अभिनेता इरफ़ान ख़ान (७ जनवरी १९६७-२९ अप्रैल २०२०) अब नहीं रहे, उनकी प्रभावशाली आँखों का अभिनय, उनकी फ़िल्में बची रहेंगी. विदेशी फिल्मों में भी वे नज़र आते थे. कल बी. बी. सी. ने उनपर एक वृत्त चित्र भी प्रदर्शित किया. उनके व्यक्तित्व की सहजता और खुलेपन ने हिंदी फिल्मों को कुछ और जेंडर संवेदित किया है. उनकी फिल्मों और शख्सियत पर यह आलेख लेखिका रश्मि रावत का है.
इरफ़ान ख़ान के प्रति श्रद्धासुमन स्वरूप यह आलेख प्रस्तुत है.
इरफ़ान ख़ान : साधारण का सौन्दर्य
रश्मि रावत
‘अंग्रेजी मीडियम’ फिल्म के दौरान दर्शकों को दिए हुए उनके इस संदेश के बाद उनकी आवाज सुनने को नहीं मिलेगी, ये उनके लाखों प्रशंसकों ने नहीं सोचा होगा. स्थिति को पूरी गहराई से महसूस करने के बाद भी सबने यही उम्मीद की थी कि ‘महायोद्धा’ (The Warrior) लौटेगा. यह संदेश जब रिकॉर्ड किया गया तब उनका न्यूरोएंडोकेराइन ट्यूमर का इलाज चल रहा था. इसमें अपने अनोखे अंदाज में उन्होंने कहा
“मेरे शरीर में कुछ अनचाहे मेहमान बैठे हुए हैं. उनसे वार्तालाप चल रहा है. देखते हैं कि ऊँट किस करवट बैठता है. जैसा भी होगा आपको इत्तला कर दी जाएगी. कहावत है कि ‘व्हेन लाइफ गिव्स यू लेमन, यू मेक अ लेमनेड’ बोलने में अच्छा लगता है लेकिन सच में जब जिंदगी आपके हाथ में नींबू थमाती है तो शिकंजी बनाना बहुत मुश्किल हो जाता है. लेकिन आपके पास सकारात्मक रहने के अलावा विकल्प ही क्या है. हम सबने इस फिल्म को उसी सकारात्मकता के साथ बनाया है और मुझे उम्मीद है कि सिखाएगी, हँसाएगी, रुलाएगी और फिर हंसाएगी. ट्रेलर का मजा लीजिए और एक-दूसरे के प्रति करुणा रखिए, और हाँ, मेरा इंतजार करना.”
“Wait for me” कानों में पड़े उनके इन आखिरी शब्दों में ही उनकी संजीदा आवाज गूँज रही है. इतनी तरह के किरदार मुकम्मल तरीके से उन्होंने जिस गरिमा से निभाये हैं, उससे दिल के इतने करीब वह आ गए थे, कि आवाज के उस पार उनकी बोलती गहरी आँखों को अपने अंतरपट में साफ देख पा रही हूँ. बड़ी-बड़ी, बोलती आँखें. दूसरों को सुनने से जिस तरह का बोलना आ जाता है, उस तरह से बोलती आँखें. उनमें सामने वाला अपनी छवि देख पाता है. शारीरिक कष्टों की उमड़न भी होगी उनमें, अपनों से दूर जाने की असह्य वेदना भी और सपनों-आकांक्षाओं को अधूरा छोड़ कर जिंदगी की रेल से उतरने का फरमान निगल पाने की विवश कातरता भी. इन सब मिले-जुले एहसासों की भाप से तरल आँखों में उन अनाम, अनदेखे अनेक प्रशंसकों से जुड़ने का स्पेस फिर भी रहा होगा, जिन्हें ध्यान में रख कर वे विभिन्न किरदारों को छोटे-बड़े, देशी-विदेशी परदों में जीते रहे. जनता की बोली और परिवेश को ऐसे ही तो कोई इतनी सलाहियत से जीवंत नहीं कर सकता कि जब जो भूमिका निभा रहे हों, उस समय वही उनकी असल बोली-बानी और जिंदगी बन जाए.
