औपनिवेशिक भारत में स्त्रियों की समस्याओं की कई कोटियाँ थीं. इन समस्याओं को पितृसत्ता अपनी संकल्पनाओं के साथ दूर करने में लगा हुआ था तो स्त्रियाँ पितृ-व्यवस्था से लड़ते हुए एक ‘सुंदर दुनिया’ रचने में लगी हुयी थीं. जहाँ हिंदी प्रदेश में गोपाल देवी, सुरथकुमारी देवी, रामेश्वरी नेहरू, शारदाकुमारी देवी, यशोदा देवी अपने पत्रों के माध्यम से स्त्रियों को जागरूक कर रही थीं वहीँ पंजाब प्रांत में यही कार्य हरदेवी, हेमंतकुमारी चौधुरानी, सावित्री देवी, मोहिनी बीए आदि कर रही थीं.
इक्कीसवीं सदी विज्ञान और तकनीकी का युग है. आज तरह-तरह के शोध और आविष्कार हो रहे हैं. अमेरिकी वैज्ञानिकों ने कोरोना की भी वैक्सीन ईजाद कर ली है/कर लेगा.यह हम उन्नीसवीं या बीसवीं सदी के आरम्भ में सोच ही नहीं सकते थे. प्लेग, मलेरिया, हैज़ा, इन्फ्लुएंजा जैसी महामारियों से दुनिया जूझती थी और वैज्ञानिक हाथ पर हाथ धरे रह जाते थे.
औपनिवेशिक भारत में रोगों का इलाज़ पारंपरिक तरीके से होता था. यह जानना मजेदार है कि हिंदी पट्टी में बीमारियों के नाम पर अज्ञानता का साम्राज्य था. अधिकांश वैद्य ब्राह्मण समुदाय से होते थे. वे मंत्रों द्वारा रोगियों का इलाज़ करते थे और जनता को ख़ूब ठगते थे. हैज़ा से बचने के लिए ‘महारामायण : विशूचिका आख्यान’ और बुख़ार को खत्म करने के लिए ‘ज्वर स्तोत्र’ जैसी पुस्तिकाएं लिखी गयीं.
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(हेमंतकुमारी चौधुरानी) |
‘चंद्रप्रभा’ जैसी पत्रिकाओं में मलेरिया-मंत्र भी मिलते हैं. भारतेंदु हैज़े से बचने के लिए जंतर पहनने को कारगर मानते थे. महावीरप्रसाद द्विवेदी ने ‘प्लेगस्तवराज’ की आरम्भिक और अंतिम पंक्तियाँ संस्कृत में लिखीं. बम्बई के प्रसिद्ध डाक्टर गोपीनाथ कृष्णजी की दवाईओं का एक विज्ञापन देखने से पता चलता है कि उनके पास बुखार, बवासीर, सुज़ाक, सफ़ेद कोढ़, हैज़े की दवाइयां उपलब्ध हैं लेकिन प्लेग-मलेरिया की नहीं. (अबलाहितकारक, मार्च 1902, अंक 11 : वर्ष 1).
देश और समाज की चिंता करने वाले बुद्धिजीवी जनता को सही तथ्यों से अवगत कराने के साथ ही महामारी सम्बन्धी अनेक भ्रमों से भी बचाते थे. वे भारतेंदु की तरह सलाह देने से बचते थे. ‘प्लेग से बचने के उपाय’ शीर्षक एक टिप्पणी में बिजनौर के श्रोत्रिय शंकरलाल बताते हैं कि नीम के पत्तों को जलाने से ताऊन नहीं होता. अपने गाँव का उदाहरण देते हुए वे लिखते हैं :
“मेरे गाँव में सन् 1900 में प्लेग आरम्भ हुआ और लगभग सौ मनुष्य मरे तब गाँव वालों ने अपने अपने घरों के कोने में बहुत कर के नीम के पत्तों को जलाना प्रारम्भ कर दिया. इसका परिणाम यह हुआ कि प्लेग वहां से दूर हो गया. जिन घरों में प्लेग हुआ था उन के दरवाज़ों और ज़मीन पर भी नीम की डालियाँ लटकाईं गईं. यह अवश्य ध्यान देने योग्य है क्योंकि इसको निर्धन मनुष्य भी कर सक्ते हैं.’’
