं पीती हैं. कुछ दिन में वह भी कामरेड हो जाएँगी’(पृष्ठ 161)
‘सुराजी कीर्तन’ और ‘किरांती-गीत’ की जुगलबंदी का आधार विचारों में एक्य स्थापित करना नहीं है बल्कि इस आभासी एक्य के पीछे लाभ अर्जित करना और वर्चस्व हासिल करना भर है. मंगलादेवी अब कालीचरण के घर में रहने लगती है. घर में कालीचरण की अंधी माँ है और एक विधवा फूफू है. माँ खुश है और विधवा फूफू गुस्से की आँखें लाल. विधवा फूफू मंगलादेवी को पसंद नहीं करती है. ‘आँखें लाल’ का भी अपना एक अलग स्त्री-मनोविज्ञान है. यहाँ उसकी चर्चा अपेक्षित नहीं है इसलिए इसे छोड़ता हूँ. कालीचरण और मंगलादेवी के इस संपूर्ण प्रसंग को राजनीति में विचार, पार्टी के प्रति प्रतिबद्धता, समझौता, यौन- शुचिता, स्त्री कार्यकर्त्ता के बारे में पितृसत्तात्मक नजरिया और उसकी यांत्रिक समझ को समझा जा सकता है. राजनीति में हमेशा इन सबकी एक अदृश्य महीन बुनावट मौजूद होती है. इस उपन्यास में यह उतना महीन नहीं है जितना वर्तमान राजनीति की संरचना में दिखलाई देता है.
भारत की राजनीति में राजनीतिक पार्टियों के बीच आपसी साठगाँठ और आपसी समझौते की एक अंदरूनी कहानी हुआ करती है. यह कहानी राजनीति में हर दशक बदलती रहती है. साठगाँठ और आपसी समझौते की बुनियाद में सत्ता-प्राप्ति की निर्लज महत्वकांक्षा और लाभ प्राप्त करना होता है. पार्टी से जुड़ा एक साधारण कार्यकर्त्ता हमेशा या तो छला जाता है या मारा जाता है. दरअसल, राजनीतिक पार्टी से जुड़े उस अंतिम आदमी की दुःख-तकलीफ से कोई सरोकार पार्टी का नहीं होता है जो दिन-रात उसके लिए काम करता है. उपन्यास में धीरे-धीरे कालीचरण की स्थिति ‘छल’ से प्रभावित होती जाती है. सोशलिस्ट पार्टी और कालीचरण के प्रसंग में यह हमें सतह के ऊपर घटित होता हुआ दिखलाई देता है. जब कालीचरण अपनी गिरफ्तारी से बचने के लिए छिपता रहता है और मदद के लिए अपनी पार्टी के सेक्रेटरी से मिलने की कोशिश करता है लेकिन वह असफल होता है.
‘सिकरेटरी साहब उससे नहीं मिलना चाहते हैं. लेकिन वह मिलेगा. सुनते हैं, सिकरेटरी साहब ने कहा है, कालीचरन वगैरह पार्टी के मेंबर नहीं, किसान सभा के दुअन्निया मेंबर है.’(पृष्ठ 261)
जो कालीचरण अपने संपूर्ण अस्तित्व में एक मेंबर की तरह सोशलिस्ट पार्टी का काम कर रहा था. आज अचानक उसे मालूम होता है कि वह मेंबर ही नहीं. वह इसी दुःख के क्षणों में मंगला देवी से मिलने जाता है और वहीं पर दारोगा उसे गिरफ्तार कर लेता है. जेल में डेढ़ महीने रहने के बाद कालीचरण जेल से भागने की योजना बनाता है जिससे कि वह अपनी पार्टी के सेक्रेटरी को यह साफ़ कर सके कि वह पार्टी के प्रति प्रतिबद्ध है कोई डकैत नहीं वह पार्टी को बदनाम नहीं होने देगा. वह अपने आप को जेल में बासुदेव, सुनरा, सोमा, सनीचरा जो डकैती के आरोप में जेल में बंद है, से अलग करता है. हालाँकि जेल से भागने में थोड़े समय के लिए उसकी मदद लेता भी है. एक बार चलित्तर कर्मकार ने सोशलिस्ट पार्टी के बारे में कालीचरण से कहा था कि, ‘इस खाली हाथवाली पार्टी में रहकर सब दिन खाली हाथ ही रहोगे.’(पृष्ठ 277)
कालीचरण ‘खाली हाथवाली पार्टी’ की धारणा को तोड़ना चाहता है इसलिए उसके लिए यह जरुरी है कि जेल से बाहर जाकर पार्टी के सेक्रेटरी से मिले और एक दिन वह जेल से भाग जाता है. वह घायल भागता हुआ अपनी पार्टी के ऑफिस में पहुँचता है. सेक्रेटरी बाहर निकल कर उसे देखता है और पूछता है ‘जेल से भाग आए हो ?’ ‘जी ! लगता है, जाँघ में गोली लग गई है. … तुम्हारे कलेजे पर गोली दागी जानी चाहिए . डकैत. बदमाश !’ कालीचरण, पार्टी सेक्रेटरी के ‘डकैत’ और ‘बदमाश’ कहने से इतना आहत होता है कि वह हकलाते हुए कई तरह से कसम खाते हुए सेक्रेटरी को सफाई देना चाहता है-‘सुन लीजिए. माँ कसम, गुरु कसम, देवता किरिया ! जिस रात… उस रात को हम… यहाँ जिला पार्टी ऑफिस में था.’(पृष्ठ 279)
‘इंकलाब जिंदाबाद’, ‘सोशलिस्ट पार्टी की जय’, ‘लाल सलाम’ नारों की जगह विपदा में पड़े कालीचरण की कसमों का एक अपना समाजशास्त्र है. विपत्ति में पड़ा व्यक्ति सबसे पहले, सबसे अधिक विश्वनीय अवलंब का सहारा लेना चाहता है. विपत्ति में पड़े कालीचरण के सामने सबसे पहले उसकी अंधी बूढी माँ है, उसके बाद उसका गुरु है और न जाने कौन सा देवता है. लेकिन आज कालीचरण के लिए कोई कसम काम नहीं करता है. पार्टी सेक्रेटरी अपने ऑफिस सेक्रेटरी राजबल्ली को किवाड़ बंद कर लेने का आदेश देता है. यह देखकर,‘कालीचरन पत्थर की मूर्ति की तरह खड़ा है.’ गाँव में अब कोई सोशलिस्ट पार्टी का नाम नहीं लेता, पूछे जाने पर स्वयं को कांग्रेस पार्टी का मेम्बर बोल देता है. कालीचरण के भागने के बाद ऐसी स्थिति बन गई है कि ,‘लाल झंडा जिसके घर से निकलेगा तुरंत गिरिफ्फ़ हो जाएगा.’(पृष्ठ 281) आजादी के बाद घटित घटनाक्रम में हुई कुछ गिरफ्तारियां इस बात की तस्दीक करते हैं.