दिलो-दिमाग की उथल-पुथल को आँखों से कह देने वाली उनकी अदाकारी ने आँखों को पढ़ सकने वाली अनगिनत आँखें भी गढ़ीं, जो आँखों की और खामोशी की भाषा समझ सकती हैं. उन्होंने लम्बा संघर्ष किया अपनी मनचाही भूमिकाएँ पाने के लिए. अंदर ही अंदर शायद वे जानते थे कि इनमें उनका होना एक नई इबारत लिख सकता है. मुख्यधारा सिनेमा के द्वारा अपनाये जाने से पहले का लम्बा संघर्ष जिस गरिमा से उन्होंने जिया वह किसी बड़ी प्रेरणा ओर सरोकार के सम्भव नहीं हो सकता था. ९० का दशक शुरू होने से कुछ पहले से इरफ़ान की फिल्मी यात्रा शुरू हो चुकी थी. इन चंद सालों में उनके साथ या थोड़ा आगे-पीछे बॉलीवुड में प्रवेश करने वाली खान तिकड़ी तथा और भी कुछ स्टार बड़े पर्दे पर धूम मचाने लगे थे. उस समय इरफ़ान टी.वी सीरियलों में और सिनेमा में छोटी-बड़ी भूमिकाएँ कर रहे थे. ‘श्रीकांत’, ‘चंद्रकांता’, ‘भारत एक खोज’, ‘चाणक्य’, ‘द ग्रेट मराठा’ आदि धारावाहिकों में विविध भूमिकाएँ निभाईं उन्होंने. दूरदर्शन पर ‘लाल घास पर नीले घोड़े’ नाम के टेलीप्ले में भी काम किया था. इसमें उन्होंने लेनिन की और सुरेखा सीकरी ने उनकी पत्नी क्रूपस्काया की भूमिका निभाई थी. यह टेलीप्ले मिखाइल शात्रोव के रूसी प्ले के रूपांतरण (हिंदी अनुवाद- उदय प्रकाश) पर आधारित था. भाँति–भाँति के किरदार छोटे-बड़े पर्दे पर निभाते हुए अपनी असल जमीन पाने की तलाश और तराश उनमें निरंतर बनी रही.
सन 2001 में विदेशी फिल्म ‘द वॉरियर’ ने उन्हें नई उठान दी. तिग्मांशु धूलिया के निर्देशन में छात्र राजनीति पर बनी ‘हासिल’ (2004) फिल्म से बॉलीवुड में उनकी वह जगह बननी शुरू हुई, जिसे पाने के लिए वे कई सालों से पूरी तरह सक्षम थे. मगर दर्शकों ने उनके लिए अपने दिल में जगह इस फिल्म से बनानी शुरू की. तिग्मांशु और इरफ़ान की जोड़ी ने फिल्म में नया ही रंग जमा दिया था. कुंभ के मेले का एक दृश्य फिल्म में था. कुंभ का मेला चल रहा था. उस समय तक कोई काम आरम्भ नहीं हुआ था. सम्भवतः स्क्रिप्ट तक फाइनल नहीं हुई थी. सबसे पहले कुंभ में जा कर अंतिम दृश्य के ही शॉट ले लिए गए थे. वर्ना मेला उठ जाता. इस तरह के कई दिलचस्प किस्से फिल्म से जुड़े हुए हैं. सहायक कलाकार भी इरफ़ान के साथ काम करने में सहज महसूस करते थे. उनकी उपस्थिति किसी को संकुचित नहीं करती थी. इसलिए जूनियर कलाकारों के साथ उनकी जुगलबंदी दोनों की ऊर्जा और असर में इजाफा करती थी.