(अबलाहितकारक, मार्च 1905, अंक 1 : वर्ष 2).
आगे ‘राजपूताना अखबार’ में छपे एक नुस्ख़े को उद्धृत कर निर्धन मनुष्यों को प्लेग से बचने का एक और उपाय वे बताते हैं :
“ताज़ा और मुलायम नीम के पत्ते डेढ़ पाव पीस कर और एक बोतल पानी मिलाकर ठंढाई की तरह तैयार कर लें और घंटे घंटे बाद पिलायें जब तक कि बुखार कम न हो जावे. गिलटी पर जोंक लगवा कर नीम का भुरता बांधे. अगर जोंक न लगा सके तो लहसुन पीस कर उसकी टिकिया बना कर गिल्टी पर लगावे. एक घंटे बाद लहसुन की टिकिया उतार कर फिर नीम का भुरता बांधे. भुरते को आध आध घंटे में बदलते रहै हवा न लगने पावे. जब गिल्टी कम रहे तो टिंकचर आईडिंग का फाहा लगावे. ताऊन के दिनों में जो नीम की ताजी तीन पत्तियां रोज खाई जावें तो उन लोगों पर ताऊन का असर न होगा.\”
इतना लम्बा उद्धरण यहाँ इसलिए कि श्रोत्रिय शंकरलाल आम जनता को नीम-हकीमों और भारतेंदु जैसों से बचा रहे थे. दरअसल ताऊन कैसे फैलता है– इसके बारे में लोग कम जानते थे. शंकरलाल ने ‘चूहों की जूं से ताऊन होता है’ शीर्षक लेख में विस्तार से प्लेग के बारे में बताया है. मद्रास के सेनीटरी कमिश्नर ने अपने एक व्याख्यान में बताया कि “तारकोल में गन्धक मिलाकर चुहों के सुराख में छोड़ दिया जाय उसकी बू से चूहे भाग जाते हैं यह मैंने परीक्षा की है.”
(अबलाहितकारक, जुलाई 1903, अंक 3 : वर्ष 2).
बिहार गवर्नमेंट के सेनिटरी कमिश्नर ने नीम की पत्तियों का प्रयोग करने का सुझाव दिया. गदाधर प्रसाद ने ‘चूहेनामा’ (स्त्री-दर्पण, दिसंबर 1910) कविता में चूहों को भगाने का चित्रण किया है.
औपनिवेशिक भारत में महामारियों के कहर को पढ़कर रोंगटे खड़े हो जाते हैं. 1911 की मर्दुमशुमारी की रिपोर्ट देखने से पता चलता है कि महामारियां देश की आबादी में कमी का कारण होती थीं. श्रोत्रिय शंकरलाल ने प्लेग सम्बन्धी अपने लेखों में एक जगह लिखा है कि ‘प्लेग से प्रलय का भय’ है.
शंकरलाल ‘बाल विधवा प्रचारिणी सभा, बिजनौर’ के प्रधान थे. विधवा-विवाह के पक्ष में उन्होंने ‘अबलाहितकारक’ नामक एक क्रांतिकारी पत्र निकाला था. वे दलील दिया करते थे कि विधवाओं की दयनीय स्थिति के कारण ही भारत में महामारियां आती हैं. बम्बई के एक चालीस वर्षीय कोढ़ी काठियावाड़ी ब्राह्मण ने एक तेरह वर्षीया कन्या के माँ-बाप को पाँच सौ रुपये देकर कन्या से विवाह कर लिया. कोढ़ी के हाथों एक कन्या का बेचा जाना शंकरलाल को रुला गया. उन्होंने लिखा:
“इन्हीं घोर पापों से तो प्रतिदिन ताऊन भोंचाल आदि शिर पर बने रहते हैं कि जिनमें लाखों हिन्दुस्तानी बेमौत मरते हैं.”