(तीन)
इस उद्धरण से गुजरते हुए जब हम धीरे-धीरे उपन्यास के आखिरी हिस्से में पहुँचते हैं तो यही दलाल वर्ग जिसके प्रतिनिधि के रूप में हम ‘दुलारचंद कापरा’ और ‘कटहा थाना कांग्रेस का सीक्रेटरी’ को देखते हैं, आजादी के बाद तस्करी के धंधे में लग जाता है और इसी तस्करी को रोकने के प्रयास में गांधीवादी चरित्र बावनदास की हत्या कर देता है. लगता है कि राजनीति की यह एक अनिवार्य बुराई है कि अपनी बुनावट में जो नैतिकता को स्वयं से दूर कर देता है वह अनैतिकता और अँधेरे के करीब हो जाता है. नैतिकता और हिंसा में विलोम का संबंध होता है. उपन्यास में और उपन्यास से बाहर भी ‘दुलारचंद कापरा’ और ‘कटहा थाना कांग्रेस का सीक्रेटरी’ जैसे लोग सत्ता-संरचना से उत्पन्न एक अनिवार्य बुराई है. उपन्यास में बावनदास की हत्या से ठीक पहले महत्मा गांधी की हत्या होने की ख़बर आती है. गांधी जी की हत्या के ठीक बाद गांधी की राह पर चलने वाले वर्ग की अनिवार्य हत्या बावनदास की हत्या में शामिल है. उपन्यास में गांधी जी की हत्या और हत्यारे का जो संदर्भ आया है उस संदर्भ से गुजरते हुए हमारे मन में कई तरह के भाष्य उभरते हैं. मसलन, गांधी की हत्या के बाद गाँव के परिवेश में हत्या के प्रभाव की बुनावट और हत्यारे की जाति के संदर्भ में बनाई गई धारणा. उपन्यास में गांधी की हत्या की ख़बर सबसे पहले जमींदार की बेटी कमली को रेडियो सुनते हुए मिलती है, ‘बाबा, गांधी जी मारे गए’(पृष्ठ 284)
और यह ख़बर पूरे गाँव में फ़ैल जाती है. गांधीवादी पात्र बालदेव इस ख़बर से बेहोश हो जाता है. इसी बीच रेडियो पर नेहरु और पटेल के संबोधन का संदर्भ है. और ठीक इसके बाद उपन्यास में बेतार के ख़बर का संदर्भ कि –
‘गांधी जी का हत्यारा पकड़ा जा चुका है ? …अरे ! कैसे नहीं पकड़ायेगा भाई ! हाय रे पापी. साला… जरुर जंगली देश का आदमी होगा. हत्यारा !… मराठा ? यह कौन जात है भाई ! मारा ढा ! अरे, बाभन कभी ऐसा काम नहीं कर सकता, जरुर वह साला चंडाल होगा.’(पृष्ठ 285)
इस उद्धरण से हत्यारे की जाति का संदर्भ दरअसल, भारत में जाति व्यवस्था और जातियों के बारे में बने देशीय और औपनिवेशिक पूर्वाग्रह का पता चलता है. भारत में कई अंग्रेज अधिकारीयों ने अपने रिपोर्ट में कुछ जातियों को अपराधी और लुटेरे की श्रेणी में रखा था. देशीय समझ में जाति की समाज और उसे लेकर बनाए गए पूर्वाग्रह का लंबा वृतांत है. मैं यहाँ उस वृतांत में न जाकर एक और उल्लेखनीय बात का जिक्र करना चाहता हूँ. इस उल्लेख में जाति की जगह पर धर्म की बुनावट है. हत्यारे के संदर्भ से लैरी कॉलिन्स और डोमिनिक लापियर अपनी चर्चित किताब ‘फ्रीडम एट मिडनाइट’ के आखिरी हिस्से में इसका उल्लेख करते हैं. हत्या, जाति और धर्म के संदर्भ को समझने के लिए यह उद्धरण मैं यहाँ रख रहा हूँ, ‘माउन्टबैटन को गांधी के गोली लगने का समाचार उस समय मिला जब वह घुड़सवारी करके गवर्नमेंट-हॉउस लौट रहे थे. उन्होंने सबसे पहले वही सवाल पूछा जो अगले कुछ घंटों में लाखों लोग पूछने वाले थे: ‘यह किसने किया ?’ ‘मालूम, नहीं साहब’ सुचना देने वाले ए.डी.सी. ने जवाब दिया.
