अम्बर पाण्डेय ने साहित्य में अपनी यात्रा कविताओं से आरम्भ की, नई सदी की हिंदी कविता में उनकी उपस्थिति रेखांकित करने योग्य है. कविताओं के साथ-साथ कथा-लेखन में वह इधर सक्रिय हुए हैं. उनकी अधिकतर कहानियाँ समालोचन पर ही छपी हैं और अभी उनका कोई कहानी–संग्रह या उपन्यास प्रकाशित नहीं हुआ है. समकालीन कथा-संसार में उनकी मौजूदगी को अनदेखा नहीं किया जा सकता है.
अम्बर पाण्डेय ने विधाओं की सीमा रेखा को धुंधला कर दिया है. जैसा कि प्रतिभाशाली लेखक करते आयें हैं. कई बार कविता शीर्षक से कहानी लिखते हैं तो कोई कहानी किसी अभी नहीं लिखे या कल्पित किये गये उपन्यास का हिस्सा बन जाती है.
‘कास्ट आयरन की इमारत’ शीर्षक से अम्बर पाण्डेय की कहानी छपी है जिसे किसी उपन्यास के हिस्से की तरह भी देखा जा सकता है. इसी तरह ‘पुनर्निर्माण’ को भी स्वतंत्र कहानी की तरह पढ़ा जा सकता है और उपन्यास के अंश की तरह भी. इस कहानी में भी युग पुरुष ‘बारिस्टर गाँधी’ साथ-साथ चलते हैं. उनका समय, तबकी बम्बई और उसकी बोली बानी भी साथ-साथ चलती है.
पुनर्निर्माण-2
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बारिस्टर गाँधी दोपहर तक जनूबी अफ़्रीका जानेवाले जहाज में बैठ गए थे. इस बीच मेट्रीकुलेशन की परीक्षाओं, महाविद्यालय में प्रवेश, अपने विवाह में इतना व्यस्त रहा कि बारिस्टर से एक बार भी शान्ति से बैठकर भेंट न हो सकी थी. मेरा विवाह नर्मदादत्त जी की बहन की ननद अन्नपूर्णा से भड़ौच में अक्षय तृतीया के दिन गोधूलि बेला में सम्पन्न हुआ. अन्नपूर्णा की वय मुझसे मात्र चार वर्ष ही कम थी. उसे अक्षरज्ञान था किन्तु गणित में गति शून्य थी. पत्र और अख़बार पढ़ लेती थी किन्तु पुस्तक पढ़ने में अरुचि दिखाती थी. लिखने के नाम पर केवल अपना नाम बड़े प्रयास के बाद जैसे तैसे लिख लेती थी. भोजन बनाने में उसकी बुद्धि किंचित न लगती थी. स्वयं भी भाजी और दाल की तरफ देखती तक न थी. घी और गुड़ के साथ रोटी खाती थी और दिनभर फरसाण की फिराक में रहती थी. स्वभाव से अत्यन्त चपल थी और उसकी सबसे बुरी आदत थी मुझे अपना परमेश्वर न मानकर अपने बराबर का समझना. मैंने अनेक अंग्रेज़ी उपन्यास पढ़े थे और मुझे पता था कि स्त्री को उसके पति के बराबर माना जा सकता है किन्तु पता नहीं क्यों अन्नपूर्णा मुझे परमेश्वर माने मैं यही चाहता था. अपने प्रेम के कारण मैं विवश था.