(अबलाहितकारक, जून 1905, अंक 6 : वर्ष 4).
श्रोत्रिय शंकरलाल ने 1897 से 1903 ई. तक भारत में प्लेग से मरने वालों का एक आंकड़ा दिया है:
सन् प्लेग से मरने वालों की संख्या
1897 56000
1898 187000
1899 135000
1900 193000
1901 274000
1902 577000
1903 ई. के जनवरी, फरवरी, मार्च माह में प्लेग से 331000 लोग मरे. पंजाब प्रांत में मरने वालों की संख्या सर्वाधिक थी. आंकड़ा देने के बाद वे लिखते हैं :
“जब तक हम लोग उस दयालू न्यायकारी सर्वपालक पिता से डर कर अनाथ और बिधवाओं के प्रति अपने कर्तव्य का पालन नहीं करेंगे तब तक कभी सुख और शान्ति के भागी नहीं बन सकते.”
(अबलाहितकारक, मई 1903, अंक 1 : वर्ष 2).
कम होती हिन्दू जनसंख्या की तरफ़ इशारा करते हुए शंकरलाल हिन्दुओं से निवेदन करते हैं कि वे विधवा-विवाह के लिए आगे आएं. गणितीय शैली में समझाते हुए कहते हैं :
“यदि प्लेग हमारे देश में बना ही रहा और ऐसे ही मृत्यु हरसाल होती रही विधवा विवाह प्रचलित न हुवा और पैदायश घटती गई क्योंकि यदि एक स्त्री अपनी जिन्दगी भर में, कम से कम 10 बच्चे उत्पन्न करती तो विधवा हो जाने से वह वैसे ही रह जाती है, ऐसी हालत में पैदायश प्रतिवर्ष घटती ही जाती है तब अवश्य एक न एक दिन थोड़े ही वर्षों में इस देश की क्या दशा होगी कितने पुरुष इस महा विकराल रूपी प्लेग के पंजे से जीवित रहेंगे बुद्धिमान पुरुष स्वयं विचार लें.”
इन तर्कों से हिन्दू सुधारक कहाँ तक प्रभावित हुए, यह शोध का विषय है.
शिक्षा का घोर अभाव, परदा-प्रथा आदि कारणों से स्त्रियाँ महामारियों में पिस जाती थीं. लाहौर से प्रकाशित होने वाली ‘चान्द’ पत्रिका में संपादिका मोहिनी बीए ने 1911 ई. में आज़मगढ़ में फैले प्लेग पर एक ‘नोट्स’ लिखा है. वह नोट्स मैं यहाँ हू-ब-हू दे रहा हूँ ताकि परदे से होने वाली हानियों को एक अन्य नज़रिए से भी समझा जा सके –
“संयुक्त प्रान्त के जिला आज़मगढ़ में इस साल प्लेग का बड़ा जोर रहा. लोग अपने आराम के मकान छोड़ छोड़ कर जंगलों में ख़ेमे और टटयां लगा कर मुसीबत में पड़े हुए हैं. मार्च के महीने में वहां गरमी भी ज़्यादा पड़ने लग पड़ती है और किसी किसी वक्त आंय्यां भी चलती हैं. इसी फ़िस्म की फूंस की टटयों में जो एक दूसरे से लगी हुई थीं चार खानदान के लोग ठहरे हुए थे जिन में से एक शेख़ तफजुल हुसैन साहिब वकील आज़मगढ़ थे. वकील साहिब कचहरी में थे कि दिन बारह बजे इन टटयो में आग लगी. एक शोर सा मिच गया. कुवां कोई क़रीब न था बसती भी दूर थी. देखते के देखते आग के शोले आसमान को पौंहचे. कई टटयों में से औरतें चादरें ओढ़ ओढ़ कर निकल आई और इधर उधर चली गईं. मगर वकील साहिब की टट्टी में से जिसमें आठ ओरतें थीं सिर्फ़ एक लड़की और दो बच्चे निकल के भागे, बाकी छै औरतें अन्दर रहीं. उन में से बाज़ की गोदों में बच्चे भी थे. वह बेचारयां गोद में बच्चों को लिए हुए निकलने के लिए दरवाज़े की तरफ़ आती थीं और मरदों का सामना पाकर फिर उसी आग की तरफ उलटी चली जाती थीं. लोग आवाज़ें दे रहे थे कि बाहर भाग आओ मगर यह नहीं सोचते थे कि हम सामने खड़े हैं और इस लिए वह बाहर निकलने से झिझकती हैं. सुना है कि मर्द शायद हटे भी और औरतें निकलने का ख्याल कर ही रही थीं कि एक जलती हुई मोटी कड़ी ऊपर से गिरी और उस ने इन सब को एक दम में जला दिया. अफ़सोस.