जब तक ये दोनों (माउन्टबैटन और कैम्पबेल जॉन्सन) बिड़ला हॉउस पहुंचे, वहाँ बहुत बड़ी भीड़ जमा हो चुकी थी. जब वे भीड़ को चीरते हुए गांधी के कमरे की ओर बढ़ रहे थे किसी आदमी ने, जिसका चेहरा घृणा और उन्माद से विकृत हो गया था, चीखकर कहा, ‘कोई मुसलमान था.’ भीड़ पर अचानक सन्नाटा छा गया. माउन्टबैटन उस आदमी की ओर मुड़े अपना जोर लगाकर चिल्लाए, ‘बेवकूफ कहीं का, जानता नहीं कि वह हिंदू था ?’ कुछ ही सेकेंड बाद जब वे घर के अंदर पहुंचे तो कैम्पबेल जॉन्सन ने उनसे पूछा, ‘आपको कैसे मालूम कि वह हिंदू था ?’ ‘मुझे नहीं मालूम है,’ माउन्टबैटन ने जबाब दिया, ‘लेकिन अगर वह सचमुच कोई मुसलमान निकला तो हिंदुस्तान में ऐसा भयानक कत्लेआम होगा जैसा इससे पहले दुनिया में कभी नहीं हुआ.’….. बिड़ला हॉउस से पुलिस ने रेडियो को सबसे महत्वपूर्ण खबर भेजी : नाथूराम गोडसे हिंदू ब्रह्माण था.’[24](पृष्ठ 390-391)
‘मैला आँचल’ में गांधी का हत्यारा ‘…जरुर वह साला चंडाल होगा’ और उपन्यास से बाहर हत्यारे के बारे में एक अनुमान से ‘कोई मुसलमान था’ जबकि वास्तव में हत्यारा ‘हिंदू ब्रह्माण’ था. इन तीनों कथन की सतह के नीचे भारतीय सामाजिक बुनावट में कहीं गहरे धंसे जाति और धर्म की वर्चस्वकारी, साम्प्रदायिक और पूर्वाग्रही समझ को समझा जा सकता है. इस उपन्यास में गांधी जी की हत्या के उल्लेख के बाद यह तय हुआ है कि,‘सारा दिन बासी मुँह रहकर साम को कमला के किनारे जलपरवाह करना होगा’(पृष्ठ 287)
उपन्यास में गांधी जी की सांकेतिक शव-यात्रा निकाली जाती है.’… बांस की एक रंथी बनाकर सजी गई है – लाल, हरे, पीले कागजों से. एक ओर बालदेव जी ने कंधा दिया है, दूसरी ओर सुमरितदास, जिबेसर मोची और सकलदीप ने.’ … मृत्यु-गीत (उपन्यास में जिसे ‘समदाउन’ कहा गया है) शुरू होता है- ‘आँ रे कांचही बाँस के खाट रे खटोलना / आखैर मूँज के र हे डोर !’(पृष्ठ 287)
उपन्यास में गांधी की हत्या, उपन्यास के भीतर की कथा की बुनावट को एकदम से छिन्न-भिन्न कर देता है. उपन्यास में मठ के महंथ रामदास को लगता है कि मठ में उसने जो रमपियरिया को रख लिया है जिसके कारण मठ का जो धर्म-भ्रष्ट हुआ है, उसी के पाप के कारण गांधी जी मारे गए हैं. बावनदास इतना उदास हो जाता है कि उसके नाम गांधी की लिखी चिट्ठी जिसे उसने बरसों से अपने लाल झोले में सहेजकर रखा था. भावुक होकर बालदेव को सौंप देता है – ‘बालदेव जी !… सब महतमा जी के ख़त हैं. आप रख लीजिए. गाँगुली जी को दे दीजिएगा.’(पृष्ठ 291)बालदेव यह चिट्ठी गाँगुली को नहीं देता है. बालदेव में विचलन का यह प्रसंग ऊपर आया. गांधी जी की हत्या के लिए अब बावनदास के लिए कुछ बचा नहीं है, वह राजनीति की संरचना से बेहद उदास हो गया है. और एक दिन बावनदास गाँव को सदा के लिए छोड़ देता है. एक दिन भारत-पाकिस्तान की सीमा-रेखा पर तस्करी के अनाज से भरी बैलगाड़ी को रोकने के लिए बावनदास खड़ा हो जाता है और सत्ता के दलाल ‘दुलारचंद कापरा’ और ‘कटहा थाना कांग्रेस का सीक्रेटरी’ उसकी देह पर बैलगाड़ी चढ़ा देने का आदेश दे देता है. ‘मैला आँचल’ में गांधीवादी विचार से ईमानदारी पूर्वक जुड़े व्यक्ति की हत्या का यह संदर्भ ‘मैला आँचल’ में पसरी राजनीति का केंद्रीय बिंदु है. ‘अब बावनदास ठीक बैल के सामने आकर खड़ा होता है. बैल उसे हुंथा मारकर गिरा देता है. वह लीक पर लुढक जाता है. … ठीक पहिए के नीचे. मड़- मड़- मड़.’ (पृष्ठ 297)
बावनदास के शव के कुचले जाने की यह ध्वनि -‘मड़- मड़- मड़’, उपन्यास के भीतर की राजनीतिक जमीन को ध्वस्त कर देती है. यह ध्वनि ‘चरखा-कर्घा, लाठी-भाला और बम-पेस्तौल’ की पूरी विरासत में से ‘चरखा-कर्घा’ की विरासत को ख़त्म कर देती है. एक तरह से उपन्यास के ‘पाठ’ में और उपन्यास के बाहर के जीवन में गांधी और बावनदास की हत्या तत्कालीन राजनीति के नैतिक मूल्यों की हत्या है. दरअसल, ‘नैतिक मूल्यों की हत्या’ का कोई सरहद नहीं होता. वह हर तरफ अपनी पूरी अनैतिक ताकत के साथ मौजूद होता है. -‘मड़- मड़- मड़’ करती हुई जब आखिरी गाड़ी गुजर जाती है तब, ‘ हवलदार और रामबुझावनसिंह मिलकर, बावन की चित्त्थी-चित्त्थी लाश, लहू के कीचड़ में लथ-पथ लाश को उठाकर चलते हैं . … नागर नदी के उस पार पाकिस्तान में फेंकना होगा. इधर नहीं… हरगिस नहीं.’(पृष्ठ 298)
बावनदास की लाश को नदी में फेंक दिया जाता है. दूसरे दिन चार बजे भोर को पाकिस्तान की पुलिस गश्त लगाती हुई नदी के घाट में लाश देख लेती है. ‘अरे, यह तो उस पार के बौने की है. यहाँ कैसे आई ? ओ, समझ गए. उठाओ जी, हनीफ और जुम्मन, ले चलो उस पार !’ (पृष्ठ 298) बावन की ठंडी लाश को फिर झोली-झंडा सहित उठाया जाता है और नागर नदी के बीच में ही डाल दिया जाता है. पाकिस्तान की पुलिस बावनदास की खंजड़ी को पानी में फेंकते हुए जो कहता है उसकी अर्थगर्भिता दरअसल, कहीं दूर भारत में गांधी के नाम पर स्थापित संस्थानों में अघाए बैठे गांधीवादियों से जा मिलता है- ‘डमरू बजाके रघुपति राघव गाते रहो !’ फणीश्वरनाथ रेणु ने बावनदास की इस हत्या और उसके शव को ठिकाने लगाने की समूची प्रक्रिया पर एक मारक टिपण्णी की है -‘बावन ने दो आजाद देशों की, हिंदुस्तान और पाकिस्तान की-ईमानदारी को, इंसानियत को, बस दो डेग में ही नाप लिया !’ (पृष्ठ 298)
यह टिप्पणी हमारी राजनीति का या किसी भी तरह की राजनीति का सबसे काला और बदनुमा चेहरा है. आज उपन्यास से बाहर भारत सहित विश्व की विकसित होती राजनीति में भी यह चेहरा ‘नैतिक मूल्यों की हत्या’ के साथ एक विरासत की तरह मौजदू होती चली गई है.