कम समय में ही अपने अभिनय का लोहा उन्होंने मनवा दिया और दिखा दिया कि कलाकार व्यावसायिक दुनिया का एक अंग हो कर भी मानवीय सरोकार और सौंदर्यबोध की शर्तों को इस खूबसूरती से निभा सकता है. कलाकार कोई बेयरा नहीं जो ग्राहकों की रूचि के अनुसार व्यंजन परोसेगा. वह वही कहेगा जो कहा जाना चाहिए, और अपने अंदाज में पूरे दम-खम से. मानो कह रहा हो- तुम सुनो ताव हो तो सुनने का. चाव तो हम अपनी आँखों से और आवाज से पैदा कर ही लेंगे. हम तरह-तरह से भाँति-भाँति के किरदारों के रूप में अपनी कहते रहेंगे तुम्हें भी शायद किसी-न-किसी भूमिका में अपनी धुन मिल ही जाएगी.
यह सब बातें इसलिए भी दिमाग में आईं कि अदायगी का कौशल, पात्रों के हिसाब से भाषा साधने का हुनर उनके पास था. उनकी आँखें उनकी ताकत थी. उनकी आँखों में एक कशिश सी थी. हमेशा कुछ तलाशती सी आँखें. साधारण आम आदमी की भूमिका में जो आँखें निरीहता की जबरदस्त अभिव्यक्ति देती थीं वही नकारात्मक भूमिका में क्रूर और डरावनी हो सकती थीं. उनमें अपनी आँखों और बोली से परिवेश को जिंदा कर देने की कूवत थी. उनके यहाँ किरदार एक भाव में नहीं बँधता. एक से दूसरे, तीसरे, चौथे …में आता-जाता किरदार समाज में निर्धारित सरहदों को तोड़ता-पिघलाता सा रहता है. इंसान के भीतर छिपे अनेक इंसानों के बीच की आवाजाही जितनी इरफ़ान में मिलती है, वह विरल है.
उनके बारे में कहा जाता है कि वे कभी किसी भूमिका में बँधे नहीं, फंसे नहीं. अलग-अलग माध्यमों से विविध रंग-रूप, बोली-बानी अपनाते रहे. पिछली के सब निशान धो-पोंछ के नई ताजगी से अगली भूमिका अपनाने के लिए पूरे सन्नद्ध. अलग भूमिकाओं में ही नहीं, एक ही भूमिका में भी उनका किरदार व्यक्तित्व के बने-बनाए ढाँचों को पिघलाता रहता है. अंतर्द्वंद्व को बखूबी अपने हाव-भाव से वे दिखा पाते हैं. जैसे शैक्सपियर की रचना पर आधारित ‘मकबूल’ में उनका किरदार बहुत जटिल है. एक ओर वह अब्बा (पंकज कपूर) का विश्वासपात्र है, दूसरी ओर उनकी पत्नी तब्बू उसकी माशूक है और दिलो-जान से उस पर फिदा. प्रेम भी है, अपराध भाव भी, पाप का बोध भी, महत्त्वाकांक्षा, हिंसा, करुणा सब है उसके व्यक्तित्व में. स्क्रिप्ट में जितना उन्हें लिख के दिया जाता होगा, अपनी आँखों और अदायगी से वे उससे कहीं ज्यादा असर डालने में सक्षम थे. इसमें एक बड़ा हाथ उनके हुनर के अलावा उनके लोकतांत्रिक मिजाज का भी रहा होगा, जिसमें कलाकार दर्शकों के लिए भी स्पेस छोड़ता है. अपनी नजरों से देखे जाने के लिए. दो किरदारों या मनोभावों की उस बारीक सी सीमारेखा में खुद को ठिठका कर दर्शकों से खुद को जोड़ लेने की और उनके प्रवेश के लिए एक नामालूम सी झिरी छोड़ने की ये अदा बहुत भाती है. और ये तभी आ सकती है जब धर्म, वर्ग, जेंडर, राष्ट्र के साँचे किसी को बाँध कर रखने में अक्षम हो जाएँ, परिधि वहाँ घुलती हुई नजर आती है, वह देश की भौगोलिक परिधि हो या नगर और ग्राम की. किसी एक के कहाँ थे इरफ़ान.