अन्नपूर्णा के संग मेरी पहली रात उठापटक में नष्ट हुई. कुलदेवताओं की पूजा, फिर उसके और मेरे इष्टदेवता के दिन की प्रतीक्षा और उस दिन दोनों का व्रत करने के पश्चात् गणेशमन्दिर के दर्शन किए और तब अन्नपूर्णा को मेरे कमरे में रात्रिशयन के लिए भेजा गया. कुमुद का कमरा मुझे मिला. उस रात्रि पहले तो बहुत देर तक कुमुद हमारे संग बैठी रही. अन्नपूर्णा संकोच के कारण कुर्सी पर बैठी थी. थोड़ी देर में उसकी कुर्सी पर ही नींद लग गई. कुमुद सम्पूर्ण जगत का वृतान्त उस रात लेकर बैठी हुई थी, “गोवर्धन, भड़ौच में जनवासा कैसा था? शर्बत का इंतजाम तो बराबर था न”.
“तरबूज और गुलाब का शर्बत और साथ में मुँह मीठा करने को मोहनहलवा” मेरी वाणी निरुत्साह थी. जिसकी नववधू उसकी नवीन शय्या से लगी कुर्सी पर बैठी हो, रात आधी से अधिक बीत चुकी हो उसका शरबत और मिठाइयों की बात में क्या उल्लास होगा! “पंगत के बारे में बताओ न गोवर्धन, क्या क्या बना था?” कुमुद ने बात आगे बढ़ाई. इससे पूर्व मैं उत्तर देता ललिताबेन भी आकर बैठ गई. अपने विवाह के पश्चात् वह इतने वर्षों बीते अब मेरे विवाह में आई थी. बहू से अधिक उसके आने से माँ सुखी थी. उसके तीन तीन बालक ब्रजोत्सवदास, कुंजोत्सव और गोकुलोत्सव क्रमशः बारह, दस और नौ वर्ष के हो गए थे और पहली बार बम्बई आए थे. उसके पति बेलाराम पाठक जी तो इन तेरह वर्षों में पूरे बूढ़े हो गए थे और खाँसे बिना किसी कमरे में न आते थे. उन्होंने ब्रजोत्सवदास का विवाह ठहरा दिया था और आगामी देवोत्थापिनी एकादशी के पश्चात् उसका विवाह निश्चित किया था. मेरे विवाह में आने का उद्देश्य मेरा लग्न न होकर बेटे के विवाह में मामा की ओर से आनेवाले भात की व्यवस्था करना था.
“बताओ न भैया, पंगत कैसी हुई थी?” कुमुद ने पूछा. अन्नपूर्णा नींद में कुर्सी से लुढ़कने लुढ़कने को थी. “बहुत पकवान बने थे अब याद नहीं” मैंने टालना चाहा. “पत्नी आ गई तो हम पराई हो गई!” कुमुद ने कहा. उसका मुख दुःख और अचम्भे से स्थिर रह गया था. मैंने ललिताबेन की ओर देखा, वह तो मेरे लिए पराई ही थी. भात में स्वर्ण, वर्षभर का अनाज, नए जोड़े, मेवे और चाँदी के बर्तन उन्हें दे इसकी आशा में वे मेरे लिए सुवर्ण की अंगूठी और अन्नपूर्णा के लिए सुवर्णनिर्मित कर्णफूल लाई थी. अपनी सहोदरी से इतने वर्षों पश्चात् मिलने पर मुझे भार ही अधिक अनुभव हुआ. जुड़ाव जो कुमुद से था वह कभी ललिताबेन से न हो सका. मन हुआ कुमुद के सिन्दूर से सजे भाल का स्पर्श करके उसे बताऊँ कि वह अब भी मुझे भी उतनी ही प्रिय जितने मेरे विवाह से पूर्व थी और मेरा निरुत्साह केवल इसलिए है कि पूजापाठ, रीतियों को निबाहते मैं बहुत थक गया हूँ और मेरी पत्नी हमारी प्रथम रात्रि कुर्सी पर सोई है, गिरने गिरने को है. कुछ कह न सका. कुमुद की बायीं आँख के कोने में अश्रु प्रकट होते होते अदृश्य हो गया. वह उठ खड़ी हुई. भारी बनारसी साड़ी का आँचल ठीक करती हुई वह काँप रही थी.