(चार)
‘मैला आंचल’ इसकी तस्दीक बहुत पहले ही संथालों के संघर्ष में कर देता है.उपन्यास के कथा-विस्तार में इस उपजाऊ जमीन पर संथालों के हक़ न जमने की राजनीति और संथालों के शोषण के संदर्भ से उपजे असंतोष में मादल पर ‘रिंग रिंग ता धिन-ता, डा डिग्गा डा डिग्गा !…’ की ध्वनि शामिल है. इस ध्वनि का एक सिरा उपन्यास में डॉ. प्रशांत[25] से भी तब जा मिलता है, जब डॉ. प्रशांत को गिरफ्तार कर नजरबंद कर दिया जाता है. एक दारोगा डॉ. प्रशांत से पूछताछ करता है. इस पूछताछ के ‘पैटर्न’ को वर्तमान राजनीति में घटित घटनाक्रम से जोड़कर भी देख सकते हैं और राज्य-सत्ता के हिंसक हो जाने की कहानी को भी समझ सकते हैं. राज्य-सत्ता हर-हाल में चलित्तर कर्मकार के दल से डॉ.प्रशांत का संबंध जोड़ना चाहता है. इस पूछताछ[26] के ‘पैटर्न’ को नीचे टिप्पणी में पढ़ा जा सकता है.
उपन्यास का यह संदर्भ यह इंगित करता है कि केवल आज नहीं बल्कि आजादी के बाद से ही संथालों से सहानुभूति रखने वाले वर्ग के साथ सत्ता तंत्र हमेशा से सशंकित रहता आया है. जमीन पर अधिकार के मुद्दे पर जब बालदेव, बावनदास कालीचरण और काली टोपी वाले एक हो जाते हैं तब उनके बीच के सभी नारे एक साथ हिल-मिल जाते हैं. इन सबके नारों की एक समवेत ध्वनि संथालों के विरुद्ध खड़ी हो जाती है. राजनैतिक विचारों, राजनीति के काम करने की पद्धति, राजनीतिक नैतिकता आदि के ह्रास के रूप में एक रूपक के तौर पर एक साथ उठने वाले इन नारों को देखा जा सकता है –
‘जै ! काली माई की जै !
महात्मा गांधी की जै !
इनकिलाब जिंदाबाद !
भारथमाता की जै !
सोशलिस्ट पार्टी जिंदाबाद !
झंडा हिंदू राज का !
हिंदू राज की जै !’(पृष्ठ 192)
इन नारों का अपने निहित स्वार्थ के लिए आपस में मिल जाना ख़तरनाक परिवेश की निर्मिती करता है. इन नारों के आपसी गड्म-गड के कई गहरे अर्थ संकेत हो सकते हैं. भारत के तत्कालीन और वर्तमान राजनीति की आंतरिक बनावट को भी इसमें देखा जा सकता है. ऊपरी सतह पर जनता को दिखाने के लिए अधिकांश राजनीतिक पार्टियाँ एक-दूसरे का विरोध करती हैं लेकिन अपनी आंतरिक बुनावट में लाभ-लोभ के लिए एक ही थाली के चट्टे-बट्टे होते हैं. उपन्यास में जमीन पर कब्ज़े के मसले पर संथालों पर इन नारों के साथ गाँव के सभी वर्ग हमला[27] कर देते हैं. दोनों तरफ के लोग मारे जाते हैं, घायल होते हैं. उपन्यास में अभी-अभी तहसीलदार बना हरगौरी मारा जाता है उसकी माँ की रोने की आवाज एक आर्तनाद की तरह उपन्यास में दो पन्नों तक पसरी हुई है. हरगौरी की सोलह साल की पत्नी बिना गौना के ही आई है और वह बहुत धीरे-धीरे रोती है.
उपन्यास के इस प्रसंग से गुजरते हुए संभव है कि पाठक हरगौरी की मृत्यु के प्रति सहानुभूति रखे, हरगौरी की माँ और पत्नी के दुःख में उसकी संवेदनाएँ जागे लेकिन अगले ही पल सचेत रूप से देखे जाने पर पाठक पाएगा की संथालों की मृत्यु से उपजा कोई आर्तनाद उपन्यास में मौजूद नहीं है. क्या यह सामाजिक संरंचना में पैबस्त जाति-व्यवस्था का अपना एक खास ‘पैट्रन’ है ? क्या यह लेखक की अपनी दृष्टि है ? क्या यह कथा-शिल्प की जरूरत है ? होने को तो यह सब हो सकता है और इससे कुछ अलग भी. इस संघर्ष में संथालिन औरतों पर यौन-हमला भी होता है और वे दूहरे दर्द में होती है – एक यौन-हमले का दर्द और दूसरा शारीरिक हमले का दर्द. दरअसल, पूरी विश्व की सभ्यता की यात्रा में स्त्री इस प्रकार के दूहरे दर्द से गुजरती रही है. पूरी दुनिया की पितृसत्तात्मक व्यवस्था में घटित इस दूहरे दर्दों का कोई व्यवस्थित इतिहास नहीं लिखा गया है.
