आशुतोष भारद्वाज
उपन्यास एक त्रासद विधा है. त्रासदी इसके जन्म से ही निर्धारित हो गयी थी. यह साहित्य की सबसे युवा विधा है, कविता मसलन उपन्यास से करीब डेढ़-दो हजार साल उम्रदराज है, लेकिन फिर भी सबसे अधिक अपेक्षाएँ उपन्यास से ही हैं. आधुनिक युग का महाकाव्य और गद्य का निकष इसे ही होना है. यही अपेक्षाएं इसे दुनिया भर के उलाहने और तंज भी हासिल कराती आयीं हैं. तक़रीबन सौ वर्षों से उपन्यास की मृत्यु की घोषणा होती रहीं हैं लेकिन हस्ती इसकी ऐसी है कि मिटती नहीं, जो इसे कोसता है इसके ही पन्नों में पनाह पाता है. मसलन १९३६ में किसी ने लिखा:
“इस समय उपन्यास की प्रतिष्ठा बहुत कम है, इतनी कम कि ‘मैंने कभी उपन्यास नहीं पढ़ा’ जैसा वाक्य जो सिर्फ एक दशक पहले अक्सर थोड़े क्षमा-भाव से बोला जाता था, आज बड़े गर्व से कहा जाता है.”
इस विभूति ने यह भी लिखा कि
“अगर श्रेष्ठतम साहित्यिक प्रतिभाएं उपन्यास पर नहीं लौटती हैं” तो “उपन्यास एक आधुनिक मकबरे की तरह बचा रह जायेगा”.
दिलचस्प है कि यह लेखक उपरोक्त घोषणा करने के पंद्रह बरसों के भीतर एनिमल फॉर्म और 1984 लिख देता है.
साहित्य के गढ़ भी उपन्यास के पक्ष में झुके दिखाई देते हैं. बुकर तो है ही, पिछले कुछ वर्षों में स्थापित हुए अनेक महँगे सम्मान (तक़रीबन ५० लाख का डीएससी अवार्ड, २५ लाख का जेसीबी सम्मान) उपन्यास को दिए जाते हैं. इन अपेक्षाओं और प्रकाशकीय संस्थानों द्वारा मिलती आयी वरीयता के बीज इसकी वैचारिक सत्ता में देखे जा सकते हैं.
आलोचना में यह लगभग सर्वमान्य है कि उपन्यास की वैचारिक सत्ता के दो प्रमुख स्रोत हैं. पहला, इसका जन्म आधुनिकता की कोख से हुआ है, आधुनिक विचारधारा ने इसे सींचा है, उपन्यास आधुनिकता का प्रहरी है, इसका ध्वजवाहक है. दूसरा, यह ऐसी सृष्टि का महाकाव्य है जिसे ईश्वर ने त्याग दिया है. ईश्वर की मृत्यु के बाद उपन्यास का जन्म हुआ है. जैसाकि जॉर्ज लूकाच ने कहा था कि
“दुनिया के पहले महान उपन्यास ने उस दिन जन्म लिया था जब ईसाई ईश्वर ने दुनिया को छोड़ दिया था. मनुष्य अकेला था, उसका घर कहीं नहीं था, वह अपने जीवन के अर्थ और तत्व ख़ुद अपनी ही आत्मा में हासिल कर सकता था.”
पश्चिम में लूकाच से लेकर हिंदी में मदन सोनी तक तमाम आलोचक उपन्यास की इस वैचारिक सत्ता को स्वीकारते हैं. हिंदी उपन्यास की सीमाओं को रेखांकित करते हुए मदन सोनी यह भी लिखते हैं कि यूरोपीय उपन्यास इसलिए महान है क्योंकि इस उपन्यास के लिए धर्म और ईश्वर “सबसे बड़े प्रतिपक्ष” रहे हैं, ईश्वर के विरोध में इसने खुद को रचा है. हिंदी उपन्यास इसलिए कमज़ोर है क्योंकि “भारतीय धर्म और संस्कृति की पेगन अन्तश्चेतना हमारे यहाँ उपन्यास को इस अनिवार्य काउण्टर प्वाइण्ट से वंचित करती है”.