बॉलीवुड के थे तो हॉलीवुड के भी. हॉलीवुड फिल्मों ‘स्पाइडर मैन’, ‘जुरासिक वर्ल्ड’, ‘इन्फर्नो’में काम किया. एक हॉलीवुड अभिनेता ने उनकी प्रशंसा में कहा था कि इरफ़ान की आँखें भी अभिनय करती हैं. वे शहर के थे तो गाँव के भी. पानसिंह तोमर जिस भदेस भाषा में बात करता है. स्थानीय पुट लिए परिवेश को प्रामाणिकता से वहन करने वाली उस भाषा के कारण किसी को उम्मीद ही नहीं थी कि फिल्म दर्शकों द्वारा स्वीकृत हो भी सकती है. इसलिए बनने के काफी समय बाद २०१० में लगी और शुरू के कुछ दिन दर्शक कम ही मिले मगर फिर लोगों पर पड़े उसके प्रभाव के कारण दर्शकों की जुबान पर उसका स्वाद बना रहा और धीरे-धीरे दर्शक उसके लिए उमड़ने लगे. अपनी रील लाइफ में और रियल लाइफ में भी स्त्री के प्रति उनका व्यवहार बराबरी का रहा. धर्म की कट्टरता के सख्त खिलाफ थे ही. यह उनके आचरण में दिखता भी था. विवाह भी अपनी सहपाठी, लम्बे समय से प्रेमिका रही सुतपा सिकदर से किया. उनका आपसी प्रेम एक मिसाल था. अंतिम पलों में भी उन्हें इस बात का अफसोस था कि पत्नी के साथ और वक्त नहीं बिता पा रहे हैं और बीमारी के दौरान असहनीय पीड़ा से जूझते हुए जब उन्हें लग रहा था कि वे पूरी तरह दर्द की गिरफ्त में हैं, सारी सृष्टि इस पीड़ा में ही समा गई है और कि दर्द खुदा से भी बड़ा है, सब दिलासे व्यर्थ हो चले थे, तब भी पत्नी के कारण मिले हौसले का जिक्र उन्होंने किया.
शुरुआत में उनका परिवार उनके अभिनय अपनाने से नाखुश था. उनके एन.एस.डी जाने पर माँ ने कहा कि अब बस नाचना गाना ही करेगा तू- तो इरफ़ान ने जवाब दिया कि चिंता न करो, बहुत कुछ ऐसा भी करूँगा जो तुम्हें अच्छा लगेगा. यह बात उन्होंने पूरे मन से निभाई भी. अपने बेटे में स्त्री के प्रति सुलझी हुई सोच एक माँ के लिए गर्व का विषय है.
पिछले कुछ समय से मैं स्त्री-सरोकारों से जुड़े मंचों से निवेदन कर रही हूँ कि क्यों न जेंडर संवेदित पुरुष लेखकों के लिए पुरस्कार घोषित किए जाएँ? मामला विचाराधीन है. शायद कुछ हो निकट भविष्य में. मुझसे बॉलीवुड में इसके लिए कोई नाम पूछा जाए तो यह पुरस्कार मैं इरफ़ान खान को देना चाहती. अधिकतर स्त्रियाँ सम्भवतः समर्थन करेंगी.
‘द लंचबॉक्स’ (2013) में अपने पति के लिए युवा स्त्री के अपने हाथ से बना कर भेजे गए खाने का डिब्बा अकेले रहने वाले अधेड़ विधुर इरफ़ान को गलती से मिल जाता है. उसका पहला कौर मुँह में डालने के साथ जो हाव-भाव इरफ़ान के चेहरे में उभरते हैं, उन्हें देख कर लगता है कि धरती पर अगर कहीं स्वाद है तो यहीं है सिर्फ यहीं है इस टिफिन में. है तो महानगरों के अकेले पड़ते आदमी और दाम्पत्य को भावशून्य यांत्रिकता के साथ जीने को अभिशप्त युवा स्त्री की बेस्वाद जिंदगी की कहानी. मगर इरफ़ान ने मौन ढंग से सूक्ष्म रेखाओं से बेआवाज किरदार में वह सारे भाव भी तो पिरोये हैं जिन्होंने उन सबके दिलों में भी रस ग्रहण करने वाली ग्रंथियों को हौले से जिंदा कर दिया होगा, जिन्हें यह लंचबॉक्स बिना गलती के मयस्सर है, जिन्हें घर के ताले खुद नहीं खोलने होते, जिन्हें देख कर मौहल्ले में खेलते बच्चे सहम नहीं जाते.