यह इतिहास स्त्रियाँ अब खुद लिख रही हैं. उपन्यास में इस घटना के बाद गिरफ्तारियों का सिलसिला शुरू हो जाता है. सोशलिस्ट पार्टी के ऑफिस में अब ‘सुराजी’ गीत, सोशलिस्ट गीत और भगवान कीर्तन एक साथ गाए जाने लगते हैं- ‘भारत का डंका लंका में बजवाया बीर जमाहिर ने’, ‘बम फोड़ दिया फटाक से मस्ताना भगतसिंग’, ‘आजू से बिरजू श्याम कदली के छैयाँ’.(पृष्ठ 199) उपन्यास के भीतर घटित होता हुआ यह एक नए विचार की राजनीति का नया गाँव है. ऐसा लगता है कि यह उपन्यास के रूपबंध को तोड़कर हमारे आज के समाज में भी शामिल हुई जाती है. इन सबके बीच एकमात्र डॉ. प्रशांत ही संथालों के समर्थन में होता है, वह कहता भी है -‘… तुम लोग ही जमीन के असल मालिक हो, कानून है जिसने तीन साल तक जमीन को जोता – बोया है, जमीन उसी की होगी.’(पृष्ठ189)
उपन्यास में डॉ. प्रशांत और हमारे समाज के लेखक, अध्यापक, सामाजिक कार्यकर्त्ता हमेशा से ही इस तरह के घेरे में रहने के लिए विवश हैं. हमारी राजनीति से विचार और तर्क के अनुपस्थित हो जाने के कारण इस तरह की विवशता से भरी हुई परिस्थिति सामाजिक विन्यास में खाद-पानी पाता है और लोगों की जिंदगी में धीरे-धीरे उतरने लगता है. मैं इस विवशता को उपन्यास के एकदम आखिरी के उद्धरण की ताकत से जोड़कर, अनिवार्य हौसले के बने रहने की पृष्ठभूमि के रूप में देखना चाहता हूँ -‘ कोई रिसर्च कभी असफल नहीं होता है डाक्टर ! तुमने कम-से-कम मिट्टी को तो पहचाना. …मिट्टी और मनुष्य से मुहब्बत. छोटी बात नहीं.’(पृष्ठ 307)
अंत में, ‘मैला आँचल’ में विन्यस्त राजनीति की बारादरी में पसरे विचारों के द्वंद्ध, विचारों की बायनरी, विचारों का वर्चस्व, जाति का वर्चस्वकारी आग्रह, भूमि से जुड़े आंदोलन, हत्याएँ, समझौते, विचलन और राज्य-सत्ता की हिंसा के बीच ‘मिट्टी और मनुष्य से मुहब्बत’ को ‘मैला आँचल’ से बाहर के परिसर में विन्यस्त हमारे समय की राजनीति की बारादरी में ‘मिट्टी और मनुष्य से मुहब्बत’ के बने रखने, बनाए रखने की प्रस्तावना करता हूँ.
संदर्भ और टिप्पणियाँ
[1] आजाद होते भारत और आजादी के बाद के भारत में सबसे विश्वसनीय नारा बनकर जनमानस के साथ चलता रहा है, आज इक्कीसवीं सदी के जन-आंदोलनों में यह नारा अब भी लोगों के एक बदलाव की यकीन दिलाता है . मैला आँचल में यह नारा ‘महतमा गन्ही की जै’ के रूप में दर्ज हुआ है .
[2] नमक-कानून को दांडी यात्रा, दांडी मार्च के नाम से भी जाना जाता है . यह पैदल यात्रा 12 मार्च 1930 से शुरू होकर 06 अप्रैल 1930 को समुद्र के किनारे पहुंची थी. इस कानून के उल्लंघन के कारण ही गांधी जी को 05 मई को गिरफ्तार कर लिया गया था.
[3] मैला आँचल उपन्यास में चरखा-सेंटर गाँव की आत्मनिर्भरता से जुड़ा हुआ है. स्वराज के लक्ष्य की प्राप्ति में चरखा महात्मा गांधी के लिए प्रमुख औजार था. दरअसल संपूर्ण भारत में अंग्रेज़ों के आने से पहले ही चरखे और करघे का प्रचलन रहा है. देउस्कर की किताब ‘देश की बात’ और सुंदरलाल की किताब ‘भारत में अंग्रेजी राज’ जैसी किताबें चर्कः के महत्त्व को रेखांकित करती है. सन 1500 ई. तक खादी और हस्तकला उद्योग भारत में पूरी तरह विकसित रहा था. बहुत बाद 1908 में जब गांधी जी इंग्लैण्ड में थे तब सबसे पहले चरखे और उसके महत्त्व के बारे में विचार किया.1916 में साबरमती आश्रम की जब स्थापना हुई तो लगभग दो बर्षों तक खोजने के बाद एक स्त्री के पास वहाँ एक चरखा मिला. इसी की निरंतरता में 1920 में विनोबा जी और उनके साथी साबरमती आश्रम में कताई का काम सीखने लगे. कुछ दिन बाद ही 1921 को वर्धा में चरखा के विकास पर केंद्रित एक सत्याग्रह आश्रम की स्थापना की गई. और 1923 में काकीनाडा कांग्रेस के दौरान एक अखिल भारत खादीमंडल की स्थापना हुई,चरखा के संरक्षण के लिए दिल्ली में एक राष्ट्रीय चरखा संग्रहालय स्थापित की गई है.