यह प्रस्तावनाएँ सिर्फ़ आंशिक तौर पर सही हैं. इस वैचारिक सत्ता को संशयग्रस्त बनाने की, इस पर प्रश्न करने की जरुरत है. यह निबंध प्रस्तावित करना चाहता है कि उपन्यास का आधुनिकता के साथ बड़ा जटिल सम्बंध रहा है, इसने अक्सर आधुनिक मूल्यों को उतार ‘ग़ैर-आधुनिक’ विचारों को धारण किया है, आधुनिकता से दूर जाकर अपने मकान और मुक़ाम बनाए हैं. उपन्यास आधुनिकता का ध्वजवाहक ही नहीं है, कई जगहों पर उसका प्रतिपक्ष भी है. इसी तरह ईश्वर उपन्यास का अनिवार्य विलोम नहीं है. इसने कई मर्तबा ईश्वरीय आस्था के समक्ष समर्पण किया है, अपने पृष्ठों में ईश्वर का पुनर्वास भी किया है. अगर ईश्वर की मृत्यु को ले घोषणा हुई हैं तो उपन्यास में उसका पुनरुत्थान भी होता रहा है.
लेकिन अपने तर्क के प्रमाण देने से पहले उस विभूति को याद करूँगा जिनकी स्मृति में यह आयोजन हो रहा है. नेमिजी हिंदी उपन्यास के गंभीर पाठक थे. हिंदी उपन्यास को लेकर उनकी फ़िक्र बहुत गहरी थी. वह तमाम मशहूर उपन्यासों और उपन्यासकारों से ख़ासा असंतुष्ट रहते थे, उनका काम उन्हें कमज़ोर लगता था, जो उनके अनुसार उपन्यास विधा में कोई ख़ास योगदान नहीं देता था. वह उपन्यास विधा से एक ख़ास अपेक्षा रखते थे.
राग दरबारी पिछले पचास वर्षों का बड़ा महत्वपूर्ण उपन्यास माना जाता है. नेमिजी को यह बहुत कमज़ोर लगता था. उन्होंने इस पर एक निबंध लिखा— ‘असंतोष का खटराग’. वे लिखते हैं कि राग दरबारी का “तथाकथित व्यंग्य” “सतही तड़क-भड़क और टीम-टाम का प्रमाण”है, क्योंकि इसकी “व्यंग्य-शैली रेखाचित्रों या‘बैठे-ठाले’ जैसे पत्रकारीय स्तंभों के लिए अधिक उपयुक्त है.” “यदि आपको समकालीन भारतीय जीवन के किसी गहरे अंतर्द्वन्द्व की, परस्पर–विरोधी स्थितियों में किसी विस्फोटक टकराहट की तलाश या अपेक्षा हो तो वह इसमें नहीं मिलेगी.”
वह कृष्णा सोबती के उपन्यासों को भी नापसंद करते थे. उन्होंने एक निबंध में लिखा कि कृष्णा सोबती की
“भाषा दृष्टि बुनियादी तौर पर बाहरी है और वह तरह-तरह के नायाब और अजूबा तरीकों से उसे असरदार और चमकीली बनाने की कोशिश करतीं हैं.” “सूरजमुखी अंधरे के बुनियादी तौर पर चुस्ती और चमक-दमक का लेखकीय करिश्मा है, किसी गहरी विडंबना के साथ झकझोर देने वाला साक्षात्कार नहीं.”
हो सकता है इन उपन्यासकारों पर उनकी अवधारणा से कईयों को असहमति हो, लेकिन हिंदी उपन्यास की स्थिति पर उनके लिखे से शायद अनेक सहमत हो जाएँगे. वह अपने निबंध ‘संवेदना और रूपाकार का अंतर्विरोध’ में लिखते हैं —
“हिंदी उपन्यास के बारे में बहुत दिनों से यह मेरी धारणा रही है कि महाकाव्य या महागाथा के रूप में- मानवीय संबंधों और उन्हें निर्धारित, नियंत्रित, परिचालित करने वाली अंतर्धाराओं, व्यापक सामाजिक स्थितियों, मानसिकताओं के एक बहुमुखी, जटिल अंतर्ग्रथित प्रस्तुतीकरण के रूप में- वह कभी पूरी सफलता तक नहीं पहुँच पाता. किसी-न-किसी कारण से, अनुभव और उसके रूपायन की प्रक्रिया में से किसी एक में, या दोनों में कोई-न-कोई ऐसा अनियंत्रित तत्व चाहे-अनचाहे प्रवेश कर ही जाता है जिसके कारण जीवन का साक्षात्कार अधूरा रह जाता है. प्रगीतात्मक, छोटे फलक पर एक अत्यंत सीमित किन्तु सूक्ष्म और सार्थक अनुभव से सम्बंधित कुछ कृतियों को छोड़कर, बाकी सभी उपन्यासों की- गोदान से लगाकर राग दरबारी, तमस या जुगलबंदी तक, आज तक के हर हिंदी उपन्यास की — यही नियति रही है.”