वे मकबूल जैसे विलक्षण किरदार को बड़े सहज ढंग से निभा सकते थे, तो दूसरी ओर सीधे-सादे सरल पात्रों में अपने विलक्षण संस्पर्श से नई जान फूंक देते थे. ‘पीकू’में एक ओर दीपिका पादुकोण जैसी युवा ग्लैमरस हीरोइन के साथ हीरो के रूप में सहज दिखते हैं, वहीं अमिताभ बच्चन के साथ पेट की आँतों के बारे में, कब्ज और फारिग होने की मुद्राओं के बारे में विस्तार से बात करते हैं. रोजमर्रा के कार्य व्यापार के डिटेल्स को भी दिलचस्प बना देना आसान काम तो बिल्कुल नहीं रहा होगा.
‘हिंदी मीडियम’ (2017) का अंग्रेजी न जानने वाला, पत्नी और बच्ची को बेशर्त, बेशुमार प्यार करने वाला किरदार हो. स्विमिंग की स्पेलिंग पूछे जाने पर जिस तरह की मासूम और दिलचस्प प्रतिक्रिया इरफ़ान देते हैं, वह बस वही कर सकते थे कि इतने मामूली दृश्य को याद करके आज भी होंठो में मुस्कान आ जाती है. दिल में भाव उगते हैं कि स्विंमिंग की स्पेलिंग का तैरने से जितना (अ) सम्बंध है उतना ही तो जीवन की मूल कविता से दुनियादारी के तमाम प्रपंचों का.
‘करीब-करीब सिंगल’ (२०१७) का योगी कॉफी ठीक उच्चारण से नहीं मँगा पाते, सभ्य-शिष्ट लोग उस पर हँसते हैं तो क्या. फोन पर बात करते-करते खर्राटे लेने लगता है तो क्या ? स्त्री मन को समझने और सराहने में इससे बाधा कहाँ आती है. जब बिना किसी जजमेंट के साथी स्त्री के ह्रदय को समझता और स्वीकारता है तो अपने व्यक्तित्व के अनगढ़पन के लिए भी प्यार पाने लगता है. अपने ऊबड़-खाबड़ व्यक्तित्व को बदलने की उसे जरूरत नहीं. अपनी इसी वास्तविकता के साथ उसे भरपूर प्यार मिलता है. क्योंकि वह बिना कोई शर्त और बंधन लगाए स्त्री को प्यार करता है. चूंकि बेकार के थोपे हुए बोझ अपने ऊपर लादने की जिम्मेदारी स्त्री के ऊपर से झड़ गई तो मुक्त हो कर वह भी साथी के पुरुष मन को समझने लगती है. जहाँ पुरुष लगातार स्त्री पर हावी रहता है, वहाँ तो ध्यान ही नहीं जाता कि पुरुष –मन होता भी है. इस तरह साधारण से, खुरदरे किरदारों में इरफ़ान का विशिष्ट स्पर्श एक ऐसी तरलता भर देता है कि उनके कोनों की चुभन घिस के एक चाहे जाने वाली सादगी में बदल जाती है. इस फिल्म में प्रेम की एक नई इबारत वे अपने असाधारण अभिनय से लिखते हैं जिसके सामने बॉलीवुड का रोमानी प्रेम बड़ा बेस्वाद सा लगता है. जिसकी सिर्फ कामना की जा सकती है. असलियत में जिया पाया नहीं जा सकता. उस प्रेम के सभी मिथ यहाँ टूटते दिखते हैं. उम्रदराज, दो एकाकी लोगों का प्रेम, जो अपने असल रूप में ही एक-दूसरे के सामने आते हैं. प्रेम में न किसी खास उम्र की दरकार है न युवा लगने का दवाब, न सभ्यता और शिष्टाचार के अनुष्ठान निभाने की कोई कोशिश. न दोनों एक-दूसरे के लिए व्यक्तित्व बदलते हैं न दूसरे से कोई शर्त रखते हैं जबकि लगभग हर तरह से एक-दूसरे के कंट्रास्ट हैं. एक नींद की गोली लेने वाली एक बैठे-बैठे खर्राटे लेने वाला. एक शालीन एक पूरा रंगीला.