हमे ज़्यादा अफ़सोस इस बात का है कि बाज़ अख़बारों ने उन के इस परदे की तारीफ़ की और इन औरतों के चलन को आदर्श ठहराया. आग लगे ऐसे परदे को जिस से भोले भाले बच्चों और शरीफ़ घराने की औरतों की जान जाए. बहनें यह न समझें कि परदे की इस क़िस्म की खराबयाँ मुसलमानों में ही होती हैं. हमने सुना है कि बाज़ हिन्दू बहनें भी इसी तरह घर की ऐसी ही झूटी लाज रखने के लिए दुन्या से चल बसी हैं.”
(चान्द, मई 1911, भाग 3 : नम्बर 3).
यहाँ मोहिनी बीए ने परदा-प्रथा का विरोध किया है. यह उस दौर की भयंकर बुराईयों में से एक थी लेकिन अंग्रेजी शिक्षा के चलते इस पर करारा प्रहार भी किया जा रहा था :
“सिखाय नाहीं देत्यो पढ़ाई नाहीं देत्यो
सैया फिरंगिन बनाय नाहीं देत्यो
लहंगा दुपट्टा नीक न लागे
मेमन का गौन मंगाय नाहीं देत्यो?”
घर छोड़कर भागने में अभिजात स्त्रियों के सामने तमाम तरह के सामाजिक संकट खड़े हो जाते थे. उन्हें अपनी पूरी गृहस्थी छोड़कर आना पड़ता था और सदैव मृत्यु तथा अराज़क तत्वों का भय बना रहता था. 1905 ई. बिजनौर शहर में जब प्लेग फैला तो वहां के लोग भी भाग कर मैदान की शरण लिए. श्रोत्रिय शंकरलाल लिखते हैं :
“अब यहाँ भी प्लेग शुरू हो गया यद्यपि दो चार ही मृत्यु होती है परन्तु घबराहट बहुत है और विशेषकर हिन्दुओं में जिनका यह विश्वास है कि मृत्यु के बिना भी पुरुष मर जाता है इस कारण वह प्लेग से मरे हुवे पुरुष के पास तक नहीं जाते परन्तु मुसलमानों में इसके बिल्कुल विरुद्ध देखा, एक ताऊन से मरे हुवे मुर्दे के जनाजे के पास सैकड़ों मुसलमान नमाज़ पढ़ रहे थे इन्हीं बातों से तो इनमें हमदर्दी है क्या हिन्दू भी कभी इनसे हमदर्दी का सबक सीखेंगे.” आगे लिखते हैं:
“यहाँ के कई प्रतिष्ठित पुरुषों ने मकान में मरा चूहा निकलने के कारण प्लेग के भय से अपना अपना मकान छोड़ कर मैदान में डेरा किया है, इसी से शहर में अधिक घबराहट फैलकर लोग भाग रहे हैं ईश्वर कुशल करे, कहीं मैदान में रहने वालों की झोपड़ी में भी चूहा न मरे नहीं तो वहां से भी भागने का कष्ट उठाना पड़ेगा.”