यह बड़ी गहन अंतर्दृष्टि है. इसे थोड़ा आगे ले जाकर यह भी कह सकते हैं कि यह प्रस्तावना सिर्फ़ हिंदी नहीं गोरा जैसे कुछ अपवादों को छोड़कर शायद पिछले डेढ़ सौ वर्षों के समूचे भारतीय उपन्यास पर लागू हो सकती है. भारत के महानतम उपन्यास शायद अपनी प्रकृति में वही हैं जिसे नेमिजी प्रगीतात्मक कहते थे. नेमिजी उसका बचपन, वे दिन, आपका बंटी इत्यादि को इस श्रेणी में रखते थे. भारतीय भाषाओं के उत्कृष्टतम उपन्यास मसलन अनंतमूर्ति का भारतीपुर, फ़क़ीर मोहन सेनापति का छह बीघा ज़मीन, टैगोर का चोखेर बाली, उपमन्यु चटर्जी का इंग्लिश ऑगस्ट इत्यादि महागाथा नहीं हैं जो विराट राजनैतिक-सामाजिक परिदृश्य को थामती हों, बल्कि एक सीमित फलक की सघन कथाएँ हैं.
नेमिजी यह नहीं बताते कि महागाथा होने की आकांक्षा रखता हिंदी उपन्यास आख़िर क्यों उत्कर्ष तक नहीं पहुँच पाता, लेकिन इसकी वजह उपन्यास की वैचारिक सत्ता के प्रति उपन्यासकार और आलोचक के उस दृष्टिकोण में खोजी जा सकती है जिसका ज़िक्र मैंने शुरू में किया था- उपन्यास का आधुनिकता और ईश्वर के साथ सम्बंध.
सबसे पहले ईश्वर और आस्था. इसे हम सिर्फ़ अचंभे के साथ ही दर्ज कर सकते हैं कि लूकाच जब १९२० में ईश्वर की विदाई के साथ महान उपन्यास के उद्भव की घोषणा करते हैं तो एकदम अनदेखा कर देते हैं कि उनसे छह दशक पहले एक लेखक ईश्वर का पुनर्वास अपने उपन्यास में कर चुका था. दोस्तोयवेस्की का अपराध और दण्ड बाइबल के राइज़िंग अव लाज़रस प्रसंग पर टिका है जिसे सोनिया राश्कोलनिकोव को तहख़ाने में सुनाती हैं, जो दरअसल नायक के अस्तित्व का ही तलघर है. ‘अंडरग्राउंड’ का प्रश्नाकुल आधुनिक नायक दैवीय अनुकंपा को ग्रहण कर अपने अपराध को स्वीकार करता है. सोन्या का प्रेम कोई सेक्युलर प्रेम नहीं, विशुद्ध ईसाई प्रेम है, करुणा में सराबोर. पूरे छह पृष्ठों तक आस्थावान सोन्या आधुनिक नायक को बाइबल पढ़ कर सुनाती हैं, ईश्वर के अस्तित्व को स्थापित करती है. यह कोई निर्गुण ईश्वर नहीं, सगुण साकार ईसाई ईश्वर है.
ईश्वर ब्रदर्स करामजोव में भी उपस्थित है. इडीयट के नायक प्रिन्स मिश्किन को भी “ईसामसीह जैसी सफरिंग”के लिए याद किया जाता है. उपन्यास में ईश्वर की उपस्थिति दोस्तोयवेस्की तक सीमित नहीं है.
अपनी किताब एंटी-क्राइस्ट में नीत्शे रूसी उपन्यास की तुलना बाइबल के गॉस्पल से करते हैं. 1937का फ्रेंच उपन्यास डायरी अव अ कंट्री प्रीस्ट जिस पर रॉबर्ट ब्रेस्सों ने महान फ़िल्म बनायी ईश्वर में डूबा हुआ उपन्यास है. ऐसे उदाहरण तमाम हैं.
गौर करें यह पिछले चार-पाँच दशकों के द नेम अव द रोज़ या द गॉस्पल अव जीसस क्राइस्टजैसे उपन्यास नहीं हैं, जहाँ ईश्वर की उपस्थिति को एक उत्तर-आधुनिक चलन कह कर व्याख्यित किया जा सके. यह सभी यथार्थवादी ढाँचे में ख़ुद को कहते हुए उपन्यास हैं. द नेम अव द रोज़ तो ईश्वर के साथ बड़ा सार्थक संवाद करता है. यह तो शुरू ही बाइबल के वाक्य से होता है —
“आरम्भ में शब्द था और शब्द ईश्वर के साथ था, और शब्द ही ईश्वर था.”