“बक्से से निकालकर गोरस की मेरी लुटिया में दो चमचे घी तो डाल दो, ब्रजोत्सव” बेलाराम जी ललिताबेन को पुकारना होता तो ब्रजोत्सव को ही टेरते थे. वे लोग अपना घी आप लाए थे और इससे पिताजी और माँ को पहले बहुत बुरा भी लगा था. फिर उनके घी की खपत को देखते हुए सभी समझ गए कि वे अपना घी अपने संग क्यों लाए है. ललिता पति का हुकम बजाने दौड़ी. कुमुद थोड़ी देर खड़ी रही, “चल अब नहीं बनती अड़चन तेरे और तेरी पत्नी के बीच”. जाते जाते कुमुद ने ग्रीवा नहीं मोड़ी किन्तु पीछे से मित्रों जैसा हाथ बढ़ाया. उसे मैंने आगे बढ़कर पकड़ा नहीं. कुमुद ने कहा “श्रीगणेश” और चली गई.
लाख उठाने के बाद भी अन्नपूर्णा नहीं जागी. मैंने किवाड़ लगाया और उसे उठाकर बिस्तर पर सुला दिया. गुड़ और फरसाण खा खाकर मोटी का भार बहुत था. जब उसे चादर मैंने उड़ा दी तो आँखें खोलकर बोली, “मुझे पहले क्यों नहीं जगाया! कुमुद दीदी और ललिताबेन के चरणस्पर्श नहीं कर सकी”. जब कान पर जोर जोर से चिल्लाया तब नहीं जागी. जब कुर्सी से उठाकर बिस्तर पर सुलाया तब नहीं जागी और अब बिस्तरे से कह रही है कि पहले क्यों नहीं जगाया. मैंने मूँछों पर हाथ फेरते हुए पूछा, “क्या कहा?” तब तक वह पुनः सो चुकी थी या सम्भवतः सोने का अभिनय कर रही थी.
उस रात हमारी इमारत में कोई कोलाहल नहीं था. इतनी शान्ति थी कि उससे विघ्न अनुभव होता था. ऐसा लग रहा था हमारी आवाज दूर तक जा सकती है और लोग हमारी बात सुन रहे है इसलिए हमने उस रात कोई बात नहीं की. मैंने उसके कंधे पर हाथ रखा. उसने मेरा हाथ पकड़ा तब ऐसा लगा मानो उसकी हड्डियाँ नवनीत से बनी हो. देर तक मैंने उसे अपना हाथ यों ही पकड़े रहने दिया और फिर झटके से छुड़ा उसके दोनों हाथों को उसकी पीठ से लगाकर उसके संग मनवांछित व्यवहार किया. वह मौन रही.
यूरोप का इतिहास पढ़ता था तो लगता था वह न केवल सुलिखित है बल्कि उसमें एक प्रकार की पूर्णता है. भारत का इतिहास बनती हुई इमारत की तरह था. उसे पढ़कर अपूर्णता का बोध होता था. उसका अचानक अंत हो जाता था. बारिस्टर गाँधी इंग्लैंड होकर आए थे क्योंकि उनके पास रुपया था और बारिस्टर होने का उद्देश्य था. मेरे पास दोनों नहीं थे. इतिहास पढ़ने कोई इंग्लैंड जाता हो ऐसा देखा नहीं था रुपया तो था ही नहीं. पारितोषिक प्राप्त होने की भी आशा नहीं थी क्योंकि महाविद्यालय में मुझसे कहीं अधिक मेधावी विद्यार्थी थे. मुझे लगता था मैं इस संसार में धकेल दिया गया हूँ. इस स्थान पर जहाँ मैं रहता हूँ इससे कितनी दूर जा सकता हूँ! उस समय से इतिहास के किसी और काल में जाना असम्भव था. हमारे साथ हमारा समय और देश भी जन्म लेता है और हम उसी में जीने के लिए अभिशप्त रहते है.