(अबलाहितकारक, मार्च 1905, अंक 1 : वर्ष 2).
मथुरा के महेन्द्रलाल शर्मा ‘स्त्रियां और प्लेग’ शीर्षक लेख में बताते हैं कि प्लेग से पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियां अधिक मरती हैं क्योंकि घरों में मरे हुए चूहों को पहले स्त्रियां ही देखती हैं और मरे हुए चूहों को, बिना किसी से बताये, घर के बाहर फेंक आती हैं. महेंद्र जी के अनुसार-
“फल यह होता है कि स्त्रियां एकदम बीमार हो जाती हैं. उन की जांघ में जो गिलटी निकलती है अथवा बगल में उठती है उसे वे पुरुषों को देखने, सेकने अथवा चीरने नहीं देतीं.”
(स्त्री-दर्पण, जुलाई 1910, भाग 3 : अंक 1).
महेन्द्रलाल शर्मा स्त्रियों को सावधान करते हैं कि जब घर में चूहे मरें तो घर में आना-जाना बंद कर दें. हाथों में पहले मिट्टी का तेल लगाकर चूहों को बाहर फेंकें और चूहों के ऊपर मिट्टी का तेल डालकर जला दें. घर में ओढ़ने-बिछाने व पहनने के जो भी कपड़े हों, उन्हें धूप में डालें. उनका सबसे महत्त्वपूर्ण सुझाव यह है कि जब प्लेग फैले तो घर छोड़कर स्त्रियों को झोपड़ी या डेरों में रहना चाहिए.
(दो)
आज से सौ साल पहले आई स्पैनिश फ्लू के आतंक को भी नवजागरणकालीन संपादकों ने अपनी पत्रिकाओं में दर्ज़ किया है. ‘स्त्री-दर्पण’ की संपादिका रामेश्वरी देवी नेहरू ‘श्लेष्माज्वर, समरज्वर, इनफ्लूएनज़ा’ शीर्षक सम्पादकीय में फ्लू का पूरा इतिहास बताने का प्रयास करती हैं. वह लिखती हैं-
“हमारी पाठिकाएं अब इन नामों से भली प्रकार जानकार हो गयी होंगी. जिस भयंकर ज्वर रोग से भारत का नाश हो रहा है, अभी इस प्रांत में कुछ ही दिन पहले जिसने कराल लीला का महाप्रलय कर दिखाया था, और जो इस समय बंगाल में वही लीला खेलने लगा है, वही समरज्वर, इनफ्लूएनज़ा आदि नामों से प्रसिद्ध हो गया है. पर इस रोग का निदान क्या है, इसका जन्म कहां और कैसे हुआ, सब लोग अभी संभवतः नहीं जानते होंगे. अच्छा, उसी को सुनिए. योरप में एक मुल्क है स्पेन. उसकी राजधानी का नाम मैड्रिड है. मैड्रिड नगर में जर्मन लोगों ने एक बहुत बड़ा परीक्षा-मंदिर बनाया था. वहां विज्ञान जानने वाले पंडित लोग वैज्ञानिक चर्चा और परीक्षाएं किया करते थे. इन लोगों को न्यूमोनिया और इनफ्लूएनज़ा यानी श्लेष्माज्वर के बीज रखने वाले जीवानुओं यानी कीड़ों का आविष्कार करने के लिए आज्ञा मिली थी. ये जीवानु जब आविष्कृत हो गए तो उनको अमेरिका के जहाज़ी बन्दरों में छोड़ देने का प्रबंध होने लगा. यदि यह कार्य किया जा सकता तो अमरीकन जहाज़ों के मल्लाह और कर्मचारी लोग इस बीमारी से धड़ाधड़ बीमार हो हो कर मरने लगते और जहाज़ ले लेकर योरप में न आने पाते, न आज अमेरिकन सेना के रणभूमि में आ धमकने के कारण