यहाँ प्रश्न यह नहीं कि ईश्वर की जगह उपन्यास में होनी या नहीं होनी चाहिए, बल्कि सिर्फ़ यह कि उपन्यास की बहुत बड़ी ऐसी धारा भी रही है जिसने ईश्वर को स्थान दिया है. तमाम ऐसे उपन्यास हैं जिन पर यह घोषणा लागू नहीं होती कि उपन्यास एक ऐसे संसार का महाकाव्य है जिसे ईश्वर ने त्याग दिया है. यह सही है कि आधुनिक युग के रचनाकार का ईश्वर के साथ सम्बंध वह नहीं है जो भक्ति काल या पौराणिक युग में रहा है, लेकिन इसका यह अर्थ कतई नहीं कि आधुनिक कलाकार ने ईश्वर के साथ संवाद नहीं किया है. इन उपन्यासों में ईश्वर एक किरदार, कभी एक आस्था बतौर उपस्थित है.
इसलिए मदन सोनी जब कहते हैं कि हिंदी उपन्यास यूरोपीय उपन्यास के बरक्स इसलिए कमज़ोर रहा है कि इसने ईश्वरविहीनता को अपने भीतर हासिल नहीं किया तब वह अनदेखा कर देते हैं कि अंतिम अरण्य जैसे उपन्यास आस्थावान हो जाने की आकांक्षा से सिक्त हैं और इसने उन्हें लघुतर नहीं बनाया है. उपन्यास की कमज़ोरी के लिए ईश्वर को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता. उपन्यास की कमज़ोरी के बीज कहीं और हैं. यहाँ यह भी जोड़ना चाहिए कि अगर आलोचक या उपन्यासकार आस्था को हेय मान उसके साथ रचनात्मक संवाद नहीं करेंगे तो ईश्वर पर धर्मांध लोगों का क़ब्ज़ा हो जाएगा.
आधुनिकता को उपन्यास की वैचारिक सत्ता का दूसरा बीज माना जाता है लेकिन आधुनिकता जीवन के लिए भले हो, उपन्यास के लिए कोई अंतिम या पवित्र आदर्श नहीं है. उपन्यास इस आदर्श की भक्ति के लिए बाध्य नहीं है. उपन्यास का जन्म भले ही आधुनिक युग की कोख से हुआ था लेकिन इसने अनेक उत्तर-आधुनिकताएं और पूर्व-आधुनिकताएं रची हैं. आधुनिकता संशय, प्रश्न, संदेह को बड़ा मूल्य मानती है लेकिन इसके बावजूद कहीं न कहीं एक ऐब्सलूट ट्रूथ, एक विराट आख्यान को वरीयता देती है. आधुनिकता इतिहास और मिथक, ईश्वर और धर्मनिरपेक्षता, तर्क और आस्था के बीच श्रेणियाँ तय करती है. आधुनिकता जितनी सहिष्णु और उदार दिखना चाहती है, वैसी हमेशा है नहीं. तर्क, इतिहास और वैज्ञानिक बुद्धि के अश्वमेधी रथ पर चलती आधुनिकता बहुत ही कट्टर और क्रूर हो सकती है.
उपन्यास आधुनिकता की अतिवादिता और अतिरंजना को चुनौती देता है. पीछे मैंने अपराध और दंड का उदाहरण दिया था, ऐसा ही एक भारतीय उपन्यास है गोरा जो राष्ट्रवाद और आधुनिकता पर तत्कालीन बंगाल में चल रहे विमर्श की कथा है. नायक गोरा उग्र राष्ट्रवाद का ध्वजवाहक है. राष्ट्रवाद के जिस स्वरूप को गोरा आदर्श मानता है वह आधुनिकता की ही देन है. यह उपन्यास अतिपौरुषेय राष्ट्रीयता का प्रतिकार है जो राष्ट्रीय आंदोलन के आरम्भिक दशकों में उपज रही थी. सुचरिता और आनंदमयी आधुनिक युग की इस उग्रता में हस्तक्षेप कर भारतीयता का कहीं संश्लिष्ट और समन्वयकारी स्वरूप प्रस्तावित करती हैं.
उपन्यास आधुनिकता का प्रवक्ता नहीं, उसका अनिवार्य पूरक है, कई जगहों पर उसका प्रतिपक्ष है. जिन मूल्यों को आधुनिकता त्याज्य मान लेती है, जिन चीज़ों पर नैतिक निर्णय सुना इतिहास से परे धकेल देती है, उपन्यास उन मूल्यों और संवेदनाओं का अपनी काया में पुनर्वास करता है. उपन्यास का जन्म आधुनिकता की वकालत करने के लिए नहीं, उसे परखने, तराशने के लिए हुआ है. महान उपन्यास आस्था को हेय या त्याज्य मान नकारता नहीं, उसके साथ संवाद और संघर्ष करता है, संशय और आस्था, तर्क और समर्पण के द्वंद्व को साधता है.