पूर्व प्रेम के बारे में पूछने पर अकुंठ भाव से कहता है तीन बार टूट कर प्रेम किया. और फिर ट्रेन, हवाई जहाज, टैक्सी हर तरह की यात्रा करवाता है उसे उन तीनों से मिलाने के लिए. एक अपने दो बच्चों के साथ सुखी गृहस्थन. बच्चे योगी (इरफ़ान) को मामा बोलते हैं. परिजन की तरह प्यार से दोनों की उस घर में खातिरदारी होती है. एक सुदूर प्राकृतिक सौंदर्य वाली शांत जगह में नृत्य स्कूल चला रही और कला के सुख से सरोबार है. इस तरह इस यात्रा में स्त्री मन तक उसकी पहुँच भी पार्वती को दिखती है और प्यारा सा पुरुष मन भी. जिसे महिला मित्रों से न शिकवे हैं न कोई अपेक्षा. ऊबड़-खाबड़ से दिखने वाले लाउड व्यक्तित्व के अंदर कोमल मन है.
उसके लिए प्रेम मुक्त करने की चीज है और उसके साहचर्य में कोई अपने अस्तित्व में रहते हुए हल्का हो के जी सकती है, अपनी ही धड़कनों की ताल पर. शायद उसके साथ से ही उन्होंने अपनी ताल पहचानी हो और वह भी उन तीनों के साथ से समृद्ध ही हुआ हो. तभी तो इतने चाव से उन्हें याद कर रहा है. इस यात्रा से पार्वती उसके साथ के प्रति पूरी तरह आश्वस्त हो जाती है.
फिर और अच्छे से ‘जज्बा’ फिल्म का अंतिम दृश्य समझ आता है, जिसमें वह ऐश्वर्या रॉय को कॉलेज समय से ही चाहता है. उसकी किसी और से शादी हो गई, फिर तलाक हो गया. एक बच्ची के साथ अकेली रहती है लम्बे समय से. कैसे-कैसे तूफान उसकी जिंदगी में आते हैं. इरफ़ान नायक के रूप में हमेशा नायिका के साथ खड़े हैं. उनके प्यार में एकल हैं पर आजीवन इंतजार में रहना चाहते हैं कि उसके मन में प्रेम जगे तभी वह आयें. अंतिम सीन में सहायक कलाकार कहता है कि जाने क्यों दिया रोका क्यों नहीं. बड़े ही प्रामाणिक और प्रभावी ढंग से इरफ़ान बस एक वाक्य में ही सब उड़ेल देते हैं कि ‘प्यार करता हूँ इसीलिए तो जाने दिया.‘ सही भी है . प्रेम मुक्त करने का ही तो नाम है और प्रेम में पुरुष को इंतजार करना ही चाहिए.
अभिनय में अपनी विलक्षण छाप छोड़ने वाले इरफ़ान का व्यक्तित्व भी खासा प्रभावशाली था. साहित्य से अनुराग उनका था ही. अध्ययनशील थे. अपने समय के जरूरी सवालों में न केवल हस्तक्षेप करते थे,बल्कि खतरे भी उठाते थे. जैसे धार्मिक कट्टरता का विरोध करना. ९० के दशक में जिस तरह की फिल्में पसंद की जा रही थीं, जिस तरह के दर्शकों को ध्यान में रख कर फिल्में बन रही थीं, उस तरह के मैनरिज्म को अपनाना, प्रेम के रोमानीपन की मखमली चादर को ओढ़ कर महानगरों और विदेशी धरती पर मल्टी प्लैक्स के महँगे सिनेमाघरों में बैठे दर्शकों के मनोजगत में अटने लायक नायक का मुहावरा खोजना क्या बड़ी बात उनके लिए होती. इरफ़ान खान यथार्थवादी विरासत से जुड़े हुए अभिनेता हैं. इक्कीसवीं सदी ने जब अपना मुहावरा बदला, व्यावसायिक फिल्मों में यथार्थवाद का पुट होना जरूरी तत्व हो गया. कला और व्यवसायिक फिल्मों के बीच का अंतराल कम हुआ. विषय में बड़े बदलाव न भी हुए हों तो भी ट्रीटमेंट पूरी तरह बदलने लगे. अब स्टारडम की और पहले जैसी खास फिल्मी संवाद अदायगी की दरकार फिल्मों में न रही. वास्तविक जिंदगी में बोले जाने वाला ढंग वैसे का वैसा फिल्म का हिस्सा बनता है. जैसे पान सिंह तोमर भदेस भाषा बोलता है.