जर्मनों की ऐसी बुरी तरह से अनायास हार हो सकती. पर हुआ कुछ और ही. विज्ञानबाज़ पंडितों में आपस ही में कुछ तकरार हो गयी और उस तकरार का फल यह हुआ कि ज्वर के जीवानु मैड्रिड नगर में ही फूट निकले. तब स्पेन राज्य भर में यह भयंकर ज्वर फ़ैल गया और वहीँ से समरभूमि में जा पहुंचा. वहां जो जो सिपाही बीमार होने लगे, वे इसे अपने संग भारतवर्ष में ले आये. अब उन्हीं जर्मन पंडितों की पंडिताई भारतवर्ष के घर घर में रोना पीटना मचा रही है. कैसी अंधेर हो गयी! किसी ज्ञानी का कहना है कि असुरों का सा बलवान होना अच्छी बात है, परन्तु उस बल से काम लेना उचित नहीं. यह कथन बहुत ठीक है. वह विद्या कैसी जो नाश करने वाली हो? विद्वान् ही हुए तो संसार का भला करो. परन्तु आज कल तो विद्वान् भी बहुधा अपना भला करने की युगत सोचते सोचते संसार को नाश करने के कारण बन जाते हैं.”
(स्त्री-दर्पण, जनवरी 1919, भाग 20 : अंक 1).
यहाँ रामेश्वरी नेहरू ने यूरोप के ज्ञान पर सवाल उठाया है. विज्ञान के दुरूपयोग के चलते ही सम्पूर्ण विश्व आज संकट में है.
युद्ध पर रोक लगने के कारण फ्रांस ने बारह लाख सैनिकों को छुट्टी दे दी थी. भारतीय सैनिक लौटने लगे थे. भारत की हालत ख़राब होती जा रही थी. रामेश्वरी देवी नेहरू दुखी मन से लिखती हैं- “इस समय भारत की दशा बहुत ही अनोखी हो रही है…रोगों के कारण यहाँ की प्रजा को अपार दुःख भोगने पड़ रहे हैं…रोग की ज्वाला दिन दिन बढ़ती जाती है, दवादारू और स्वास्थ्य वृद्धि के साधन भी दुर्लभ हो रहे हैं.”
(स्त्री-दर्पण, फरवरी 1919, भाग 20 : अंक 2).
1918 ई. की ‘सफ़ाई महकमें की रिपोर्ट’ से पता चलता है कि इन्फ्लुएंजा और ज्वर से भारत में बत्तीस लाख मनुष्य काल के गाल में समा गए थे. उपनिवेश में महामारी से मरती हुई जनता को राम भरोसे छोड़ दिया जाता था. स्वास्थ्य-प्रबंधन के नाम पर खानापूर्ति की जाती थी. महामारी के आगमन की आशंका से सरकारी अफ़सर नागरिकों को सिर्फ़ सचेत कर देते थे कि
“मकान साफ़ रक्खो, भीड़ में मत धँसो, मेले ठेले में मत जाओ, नमक मिले हुए पानी से कुल्ले करो, उसकी बतलाई हुयी दवाएं पानी में घोलकर उस पानी को नाक से सुड़को.”
(सरस्वती, सितम्बर 1919, भाग 20 : संख्या 3).
दिसम्बर 1918 की ‘सरस्वती’ में एक लेख ‘खाँसी बुखार वाली मरी या इन्फ़्लूएन्ज़ा या मारवाड़ी ज्वर (Pendemic Influenza)’ शीर्षक से छपा है. मुझे इस शीर्षक को देखकर स्त्री-दर्पण का शीर्षक याद आया जिसमें मरी जैसे शब्दों से परहेज़ किया गया है. भारतीय मानस महामारियों को भूत, पिशाच, राक्षस, असुर, सैय्यद, जिन्न, मरी आदि के रूप में ही देखने की आदी रही है. आजकल भारत में कोरोना के साथ भी कुछ ऐसा ही हो रहा है.