दूसरे स्थान पर जाकर स्थान भले बदल जाए समय वही रहता है और यह स्थान भी हम क्या बदल पाते है! जहाज़ में बैठकर बारिस्टर जनूबी अफ़्रीका चले गए अधिभौतिक रूप से उन्होंने अपना स्थान बदल भी लिया हो आस्तित्तविक दृष्टि से वह अपनी नियति के बनाए काल और देश में बँधे रहेंगे. इतिहास के जेलखाने में दण्ड काटने का अनुभव मुझे इतिहास पढ़कर और भी अधिक होता था. यह सब अन्नपूर्णा समझने का प्रयास नहीं करती थी. बारिस्टर का पता ठिकाना न था कि उन्हें पत्र लिखता. एलफ़िस्टन कॉलेज में मुश्किल से मेरी मित्रता एक पारसी लड़के खोदादाद कोतवाल के साथ हुई थी. उसके पिता आतश बहराम में दस्तूरजी थे और खोदादाद के जीवन का उद्देश्य भी दस्तूरजी बनना था. वह खाने पीने और धार्मिक रीतियों की बात ही अधिक करता था.
बारिस्टर गाँधी के रसोइए रविशंकर महाराज से अवश्य भेंट होती रहती थी. हमारे घर में तम्बाकू और चायपत्ती आपूर्ति का ज़िम्मा उसका ही था. भायखला में किसी सेठ के यहाँ दिन का भोजन बनाता था. वहीं रहता था किन्तु हमारी इमारत के नीचे अक्सर पाया जाता. मेरे महाविद्यालय से लौटने की प्रतीक्षा करता रहता और मेरे आते ही मेरे पीछे पीछे आ जाता था. बारिस्टर गाँधी जिन तीन कमरों में रहते थे वहाँ उनके पीछे कोई और किरायेदार न आया था. मकानमालिक ने ताला डालकर कुंजियाँ पिताजी के हवाले की थी. मैं वहाँ पर अध्ययन करता था और महाराज मेरे लिए चाय बनाता और तम्बाकू लपेटकर सिगरेट तैयार करता था. हालाँकि एक रसोइए को मित्र मानना महाविद्यालय में पढ़नेवाले और जीवन में निश्चय ही कुछ विराट करने का स्वप्न देखनेवाले पुरुष की गरिमा के अनुरूप नहीं था किन्तु बारिस्टर गाँधी को उसकी उपस्थिति में कई बाद भांडे धोते देखकर और उसके साथ बराबरी का व्यवहार करते देखकर मैंने उसे नौकर और थोड़ा मित्र मान लिया था.
“यह लो, बढ़िया तम्बाकू है. मैंने लपेटी भी ढेर सारी है” महाराज ने सिगरेट आगे बढ़ाई. मेरे होंठों के बीच फँसाते ही उसने माचिस की जलती तीली आगे की. महाराज पतीली पर उबलती चाय छानने लगा. बाहर घनघोर वृष्टि हो रही थी और अंदर भाप छोड़ती चाय से भरा कप और एक मोटी सिगरेट मेरे हाथ में थी. बारिस्टर ऐसे दृश्य को बर्दाश्त नहीं कर पाते. वे अनुशासन के हामी थे. क्या बारिस्टर के जीवन में भी ऐसे दिन आए होंगे? महाराज मुझे ध्यान से देख रहा था. मैंने आँख उठाकर उसे देखा तो उसके धूप से काला पड़ गये माथे और चमकती किन्तु डूबती आँखें में एक विशेष कोमलता मुझे दिखाई दी. अपनी इच्छा से डूबते मनुष्य की पुतलियों में जो दीप्ति प्रकट होती है उसी दीप्ति से मुझे ब्रह्माण्ड जगमग लग रहा था. रण्डियाँ बापरना, तम्बाकू पीना और मदिरापान करना ही महाराज के दिनों को बिताए जाने योग्य बनाता था. उसके जीवन ने उसे जो जेलखाना दिया था उसमें यही खिड़कियाँ थी.