विशाल भारद्वाज जैसे कई निर्देशकों को फिल्मी मैनरिज्म के बावजूद यथार्थवादी अभिनेता चाहिए था. इरफ़ान की भेदती हुई, कौंधती हुई आँखों वाले व्यक्तित्व से बेहतर कौन हो सकता था जो हैदर के रूहदार का किरदार निभा पाता. इंटरवल से तुरंत पहले उसका फिल्म में प्रवेश होता है मगर फिर भी पूरी फिल्म में असर दिखता है. अकेले दृश्यों और संक्षिप्त भूमिकाओं से भी इरफ़ान पूरी फिल्म में एक असर छोड़ने का माद्दा रखते थे. खुरदुरे किरदारों को जीने की गुंजाइश बननी शुरू हुई ९० के दशक में विदेशी फिल्मों और धारावहिकों के बढ़ते प्रभाव के कारण बॉलीवुड के परिपक्व होते जाने से. सिनेमा के बदलते मुहावरे के साथ नवाजुद्दीन सिद्दीकी, राजकुमार राव,आयुष्मान खुराना जैसे यथार्थवादी चेहरों की माँग बढ़ी है. सलमान खान बजरंगी भाई जान जैसी और अक्षय कुमार पैडमैन, टॉयलेट जैसी फिल्में करने लगते हैं.
इस सामाजिक और फिल्मी गतिकी को भली-भाँति समझने के बाद भी इरफ़ान खान के लिए अलग से यह कहना चाहती हूँ कि केवल परिवेश की अनुकूलता इरफ़ान की इस तरह के गढ़न की जिम्मेदार नहीं, बल्कि ये उनके भीतर के कलाकार का चुनाव भी था कि उन्होंने ९० के दशक में फिल्मी सितारा बनने के समयानुकूल मुहावरे न अपना कर अपनी सही जमीन का धैर्य से इंतजार किया और जहाँ, जितना मौका मिला, वहाँ अमिट प्रभाव छोड़ कर सिनेमा की दिशा निर्धारित करने वालों से एक तरह से संवाद किया अपने काम के जरिए. वर्ना चाहते तो हीरो बन कर इससे कहीं ज्यादा पैसे कमा सकते थे. पर उनकी भरपूर माँग के बाद भी कम बजट फिल्में और चुनौतीपूर्ण साधारण रोल करना उन्होंने नहीं छोड़ा.
असल जिंदगी को ढाँपने वाले नहीं उसे जीने लायक खूबसूरत बताने वाले, आम इंसान की खूबसूरती उभारने वाले किरदार ही उनकी भावभूमि बनाते थे. जिन्हें प्रभावी बनाने के लिए वह अतिशय परिश्रम कर सकते थे. धैर्य से उस समय की प्रतीक्षा कर सकते थे जब यथार्थ जिंदगी की आम जरूरतों पर फिल्में बनेंगी और दर्शकों द्वारा हाथोंहाथ ली जाएँगी. जब समाज, साहित्य और सिनेमा में ग्रैंड नैरेटिव टूटने लगेंगे और हमारे बीच के दिखने वाले चेहरे को परदे पर हमारे जैसा ही कुछ करते हुए देखने भी लोग जाएँगे. और अगर यह चेहरा इरफ़ान खान जैसे बेहद सशक्त नायक का हो तो अपने को कुछ ज्यादा पहचानते हुए, कुछ अधिक खूबसूरत समझते हुए बाहर निकलेंगे. सादगी के, साधारणता के इस सौंदर्य की खोज हमें हमारी वास्तविक जिंदगी से जोड़ती है न कि उसकी कटुता को चंद लम्हों तक भुलाए रखने के लिए हम इरफ़ान खान की फिल्में देखने जाते हैं.