आधुनिकता-केंद्रित उपन्यास की आलोचना ने अनायास ही आस्था और समर्पण को विमर्श से बाहर धकेल दिया था. इस प्रवृत्ति ने उपन्यास के पाठ, उपन्यास द्वारा रचे-गढ़े जाते पाठक समुदाय और ख़ुद आधुनिकता को भी सीमित किया है. उपन्यास का जन्म आधुनिक काल में हुआ है लेकिन उपन्यास की काया में आरम्भ से ही उत्तर-आधुनिकता के गुण रहे हैं. वह बहुलता, बहुध्वन्यार्थता का उत्सव मनाता आया है.
तो फिर उपन्यास की सत्ता कहाँ स्थित है? इसका सत् कहाँ निवास करता है? इसने ऐसे युग में जन्म लिया जब मनुष्य अपने जीवन के अर्थ और तत्व ख़ुद अपनी ही आत्मा में हासिल कर सकता था, कहीं बाहर नहीं मुड़ सकता था. उपन्यास इस आत्म का पहला साक्षी और अन्वेषक बना.
उपन्यास आधुनिक युग का एपिक या महाकाव्य इसलिए नहीं है कि इससे किसी एपिक सरीखी महागाथा या विराट कलेवर में कही गयी कथा की अपेक्षा है, बल्कि यह एपिक या क्लासिक के एक बुनियादी कलात्मक दायित्व का निर्वाह करता है. महाकाव्य से अपेक्षा थी कि वह मनुष्य को उसके आत्म से साक्षात्कार कराएगा. यही अपेक्षा आधुनिक युग में उपन्यास से है. वह सामाजिक, राजनैतिक, मनोवैज्ञानिक या किसी भी श्रेणी में आता उपन्यास हो, उपन्यास का मूल्य मनुष्य के भीतर उतर उसके आत्म को उघाड़ सकने की कला में निहित है. जब हम कहते हैं कि उपन्यास समय और समाज के चित्रण में मीडिया और इतिहास से कहीं परे स्थित है, तो जाहिर है कि उपन्यास की सार्थकता किसी राजनैतिक घटना को आख्यान रूप दे लिख भर देने या विश्लेषित करने में नहीं है. कुंदेरा या सेबल्ड इसलिए बड़े उपन्यासकार हैं क्योंकि वे राजनीति के माध्यम से मनुष्य को उसकी तमाम हसरतों, व्यसनों और कमजोरियों के साथ उघाड़ते हैं.
राजनीति के हवन में स्वाहा हो रही मनुष्य की आत्मा का पुनर्वास उपन्यास का प्राथमिक कर्तव्य है. उपन्यास इस विश्वास को लिए जीता है कि मनुष्य का अस्तित्व असीम-अनंत है जिसे वह अपने पन्नों में हासिल करना चाहता है. मसलन वॉर एंड पीस का वह दृश्य— फ़्रान्स और रूस के बीच युद्ध चल रहा है. पियरे को बंदी बना दिया गया है. पृथ्वी पर बंदी अवस्था में लेते पियरे तारों से भरे आकाश को देखते हैं और सहसा उन्हें अपने अस्तित्व की असीमता का बोध होता है —
“यह मैं ही हूँ, यह सब मैं ही हूँ.”
लेकिन यहाँ उपन्यास बड़े गहरे द्वंद्व में फँस जाता है. क्योंकि एक तरफ़ तो यह इस आस्था के साथ जीता है कि मनुष्य का स्थायी घर सिर्फ़ उसकी आत्मा में ही है, लेकिन दूसरी तरफ़ इसका एक आदर्श पलिफ़नी यानी बहुध्वन्यात्मकता भी है. एक तरफ़ यह एक ऐसे आत्म, ऐसी चेतना की तलाश में है जो अपनी आकांक्षा में महाकाव्यात्मक है, शाश्वत है जिसमें समाहित हो सभी भेद मिट जाते हैं. लेकिन चूँकि यह आख़िरकार आधुनिक युग में स्थित है, सापेक्षिक और तात्कालिक सच्चाइयों का भी उत्सव मनाता है, यह भी मानता है कि सत्य और सत्ता के अनेक स्वरूप होते हैं. एक तरफ यह समर्पण करना चाहता है, लेकिन संशय को भी एक अनिवार्य मूल्य मानता है.
अगर दर्शन की पदावली में कहें तो यह अद्वैत और अनेकांतवाद को एक साथ साधना चाहता है. लेकिन इन दोनों विरोधी दिखते आदर्शों और आकांक्षाओं का निर्वाह आसानी से सम्भव नहीं है, विचार और न ही आख्यान के स्तर पर. इस बिंदु पर उपन्यास पूर्णता की असम्भव आकांक्षा को लिए जी रही एक त्रासद कथा में परिवर्तित हो जाता है.