झुटपुटा छा गया था और हमारे पास चिमनी नहीं थी. मैंने पुस्तक बंद कर दी. “क्या सोच रहे हो गोबरधन भैया?” महाराज ने पूछा, “यही न कि बारिस्टर साहेब अभी होते तो कितना गुस्सा होते!” महाराज ने सिगड़ी के कोयलों को चिमनी से फूँककर प्रकाश के लिए आग सुलगा दी. “तम्बाकू, चाय, पराई औरतों से मजे करना इससे वे घिन खाते थे” मैंने लज्जित होकर कहा. यह सब करते मेरा मन दुःख में डूबने लगा था.
“ऐं, बाईस तेईस का आदमी है बारिस्टर. अभी कहाँ दुनिया जहान देखा. मूँछ तो ठीक से उगी नहीं. कौन मर्द है जो यह सब नहीं करता! और अकेले करता है क्या! लुगाई संग नहीं होती जब करता है”
महाराज प्रौढ़ पुरुष की भूमिका में कूद पड़ा.
“तो तुम्हारा मतलब है उम्र बढ़ने पर बारिस्टर में ऐसे मज़ों में मशगूल हो जाएँगे” मैं उत्सुक हो उठा. वैसे महाराज उनका चाकर था मगर वह हाँ में जवाब देता तो मेरे मन को शान्ति पहुँचती और मैं भी बिना ग्लानि के यह पाप करता. अन्नपूर्णा के आने के पश्चात मुझे स्त्री के सुख का पता पड़ा था और मैं किसी व्यभिचारिणी के जंजाल में पड़ना चाहता था. “और नहीं तो क्या! आधी रात को घबराकर कई बार उठते थे बारिस्टर साहब. उसी बखत लंगोट धोते. गृहस्थ मानुष को यह सब लफड़े तो होते ही है” महाराज ने आँखें नचा नचाकर कहा. तब क्या मेरी भाँति बारिस्टर भी स्वप्नदोष नामक व्याधि से ग्रस्त है? यह तो ऐसे चरित्रहीन पुरुषों की व्याधि है जो सतत स्त्रियों के विषय में मनन करते रहते है. बारिस्टर गाँधी ऐसे नहीं है. “महाराज, नाहक उनका नाम खराब मत करो” मैंने महाराज से कहा. वह हँसने लगा. देर तक मूर्ख किन्तु नीच मनुष्य की भाँति हँसता रहा. क्या मेरी भाँति बारिस्टर भी स्वयं को स्त्रियों के संग भिन्न-भिन्न अवस्थाओं और आसनों में कामक्रीड़ा करते देखते होंगे? मेरा हृदय यह किसी भी भाँति मानने को तैयार नहीं हो रहा था. मुझे बारिस्टर गाँधी का कवि रायचंदजी से यह कहना कि वे कामवासना से व्याकुल रहते है यह तो याद है किन्तु उन्हें कुमार्गगमन के स्वप्न आते है ऐसा मानना मेरे लिए असम्भव था.
“चलो, समय बीत चला. अँधेरा भी हो गया है. घर जाओ, मैं भी अपने घर चला” मैंने कहा और हम दोनों बाहर आ गए. सीढ़ियाँ अन्धकार से भरी हुई थी. हाथ को हाथ नहीं सूझता था. उसी अन्धकार का लाभ लेकर सम्भवत: महाराज ने कहने का साहस किया, “गोबरधन भैया, आप कहे तो महरी बुलाकर कमरे साफ करवा दूँ?” ताले में कुंजी घुमाकर मैंने उसे देखा और उत्तर दिया, “हाँ, मगर रुपया एक न मिलेगा”. महाराज उल्लसित हो गया ऐसा अन्धकार में सीढ़ी टटोल टटोलकर उतरते हुए उसकी गति में और उसके शब्दों में मुझे अनुभव हुआ, “रुपए की कौन सी बात है. इस ठिकाने मैं भी महीनों रहा हूँ. इतना तो मेरा जिम्मा है”. मैंने खिड़की से देखा वह घटाटोप वृष्टि में भीगता चला जा रहा था. उसकी आकृति रात में घुलती जा रही थी, धोती का श्वेत किन्तु अब मटमैला छोर पंकिल होकर भारी हो गया था.