[4] ‘स्वराज’ का संदर्भ भारत में मोटे तौर पर महात्मा गांधी से जुड़ता है. लेकिन ऐसा भी नहीं है कि भारतीय राजनीति में स्वराज पहली बार महात्मा गांधी से जुड़कर ही आया है. ‘स्वराज’ का शाब्दिक अर्थ होता है ‘स्वशासन’ या ‘अपना राज्य’ जिसके लिए अंग्रेजी में Self-Governance या Home-Rule के संदर्भ से समझा जाता है. ‘स्वराज’ पद का प्रयोग सबसे पहले स्वामी दयानंद सरस्वती ने किया था. इसके बाद यह पद बाल गंगाधर तिलक के एक प्रसिद्ध नारे ‘स्वराज मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूँगा’ में प्रयुक्त हुआ. महात्मा गांधी के यहाँ यह पद 1920 में कहे इस कथन में मिलता है – ‘मेरा स्वराज भारत के लिए संसदीय शासन की मांग है, जो वयस्क मताधिकार पर आधारित होगा.’ महात्मा गांधी के यहाँ स्वराज पद का आशय – ‘जनप्रतिनिधियों द्वारा संचालित ऐसी व्यवस्था जो जन-आवश्यकताओं तथा जन-आकांक्षाओं के अनुरूप हो’ से रहा है. दरअसल, स्वराज का अर्थ केवल राजनीतिक स्तर पर औपनिवेशिक सत्ता से आजादी प्राप्त करना नहीं बल्कि सामाजिक, नैतिक और आर्थिक स्वतंत्रता से है और इसी से ग्राम-स्वराज की धारणा विकसित होती है जिसमें आत्म-सयंम, और सत्ता का विकेन्द्रीकरण शामिल है .दरअसल, ग्राम-स्वराज एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें राजनैतिक अव्यवस्था, भ्रष्टाचार, अराजकता अथवा तानाशाही व्यवस्था का निषेध होता है.
[5] हसरत मोहानी (1875 -1951) ने ‘इंकलाब जिंदाबाद’ नारा 1921 में लिखा था . 8 अप्रैल 1929 को भगत सिंह और उनके साथियों द्वारा असेम्बली में बम फोड़ने के बाद यह नारा काफी मशहूर हुआ. मैला आँचल में यह नारा इनकिलास जिंदाबाघ के रूप में संबोधन के रूप में और उपन्यास में घटित आंदोलनों के संदर्भ से दर्ज हुआ है .
[6] ‘भारतमाता’ शब्द भारत की सांस्कृतिक पहचान से जुड़ी हुई है. जवाहरलाल नेहरु की किताब ‘डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया’ में भारतमाता का संदर्भ ‘भारत के लोग’ के साथ जुड़ कर आता है. यह नारे के रूप में बहुत बाद में उपयोग किया जाने लगा . इसका सामाजिक और राजनीतिक इस्तेमाल की भी अपनी एक कहानी है. यहाँ उपन्यास के ढ़ांचे में यह आंचलिक होकर ‘भारथमाता’ के रूप में प्रयुक्त हुआ है. उपन्यास के स्वराज – उत्सव में एक जुलूस निकलता है जिसमें ‘भारथमाता’ की मूर्ति को घुमाया जाता है.
[7] ‘हिंसाबात’ पदबंध उपन्यास में गांधी जी के सिद्धांतों के साथ जीने वाले पात्रों विशेषकर बालदेव के माध्यम से हमारे सामने आता है. ऐसी कोई भी बात जिससे प्राणी मात्र को कष्ट पहुँचे वह हिंसा है. महात्मा गांधी के सिद्धांतों में हिसा के बरक्स अहिंसा का सिद्धांत सबसे महत्वपूर्ण है.
[8] वंदे मातरम्, बांग्ला के ख्याल लेखक बंकिम चटर्जी द्वारा लिखे उपन्यास ‘आनंद मठ’ (1882) में एक गीत के रूप में दर्ज हुआ है. उपन्यास में यह गीत भवानंद नाम के एक पात्र द्वारा गाया गया है. 24 जनवरी 1950 को इस गीत को राष्ट्रगीत के रूप में अपनाया गया. समय-समय पर राजनीति में इस गीत के गायन को लेकर विवाद होते रहे हैं.
[9] ‘सोशलिस्ट पार्टी की जय’ मैला आँचल में यह नारा ‘महात्मा गांधी की जय’ के साथ टेक की तरह आता है. उपन्यास में इस नारे से जुड़े हुए पात्र विशेषत: कालीचरण अपने संबोधन में हमेशा इंकलाब जिंदाबाद, लाल सलाम कहता रहता है. दरअसल, कांग्रेस के भीतर वामपंथी रुझान रखने वाले युवाओं ने 1934 में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी नाम से एक अलग दल का गठन किया था. बिहार में इसकी अगुआई जयप्रकाश नारायण कर रहे थे.
[10] ‘रिंग रिंग ता धिन-ता’ यह वह ध्वनि है जो मैला आँचल उपन्यास में संथालों के वाद्य यंत्र ‘मादल’ से गूँजता है. संथाल परगना के आदिवासी समुदाय में ‘मादल’ की इस ध्वनि के स्वयं मेरे द्वरा सुना गया है. रूप से आदिवासी ‘मादल’ को बजाते हैं. यह ध्वनि हमेशा सामूहिकता के साथ के साथ ही उपस्थित होता है. मैला आँचल उपन्यास में यह ध्वनि भूमि पर अधिकार के मुद्दे को लेकर हुए संघर्ष में सुनाई देता है.
[11] इस साक्षात्कार को रेणु रचनावली के चौथे खंड में पृष्ठ419पर पढ़ा जा सकता है.
[12] मैला आँचल, फणीश्वरनाथ रेणु, राजकमल प्रकाशन, संस्करण 1998, पृष्ठ – 121
[13] फणीश्वरनाथ रेणु द्वारा मैला आँचल के लिखे जाने और प्रकाशित किए जाने की एक कहानी प्रचलित है . रेणु लिखने का कार्य रात दस बजे के बाद ही करते थे. वे कहते थे कि स्वयं द्वारा देखी घटनाओं के आधार पर एक अंचल की कहानी लिख रहा हूँ. मैला आँचल पहली बार पुस्तक के रूप में पटना के प्रकाशन समता प्रकाशन से प्रकाशित हुई. मूल्य रखा गया पाँच रुपए. पुस्तक की कुल दो सौ प्रतियाँ छापी गईं . पुस्तक पर शुरुआती चर्चा कम हुई और प्रकाशक ने भी इसमें कोई विशेष रुची नहीं दिखलाई . फलत: बिक्री बहुत कम हुई. रेणु जी को कोई आर्थिक लाभ भी नहीं हुआ . बाद के दिनों में नलिन विलोचन शर्मा ने मैला आँचल पर एक समीक्षा लिखी. शायद वही समीक्षा पढ़कर एक दिन राजकमल प्रकाशन के ओमप्रकाश मेहरा पटना आए और रेणु जी से मुलाकात कर यह तय कर लिया कि अब मैला आँचल का प्रकाशन राजकमल प्रकाशन से होगा. समता प्रकाशन से प्रकाशित सभी प्रतियाँ ओमप्रकाश मेहरा ने ले ली और फिर मैला आँचल का प्रकाशन राजकमल से किया.