क्योंकि उपन्यास की काया के भीतर आत्म-बोध सम्भव नहीं है. आप उस आत्म की अधिकाधिक एक हल्की सी परछाईं ही पा सकते हैं, लेकिन सम्पूर्ण बोध सम्भव नहीं. अर्जुन और पियरे दोनों को ही युद्ध भूमि में अपनी असीमता का बोध होता है. लेकिन पियरे को सिर्फ़ एक झलक भर दिखती है, क्योंकि मनुष्य के जिस विराट स्वरूप का दर्शन अर्जुन को होता है वह पौराणिक काल में ही सम्भव है, उपन्यास काल में नहीं. संशय में डूबा उपन्यास तो इस बोध पर भी प्रश्न करेगा. अगर आधुनिकता के बीज मंत्र तर्क और प्रश्न हैं, तो सबसे पहला प्रश्न ख़ुद प्रश्न पर ही आता है.
उपन्यास संशय और समर्पण के बीच डोलता ज़रूर है, आख़िर में उसका पलड़ा संशय की तरफ़ ही झुकता है.
अर्जुन, गार्गी, नचिकेता, श्वेतकेतु सरीखे अनेक किरदारों के पास चुभते हुए प्रश्न हैं, लेकिन कथा के भीतर उन्हें समाधान मिल जाता है, ज्ञान की उनकी भूख शांत हो जाती है. कृष्ण का जवाब सुन अर्जुन धन्य हो जाते हैं, याज्ञवल्क्य के जवाब से गार्गी अभिभूत हो उन्हें सबसे बड़ा ब्रह्मवेत्ता घोषित कर देती हैं लेकिन उपन्यास के किरदारों के प्रश्न कथा के भीतर नहीं सुलझ पाते, देर तक मँडराते रहते हैं. मैंने पीछे अंतिम अरण्य और अपराध और दण्ड के भीतर जल रही आस्था की लौ का ज़िक्र किया था. उसमें यह भी जोड़ना चाहिए कि दोनों ही उपन्यासों में नायक का समर्पण तात्कालिक है. प्रश्न अभी बुझे नहीं है. उपन्यास आस्था के साथ रचनात्मक संवाद जरुर करता है, लेकिन संशय मिटते नहीं हैं.
उपन्यास की सत्ता इस संशयग्रस्त आत्मा के भीतर कहीं बसी है. इसलिए अनेक महान उपन्यास तर्क और आस्था के बीच डोलते नज़र आते हैं. उपन्यास का सत् उसके अधूरेपन में, एक विखंडित जीवन की कथा कहने में है. यही इसका ऐतिहासिक और दार्शनिक कर्तव्य है.
यहाँ से हम उस प्रश्न पर लौट सकते हैं जो नेमिजी ने उठाया था- हिंदी के उत्कृष्ट उपन्यास अक्सर अपनी प्रकृति में प्रगीतात्मक क्यों हैं? किसी वृहद सामाजिक-राजनैतिक यथार्थ को थामते वक़्त उपन्यास अक्सर कमज़ोर क्यों हो जाता है. इससे मिलते-जुलते प्रश्न का उत्तर निर्मल वर्मा ने देने का प्रयास किया है. निर्मल के अनुसार यह उपन्यास की भारतीय फ़ॉर्म को न साध पाने की विफलता है.
मेरे ख़याल से इसकी वजह यह है कि उपन्यास से हमारी अपेक्षाएँ जिन्हें हम शायद स्वीकारने से भी बचते हैं हिंदी के तमाम राजनैतिक-सामाजिक उपन्यास अक्सर पूरा नहीं कर पाते हैं. यह उपन्यास दैनिक राजनीति के घटाटोप में उलझ कर रह जाता है. उस राजनीति की विषमता और क्रूरता के आख्यान को ही अपनी सफलता मान लेता है. मनुष्य के आत्म से साक्षात्कार की अपेक्षा लिए हम उपन्यास के पास जाते हैं वह पूरी नहीं हो पाती.
एक राजनैतिक उपन्यास बड़ी नुकीली धार पर चलता है. इसके लिए क्रूर आत्मचिंतन अनिवार्य है कि वह एक कलाकृति बनी रहे, किसी राजनैतिक पैम्फ़्लेट में तब्दील न हो जाए. कुंदेरा और सेबल्ड सा कलात्मक विजन बड़े जतन से हासिल होता है. राजनैतिक वक्तव्य अक्सर एकरंगी और इकहरा होता है जिसकी संगति उपन्यास के बहुस्वरीय स्वरूप के साथ नहीं होती. कोई राजनैतिक विचार किस तरह उपन्यास को प्रभावित करती है, किसी विचारधारा का प्रवक्ता बनना चाहता उपन्यास किस कदर समस्याग्रस्त हो जाता है, इसका एक बेहतरीन उदाहरण टैगोर का घरे बैयरेहै.