(तीन)
चूँकि महामारियों से स्त्रियां ही ज्यादा मरती थीं तो यहाँ यह देखने की जरूरत है कि तमाम बीमारियों से लड़ने के लिए भारत की बौद्धिक औरतें क्या योजना बना रही थीं?
पहली बात यह कि लड़कियों के लिए कोई मेडिकल कॉलेज नहीं था. वह मर्दों के कॉलेज में ही पढ़ती थीं. अत: दिल्ली स्थित लेडी हार्डिंग मेडिकल कॉलेज जब खुला तो स्त्री समाज ने खुशियाँ प्रकट कीं. दिल्ली के रईस सरदार नारायणसिंह बहादुर ने हार्डिंग कॉलेज को पच्चीस हज़ार रुपये इसलिए दिए ताकि सिख लड़कियां डाक्टरी की शिक्षा पा सकें.
यह सब अचानक नहीं हो गया. भारतीय महिलाएं इसके लिए जी-जान से लगी हुयी थीं. 1917 ई. में महिलाओं का एक प्रतिनिधि मंडल जब मान्टेगू से मिला तो उनसे विनम्र निवेदन किया गया कि भारत में मेडिकल कॉलेजों की संख्या बढ़ाई जाय.
(स्त्री-दर्पण, दिसम्बर 1917, भाग 10 : अंक 6).
मेडिकल कॉलेजों की संख्या क्यों बढ़ाई जाय, इसे हम मोहिनी बीए की निम्न बातों से समझ सकते हैं. वह लिखती हैं :
“हिन्दोस्तान में आजकल लेडी डाक्टरों की बड़ी जरूरत है. विलायती मेम डाक्टर अव्वल तो हैं थोड़ी और जो हैं भी वह कुछ हमारी देशी बहनों के लिये इतनी मुफ़ीद नहीं, क्यूंकि न तो वह अच्छी तरह से हमारी ज़बान जानती हैं, और न वह हमारी रसमों रिवाज़ से अच्छी तरह वाकिफ़ होती हैं और फिर देशी बीमारों की गौर कम करती हैं. कुछ परदे की वजह से और कुछ हिंदु बहिनों की स्वभाविक लज्जा के कारण हिन्दोस्तानी औरतें मर्द डाक्टरों से इलाज़ कराना मुनासिब नहीं समझतीं. और इसमें भी शक नहीं हो सकता कि बाज़ी बीमारियाँ ही ऐसी हैं जो एक स्त्री स्त्री को ही खुल कर बता सकती है.”
(चान्द, सितम्बर-अक्टूबर 1912, भाग 4 : नम्बर 7-8).
विलायती डाक्टरनियों के बीच जब यह बहस छिड़ी कि भारत में डाक्टरनियों की कमी को पूरा करने के लिए विलायत से डाक्टरनियाँ बुलाई जायं तो मोहिनी बीए ने उनका पुरजोर विरोध किया और कहा कि इससे रुपया ज्यादा ख़र्च होगा. अत: यहाँ की औरतों को ही डाक्टरनियों का काम सिखाया जाय.
1909 ई. में आगरा मेडिकल कॉलेज (स्थापित : 1855 ई.) में जहाँ 270 लड़के पंजीकृत थे वहीँ लड़कियों की संख्या 68 थी. एक बार मेडिकल में प्रवेश पा जाने के बाद लड़कियाँ खूब परिश्रम करती थीं क्योंकि तत्कालीन समाज में यह माना जाता था कि गणित-विज्ञान जैसे विषयों में लड़कियां कमजोर होती हैं. उनका मस्तिष्क इन्हें झेल नहीं सकता. कस्बाई या ग्रामीण अभिभावक इन विषयों को तो स्कूल में पढ़ने ही नहीं देते थे. किन्तु शकुंतला जैसी लड़कियां पितृसत्ता की इस मानसिकता पर प्रहार भी कर रही थीं :
“मेडीकल स्कूल आगरा की अन्तिम डाक्टरी परीक्षा में शकुंतला नाम की छात्रा सब लड़कों व लड़कियों में प्रथम आईं हैं. इनके 1200 नम्बरों में 1166 आये हैं. लड़कों में जो प्रथम परीक्षोत्तीर्ण हुए हैं उनके 804 आये हैं. प्रथम नम्बर के छात्र से 362 नम्बर इनके अधिक हैं. क्या अब भी कोई कह सकते हैं कि विद्या-बुद्धि में स्त्रियां पुरुषों की समानता नहीं कर सकती!”