[14] 15 जनवरी 1934 को दो बजकर अट्ठाईस सेकेंड शाम को जो भूकंप आया था उसका केंद्र एवरेस्ट पर्वत के दक्षिण नौ किलोमीटर दूरथा.उत्तरी-बिहार और नेपाल की सीमा रेखा के बीच भूकंप ने क्षति पहुंचाई थी. पूर्णिया जिला में जान-माल की सबसे ज्यादा हानि हुई थी. सीतामढ़ी, भागलपुर, मुज्जफरपुर, पटना आदि जिलों में कच्चे मकान गिर गए थे, पक्के मकान में दरारें आ गई थी. बिहार में कुल 7253 लोगों की मृत्यु हुई थी. उल्लेखनीय है कि महात्मा गांधी ने इस भूकंप को प्राकृतिक न बताकर भारत में अछूत व्यवस्था को बनाए रखने के कारण ईश्वरीय प्रकोप से उत्त्पन्न बताया था.
[15] रेणु के राजनीतिक परिवेश को समझने के लिए https://samalochan.blogspot.com/2020/06/blog-post_18.html पर प्रकाशित प्रेमकुमार मणि के लेख ‘रेणु की राजनीति’ को देखा, पढ़ा जा सकता है.
[16] मैला आँचल, फणीश्वरनाथ रेणु, राजकमल प्रकाशन, संस्करण 1998, पृष्ठ – 210
[17] वही , पृष्ठ 312
[18] ‘ऐसा ही एक गाँव है मेरीगंज. रौतहट स्टेशन से सात कोस पूरब,बूढी कोशी को पार करके जाना होता है. … आज से करीब पैंतीस साल पहले, जिस दिन डब्ल्यू.जी. मार्टिन ने इस गाँव में कोठी की नीव डाली, आस-पास के गाँवों में ढोल बजवाकर एलान कर दिया – आज से इस गाँव का नाम हुआ मेरीगंज.’ (पृष्ठ 12)
[19] बावनदास ‘मैला आँचल’ का एक प्रमुख गांधीवादी पात्र है. उपन्यास में इसके परिचय का एक विशिष्ट निहितार्थ है -‘ कहतें हैं जब, 42 के मोमेंट में लोग कचहरी पर झंडा फहराने जा रहे थे तो मलेटरी ने घेर लिया था. बौनदास एक मलेटरी के फैले हुए हुए पैर के बीच से उस पार चला गया और कचहरी के हाता में झंडा फहरा दिया.’ (पृष्ठ 118) उपन्यास में इसकी हत्या गांधी की हत्या के बाद बहुत ही त्रासद ढंग से होती है.
[20] कहा यह जाता रहा है कि स्वतंत्रता आन्दोलन के पर्दे के पीछे रखे गये स्वामी सहजानन्द सरस्वती ने भी भारत की आजादी के बाद अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए एक नारा दिया था – ‘ये आजादी झूठी है, देश की जनता भूखी है.’ ‘ये जंगे आजादी का मैदान, इसे जितेगा मजदूर-किसान.’ ‘यह आजादी झुट्ठी है’ नारा जयप्रकाश नारायण के संपूर्ण क्रांति आंदोलन के समय खूब चर्चित हुआ. उसके बाद कई जन-आंदोलनों में यह नारा इस्तेमाल किया गया. हाल के वर्षों में भी यह नारा एक बार फिर से चर्चित हुआ.
[21] ‘दिनमान’ पत्रिका के लिए पत्रिका के संपादक रघुवीर सहाय को दिए एक साक्षात्कार में रेणु अपने जिले के महत्वपूर्ण कम्युनिस्ट कार्यकर्ता नक्षत्र मालाकार का जिक्र करते हैं. मालाकार अपने गाँव में पहले एक समाजवादी कार्यकर्त्ता के रूप में ख्यात था वह अकाल के समय जमींदारों के यहाँ से अनाज लूटकर गरीबों, भूखों में बाँट दिया करता था. ‘मैला आँचल’ की कथा में नक्षत्र मालाकार चलित्तर कर्मकार के रूप में उपस्थित हुआ है. रेणु ने प्रसिद्ध कथाकार मधुकर सिंह को दिए एक साक्षात्कार में विस्तार से नक्षत्र मालाकार और उसके चरित्र का उल्लेख किया है. उपन्यास में चलित्तर कर्मकार का परिचय दिलचस्प ढंग से आया है. ‘किरांती चलित्तर कर्मकार ! जाति का कमार है, घर सेमापुर में है. मोमेंट के समय गोरा मलेटरी इसके नाम को सुनते ही पेसाब करने लगता है. बम- पिस्तौल और बंदूक चलाने में मशहुर ! मोमेंट के समय जीतने सरकारी गवाह बने थे, सबों के नाक-कान काट लिए थे चलित्तर ने. बहादुर है. कभी पकडाया नहीं. कितने सीआईडी को जान से खत्म किया. धर्मपुर के बड़े-बड़े लोग इसके नाम से थर-थर काँपते थे. जॉन ही चलित्तर का घोड़ा दरवाजे पर पहुँचा की सीसी सटक. दीजिए चंदा. पचास ! नहीं, पांच सौ से कम एक पैसा नहीं लेंगे. नहीं है / चाबी लाइए तिजोरी की . नहीं ? धाएं.धाएं ! दस ख़ूनी केस उसके ऊपर था, लेकिन कभी पकड़ा नहीं गया.’ (पृष्ठ 121) ‘चलित्तर कर्मकार को कौन नहीं जानता ! बिहार सरकार की ओर से पंद्रह हजार इनाम का एलान किया गया है. हर स्टेशन के मुसाफिरखाने में उसकी बड़ी-सी तस्वीर लटका दी गई है.’(पृष्ठ 274)