यह उपन्यास उग्र राष्ट्रवाद और भारतमाता के विचार को परास्त करना चाहता है. टैगोर इस कार्य के लिए बिमला को चुनते हैं. पूरे उपन्यास में पति निखिल और प्रेमी संदीप के बीच डोलती रहने के बाद बिमला अंत में वापस घर तो लौट आती है लेकिन कथा ढह जाती है.
क्या उसकी वापसी अंतिम और निरापद है? बिमला की वापसी दो दरवाज़ों से होती है- स्वदेशी आंदोलन और संदीप. उपन्यासकार टैगोर के स्वदेशी आंदोलन पर दृष्टिकोण को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि बिमला का इस आंदोलन की राजनीति से मोहभंग होना ही था, युवा क्रांतिकारियों के प्रति उसका आकर्षण अस्थायी ही रहना था. अगर बिमला आंदोलन में बनी रहती या इसकी एक प्रमुख नेता बन जाती तो यह उपन्यास राष्ट्रवादी राजनीति की इस क़दर आलोचना शायद नहीं कर पाता. उपन्यासकार ने बिमला को घर से बाहर अपने अस्तित्व को राजनीति के भँवर में तलाशने के लिए नहीं बल्कि इस राजनीति को कहीं अधिक शक्ति से ठुकरा देने के लिए भेजा था.
बिमला की दूसरी वापसी प्रेम के द्वार से दर्ज होती है जब उसे बोध होता है कि संदीप प्रेमी नहीं, फ़रेबी और फाँदेबाज है. लेकिन चूँकि टैगोर संदीप को किसी बेहतर रोशनी में चित्रित कर ही नहीं सकते थे, यह वापसी भी पूर्वनिर्धारित थी.
टैगोर के लिए संदीप को प्रेम और स्वदेशी आंदोलन दोनों ही मोर्चों पर लुढ़कते हुए दिखाना ज़रूरी था क्योंकि तभी वे उपन्यास में उस राजनीति का प्रतिकार कर पाते जिसके विरोध में वे अपने व्यक्तिगत जीवन में पहले ही एक ठोस वैचारिक मत ले चुके थे. स्वदेशी आंदोलन में संदीप जैसे किरदार भी रहे होंगे, लेकिन इसका संचालन अनेक चरित्रवान नेता भी कर रहे थे जो इस राजनैतिक विचार को कहीं अधिक निष्ठा से धारण करते थे. संदीप और निखिल के बीच के फ़र्क़ को गहरा करने के लिए टैगोर एक दुर्बल और दाग़दार इंसान को स्वदेशी आंदोलन का प्रतिनिधि बना देते हैं.
ऐसा भी आख्यान हो सकता था जहाँ संदीप अवगुणों का भंडार नहीं है और इसलिए भले ही बिमला स्वदेशी राजनीति से विमुख हो जाती है, वह संदीप की प्रेमिका या घनघोर प्रशंसक बनी रहती है. ऐसा आख्यान असंभाव्य नहीं, और यह उपन्यास के लिए अनेक रास्ते भी खोल सकता है.
लेकिन दो विकल्पों के मध्य डोलती बिमला को चुनाव करने में सहूलियत देना चाहते टैगोर विरोधी गुणों के प्रतिनिधि किरदार रचते हैं. अगर आधुनिक जीवन कठिन विकल्पों के बीच फँसे इंसान से प्रश्नाकुल चुनाव की अपेक्षा रखता है, तो बिमला को दिए गए विकल्प बड़े सरल हैं, संदीप और निखिल काले और सफ़ेद के सपाट युग्म हैं. अपने किरदारों को बाइनेरी में बाँट देना उपन्यास के लिए अक्षम्य दोष है. उपन्यासकार अपने राजनैतिक विचार के लिए स्वतंत्र है लेकिन एक उपन्यास अपने रचयिता का प्रवक्ता नहीं होता, और अगर ऐसा होने की आकांक्षा रखता है जैसा घरे बैयरे में है तो मानव जीवन की बारीकियाँ और विडम्बनायें जो कथा को समृद्ध बनाती हैं पिछले दरवाज़े से बाहर हकाल दी जाती हैं.