अम्बर पांडेय की कई कहानियाँ मैने समलोचन पर पढ़ी हैं। उनकी कहानियों की ख़ास बात उनकी लय बद्ध और सरस भाषा होती है। इतिहास और दर्शन का भी उन्हें ज्ञान है। विषय वस्तु अक्सर उच्च कुल के किसी पुरुष के जीवन की कोई घटना होती है और वही कहानी का सूत्रधार भी होता है। कहानी हम उसी के नज़रिए से देखते हैं । स्त्री पात्र अक्सर माँ या पत्नी के रूप में ही आते हैं और ज़्यादातर कहानी के अंत तक मर चुकी होती हैं। कहानी में उनकी भूमिका भोजन बनाने, परोसने, पति को रति सुख देने, बच्चा पैदा करने के अलावा कुछ ख़ास नहीं है। ऐतिहासिक किरदार, जैसे गांधी, सावरकर अक्सर इन कहानियों में विचारते दिखते हैं। हालाँकि कहानी की विषय वस्तु से उनका कोई ख़ास लेना देना होता नहीं है। वे किसी अलंकार की तरह यहाँ -वहाँ झूलते दिखाई देते हैं। प्रश्न यह है कि यदि इन किरदारों को इन कहानियों से निकाल दिया जाए तो क्या कहानी मूल रूप से बदल जाएगी?
उनकी कहानियों में भाषा के अलावा मुझे कुछ ख़ास कभी नहीं मिलता। वे एक ही शैली में एक तरह की कहानियाँ लिखते हैं।
Vijaya Singh मुझे लगता है कि सावरकर और गांधी अलंकार नहीं काल की घड़ी के पेंडुलम की तरह झूलते हैं। यह झूलना दृश्य और परिदृश्य दोनों रचता है। मुझे लगता है जैसी कहानियाँ उसके भीतर से इन दिनों आस रहीं, यह शैली उसी के ताप से है।हर रचनाकार अपनी शैली के भीतर कथ्य के अनुसार एक नयी शैली विकसित करता है। यही उम्मीद अम्बर से भी है।
एक रूपरेखा बनाकर किसी तरह शेक्सपियर की रचनाओं को भी एक दायरे में समेट सकते हैं। साहित्य के इतिहास में ऐसा करते भी हैं। पर उसको मूल्यांकन का आधार नहीं बनाते। उदाहरण के लिए हम यह नहीं कहते कि शेक्सपियर के दुखांत नाटकों मे निम्नलिखित तत्त्व काॅमन हैं, इसलिए उनका विशेष मूल्य नहीं है। मूल्यांकन के लिए हम दूसरे मानदंड इस्तेमाल करते हैं।
तथ्यात्मक रूप से भी आपका सामान्यीकरण इतना सही नहीं है। गांधी जिन टुकड़ों में आये हैं वे एक आने वाले उपन्यास के अंश हैं। अभी हम कैसे कह सकते हैं कि गांधी कथा में यों ही आ गये हैं। सावरकर वाली कहानी को फिर पढ़कर देखिए। सावरकर का चरित्र केन्द्रीय है। उस पर मेरा एक छोटा नोट भी है। दोनों समालोचन पर मिल जायेंगे।
फिर भी मुझे मानना पड़ेगा कि अबूझ भाषा में तारीफ करने वालों/वालियों की तुलना में आपकी नजर साफ और तीखी है।
जबरदस्त। अगर ये किसी उपन्यास के अंश हैं तो मेरी इच्छा इस कृति को समग्रता में एक जगह पढ़ने की है। इस हिस्से में मृत्यु, शोक, शव, मृत्यु पश्चात संसार आदि पर बहुत अर्थगर्भी और अनुभूत बातें हैं। लेखकों की आयु उनकी शारीरिक उम्र से नहीं, उनके सोचे, जिए और लिखे की व्यापकता और गहनता से समझी जानी चाहिए। अम्बर को पढ़ कर और अम्बर से मिल कर बार बार विस्मित होना पड़ता है कि वास्तविकता में गल्पस्वरूप है कौन ? जिसे हम जानते हैं वह यह सब कब देख सुन जी आया, और जो हमसे ओझल रहा , क्या हम उसी से परिचय के मुग़ालते में रहते रहे ?