[22] उपन्यास में ‘ सोम जट हाल ही में जेल से रिहा हुआ है. नामी डकैत है, लेकिन अब सोशलिस्ट पार्टी का मेंबर बनना चाहता है. सुनर ने कालीचरण से पूछा और कालीचरण ने जिला सिक्रेटरी साहब से पूछा. सिक्रेटरी साहब ने कहा, साल-भर तक उनके चाल-चलन को देखकर तब पार्टी का मेंबर बनाया जाएगा. उस पर नजर रखना होगा. (पृष्ठ 159)
[23] दरअसल, कम्युनिस्ट पार्टी 1942 के आंदोलन के विरोध करने के पीछे एक ऐतिहासिक तर्क देते हैं.द्वितीय विश्व युद्ध जारी था और पूरी दुनिया राजनीतिक रूप से ‘मित्र राष्ट्र’ और ‘धूरी राष्ट्र’ के खेमे में बंटे हुए थे. लोकतांत्रिक मूल्यों पर यकीन करने वाले राष्ट्र ‘मित्र राष्ट्र’ में शामिल थे और तानाशाही शक्तियों में यकीन करने वाले ‘धूरी राष्ट्र’ के खेमे में शामिल थे. में सामिल ‘मित्र राष्ट्र’ के खेमे में अमेरिका, इंग्लैण्ड, फ्रांस, सोवियत संघ आदि देश थे, और ‘धूरी राष्ट्र’ के खेमे में जर्मनी, इटली, जापान आदि देशथे। जर्मनी से हिटलर और इटली से मुसोलनी धीरे-धीरे पूरबी एशिया की ओर और जापान से तोजो पूर्वी एशिया से चलकर पश्चिम की ओर बढ़ रहे थे। इन दोनों के बीच भारत इंग्लैण्ड के अधीन देश था. कम्युनिस्ट पार्टी को लगा कि यदि वह 1942 के आंदोलन में अंग्रेजों का विरोध करता है तो वह अन्तराष्ट्रीय पैमाने पर ‘मित्र राष्ट्र’ कमज़ोर हो जाएगा और ‘धुरी राष्ट्र’ की जीत हो जाएगी. ‘धुरी राष्ट्र’ के जीत जाने से कहीं ऐसा न हो कि भारत तानाशाही के अधीन हो जाए बाद में जिससे मुकाबला करके आजादी हासिल करना मुश्किल हो जाएगा. उसकी तुलना में धीरे-धीरे कमज़ोर होते अंग्रेजो से मुकाबला करना आसान होगा. तो अभी अंग्रेजों का समर्थन कर तानाशाही को हराने में मदद की जाय और बाद में फिर अंग्रेजों से मुकाबला कर भारत को आजाद कराया जाए. इसीलिये कम्युनिस्ट पार्टी ने 1942 के आंदोलन का विरोध किया था. हालाँकि बाद में जाकर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने अपने इस फैसले की समीक्षा की और अपनी आत्मालोचना करते हुए अपने इस निर्णय को सही नहीं माना है.
[24] मिडनाइट एट फ्रीडम, लैरी कॉलिन्स और डोमिनिक लापियर की इस किताब का ‘बारह बजे रात के’ नाम से हिंदी अनुवाद मुनीश सक्सेना ने किया है. राधाकृष्ण प्रकाशन से प्रकाशित . यहाँ 2003 के संस्करण से उद्धृत.
[25] डॉ. प्रशांत के परिचय के संदर्भ में ‘मैला आँचल’ में उल्लेख है कि, ‘प्रशांत अज्ञातकुलशील है. उसकी माँ ने एक मिट्टी की हांड़ी में डालकर बाढ़ से उडती हुई कोशी मैया की गॉड में उसे सौंप दिया था. नेपाल के प्रसिद्ध उपाध्याय परिवार ने, नेपाल सरकार द्वारा निष्कासित होकर, उन दिनन सहरसा अंचल में ‘आदर्श आश्रम’ की स्थापना की थी.’ उसी आश्रम में स्नेहमयी नाम की स्त्री की गोद में जब उपाध्याय दंपति ने एक सोया हुआ शिशु दिया था. तब वह स्त्री बोल उठी थी – प्रशांत. बाद में प्रशांत डॉ. बनता है और मलेरिया की चिकत्सा के लिए मेरिगंग गाँव पहुँचता है.
[26] “ … कौमनिस्ट पाटी वालों से आपका कैसा रिश्ता है ? मेरे बहुत-से दोस्त कम्युनिस्ट हैं . आपने संथालों को भड़काया , समझाया था कि जमीन पर जबरदस्ती हमला कर दो ? संथालो ने अपने बयान में कहा है. संथाल लोग समय-समय पर मुझसे पुराने कागजात पढ़वाने आया करते थे – जजमेंट वैगेरह. आप अपनी किताबें दिखला सकते हैं ? दारोगा साहब उठकर किताबों की अलमारी के पास जाते हैं. साला, सब डाक्टरी किताबें हैं ! चिल्ड्रेन ऑफ़ यू.एस.एस.आर. लाल रूस, लेखक : बेनीपुरी. लाल चीन, लेखक : बेनीपुरी . ये सब तो रूस की किताब है ! रूस की नहीं, रूस के बारे में . दोनों एक ही बात है.” दारोगा साहब उस किताब को निकालकर उलटते हैं-मानो किताब के पन्नों में बम छिपा हो . बहुत सतर्क होकर प्र्सिह्थ उलटते हैं. (पृष्ठ 245) और फिर डॉ. प्रशांत को गिरफ्तार कर लिया जाता है. क्या इस अंश का कोई समकालीन पाठ भी है ?
[27] संथालों पर हमलों से जुड़े ख़तरनाक सामाजिक गठबंधन को मैला आँचल में पृष्ठ 191,192,193 पर विस्तार से पढ़ा जा सकता है .
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अमरेन्द्र कुमार शर्मा महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा, महाराष्ट्र मोब. 9422905755 |