(स्वदेश-बान्धव, वैशाख सं. 1976, भाग 14 : संख्या 13).
यह स्त्रियों का दबाव ही था कि जालंधर स्थित कन्या महाविद्यालय की तरह अन्य कन्या गुरुकुलों में प्राथमिक चिकित्सा अनिवार्य कर दिया गया. इसे समाज सुधारकों ने भी जरूरी समझा था.
हेमंतकुमारी देवी चौधुरानी का सामाजिक और लेखन कार्य तत्कालीन सुधारकों से भिन्न रहा है. जब वह शिलांग में थीं तो वहाँ स्त्रियों की चिकित्सा का कोई प्रबंध नहीं था. अत: तमाम स्त्रियाँ बगैर चिकित्सा के ही मर जाती थीं. हेमंत दुखी होकर असम के चीफ़ कमिश्नर की पत्नी के पास जाकर उनसे अनुनय-विनय करती हैं. उनके पृथक महिला अस्पताल की मांग सुनकर स्थानीय डाक्टरों और अँगरेज़ अफसरों ने ज़बर्दस्त विरोध किया. सर हेनरी काटन ने उनके प्रस्ताव पर गहन सोच-विचार किया. अंतत: काटन ने एक लेडी डॉक्टर नियुक्त कर पृथक महिला अस्पताल खोलने की अनुमति दी.
हेमंतकुमारी ने पंजाब में स्त्री-शिक्षा के लिए ‘नारी-सभा’ की स्थापना की थी. इसके साथ ही “बीबी हरदेवी जी (जो अब मिसेस रोशनलाल हैं) के साथ मिलकर कायस्थ नारी जाति की उन्नति के लिए वनिता बुद्धि प्रकाशिनी सभा भी कायम की थी.” हेमंत ने रतलाम से 1887 ई. में ‘सुगृहिणी’ नामक एक मासिक पत्रिका निकली थी. संभवतः किसी स्त्री द्वारा सम्पादित यह प्रथम हिंदी पत्रिका है.
निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि औपनिवेशिक भारत के नागरिक अपने हौसले और ज़ज्बे से महामारियों से जूझ रहे थे. सरकार की नज़र में उनके प्राणों की कोई कीमत नहीं थी. ज्ञान-विज्ञान से हीन स्त्रियाँ कटोरा लेकर अपने लिए शिक्षा रूपी भीख मांग रही थीं. उनके संघर्ष के रास्ते में अनेक कांटे थे. वे तमाम कुरीतियों-कुप्रथाओं से लड़ते हुए चिकित्सा जैसी बुनियादी हक़ के लिए औपनिवेशिक सत्ता से टकरा रही थीं. वह सरकार को याद दिला रही थीं कि भारतीय भी हाड़-मांस से बने आप ही की तरह इंसान हैं. अत: महामारियों से मरने वालों की संख्या पर ध्यान दीजिए और हमें मरने से बचाइए :
“हिन्दोस्तान की सब से बड़ी बला मलेरिया (मौसमी बुख़ार) है जैसे कि इंगलिस्तान की बला तपेदिक. प्लेग और हैज़े से डर बेशक ज़्यादा लगता है क्यूंकि इनसे आदमी मर जलदी जाता है लेकिन मलेरिया से आदमी मरते ज्यादा हैं. हर साल दस लाख आदमी हिन्दोस्तान में मलेरिया से मर जाते हैं.”
(चान्द, मई 1910, भाग 2 : नम्बर 3).