टैगोर उपन्यास के ज़रिए स्वदेशी राजनीति में हस्तक्षेप करना चाहते थे. लेकिन अगर उपन्यास अपना एजेंडा पहले ही निर्धारित कर अपनी कथा की कुंडली तय कर देगा, अपने किरदारों को वह स्पेस शायद नहीं दे पाएगा जहाँ वे कथानक में स्वतंत्र हस्तक्षेप कर सकते हैं.
उपन्यास का राजनीति के साथ संबंध दो उदाहरणों से और देख सकते हैं- यू आर अनंतमूर्ति का संस्कार और भारतीपुर. दोनों ही उपन्यास कर्मकांड और रूढ़ियों पर प्रश्न करते हैं लेकिन एक उपन्यास खुद प्रश्न पर भी प्रश्न करता है.
संस्कार एक दृष्टि से अपराध और दण्ड की प्रति-छवि है. राश्कोलनिकोव घनघोर प्रश्नाकुल है, तर्कशील है लेकिन स्त्री के सम्पर्क में आ उसके भीतर आस्था जन्म लेती है. इसके ठीक उलट प्राणेशाचार्य घनघोर आस्थावान है, हरेक प्रश्न का जवाब धार्मिक ग्रंथों या ईश्वरीय अनुकंपा में खोजता है लेकिन स्त्री के ज़रिए उसके भीतर विराट संशय और तमाम क़िस्म के प्रश्नों का जन्म होता है. धर्म पर प्रश्न आधुनिक नायक के जन्म का क्षण है.
लेकिन समस्या यह है यह आधुनिक क्षण औचित्यहीन और आपत्तिजनक सरलीकरण के जरिये हासिल होता है. उपन्यास की सभी ब्राह्मण स्त्रियाँ “दुर्गन्धभरी, उबाऊ, अपाहिज” हैं, जबकि छोटी जाति की स्त्रियाँ सम्मोहिनी नायिकाएँ हैं जिनकी तुलना मेनका इत्यादि से होती है. उपन्यास के ब्राह्मण चंद्री की कल्पना कर लार टपकाते हैं, अपनी लालची और रसहीन पत्नियों को कोसते हैं. किरदारों का ऐसा ध्रुवीकरण कर उपन्यास क्या प्रस्तावित करना चाहता है? क्या स्त्री का चरित्र इतने निश्चित तौर पर जातिगत होता है या विभिन्न जातियों के स्वभाव कहीं अनिश्चित और जटिल हैं? एक अछूत सम्मोहिनी स्त्री और लार टपकाते ब्राह्मणों को विपरीत धुरियों पर रख यह उपन्यास भले ही कर्मकांडों को चुनौती देता दिखाई देता हो, विरोधी युग्मों के प्रयोग से आख्यान में भले थोड़ी नाटकीयता आ जाए लेकिन आचार्य के सामने उपलब्ध विकल्पों की सरलता कथा का पैनापन हल्का कर देती है.
घरे बैयरे और संस्कार उपन्यास राजनैतिक वक्तव्य हो जाना चाहते हैं, एक स्वदेशी आंदोलन को नकारना चाहता है दूसरा कर्म-कांड के ऊपर प्रश्न की विजय दिखाना चाहता है, लेकिन इसके लिए वे बड़ी ही सरल राह चुनते हैं, उपन्यास की अपेक्षित जटिलता को हासिल नहीं कर पाते. इसके बरक्स भारतीपुर है. इंग्लैंड से पढ़कर आया नायक अछूत समाज का मंदिर प्रवेश कराना चाहता है. यहाँ भी कुरीति पर प्रश्न है. लेकिन खुद प्रश्न पर भी प्रश्न है. उपन्यास में तर्क की विजय नहीं होती. नायक कुरीतियों के प्रति विद्रोह करना चाहता था, लेकिन अंत में उसे अपने विद्रोह के खोखलेपन का भी एहसास होने लगता है, वह पहले से कहीं अधिक संशयग्रस्त है.
उपन्यास इसी संशय की महागाथा है, इसी संशयग्रस्त आत्मा का अन्वेषक है. महान उपन्यास जितने प्रश्न राजनीति और समाज व्यवस्था के सामने उठाता है, उससे कहीं विराट प्रश्न खुद मनुष्य के सामने खड़े कर देता है. वह मनुष्य को कोई रियायत, कोई सहानुभूति नहीं देता. मनुष्य को अपने निर्णयों और चुनावों के बीहड़ में अकेला छोड़ देता है, अपने आत्म से संवाद करने के लिए. इसी संशयग्रस्त संवाद में, आत्म के इसी कसमसाते उद्घाटन में उपन्यास का सत्य निवास करता है. (यह निबंध नेमिचन्द्र जैन जन्म शती के अवसर इस सितम्बर साहित्य अकादमी, दिल्ली, में पढ़ा गया था.)
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