आम आदमी को जीने का, प्रेम करने का, मनचाहा करने का, घूमने-फिरने का, कभी-कभी बचपनी सी जिद करने का भी, सब कुछ करने का हक है. यह सब करता हुआ वह अपने पूरे खुरदुरेपन के साथ भी भला लगता है, सुंदर लगता है. उसे जबरन अपने ऊपर कुछ ओढ़ने या अपने वजूद को छीलने-काटने की कोई जरूरत नहीं. समाज में प्रचलित नैतिकताओं की पोटली को भी बोझ की तरह सिर में ढोते रहने की जरूरत नहीं. बस आदमी होना काफी है. खून में बहती आदमियत काफी है अच्छा करवाने के लिए. हमारे समाज में नॉर्मल्सी (सामान्यता) की भी बड़ी कठोर परिभाषा है. उससे डिगते ही मानो आप जीने का हक खो देते हैं. ये कठोर परिभाषाएँ उनकी फिल्मों में चूर-चूर होती हैं और पटल पर दृश्यमान होता है एक आदमी जो बस अपने इंसान होने मात्र के कारण भरपूर जीने का हक रखता है. उसका यह अधिकार उसके देश, भाषा, धर्म, जाति, जेंडर, उम्र, किसी से न तय होता है न बाधित ही. अपने वास्तविक जीवन में भी इरफ़ान हमेशा वैसे ही सादे बने रहे. जमीन से पकड़ उनकी कभी ढीली नहीं हुई. वैसे ही दोस्तों के साथ फुटपाथ पर चाय पीना. पड़ौस के बच्चों के साथ फुटबाल खेलना. हमारे साहित्य के दायरे में ही कितने परिचित, मित्र लोग हैं जिनका इतने बड़े नायक के साथ सहज भाव से उठना-बैठना है.
साधारण जिंदगी के सौंदर्य का आख्यान रचने वाले इरफ़ान खान का जाना सिनेमा जगत का नहीं पूरे समाज की बहुत बड़ी क्षति है. जिसकी भरपाई नहीं हो सकती. अभी तो उन्होंने अपना राग पकड़ा था अभी तो उसमें कितना कुछ गाए जाना बाकी था. अभी तो कितनी आँखें बची थीं जिनसे उनका संवाद होना बचा था. जिन्हें आँखें पढ़ने का पाठ सीखना था उनसे. मगर मैं एक और कारण से भी दुख में हूँ. जब भी अपनी स्थिति के फायदे गिनती थी, तो उसमें से एक होता था. इरफ़ान खान का हम लोगों से चंद साल बड़ा होना. उनका आगे चलना. कितनी कुंठाएँ तोड़ी हैं उनकी फिल्मों ने हमारे भीतर की. हर रंग-रूप-उम्र में जीने का हौसला देती हुई फिल्मों ने इतनी मुलायमियत से प्रौढ़ प्रेम को परदे पर रंगा.
सोचती थी कि गरिमा से भरपूर जीते हुए बुढ़ापे का भी मुहावरा हमारे बूढ़े होने से बहुत पहले ही इरफ़ान अपनी फिल्मों में बना जाएंगे हमारे लिए और हम उनके प्याले से कुछ बूँदे ले कर बैठे-ठाले सीख लेंगे. पर इरफ़ान खान तो यह काम हमारे लिए ही छोड़ गये कि जीने की जो व्याकरण लिख के गया हूँ खुद गढ़ लो उससे हर उम्र की कोई जिंदा सार्थक कहानी.
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रश्मि रावत
लेखक-आलोचक
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