इसे बार बार पढ़ना होगा, हमेशा की तरह। कविता हो या कहानी, प्रचलित जल्दबाज़, इकहरे सरल पाठ की आदतों को अम्बर की रचनाएँ अक्सर ठेस पहुंचाती हैं।
फिर कहूँगा : इस कृति को एक साथ पढ़ने की ललक बढ़ गई है।
अम्बर की कहानी तो मुझे दूसरे लोक में ले गई जहाँ मैं अपने प्रियजनों से मिल, उनकी स्मृतियों के साथ रोती, कभी चुप लगा उन्हें सुनने का प्रयत्न करती रही… यह उपन्यास का अंश है, ऐसा लगा नहीं.. उपन्यास है तो इसने बुरी तरह बेचैन कर दिया है पहले के अधूरे उपन्यास माँमुनी की तरह…. इंतज़ार बहुत मुश्किल हो गया है… अम्बर अपना स्थान बना चुके हैं… माँ सरस्वती की कृपा बनी रहे🙏💕
सोने से पहले इस गद्य को पढ़ जाना सच में ख़तरनाक सिद्ध हो सकता है. अपने घनघोर और घटाटोप obsessions को खेलना-लिखना इस लेखक को हर बार नए सिरे से करना पड़ता होगा.. मुझे नहीं लगता अम्बर जोकि भाषा का अद्भुत धनी है उसे अपनी रची हुई ऐश्वर्यशाली दुनिया में एक पल की आश्वस्ति भी महसूस होती होगी. तलवार की धार पर हर वाक्य दम साधे स्वयं को शिल्पित करता है. कभी-कभी तो अम्बर के ध्वन्य्लोक में नाद के लावा बाकी हर तत्त्व धूमिल पड़ जाता है. इसलिए एक ही बैठक में कम से कम दो बार पढने को जी चाहता है.
मुझे अम्बर की दोएक कहानियों के लेकर जिस असहजता ने आ घेरा था यहाँ बिलकुल भी महसूस नहीं हुई. वहाँ भी दृष्टि-दोष मेरा स्वयं का हो सकता है. मुझे बहुत आनंद आया इस पाठ का अम्बर. आभार, कि तुम हो, और हिन्दी के उन दिनों में प्रकट हुए जब बीच-बीच में बेहद कमतरी का एहसास होने लगा था.
यह एक बड़े आख्यान का अंश है। पिछले अंश की तुलना में कथ्य अधिक palpable और quantifiable है।
भारत और यूरोप के इतिहास पर की गयी टिप्पणी ने क़ायल कर दिया। मृत्यु के प्रसंग और उसकी उत्तरकथा का काव्य विह्वल करता है। पूरे की प्रतीक्षा !
कहानी में लेखक अपने आत्मीय जनों की मृत्यु के बाद भी उनका जीवन और संसार में पुनर्निर्माण करना चाहता है। ये बड़ा ही रोचक है। सच है मृत्यु के बाद ही मृतक ही एक अदृश्य दुनिया हमारे साथ चलती रहती है। बस संवाद् नहीं होता।